Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 671
________________ [ ६५ ] बीस वि (विशति) दस और दन -- बोस, ५२३ । [श] वीसरई सक. (विस्मरति) भूलता है. ७५. ४२६ ॥ वीसालई सक. (मिषयति) मिलाता है. २८।। शकबुबइ सक. (व गति) जाता है, ३१२। | " मकई अ. (कमोति) सकता है, ममर्थ होता है ८६, चुमोटिव सं.कृ. (अजित्वा) जाकर के, ३१२ । २३०. ४२२, ४४१ ।। १. युटोपिगु सं.कु. (वजित्वा) जाकर के, ३९२।। ' THE | "मिक सक. (शिने) मीखता है, पड़ना है, ३४५। वुत्तउं वि. (उक्तम्) कहा हुआ, | " मिम्वन्ति मा (शिक्षने) सीखते हैं, पढ़ते हैं, ३७२ । बुन वि. विषण्ण)दुखी, खिन्न, ४२१ । न. (शिक्षाम् शिक्षा को ४०४,४०५ । वेअडइ सक. (सत्यति) जड़ा है शकावाल तेज न शक्रावतार तीर्थ) एक तीथं का वेड पु.(वेदः) हिन्दू धर्म के आदि गंध, नामः ३०१,३०२ । वेग्गला बि. (भिन्न:) अलग, पृथक, १७९ । । शचि त्रि. (संधिनः) इकटठा किया हुआ, ४४७ । वेश्वइ सक, (व्ययं करोति) खर्च करता है, ४१९! | शर वि. (शत) मौ; वेढा सक. (वेष्टते)वह लपेटता है, घेरता है, २२१ । । शम्सक. (वेष्टते) लपेटता है, " समद अक. (शाम्यति) व शारा होता है। १७ । वेदिजइ प्रेर. वेष्टयते। लपेटा जाता है, २२१।। " चमड़ प्रक. (उपशाम्पति' वह शान्त होता है.२३१ । वेण न. (वचन) बचन, शब्द, बोल; ३२९।। “उबशयदि अक. (उपशाम्यति वह वान्त होता है।२९९। वेत्तसो पु-(वेतसः) वृक्ष-विशेष बेंत का मूल;३.५। | शमणे पु. श्रिमण: साधु, तपस्वी; ३०२। वेप-वेवइ बक. (वेपते) कांपता है। १४७ । | शयणा पु. (म्बजनानाम् अपने आदमियों का; ३०.। वेमय सक. भिनक्ति' भाँगता है, तोड़ता है, १०६ । । शयलं वि. (सकलम) सम्पूर्ण, पूरा; २८८। वेरिष वि. (वैरिणः वमन, शत्र, ४३१।। शलिशं वि. (महशम्) समान जैसा: ०२ वलवा सकञ्च यति उगता है, पीडा करता है। शञ्चक वि. (सबैज्ञः) सब कुछ जानने वाला; २९३ । ।। शस्तगह वि. (सार्थवाहः) समुह वा मुखिया, संप-नायक वेलवइ सक. (उपालभते) उलाहना देता है; १५६ + | शस न. (पान) घास, तृग; २८९ । वेबइ अक. (रमते) क्रीडा करता है. खेला है.१६८१ शहा वि. (सर) हजार; ४४७। वेस पु. (वेष:) कपड़ों का पहिनाष ड्रेस; २८५ । शामकाव्यगुणे (सामान्य गुण:) साधारण गुण; २९३ . वेहवा सक, (वश्वयते) उगता है; २३ । शामी वि. (स्वामी) मालिक वोकह सक. (विज्ञाति) विज्ञप्ति कराता है, २८ । शालशे पु.(सारमः) पक्षी विशेष; सारस २८८1 सक. (वीजयति हवा करता है, | शिल न. (शिरस्) माया, मस्तिष्क, शिर; २८८ । वोलइ सक. गच्छति । जाता है; १६२ । | शिषबोलीणो वि.(अलिक्रान्तः। बीता हुआ * सीसह सक, (दशेषति । बचा रखता है; २३६ । घोसट्टन सक. विकराति) खिलता है। १९५० "विमिद टु दि. (विशिष्टः विशेष प्रकार का, ३५८ । वोमट्टो वि. (विकसितः) खिला हुआ; २५८, शुपलिगदिदे वि. (सुपरीगृहीतः) अच्छी तरह से ग्रहण वोतिरामि सक. (त्-प्रबामि मैं परित्याग करता हूँ। किया हुआ; ३७२। २२९।। शुभऋतु न. (प्रतम् ) नियम, मर्यादा, प्रत्याख्यान; | "सोभित अक. (शोभते) शोभा पाता है। ०९। ३९४ । सोहइ अक. शोभते) शोभा पाते है; ४४४ । त्रासु पु. (यास.) 'रामायण' के रचयिता महा- | शम्मिलाए स्त्री. (ममिलायाम) [ अच्छे तरंगों वाली ३०२। कवि ३९९ । । । (नाम विशेष) खोज सक.

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