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________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ तबसे यह अतिशय क्षेत्र कहलाने लगा । यहाँ अब भी कभी-कभी अतिशय होते देखे जाते हैं, ऐसी अनुश्रुति है । ११७ कभी-कभी पहाड़ीसे अर्धंरात्रिको दो देव आकाशमार्ग से आते हैं। उनके दोनों हाथों में प्रज्वलित दीपक और सिरपर कलश रहते हैं । वे शान्तिनाथ मन्दिरमें दो घण्टे रहते हैं । इसके पश्चात् लोटकर वे उसी पहाड़ीपर चले जाते हैं । कभी-कभी रात्रिमें मन्दिरमें बाजों की ध्वनि सुनाई देती है । अनेक भक्तजन शान्तिनाथ स्वामीके समक्ष मनौती मानने आते हैं और उनकी कामना पूर्ण होती है । सिद्ध क्षेत्र कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि यह स्थान सिद्ध क्षेत्र भी है। उनके मतसे भगवान् मल्लिनाथके ती में इस स्थान से मदनकुमार केवली मुक्त हुए तथा भगवान् महावीरके तीर्थमें आठवें अन्तःकृत केवली श्री विष्कंवल यहींसे मोक्ष पधारे। इन दोनों केवलियोंकी मोक्षप्राप्तिके स्थानके सम्बन्धमें कोई उल्लेख हमारे देखनेमें नहीं आया है । इस विषयमें खोज करनेपर जो कुछ ज्ञात हुआ, वह अत्यन्त रोचक है । किन्हीं ब्रह्मचारीजीने बताया कि मैंने एक शास्त्र भण्डार में हस्तलिखित शास्त्र देखा था । उस शास्त्रका नाम है 'चौबीस कामदेव शास्त्र' (पुराण) इसके रचयिता हैं अन्तिम अवधिज्ञानी मुनि 'श्री' | यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध है। इसके हिन्दी - टीकाकार हैं पं. धर्मदास । कहा जाता है कि उक्त शास्त्रमें सन्धि १७ गाथा ३५ में वर्णन है कि १७वें कामदेव बलराज अपरनाम मदनकुमार मल्लिनाथके पीछे और मुनिसुव्रतनाथके पहले हुए थे । गाथा ३७ के अनुसार वे बुन्देलखण्डके गगनचुम्बी वलयाकार पर्वतसे मोक्ष पधारे। वहीं पासमें गगनपुर शहर था। उस समय इस नगरपर विघ्नवर्धन राजा राज्य करता था । उसकी रानीका नाम शान्तिदेवी था । उस रानीने प्रभाचन्द्र मुनिके उपदेशसे पहाड़पर शान्तिनाथ भगवान्का जिनमन्दिर बनवाया । उसमें शान्तिनाथ भगवान्‌की ९ फुट ऊँची देशी पाषाणकी खड्गासन प्रतिमा स्थापित की और उसकी प्रतिष्ठा अगहन सुदी १५ बुधवारको पंचकल्याणपूर्वक कर दी । इन्हीं के वंशमें निषिद्धपुर नगरमें राजा नीसधर और रानी विरलादेवीसे नलराज ( मदनकुमार ) का जन्म हुआ था । उसका विवाह कुण्डलपुरके राजा भीमसेन और रानी पुष्पदत्ताकी पुत्री दमयन्ती के साथ हुआ । पिताके बाद मदनकुमारने शासन किया । उसने मदनपुर नगर बसाया और मदनसागरका निर्माण कराया । किसी मुनिके उपदेशसे प्रभावित होकर उसने संन्यास ग्रहण कर लिया और घोर तप द्वारा अपने कर्मोंका नाश करके अहारसे मुक्ति प्राप्त की । महावीरके तीर्थंमें आठवें अन्तः कृत केवली श्री विष्कंवल किसी श्रेष्ठी के पुत्र थे । किसी मुनिराज के उपदेशको सुनकर श्रेष्ठी और उसकी पत्नीने दीक्षा ले ली। विष्कंवल मुनि होकर अन्तःकृत केवली हुए और अहारसे मुक्त हुए । सेठ-सेठानी कल्पवासी स्वर्गं ( सम्भवतः तीसरे स्वर्ग में ) देव-देवी हुए । वे अहार क्षेत्रका माहात्म्य प्रकट करनेके लिए स्वर्गसे प्रति एक हजार वर्ष बाद यहाँ आकर पीतलको सोना अथवा रांगाको चांदी करके अतिशय दिखाते हैं । सेठ पाड़ाशाह के रांगाको इन्हीं वैमानिक देव-देवीने चांदी बना दिया था । इससे पूर्व उन्होंने विक्रमसिंह राजाके समय में साहू लूहड़के पीतलको सोना कर दिया था । इस कहानीको पढ़-सुनकर मनमें जिज्ञासा जागृत हुई कि -
SR No.090098
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1976
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size19 MB
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