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________________ मध्यप्रदेशके विणकर तीर्य २३३ ये खण्डित हैं। इनसे अधोभागमें दो पद्मासन और दो खड्गासन जिन-मूर्तियां दोनों ओर हैं। उनसे नीचे द्विभुजी देवी ललितासनमें विराजमान है। देवीका बायाँ हाथ वरद मुद्रामें है। दायें हाथमें सम्भवतः घण्टा है। यह देवी सुपार्श्वनाथको शासन सेविका काली ( मानवी ) प्रतीत होती है। देवीके दोनों ओर देवीके भक्त स्त्री-पुरुष हाथ जोड़कर सिर झुकाकर खड़े हुए हैं। इसका अर्धमण्डप चार स्तम्भोंपर आधारित है। ये स्तम्भ ऐरन और तिगोवाको तुलनामें अधिक स्पष्ट हैं । इस मन्दिरके बगलमें एक खुली गुफा है।। ___ यहाँसे लौटते हुए वैष्णव और शैव गुफाएँ मिलती हैं। इनमें वराहावतार गुफा, विष्णु गुफा, अष्ट शक्ति गुफा, तवा गुफा, कोटरी गुफा, अमृत गुफा बादि गुफाएं सम्मिलित हैं। वराह गुफामें वराहके निकट दो पंक्तियोंका शिलालेख है, जिसमें परम भट्टारक महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त (द्वितीय ) के शासनकालमें संवत्सर ८२ के आषाढ़ मासकी शुक्ला ११ को महाराज छागलिकके पौत्र, महाराज विष्णुदासके पुत्र सनकादिक महाराजके दानका वर्णन है। इसी प्रकार तवा गुफामें ५ पंक्तियोंका एक शिलालेख है, जिसके अनुसार इस गुफाका निर्माण चन्द्रगुप्तके अमात्यने कराया था। इसमें यह भी उल्लेख है कि वह अपने महाराजके साथ यहां आया था। इन शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि इन गुफाओंका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय ( विक्रमादित्य) के राज्य-कालमें हुआ था। विविशा संग्रहालय में जैन पुरातत्त्व - विदिशा, उदयगिरि तथा उसके आसपास पड़े हुए तथा उत्खननमें प्राप्त पुरातत्त्वको संग्रह करके यहां संग्रहालयमें सुरक्षित रख दिया गया है। यद्यपि परिमाणमें यह सामग्री विशाल भले ही नहीं है, किन्तु यहाँ सुरक्षित सामग्री ऐतिहासिक दृष्टिसे अवश्य महत्त्वपूर्ण है। यहां संग्रहोत सामग्रीमें जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव सभी भारतीय धर्मोकी सामग्री है। यहाँके संग्रहमें सबसे प्राचीन सामग्री गुप्त-कालसे सम्बन्धित है । वह सामग्री एक जैन प्रतिमा है। उदयगिरिके निकट दुर्जनपुरा ग्राममें बेस नदीके तटपर सन् १९६९ में वहाँके एक कृषकको हल चलाते समय जो तीर्थकर मूर्तियाँ उपलब्ध हुईं थीं वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु, नौवें तीर्थंकर पुष्पदन्त तथा चन्द्रप्रभ तीर्थंकरको थीं। इनमें से प्रारम्भकी दो मूर्तियां भोपाल संग्रहालयमें सुरक्षित हैं तथा अन्तिम चन्द्रप्रभकी मूर्ति इस संग्रहालयमें विद्यमान है। इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा महाराजाधिराज रामगुप्तने करायी थी। किन्तु रामगुप्तका व्यक्तित्व विवादास्पद है। इस विषयपर अनेक सुप्रसिद्ध इतिहासकारोंने विचार किया है, किन्तु वे एकमत नहीं हो सके। रामगुप्त गुप्त-वंशके सुप्रसिद्ध सम्राट् समुद्रगुप्तका बड़ा पुत्र और चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) का बड़ा भाई था। भारतीय साहित्यमें रामगुप्तके सम्बन्धमें एक अद्भुत और रोचक घटनाका विवरण मिलता है। हर्षचरित' में लिखा है-"अरिपुरमें शक नरेश नारीवेशधारी चन्द्रगुप्त द्वारा उस समय मारा गया, जब वह परस्त्रीका आलिंगन कर रहा था।" हर्षचरितके टीकाकार शंकराचार्य ने इसकी व्याख्या करते हुए घटनाको कुछ विस्तारके साथ दिया है कि "शक १. अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनिवेशगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकमतिमशातयत्। -हर्षचरित, निर्णयसागर प्रेस संस्करण, पृ. २००। २. शकानामाचार्यः शकमतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजायां ध्रुवदेवों प्रार्थयमानः चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेबीवेषधारिणा स्त्रीवेशजनपरिवृतेन रहसि व्यापादितः। ३-३०
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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