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प्राकृत व्याकरण * mmsamreamsterrorkerrrrrrrorisorosor हे भमा-श्रमण ! संस्कृत संबोथन एक वचन रूप है । इसके प्राकृत रूप हे खमा-ममण और खमासमणो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-३ से '' स्थान पर रन की पामि से 'x' में स्थित 'र' का लोप, १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप-हे रमा-समण ! और हे खमा-समणो सिद्ध हो जाते हैं।
हे माय ! संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप है अज्ज | और हे अयो! होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर '' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति = से प्राप्त 'ज' को विष 'उज' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे अज्ज ! और है जो सिद्ध हो जाते हैं ।
हे हरे संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे हरी ! और हे हरि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'हरि' में स्थित अन्त्य गुरव स्वर 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हेहरी ! और हे हरि ! सिद्ध हो जाते हैं।
हे गुरू ! संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे गुरु ! और हे गुरू! होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विमक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'गुरु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ज' को वैकल्पिक रूप से दोघं 'क' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे गुरू ! और हे गुरु ! सिद्ध हो जाते है। .
___ जाति-विशुद्धन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाह-विसुद्ध' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४७ से 'त' का लोप; १-२६० से श के स्थान पर 'स' को प्राप्ति ३-६ से तृतीया विर्भाक्त के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश प्राप्ति और ३-१४ सं आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शटदान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'जाइ-विमुखेण" रूप सिद्ध हो जाता है।
हे प्रभो । संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पहू ! और हे पछु ! होते हैं । इन में सूत्र संख्या :-७. से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति
और ३-३८ से संबोधन के एक बचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'प्रभु' में स्थित अनय हस्व स्थर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दंघ स्थर 'ऊ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'हे पर • और हे पाहु' सिद्ध हो जाते हैं।
ही संस्कृत का विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप दोरिण होता है । इसमें सत्र-संख्या