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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ देशोऽस्ति हरियानाख्यः पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः । ढिल्लिकाख्यपुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता । यहाँ तोमरोंसे अभिप्राय अनंगपालसे है। इस सम्बन्धमें विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थके भाग १ में किया जा चुका है। इसी तोमरवंशकी एक शाखा ग्वालियरमें शासन करती थी। इस वंशके शासनकालमें जैनधर्मको प्रगति करनेका पूर्ण अवसर मिला। जैनधर्मके प्रति तोमरवंशके शासकोंका व्यवहार उदार और सहानुभूतिपूर्ण रहा । इस वंशके कई राजा तो जैनधर्मके अनुयायी भी थे। कई राजाओंके मन्त्री जैन थे। यहाँके राजाओंपर भट्टारकोंका बड़ा प्रभाव था और वे उनके शिष्य थे। इस कारण इस कालमें ग्वालियरमें अनेक मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ। अनेक प्रतिष्ठोत्सव हुए तथा अनेक जैन ग्रन्थोंका प्रणयन और प्रतिलिपि हुई। ___महाराज वीरमदेवका मन्त्री कुशराज था। वह जैसवाल जैन वंशमें उत्पन्न हुआ था। इस मन्त्रीने ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठोत्सव बड़े समारोहके साथ किया था। - कुशराजने पद्मनाभनामक एक कायस्थ विद्वान्से यशोधरचरित्र नामका एक काव्य ग्रन्थ लिखनेका अनुरोध किया था। पद्मनाभने उनके अनुरोधको स्वीकार करके भट्टारक गुणकीर्तिके संरक्षणमें इस संस्कृत काव्य-ग्रन्थकी रचना की। ___वीरमदेवके राज्यकालमें यहाँ अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ भी हुई जो अब भी विभिन्न शास्त्र-भण्डारोंमें मिलती हैं। जैसे सं. १४६० में गोपाचलमें साहू वरदेवके चैत्यालयमें भट्टारक हेमकीतिके शिष्य मुनि धर्मचन्द्रने सम्यक्त्व कौमुदीकी प्रति आत्म-पठनाथं लिखी, यह तेरापन्थी मन्दिर जयपुरके शास्त्र-भण्डारमें सुरक्षित है। सं. १४६८ में भट्टारक गुणकोतिको आम्नायमें साहू मरुदेवकी पुत्री देवसिरोने 'पंचास्तिकाय' टीकाकी प्रति करवायी, जो कारंजाके शास्त्रभण्डारमें है। सं. १४६९ में आचार्य अमृतचन्द्र कृत प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका टीका लिखी गयी थी। संवत् १४७९ में जौतुको स्त्री सरोने षट्कर्मोपदेशको प्रति लिखवाकर अर्जिका विमलमतीको पूजा-महोत्सवके साथ समर्पित की। यह प्रति आमेरके शास्त्र-भण्डारमें विद्यमान है। महाराज डूंगरसिंहकी जैनधर्ममें पूर्ण आस्था थी। वह कुशल राजनीतिज्ञ, अप्रतिम साहसी और पराक्रमी योद्धा था। नरवरको जीतकर उसने अपने राज्यका बहुत विस्तार कर लिया था। नरवरके दुर्गमें उसने अपनी विजयके उपलक्ष्यमें जयस्तम्भ भी बनवाया। गोपाचल दुर्गकी ऊबड़खाबड़ चट्टानोंमें सम, सुडौल और विशाल प्रतिमाओंका निर्माण उसके शासनकालमें प्रारम्भ हुआ। यह सिलसिला उसके पुत्र कीर्तिदेवके शासनकालके अन्त तक चला। - इनके शासनकालमें अनेक नये ग्रन्थोंका निर्माण हुआ। भट्टारक यशःकीतिने संवत् १४९७ में पाण्डवपुराण, १५०० में हरिवंशपुराणको रचना अपभ्रंश भाषामें की। जिनरात्रिकथा, रविव्रतकथा और चन्द्रप्रभ चरित आदि ग्रन्थ भी इन्होंने बनाये। स्वयंभूदेवके हरिवंशपुराणकी जीर्ण-शीर्ण प्रतिका भी उद्धार इन्होंने कराया। ___ अपभ्रंश भाषाके महाकवि रइधू ग्वालियरके ही रहनेवाले थे। महाराज डूंगरसिंह और उनके पुत्र महाराज कीर्तिसिंह दोनों ही नरेश इस महान कविके भक्त थे। रइधूने अपनी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ लिखी हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें उन्होंने ग्वालियर, पद्मावती, उज्जयिनी, दिल्ली, हिसार आदि स्थानोंको तत्कालीन राजनैतिक, आर्थिक और
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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