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प्राक्कथन
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पुरातात्त्विक दृष्टिसे जैन मूर्ति कलाका इतिहास सिन्धु सभ्यता तक पहुँचता है । सिन्धु घाटीकी खुदाई में मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पासे जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमें मस्तकहीन नग्न मूर्ति तथा सीलपर अंकित ऋषभ जिनकी मूर्ति जैन धर्मसे सम्बन्ध रखती हैं । अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओंने यह स्वीकार कर लिया है कि कायोत्सर्गासन में आसीन योगी-प्रतिमा आद्य जैन तीर्थंकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है ।
भारत में उपलब्ध जैन मूर्तियों में सम्भवतः सबसे प्राचीन जैन मूर्ति तेरापुरके लयणोंमें स्थित पार्श्वनाथकी प्रतिमाएँ हैं । इनका निर्माण पौराणिक आख्यानोंके अनुसार कलिंगनरेश करकण्डुने कराया था, जो पार्श्वनाथ और महावीर के अन्तरालमें हुआ था । यह काल ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी होता है ।
इसके बादकी मौर्यकालीन एक मस्तकहीन जिनमूर्ति पटनाके एक मुहल्ले लोहानीपुरसे मिली है । वहाँ एक जैन मन्दिरकी नींव भी मिली है । मूर्ति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। वैसे इस मूर्तिका हड़प्पासे प्राप्त नग्नमूर्ति के साथ अद्भुत साम्य है ।
ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दी के कलिंगनरेश खारवेल के हाथी - गुम्फा शिलालेखसे प्रमाणित है कि कलिंग में सर्वमान्य एक 'कलिंग - जिन' की प्रतिमा थी, जिसे नन्दराज ( महापद्मनन्द ) ई. पूर्व. चौथी- पाँचवीं शताब्दी में कलिंगपर आक्रमण कर अपने साथ मगध ले गया था । और फिर जिसे खारवेल मगधपर आक्रमण करके वापस कलिंग ले आया था ।
इसके पश्चात् कुषाण काल ( ई. पू. प्रथम शताब्दी तथा ईसाकी प्रथम शताब्दी ) की और इसके बादकी तो अनेक मूर्तियां मथुरा, देवगढ़, पभोसा आदि स्थानोंपर मिली हैं ।
तीर्थ और मूर्तियों पर समयका प्रभाव
ये मूर्तियाँ केवल तीर्थ क्षेत्रोंपर ही नहीं मिलतीं, नगरोंमें भी मिलती हैं । तीर्थकरोंके कल्याणकस्थानों और सामान्य केवलियोंके केवलज्ञान और निर्वाण स्थानोंपर प्राचीन कालमें, ऐसा लगता है, उनकी मूर्तियां विराजमान नहीं होती थीं । तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थानको सौधर्मेन्द्र अपने वज्रदण्डसे चिह्नित कर देता था । उस स्थानपर भक्त लोग चरण-चिह्न बनवा देते थे । तीर्थंकरोंके पाँच निर्वाण स्थान हैं। उनपर प्राचीन काल से अबतक चरण चिह्न ही बने हुए हैं और सब उन्हींकी पूजा करते हैं । शेष तीर्थ स्थानों पर प्राचीन कालमें चरण चिह्न रहे । किन्तु वहाँ मूर्तियाँ कबसे विराजमान की जाने लगीं, यह कहना कठिन है । इसका कारण यह है कि वर्तमान में किसी भी तीर्थपर कोई मन्दिर और मूर्ति अधिक प्राचीन नहीं है । भारतीय इतिहास की कुछ शताब्दियां जैनधर्म और जैन धर्मानुयायियों के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण रहीं, जबकि लाखों जैनोंको बलात् धर्म-परिवर्तन करना पड़ा, लाखोंको अपना मातृ-स्थान छोड़कर विस्थापित होना पड़ा और अपने अस्तित्वको रक्षा और निवासके लिए नये स्थान खोजने पड़े । ऐसे ही कालमें अनेक तीर्थक्षेत्रोंसे जैनोंका सम्पर्क टूट गया । वे क्षेत्र विरोधियोंके क्षेत्र में होनेके कारण वहाँकी यात्रा बन्द हो गयी । अनेक मन्दिरोंको विरोधियोंने तोड़ डाला, अनेक मन्दिरोंपर जैनेतरोंने अधिकार कर लिया । ऐसे ही कालमें जैन लोग अपने कई तीर्थों का वास्तविक स्थान भूल गये। फिर भी उन्होंने तीर्थ - भक्ति से प्रेरित होकर उन तीर्थोंकी नये स्थानोंपर उन्हीं नामोंसे, स्थापना और संरचना कर ली । कुछ जैन तीर्थोंका नवनिर्माण पिछली कुछ शताब्दियों में ही किया गया है । उनके मूल स्थानोंकी खोज होना अभी शेष है ।
तीर्थोंपर प्रायः चरणचिह्न ही रहते थे और उनके लिए एकाध मन्दिर बनाया जाता था । जब मन्दिरोंका महत्त्व बढ़ने लगा तो तीर्थोंपर भी अनेक मन्दिरोंका निर्माण होने लगा ।
तीर्थोंपर तीर्थंकरोंकी जो मूर्तियाँ निर्मित होती थीं उनका अध्ययन करनेसे हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि वे सभी नग्न वीतराग होती थीं। जितनी प्राचीन प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, वे सभी नग्न हैं ।