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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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o f worstoorvostoriesrooooom हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठो बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाष होने से' 'श्रा' की प्राप्ति और ३.६ से प्रामगि 'सव्वा में षष्टी विमक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'सवाण' सिद्ध हो जाता है।
'वि' अमय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है।
पार्थिवानाम संस्कृन षष्ठो बहुवचनान्त विशेषण रु.प है। इसका प्राकृत रूप पस्थिवाण होता है। इसमें सूत्र-सख्या ५-८४ से 'पा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-L. से '' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए, 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्ष 'थ' के स्थान पर 'त' को प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्तांग 'पस्थिव' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के 'धागे षष्टी बहुवचन-बाधक प्रत्यय का सद्भाव होने सं' 'श्रा' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'पस्थिवा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'पस्थिवाण' सिस हो जाता है।
एषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप एस (भी) होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-८४ से संपूर्ण रूप 'एषा' के स्थान पर 'एस' की (वैकलिपक रूप से) श्रादेशप्रालि होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है।
__ महिः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्रीलिंग संता रूप है। इसका प्राकृत रूप मही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३.१६ से प्रथमा विक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्रव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मही रूप सिद्ध हो जाता है।
'एस' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है।
स्वभाषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप सहाको होता है। इममें सूत्र-संख्या ५-७६ से प्रथम 'च' का लोप: १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व' का लोप और ३-7 से प्रातांग सहा ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'दो = श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सहामो रूप सिद्ध हो जाता है।
"चिवा' अव्यय की सिदि सूत्र-संख्या ?-८ में की गई है।
शधरस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिग संज्ञा रूप है । इसका प्राकृत रूप ससहरस होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२६० से दोनों 'शकारों के स्थान पर दोनों 'सम' की मारित; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति और ३-१० से प्राप्तांग 'ससहर' में षष्ठा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'इस अस-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स' की प्राप्ति होकर ससहरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है ।