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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थं
३०९ होगी । इन मन्दिरोंके अतिरिक्त इस भूभागमें जो भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं, वे उन्हीं ९९ मन्दिरोंके प्रतीत होते हैं । जो मूर्तियां और शिलालेख यहाँ मिले हैं, वे सब प्रायः बल्लालके समय अथवा पश्चात्कालके हैं, बल्लालसे पूर्वका कोई लेख, मूर्ति अथवा मन्दिर नहीं मिला। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बल्लालसे पहले इस स्थानको तीर्थंके रूपमें मान्यता नहीं थी । बल्लालने तीर्थक्षेत्र होनेके कारण यहाँ मन्दिरोंका निर्माण नहीं कराया था, अन्य किसी कारणसे कराया था । यदि तीर्थभूमि होने के कारण उसने यहाँ मन्दिरोंका निर्माण कराया होता तो उसे यहाँ वैष्णव मन्दिर बनवानेकी क्या आवश्यकता थी । बल्लाल अपने जीवन में मन्दिरोंका ही निर्माण करा सका, मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तो उसके बादमें हुई । जो जैन मूर्तियां अब तक भूगर्भसे प्राप्त हुई हैं वे संवत् १२१८, १२५२ और १२६३ की हैं। ये सब बल्लालके भी बादकी हैं। इस स्थानका नाम कभी पावा रहा हो, ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिलता । किन्तु इन सब तर्कोंके विरुद्ध एक प्रबल समर्थक प्रमाण उपलब्ध होता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि ईसाकी १५वीं - १६वीं शताब्दी में यह स्थान तीर्थक्षेत्र के रूपमें मान्य था । १५-१६वीं शताब्दी के विद्वान् भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थं - वन्दना' में इस क्षेत्रका माहात्म्य प्रकट किया है जैसा कि पिछले पृष्ठों में निवेदन कर चुके हैं । उसमें यद्यपि ऊन नगरके शिखरबद्ध मन्दिरोंका वर्णन है, किन्तु वह वर्णन वस्तुतः पावागिरि क्षेत्रका ही है क्योंकि न तो ऊन कोई क्षेत्र है और न पावागिरि क्षेत्रका किसी अन्य पद्यमें माहात्म्य ही प्रकट किया है। अतः इसमें तो सन्देह नहीं है कि यह वर्णन पावागिरिसे सम्बन्धित है । इससे सिद्ध होता है कि १५वीं - १६वीं शताब्दी में यह तीर्थ यहाँ माना जाता था ।
इन समस्त तर्कोंके बावजूद हमारा एक निवेदन है । यदि वास्तविक पावागिरि क्षेत्र वर्तमान ऊन न होकर कोई अन्य स्थान है, तब जबतक उसके सम्बन्ध में निश्चित प्रमाण उपलब्ध न हों, तबतक सन्देह और सम्भावनाओंके बलपर वर्तमान क्षेत्रको अमान्य कर देनेकी बातको गम्भीरता के साथ नहीं लिया जा सकता । पक्ष-विपक्षके तकं उपस्थित करनेमें हमारा आशय शोधछात्रों और विद्वानोंके समक्ष तथ्य उपस्थित करना है जिससे पावागिरि सिद्धक्षेत्र वस्तुतः कहाँ है, इसका निर्णय किया जा सके ।
क्या पव क्षेत्र पावागिरि है ?
पवा क्षेत्र झांसी जिलेमें झांसी और ललितपुर के मध्यमें तालवेहटसे १३ कि. मी. दूर है । यह क्षेत्र घने जंगलों में दो पहाड़ियोंके बीच में स्थित है । क्षेत्रका प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यन्त मनोरम है । एक ओर बेतवा बहती है, दूसरी ओर बेलना । चारों ओर पहाड़ियाँ और इन सबके बीच में क्षेत्र है । उत्तरकी ओर जो नदी बहती है, उसे नाला कहा जाता है । इसके कई नाम हैं । नालेको बाँधके पास 'बैला नाला' कहते हैं और दूसरे बाँधके पास इसका नाम 'बेलाताल' है । यह ताल बहुत बड़ा है। आगे पहाड़की परिक्रमा करता हुआ यह नाला 'बेलोना' नामसे पुकारा जाता है । • किन्तु थोड़ा और आगे चलकर इसे 'बेलना' कहते हैं ।
क्षेत्रपर एक भोंयरा है, जिसमें ६ तीर्थंकर मूर्तियां हैं। कुछ मूर्तियाँ बावड़ी की खुदाई में भी निकली थीं। एक मूर्तिकी चरण-चौकीपर प्रतिष्ठाकाल संवत् २९९ उत्कीर्ण है । किन्तु मूर्तिकी रचना-शैलीसे यह संवत् १२९९ प्रतीत होता है । इस लेख में 'पवा' शब्द भी लिखा हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि मूर्ति की प्रतिष्ठा यहीं पर हुई थी ।
इस क्षेत्र अधिकारियोंकी मान्यता है कि यह क्षेत्र बहुत प्राचीन है तथा यही पावागिरि क्षेत्र है, यहींसे स्वर्णभद्र आदि चार मुनि मुक्त हुए थे। बेलना नदी ही वस्तुतः चेलना नदी है ।