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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ यह पता चलता है कि प्रतिहार राजा भोजने इसे जीतकर अपने कन्नौज राज्यमें मिला लिया था। विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें कच्छपघाटवंशी वज्रनाभन नामक नरेश (१००७-१०३७ राज्य शासन) ने ग्वालियरको जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया। वि. सं. १०३४ में उसने एक जैनमूर्तिकी प्रतिष्ठा भी करायी थी, जैसा कि मूर्ति-लेखसे ज्ञात होता है। इससे पता चलता है कि जैन धर्मके प्रति इस नरेशकी गहरी आस्था थी। इस वंशके अनेक राजा हुए-जैसे मंगतराज, कीर्तिराज, भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल, मधुसूदन आदि-जिन्होंने ग्वालियरपर शासन किया। फिर प्रतिहारवंशकी द्वितीय शाखाने इसपर अपना अधिकार कर लिया। वि. सं. १२४९ में दिल्लीके शासक अल्तमशने दुर्गपर घेरा डाल दिया और काफी
श किया। सारंगदेव और १५०० वीर राजपत वीरतापूर्वक लडे और मातभमिके लिए बलि हो गये । राजपूत स्त्रियोंने हजारोंकी संख्यामें अग्निकी भयंकर ज्वालाओंमें कूदकर जौहर-व्रत लिया और इस प्रकार अपने सतीत्वकी रक्षा की। राजमहलकी ७० रानियाँ पहले आगमें कूदी, फिर अन्य स्त्रियाँ कूदीं । जहाँ जौहर हुआ, वह जौहर ताल अब भी मौजूद है। किलेपर अल्तमशका अधिकार हो गया।
वि. सं. १४५५ में जब कूदी तैमूरलंगने भारतपर प्रबल वेगसे आक्रमण किया, उस समय अराजकतापूर्ण स्थितिसे लाभ उठाकर वीरसिंह नामक एक तोमरवंशी सरदारने ग्वालियरपर अधिकार कर लिया। यह अलाउद्दीनके सेनापति सिकन्दरखां की नौकरीमें था और ईसामणि भोला ( डाण्डरौली परगना ) का रहनेवाला था। ग्वालियरपर इस वंशका अधिकार वि. सं. १५९३ तक रहा। इस वंशमें अनेक नरेश हुए जिन्होंने ग्वालियरपर १०५ वर्ष तक शासन किया। उन नरेशोंके नाम इस प्रकार हैं-वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव ( वीरमदेव ), गणपतिदेव, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह, कल्याणमल, मानसिंह, विक्रमसाह, रामसाह, शालिवाहन, उनके दो पुत्र श्यामसाह और मित्रसेन । अपने शासन-कालमें इन सभी राजाओंका जैन धर्मके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रहा । अतः इनके शासनकालमें जैन धर्म और जैन कलाको फलने-फूलनेका खूब अवसर प्राप्त हुआ। इन तोमरवंशी नरेशोंमें-से महाराज दूंगरसिंह अथवा दूंगरेन्द्रदेव और कीर्तिसिंहकी आस्था जैन धर्मपर पूर्ण-रूपसे रही। डूंगरसिंहका शासन-काल तीस वर्ष था और कीर्तिसिंहने पचीस वर्ष तक शासन किया। इन दोनों ही नरेशोंके राज्यकालमें गोपाचलपर अनेक भव्य और विशाल मूर्तियोंका निर्माण हुआ और अनेक प्रतिष्ठोत्सव हुए।
तोमरवंशके बाद दुर्गपर लोदीक्श, मुगलवंश, सिन्धियावंश और अंगरेजोंका शासन रहा। ताजुल-मआसिरके लेखक एक मुगल इतिहासकारने इस किलेको हिन्दके गलेमें पड़े हुए किलोंके रत्नहारका एक उज्ज्वल रत्न बताया है। किसीने इसे दक्षिण भारतका प्रवेश-द्वार बताया है। किलेके इस महत्त्वके कारण ही इसे इतना राजनैतिक महत्त्व प्राप्त हुआ और इसपर विभिन्न राजवंशोंके आक्रमण निरन्तर होते रहे। -------- जैन प्रतिमाएँ
-~-ऊपर कनिंघम द्वारा खोजे गये जिस जैन मन्दिरका उल्लेख किया गया है, वह किलेमें हाथी दरवाजा और सास-बहूके मन्दिरके मध्यमें अवस्थित है। कनिंघमके अनुसार इसे मुगल शासन-कालमें मसजिदके रूपमें परिवर्तित कर दिया गया था। खुदाई करते समय नीचे एक कमरा मिला है। उसमें कई दिगम्बर जैन मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासन और कायोत्सर्गासन दोनों ही प्रकारकी हैं। एक लेख वि. सं. ११६५ का मिला है। इस कमरेमें दो वेदियाँ बनी हुई हैं। उत्तरकी