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________________ २३४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ नरेश रामगुप्तकी पत्नी ध्रुवदेवीको चाहता था । इसलिए वह अन्तःपुरमें चन्द्रगुप्तके हाथों मारा गया, जिसने अपने भाईकी पत्नी ध्रुवदेवीका रूप धारण कर रखा था । उसके साथ कुछ अन्य लोग नारी-वेषमें थे ।” राष्ट्रकूट- नरेश अमोघवर्षके शक संवत् ७९५ ( ई. सन् ८७३ ) के एक ताम्रलेख में भी इस घटनाका उल्लेख किया गया है । कवि विशाखदत्तके देवी- चन्द्रगुप्त नाटक में भी यही कथावस्तु दी गयी है । रामगुप्त एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । किन्तु रामगुप्तके - जीवनकाल में एक ऐसी घटना हो गयी, जिससे उसके व्यक्तित्वको क्लीब, निर्बल और स्वार्थपरक व्यक्तित्वके रूपमें समझनेको हमें बाध्य किया और इसकी कालिख की लपटमें चन्द्रगुप्त द्वितीय भी आ गया । शक नरेशने रामगुप्तसे उसकी सुन्दर पत्नी ध्रुवदेवी माँगी। रामगुप्त ऐसी विकट स्थिति में फँस गया कि वह ध्रुवदेवीको देकर जनता के जीवन और धनकी रक्षा करे अथवा ध्रुवदेवीकी सुरक्षा करके जनताको निर्दय शकोंके हाथों सौंप दे। उसने देश और जनताके हितके लिए अपनी पत्नी देना ही उचित समझा । किन्तु उसके अनुज चन्द्रगुप्तका दृष्टिकोण उससे भिन्न था। वह न ध्रुवदेवीको देना चाहता था, न जनताको हिंस्र भेड़ियोंके हाथ सौंपनेको तैयार था। बल्कि वह 'शठके प्रति शाठ्य' वाली fast मानता था । वह अपने कुछ चुने हुए वीरोंके साथ स्त्रीवेशमें तैयार हुआ। शकराज बड़ी ललकके साथ ध्रुवदेवीको आलिंगनमें लेनेके लिए आगे बढ़ा किन्तु स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त ने उसका काम तमाम कर दिया । ध्रुवदेवी चन्द्रगुप्तके अप्रतिम शौर्यपर रीझ गयी और उसने उसकी बांहों में अपने शीलको सुरक्षित समझा । चन्द्रगुप्त ध्रुवदेवीके सौन्दयंपर मोहित हो गया । उसने ध्रुवदेवीके सौन्दर्य और शीलमें भारतीय आत्माके दर्शन किये। उसने तत्काल निर्णय किया और कण्टकस्वरूप क्लब रामगुप्तको मारकर राज्यपर अधिकार कर लिया । भारतके सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहासमें चन्द्रगुप्त द्वितीय का विशिष्ट स्थान है । किन्तु अपने बड़े भाईकी स्त्रीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह करना और भाईको मारकर राज्य हथियाना यह भारतकी नैतिक परम्परा और प्राचीन आदर्शोंके विपरीत है। अतः इस घटनासे चन्द्रगुप्तकी प्रतिष्ठापर एक काला धब्बा दिखाई पड़ता है । सम्भवतः इस कारण से कुछ इतिहासकार इतिहासके इस कटु सत्यको सहज रूपसे निगल नहीं पाये । इसलिए उन्होंने इस घटनाको नकारना ही उचित समझा। इतना ही नहीं, रामगुप्त के अभिलेखों और सिक्कोंकी उपलब्धि के बावजूद महाराजाधिराज-पदधारी रामगुप्तको मालवका एक काल्पनिक माण्डलिक राजा मान लिया, जिसका इतिहासमें कोई अस्तित्व नहीं है । यह कितने आश्चयंकी बात है कि समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त और स्कन्ध गुप्तके ऐरन, उदयगिरि, प्रयाग, गढ़वा, साँची, सकौर (हटासागर), विलसद (एटा), मानकुँअर ( इलाहाबाद ), मण्डसर ( मालवा ) में मिले शिलालेखों और १. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवींश्च दीनस्तथा, लक्ष्यं कोटिमलेखयत् किल कलो दाता स गुप्तान्वयः । येनात्याजिततु स्वराज्यमसकृत् बाह्यर्थकैः का कथा, हस्तस्योन्नति - राष्ट्रकूटतिलको ददाति कीर्त्यामपि ॥ . - राष्ट्रकूट ताम्रलेख, ऐपिग्राफिका इण्डिका, भाग ४. पू. २५७ ॥ २. The Classical Age, by R. C. Majumdar, p. 18, Bharatiya Vidya Bhawan Bombay.
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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