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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
सम्भवतः मथुरामें सर्वप्रथम ऐसी मूर्तियां उपलब्ध होती हैं, जिन प्रतिमाओंके चरणोंके पास वस्त्र खण्ड मिलता है । कडोरा या लंगोटसे चिह्नित प्रतिमाओंके निर्माणका काल तो गुप्तोत्तर युग माना जाता है और उस समय भी इस प्रकारकी प्रतिमाओंका निर्माण अपवाद ही माना जा सकता है ।
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जब निर्ग्रन्थ जैन संघ में से फूटकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय निकला, तो उसे एक सम्प्रदाय के रूपमें व्यवस्थित रूप लेनेमें ही काफी समय लग गया । इतिहासकी दृष्टिसे इसे ईसाकी छठी शताब्दी माना गया इसके भी पर्याप्त समयके बाद वीतराग तीर्थंकर मूर्तियोंपर वस्त्रके चिह्नका अंकन किया गया। धीरे-धीरे यह विकार बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच गया कि जिन-मूर्तियाँ वस्त्रालंकारोंसे आच्छादित होने लगीं और उनकी वीतरागता इस परिग्रहके आडम्बर में दब गयी । किन्तु दिगम्बर परम्परामें भगवान् तीर्थकरके वीतराग रूपकी रक्षा अबतक अक्षुण्ण रूपसे चली आ रही है ।
तीर्थ क्षेत्रों में प्राचीन कालसे स्तूप, आयागपट्ट, धर्मचक्र, अष्ट प्रातिहार्य युक्त तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण होता था और वे जैन कलाके अप्रतिम अंग माने जाते थे। किन्तु ११वीं - १२वीं शताब्दियों के बादसे तो प्रायः इनका निर्माण समाप्त-सा हो गया । इस बीसवीं शताब्दी में आकर मूर्ति और मन्दिरोंका निर्माण संख्याकी दृष्टिसे तो बहुत हुआ है किन्तु अब तीर्थंकर मूर्तियाँ एकाकी बनती हैं, उनमें न अष्ट प्रातिहार्य की संयोजना होती है, न उनका कोई परिकर होता है । उनमें भावाभिव्यंजना और सौन्दर्यका अंकन सजीव होता है । पूजाकी विधि और उसका क्रमिक विकास
श्रावक के दैनिक आवश्यक कर्मोंमें आचार्य कुन्दकुन्दने प्राभृतमें तथा वरांगचरित और हरिवंश पुराण में दान, पूजा, तप और शील ये चार कर्म बतलाये हैं । भगवज्जिनसेनने इसको अधिक व्यापक बनाकर पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तपको श्रावकके आवश्यक कर्म बतलाये । सोमदेव और पद्मनन्दिने देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षडावश्यक कर्म बतलाये ।
इन सभी आचार्योंने देव पूजाको श्रावकका प्रथम आवश्यक कर्तव्य बताया है। परमात्म प्रकाश ( १६८ ) में तो यहाँ तक कहा गया है कि " तूने न तो मुनिराजोंको दान ही किया, न जिन भगवान्की पूजा ही की, न पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार किया, तब तुझे मोक्षका लाभ कैसे होगा ?" इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान्की पूजा श्रावकको अवश्य करनी चाहिए। भगवान्की पूजा मोक्ष प्राप्तिका एक उपाय है।
आदि-पुराण - पर्व ३८ में पूजाके चार भेद बताये हैं— नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूजा और अष्टाह्निकपूजा । अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह ( पूजा ) कहलाता है । मन्दिर और मूर्तिका निर्माण करना, मुनियोंकी पूजा करना भी नित्यमह कहलाता है । मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा की गयी पूजा चतुर्मुख पूजा कहलाती है । चक्रवर्ती द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पद्रुम पूजा होती है । और अष्टाह्निकामें नन्दीश्वर द्वीपमें देवों द्वारा की जानेवाली पूजा अष्टाक पूजा कहलाती है ।
पूजा अष्टद्रव्य से की जाती है - जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल । इस प्रकार के उल्लेख प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थोंमें मिलते हैं । तिलोयपण्णत्ति (पंचम अधिकार, गाथा १०२ से १११ ) में नन्दीश्वर द्वीपमें अष्टाह्निकामें देवों द्वारा भक्तिपूर्वक की जानेवाली पूजाका वर्णन है । उसमें अष्टद्रव्योंका वर्णन आया है | धवला टीकामें भी ऐसा ही वर्णन है । आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण ( पर्व १७, श्लोक २५२ ) में भरत द्वारा तथा पर्व २३, श्लोक १०६ में इन्द्रों द्वारा भगवान् की पूजाके प्रसंग में अष्टद्रव्यों का वर्णन आया है ।