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सिहौनिया
इतिहास
सिहोनिया क्षेत्र अहसिन नदीके तटपर अवस्थित है। इस नगरके सुद्धनपुर, सुधानियापुर, सुहानिया, सिहोनिया, सुधीनपुर, सिंहपाणीय आदि कई नाम मिलते हैं। इस नगरकी स्थापनाके सम्बन्धमें कहा जाता है कि यह नगर ग्वालियरके संस्थापक राजा सूरजसेनके पूर्वजोंने दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित किया था। प्रारम्भसे ही यह नगर जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है। पहले इस नगरका नाम क्या था यह तो पता नहीं चलता किन्तु वर्तमान नाम सिहोनिया सूरजसेनके नामपर ही पड़ा है। कहा जाता है कि जब राजा सूरजसेनका कुष्ठ रोग ग्वालियर किलेमें स्थित कुण्डके जलमें स्नान करनेके कारण दूर हो गया, तब उसने अपना नाम शोधनपाल या शुद्धनपाल रख लिया। उनके इस नाम-परिवर्तनकी स्मृति सुरक्षित रखनेके लिए नगरवासियोंने इस नगरका नाम सुद्धनपुर या सुघानियापुर रख लिया। यही नाम बदलते-बदलते सुहानिया या सिहोनिया हो गया।
इस राजाकी जैन धर्ममें गाढ़ श्रद्धा थी। उसकी रानी कोकनवती भी जैन धर्मकी अनुयायी थी। उसने सन २७५ में कोकनपूर मठका बड़ा जैन मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर ग्वालियरके किलेमें विद्यमान है। इसके अतिरिक्त इसने सुहानियाके निकट भी एक जैन मन्दिर बनवाया था । यहां चौथी-पांचवीं शताब्दीमें जैसवाल जैनोंके बनवाये हुए ११ जैन मन्दिर थे, इस प्रकारके उल्लेख भी मिलते हैं। ___ यह भी कहा जाता है कि यह नगर अपने वैभव-कालमें १२ कोसमें विस्तृत था। चारों दिशाओंमें नगरके चार फाटक थे। कहा नहीं जा सकता कि यह बात कहां तक ठीक है । किन्तु इसके चारों ओर एक-एक, दो-दो कोसकी दूरीपर बिलोनी, बोरीपुरा, पुरवास और बाढ़ा नामक ग्रामोंमें दरवाजोंके अवशेष और चिह्न अब तक मिलते हैं। यदि ये अवशेष प्राचीन सुहानिया नगरके ही हों तो इसमें सन्देह नहीं कि यह नगर अवश्य ही इतना विशाल रहा होगा।
१०वीं शताब्दी तक यहाँ जैन धर्मका प्रभावशाली प्रचार रहा । किन्तु उसके पश्चात् यहाँ आक्रमण होने लगे और कोई शासन अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह सका। फलतः नगर उजड़ने लगा। इन्हीं दिनों मुस्लिम शासकोंने यहांके मन्दिर और मूर्तियोंका ध्वंस कर दिया। सम्भवतः तब से अब तक यह स्थान उपेक्षित दशामें पड़ा रहा।
अब बीसवीं शताब्दीमें जैनोंका ध्यान इसके जीर्णोद्धार की ओर गया है। क्षेत्रका इतिहास
___ लगभग ५० वर्ष पूर्व अम्बाहनिवासी ब्रह्मचारी गुमानीमलजी धर्म-प्रचार करते हुए कमतरी (अम्बाहके निकट एक गांव) पहुंचे। रात्रिमें उन्हें स्वप्नमें उस ग्रामके निकटवर्ती जंगलमें भगवान् जिनेन्द्रकी अति मनोज्ञ मूर्तियां दिखाई दीं। प्रातःकाल होते ही वे स्वप्नमें देखी हुई मूर्तियोंके अन्वेषणके लिए जंगलोंमें चल दिये। खोज करते हुए वे सिहोनिया पहुंचे। वहां उन्हें वही टीला