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प्राकृत व्याकरण - +o++++++++ +++++++++++++++++++++++o++++++++++++++++++++ से इस प्रकार हैं:-(१) एवं, (२) अण, (३) आणइं. ४) अणहिं, (५ एपि, (६) एपिणु. (७) रवि
और (८) एविणु । इन आठ प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को धातु में जोड़ देने पर उसका 'के लिये' ऐमा अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है । जैसे:-- १) त्यक्तुं = चएवं छोड़ने के लिये । (२) भोक्तुं= भुञ्जण = भोगने के लिये । (३) सेवितुं - सेवणहं - सेवा करने के लिये । (४) मोक्तुं मुञ्चहिन्छोड़ने के लिये। (५) कत्तम् करेवि = करने के लिये । (६) क्तं - करेविणु= करने के लिये । (७) ऋतु - करेवि और (6) करेपिणु = करने के लिये । वृत्ति में प्रदत्त गावाओं में उपरोक्त बाठों प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग कम से यों किया गया हैं: -
(१) एवं' प्रत्यया दातुं = देवंग के लिये। (२) 'अण' प्रत्यय; फतु = करण = करने के लिये । (३) 'अणई' प्रत्यय; भोक्तुं मुञ्जगह - भोगने के लिये । (४) 'अहि' प्रत्यया भाक्तुं = भुञ्जणाई = भोगने के लिये । (५) एप्षि' प्रत्यय; जेतुं जेप- जोतने के लिये । (६) एपिणु' प्रत्यय; त्यक्तुं = चएप्पिणु = छोड़ने के लिये । (५) 'एवि' प्रत्ययः पालयितुम् = पालेवि = पालन करने के लिये । (८) एरिणु प्रत्यय लातुं - लेविणु = लेने के लिये ।
उक्त दोनों गाथाओं का पूरा अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृतः-दातु दुष्करं निजक धन, कर्तु न तपः प्रतिभाति ।।
एवं सुखं भोक्तु मनः, परं भोक्तु न याति ।१।। हिन्दोः-अपने धन को दान में देने के लिये दुष्करता अनुभव होती हैं; तप करने के लिये भावनाएँ नहीं उत्पन्न होती हैं और मन सुख को भागने के लिये व्याकुल मा रहता है; परन्तु सुख्ख भीगने के लिय संयोग नहीं प्राप्त होते हैं ॥ ॥ इम गाया में हेत्वर्थ-कृदन्त के रूप में प्रयुक्त किये जान वाले चार प्राय व्यक्त किये गये हैं; जोकि धान्त रूप से ऊपर लिख दिये गये हैं ।।१।। संस्कृतः-- जेतु त्यक्तु सकलां धरी, लातु' तपः पालयितुम् ।।
विना शान्तिना सीयश्वरेण, कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥२॥
___ हिन्दी:-सर्व प्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के लिये और तत्पश्चात् पुनः उसका ( वैराग्य पूर्ण रीति से ) परित्याग करने के लिये एवं व्रतों को ग्रहण करने के लिये तथा तप को पालने के लिये ( यों