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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
वेदिका, तोरण, घड़े आदि सम्मिलित हैं । यह सामग्री प्रायः संवत् १९२३ से १८६९ तककी है । इस सामग्री और मूर्तिलेखों का अध्ययन करनेपर कुछ रोचक निष्कर्ष निकलते हैं, जो इतिहास परिप्रेक्ष्यमें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यथा
१. चन्देल नरेश मदनवर्मनने यहाँपर जो विशाल मदनसागर नामक सरोवर बनवाया था, उसके कारण इस नगरको मदनसागरपुर या मदनेशसागरपुर कहा जाने लगा था। ये नाम संवत् १२०९ और संवत् १२३७ के मूर्तिलेखों में दो मूर्तियोंपर अभिलिखित मिलते हैं । मदनवर्मनका राज्य संवत् १९८६ से १२२० तक रहा। उसके पश्चात् उसका पौत्र और यशोवर्मनका पुत्र परमर्दी गद्दी - पर बैठा जिसका शासन संवत् १२५९ तक रहा। इसका अर्थ यह समझा जा सकता है कि नगर के ये नाम इन दोनों नरेशोंके राज्यकालमें कुछ ही समय तक प्रचलनमें रहे । सम्भव है, ये नाम बोलचाल में बिलकुल प्रचलित न हुए हों, केवल अभिलेखोंमें ही कवियोंकी कृपासे स्थान पा गये हों ।
२. मूर्तिलेखोंका वर्गीकरण करनेपर लगता है कि संवत् १९२३ से इस स्थानको एक तीर्थंक्षेत्रके रूपमें मान्यता प्राप्त हो गयी और संवत् १२३७ तक यह जनता की श्रद्धा और आकर्षणका महत्त्वपूर्णं केन्द्र रहा। इन ११५ वर्षों में ही, वर्तमानमें उपलब्ध मूर्तियोंके आधारपर कहा जा सकता है कि २५ बार यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई। इन वर्षोंमें भी संवत् १२०३ से १२३७ के मध्य २० प्रतिष्ठाएँ हुईं। इन वर्षों में भी संवत् १२०३ में ३ बार प्रतिष्ठा हुई; १२०९ में २ बार, १२१३ में २ बार, १२१६ में ३ बार बिम्ब-प्रतिष्ठा हुई। संवत् १२०३, १२०७ और १२१३ में बानपुर में विशाल प्रतिष्ठा समारोह हुआ था। वहाँ भी अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराके उन्हें यहाँ रख दिया गया था । यद्यपि संवत् १२३७ के पश्चात् भी यहाँ जब-तब प्रतिष्ठाएँ होती रहीं, किन्तु इन ३५ वर्षों में प्रतिष्ठाओं की अधिक संख्या और बहुसंख्यक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तथा इस कार्यमें अनेक जातियों के सक्रिय सहयोग से ऐसा लगता है कि उक्त अवधिमें अहार तीर्थक्षेत्र की ख्याति अपने चरम बिन्दुपर पहुँच चुकी थी। हमें आश्चर्य है कि किसी मूर्ति लेखमें अहार क्षेत्रका नाम नहीं मिलता; बानपुरमें संवत् १२०७ और १२१३ की प्रतिष्ठित कुछ प्रतिमाओंको छोड़कर प्रतिष्ठा-स्थानका भी नामोल्लेख नहीं मिलता । सम्भव है, जिन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा अहारमें हुई थी, उनकी प्रतिष्ठा वस्तुतः कहीं अन्यत्र हुई हो । किन्तु इससे स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता । असन्दिग्ध शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अहार क्षेत्रने उत्कर्षंका एक लम्बा स्वर्णिम युग देखा है और उसने शताब्दियों तक महान् ख्यातिका भोग किया है ।
३. यहाँ कभी भट्टारकोंकी गद्दी रही हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता । किन्तु इस क्षेत्र के साथ भट्टारकों का कुछ सम्बन्ध अवश्य रहा है और उनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त होती हैं । किन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यहाँ यक्ष-यक्षियोंकी मूर्तियाँ अत्यल्प संख्यामें उपलब्ध हैं । यहाँ उपलब्ध पुरातत्वमें इनकी संख्या बिलकुल नगण्य है ।
४. यहाँकी मूर्तियोंको ध्यानपूर्वक देखनेपर विभिन्न कालकी कलाका अन्तर पकड़ में आ सकता है । अतः यह संग्रहालय ११वीं शताब्दीसे १९वीं शताब्दी तकके कला-परिवर्तनका अध्ययन करने में बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है । मूर्तियों को देखकर लगता है कि तीर्थंकर मूर्तियोंपर अष्ट प्रातिहार्यं और परिकरकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया किन्तु उनके अलंकरणकी उपेक्षा नहीं की गयी ।
५. संग्रहालय में एक मूर्तिलेख नं. ८११ इस प्रकार है - संवत् ५८८ माघ सुदी १३ गुरौ पुष्य नक्षत्रे गोला पूर्वान्वये साहु रामल सुत साहु गणपति साहु, भामदेव हींगरमल सुत वंशी मदनसागर तिलकं नित्यं प्रणमति' । इसमें 'मदनसागर तिलक' यह पद शान्तिनाथ भगवान् के लिए प्रयुक्त