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________________ २१३ मध्यप्रदेशके विगम्बर जैन तीर्थ वण स्कन्धचुम्बी हैं। श्रीवत्स लांछन नहीं है किन्तु छातीपर उसका चिह्न अवशिष्ट है। इससे लगता है कि श्रीवत्स अवश्य रहा होगा। प्रतिमाके सिरके पीछे अलंकृत भामण्डल है। सिरके ऊपर छत्रत्रयो सूक्ष्म शिल्पांकनसे अलंकृत है । छत्रोंके दोनों पावों में गज खड़े हैं जिनकी सूंड़ छत्रोंका आधार बनी हुई है । गज एक विकसित पुष्पपर अवस्थित हैं। पुष्पसे नीचे मालाधारी देव-देवी और गन्धर्वबाला आकाश-विहार कर रही हैं। ये सभी रत्नाभरणोंसे सज्जित हैं। देव गलेमें दोदो मालाएं, भुजाओंमें भुजबन्ध, कड़े, करधनी, मुद्रिका धारण किये हुए हैं । देवियां माला, कुण्डल, केयूर, कंगन, मेखला और मुद्रिका धारण किये हुई हैं। गन्धर्वबालाएं दो मौक्तिक माल और रत्नहार धारण किये हुई हैं। इनसे नीचेकी ओर प्रतिमाके दोनों पार्यों में सौधर्म और ऐशान इन्द्र अपनी इन्द्राणियों सहित अलंकृत दशामें खड़े हैं। हाथमें चमर धारण किये हुए हैं। उनके आभरणोंमें किरीट, कुण्डल, केयूर, कंगन, करधनी, मुद्रिका और रत्नहार सम्मिलित हैं। इन्द्राणी भी अलंकार-विभूषित है। इसकी चरण-चौकी पर कमलका लांछन अंकित है। अतः यह पद्मप्रभ तीर्थकरकी प्रतिमा है किन्तु महावीर भगवान्की मानी जाती है। यद्यपि सिंह लांछन पादपीठपर अंकित नहीं है, किन्तु कहा जाता है कि यह आसन इस प्रतिमाका नहीं है। इसका मूल आसन उपलब्ध नहीं हो पाया। एक अन्य प्रतिमा देवी पद्मावतीकी है जो इसी मन्दिरमें विराजमान है। देवी कमलासनपर आसीन है। इसका वर्ण लाल है। सिरपर किरीट और गलेमें मौक्तिक माला धारण किये हुई है। किरीटके ऊपर सप्तफणावली और उसके ऊपर पद्मासनमें तीर्थंकर प्रतिमा है। देवी चतुर्भुजी है। ऊपरके दोनों हाथोंमें अंकुश और कमल धारण किये हुई है तथा नीचेके दोनों हाथोंमें माला और सम्भवतः मूशल लिये हुई है। देवीके दोनों पावोंमें दो चमरधारी देव खड़े हैं । उनके नीचे इधर-उधर श्वानपर बैठे हुए देव हैं जो सम्भवतः भैरव क्षेत्रपाल हैं। त्रिपुरीकी कुछ मूर्तियां नागपुर संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। एक कृष्ण पाषाणकी तीर्थंकर प्रतिमाके पीठासनपर यह लेख उत्कीर्ण है-'माथुरान्वये साधुधोलु सुत देवचन्द्र संवत् ९००।' इसमें कौन-सा संवत् अभिप्रेत है, यह उल्लेख नहीं है । सम्भवतः यह कलचुरि संवत् होगा। इसी संवत् और अन्वयकी एक प्रतिमा और है, जिसकी प्रतिष्ठा मथुराके जसदेव और जयधवलने करायी थी। इसी संग्रहालयमें एक प्रतिमा महावीर स्वामीकी सुरक्षित है। यह १०वीं शताब्दीकी बतायी जाती है। कुछ मूर्तियां पेड़ोंके नीचे तथा इधर-उधर पड़ी हुई हैं। ___ इससे प्रतीत होता है कि मध्यकालमें इस प्रदेशमें चारों ओर जैन धर्मका व्यापक प्रचार था तथा कलात्मक और नयनाभिराम मूर्तियोंका निर्माण यहीं होता था। यदि यहाँ उत्खनन किया जाये तो भूगर्भसे अनेक जैन कलाकृतियाँ प्रकाशमें आ सकती हैं और वे इतिहासको एक नया दिशा-बोध दे सकती हैं। बरहटा मार्ग और अवस्थिति ____ नरसिंह जिलेके गोटेगांवसे लगभग ४० कि. मी. दूर यह स्थान है। पक्की सड़क है। नरसिंहपुरसे बसें जाती हैं। यह एक सम्पन्न कस्बा है।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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