SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कोई सूचना नहीं है। किसी प्राचीन स्थलकोशसे भी इसका समर्थन नहीं होता। इसी प्रकार वर्तमानमें जहाँ द्रोणगिरि (छतरपुरके निकट) माना जाता है, उसके निकट फलहोड़ी गाँवका पता सरकारी कागजोंसे भी नहीं लगता। कुछ विद्वान् फलहोड़ी और फलोधी ( मारवाड़ ) की किंचित् समानताके कारण फलहोड़ीकी पहचान फलोधीसे करते हैं और उसको द्रोणगिरिके साथ सम्बद्ध करनेका निष्फल प्रयास करते हैं, जबकि वहाँ द्रोणगिरि नामक पर्वत है ही नहीं। इन सब स्थितियोंपर विचार करनेपर हमें लगता है कि कुछ शताब्दियोंसे तो द्रोणगिरि ( छतरपुरके निकटवाला) तीर्थक्षेत्र माना ही जा रहा है। सम्भव है, वहाँपर मन्दिर बनानेवालोंको मान्यताविषयक परम्पराका समर्थन मिला हो। सभी सम्भावनाओं और फलितार्थोंपर विचार करनेके पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि शताब्दियोंसे जिसे सिद्धक्षेत्रके रूपमें मान्यता और जनताकी श्रद्धा प्राप्त है, वह तीर्थक्षेत्र तो है ही। विशेषतः उस स्थितिमें, जबकि किसी दूसरे द्रोणगिरिको सम्भावना नहीं है। अतः वर्तमान द्रोणगिरि ही सिद्धक्षेत्र है, यह मान लेना पड़ता है। क्षेत्र-वर्शन द्रोणगिरिकी तलहटीमें सेंधपा गांव बसा हुआ है। गांवमें एक जैन मन्दिर है। यहीं जैन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। धर्मशालासे दक्षिणकी ओर दो फलांग दूर पर्वत है। पर्वतके दायें और बायें बाजूसे काठिन और श्यामली नदियां सदा प्रवाहित रहती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानों ये सदानीरा पार्वत्य सरिताएं इस सिद्धक्षेत्रके चरणोंको पखार रही हों। पर्वत विशेष ऊँचा नहीं है। पर्वतपर जानेके लिए २३२ पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं। चारों ओर वृक्षों और वनस्पतियोंने मिलकर क्षेत्रपर सौन्दर्य-राशि बिखेर दी है। पर्वतके ऊपर कुल २८ जिनालय बने हुए हैं। इनमें तिगोड़ावालोंका मन्दिर सबसे प्राचीन है। इसे ही बड़ा मन्दिर कहा जाता है। इसमें भगवान् आदिनाथको एक सातिशय प्रतिमा संवत् १५४९ की विराजमान है। सम्मेदशिखरके समान यहाँपर भी चन्द्रप्रभ टोंक, आदिनाथ टोंक आदि टोंक हैं। यहाँ १३।। फुट ऊंची एक प्रतिमाका भी निर्माण हुआ है। ___अन्तिम मन्दिर पाश्वनाथ स्वामीका है। उसके नीचे ३ गज ऊँची, १॥ गज चौड़ी और ४-५ गज लम्बी एक गुफा बनी हुई है। इस गुफाके सम्बन्धमें विचित्र प्रकारको विविध किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। एक किंवदन्ती यह है कि सेंधपा गांवका रहनेवाला एक भील प्रतिदिन इस गुफामें जाया करता था और वहाँसे कमलका एक सुन्दर फूल लाया करता था। उसका कहना था कि गफाके अन्तमें दीवारमें एक छोटा छिद्र है। उसमें हाथ डालकर वह फूल तोड़कर लाता था। उस छिद्रके दूसरी ओर एक विशाल जलाशय है। उसमें कमल खिले हुए हैं । वहाँ अलौकिक प्रभा-पुंज है । बिलकुल इसी प्रकारको किंवदन्ती मांगीतुंगी क्षेत्रपर भी प्रचलित है। एक दूसरी किंवदन्ती है कि यह गुफा १४-१५ मील दूर भीमकुण्ड तक गयी है। पर्वतकी तलहटीसे एक मील आगे जानेपर श्यामली नदीका भराव है, जिसे कुडी कहते हैं। वहां दो जलकुण्ड पास-पासमें बने हुए हैं, जिनमें एक शीतल जलका है और दूसरा उष्ण जलका । यहां चारों ओर हरं, बहेड़ा, आँवला आदि वनौषधियोंका बाहुल्य है। यहाँका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त आकर्षक है। इस वनमें हरिण, नीलगाय, रोज आदि वन्य पशु निर्भयतापूर्वक विचरण करते हैं। कभी-कभी सिंह, तेंदुआ या रीछ भी इधर जल पीने आ जाते हैं।
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy