Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2 Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi Publisher: ZZZ Unknown Catalog link: https://jainqq.org/explore/090367/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण ܘܘ܀ || णमो सिद्धाणं ।। ज्ञान- महोदधि आचार्य हेमचन्द्र-प्रणीतम् हिन्दी - व्याख्याता स्वर्गीय, जैन दिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, जगत्-वल्लभ, पं. रत्न श्री १००८ श्री चौथमलजी महाराज के प्रधान शिष्य, बाल ब्रह्मचारी पं. रत्न, श्रमण संघीय उपाध्याय श्री १००८ श्री प्यारचन्दजी महाराज **** प्राकृत - व्याकरणम् [ प्रिवोदय हिन्दी व्याख्या सहितम् ] द्वितीय-भाग संयोजक - श्री उदय मुनिजी महाराज, सिद्धान्त-शास्त्री 700* संपादक: पं. रतनलाल संघवी म्यामतीर्थ - विशारद, छोटी सादड़ी, ( राजस्थान) मुल्य बारह रुपया पचास पैसे १२ - ५० ********** वीराब्द २४६३ विक्रमाब्द २०२४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-व्याकरण-प्रथम-भाग पर प्राप्त कुछ एक सम्मतियों का विशिष्ट अंश (१) कविरत्न, गंभीर विचारक, उपाध्याय श्री अमर मुनि नी महाराज साहब फरमाते हैं कि:-"यह हिन्दी टोक। अपने कक्ष पर सर्वोत्तम टीका है । प्रत्येक सूत्र का हिन्दी अर्थ है, मूत्रों में उदाहरण स्वरूप दिये गय समग्र प्रयोगों की विश्लेषणात्मक साधनिका है और यत्र तत्र यथावश्यक शंका समाधान भी है । मेरे विचार में उक्त हिन्दो टोका के माध्यम से साधारण पाठक भी आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण का सर्वागीण अध्ययन कर सकता है।" ता. १५-११-६६ (२) प्रसिद्धवक्ता, पंडित रत्न, मालप-कैमरी श्री सौभाग्यमलजी महाराज साहब लिखाते हैं कि:-"आपने जो प्राकृत व्याकरण भाग पहिला सरल भाषा में तैयार किया है, वह प्राकृत-भाषा के अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी तथा उपकारक हुआ है।" ता. २३-११-६६ (३) स्थानकवासी जैन - अहमदाबाद अपने ता. ५-१-६५ के अंक में प्रकाशित करता है कि:-या ग्रन्थ नु संयोजन कराने प्राकृत भाषा ना अभ्यासिओ माटे खूबज अनुकूलता उभी करी आपो छे ते माटे ग्रन्थ ना योजक, संयोजक अने प्रकाशक नो सेवा सराहनीय छ' (४) तरुण जैन-जोधपुर अपने ता. ६-७-६५ के अंक में प्राप्ति-स्वीकार करता हुआ लिखता है कि:-''प्राकृत-व्याकरण के ऊपर प्रियोदय हिन्दी-व्याख्या नामक बिस्तृत टीका की रचना करके प्राकृत-भाषा के पाठकों के हित में अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य किया है। हिन्दो-व्याच्या प्राकृतभाषा को समझने समझाने में पूर्ण रूपेण सक्षम है । प्राकृत शब्दों को सावनिका का निर्माण भी सूत्र-संख्या का निर्देश करते हुए किया है। इससे प्राकृत-व्याकरण को पढ़ने पढ़ाने की परिपाटो सदा के लिये भविष्य में भी सुरक्षित हो गई है।" (५) सुप्रसिद्ध जैन विद्वान, गंभीर लेखक और विचारक भी इल सुख भाई मालवणिया ता. २३-१-६७ के पत्र में लिखते हैं कि-"हिन्दो व्याख्या के साथ प्रकाशन जो हुआ है वह प्राकृत-भाषा के व्याकरण को बिना किसी की सहायता के जो जिज्ञासु पढ़ना चाहते हैं उनके लिये सहायक ग्रन्य के रूप में अवश्य सहायक सिद्ध होगा। व्याकरण में दिये गये प्रत्येक उदाहरण की व्याकरण की दृष्टि से सिद्धि करके दिखाई है-उससे अध्येता का मार्ग सरल हो जाता है । इसका विशेष प्रचार हो-यही कामना है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) प्राकृत-भाषा के अद्वितीय विद्वान पं. श्री वरदासनी अपने पोस्ट कार्ड ता. २५-६-६४ में लिखते हैं कि:-"व्याकरण मोकली ने मने आभारी कर्यो छे।" (७) वं मुनि श्री जिनेन्द्र विजयजा लीबड़ा (काठियावाड़। से अपने पोस्ट कार्ड ता. १५-१२-६६ में लिखते हैं कि:-''पू. हेमवन्द्र सू. म. ना व्याकरण ने हिन्दी--विवेचन अने समजावट थी सारी रोते प्रगट करायो छ जे प्राथमिक अभ्यासोओं माटे अणु उपयोगी थशे ।" (८) गुजरात युनीवरसिटी में अधमागधी भाषा के विशिष्ट प्रोफेसर डॉ. के. बार चन्द्रा अपने ता. १०-१-६७ वाले पत्र में लिखते हैं कि:-''सरल भाषा में हिन्दी अनुवाद सब के लिये उपयोगी होगा । हरेक शब्द की सिद्धि व्याकरण के सूत्रों द्वारा समझाई गयी है, काफी परिश्रय किया गया है। विश्व विद्यालययों के प्राकृत के विद्यायियों के लिये यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है । वैसे हिन्दी भाषा में यह ग्रन्थ अपूर्व है।" (6) पं. श्री अंबालाल प्रेमचन्द शाह व्याकरण तीर्थ. अहमदाबाद अपने पत्र ता. २-१-६७ में लिखते हैं कि:-"आपने प्राकृत-व्याकरण का विस्तृत अनुवाद, उदाहरणों की व्युत्पत्ति और शब्द व धातुओं के अर्थ का कोश देकर ग्रन्थ को सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है, जिससे विद्यार्थियों को खूब उपयोगी बन पड़ेगा।" (१०) श्री मूलचन्दजी सा. जन शास्त्री-श्री महावीरजी-राजस्थान अपने पत्र में लिखते हैं कि:-'इसके बल पर प्राकृत-भाषा का जिज्ञासु अपनी ज्ञान-पिपासा अच्छी तरह से शमित कर सकता है । यह बड़ा ही उपयोगी सुन्दर कार्य संपन्न हुआ है।" (११) मास्टर मा बी शोभालालजी महेता उदयपुर अपने पोस्ट कार्ड ता. १९-५-६६ द्वारा लिखते हैं कि:-“पहिला भाग जो मेरे पास आया, बड़ा सुन्दर एवं प्रशंसनीय है । समझाने को अच्छो शैली है ।"-- {१२) “सम्यग्दर्शन" सैलाना के सुयोग्य संपादक थी रतनलालजी साहब डोशो अपने पत्र "सम्यग्दर्शन" के वर्ष १७ अंक २२ ता. २० नवम्बर ६६ में लिखते हैं कि:-"प्राकृत भाषा के अभ्यासियों के लिये यह ग्रन्थ बहुत लाभ दायक होगा।" (१३) "गुजरात युनीवरसीटी-अहमदाबाद" के भाषा--विज्ञान के सम्मान्य प्रोफेसर "श्री ए. सी, भयाणो" अपने पत्र में ता. ६-२-६७ को लिखते हैं कि:-"प्राकृत-व्याकरण (हिन्दी व्याख्या सहित) मल्युं । ते माटे आपनो आभारी छु । अत्यन्त श्रम लईने बधां सूत्रो जीणवट थी अने अन्य जे जे सूवो लागु पडतां होय तेम नी पूर्ति साये विशदता थी समझाया छ । प्राकृत ना अभ्यास नी रुचि के लोक प्रियता ओछी थती जाय छे त्यारे या प्रकार नी व्याख्या वालुं व्याकरण अभ्यासी ने खूबज उपयोगी थाय तेम छ ।" सम्पादक संघवी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्राकृत-भाषा जन-भाषा है । प्राकृत का क्षत्र संस्कृत से कहीं अधिक व्यापक है। धर्म, दर्शन, संस्कृति, काव्य, कोष, लोक-जीवन, इतिहास, आयुर्वेद एवं ज्योतिष, आदि महत्त्व पूर्ण विषयों के अनेक सहस्त्र ग्रन्थ प्राकृत और उसकी पुत्री स्थानीय जन-भाषाओं में उपलब्ध है । प्राकृत का मल बहुत गहग है, अतीत में बहुत दूर तक गया है । संस्कृत में कहे जाने वाले प्राचीन वेद, उपनिषद् आदि में भो यत्र तत्र प्राकृत भाषा का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है । अष्ट्रावक विश्वामित्र, विश्वावसु, हरिश्चन्द्र, सिंह, शाखा आदि वर्णागम और विपर्यय बाले संस्कृत-भाषा में सहस्राधिक शब्द-रूप एसे हैं जो मूलतः संस्कृत के नहीं ; प्रावात भाषा का उत्कृष्ट अध्ययन किये बिना भारतीय जन-जोवन एवं भारतीय संस्कृति की मूल धारा को ठोक तरह नहीं देखा-परखा जा सकता। किसी भी भाषा का अध्ययन ब्याकरण पर आधारित है। व्याकरण मुख है। "मुखं व्याकरणम् स्मृतम्" व्याकरण का अध्ययन किये बिना जो किसी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं वे भूल में हैं। इस प्रकार का पांडित्य मूल-माही न होकर केवल पल्लवनाही होता है; और पल्लव ग्राही पांडित्य अपन लिये भी विडम्बना का हेतु है और दूसरों के लिये भी । यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने व्याकरण के अध्ययन पर अत्यधिक बल दिया है । यहाँ व्याकरण की एक पूरी को पूरी विद्या शाखा ही बन गई है। एक व्यक्ति यदि व्याकरण साहित्य का अध्ययन करता चला जावे तो अनुश्रुति है कि इसी में बारह वर्ष जितना दीर्घ काल लग जाय । "द्वादशभिर्वव्याकरणं श्रयते" विष्णु शर्मा की यह सदुक्ति व्याकरण साहित्य की विपुल समृद्धि की ही परिचायिका है। अस्तु । प्राकृत-भाषा का भी अपना म्बतन्त्र व्याकरणसाहित्य है । चण्ड, त्रिविक्रम, वररुचि आदि अनेक प्राचीन विद्वानों ने प्राकृत व्याकरण को रचना की हैं। वे व्याकरण प्रचारित हैं और उन पर अनेक टीकाएँ और उपटीकाएँ भी लिखी गई हैं परन्तु उक्त समग्र व्याकरणों से नवीन शैली में लिखा गया सरल, सुगम, एवं सुबोध व्याकरण आचार्य हेमचन्द्र का है। प्राचार्य हेमचन्द्र विरचित प्राकृत व्याकरण एक हो ऐसा सर्वांगीण व्याकरण है, जिससे मागधी, अर्थ मागधो, शौरसेनी, पंशाची, अपभ्रंश आदि प्राकृत की अनेकविध शाखाओं का सम्पग-परित्रोध हो सकता है । प्रस्तुत व्याकरण के अद्यावधि अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं अतः वे सभी अपनी अपनी भूमिका पर उपयोगी भी हैं । परन्तु प्राकृत-भाषा का साधारण अध्येता भी उक्त व्याकरण से लाभ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) उठा सके ऐसा अब तक एक भी संस्करण प्रकाश में नहीं आया है। श्रद्धेय उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज का इस ओर ध्यान गया और उन्होंने बड़े परिश्रम और अपने गंभीर अध्ययन के बल पर आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण की विस्तृत हिन्दी टोका का निर्माण किया । यह हिन्दी टोका अपने कक्ष पर सर्वोत्तम टोका है। प्रत्येक सूत्र का हिन्दी अर्थ है; सूत्रों के उदाहरण स्वरूप दिये गये समग्र प्रयोगों की विश्लेषणात्मक सावनिका है और यत्र तत्र ययावश्यक शंका समाधान भी है। मेरे विचार में उक्त हिन्दी टीका के माध्यम से साधारण पाठक भी श्राचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत - व्याकरण का सर्वांगीण अध्ययन कर सकता है। श्रद्धेय उपाध्याय प्यारचन्दजी महाराज से मेरा घनिष्ट परिचय रहा है। एक प्रकार से वे मेरे अभिन्न स्नेही सहयोगी रहे हैं। विभिन्न बिखरी हुई साम्प्रदायिक परम्पराओं का विलीनीकरण के हेतु किये जाने वाले श्रमण संघ के संगठन में उनका महत्त्व पूर्ण योगदान में कभी नहीं भूल सकता हूँ। जब कभी कोई समस्या लहरी, उन्होंने अपने को भुला कर भी समाधान का मार्ग प्रस्तुत किया। अत्यन्त मृदु, शान्त, एवं उदार प्रकृति के सन्त थे । उपाध्याय श्रीजों की साहित्यिक अभिरुचि भी कुछ कम नहीं थी । साहित्यिक क्षेत्र में उनकी अनेक कृतियाँ आज भी सर्व साधारण जिज्ञासुओं के हाथों में देखी जाती हैं । उसी साहित्य निर्माण की स्वर्ण-श्रृंखला में आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्रस्तुत प्राकृत-व्याकरण का संपादन वस्तुतः मुक्ता- मणि-कल्प है । उपाध्याय श्रीजी के सुयोग्य शिष्य-रत्न पं. श्री उदय मुनिजी सहस्रशः धन्यवादाहं हैं कि जो स्वर्गीय गुरुदेव को प्रशस्त रचनाओं को जन हितार्थ प्रकाश में ला रहे हैं। यह एक प्रकार का गुरु-ऋण है जिसको श्रद्धा-प्रक्षण मनीषी शिष्य ही यथोचित रूप से प्रदा करते हैं एवं युगयुगान्तर के लिय सुचिर यशस्वी बनते हैं । जैन - भवन लोहा मंडी आगरा १५-११-१९६६ } उपाध्याय - अमर मुनि 1. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-व्याकरण सूत्रानुसार-विषयानुक्रमणिका सूत्रांक १६ से २४ २५ और २६ तृतीय-पादः क्रमांक विषय १ कोप्सात्मक शब्दों के संबंध में प्रत्यय-लोप-विधि २ प्राकृत-भाषा के अकारान्त पुल्लिग-शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान । ३ प्राकृत भाषा के इकारान्त-उकारान्त पुल्लिग शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का संविधान ४ प्राकृत-भाषा के नपुंसक लिंग-वाले शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक प्रत्यों का संविधात प्राकृत-भाषा के स्त्रीलिंग वाले आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त शब्दों के संबंध म विभक्ति-बोध-प्रत्ययों का संविधान प्राकृत भाषा के शब्दों के संबोधन के एक वचन में प्राप्तव्य-रूप-विवेचना __ विवसन्त शब्दों में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों को संयोजना होने पर अन्त्य स्वर की हप्चत्व-प्राप्ति का विधान ८ प्राकृत-भाषा के ऋकारान्त शब्दों के संबंध में विभक्ति बोधक प्रत्ययों का संविधान ९ "राजन्" शब्द के प्राकृत-रूपान्तर में विभक्ति वोधक-प्रत्ययों का संविधान । १० हलन्त नकारान्त संस्कृत शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में विभक्ति बोधक प्रत्ययों का संविधान २७ से २६ ४४ से ४८ ४९ से ५५ ५६ और ५७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक १६८ १७५ १०५ २०९ विषय सूत्रांक पृष्ठांक ११ अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत-रूपारान्त मे विभक्तिबोधक प्रत्ययों का संविधान ५८ से ६१ १२३ १२ "किम्, तद्, यद, एतद्, और इदम" सर्वनामों के प्राकृत-रूपान्तर में विभक्तिबोधक-प्रत्ययों का संविधान ६२ से ७१८० रो ८६ - १३४ १३ "इदम्" शब्द के संबंध में विभक्ति-बोध-प्रत्ययों का संविधान ७२ से ७९ १५० "अदस्" शब्द के संबंध में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान "आमद" सर्वनाम शब्द के प्राकृत-भाषा में आदेशप्राप्ट रूप-समूह "अस्मद्" सर्वनाम शब्द के प्राकृत-भाषा में आदेशप्राप्त रूप-समूह १८८ संख्या-वाचक शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में विभक्तिबोधक-रूपों का संविधान १२३ २०० १- अवशिष्ट शब्द-रूपावलि के संबंध में विशेष विवरण १२४ से १२९ १९ द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की संप्राप्ति का संविधान चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी-विभक्ति को संप्राप्ति का निरूपण २१ विभिन्न विभक्तियों की परस्पर में व्यत्यय-प्राप्ति तथा स्थानापन्नता का संविधान १३२ से १३७ २२७ २२ संज्ञाओं से क्रिया-रूप बनाने की विधि का निर्देश १३८ २३ वर्तमान-काल में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में धातुओं में प्राप्तव्य प्रत्ययों का सविधान १३९ से १४५ २४ संस्कृत-पातु "अस्" की प्राकृत-भाषा में रूप-व्यवस्था १४६ से १४८ २५४ २५ प्रेरणार्थक क्रियापद के रूपों का संविधान १४१ से १५३ २६ अकारान्त धातुओं के अन्त्य "अ" के स्थान पर काल बोधक प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर "आ" अथवा "ह" अथवा "ए" की प्राप्ति का निरूपण । १५४ से १५५ २७ "कर्मणि-प्रयोग, भावे प्रयोग" विधि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान १६० और १६१ २. भूतकाल-विधि से संबंधित प्रत्ययों का गंविधान १६२ ओर १६३ 930 १३१ २९३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय सूत्रांक पृष्ठशक २९९ ३१६ ३२३ २९ संस्कृत-धातु "अस्" के भूत-कालीन रूपों का संविधान ३० "विधि-आत्मक' विधि से संबंधित प्रत्ययों ___ का संविधान १६५ ३१ "भविष्यत्-काल" से संबंधित प्रत्ययों का संविधान १६६ से १७२ ३२ आज्ञार्थक प्रादि अवशिष्ट लकार-विषि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान १७३ से १७६ ३३ सभी लकारों में, तथा इनके सभी कालों में एवं दोनों वचनों में और तीनों पुरुषों में समान रूप से प्रयुक्त होने वाले "ज" तथा "ज्जा" प्रत्ययो का संविधान १७७ ३४ कुछ एक लकारों में अकारान्त के सिवाय शेष स्वरान्त धातुओं के और प्रयुज्यमान प्रत्ययों के मध्य में बैकल्पिक रूप से प्राप्त होने वाले विकरण प्रत्यय रूप "ज्ज" और "ज्जा" की संयोजना का संविधान ३५ “क्रियातिपत्ति" विधान के लिये प्राप्तब्य प्रत्ययों का संविधान १७९ और १८० ३६ "वर्तमान-कृदन्त" अर्थक प्रत्ययों का निरूपण ३७ "स्त्रीलिंग के सदभाव" में वर्तमान-कृदन्त अर्थक प्रत्ययों को संविवेचना १८२ १७८ ३२५ ३४० तृतीय-पाद-विषय-सूची-सार-संग्रह १ संज्ञाओं और विशेषणों का विभक्ति-रूप प्रदर्शन २ सर्वनाम शब्दों को विभक्ति-रूप-विवेचना ५८ से १२४ ३ रूप-संबंधी विविध-विवेचना १२५ से १३० ४ वाक्य-रचना-प्रकार-प्रदर्शन १३१ से १३७ ५ क्रियापदों का विविध-रूप-प्रदर्शन १३८ से १८२ २१८ २२५ २३९ चतुर्थ-वादः १ संस्कृत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विविध ढंग से आदेश प्राप्त धातुओं का निरूपण २ शौरसेनी-भाषा-निरूपण ३ मागधी-भाषा-विवेचना १ से २५९ २६० से २८६ २८७ से ३०२ ३४३ ४३२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पैशाची-भाषा-वर्णन ५ चूलिका-पैशाचिक-भाषा-प्रदर्शन ६ अपभ्रंश-भाषा-स्वरूप-विधान ७ प्राकृत आदि भाषाओं में अन्यत्यय" विधान ८ शेष साधनिका में "संस्कृतवत्" का संविधान ३०३ से ३२४ ३२५ से ३२८ ३२९ से ४४६ ४४७ ४४८ ४७५ ५६२ नोट:-(१) आदेश प्राप्त प्राकृत-धातुओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:(१) कुछ 'तत्सम" को कोटि की हैं; (२) कुछ "तद्भव" रूप वाली हैं और (३) कुछ ' देशज" श्रेणी वाली हैं। (२) मूस प्राकृत-भाषा का नाम ''महाराष्ट्री" प्राकृत है और शेष भाषाएं सहयोगिनी प्राकृत-भाषाएँ कही जा सकती हैं। (३) जैन-प्रागों की भाषा मूलतः "अर्ध-मागधी' है। परन्तु इसका आधार - महाराष्ट्री-प्राकृत" ही है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रम विषय १ प्राकृत-व्याकरण-प्रथम भाग पर प्राप्त सम्मतियाँ २ प्रामुख कविरत्न, गंभीर विचारक पूज्य उपाध्याय थी द्वारा ३ सम्पादकीय ४ संयोजक का व्यक्तव्य ५ प्रकाशक का निवेदन ६ सूत्रानुसार-विषयानुक्रमणिका ७ अग्रिम ग्राहकों की शुभ नामावली ८ प्राकृत-व्याकरण प्रियोदय-हिन्दी-व्याख्या ९ परिशिष्ट-भाग-प्रनुक्रमणिका १० प्रत्यय-बोध ११ संकेत-बोध १२ तृतीय-पाद-कोष-सूची १३ चतुर्थ-पाद-शब्द-सूची Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अर्हत्-सिद्धेभ्यो नमः ॥ आचार्य हेमचन्द्र रचितम् ( प्रियोदय हिन्दी व्याख्यया समलंकृतम् ) प्राकृत - व्याकरणम् तृतीय - पाद वीस्यात् स्यादेवस्ये स्वरे मोत्रा ॥ ३-१ ॥ सत्पात्रस्य स्यादेः स्थाने स्वरादौ वीप्सार्थे पदे परे मो वा भवति ॥ एकैकम् । एकमेक्क' | एकमेक्केण । अङ्ग अङ्गभङ्गम्मि । पते । एक कमित्यादि ॥ अर्थ:- जहाँ तात्पर्य विशेष के कारण से एक ही शब्द का दो बार लगातार रूप से उच्चारण किया जाता है, तो ऐसी पुनरुक्ति को 'बीमा' कहते हैं। ऐसे 'वोप्सा' अर्थक पद में यदि प्रारंभ में स्वर रहा हुआ हो तो वीसा श्रर्थक पद में रहे हुए चिभक्ति वाचक सि' आदि प्रत्थयों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्' आदेश की प्राप्ति हुआ करती हैं । वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ विभक्ति-वाचक प्रत्ययों के स्थान पर 'म्' आदेश को प्राप्ति नहीं होगी; वहाँ पर विभक्तिवाचक प्रत्ययों का लोप हो जायगा । उदाहरण इस प्रकार है:- एकैकम्= एकमेकं श्रथवा एकम् ॥ एकेन एकेन एकमेकेण ॥ ( पक्षान्तर में - एकेकण) । अङ्ग अङ्ग धङ्गमङ्गमि । पक्षान्तर में श्रङ्गाङ्गम्म होगा । I H एकैकम:-- संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप एकमेकं और एक कां होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या -२-६८ से दोनों 'क' वर्णों के स्थान पर हिल 'क' वर्ण की प्राप्तिः ३-१ से वीप्सा अर्थक पद होने पिक रूप से प्रथम रूप में संस्कृतीथ लुप्त विभक्ति वाचक प्रत्यय के स्थान पर 'म' आदेश की Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * Ritesarirrovetoiletstrendramorroristotrorestres00000rses.6000000000 प्राप्ति: १-१४८ से द्वितीय रूप में 'ऐ के स्थान पर 'g' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्रापि और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर कम से दोनों रूप एक्कमेक्के और एस्केक्क सिद्ध हो जाते हैं। एकमेकेन:--संस्कृत तृतीयान्न रूप है। इसका प्राकृत रूप एकमेकेण होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-६८ से दोनों 'क' वर्गों के स्थान पर द्वित्व 'क' वर्ण की प्राप्ति; ३-१ से वीप्सो अर्थक पद होने से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी विभक्ति वाचक प्रत्यय 'टाइन' के स्थान पर 'म' आदेश की प्रामिः १.५ से प्राप्त हलन्त 'म' अादेश के साथ में आगे रहे हुए 'श' स्वर को संधि; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एक पचन में अकारान्त में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर एक्कमेक्कण रूप सिद्ध हो जाता है। अङ्ग अङ्ग मामला है । सात बार हमाम मोना है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१ से वीप्सा--अर्थक पद होने से प्रथम पद 'अङ्ग' में संस्कृतीय सक्षमी विभक्ति वाचक प्रत्ययाङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' श्रादेश; १-५ से प्राप्त प्रादेश रूप हलन्त 'म' में आगे रहे हुए 'अ' स्वर को संधि; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङि=इ' (के स्थानीय रूप 'ए') के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अङ्गमङ्गम्मि रूप सिद्ध हो जाता है ॥३-११|| अतः से डोंः ॥३-२॥ प्रकारान्तानाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति ।वच्छो॥ अर्थः-प्राकृतीय पुल्लिंग अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति में संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति वाचक प्रत्यय 'सि' के थान पर 'डो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डो' में स्थित 'जु' इत्संज्ञक होने से प्रकारान्त प्राकृत शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस अन्त्य 'अ' को लोप हो जाता है और तत्पश्चान प्राप्त हलन्त शब्द में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-वृक्षः यच्छी ।। 'पच्छो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -१७ में की गई है ॥३.२॥ वैतत्तदः ॥३-३॥ एतत्तदोकारारपरस्य स्यादेः से डों वा भवति ।एसो एस । सो णरो । स गरी ॥ अर्थ:-संस्कृतीय सर्वनाम रूप 'एतत्' और 'तत' के पुल्लिंग रूप 'एषः' और 'सः' के प्राकृतीय प्राप्त पुल्लिंग रूप 'एस' और 'म' में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डोओ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:-एषः = एसो अथवा एस | 4: नरसो गरो अथवा स परो।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 2 ooooooooooosrrorettasterstronotestsotrosarowesords00000000stessories 'एसों रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -११९ में को गई है। 'एस' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३१ में की गई है। 'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। 'परी' रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२२९ में की गई है। 'स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है ।।३-३।। जस्-शसोलुक् ॥३-४॥ अकारान्तानाम्नः परयो : स्यादिसंबधिनी जस-शासोलुंग भवति ।।वच्छा एए वच्छे पेच्छ । ___ अर्थ:-अकारान्त प्राकृत पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में क्रम से संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' और 'शत्' का लोप हो जाता है । इस प्रकार प्रथमा विभक्ति में 'जस' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होती है । जैसे:-वृक्षाः एतेचच्छा एए । इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति में भी 'शम्' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात सूत्र संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है एवं कभी सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:-वृत्तान् पश्य (वच्छा अथवा) वच्छे पेच्छ अथात् वृक्षों को देखो । वृक्षाः-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वच्छा होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-५२६ से 'म' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राय छ' की द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति :-० से प्राप्त पूर्व छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति में, अकारान्त पुल्लिग के बटुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ६-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' को दीघ स्वर 'या' की प्राप्ति होकर पच्छा रूप सिद्ध हो जाता है। एतेः-संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप एए होता है, इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से'त' का लोप होकर 'एए' रूप सिद्ध हो जाता है । अथवा १-१९ से मूल संस्कृत शब्द 'एतत' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; १-१८७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहु-वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्तिः प्राप्त प्रत्यय 'डे' में स्थित 'इ' इत्संज्ञक होने से प्राप्त रूप 'एन' में स्थित अन्त्या 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ'का लोप और तत्पश्चात् प्राप्त रूप 'ए + एएए' की सिद्धि हो जाती है। वृक्षान:- संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अच्छे होता है। इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि उपरोक्त इसी सूत्र अनुसार (जानना ); ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहु वचन में प्राप्त प्रत्यय 'शस' का Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] * प्राकृत व्याकरण * 04444 0000000000 लोप और ३-१४ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के पूर्व स्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर वच्छे रूप सिद्ध हो जाता है । 'पेच्छ':-रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है । ३-४|| अमोस्य || ३--५ ॥ अतः परस्यामोकारस्य लुग्भवति ॥ वच्छं पेच्छ । अर्थ:- अकारान्त में द्वितीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रस्थय 'अम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' का प्राकृत में लोप हो जाता है और शेष 'म्' श्रत्यय की ही प्राकृत में प्राप्ति होती है। जैसे:--- वृक्षम् पश्य = वच्छं पेच्छ अर्थात् वृक्ष को देखो । 'यच्छे' : - रूप को सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २१ में की गई है। 'येच्छ' : – क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१३ में की गई है ।। ३-५ ।। टा- आमोः ॥ ३ - ६॥ श्रतः परस्य टा इत्येतस्य षष्ठी - बहुवचनस्य च भामो यो भवति ॥ वच्छेण । चच्छाय ॥ " अर्थ::--अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र संख्या ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है । जैसे:- वृक्षेण वच्छेण । इसी प्रकार से अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहु वचन मे संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र - संख्या ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति होती हैं । जैसे:- वृक्षाणाम् = वच्छाण अर्थात् वृक्षों का अथवा वृक्षों की 'क्षच्छे' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२७ में की गई है। वृक्षामाम् — संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वच्छाय होता है । इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; और ३- १२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ना' की प्राप्ति होकर षच्छण रूप सिद्ध हो जाता है ॥३-६ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ****** भिसो हि हिँ हिं ॥ ३-७॥ [ ५ *** श्रतः परस्य भिसः स्थाने केवलः सानुनासिकः सानुस्वारश्व हि भवति ॥ वच्छेहि । बच्छे िवच्छे िकया छाही || अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में कभी केवल हि' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है; कभी सानुनासिक हि प्रत्यय की प्रवेश-प्राप्ति होती है; तो कभी सानुस्वार हिं' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति हुआ करती है; एवं सूत्रसंख्या ३-२५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि हि हि के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर ' को प्राप्ति हो जाती हैं । जैसेः- वृत्तेः कृता छाया=वच्छेहि अथवा वच्छेहि अथवा वच्छेहिं कया छाही अर्थात वृक्षों द्वारा की हुई छाया ॥ वृक्षैः - संस्कृत तृतीयान्त बहु वचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्द्वेहि, वच्छेहिं और बच्चे हिं होते हैं । इनमें "वच्छ" रूप तक की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'मिस्' के स्थानीय रूप 'ऐस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं defore रूप से 'हि', हिँ हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय हि' अथवा 'ह' और 'हिं' 'पूर्वस्थ 'वच्छ' शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'Q' की प्राप्ति होकर क्रम से 'बच्छेद' 'पच्छे' और 'बच्छेहिं' रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'क्या' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१०४ में की गई है। 'छाही' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या१-२४९ में की गई है ।। २-७ ॥ ङसेस् तो- दो-दु-हि- हिन्तो-लुकः || ३-८ || अतः परस्य उसे तो दो दु हि हिन्तो लुक् इत्येते पदादेशा भवन्ति ॥ वच्छत्तो । घच्छाओ । बच्छाउ | वच्छाहि । वच्छाहिन्तो । बच्छा || दकार करणं भाषान्तरार्थम् ॥ अर्थः- अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इति' के स्थानीय रूप 'आत्' के स्थान पर प्राकृत में 'तो', 'दोश्रो; 'दु = उ', 'हि' और 'हिन्दी' प्रत्ययों की क्रम से आदेश - प्रति होती है और कभी कभी इन प्रत्ययों का लोप भी हो जाता है; ऐसी अवस्था में मूल शब्द रूप के अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र संख्या ३-१२ से 'आ' की प्राप्ति होकर प्राप्त रूप पंचमीविभक्ति के अर्थ को प्रदर्शित कर देता है। यों पंचमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में वह रूप ही जाते हैं। पाँच रूप तो प्रत्यय-जनित होते हैं और छट्टा रूप प्रत्यय- लोप से होता है । इन छह ही रूपों में सूत्र संख्या ३-१२ से प्रत्ययों की क्रमिक रूप से संयोजना होने के पहले शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * 200000rsneamrosarotesternmoooooooommercirrrroreverenosotrovoseonsootos स्वर 'श्रा की प्राप्ति हो जाती है । 'तो' प्रत्यय की संयोजना में 'अ' के स्थान पर 'श्री' को प्रानि होकर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'अ' के स्थान पर 'अ' हो जाया करता है। उदाहरण इस प्रकार है:-वृक्षात् = बच्छतो, वच्छामा, बच्छाउ, बच्छाहि, वच्छाहिन्तो और वच्छा अर्थात वृक्ष से। 'दो' और 'दु' .. प्रत्ययों में स्थित 'दकार' अन्य भाषा 'शौरसेनी' के पंचमी विभक्ति के एक बचन की स्थिति को प्रदर्शित करने के लिये व्यक्त किया गया है; सदनुसार प्राकृत में स्वभावत: अथवा सूत्र संख्या १-१७७ से 'दृ' का लोप करके शेष 'श्री' और '' प्रत्ययों की ही प्राकृत-रूपों में संयोजना की जाती है । यह अन्तर अथवा विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये । वक्षानः-संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छत्तो, बच्चाओ, बच्छाउ, वच्छाहि, कच्छाहिन्तो और वफ्छा होते हैं। इनमें वन्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार; ३-१२ से प्राप्त रूप 'वच्छ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दाघ स्वर 'श्रां' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एक वचन में कम से 'तो', 'ओ', 'उ', 'हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय-लोप' की प्राप्ति होकर कम से वच्छत्ती, बच्छाओ, बच्छाउ, बच्छाह, वच्छाहिन्ती और घच्छा रूप सिद्ध हो जाते हैं । प्रथम रूप 'वच्छत्ती' में यह विशेषता है कि उपरोक्त राति से प्राप्तव्य रूप 'कच्चात्तो' से सूत्र संख्या १४ से पुनः दीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर हरव स्वर 'म' की प्राप्ति होकर 'वच्छत्तो' रूप (ही) सिद्ध होता है ॥३-८॥ . भ्यसस् तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो ॥३-६।। नतः परस्य म्यसः स्थाने सो दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्ती इत्यादेशा भवन्ति ।। वृक्षेभ्यः । बच्छत्तो । यच्छाप्रो। बच्छाउ । वच्याहि । वच्छेहि । वच्छाहिन्तो। वच्छेहिन्तो बच्छासुन्तो । बच्छेसुन्तों ॥ अर्थः-अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भ्यसभ्य' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तो'; 'दोश्रो'; दु-उ', 'हि'; 'हिन्तो' और 'सुन्लो' प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या ३-१२ में 'तो' प्रत्यय, 'ओ' प्रत्यय और 'उ' प्रत्यय के पूर्व शब्दान्य हस्वस्वर' 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा की प्राप्ति होती है । 'तो' प्रस्थय को संयोजना में यह विशेषता है कि 'या' की प्राप्ति होने पर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'श्रा' के स्थान पर 'अ' हो जाता है। इसी प्रकार से महि', 'हिन्ता और 'सुन्तों' प्रत्ययों के सम्बन्ध में यह विधान है कि सूत्र संख्या ३-१३ से शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर कभी 'मा' को प्राप्ति होती है तो कभी सूत्र संख्या ३-१५ से 'थ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हो जाती है। यों 'हि', 'हिन्लो' और 'सुन्लो' प्रत्ययों के योग से प्रकारान्त शब्द के छह रुप हो जाते हैं। तदनुमार कुल मिलाकर पंचमो विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में नौ रूप Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * *********60*6064600 00000000 होते हैं; जो कि इस प्रकार है: - धूतेभ्यः = (१) बच्छतो, (२) वाओ, (३) बच्छाउ, (४) वाहि, (५) वच्छे[ह. (६) वच्छाहिन्तो, (s) व हिन्सो, (८) वच्छासुन्तो और (६) बच्छेन्तो अर्थात् वृक्षों से ॥ [ 0 $40000000000 'वृक्षेभ्यः – संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप बच्छत्तो. वच्छात्रो, वare, बाहि छो, बच्छा हिन्तो, वच्छेोहिन्तो वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्तो होते हैं। इनमे 'बच्छ' रूपं तक को साधनिका सूत्र - संख्या ३-४ के अनुसार ३९ से प्रथम रूप में 'तो' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'तो' के पूर्वस्थ व शब्दान्त्य 'च' के स्थान पर 'आ' को प्राप्तिः १-८४ से प्राप्त 'आ' के स्थान घर पुनः 'अ' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप वच्छत्तो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय और तृतीय रूप- (बाओ एवं बच्छाउ ) में सूत्र- संख्या ३-१२ से बच्छ शब्दान्त्य 'ब' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति ३-६ से क्रम से 'दो' और 'दु' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-१७० से प्राप्त प्रत्ययों में स्थित दु' का लोप होकर क्रम से बच्छाओं और बच्छाउ रूपों की सिद्धि हो जाती है। शेष चौथे रूप से लगाकर नबवें रूप तक में सूत्र संख्या ३-१३ से तथा ३- १५ से बच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'श्री' अथवा 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से कम से 'हि ""हतो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर यथा रूप बच्छाहि, षच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेद्दिन्ती vergent और पच्छे सुन्ती रूपों को सिद्धि हो जाती है ||३६|| इसः स्सः ॥३ - १० ॥ 1 श्रतः परस्य यः संयुक्तः सो भवति ॥ पिञ्चस्स | बेम्मस्स | उपकुम्भं शैत्यम् । उबकुम्भस्स सील ॥ अर्थः- अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रूप' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- प्रियश्च = विश्वस्व अर्थात् प्रिय का । प्रेमरपुः = पेम्सस्स अर्थात् प्रेम का और उपकुम्भ शैत्यम् = वकुम्भस्त सील अर्थात् गूगल नामक लघु वृक्ष विशेष की शीतलता को (देखो ) । - प्रियस्स – संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २०५६ से 'र्' का लाभ १ ९७७ से 'य्' का लोप और ३-१० से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीव प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हम' पत्मय की आदेश प्राप्ति होकर पिअस्स रूप सिद्ध हो जाता है। प्रेमप्पः संस्कृत पन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पेस्मरल होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'ब' का लाभ; २-६८ से 'म' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति २८ से मूल संस्कृतीय रूप 'प्रेसन' में स्थित ('णू' के पूर्व रूप) 'न' का लोप, और ३-६० से संस्कृतोब घष्टो त्रिभक्ति वाचक प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण 00000000torsorroreporter000000000rder.0000000000rsnstreasonsorssosort रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेम्मस्स रूप सिद्ध हो जाता है। उपकुम्भम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवकुम्मस्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'क' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१३४ से संस्कृतीय द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृस में षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति तदनुसार ३-२० से संस्कृतोय द्वितीया विभक्ति के प्रत्यय 'अम्म्म्' के स्थान पर प्राकृत में पष्ठी विमक्ति वाचक प्रत्यय 'रस' की प्राप्ति होकर उपकुम्भस्स रूप सिद्ध हो जाता है। शैत्यम शीतलस्वम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साअलत्तर्ण होता है। इसमें सूत्र-पंख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' को प्राप्तिः १-१७७ से 'त' का लोप; २-१५४ से 'स्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'त्तण' प्रश्यय की प्रादेश प्राप्ति ३.५ से द्वितोया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सीमलत्तणे रूप सिद्ध हो जाता है ॥३-१८|| डे म्मि ङः ॥३.११॥ अतः परस्य डि. एकारः संयुक्तो मिश्च भवति ।। वच्छे । वच्चम्मि ॥ देवम् । देवम्मि । वम् । तम्मि | पल द्वितीया- जुटीयोः माझी (३-१२५ एमो डिः॥ अर्थः-प्राकृत अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्छनीय प्रत्यय 'ङिइ' के 'थान पर 'डे और संयुक्त ‘म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'इ' इत्संज्ञक होने से मूल अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त 'अ' का लोप हो जाता है; तत्पश्चात प्राप्त हलन्त रूप में 'ए' प्रत्यय की सयोजना हो जाती है। जैसे ---वृक्षयच्छे और वच्छम्मि अर्थात वृक्ष में । सूत्र-संख्या ३-१३७ में एसा विधान है कि प्राकृतीय शब्दों में कभी कभी सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का विधान होता हुया भी देखा जाता है एवं उत्त विधानानुसार प्राप्त द्वितीया-विभक्ति के सद्भाव में भो तात्पर्य सप्तमी विभक्ति का ही अभिव्यक्त होता है। जैसे:-देव-देवम् अथवा देवम्मि अर्थात देवता में । तस्मिन् - तम् अथवा तम्मि अर्थात उसमें । कभी कमी ऐसा भी होता है कि शब्द में द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति के अर्थ में सूत्र-संख्या ३-१३५ के अनुसार सप्तमी विभक्ति के प्रत्यय संयोजित होते हुए देखे जाते हैं और तात्पयं द्वितीया अथवा तृतीया विमक्ति को अभिव्यक्त होता है। तदनुसार सप्तमी-विभक्ति वाचक ' डिइ' होने पर भी उसका अथं द्वितीया-विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'अम्-म' के अनुसार होता है। _वृक्षे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छे और पच्छम्मि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसारः ३-११ से सक्षमी विभक्ति के एक वचन में क्रम से 'ए' और 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऋम से पच्छे और पच्छम्मि रूप सिद्ध हो जाते हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * देवे संस्कृत समम्यन्त रूप है । इस के रूप देव चोर देवनि से हैं। इसमें को प्रसन्न रूप में सूत्र-संख्या ३-१३७ से सममी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया-विभक्ति का विधान एवं तदनुसार ३-५ से द्वितीया-विभक्ति वाचक प्रत्यय म्' की प्रानि होकर प्रथम रूप देवम् सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(देवे) ऐषम्मि में सूत्र-संख्या ३-१५ से सत्रमा पिभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय को आवेश-प्राप्ति होकर देवमिम रूप सिद्ध हो जाता है। तस्मिन् संस्कृत सर्वनाम सप्तम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप तम् और तम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३७ ले सभी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का विधान; तदनुसार ३-५ से संस्कृतीय सप्तमी-विभक्तिबोधक प्रत्यय 'जिन' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'म्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तम् सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-(तस्मिन्=) तम्मि में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत सर्वनाम रूप 'तम् में स्थित अन्त्य हलन्त गलन 'त' का लोप और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'कि' के स्थानीय रूप 'स्मिन् के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तम्मि' सिद्ध हो जाता है ॥ ३-११ ।। जस्-शस्-सि-तो-दो-दामि दीर्घः ।।२-१२॥ एषु अतो दीर्घो भवति ।। जसि शसि च । वच्छा ॥ डिसि । बच्छाओ । वच्छाउ । पच्छाहि । वच्छाहिन्ती । वच्छा ॥ चो दो दुषु ।। वृक्षेभ्यः । वच्छत्तो। हस्वः संयोगे (१-८४) इति हस्वः ।। वच्छाओ। बच्छाउ । प्राभि । वच्छाण || सिनैव सिद्ध तो दो दु ग्रहण भ्यसि एत्वाधनार्थम् ।। अर्थ:-प्राकृत अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'जस' और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'शम' प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'पा' हो जाता है। जैसे:-वृक्षाः = वच्छा और वृक्षान्-वच्छा । इसी प्रकार से पंचमो विभक्ति के एक वचन में 'इसि-अस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'या', 'उ', 'हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय लुक' को प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'आ' हो जाता है। जैसे-वृक्षात्-वच्छाओ, बच्छाउ, वडाहि, धमछाहिन्तो और बच्छा । मूल-सूत्र में 'सो', 'दो' और 'दु' का जो विशेष उल्लेख किया गया है। उसका तात्पर्य इस प्रकार है कि-पंचमी विभक्ति के एक वचन में और बहुव वन में 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रथम तो अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होती है। तत्पश्चात सूत्र-संख्या १२४ से पुनः 'आ' को 'अ' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:-वृक्षात = पत्ता और वृक्षेभ्यः बच्छत्तो । 'दो-ओ' और 'दु-उ' प्रत्यय पंचमी-विभक्ति के एकचन में भी होते हैं और बहुवचन में भी होते हैं; तदनुसार दोनों ही वचनों में अन्त्य 'अ' को दोष 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-वृक्षेभ्या-बच्छाओं और बच्छात ॥ इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी संस्कृतीय प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में आदेश Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] प्राप्त प्रत्यय 'या' की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य 'अ' स्वर को दीर्घ म्बर 'आ' को प्राप्ति हो जाती है। जैसेवृक्षानाम्=च्छा | मूल-सूत्र में यदि 'सि' इतना ही उल्लेख कर देते तो भी पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्रदेश प्राप्त प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'अ' को 'आ' को प्राप्ति होती है । ऐसा अर्थ अभि व्यक्त हो जाता; परन्तु पंचमी विभक्ति के एक बचन में और बहुवचन में 'सो, दो, दु, हि और हिन्तो' प्रत्ययों की एक रूपता है, एवं इस प्रकार का एकरूपता होने पर भी जहाँ दोनों वचनों में अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होती है वहाँ बहुबदन में 'हि' और 'हिन्तो' प्रत्यय की संयोजना में सूत्र संख्या ३-१३ एवं ३-१५ से वैकल्पिक रूप से 'अ' का 'मा' की प्राप्ति भी हो जाया करती है । इस प्रकार मूल-सूत्र में 'तो' 'दो' और 'दु' ग्रहण करके पञ्चमी--बहुवचन के शेष प्रत्ययों हि' 'हिन्तों' और 'सुन्तो' में 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है-ऐसा विशेष अर्थ प्रतिध्वनित करने के लिये 'तो'; 'दो' एवं 'दु' प्रत्ययों को मूल-मूत्र में स्थान दिया गया है । जैसे:- वृक्षेभ्यः = वच्छाहि और वन्देहि तथा बच्चा हिन्तो और बच्छे हिन्तो । इस प्रकार पंचमी के एक वचन में 'एत्व' का निषेध करने के लिये और बहुवचन में 'ए' का विधान करने के लिये 'तो', दो और दु' प्रत्ययों का उल्लेख किया है। 'षच्छा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४ में की गई है। * प्राकृत व्याकरण * 'बच्छाओ', 'षच्छा', 'वाद', 'अच्छा हिन्दो' और 'अच्छा' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या इन्ट में की गई है। 'वच्छत्तों', 'वच्छानो' और 'बच्छाउ' बहुवचनान्त रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या -९ मैं को गई है। 'वच्छा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है । ३-१२ ॥ भ्यसि वा ।। ३-१३ ॥ स्यादेश परे तो दीर्घो वा भवति ॥ वच्छाहिन्तो । वच्छे हिन्तो । वच्छासुन्तो । बच्छे सुन्तो । वच्छाहि । वच्छेहि ॥ अर्थः- पंचमी बहुवचन के संस्कृतिीय प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में श्रादेश प्राप्त प्रत्यय 'हिन्तो', 'सुन्तो' और 'हि' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर 'का' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'था' की प्राप्ति होती है । एवं सूत्र संख्या ३-१५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है । जैसे:-वृक्षेभ्यः = वच्छाहिन्तो अथवा वच्छे हिन्तो; वच्छासुन्यो अथवा वन्दे सुन्तो और चाहि अथवा वच्छेहि ॥ वृक्षेभ्यः – संस्कृत पंचभ्यन्त बहुवचन रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छाहिन्तो हिन्तो वच्छन्तो, वच्छे सुन्तो, वच्छाहि और अच्छेहि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका ३-४ के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित अनुसार, ३-६ मे पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हिन्तो' 'सुन्तों' और 'हि' प्रत्ययों को क्रमिक प्रदेश-प्राप्ति; ३-१३ और ३-१५ से 'बक्छ' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति होकर वच्छाद्दिन्तो, वच्छे हिन्ती, वच्छासुन्तो, च्छ्रेन्ती, वच्छा है और वच्छेहि रूपों की सिद्धि हो जाती है। [ ११ *********** दाण - शस्येत् ॥ ३-१४॥ टादेशे ये शसि च परे अस्य एकारो भवति || टाय । चच्छेगा || खेति किम् | अध्या अप्पणिमा | अप्पनइआ । शस् । धच्छे पेच्छ || अर्थ:- प्राकृतीय अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीच प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'रण' की आदेश-प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:वृक्षेन = वच्छे अर्थात् वृक्ष से । इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहु वचन में भी संस्कृतीय प्रस्थय 'जस्' के स्थान पर नियमानुसार लोप स्थिति' प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:- छान पश्यन्वच्छे पेश्त्र अर्थात वृक्षों को देखो । ! प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एक वचन में 'ण' प्रदेश-प्राप्ति होने पर हो अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है ! उत्तरः-'आत्मा=श्रप्प' आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३-५५, ३-५६ और ३-४७ से 'णा', 'णिया' और 'इना' प्रत्ययों की आदेशमाभि होता है; तदनुसार तृतीया विभक्ति एक वचन में सूत्र संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' के स्थान पर प्राप्तब्य 'ण' का अभाव हो जाता है और ऐसा होने पर शब्द अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिये यह भार - पूर्वक कहा गया है कि ' आदेश-प्राप्ति होने पर ही 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं । जैसे:-आत्मना अप्पणा, अप्पणिया और अप्पणइश्रा श्रर्थात् आत्मो से । 'वच्छ्रेण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है। आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है । इसके प्राकृत रूप अपणा, श्रपणिश्रा और पण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-८४ आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्तिः २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'हम' के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २८६ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति ३-५६ से प्राप्त रूप 'अप्प' में 'ध्यान' का संयोग; १-८४ से प्राप्त संयोग रूप 'प्राण' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति १-१० से 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'अण' का 'अ' होने से लोप; और ३-६ से प्राप्त संस्कृतीय Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] 6000400 * प्राकृत व्याकरण * *** मलय 'टा' में स्थित 'ट' की इत्संज्ञा होने से 'द' का लोप होकर शेष प्रत्यय 'आ' की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है । अथवा ३-४१ से पूर्व सिद्ध 'अप्प' शब्द में ही वृत्तांया विभक्ति के एक वचन में 'राजन वत् श्रात्मन शब्द सद्भावात् संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश की प्राप्ति होकर (अध्पणा) रूप सिद्ध हो जाता है । 1 द्वितीय और तृतीय रूप (आत्मना = ) अवधिमा तथा अप्पrse में 'प' रूप तक की साधनिका प्रथम रूप वत्; और ३-५७ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में 'टो' प्रत्यय के स्थान पर 'शिक्षा' और 'इआ' आवेश-प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अप्पणिमा'' 'और 'अप्पणइओ' सिद्ध जाते हैं। बच्छे रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४ में की गई है। रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है ।।३ - १४ || भिरभ्यस्सुपि ॥ ३ - १५॥ एत ए र्भवति ॥ भिस् । वच्छेद्दि । वच्छेद्दि । वच्छेहि ॥ भ्यस् । चच्छेहि । वच्छेहिन्तो । वच्छे सुन्तो ॥ सुप् । वच्छेसु || अर्थः-- प्राकृतीय अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'मिस्' के आदेशप्राप्त 'हि, हि और हिं' की प्राप्ति होने पर पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के आवेश- प्रात रूप 'हि, हिन्तो और सुन्तो' की प्राप्ति होने पर और सप्तमो विभत के बहुवचन के प्रत्यय 'सुप' के आदेश प्राप्त रूप 'सु' की प्राप्ति होने पर शब्द अन्त्य स्वर 'य' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे 'भिस' का वदाहरण: - वृक्षैः चच्छे, षच्छे और वच्छेहिं अर्थात् वृक्षों से । 'भ्यस्' का उदाहरण वृक्षेभ्यः = वच्छेहि, वच्छेोहिन्तो और वसुन्ती अर्थात वृक्षों से । 'सुप्' का उदाहरण: - वृक्षेषु वच्छेस अर्थात वृत्तों पर अथवा वृक्षों में। 'वच्छेहि', 'वच्छेहि' और 'बच्छे हैं' तृतीयान्त बहुवचन वाले रूपों को सिद्धि सूत्र - संख्या ६-७ में की गई है । 'वच्छेदि', 'वच्छेदितो' और 'षच्छेन्ती' पंचम्यन्त बहु वचन वाले रूपों की सिद्धि सूत्रसंख्या ३९ में की गई है। वच्छेतु रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-२७ में की गई है । ३ - १५|| इदुतो दीर्घः ॥३–१६॥ इकारस्य उकारस्य च भिस् भ्यस्सुप्सु परेषु दीघो भवति ॥ भिस् । गिरीहिं । बुद्धीहिं । दहीहं । तहिं । धेहिं । महूहिं कथं ॥ भ्यस् । गिरीओ | बुद्धीओ । दद्दीओ । तरूओ । I 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000004 घेणुगो । महूओ आगो । एवं गिरीहिन्तो । गिरीसुन्तो आगो इत्यापि ॥ सुप् । गिरीसु । युद्धीसु । दहीसु । तरूसु । घेणुसु । महमु ठियं । कचिन भवति । दिन-भूमिसु दाण-जलोल्लिाई ॥ इदुत इति किम् । बच्छेहिं । वच्छेसुन्तो । वच्छेसु । भिस्म्पस्सु पीत्येव । गिरिवर पेच्छ ॥ ___ अर्थः-प्राकृतीय हव इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग, नपुसकलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'हि, हिं और हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर एवं पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय-प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'श्रो, उ, हिनो और सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सुप' के स्थान पर 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर हस्व अन्त्य स्वर 'इ' का अथवा 'उ' का दीर्घ स्वर 'ई' और 'क' यथा क्रम से हो जाते हैं । जैसे:-'मिस्' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण:-- गिरिभिःम्गिरीहिं; बुद्धिभिः-शुद्धोहि; दधिभिः = दहीहि; तरभिः = तरूहि; धेनुभिः = धेरराहिं और मधुभिः कृतम् - महूहिं कयं । इत्यादि । "भ्यस्' से संबंधित उदाहरणः-गिरिभ्यः = गिरीी, गिरीहिन्तो और गिरोसुन्तो । बुद्धिभ्यः = बुद्धिश्रो । दधिभ्या=दहीभो । तरुभ्यः-तरूयो। धेनुभ्यः घेणूओ और मधुभ्यः प्रागतः = महश्रो श्रागी । इत्यादि । 'सुप्' से संबंधित उदाहरणः-गिरिषु गिरीसु । बुद्धिषु = युद्धीसु । दधिषु = दहीसु । तरुपु= तहसु । धेनुषु = धेरणू सु और मधुषु स्थितम् = महसु ठियं । इत्यादि । किन्हीं किन्हीं शब्दों में सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ह्रस्व अन्त्य 'इ' अथवा 'उ' का दीर्घ 'ई' अथवा 'क' नही भो होता है । जैसे:-द्विजभूमिषु दान -जलाीकृतानि = दिन-भूमिसु दाण-जलोल्लिाई। इस उदाहरण में 'भूमीसु' के स्थान पर हस्व इकारान्त रूप कायम रह कर 'भूमिसु' रूप ही दृष्टि-गोचर हो रहा है; यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। प्रश्न- 'इकारान्त' 'उकारान्त' शब्दों में ही 'भिस्, भ्यस् और सुप् प्रत्ययों के प्राप्त होने पर मन्त्य हुस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर हो जाता है ऐसा क्यों लिखा है ? उत्तरः--जो प्राकृत शब्द 'इकारान्त' अथवा 'उकारान्त' नहीं है। उन शब्दों में 'भिस्, भ्यस् और 'सुप' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य हुम्व स्वर का दीर्घ स्वर नहीं होता है; अतः ऐसा विधान फेवल इकारान्त और खकारान्त शब्दों के लिये ही करना पड़ा है। जैसे:-वृक्षः = बच्छेहि; वृक्षेभ्यः = चच्छेसुन्तो और वृक्षपु-वच्छेसु । इन उदाहरणों में 'वच्छ' शब्द के अन्त्य हस्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'पा' को प्राप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार 'हस्व से दीर्घता' का विधान केवल इकारान्त और उकागन्त शब्दों के लिये ही है; यह सिद्ध हुश्रा । प्रश्नः-'भिस्, भ्यस और सुप्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर ही ह्रस्व 'इकारान्त' और हस्ब 'वकारान्त' के अन्त्य 'स्वर' को दीर्घता होती है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] * प्राकृत व्याकरण * Ketorikisssssksvintri .emendmmendererseasternments उत्तर: यदि इत्व इकारान्त और लकारान्त शब्दों में 'मिस्' भ्यस् और सुप'प्रत्ययों के अनिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति हुई हो तो इन शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को दार्घता की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-गिरिम अथवा तरुम् पश्य-गिरि अथवा तरु पच्छ । इन उदाहरणों में द्वितीया-विभक्ति के एक वचन का 'म् प्रत्यय प्राप्त हुश्रा और 'मिस , भ्यम् अथवा सुप' प्रत्ययों का अभाव है; तदनुसार इनमें इस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति भा नहीं हुई है । यो अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिये। गिरिभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिं होता है। इनमें सूत्रमंख्या ३-६६ से मूल गिरि शब्दान्त (द्वितीय हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीघ ई' की प्राप्ति और ३.७ से सृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय भिस के स्थान पर प्राकृत में हि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गिरीहि रूप सिद्ध हो जाता है । बुद्धिभिः-- संस्कृत तृतीयान्त बहु वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से ओर ३-७ से 'गिरीहिं' के समान हो सानिका की प्राप्ति होकर बुधिहि रूप सिद्ध हो जाता है ! दधिभि:--संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष-सानिक सत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर दहीहिं रूप सिद्ध हो जाता है । तहभिा-संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूहि होता है । इसमें सूत्रसंख्या ३-१६ से और ३-७ से 'गिरीहि' के समान ही साधनिक की प्राप्ति होकर तरूहि रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुभिः-संस्कृन तृतीयान्त बहु बचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणूहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-० से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधानका सूत्र संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर भेहि रूप सिद्ध हो जाता है। मधुभिः-संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है । इस को प्राकृत रूप महूहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिको ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरोहि' के समान ही होकर महहि रूप सिद्ध हो जाता है। कार्य रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११७ में की गई है। गिरिभ्यः-संस्कृत पंचम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रुप गिरीश्री, गिरीहिन्ती और गिरीसुन्तो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल 'गिरि शब्दशन्त्य हम्ब स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-६ से पंचमी विभक्ति चोध प्रत्यय 'ओ, हिन्सी. और सुन्तो'की क्रमिक-प्राप्ति होफर क्रम से गिरीभो, गिरीहिन्ती एवं गिरीसुन्तो रूपों की सिद्धि हो जाती है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १५ Novestorewwwrestomsos.moomeromartworolorsmarwarrowroorrenorm बुदिभ्यः संस्कृत पचम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप बुद्धीभी होता है। इसमें सूत्र--संख्या ३-१६ और ३-६ से 'गिरीओं के समान हो साधनिका की प्राप्ति होकर बुद्धीमी रूप सिद्ध हो जाता है। दधिभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप दही यो होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ तथा ३-६ से गिरीओ' के समान ही सानिका की प्राप्ति होकर दहीओ रूप सिद्ध हो जाता है। तरुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप तरूश्रो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१६ और ३-६ से 'गिरीश्री' के समान ही साधुनिका की प्राप्ति होकर तरूमओ रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप धेशूओ होता है । इसमें सूत्रमंख्या १-२८ मे के कशान पर 'or को प्रोनि और ३-१६ तथा ३-६ से 'गिरीश्रो' के समान ही शेष सानिका की प्राप्ति होकर शेणाओ रूप सिद्ध हो जाता है। मधुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रुप महूश्रो होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्रामि और ३.१६ तथा ३-६ से गिरीओं के समान ही शेष सावनिका की प्राप्ति होकर महओ रूप सिद्ध हो जाता है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६८ में की गई है। गारषु संस्कृत मतम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरीसु होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से द्वितीय हस्व स्वर इ' के स्थान पर दाघ स्वर 'ई' की प्राप्ति; और १-२६० से 'पू' के स्थान पर 'स' का प्राप्ति होकर गिरीसु प सिद्ध हो जाता है। बुद्धिधु संस्कृत साम्यन्न बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धोसु होता है। इसमें सूत्र - मख्या ३.१६ से 'इ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर वृद्धासु रूप सिद्ध हो जाता है। दृधियु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप वहीसु होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-१६ से 'ह' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति और १-२६० से 'पू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर इहासु रूप सिद्ध हो जाता है। तरुषु संस्कृत सम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूम होता है। इसमें सूत्र--संख्या ३.१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होकर नरूम रूप सिद्ध हो जाता है। धनुषा-संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणूस होता है । इसमें सूत्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * •veenetweenientiretoroorridorrassrorosorrosoterroretrometerresosim संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीघ '' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होकर घेणूसु रूप सिद्ध हो जाता है। मधुषुः-संस्कृत सप्तम्यन्त बहुषचन रूप है । इसका प्राकृत रूप महूस होता है । इसमें मूत्रसंख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ ऊ' को प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होकर महूस रूप सिद्ध हो जाता है। स्थितम्:-संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप ठिर्म होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'टा' प्रादेश; ३.१५६ से प्राप्त रूप 'ठा' में स्थित अन्त्य श्रा' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से कृदन्तीय विशेषणात्मक प्रत्यय 'म्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ठिों रूप सिद्ध हो जाता है। हिज-भूमिषुः - संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत-रूप दिअ-भूमिसु होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'व' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर दिअ-भूमिसु रूप सिद्ध हो जाता है। ___ दान-जलाकृतानिः-संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दाण-जलोहिल श्राई होना है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १८२ से 'पार्टी में स्थित 'आ' के स्थान पर 'ओं की प्राप्ति; ५-१० से 'जल' के 'ल' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; २-७६ से रेफ रूप 'र' का लोप; २-७७ से द्वितीय 'दु' का लोपः १-२५४ से शेष 'इ. के स्थान पर 'लथादेश; २-८८ से श्रादेश प्राप्त 'ल' को द्वित्व 'ल' को प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-१२६ से 'F' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१४७ से 'क' और 'त' का लोप; १-१० से लुप्त 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' का आगे 'श्रा' श्री जाने से लोप अथवा १-५ से 'अ' के साथ में 'आ' की संधि होकर दोनों के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति; और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के संस्कृतीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होफर दाण-जलोल्लिआई रूप सिद्ध हो जाता है। पच्छेहि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७ में की गई है। पच्छेसुन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 3-1 में की गई है। पच्छेसु रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५ में की गई है। गिरिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-78 में की गई है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * poweredroomerseratorsttierrorrerronsoorwwwwwwwwwwwtarseenetram तरुम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप तसं होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचन में 'म्' प्रत्यय की प्राति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तर रूप सिद्ध हो जाता है। पच्छ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-7 में की गई है ।।३.१६।। चतुरो वा ॥३--१७॥ चतुर उदन्तस्य भिस् भ्यस्-सुप्सु परेषु दी| वा भवति ।। चऊहि । चउहि । चऊओं चउरो । चऊसु चउसु ।। अर्थ:-'चतुर ' संस्कृत शब्द के प्राकृन-रूपान्तर 'चर' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस' के आदेश-प्राप्त प्रत्यय हि हि और हिं' को प्रामि होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के श्रादेश-प्रान प्रत्यय 'हि' हिन्तों. सुन्तों आदि की प्राप्ति होने पर और सप्तमो विभक्ति के बहुवचन के प्रस्थय 'सुप' के आदेश प्राप्त प्रत्यय 'सु' की प्राप्ति होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दोघं 'ऊ' की प्राप्ति होती है । जैसे:-चतुर्भिः च हि अथवा चहि; चतुर्थ्यः = घऊो अथवा चलो और चतुषु चऊसु अथवा चउसु ।। चतुर्भिः संस्कृत तृतीयान्त संख्या वाचक बहुवचन-विशंपण रूप है। इसके प्राकृत रूप चहि और घहि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-५१ से मूल संस्कृत शब्द 'चतुर' में स्थित श्रन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोप; १-५४७ से 'त्' का लोप; ३.१७ से शेष 'उ' को बैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति; और ३.७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'मिस्' के स्थान पर प्रादेश-प्राप्त 'हि' प्रत्यय को मानि होकर कम से दोनों रूप चहि और चाहि सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्य: संस्कृत पञ्चम्यन्त संख्या वाचक बहुवचन-विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप चमनी और चउओहोते हैं। इनमें 'च' और 'चड' तक की सानिका इमी सूत्र में कृत नपरोक्त राति-- अनुसार; और ३.६ से पंचमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय भ्यस्' के स्थान पर अादेश-श्राम 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप चऊओ और पभो सिद्ध हो जाते हैं। चतुई संस्कृत सप्तम्यन्त संख्या वाचक बहुवचन विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊसु और पासु होते हैं। इनमें 'च' और 'च' तक को साधनिका इसी सूत्र में उपरोक्त रीति अनुसार और ९-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप चऊसु और यउसु सिद्ध हो जाते हैं ॥३-११॥ लुप्त शसि ॥३-१८॥ इदुतोः शसि लुप्ते दी? भवति ॥ गिरी । बुद्धी । तरू । धेणू पेच्छ ।। लुप्त इति किम । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] * प्राकृत व्याकरण * ************* गिरिणो | तरुणी पेच्छ । इदुत इत्येव । वच्छे पेच्छ । जस्-शस् (३-१२ ) इत्यादिना शसि दीर्घस्य लक्ष्यानुरोधार्थी योगः लुप्त इति तु वि प्रति प्रसवार्थशङ्कानिवृत्यर्थम् || 1 $*$*$$$$46460 अर्थ:- प्राकृतीय इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर एवं सूत्र संख्या ३-४ के विधान से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' के स्थान पर दीघ 'ई' अथवा दीघ 'क' को प्राप्ति यथा क्रम से होती है । जैसे:-गिरीमनगरी अश्रत पहाड़ों को बुद्धी:-बुद्धी अर्थात बुद्धियों को; तरून तरू अर्थात, वृक्षों की धेनूः पश्य धेणू बेच्छ अथात गायों को देखो। इन उदाहरणों में अन्त्य ह्रस्व स्वर को 'शस्' प्रत्यय का लोप होने से दीघता प्राप्त हुई हैं; यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । प्रश्नः - 'शस' प्रत्यय का लोप होने पर हो अन्त्य ह्रस्व स्वर की दीर्घता प्राप्त होता है, ऐसा क्यों कहा गया हैं ? उत्तरः- ह्रस्व इकारान्त अथवा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में सूत्र- संख्या ३ २२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन मे शस्' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'खो' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है, तदनुसार यदि 'शशु पर 'हो' की प्राप्ति होती है तो ऐसी अवस्था में अन्त्य हृम्ब स्वर 'ड्र' अथवा 'उ' की दोघंता की प्राप्ति नहीं होगी; इसीलिये 'लुप्त' शब्द का उल्लेख किया गया है सारांश यह है कि दीर्घता की प्राप्ति 'शस्' प्रत्यय की लोपावस्था पर निर्भर है; यदि 'शस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'खो' प्रत्यय प्राप्त हो जाता है तो दीर्घता का भी अभाव हो जाता है । जैसे:गिरीन् = गिरिणां अर्थात् पहाड़ों को और तरून पश्य तरुणां (अर्थात वृक्षों को ;) पेच्छ=देखो || प्रदनः इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों में ही 'शस्' प्रत्यय का लोप होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर की ताकी प्राप्ति होतो है; ऐसा क्यों कहा गया हैं ? उत्तर:- अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी द्वितीया विभक्तिबोधक प्रत्यय 'राम' का सूत्र संख्या ३-४ के विधान से लोप होता है; परन्तु 'शस' प्रत्यय का लोप होने पर भी अन्य ह्रस्व स्वर 'अ' को ही 'आ' की प्राप्ति बैकल्पिक रूप से ही होती है तथा सूत्र- संख्या ३-१४ से अन्त्य' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है; इस प्रकार 'शस' की लोपावस्था में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को कभी 'था, की प्राप्ति होती है तो कभी 'ए' की प्राप्ति होती है; यो नित्य 'दीर्घता' का अभाव होने से अकारान्त शब्दों को नहीं लेते हुए इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों के लिए ही यह दीर्घता का विधान 'नित्य रूप से किया गया है । जैसे:- वृक्षान् पश्य=वच्छे पच्छ अथात वृक्षों को देखो। इस उदाहरण में 'बच्छ' अकारान्त शब्द द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस' का लोप हुआ है परन्तु अन्त्य 'अ' को 'आ' नहीं होकर 'ए' की प्राप्ति हुई हैं; परन्तु तदनुसार अकारान्त शब्दों में नित्य 'दीर्घता' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। य इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'शस' प्रत्यय के लीप होने पर नित्य दीर्घता के विधान की 1 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ななななななななななななななななななななななななのかわからなかなかなかなかなかそく स्थिति को समझ लेना चाहिये । सूत्र-संख्या ३.१२ के विधानानुमार यधपि यह सिद्ध हो जाता है कि द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शा की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर को दोधता की प्राप्ति होती है परन्तु पुनः सूत्र संख्या ३-१८ से उमा तात्पर्य की विशेष समुष्टि करने के लिए और अकारान्त शब्दों में काल्पक रूप से होने वालो दोपता का व्यवधान करने के लिये इस सूत्र (३-१८) का निर्माण किया है । 'दोषता की नित्यता रूप लक्ष्य-विशेष के योग को प्रदर्शित करने के लिये इस सूत्र का निर्माण करना पड़ा है। दूसरा प्रबल कारण यह है कि सूत्र-संख्या ३ २२ के विधानानुसार 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर पुल्लिंग शब्दों में जो प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार यदि द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्रामि हो जाती है तो ऐसी अवस्था में 'शस्' प्रत्यय 'की लोप स्थिति नहीं मानी जायगी गर्व लोप-स्थिति का अभाव होने पर अन्त्य द्वस्वस्वर को भी दीर्घता की प्राप्ति नहीं होगी। प्रकार निश्शंक और स्पष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये ही नथा नित्य 'दीर्घता के संबंध में उत्पन्न होने वाली शंकाओं के निवारण के लिये ही सूत्र-संख्या ३-१२ के अतिरिक्त सुत्र-संख्या ३-१८ का निर्माण करना भी आवश्यक तया उचित समझा गया है। गिरीन्ः-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरी और गिरिणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और, ३.१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को धीर्ष स्वर 'ई' की प्राप्नि होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (गिरीन) गिरिणों में सूत्र-संख्या३.२२से मूल शब्द 'गिरि' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर णो' प्रत्यय की यादेश-प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिको भी सिद्ध हो जाता है। खा:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृन रूप बुद्धि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.. मेद्वतीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शाम' का लोप होने से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। तरून:-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसके प्राकृत रूप तुरू और तरुण होते है। इनमें में प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शम का लोप होने से अन्स्य ह्रस्व स्वर 'व' को दीर्घ स्वर 'क' को प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीय रुप ( तरून= ) तरूणों में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'तरू' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरूणो भी सिद्ध हो जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरणा* orkottestostostrotestostosterot torrrrrrrrrrrrrrrrothers थेनः-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से '' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शास' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३.१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्य इस्व स्वर 'व' को दीर्घ स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर घेा रूप सिद्ध हो जाता है। 'येच्छ':-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.२३ में की गई है । 'वच्छे':-रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.४ में की गई है । ३-१८॥ ___ अक्लीबे सौ ॥३-१६॥ इदत्तो क्लीचे नपुंसकादन्यत्र सौ दीपों भवति ।। गिरी | बुद्धी । तरू। घेणु ॥ अक्लीव इति किम् । दहि । महूं ॥ साविति किम् । गिरि , बुद्धिं । तर । घेणु ॥ केचित्त दीर्घत्वं विकल्प तदभावपक्षे सेमादेशमपीच्छन्ति । अगि । निहिं । वाउं । बिहुँ । अर्थ-प्राकृतीय इकारान्त और उकारान्त शब्दों में से नपुसक लिंग वाले शब्दों को छोड़कर शेष रहने वाले पुलिलग और स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त होने वाले 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घ 'ई' की अथवा दीर्घ 'ऊ' की यथा क्रम से प्राप्ति होती है । सारांश यह है कि इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय का लोप होकर दीघ स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:-गिरिःगरी; बुद्धिः-बुद्धी; तरु:-तरू और धेनुः धेणू इत्यादि । प्रश्न:----इकारान्त अथवा अकारान्त नपुसक लिंग वाले शब्दों का निषेध क्यों किया गया है। उत्तरः-इकारान्त अथवा उकारान्त नपुंसक लिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-२५ के विधान से प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हलन्त म्' की प्राप्ति होती है; अतः ऐसे नपुसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग में प्राप्त होने वाली दीर्घता का अभाव प्रदर्शित करना पड़ा है। जैसे:- दधिम-दहिं और मधुम् महुँ इत्यादि । प्रश्न:-मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर अन्स्य ह्रस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों लिखा गया है? उत्तर- इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य हस्व स्वर की दीर्घता 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर होती है; न कि द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर । जैसे:-गिरिम्-गिरि अर्थात पहाड़ को; धुद्धिम-बुद्धिं अर्थात् बुद्धि को तरुम-तरु अर्थात पूत को और धेनुम् धेणु अर्थात गाय को; इत्यादि । इस उदाहरणों में द्वितीय-विभक्ति-बोधक 'म्' 1 ". Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २१ weakreserrorenossocessoorieskterrporatorrrrrrrrrrrestromitram प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर ज्यां का त्यों ही बना रहा है। जबकि प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अन्स्य ह्रस्व स्वर दोध हो जाता है; ऐमा अन्तर प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर इस प्रकार का उल्लेख करना पड़ा है। कोई कोई प्राकृत भाषा के विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' अादेश की प्राप्ति भी होती हैं । ऐसी स्थिति में अन्त्य हृम्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'मि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता का भी अभाव करके प्रथमा-विमक्ति बाधक 'म्' प्रत्यय की प्रदेश रूप कल्पना वैकल्पिक रूप से करते हैं । जैसे:- अग्नि =अग्गि; निधिः = निहिं; वायुः वाउं और विधुः अथवा विभुः = विहुं । इत्यादि । इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति चोधक 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' रूप प्रत्ययकी कल्पना की गई है । किन्तु यह ध्यान में रहे कि ऐसे रूपों का प्रचलन अत्यल्प है-गौण है। 'बहुलाधिकार' से ही ऐसे रूपों को कहीं कहीं पर स्थान दिया जाता है। सर्व-सामान्य रूप से इनका प्रचलन नहीं है। गिरिः-संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरी होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व पर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्धिः-संस्कृत प्रश्रमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। तरूः संस्कृत प्रथमान्न एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'मि' के स्थान पर अन्य उ' को 'क' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुः संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रामि और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "स' के स्थान पर अन्त्य 'ए' को 'क' को प्रामि होकर पा रूप सिद्ध हो जाता है। दधिम् संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिं होता है । इममें सूत्र-संरच्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राम; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' अनुस्वार होकर दहिं रूप सिद्ध हो जाता है। मधुम् संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप म होता है। इसकी सानिका 'दहि' के समान ही होकर मईप सिद्ध हो जाता है Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] * प्राकृत व्याकरखा * Oriorrtoorstessoresskrwissorrowroorkertoonsermoseroroscenetweetrood 'गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संरत्या १-3 में की गई है। बुद्धिम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप बुद्धिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ ले प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर बुद्धिं रूपस हो जाता है। तरुम संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर तरं रूप सिद्ध हो जाता है। धनम्:--संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणु होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका का उपरोक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर घेणुं रूप सिद्ध हो जाता है। अग्निः -मस्कृत रूप हैं। इसका प्रार्ष प्राकृत रूप अम्गि होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४८ से 'न' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'न' के पत्रात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति और ३-१६ की चि से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर अरिंग रूप सिद्ध हो जाता है। निधिः-संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप निहिं होचा है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से "' के स्थान पर 'ह' की प्राति और ३-१६ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' अादेश की प्रामि होकर निहिं रूप सिद्ध हो जाता है। वायु;-संस्कृत रूप है। इसका अाध प्राकृत रूप वाज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'यु' का लोप और ३-१६ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर का रूप सिद्ध हो जाता है। विभुः-संस्कृत रूप है । इसका आर्ष प्राकृत रूप विडे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१८७ मे भ' के स्थान पर 'ह, की प्राप्ति और ३-२६ की वृप्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' आदेश की प्राप्ति होकर बिहुं रूप सिद्ध हो जाता है । ३.१६ ।। पुसि जसो डउ डओ वा ॥३-२०॥ इदत इतीह पश्चम्यन्तं संबध्यते । इदुतः परस्य जसः पुसि अउ अश्रो इत्यादेशी डितो वा भवतः ॥ अग्गउ अम्गयी। पायउ वायत्रो चिट्ठन्ति ।। पक्षे । अम्गिणो । वाउणो ॥ शेषे अदन्तयत् भावात् अग्गी । वाऊ । पुसीतिकिम् । बुद्धीनी । घेण्यो । दहीई । महइं॥ जस इति किम् । अग्गी । अग्गियो । वाऊ ! वाउणो पेच्छइ ।। इदुत इत्येव । वच्छा ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २३ Gopassworrettomorrorosistroessorisecorrrrrrrrrrrrrroroststoroorkee अर्थः-इम मूल-सूत्र में 'इकारान्त उकारान्त से 'ऐसा उल्लेख नहीं किया गया है। अतः अर्थ. स्पष्टीकरण के उद्देश्य से 'इदुतः =इकारान्त उकारान्त शब्दों से ऐसा पंचमी बोधक संबंध-वाचक अभ्याहार कर लेना चाहिये । तदनुसार इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग प्राकृत-शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहु वचन के प्रत्यय 'जस' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' और 'उश्रो' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है । श्रादेश प्राप्त प्रत्यय 'ड' और 'हो' में स्थित '' इत्संझक होने से शब्दान्त्य है और 'उ' की इसंज्ञा होकर इन 'इ' और 'ज' का लोप हो जाता है तथा प्रादेश प्राप्त प्रत्ययों का रूप भी 'अ' और 'श्रओं रह जाता है । जैसे.-अग्नयः - अग्गउ और अगा। वायवः तिष्ठन्ति-वायड वायत्री यिन्ति । वैकल्पिक पर होने से सूत्र-संख्या ३-२२ के अनुसार (अग्नयः) अग्गिणो और (वायवः) बाउणो रूप भी होते है । 'उ' और 'अश्रो' तथा 'गो' आवेश-प्राप्ति के अभाव में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग शब्द-रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-४ से 'जस' प्रत्यय की प्राप्ति और लोप-अवस्था प्राप्त होकर तथा सुत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'न' को दीर्घता की प्राप्ति होकर 'अम्गी' और 'वाऊ' रूप भी होते हैं । इस प्रकार इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा विभाक्त के बहु वचन में चार चार रूप हो जाते हैं। जोकि इस प्रकार हैं:-अग्नयः भग्गउ, अग्गाओ, अम्गिणा और अग्गी । वायवः-वायड, वायत्रो वाउणो और वाऊ ।। प्रश्नः-इकारान्त एकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ही 'अ' और 'अनो' आदेश-प्राप्ति होती है। ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? - उत्तरः-स्त्री लिंग पाचक और नपुसक लिंग वाचक इकारान्त उकारान्त शब्दों में 'जस' प्रत्यय को प्राप्ति होने पर 'अाउ' और 'अओ' आदेश-प्राप्ति का अभाव है; अतः पुल्लिग शब्दों में ही इन 'अउ' और 'श्री' का सद्भाव होने से 'पुसि' ऐसे शब्द का मूल-सूत्र में उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-बुद्धयःबुद्धीनो धेनवः धेणूत्रो; दधीनि == दहीइं और मधूनि = महूई इत्यादि । इन उदाहरणों में पुल्लिगस्य को प्रभाव होने से और स्त्री लिंगत्व का तथा नपुसक लिंगत्व का सद्भाव होने से 'अउ' और 'अश्रो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्ययों का प्रभाव प्रदर्शित किया गया है यो सूत्र में लिखित 'पुसि' शब्द का तात्पर्य-विशेष जान लेना चाहिये। प्रश्नः-प्रथमा विभक्ति बोधक 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ही 'अ' और 'अत्रओ' आदेशमाप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ! उत्तर:-प्रथमा विभक्ति बोधक प्रत्यय 'जस' के अतिरिक्त द्वितीया विभक्ति बोधक 'शस' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अथवा अन्य विभक्ति बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी सन प्रत्ययों के स्थान पर 'श्रउ' और 'अो आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'अ' और 'अश्रों' आदेश-प्राप्ति केवल 'जस्' प्रत्यया के स्थान पर ही होती है। ऐसा तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये हो मूल-सूत्र में 'जसो' ऐसा उल्लेख Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] 2प्राकृत व्याकरण 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000002 करना पड़ा है। जैसे:-अग्नीन (अथवा) वायून पश्यनि-अरिंग (अथवा) अमिगणो (और) चाऊ (अथवा) वारणो पेच्छइ अर्थात वह अग्नियों को (अथवा। वायुश्री को देखता है। इन उदाहरणों में द्वितीया विमति बोधक प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर 'आज' और 'श्रो' आदेश-प्राप्ति का प्रभाव प्रदर्शित करते हुए यह प्रतिबोध कराया गया है कि 'अत्र' और 'अयो'श्रादेश-प्रामि केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; न कि 'शस' आदि अन्य प्रत्ययों के स्थान पर । प्रश्नः इस सूत्र की वृत्ति में आदि में 'इकारान्त' और 'उकारान्त जैसे शब्दों के उल्लेख करने का क्या तात्पर्य-विशेष है ? उत्तर:-'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों के अतिरिक्त 'अकारान्त' आदि अन्य शब्दों में भी होती है; अतः सूत्र-संख्या ३-२० से 'जस' प्रत्यय के स्थान पर होने वाली 'उ' और 'अत्रों' आवेश-प्राप्ति केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों में ही होती है। अकारान्त आदि शब्दों में नहीं हुथा करती है। ऐसी विशेषता प्रकट करने के लिये हो वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'टकारान्त पद की संयोजना करनी पड़ी है। जैसे:-वृक्षाः बच्छा । इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि जैसे-अगाज और अग्गयो तथा वायउ और वायत्रो रूप बनते हैं। वैसे वच्छा' और 'वच्छश्री' रूप प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नहीं बन सकते हैं । इस प्रकार इस सूत्र में और वृत्ति में लिखित 'सि'; 'जसो' और 'इदुतः' पदों की विशेषता जाननी चाहिये। अग्मयः संस्कृत प्रथमा रूप है । इसके प्राकृत रूप अग्गर, अग्गो और अग्गिणी होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'न' के पश्चात शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति; ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृलीय प्रत्यय 'जस' के स्थानीय रूप 'यस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'ड' और 'डना' प्रादेश-प्रा%ि; आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ड' और 'उमा' में हलन्त 'ई' इत्संज्ञक; तदनुसार प्राप्त रूप 'अग्गि' में से अन्त्य स्वर 'इ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं अंत में ३-२० से प्राप्त प्रत्यय 'अ' और 'यश्री' की अग्ग' में संयोजना होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दोनों रूप अग्गउ और अग्गाओ सिद्ध हो जाते हैं। अरिंगणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है। पायवः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वायउ, वायत्रो और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम वो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२० से संस्कृतीय प्रथमा विमक्ति बोधक प्रत्यय 'जस' के स्थानीय रूप 'प्रस' के स्थान पर प्राकृत में 'डर' और 'डओ' प्रत्ययों की बैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्लि; आदेशप्राप्त प्रत्यय 'डड' और 'हो' में स्थित 'इ' इत्संझक होने से मूल शब्म 'वायु में स्थित अन्त्य स्वर'' की इसहा होकर लोप एवं तत्पश्चात शेष रहे हुए 'चाय' रूप में कम से 'म' और 'अयो' प्रस्यों की Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ २५ worwwe.ornstorisrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrromeowwwesometeorosoon संयोजना होकर प्रथम के दो रूप क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'वाय' और 'पायभो सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप (वायवः = ) पाउणो में सूत्र-संख्या २-७८ से 'थ्' का लोप और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस् के स्थानीय रूप 'स' के स्थान पर प्राकृत में 'णी' प्रत्यय को वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'घाउणो सिद्ध हो जाता है। अग्नयः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप अग्गों होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न' का लोप: २-८६ से शेष 'ग' को द्वित्व 'गा' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जम्' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर ई' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप अग्गी सिद्ध हो जाता है। वायवः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वाक होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस' के कारण से अन्य वस्त्र स्वर 'ज' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप थाऊ सिद्ध हो जाता है । बुद्धयः-- संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होना है। इसमें सूत्रसंख्या ३-२७ से अन्त्य हम्ब स्वर 'द' को दोर्घना को प्राप्ति के साथ 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीमी रूप सिद्ध हो जाता है। धेनवः- संस्कृत प्रथमान्त बटुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूत्री होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२२८ से 'न' को 'ण' को प्राप्ति और ३-७ से संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति बाधक प्रत्यय 'जम' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'g' को दीघ 'क' को प्राप्ति के साथ 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शेषाभो रूप सिद्ध हो जाता है। दधीन संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वहीइं होता है। इसमें मूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर है.' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नमक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दही रूप सिद्ध हो जाता है। मधूमि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महूई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस् के स्थानीय रूप 'अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महूई रूप सिद्ध हो जाता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ]. * प्राकृत व्याकरण * 00000000000000eosamerecessoconstresmositoosteronorensorosorsmoooooooo अग्मीद संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप अगो और अग्गिणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-५८ से 'न' को लोप २-८८ से शेष 'ग्' को द्वित्व 'मग' को प्राप्ति ३-१ से द्वितीया विक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय शस' की प्राप्ति होकर लोप; और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के कारणों से अन्त्य हम्ब स्वर इ' को वीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर अरगी सिद्ध हो द्वितीय रूप-(अग्नीन् अग्गिणों में 'अग्गि तक की साधनिका ऊपरीक्त रूप के समान; और ।। ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शम्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति काल्पक रूप से होकर द्वितीय रूप अग्गिणी भी सिद्ध हो जाता है। वायून संस्कृत द्वितोयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वाऊ और वाउगी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-२-७८ से 'य' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'अन्त्य स्वर का दीर्धता पूर्वक' 'न' को प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्न प्रत्यय 'शस' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को वीर्घ स्वर 'क' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप पाऊ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (वायून=) वाउणो में 4-4 से 'य' का लोप और ३-२२ से शेष रूप 'या' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्रादेशप्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर द्वितीय रूप पाउणो भी सिद्ध हो जाता है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है ।।३-२०|| वो तो डवो ॥३-२१॥ उदन्तात्परस्य जसः पृसि द्वित् अवो इत्यादेशो वा भवति । साहबो । पक्षे । साहनी। . साहट । साहू । साहुणो ।। उन इति किम् । बच्छा ।। पुसीत्येव । घेणू । महुई । जस इत्येव । साहूणो पेच्छ॥ अर्थ:--प्राकृतीय उकारान्त पुलिलय शठकों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डवो' प्रत्यय को प्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है । आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'उवो' में 'ड्र' इत्संज्ञक होने से शेष प्राप्त प्रत्यय भयो' के पूर्व मे जकारान्त शब्दों में अन्त्य स्वर 'उ' को इत्संज्ञा होकर इस 'उ' का लोप हो जाता है एव तत्पश्चात अबो' प्रत्यय की संयोजना होती है। जैसे:साधवः साहयो । वैकल्पिक पक्ष हाने से सूत्र-संख्या ३-० से (साधवः=) साइनो और साहस रूप भा होते हैं। सूत्र संख्या ३-४ से (साधना=) साहू रूप भी होता है। इसो प्रकार से सूत्र संख्या ३-२२ से (साधकः =) साहूणो रूप भो होता है । यो प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'साहु के पाँच रूप हो जाते हैं. जो कि इस प्रकार है -साधव) साहबो, साहो, साड, साहू और साहुणः ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २७ wereosotroseroserotorstresroorkersonorresprrorstvoroscorrent प्रश्नः-'उकारान्त' शब्दों में ही प्रथमा अपन में वो माया को प्राति होती है पंसा षषों कहा गया है ? . उत्तरः-कयोंकि 'अकारान्त' अथवा 'इकारान्स' में प्रथमा बहुवचन में 'वो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की उपलब्धि नहीं है एवं केवल 'उकारान्त' में हो 'अवो' प्रत्यय की उपलब्धि है; अतएव ऐसा विधान बनाना पड़ा है कि कंवल प्राकृताय उकारान्त शब्दों में ही प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'वो' आदेश प्राप्त प्रत्यय विशेष होता है । जैसे:-वृक्षान् = वच्छा । यो वच्छवो' रूप का अभाव सिद्ध होता है। प्रश्नः-'उकारान्त पुल्लिग' में हा 'अवा' प्रत्यय अधिक होता है; ऐला भो क्यों कहा गया है। उत्तरः-वकारान्त स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग वाजें भी शब्द होते हैं। ऐसे शब्द प्रकारान्त होत हुए भी इनमें 'पुल्लिगत्व' का अभाव होने से 'अवा' प्रत्यय का इनके लिये भी अभाव होता है; ऐसा विशेष तात्पय बतलान के लिये हो 'पुल्लिगत्व' का विशेष विधान किया गया है। जैसे:-धेनवः धेरणू और मधूनि=महूई। ये उदाहरण उकारान्तात्मक होने हुए भी पुस्विगात्मक नहीं होकर क्रम से बोलिंगारमक और नपुंसक लिंगात्मक होने से इनमें 'अवा' प्रत्यय का अभाव जानना चाहिये। प्रश्न:-प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस' प्रत्यय के स्थान पर ही 'श्रवो आदेश-प्राप्त प्रत्यय व काल्पक रूप से होता है। ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तर:--क्यों कि 'अवो' श्रादेश प्राप्त प्रत्यय केवल प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस' प्रत्यय के स्थान पर ही होता है; अन्य विभक्तियों के प्रत्ययों के स्थान पर 'अवो' श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है। ऐमा प्रदर्शित करने के लिये ही 'जस्' का उल्लेख करना पड़ा ६ । जैसे:-साधून पश्य-साहू (अथवा) साहुण्यो पेच्छ । इस उदाहरण में द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन में शस' प्रत्यय के स्थान पर 'अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित हो रहा है। क्योंकि ऐसा विधान नहीं है। अतः यह प्रमाणित किया गया है कि 'अवा' प्रादेश-प्राप्त प्रत्यय का विधान केवल प्रथमा बहुवचन में ही होता है। वह भी पुल्लिग में ही और केवल उकारान्त में ही हो सकता है। साधषः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप साहषो, साहनी, साहस, साह और साहुणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ में 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-३-०१ से संस्कृतोय प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जस' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डचो' आदेश-प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डबो में 'द इत्संज्ञक होने से 'साहु में स्थित अन्त्य स्वर '' की इत्संज्ञा होकर 'इ' का लोप एवं प्राप्त रूप 'साह.' में 'अवो' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप सही सिद्ध हो जाता है। ____ द्वितीय और तृतीय रूप 'सोही' एवं 'साइड' में सत्र संख्या ३०२० से संस्कृतीय प्रथमान्त बहुषचन के प्रत्यय 'जम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' और 'ड' आदेश माक्षिा प्राप्त प्रत्यय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] * प्राकृत व्याकरण * Gopatrotrososo000000000000000000morrorontroot000000000000000000000000000 'डो' और 'डज' में 'ड' इत्सबक होने से 'साहु' में स्थित अन्य स्वर 'उ' की इसंज्ञा होकर 'उ' का लोप एवं प्राप्त रूप 'साह.' म 'अयो' तथा 'अ' प्रत्यय की संयोजना होकर द्वितीय और तृतीय रूप साहो तथा साहस भी क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप 'साहू' में सूत्र-मंख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय जम' की प्राप्ति होकर लोप तथा ३-१२ से प्राप्त एवलुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ज' की प्राप्ति होकर चतुर्थ प्रथमान्त बहुवचन रूप साहू भो सिद्ध हो जाता है। पंचम रूप 'साहुणो' में सूत्र-संख्या ३-१२ से संस्कृतीय प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जम' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'गो' श्रादेश-प्राप्ति होकर पंचम रूप साहुणो भी सिद्ध हो जाता है। "अच्छा" (प्रथमान्त बहु वचन) रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या -४ में की गई है। धेमवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है । इमका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' का 'ण'; ३-४ से प्रथमा विभक्त के बष्टु वचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यथ 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त बहुवचन रूप घेणू सिद्ध हो जाता है। महूई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-70 में की गई है। साधून संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप साहू और साहुणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८७ से मूल रूप 'साधु' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; तपश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'शस' प्रत्यय के कारण से अन्स्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीयान्त बहुवचन रूप 'साहू' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'साहुणो' में सूत्र-संख्या ३.२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिंग द कल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप साहुणो मिद्ध हो जाता है। पेच्छ (क्रिया पद के ) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है ॥ ३-२१ ॥ जस्-शसोर्णो वा ॥ ३-२२ ॥ इदृतः परयो जस्-शसोः पुसि को इत्यादेशो भवति ।। गिरिणो तरुणो रेहन्ति पेच्छ वा । पक्षे | गिरी । तरू । पुसीत्येव । दहीई । महूई ।। जस्-शसो रिति किम् । गिरिं । तरु॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ २६ dossroorrowroorkestraresandrosterdererrowserverseaseensex600000 इदुत इत्येव । बच्छा। बच्छ । जस्-शसोरिति द्वित्वमिदुत इत्यनेन यथासंख्या भावार्थम् । एवमुत्तरसूत्रे पि॥ अर्थः-प्राकृतीय इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग शटदों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में मस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'जस' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रादेश को प्राप्ति होती है। जैसे:-गिरयः अथवा तरवः राजन्ते गिरिणे अथवा तरुणो रेहन्ति अर्थात् पर्वत श्रेणियाँ अथवा वृत्त-समूह सुशोभित होते हैं । इस उदाहरण में संस्कृतीय प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय 'जम' के स्थान पर प्राकन में 'गो' आदेश को प्राप्ति हुई है। द्वितीया विभक्ति का उदाहरण इस प्रकार है:--गिरोन अथवा तरून् पश्य-गिरिणो अश्रवा तरुणो पेच्छ अर्थात् पर्वत श्रेणियों को अथवा वृक्षों को देखो। इस उदाहरण में संस्कृतीय द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' श्रादेश को प्राप्ति हुई है । वैकल्पिक पक्ष होने से गिरयः और गिरीम का प्राकृत रूपान्तर गिरी' भी होता है। इसी प्रकार से तरवः और तरून् का प्राकृत रूपान्तर 'तरू' भी होता है। प्रश्नः- इकारान्त उकारान्त पुल्लिग शब्दों में हो 'जम् और 'शम' के स्थान पर ‘णो' आदेश प्राप्ति होता हैऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- इकारान्त उकारान्त शब्द नपुंसक लिंग वाले और स्त्रीलिंग वाले भी होते हैं, ऐसे शब्दों में 'जस्' और 'शस के स्थान पर 'गो' श्रादेश-प्राप्ति नहीं हुआ करती है। जैसे:-धीनि-दहीई और मधूनि = महूई। इन नपुसक लिंग वाले लदाहरणों में प्रथमा और द्वितीया में जस्' तथा 'शस्' के स्थान पर 'गो' आदेश-प्राप्ति नहीं होकर 'ई' आदेश-प्राप्ति हुई है। स्त्रीलिंग के उदाहरण:-बुद्धयः और बुद्धोः = बुद्धी तथा धेनवः और धनूः घेणू । इन इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा और द्वितीया में 'जस्' तथा 'शस' के स्थान पर 'गो' श्रादेश-प्राप्ति नहीं हार अन्त्य स्वर को हो आदेश रूप से दोपता की प्राप्ति हुई है.। यो समझ लेना चाहिये कि केवल पुल्लिा इकारान्त उका. रान्त शब्दों में ही 'जस' तथा 'शस' के स्थान पर 'णो' आदेश पानि वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। मदनः-'जस्' और 'शम' ऐमा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:-इकारान्त उकारान्त पुल्लिग शब्दों के सभी विभक्ताय बहुवचनीय रूपों में से केवल प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय रूपों में हो ' आदेश प्राप्त प्रत्यय का प्राप्ति हुश्रा करतो है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन में 'णो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय को प्राप्त नहीं होती है। ऐसा विशेषता पूर्वक तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही 'जस्' और 'शप्त' का नाम-निर्देश करना पड़ा है। जैसे:-गिरिम् अथवा तहम् गिरि अथवा तर याने पहाड़ को अथवा वृक्ष को; इन उदाहरणों में द्वितीया धिमक्ति के एक वचन का प्रत्यय 'म्' प्राप्त हुआ है, न कि 'णा' आदेश-प्राप्त प्रत्यय, अतएव सत्र में Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___प्राकृत व्याकरण * 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उल्लिखित 'जम' और 'शम्' के उल्लेख का तात्पर्य समझ लेना चाहिये । प्रश्न:-सुत्र को वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' कहने का क्या तात्पर्य है। उत्तरः-प्राकृत में अकारान्त आदि शब्द भी होते हैं, परन्तु (इकारान्त और उकारान्त शब्दों) के अतिरिक्त) ऐसे शब्दों में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा विशेष तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'अकारान्त' जैसे शब्द-विशेषों को लिखना पड़ा है । जैसेः-वृक्षाः-बच्छा और वृक्षाम् अच्छे । यह उदाहरण अकारान्तास्मक है, तथा इममें कम से 'जस' और 'शस' की प्राप्ति हुई है; परन्तु प्राप्त प्रत्यय 'जम' और 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश-प्रान प्रत्यय का अभाव है; तदनुसार यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्राकृत में अकारान्त श्रादि शब्दों के अतिरिक्त केवल इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग शब्दों में हो 'जस' तथा 'शस' के स्थान पर 'णो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय के स्थान पर 'णो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होता है। मूल-सूत्र में 'जस-शसोः' ऐसा जो द्वित्व रूपात्मक उल्लेख है; इसको यथा क्रम से 'इकारान्त' और 'सकारान्त' शब्दों में संयोजित किया जाना चाहिये; दोनों का दोनों में क्रम स्थापित कर देना चाहिये । ऐसा 'यथा-संख्यात्मक' भाव प्रदर्शित करने के लिये ही 'द्वित्व' रूप से 'जस-शसोः' का उल्लेख किया गया है। यही परिपाटी आगे आने वाले सूत्र- संख्या ३-२३ के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, जैसा कि ग्रंथकार ने वृत्ति में 'उत्तर-सूत्रेपि' पद का निर्माण करके अपने मन्तव्य को प्रदर्शित किया है। गिरयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूध-संख्या ३-२२ से से प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में णा' आदेश-प्राप्ति होकर गिरिषों रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'जस्' का लाप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जम् प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दोध स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरि भी सिद्ध हो जाता है। तरमः संस्कृन प्रश्रमान्त बहुवचन का रूप है । इस के प्राकृत रूप तरुणो और तरू होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३.२२ से माकृतीय प्रथमा विभति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अादेश-पाति होकर प्रथम रूप तरुणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतोय प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप प्रत्यय 'जात' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरू भी सिद्ध हो जाता है। राजन्ते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहन्ति होतो Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३१ vertersnesstoratorrentroes0000000rsert:00660**sterहै । इसमें सूत्र संख्या-४-१०० से संस्कृतीय 'राज' धातु के स्थान पर 'रेह' आदेश; ४-२३६ से प्राकृत हलन्त धातुओं के विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में (न्त' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। गिरिणो (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या -१८ में की गई है। तरुणी (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। पेच्छ किया पद) रूप की सिद्धि मन्त्र संख्या १-२३ में की गई है। गिरी (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या -१८ में की गई है। तरू (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या :-१८ में की गई है। यहाई (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र संखया --20 में की गई है। महूई (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -70 में की गई है। गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२ में की गई हैं। तरं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६ में की गई है। पच्छा रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या ३-४ में की गई है। पच्छे रूप की सिद्धि सूत्र -संख्या ३-४ में की गई है ॥३-२२।। ङसि-ङसोः पु-क्लीवे वा ।। ३--२३ ॥ पुति क्लीवे च वर्तमानादिद्वतः परयो सि सोणों वा भवति ।। गिरिणो । तरूणो । दहिणो । महुणो श्रागो विमारो वा । पक्षे । उसेः । गिरीश्रो । गिरीउ। गिरीहिन्ती । तरूनी । तरूउ । तरूहिन्तो ।। हिलुको निषेत्स्यते ।। उसः। गिरिस्स । तरुस्स | सि उसो रिति किम् । गिरिणा । तरुणा कधं ॥ पुक्लीव इति किम् । बुद्धी । घेणूथ लद्ध समिद्धि वा । इदुत इत्येव । कमलाओ । कमलस्स | अर्थ:--प्राकृतीय इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से (प्राकृत में) 'णो' आदेश की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार से इन्हीं प्राकृतीय इकारान्त सकारान्त पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतोय-प्रत्यय 'उस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से (प्राकृत में) 'णो' आदेश को प्राप्ति होती है। पुल्लिंग वाले इकारान्त Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] *प्राकृत व्याकरण * +restrostorrowt660664keraroork.c0000000000rvotterinterstratecom अथवा उकारान्त के पंचमी विभक्ति के एक वचन का उदाहरण:-गिरेः अथवा तरीः भागत:-गिरिणो अथवा तरुणो आगो पहाड़ से अथवा वृक्ष सं आया हुआ है। इकारान्त अथवा उकारान्ट के पुल्लिंग में षष्ठी विभक्ति के एक वचन का उदाहरण-गिरेः अथवा सरोः विकारागिरिणी अथवा तरी: विकार:-गिरिणो अथवा तरुणो विप्रारो अर्थात् पहाड़ का अथवा वृक्ष का विकार है । नपुसक लिंग वाले इकारान्त अथवा उकारान्त के पंचमी विभक्ति के एक वचन का उदाहरण:-धनः अथवा मधुनः आगतः दहिणो अथवा महुणो श्रागश्रो अर्थात् दहो से अथवा मधु से आया हुआ (प्राप्त हुआ) है। इसी प्रकार से नपुंसक लिंग वाले इकारान्त अथवा उकारान्त के षष्ठी विभक्ति के एक वचन का अदाहरणः-दन्नः अथवा मधुन. विकारः दहिणी अथवा महुणो विचारो अर्थात दही का अथवा मधु का षिकार है । इन उदाहरणों में पुल्लिंग में एवं नपुंसक लिंग में पंचमी विभक्ति के एक वचन में और पष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'णो' प्रत्यय को श्रादेश--प्राप्ति हुई है। वैकल्पिक पक्ष होने से पंचमी विभक्ति के एक वचन में इकारान्त में सूत्र-संख्या ३.८ से 'गिरीयो, गिरीउ और गिरी हिन्तो' रूप भी होते हैं । एकारान्त में भी पंचमा विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-८ से 'तरूओ, तरूव और तरूाहिन्ती' रूप होते हैं। सूत्र संख्या ३-4 से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'हि' और 'लुक' का सूत्र-संख्या ३-१२६ और ३.१२७ में निषेध किया जायगा; तदनुमार इकारान्त सकारान्त में पंचमी विभक्ति के एक वचन में 'हि' और 'लुक' प्रत्यय का अमाव जानना । षष्ठी विभक्ति के एक वचन में भी इकारान्त और उकारान्त में उपरोक्त 'गो' प्रादेश प्राप्त प्रत्यय की स्थिति वैकल्पिक होने से सूत्र-संख्या ३-१० से संस्कृतीय प्रत्यय 'हम' के स्थान पर 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति हुश्रा करती है । जैसे:-गिरेः = गिरिस्स अर्थात् पहाड़ का और तरी:- नरूस्म अर्थात वृक्ष का। प्रश्न:-इकारान्त अथवा उकारान्त पुल्लिंग और नपुसक लिंग वाले शब्दों में पंचमी विभक्ति और षष्ठी विभक्ति के एक वचन में क्रम से प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' और 'अस्' के स्थान पर 'गो' प्रत्यय होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-इकारान्त अथवा उकारान्त में पंचमी विभक्ति के एक वचन के अतिरिक्त और षष्ठी विभक्ति के एक वचन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विभक्ति के एक वचन में प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं हुआ करती है; इसीलिये 'सि' और 'कुम्' का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-गिरिणा अथवा तरुणा कृतम-गिरिणा अथवा तरुणा कयं अर्थात पहाड़ से अथवा वृक्ष से किया हुआ है। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि पंचमी अथवा षष्ठी विभक्ति के एक वचन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विभक्ति के एक वचन में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'पो' प्रत्यय का अभाव ही होता है। प्रश्नः-पुल्लिंग अथवा नपुसक लिंग वाले इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'सि' और Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३३ *********** 1660 'उस' के स्थान पर 'णो' प्रदेश प्राप्ति होती है; ऐसे इस विधान में 'पुल्लिंग' का और नपुंसकलिंगत्व का कथन क्यों किया गया है ! 4000 उत्तर:-इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'स्त्रीलिंग' वाले शब्दों का भी अन्तर्भाव होता है; किन्तु ऐसे 'स्त्रीलिंग' वाले इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'मि' और 'इस' के स्थान पर 'गो' की प्राप्ति नहीं होती है; अतएव इन स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये 'इसि' और 'इस्' के स्थान पर 'गो' आदेश प्राप्त प्रत्यय को प्रभाव प्रदर्शित करने के लिये पुल्लिंग और नपुंसक लिंग' जैसे शब्दों का उल्लेख करना पड़ा है। 'स्त्र लिंग' से संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:- पंचमी विभक्ति के एक वचन का दृष्टान्तः बुद्धवाः अथवा घेन्याः लब्धम् बुद्धी अथवा घेणू लद्धं अर्थात बुद्धि से अथवा गाय से प्राप्त हुआ है | षष्ठी विभक्त के एक वचन का दृष्टान्तः -- बुद्धयाः घथवा धेन्वाः समृद्धि: - बुद्धीअ अथवा घेणूअ समिद्धी अर्थात बुद्धि की अथवा गाय की समृद्धि है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'इति' और '' के स्थान 'गो' आवेश प्राप्त प्रत्यय का प्रभाव होता है । प्रश्नः— 'इकारान्त' और 'उकारान्त' ऐसे शब्दों का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः--इकारान्त आर उकारान्त के अतिरिक्क श्राकारान्त तथा अकारान्त शब्द भी होते हैं; इनमें भी 'ङसि' और 'ङस्' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; परन्तु जैसे इकारान्त और उकारान्त में 'सि' और 'उस' के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; बैसी 'णो आदेश प्राप्ति 'आकारान्त और 'अकारान्त' में नहीं होती है; ऐसा भेद प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति में 'इकारान्त' और 'डकारान्त' जैसे शब्दों का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- कमलायाः = कमला अर्थात् लक्ष्मी से और कमलस्य = कमलक्स अर्थात् कमल का। इन उदाहरणों में 'इसि' और 'इस्' प्रत्ययों की प्राप्ति हुई है परन्तु ऐसा होने पर भी प्राप्त प्रत्ययों 'इति' और 'ङस्' के स्थान पर 'खो' आदेश-प्राप्ति नहीं हुई हैं। इस प्रकार इकारान्त और उकारान्त शब्दों में हो 'उसि' एवं ' के स्थान पर 'खो' आदेश प्राप्ति होती है; ऐसा विधान सिद्ध हुआ । गिरेः संस्कृत एक वचनात्मक पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२३ से मूल शब्द 'गिरि' में संस्कृतीम पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' आदेश प्राप्ति होकर गिरिणो रूप सिद्ध हो जाता है । तरीः संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप तरुण होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३- २३ से मूल शब्द 'तरु' में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय ङमि' के स्थानीय रूप 'असू' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश-प्राप्ति होकर तरूणी रूप सिद्ध हो जाता है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * •oweredressertersnessetorwarroriwwwerstoornwww.sex.somooves दुख्ना संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप दहिणो होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.१८७ से मूल शब्द 'वधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३.२३ से प्राप्त रूप 'दहि' में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वधान में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में प्यो' श्रादेश-प्राप्ति होकर दहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। मधुनः संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप महुणो होता है। इसमें सूत्र. संख्या १-१८७ से '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त रूप 'महुँ' में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'मि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'यो' आदेश--प्राप्ति होकर महुणो रूप सिद्ध हो जाता है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या १-१०९ में की गई है। विकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृन रूप विप्रारी होता है । इममें सूत्र-संख्या १-५७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय स' के स्थानीय रूप विमर्ग के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरो रूप भिद्ध हो जाता है। गिरेः संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप गिरीश्रो, गिरीउ और गिरीहिन्तो होते हैं। इनमे सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'गिरि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति और ३-८ से संस्कृतीच पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'इसि के स्थानीय रूप 'स' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दोश्री', 'दु' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाते है। तरा संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसके प्राक्कन रूप तरूओ, तकउ और तरूहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'तरु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर '' को दीर्घ स्वर 'अ' की प्राप्ति और ३.८ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्रायत में क्रम से दो-यो'; 'दु-उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप तरूओ, तरूउ और तरूहिन्ती सिद्ध हो जाते हैं। । गिरेः संस्कृत एक वचनान्त षष्ठ्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरिस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र-संख्या ३-२३ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' श्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप गिरिणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( गिरेः= ) गिरिस्म में सूत्र-संख्या ३.१० से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय इस के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिस्स सिद्ध हो जाता है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Moreworrorsensorrorresorrowserversemurror.wevontronoterpto तरी: संस्कृत एकवचनान्त षष्ठयन्त रूप है। इसके प्राकृल रूप तरुणो और तहस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२३ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'इस' के स्थानीय रूप 'अस् के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप तरुणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( तरी:-) तरुस्स में सूत्र--संख्या ३-१० से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में माप्त प्रत्यय 'डास' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरुस्स सिद्ध हो जाता है। गिरिणा संस्कृत सृतीथान्त एक वचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप (भी) गिरिणा होता है। इममें सूत्र-संख्या ३-०४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'णा' के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरिणा रूप सिद्ध हो जाता है। + तरुणा संस्कृत तृतीयान्त एक घचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप (मो) तरुणा ही होता है। इपमें सूत्र-संख्या ३-२४ से संस्कृतीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप णा' के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तरुणा रूप भी सिद्ध हो जाता है। फय रूपाकी सिद्धि सूत्र संख्या १-१२F में की गई है। बुख्याः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एक वचन का और पाठी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीन होता है । इसमें सुत्र--संख्या-३-२६ से संस्कृतीय पंचमरे विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस-पास' के स्थान पर और षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'कस्' के स्थानीय रूप 'अस-आस्' के स्थान पर प्राकृत में मूल रूप 'बुद्धि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर '६' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दोनों विभक्तियों में बुखी रूप सिद्ध हो जाता है। धन्याः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एक वचन का और षष्ठी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूम होता है । इसमें सूत्र-संख्या १--२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-६ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'श्रस्'='पास के स्थान पर और संस्कृतीय षष्ठी विभक्टि के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप 'अस्' पास' के स्थान पर प्राकृत में मूल रूप घेणु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ 'क' की प्राप्ति करते हुए' 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दानों विभक्तियों) में घेणूम रूप सिद्ध हो जाता है। लब्धम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप लद्धं होता है। इसमें सूत्र--संख्या २-६ से 'चू' का लोपः २-८६ से लोप हुए 'ब्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ध्' को द्वित्व 'धू धू' की प्राप्ति; २-६० से Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] प्राकृत व्याकरण * orstoortorrorroresroorsroreoverrowrossroomeraorresteroconscessorderoine प्राप्त पूर्व 'ध' के स्थान पर 'दु' की प्राप्ति; ३-.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृतीय-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्राकृत रूप लई सिद्ध हो जाता है। समिद्धी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। कमलाया संस्कृत पंचना विभक्ति के एक वचन को रूप है। इसका प्राकृत रूप कमलाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-८ से पंचमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्याः ' के स्थान पर प्राकृत मे 'दोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप कमलाओ सिद्ध हो जाता है। कमलस्य संस्कृत षष्ठयन्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप कमलस्त होता है। इसमें सूत्रसंख्यो ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'डस्' के स्थानीय रूप-'असमस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप कमलस्स सिद्ध हो जाता है ॥ ३-२३ ।। टोणा ॥३-२४॥ पुक्लीचे वर्तमानादिदुतः परस्स टो इत्यस्य णा भवति ॥ गिरिणा । गामणिणा । खलपुणा । तरुणा । दहिणा । मगुणा ।। ट इसि किम् । गिरी । तरू । दहिं । महूं ॥ पुक्लीन इत्येव । बुद्धी । घेणून कयं ॥ इदुत इत्येव । कमलेण ॥ अर्थ:-प्राकृतीय इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुसक लिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:--गिरिणा = गिरिणा अर्थात् पर्वत से; प्रामण्या =गामणिणा-आम के स्वामी से अथवा नाई से; खलप्वा-खलपुणा अथात झाडु देने वाले पुरुष से; तरुणा-तरुणा अर्थात् वृक्ष से; दधना-दहिणा अर्थात् दही से और मधुनामहुणा अर्थात् मधु से । इन उदाहरणों में सृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। पहन:-तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर ही 'णा' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः-तृतीया विभक्ति के एक यमन के अतिरिक्त किसी भी विमक्ति के किसी भी वचन के प्रत्ययों के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही लिखा गया है कि 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । जैसे:-गिरिः गिरी अर्थात् पहाड तरु:तरू अर्थात् घृक्ष; दधि-दहिं अर्थात् दहो और मधु-महुँ अर्थात् मधु । इन उदाहरणों में 'णा' प्रत्यय का Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 6000000000000rroreroorkeratorsrrenorrorecomorrowroorresors.retooto अभाव प्रदर्शित करके यह सिद्ध किया गया है कि 'या' प्रत्यय केलव तृतीया विभक्ति के एक वचन में ही प्राप्त होता है न कि किसी अन्य विभक्ति में। प्रश्नः-पुल्लिग और नपुसक लिंग' ऐसे शलहों का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त शब्द स्त्रीलिंग वाचक भी होते हैं परन्तु उन इकारान्त और इकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में'टा'प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी इस प्राप्तव्य 'टा' प्रत्यय के स्थान पर'णा'की श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है; अत: 'टा' के स्थान परणा'प्रादेशप्राप्ति केवल पुल्लिग और नपुसकलिंग वाले शब्दों में हा होती है। यह बतलाने के लिये हो पुल्लिंग और नपुसक लिंग जैसे शब्दों का सूत्र को वृत्ति के प्रारम्भ में प्रयोग किया गया है। जैसे:-बुद्धया-बुद्धी बुद्धि से धेन्वा कृतम् धेणू कयं अर्थात् गाय से किया हुआ है। इन उदाहरणों में तृतीया विभक्ति के एक वचन का 'टा' प्रत्यय प्राप्त हुआ है; परन्तु 'टा' के स्थान पर 'णा' नहीं होकर सूत्र-संख्या ३-२६ से 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है; यो अन्यत्र मी जान लेना चाहिये । प्रश्नः-'इकारान्त और उकारान्त' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर-इसमें ऐसा कारण है कि प्राकृत में प्रकारान्त तथा आकारान्त आदि शन भी होते हैं परन्तु उनमें भी 'टा' के स्थान पर 'णा' श्रावेश-प्राप्ति नहीं होती है; अतः इकारान्त और उकारान्त जैसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ा है। जैसे:-कमलेन-कमलेण अर्थात् कमल से। . गिरिणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-73 में की गई है। ग्रामण्या संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र'को लोप; ३-४३ से मूल शब्द 'ग्रामणी' में स्थित दांर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३.५५ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामणिणा रूप ' सिद्ध हो जाता है। खलप्या संस्कृत सृतीयान्न एक वचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप खलपुणा होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मुल शब्द 'स्खलपू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ॐ' के स्थान पर प्राकत में हम्ब स्वर '' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'श्रा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खलपुणा रूप सिद्ध हो जाता है। तरुणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-7 में की गई है। दध्ना संस्तन तृतीयान्त एक पचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप दहिणा होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-१८० से मूल-शब्द 'दघि' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * torror trootsveerrestreatreeswaroorrotterrorrentremorrowstram विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की आदेश--प्राप्ति होकर दहिणा रूप सिद्ध हो जाता है। मधुना संस्कृत तृतीयान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप महुणा होता है। इसमें सूत्रसंख्या-१-१८७ से 'धू' के स्थान पर 'ह की प्राप्ति और ३.२४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'ना' के स्थान पर प्राकृत में णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महणा रूप सिद्धो जाता है। गिरी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -१९ में की गई है। तरू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९ में की गई है। दहिं रूप की सिध्दि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। महुँ रूप की सिध्दि सूत्र--सख्या ३-१९ में की गई है। बुद्धया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप बुध्दी होता है। इसमें सूत्र' संख्या ३-२६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'दा' के स्थानीय रूपमा स्थान पर प्राइत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीघ स्वर 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिध्द हो जाता है। धेन्या संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणूत्र होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-२२६ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शेणूम रूप सिग्द से आता है। कार्य रूप की सिध्दि सूत्र-संख्या १-१२5 में की गई है। कमळेम सस्कृत तृतीयान्त एक बंधन रूप है । इसको प्राकृत रूप करलेण होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ज' के पूर्व में स्थित शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर कमलेण रूप सिध्द हो जाता है ॥३-२४॥ बलीबे स्वरान्म सेः ॥३-२५ ॥ क्लीचे वतमानात् स्वरान्तानाम्नः से स्थाने म् भवति ।। यणं । पेम्म । दहि । महु ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Moreteronoriterroresorrooterestorrontorreroorwderwwwroteoroom दहि महु इति तु सिद्धापेक्षया । केचिदनुनासिकमपीच्छन्ति । दहिँ । महुँ ॥ क्लीय इति किम् । पालो । याला ! स्वरादिति इदुतोऽनिवृत्यर्थम् ।। ____ अर्थ:-प्राकूतीय नपुसक लिंग वाले स्वरान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-वनम्व र्ण । प्रेम-पेम्म । प्रविम्-दहिं । मधु-महुँ । संस्कृत इकारान्त उकारान्त नपुसक लिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'म् का लोप हो जाता है। तदनुसार प्राकृत में भी इकारान्त उकारान्त नपुंसक लिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सूत्र संख्या ३-५ से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'म' का भी पैकल्पिक रूप से लोप हो जाया करता है। जैसे:-दधि-दहि और मधु-महु । इन रूपों की स्थिति संस्कृत में सिद्ध रूपों की अपेक्षा से जानना । कोई कोई प्राचार्य प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुनासिक की भी प्राप्ति भी स्वीकार करते हैं; तदनुसार उनके मत से 'दधि' का प्राकृत प्रथमान्त एक वचनान्त कर 'दहि' भी होता है। इसी प्रकार से 'मधु' का 'महुँ' जानना। प्रश्ना-मूल-सूत्र में 'क्लीये' अर्थात 'नपुसक में ऐसा पर लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:-इसका कारण यह है कि मारुतीय पुल्लिग और स्त्रीलिंग पाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक अपन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति केवल नपुंसक लिंग वाले शब्दों में हो जानना; ऐसा निश्चित विधान करने के लिये ही मूल-सूत्र में 'पलीबे' पद का उल्लेख करना पड़ा है । जैसे:-बाल-बालो अर्थात् बालक और दाला = माला अर्थात् लड़की। ये उदाहरण क्रम से पुल्लिंग रूप और स्त्रीलिंग रूप है। इनमें प्रथमान्त एक वचन में 'म' प्रत्यय का अभाष प्रदर्शित करते हुए यह पतलाग गया है कि प्रथमान्त एक वचन में नपुंसक लिंग में ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । अन्य लिंगों में नहीं। परन:-मूल सून में 'स्वरा' शकर के उल्लेख करने का विशेष तात्पर्य क्या है ? उत्तरः-संस्कृत में अकागन्स नपुसक लिंग वाले शब्दों में ही प्रथमा विभक्ति के एक वचन में __ 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और अन्य इकारान्त प्रकारान्त नपुंसक लिंग वाले शब्दों में इस प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'म्' का लोप हो जाता है परन्तु प्राकृत में ऐसा नहीं होता है; अतएव प्राकृतीय अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त सभी शब्दों में नपुसक लिंगात्मक स्थिति में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। ऐसी विशेषता मत्तलाने के लिये ही मूल-सूत्र में स्वगत' पद का उल्लेख किया गया है। जो कि 'अकारान्त, इकारान्त और प्रकारान्त' का योतक है । यों प्रयुक्त शब्दों की विशेषता आन लेनी चाहिये । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] 94406 * प्राकृत व्याकरण * *****99** 1444444 रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१७२ में की गई है। पेम् रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९८ में की गई है। दा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ १९ में की गई है। महुं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ १९ में की गई है। संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृती य रूप वत् प्राप्त प्रत्यय 'सि' का लोप होकर दहि रूप सिद्ध हो जाता है । मधु संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महु होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'दहि' के समान ही होकर मह रूप सिद्ध हो जाता है । वृधि संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है । इसका 'आ' प्राकृत रूप दहि होता हैं। इसमें सूत्र- संख्या १-१५७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२५ को वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में घर्ष - प्राकृत में 'अनुनासिक' की प्राप्ति होकर 'दहि' रूप सिद्ध हो जाता है। मधु संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है। इसका 'आई' प्राकृत रूप महुं होता है। इसकी सानिका रोक 'दहि' के समान ही होकर महुँ कप सिद्ध हो जाता है । बालः संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप बाली होता है । इसमें सूत्रसंख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बालो रूप सिद्ध हो जाता है। बाला संस्कृत प्रथमान्त एक वचनान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप भा बाला ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय सि=स्' की प्राप्ति और १-११ से प्राप्त हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप होकर प्रथमान्त एक वचन रूप स्त्रीलिंग पद वाला सिद्ध हो जाता है ।। ३- २५ ॥ ३२६ ॥ जस्-शस्-इ-इं णयः सप्राग्दीर्घाः ॥ क्लीने वर्तमानानाम्नः परयोर्जस् - शसोः स्थाने सानुनासिक - सानुस्वाराविकारों विदेशा भवन्ति सप्राग्दीर्घाः । एषु सत्सु पूर्व स्वरस्य दीर्घत्वं विधीयते इत्यर्थः ॥ हूँ । जाइँ या अम्हे || ई | उम्मीलन्ति पङ्कयाई चिट्ठन्ति पेच्छया । दहीहं हुन्ति जेम था। महूई मुवा ॥ णि । फुन्तन्ति पयाणि गेयह वा । हुन्ति दहीणि जेम वा । एवं महूणि ।। क्लीक इत्येव । बच्छा । बच्छे | जस्-शस् इति किम् | सुई || t. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४१ sotoroteeservestmerolorsmooterrorarwarorotratioosteoretorrecorrroron अर्थ:--प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त नमक लिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बगुवचन में 'शस' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से अनुनासिक सहित 'ई' प्रत्यय अनुस्वार सहित 'ई' प्रत्यय और 'णि प्रत्यय को श्रादेश-प्राप्ति होता है । क्रम से प्राप्त होने वाले इन ईं, इ' और 'णि' प्रत्ययों के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर को नियमित रूप से 'दीव की प्राप्ति होती है। अर्थात शब्दान्स्व स्वर को दीघे करने के पश्चात ही इन प्राप्त होने वाले प्रत्ययों 'ई, ई. णि' में से कोई सा भी एक प्रत्यय संयोजित कर दिया जाता है और ऐसा कर देने पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का अथवा द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। जैसे:-ई' का उदाहरणः-यानि वचनानि अस्माकमजाइँ वयणाई अम्हे अर्थात् (प्रथमा में) हमारे जो वचन है अथवा (द्वितोया में) हमारे जिन वचनों को। 'ई' का उदाहरणः-उन्मीलन्ति पकजानि-उम्मीलान्त पक्कयाइं अर्थात कमल खिलते हैं। पकजानि तिष्ठन्ति पङ्कयाइ चिट्ठन्ति अर्थात् कमल विद्यमान हैं। पङ्कजानि पश्य = पकयाई पेच्छ अर्थात् कमनों को देखो | दधीनि भवन्ति ( अथवा सन्ति )-दहीहं हुन्ति अर्थात दही है । दधीनि भुक्तन्दही जेम अर्थात दही को खाओ । मधूनि मुश्च अर्यात शहद को छोड़ दो-( रहने दा-मत खाओ) । 'णि' का उदाहरणा-फुल्लन्ति पक्कजानि = फुल्तान्त पक्कयाणि अर्थात् कमल खिलते हैं। पङ्कजानि गृहाण पकयाणि गेएह अर्थात् कमलों को ग्रहण करो । दधीनि भवन्ति दहीणि हुन्ति अर्थात दही है । दधीनि भुञ्ज-बहीणि जेम अर्थात् दही को खाओ । मधूनि भुन्क्त-महूणि जेम अर्थात् शहद को खाओ इन उदाहरणों में क्रम से 'इ, ई और णि' प्रत्ययों का प्रयोग घतलाया गया है। प्रश्न:--सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में 'क्लीबे' अर्थात् 'नयुसफ लिंग में ऐमा मल्लेख क्यों किया गया है? उत्तरः जो प्राकृत-शब्द नपुसक लिंग वाले नहीं होकर पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग पाले हैं धन शब्दों में 'जस'-अथवा शल' के स्थान पर 'इ, ई और णि' प्रत्ययों को प्राभि नहीं होनी है श्रोत केवल नमक लिंग वाले शब्दों में ही इन इ, ई और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करतो है; यह 'अर्थ-पूर्णविधान' प्रस्थापित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में 'कल्लीबे' शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:--वृक्षा-वच्छा और वृक्षानबग्छ ये उदाहरण क्रम से प्रथमान्त बहुवचन वाले और द्वितीयांत बहुवचन वाले हैं। किन्तु इनका लिंग पुल्लिंग है; अतएव इनमें 'इ, ई और णि' प्रत्ययों का अभाव है। यो इनकी पारस्परिक विशेषता को जान लेना चाहिये । प्रश्न:--सूत्र के प्रारम्भ में 'जम्-शस्' ऐसे शब्दों को प्रयोग करने का क्या तात्पर्य-विशेष है ? उत्तर:- इसमें यह रहस्य रहा हुआ है कि प्राकृत भाषा के नपुसक लिंग वाले शब्दों में हैं, ६और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ही और द्वितीया विर्भाक्त के बहुवचन में ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के (संबोधन को छोड़कर) किसो भी वचन में इन हैं, ई और Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] 444 * प्राकृत व्याकरण * ********** णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती हैं। यही तात्पर्य 'जस् शस्' से प्रकट होता है और इसीलिये इन्हें सूत्र के प्रारम्भ में स्थान दिया गया है। जैसे:- सुखं सुहं । इस उदाहरण में 'नपुंसक लिंगस्व' का सद्भाव है; परन्तु ऐसा होने पर भी इसमें प्रथमा अथवा द्वितायाविभक्ति के बहुवचन का प्रभाव है और ऐसी 'अभावात्मक स्थिति' होने से हो 'जस् शस्' के स्थानीय प्रत्ययों का -याने 'इ इ औणि' प्रत्ययों का भी इस उदहरण में अभाव है । यों यह उदाहरण प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के एक वचन का है; इस प्रकार 'सुखम्-सुह' पद नपुंसक लिंग वाला है; पथमा अथवा द्वितीया विभक्ति वाला है; परन्तु एक वचन वाला होने से इसमें 'इ', इ और ण' प्रत्ययों में से किसी भी प्रत्यय की संयोजना नहीं हो सकती हैं | यहां रहस्य--पूरा विशेषता जस्-शस' को जानना ! यानि संस्कृत प्रथमा--द्वितीयान्त के बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाई होता है। इसमें सूत्र संख्या - १-२४५ ले 'यू' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रस्यय 'जस' अथवा 'शम्' के नपुंसक लिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय' नि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय का पति होकर जाएँ रूप सिद्ध हो जाता है । वचनानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप यणाएँ होता है इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप: १-१८० से लोप हुए 'च के पश्चात शेष रहे हुए '' के स्थान पर 'य' को प्रमि; १२२८ से प्रथम 'म' के स्थान पर 'ण्' को प्राप्ति और ३.२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जस्' अथवा शस्' के नपुंसक लिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दस्य हुम्ब स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति करते हुए 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणा रूप सिद्ध हो जाता है । अस्माकम, संस्कृत षष्ठयन्त बहुवचनात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हे होता है । इसमें सूत्र--संख्या ३-११४ से संस्कृन सर्वनाम 'श्रस्मद्' में पी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय की प्रप्ति होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में 'आम्हें' रूप की आदेश प्राप्ति होकर अम्हे रूप सिद्ध हो जाता है । उमन्ति संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका इनमें सूत्र संख्या २७ से प्रथम हलन्त '' व्यञ्जनका लोप रहे हुए 'म्' को 'म' को प्राप्त ४२१६ से प्राप्त हलन्त धातु विकररण प्रत्यय 'व्य' को प्राप्ति और ३- १४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन मे 'ति' प्रत्यया की प्राप्ति होकर प्राकृत रूपम्मीलति सिद्ध हो जाता है। प्राकृत रूप उम्मीलन्ति होता है । से लाए हुए 'न्' के पश्चात् शेष 'उम्माल' में स्थित अन्त्य 'लू' में जानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाह होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७० से "" का लोप; १-१५० से लोप हुए 'लू' के पधात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; और Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * storess.o0000000rsatorsitorsrorer.00000000000000000000000000000. ३.२६ से संम्वत्तीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जम्' और 'शस्' के नपुसक लिंगास्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राक्त में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलयाई रूप सिद्ध हो 4 जाता है। चिट्ठन्ति रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 3-20 में की गई है। ऐच्छा की सखिया - की गई है। वहींई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३. P० में की गई है। भवन्ति संस्कृन अकर्मक कियापर का रूप है । इसका प्राकृत रूप हुन्ति होता है। इसमें सूत्रसंख्या-४-६५ से संस्कृत धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हु' भावेश; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हुन्ति सिद्ध हो जाता है। भुन्त संस्कृत आक्षार्थक किया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जेम होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-११० से संस्कृत मूल धातु 'भुज्' के स्थान पर प्राकृत में 'जेम' आदेश; ४-२३६ से प्राप्त प्राकृत पातु 'जेम' में स्थित अन्त्य हलन्त ध्यञ्जन 'म में विकरश प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-२७५ से पाशार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्तथ्य प्राकतीय प्रत्यय 'सु' का लोप होकर जेम रूप सिद्ध हो जाता है। महूई कप की सिद्धि सूत्र-संख्या 3-50 में की गई है। मुच्च संस्कृत श्राज्ञार्थक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप मुख्छ होता है । इसमें सूत्र. संख्या ३.१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्तव्य प्राकृतीय प्रत्यय 'सु' का लोप होकर मुञ्च रूप सिद्ध होता है। षा अध्यय रूप को सिद्ध सूत्र-संस्था १-१७ में की गई है। फुल्लन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप फुल्सन्ति होता है। सूत्रसख्या ४-२३६ से मूल प्राकृत-धातु 'फुल्ल' में स्थित अन्त्य हलन्स ध्यान 'हल्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में न्तिः प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाकृत रूप फुल्लन्ति सिद्ध हो जाता है। पजानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पदयाणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२७७ से 'ज' का लोप; १-२०० से लोप हुए 'ज' के पश्चात शेष रहे हुए 'श्रा' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ५-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' और 'शस्' के नपुसक लिंगात्मक स्थानीय रूप नि' के स्थान पर प्राकृत में 'जि' प्रत्यय को प्राप्ति क्षेकर पक्ष्याणि रूप सिद्ध हो जाता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] *प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000000sentsasraokesothotosteronorostrectr0000000000 गेण्ह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या--१९७ में की गई है। , . दधीगि:- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीणि होता है । इसमें सूत्र संख्या १.८७ से मूल संस्कृत रूप 'दधि' में स्थित 'ध' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३.२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्' और 'शस' के नपुसक लिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्य वस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति कराते हुए ‘ण प्रत्यय को शप्ति होकर प्राकृत रूप दहीणि सिद्ध हो जाता है । 'मुन्ति:---र की सिर उन की गई है। 'जेम':-रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है। मधूनिः- संस्कृत का रूप है। इसका प्राकृत रूप महूणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'मधु' में स्थित 'ध' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' और 'शस' के नपुसक लिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'स' को दोध स्वर 'क' की प्राप्ति कराते हुए णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप महाण सिद्ध हो जाता है। परछा रूप की सिद्धि सब-संख्या -४ में की गई हैं। पच्छे रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। सुखम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' अादेश और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' आदेश एवं १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर सुह रूप सिन्द जाता है। अथवा सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीया-विभक्ति के एक वचन में प्राकृतीय रूप सुह सिध्द हो जाता है ।। ३-२६ ॥ स्त्रियामुदोतौ वा ॥ ३.-२७ ॥ स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयोर्जस्-शसोः स्थाने प्रत्येकम् उत् मोत् इत्येती सप्राग्दीधों वा भवतः ।। वचन-भेदो यथा-संख्य निवृत्त्यर्थः ।। मालउ मालाओ । बुद्धीउ बुद्धीओ । सहीउ सहीओ। घेणूउ घेणुगो । बहुउ बहूओ। पचे । माला । बुद्धी । सही । घेणू । वह ॥ खियामिति किम् । पच्छा । जस्-शस इत्येव । मालाए कयं ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहिन * [ ४५ 000000000000000000000000sroroscorreso.0000000restresss0000000000000000 अर्थः-प्राकृत-भाषा के आकारान्त. इकारान्त, उकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुचन के प्रत्यय 'जस' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बढुव धन के प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर-वैकल्पिक रूप से 'उत्तर' और 'श्रोत-यो' प्रत्ययों को प्राप्ति होती है। अर्थात् प्रथमा और द्वितीया विभक्ति में से प्रत्येक के बहुवचन में कम से तथा वैकल्पिक रूप से 'उ' और 'प्रो' ऐसे दो दो प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। साथ में यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि इन 'उ' अथ ।। 'ओ' प्रत्ययों को प्राप्ति के पूर्व शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घ-स्वर की प्राप्ति हो जाती है । अर्थात हस्व इकारान्त को दो ईकारान्त को प्राप्ति होती है एवं हस्त्र उकारान्त दीर्घ ऊकारान्त में परिणत हा जाता है । वृति में 'प्रत्येकम्' शन को लिखने का यह तात्पर्य है कि स्त्रीजिंग वाले सभी शब्दों में और प्रथमा--द्वितीया के बहुवचन में-(दोनों विभक्तियों में)' और 'श्री' प्रत्ययों को कम से तथा वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होती है । जैसे:--प्राकारान्त स्त्रोलिंग का उदाहरणः - मालामालाउ और मालाथो; इकारान्त स्त्रोलिंग का उदाहरणः-बुद्धयः ओर बुद्धी:-बुद्धीउ और बुद्धोश्रो; ईकारान्त स्त्रीलिंग का सदाहरणः-संख्या और मखीन्सहीठ और सहीओ; उकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-धेनवः और धेनूः धेशूज और घेणूओं; एवं ऊकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-वध्वः और वधूः-बहूउ और वहूरो। वैकल्पिक पक्ष होने से इन्ही उदाहरणों में क्रम से एक एक रूप इस प्रकार भी होता है:-माला, चुद्धी, सही, धेए और वहू । ये रूप प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के जानना; यों स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में रूपों की समानता तथा एक रूपता है। प्रश्न:-सूत्र के प्रारम्भ में 'स्त्रियाम्' अर्थात स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तर:-जो प्राकृत-शम्ब स्त्रोलिंग वाले नहीं होकर-पुल्लिंग वाले अथवा नपुसक लिंग वाले हैं; अनमें प्रथमा अथवा द्वितीया विमक्ति के बहुवचन में 'जस' अथवा शम' प्रत्यय की प्रामि होने पर 'उ' और 'श्री' प्रत्ययों की इनके स्थान पर श्रादेश-प्राति नहीं होती है। 'उ' अथवा 'श्री' की श्रादेश-प्राप्ति केवल स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ही है। ऐसा स्पष्ट-विधान प्रस्थापित करने के लिये हो सूत्र के प्रारम्भ में 'स्त्रियाम्' जैसे शब्द को रखने को आवश्यकता हुई है । जैसे:-वृक्षाः = वच्छा और वृक्षान् = बच्छ।। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पुल्लिंग में 'जस् अथवा शम' के स्थान पर '' और 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। प्रश्न:--'जस' अथवा शस्' ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः-स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओ' पादेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति 'जस' और 'शस' के स्थान पर ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर '' अथवा 'ओ' की आदेशमाप्ति नहीं होती है। जैसे:-मालायाःकृतम् =मालाए कयं अर्थात् माला का बनाया हुआ है । यहाँ पर षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण दिया गया है, जिसमें बतलाया गया है कि सूत्र--संख्या ३-२ से Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] .प्राकृत व्याकरण 'स' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हुई है न कि उ' अथवा 'श्री' की; यों यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि ,जस-शस' के स्थान पर ही 'उ' और 'श्री' प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं । इसीलिये वृत्ति में 'जम और शस' का उल्लेख करना पड़ा है। पंचमी विभक्ति के एक वचन में और बहुवचन में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में जो 'उ' और 'ओ' प्रत्यय दृष्टि-गोचर होते हैं; उनकी प्राप्ति सूत्र संख्या ३--- और ३-में उल्लिखित 'दु' और 'दो' से निष्पन्न होती है; अतएव 'जस्-शस' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' आदेश प्राप्ति बतलामा निष्कलंक है। इसी प्रकार से संबोधन के बहुवचन में स्वालिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओं' की उपलब्धि भी निष्कलंक ही है क्यों कि 'संबोधन रूपों' की प्राप्ति प्रथमावत होता है और यह सिद्धान्त सर्वमान्य है; अतएव यह सिद्धहुना कि 'जस--शम' के स्थान पर ही '' 'श्री को प्रादेश-प्रांत होती है; अन्यत्र नहीं। . माला संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप मालाज, मालामो और माला होते हैं । इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में सुत्र-संख्या ३-२७ से संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बटुवचन में प्रान प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'श्रम' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप रूप से और कम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर फ्रम से दो रूप मालाउ और मालाओ सिद्ध हो जाते हैं। तृतीया रूप-(माला:-)माला में सूत्र संख्या३-४से संस्कृतीय प्रथमा द्वितीया विमति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस् -शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप माला सिद्ध हो जाता है। शुद्धयः और बुद्धी: संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप है। इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप बुद्धीउ, बुद्धोश्रो और बुद्धी होते हैं । इनमें से प्रथम और द्वितीय-रूप में सूत्र-- संख्या ३ ७ से संस्कृताय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बटुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जम्'-शस' के स्थानीय रूप 'श्रम' के स्थान पर प्राकृत में यकल्पिक रूप से और कम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की प्रादेश प्राप्ति होकर शब्दान्त्य हरव स्वर को दाध करते हुए क्रम से प्रथम के दो रूप पुछीउ और बुद्धीभी सिद्ध हो जाते हैं। तृतीया रूप-(बुद्धयः और युद्धी:-) बुद्धी में सूत्र-संख्या-३-४ से संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' का प्राकृत में लोप श्रीर ३.१२ से तथा ३-१८ से प्राप्त एवं लुप्र 'जस--शस' के कारण से अन्स्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप बुद्धी सिद्ध हो जाता है। सख्यः और सरवी: संस्कृत प्रथमान्त-द्वितोयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के (मम्मिलित) प्राकृत रूप सहीउ, सहीअो और सही होते हैं । इनमें से प्रथम और वित्तीय रूपों में सूत्रसंख्या १.१८७ से मुल संस्कृत रूप 'सखी' में स्थित ' के रयान पर 'ह' की प्राप्ति और ३२७ से Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * workowarimarswermeasootrawadiscrimoorrentoreesomeo.0000 संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्न प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'श्रो' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर कम से प्रथम दी रूप सही और सहीओ सिद्ध हो जाते हैं। मूलाय रूप-(सरन्यः और सखा:-) सही में सूत्र संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति कंबहुवचन में प्राप्त प्रत्यय जम् --शज' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप सही सिद्ध हो जाता है। धेनवः और धन संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप है। इन दोनों के सम्मिलित कृत रुप धेणूत, घेणू श्री और घेणू होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत रूप 'धेतु" में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३.२७से संस्कृतीय प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य द्वस्व स्वर 'ड' को दीर्घ म्बर 'क' की प्राप्ति कराते हुए वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर कम से प्रथम दो रूप घेणूड और घेणूभी सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(धेनवः और धेनूः) धणू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा-विभक्ति के बहुपचन में प्राप्त प्रत्यय 'जम-शस' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से तथा ३-१८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शत के कारण से अन्त्य हुस्व घर 'ख' को दोध-स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप घेणू सिद्ध हो जाता है। वध्वः और वः संस्कृन प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं । इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप वहुउ, वह ओ और बहू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८० से मूल संस्कृत-रूप 'वधू' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'इ.' की प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम दो रूप में सून संख्या ३-२७ से संस्कृतीय प्रथमा--द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से '' सश्रा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति क्षेकर क्रम से प्रथम दो रूप पहूर और पहभो सिद्ध हो जाते है। . तृतीया रूप-(वध्वः और वधूः-) वहू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा--द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यत्र 'जस-शस्' का प्राकृत में लरेप होकर तृतीया रूप पहू सिद्ध हो जाता है। पच्छा रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या ३-४ में की गई है। मालायाः संस्कृत षष्ठपन्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप मालाए होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय स्प'असभ्या के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाए सिद्ध हो जाता है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या १-११ में की गई है।। ३-२७॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण र Imroorketeroneestoweredroomdomasveereaderstoorkeesameersion ईतः से श्चा वा ॥ ३-२८॥ स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्-शसोश्वस्थाने श्राकारो वा भवति ॥ एसा इसन्तीश्रा | गोरीमा चिट्ठन्ति पेच्छ वा । पक्षे । हसन्ती । गोरीयो । अर्थ:-प्राकृत-भाषा में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृतोय प्रथमा विभक्ति के एक वधन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'या' अादेश की प्राप्ति होती है । जैसे:एषा इसन्तो-एसा हसन्तीआ अर्थात यह हमती हुई । वैकल्पिक पक्ष होने से 'हसन्ती' (अर्थात हमनी हुई) रूप भी प्रथमा विभक्ति के एक वचन में बनता है । इसी प्रकार से इन्हीं ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीयो विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'श्रा' आदेश की प्राप्ति हुश्रा करती हैं । जैसे:--'जस' का अाहरणः गौर्यः तिष्टान्त गोरीश्रा चिट्ठन्ति; वैकल्पिक पक्ष में:-गोरीश्रो चिन्ति अर्थात् सुन्दर स्त्रियाँ विराजमान हैं । 'शस्' का उदाहरण:-गौरीः पश्य-गोरीश्रा पेरछ; वैकल्पिक पक्ष में:-गोरीयो पेच्छ अर्थात सुन्दर स्त्रियों को देखो । इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है किः'सि', 'जस' और 'शस्' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'श्रा' श्रादेश हुश्रा करता है। एसा रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या १-3 में की गई है। हसन्ती संस्कृत प्रथमान्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसन्तीश्रा और हमन्ती होते हैं। इनमें सुत्र-संख्या ४-२२ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'हम' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति;३-१८१ से वर्तमान कृदन्त रूप के अर्थ में प्राप्त धातु 'हस' में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३१ से प्राप्त रूप 'इसन्त' में स्त्रीलिंगार्थक प्रत्यय 'डी' की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्त प्रत्यय 'डी' में स्थित इ' इत्संज्ञक होने से शेष प्रत्यय 'ई' को प्राप्ति के पूर्व 'इसन्त' रूप में से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप एवं प्राप्त हलन्त 'हसन्त' में उक्त स्त्रोलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की संयोजना होने से 'हसन्ती' रूप की पाप्ति; तत्पश्चात् प्राप्त रूप 'हसन्ती' में सूत्र संख्या ३-२८ से संस्कृनीय प्रथमो विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'या' आदेश रूप प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप हसन्तीमा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(हसन्ती) हसन्ती में सूत्र मख्या ३-१६ से प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति रूप स्थिति यथावत् रहकर द्वितीय रूप हसन्ती सिद्ध हो जाता है। गौर्यः-संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गोरीश्रा और गोरोश्रो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४ से मूल शब्द 'गौरी' में स्थित 'ओ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति; Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४६ +000000000000000000rstoreservesaretreensorrorosorrtoonseroineeroen तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र-सख्या ३-२८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ज' के स्थानीय रूप 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'या' बादश रूप प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गोरी' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय अप-गौर्यः = गोरीश्रो में सूत्र-संख्या ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में संग्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' आदेश रूप प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गोरओि सिद्ध हो जाता है। गौरी:-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गोरीआ और गोरीयो होते हैं। इन दोनों द्वितीयान्त बहुवचन वाले रूपों की मिद्धि नपरोक्त प्रथमान्त बहुवचन वाले रूपों के समान हो होकर क्रम से दानों रूप गोरीआ तथा गोरोश्रो सिद्ध हो जाते हैं। चिट्ठन्ति रूप की सिद्धि सूत्र संख्या-30 में की गई है। पेच्छ रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-73 में की गई है। 'या' (यव्यय ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। ३-२८ ।। टा-स्-ङरदादिदेवा तु ङसेः ॥ ३-२६॥ स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाङसङीनां स्थाने प्रत्येकम् अत् श्रात् इत् एत् इत्येते चत्वार आदेशाः सप्रारदीर्घा भवन्ति । सेः पुनरेसमाग्दीर्घा वा भवन्ति ।। मुद्धाम । मुद्धाइ । मुद्धाए कय मुहं ठिअं वा ।। कप्रत्यये तु मुद्धिाअ । मुद्धिाइ ! मुद्धिआए ॥ कमलिआश्र । कमलिआइ। कमलिपाए ।। बुद्धीन । बुद्धी प्रा । बुध्दीह। घुध्दीए कयं विहवो ठिअं वा , सही। सहीश्रा । सहीह । महीए कयं वयणं ठियं वा ॥ घेणु । धेमा । घेण्इ। धेणुए कयं दुद्धं ठिअं वा ॥ वहू । वहा। वहइ 1 1 बहूए कयं भवणं ठिअंवा ।। सेस्तु वा । मुद्धाम। मुदाइ । मुदाए । बुध्दीम । बुध्दीमा । बुध्दीइ । बुध्दीए । सहीभ । सहीमा । सहीइ । सहीए ॥ घेण्अ घेणुा । घेणूइ । घेणुए ॥ वहश्र । वहा । बहूइ । वहुए आगो । पक्षे ।। मुद्धामो । मुदाउ। मुहाहिन्तो। ईओ । रईउ । ईहिन्तो ||घेणयो। घेणउ । धेहिन्तो ॥ इत्यादि ॥ शेषे दन्तवत् (३.१२४) अतिदेशात् जस्-शस् डसि-चो-दो-द्वामिदीर्घः (३-१२) इति दीर्घत्वं पचं पि भवति ॥ स्त्रियामित्येव । पच्छेण । यच्छरस । वच्छम्मि । पच्छाओ । टादीनामिनि किम् । मुद्धा । बुद्धी । सही । घेणु । वह ।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ] *प्राकृत व्याकरसा * न अर्थ:-प्राकृत-भाषा के आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और अकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में तृतीया-विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा='आ' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति होती है जो कि इस प्रकार है:-'अत-अ'; 'श्रात्-श्रा, 'इत-ई' और 'एत-ए । इन आदेश प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व हस्व-स्वर का वीर्घ हो जाता है। इसी प्रकार से षष्टी--विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस अस्' के स्थान पर और मतमी विभक्ति के एक वचन के संस्कृतीय प्रत्यय 'रि-ई' के स्थान पर भी उपरोक्त प्राकृत स्त्रीलिंग वाले शब्दों में उपरोक्त प्रकार से ही कम से चार आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय भी वे ही हैं जो कि ऊपर इस प्रकार से लिखे गये हैं: अत्-श्र; पात-पा; इन-इ और एत-ए । इन आदेश-प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घ-स्वर की प्राप्ति हो जाती है । पंचमी विभक्ति के एक वचन के संस्कृलीय प्रत्यय 'सि= अस' के स्थान पर भी उपरोक्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में उपरोक्त प्रकार से ही प्रत्ययों की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है; तदनुमार पंचमो विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-६ से 'तो', 'ओ', 'उ', और 'हिन्तो' प्रत्ययों को प्राप्ति भी इन प्राकृत स्त्रीलिंग वाले शब्दों में होती है । पंचमी विभक्ति के एकवचन में वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'अ-आ-इ-ए' के पूर्व में शब्दान्त्य हुत्व स्वर को दीर्घ स्वर की प्राप्ति होती है । उपरोक्त विधान में इसनी सो विशेषता जानना कि सत्र-संख्या ३.३० से आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में 'आ' आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। तृतीया विभक्ति के एक वचन का उदाहरणःमुग्धया कृतमन्मुद्धाश्र- मुद्धाइ-मुद्धाए कयं अर्थात मुग्धा से (संमोहित स्त्री विशेष से) किया हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एक वचन का उदाहरण:-मुग्धायाः मुखम-मुद्धाअ-मुद्धाइ-मुदाए मुहं अर्थात मुग्धा स्त्री का मुख । सप्तमी विभक्ति के एक वचन का उदाहरणः-मुग्धायाम स्थितम्-मुध्दाअ-मुध्दाइ-मुदाए ठि अर्थात मुग्धा स्त्री में रहा हुआ है। स्वार्थ में प्राप्त होने वाले 'क' प्रत्यय का स्त्रोलिंग रूप में 'का' हो जाता है, तदनुसार वह शब्द 'प्राकारान्त-स्त्रीलिंग' बन जाता है और ऐसा होने पर उक्त प्राकारान्त स्त्रीलिंग शब्द की विभक्तयन्त रूपालि' सर्व-सामान्य आकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों के समान हो बनती है। जैसे:-मुग्धिकया अथवा मुग्धिकायाः अथवा मुग्धिकायाम् = मुध्दिाअ-मुनिश्राइ-मुश्दिपाए । तीनों विभक्तियों के एक वचन में एक रूपता होने से सभी रूप साथ साथ में ही लिख दिये हैं। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-कमलिकया अथवा कमलिकाया एवं कमलिकायाम्=कमलिग्रामकमलिभाइ-कमलिश्राए अर्थात कमलिका से अथवा कमलिका का एवं कमलिका में | यों अन्य आकारान्त स्त्रीलिंग वाले शो के तृतीया विभक्ति के एक वचन में, षष्ठी विभक्ति के एक वचन में और सप्तमी विभक्ति के एक वचन में होने वाले रूपों को भी जान लेना चाहिये । इस्व इकारान्त श्रीलिंग 'बुद्धि' का उदाहरण: सृतीया विभक्ति के एक वचन में:-बुद्धया कृतम् बुद्धीअ-बुद्धीमा-बुद्धोइ-बुद्धीए फयं अर्थात बुद्धि से किया हुआहै। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Mostromitramanderertoresidiarriorrottosteroeowwwderwomen षष्ठी विभक्ति के एक वचन में:-बुलघाः विभवः बुद्धीन-बुद्धीमा-बुद्धीइ-बुद्धीप विहयो अर्थात बुद्धि की संपत्ति । सप्तमी विमक्ति के एक वचन में:-युद्धीपम स्थितमबुद्धोम-बुद्धाभा-बुद्धिइ-बुद्धीए ठि अर्थात् बुध्दि में स्थित है। दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग-'सखी-सही' का उदाहरणः-- तृतीया-षष्ठी-सप्तमी के एक वचन को ऋमिक उदाहरणः-सख्या कृतम् सही-सहीश्रा-सहोईसहीए कयं । सखी से किया हुआ है। सख्या कृतम्-सही-सहींआ-सहोइ सहीए कयं । सखी से किया हुश्रा हैं। सत्याः वचनम् - सही-सहोश्रा-सहोइ-सहीए वणं = सखी का वचन है। संख्याम् स्थितम् = सही-सहोत्रा-सहीइ-सही ठिी = सखी में रहा हुआ है। तृतीया-षष्ठी--सप्तमा विभक्ति के एक वचन के ह्रस्व उकारान्त स्त्रीलिंग 'धेनु = घेणु' का क्रमिक उदाहरणः-धेन्वा कृतम् = धेरणूध-घेणूत्रा-धेराइ--घेणूए कयं = गाय से किया हुआ है। धेन्वाः दुग्धम् = घेणूत्र-धेणूत्रा--गृह-धेणूए दुध्द गाय का दूध है। धेन्वाम् स्थितम् = धेणूअ--घेणू प्रा--घेणूइ- धेणूए (ठ = गाय में स्थित हैं। वीर्ष ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्द 'वधू-वहू' के तृतीया--पष्ठो- सप्तमी विभकि के एफ वचन का क्रमिक उदाहरणः वध्या कृतम् = बहूध--बहूआ--बनूइ-बहूए कयं = बहू से किया हुआ है। वध्वाः भवनम् = बहू-बहूमा--बहूइ--वहूए भवणं = बहू का भवन है। वध्वाम स्थितम् = बहू बहूा-बहूइ-बहूर ठियं = बहू में रहा हुआ है। संस्कृत पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अ--श्रा-इ-ए' आदेश-प्राप्ति तथा क्रम से 'प्रो-तो-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार हैं:-- प्राकारान्त स्त्रोलिंग:-मुग्धायाः-मुद्धाअ-मुद्धाइ-मुद्घाए मुद्धत्तो, मुद्धाओ, मुद्घाउ और मुमाहिती। इकारान्त स्त्रीलिंग: बुरपाः बुध-बुडींबा-बुीइ-बुद्धीए, बुरित्तो बुंगेर, दुवीओं और पशिहिती। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] *प्राकृत व्याकरण * orterottlook000000000000000000rrrrrros0000000000rsernosotroor4660016 ईकारान्त स्त्रीलिंग:-सख्याः सहाथ महाश्रा-सहीइ-सहीए, सहीत्तो-सहान-सहोश्रो और सहीहितो। उकारान्त स्त्रीलिंगः-धेन्दा:= घेणू अ-घेणूआ-घेणूइ--घेणुए, घेणुत्तो, धेणू उ, घेणूत्रो और घेणहितो। ___अकारान्त स्त्रीलिंग:-वध्वाः श्रागतवर्ष-बहूआ-वहूइ--बहूए, बहुत्तो, बहूउ, वो और परहितो आगो = बहू से पाया हुआ है। इकारान्त स्त्रीलिंग का एक और उदाहरण वृत्ति में इस प्रकार दिया गया है:-रत्याः रईयोसंव-रईहिन्तो अर्थात् रति से। इन पदाहरणों में यह ध्यान रहे कि हस्व इकारान्त और गस्व उकारान्त शब्दों में प्राप्तव्य प्रत्ययों के पूर्व में स्थित हस्व स्वर को वीर्घ स्वर की प्राप्ति हो जाती है। किन्तु 'तो' प्रत्यय में पूर्व का ह्रस्व स्वर दीर्घता को प्राप्त नहीं होकर हस्व का हस्व ही रहता है तथा सूत्र-संख्या १-८४ से अन्त्य दीर्घ स्वर 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति हाने पर हस्व हो जाता है । जैसे:-मालतो, बुद्धित्तो, सहित्तो और बहुसो। प्राकृत-भाषा के स्त्रीलिंग वाले शब्दों को शेष विभक्तियों के रूपों की रचना सूत्र-संख्या ३-१२४ के विधानानुसार प्रकारान्त शब्दों के समान समझ लेनी चाहिये । सूत्र-संख्या ३.१२ में कहा गया है कि-प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'जस्' प्राप्त होने पर, द्वितीयो विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'शस्' प्राप्त होने पर; पंचमी विभक्ति के एक वचन के प्रत्यय 'ओ, उ, हिन्तो' प्राप्त होने पर; पंचमी विमान के बहुवचन के प्रत्यय 'श्री, उ, हितो, सुन्तो' प्राप्त होने पर इस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होती है, वही विधान खोलिंग शब्दों के लिये भी इन्हीं विभक्तियों के ये प्रत्यय प्राप्त होने पर जानना; तदनुसार स्त्रालिंग वाले शब्दों में भी प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में, पंचमी विभक्ति के एक वचन में और बहुवचन में पक्षान्तर में भी दम्ब स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है। प्रइना-वृत्ति के प्रारम्भ में 'स्त्रीलिंग वाले शब्दों मे ऐसा शब्द क्यों कहा गया है ? उत्तरः-इसमें यह तात्पर्य है कि जब प्राकृत-भाषा के स्त्रीलिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन का प्रत्यय प्राप्त होता है अथवा पंचमी. पाठी, और सप्रमो विभक्ति के एक वचन को प्रत्यय प्राप्त होता है तो इन प्रत्ययों के स्थान पर केवल स्त्रीलिंग वाले शब्दों में हो 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों को आदेशप्राप्ति होती है। नपुसकलिंग वाले अथवा पुल्लिग वाले शब्दों में उक्त विभक्तियों के एक वचन के प्रत्यय प्राप्त होने पर इन प्रत्ययों के स्थान पर 'भ-आ-इ-ग' प्रत्ययों की प्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है । सा विधान प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति के प्रारम्भ में स्त्रीनिंग वाले शब्दों में' ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे पुल्लिग शष्व का उदाहरण इस प्रकार है:-तृतीया विभक्ति के एक वचन में-'वच्छेण'; पंचमी विभक्ति के एक वचन में 'वच्छाओ'; षष्ठी विभक्ति के एक वघन में 'वच्छस' और सप्तमी विमति के एक वचन में Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 100000000eostoriscomrostessorrorecosterodestrost40000000000000000.. 'वच्छम्मि' होता है। न कि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के समान 'वच्छाअ-वच्छात्रा-वच्छाइ-वच्छाए' रूपों की रचना होती है । यही रहस्य वृत्ति के प्रारम्भ में उल्लिखित 'स्त्रियां' शब्द से जानना। प्रमः-मूल सूत्र में 'टा-इस-डि-ति' ऐसा क्यों लिखा गया है ? उत्तरः-'अ-प्रा-इ-ए' ऐमी श्रादेश-प्राप्ति केवल 'टा-साल-जि-स' के स्थान पर हो होती है। अन्य प्रत्ययों के स्थान पर 'अ-श्रा-इस आवेश प्रामि नहीं होती है; ऐपा सुनिश्चित विधान प्रदर्शित करने के लिये हो सूत्र में 'टा-इस डि-मि' का उल्लेख करना आवश्यक समझा गया है। इसके समर्थन में उदाहरण इस प्रकार हैं:-मुग्धा-मुद्धा, बुद्धिः बुद्धी; सखोन्सही; धेनुः = धेणू और वधूः = वहू । इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन का प्रत्यय 'मि' प्रान हुआ है और उक्त प्रान प्रत्यय 'सि' का सूत्र-संख्या ३-१६ से लोप होकर इसके स्थान पर अन्स्य हस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त हुई हैं; न कि 'प्रप्रा-इ-ए' रूप भादेश-प्राप्ति । अतएव यह सिद्ध करने के लिये कि 'अ-आ-इ-ए' रूप आदेश-प्राप्ति केवल 'टा-इस-कि-इसि' के स्थानों पर ही होती है न कि अन्यत्र ! इसी रहस्य को समझाने के लिये सूत्र में 'टाबस-हि-असि' का उल्लेख करना पड़ा है। मुग्धया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप मुद्धा अ-मुद्धाइ और मुद्धाए होते हैं। इनमें सूत्र--संख्या २-७७ से मूल संस्कृत रूप मुग्या में स्थित हलन्त 'ग्' का लोप; २.८६ से '' को द्वित्व 'धु' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व '' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति और ३-२६ से प्राप्त प्राकृत रूप 'मुद्धा' में संस्कृत के तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ', 'ई' और 'ए' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर क्रम से तोनों प्राकृत रून मुद्धाअ, मुखाई और मुवाए सिद्ध हो जाते हैं। मुग्धायाः संस्कृत षष्टयन्त एक वचन का रूप है । इस के प्राकृत रूप मुद्वाश्र, मुद्धाइ और मुद्धाए होते हैं । इनमें मूल संस्कृत रूप 'मुग्धा मुद्धा की सिद्धि उपरोक्त रीति अनुसार, तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-२६ से संस्कृत के षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'म-इ-प' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर फ्रम से तीनों प्राकृत रूप मुद्धाम मुखाइ और मुद्धाए सिद्ध हो जाते हैं। मुग्धायाम संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुखान, मुशाइ और मुखाए होते हैं। इन मूल संस्कृत रूप 'मुग्या' मुद्धा' को सिद्धि उपरोक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-२६ से संस्कृत के सप्तमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'श्र-इ.ए' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर कम से तोनों प्राकृत रूप मुद्धाअ मुबाइ और मुद्धाए सिद्ध हो जाते हैं । 'कर' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१36 में की गई है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] * प्राकृत व्याकरण * ********666666606409 'मु' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८७ में की गई है। 'ठि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है। 'या' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १६७ में की गई है । दो। मुग्धिका संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धिश्राम, मुद्धिश्राइ २७७ से मूल संस्कृत रूप 'मुग्धिका' में स्थित 'गु' का लोपः २-८६ से धू' को द्विश्व 'धू' की प्राप्ति २ ६० से प्राप्त पूर्व 'धू' के स्थान पर दु' की प्राप्ति; १-१७० से 'क' का लोप तत्पश्चात् प्राप्त प्राकृत रूप 'सुद्धिभा में सूत्र संख्या ३२६ से संस्कृत के वृत्तीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अइए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर afterere, fairs और मुखिआए सिद्ध हो जाते हैं। कमलिकया, कमलिकायाः और कमलिकायाम् क्रम से संस्कृत तृतीया पष्ठी सप्तमी विभक्ति के एक वचन के रूप है। इन सभी के प्राकृत रूप कमलिया, कमलिश्राह और कमलिआए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत रूप 'कमलिका' में स्थित द्वितीय 'क' का लोप और ३-२६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'दा' के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्रप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर और सप्तमी विभक्ति के एक वचन में श्रष्टव्य प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'अ-इ-ए प्रश्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर प्रत्येक के तीन ठीन रूप 'कमहिजाम कमलिभाइ और कमचिनाएँ सिदूध हो जाते हैं । या संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धीच, बुद्धीआ बुढीइ और बुदुधीए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३ २६ से संस्कृतिीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में आइए' प्रत्ययों को क्रम से प्राप्ति एवं इसी सूत्र से अन्त्य ह्रस्व स्वर इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप बुद्धी बुद्धीमा बुद्दी और बुद्धी सिद्ध हो जाते हैं । बुद्धषाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धो, बुद्धीआ, बुद्धीइ धौर बुद्धी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-२६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यक्ष '' के स्थान पर प्राकृत में 'अन्धा इन्' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति और इसी सूत्र से अन्त्य स्वर 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप बुद्धो बुद्धोआ- बुद्धीइ और बुद्धोए सिद्ध हो जाते हैं । बुछयाम् संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचन रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धी, बुद्धीना, बुद्धोइ और बुद्धी होते हैं। इनकी साधनिका भी सूत्र संख्या ३-२६ से ही उपरोक्त रीति से होकर चारों रूप क्रम से बुद्धी- बुद्धीआ-मुद्दीर और बुद्धीए सिद्ध हो जाते हैं। "कचं " रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११६ में की गई है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या महित. [ ५ ++to+000000000000000000000000rsoocomotorol000000000000000000***+++++ विभय। संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विल्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८ से "म" के स्थान पर ह." की प्राप्ति और :-२ मे पश्रमा विभाक्त के एक वचन में संस्कृताय प्रत्यय "सि" के स्थान पर अकारान्त पुल्लिग में "श्रो' प्रत्यय का प्राप्रि हाकर पितको रूप बद्ध हो जाता है। 'टि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-18 में को गई है। 'या' (अध्यय) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७ में की गई है। सख्या संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप सहीअ, महीपा, सहीइ और सहीए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'सखी' में स्थित 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से संस्कृतीय मुनीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय दा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से--'अ-श्रा-इ-प' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कम से चारों रूप 'सही-सहीआ-सही और सहीए' सिद्ध हो जाते हैं। सख्याः संस्कृत पाठयन्त एक वचन रूप है । इसके प्राकृत रूप सही-सहीबा-सहीह और सहीए होते हैं। इनमें 'सही रूप की साधनिका उपरोक्त रोति से और ३-२६ से संस्कृतीय षष्पयन्त एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सम' के स्थान पर प्राकून में क्रम से 'अ-श्रा-इ-र' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप सही-सही-सही और सहीए' सिद्ध हो जाते हैं । 'कर्य रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१7 में की गई है। 'वयणं रूप को सिद्धि सूत्र-सख्या ?-८ में की गई है। ' डिप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है। धेन्या संस्कृत तृतीयान्न एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप घेणूअ, घेणूओ, धेणूइ और घेणूर होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ मे मूल संस्कृत शब्द 'धेनु' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ए' की माप्ति; ३-२६ से संस्कृतीय तृतीया विक्ति के एक वचन म प्राप्तन्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-श्रा-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति और इपो सूत्र से अन्त्य दम्ब स्वर व' का दाघ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर कम से चारों रूप घेणअ, धेाभा, घेणूड और छपए मिद्ध हो आसे है। धन्याः संस्कृत षष्ठयन्स एक पचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप वेणून घेणूत्रा, घेणूह और घेणूए होते हैं। इनमें घेणू रूप की सानिका उपरोक्त रीति से एवं सूत्र-संख्या ३.२५ से हो षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तम्ब प्रत्मस स्' के स्थान पर शकृत में 'अ-बा-इ-र' प्रत्ययों की क्रमिक प्राप्ति और इसी सत्र से अन्य स्वर को दीपता की प्राप्ति होकर क्रम चारों रूप धेयाअ-धपूओधाई और घेणूए' सिद्ध हो जाते हैं । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] 4000564 * प्राकृत व्याकरण * न्याम् संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप घेणू घेणूबा घेणूह और घे होते हैं। इन रूपों की साधानका उपरोक्त रीति से एवं सूत्र संख्या ३-२६ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में क्रम से 'अ आ इ ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'वेणू, वेणूभा, घेणूइ और वे सिद्ध हो जाते हैं। 'क' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११६ में की गई है। '' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७७ में की गई है । 'ठि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है। Fear संस्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बहूअ, बहूश्रा, वहूर और बहूए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'वधू' में स्थित 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३- २६ से संस्कृतीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रस्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-श्रा-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'वहू, बहूआ, बहू और बट्टए सिदूध हो जाते हैं । वध्याः संस्कृत षष्ठयन्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बहू - बहुश्रा, बहू और बहूए होते हैं इनमें 'बहू' रूप की प्राप्ति उपरोक्त रीति से एवं ३ - २६ से संस्कृतीय षष्ठयन्त एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ आ इ.ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप षहू, बहूआ, यहूद और बहूए सिद्ध हो जाते हैं । वध्यास संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बहुश्र, बहूश्रा, बहूइ और बहूए होते हैं। इन रूपों की साधनिका उपरोक्त रीति से और ३-२६ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में कम से ' श्रइए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप वहूभ, वहूआ, धड़ और बहूए सिद्ध हो जाते हैं । 'क' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११६ में की गई है। भवनम् संस्कृत रूप है | इसको प्राकृत रूप मवणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ३०२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृती य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भवणं रूप सिदूध हो जाता है। 'ठि' : - रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६ में की गई है। मुग्धायाः - संस्कृत पञ्चम्यन्त एक बचन रूप है। इसके प्राकृत रूप मुखाम, मुदाइ, मुखाए, मुद्धोओ, मुद्धाउ और मुद्धाहिन्तो होते हैं। इनमें मुद्धा रूप तक की सिद्धि इसी सूत्र में उपरोक्तवतं ; Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # Norwardoiswwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwom और ३-२ से प्रथम-द्वितीय तृतीय रूपों में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-इ-प प्रत्ययों को प्राप्ति होकर श्रादि के तीन रूप 'मुखाम-मुद्धाइ और मुचाए' सिद्ध हो जाते हैं। शेष तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१४ के अधिकार से एवं ३-० से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मसि' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'प्रो-उ-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर अन्त के तीन रूप 'मुद्धाओ-मुखाउ और मुशाहिन्तो भी सिद्ध हो जाते हैं। बुद्धयाः-संस्कृत पञ्चम्यन्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप बुद्धी, बुद्धी प्रा, बुद्धीइ और बुद्धीए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-२६ से संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-श्रा. इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर एवं अन्त्य हुस्व स्वर 'इ' को इसी सूत्र से 'ई' की प्राप्ति होकर कम से चारों रूप बुद्धीम-पद्धाआ-बुद्धीज और बुबाए सिद्ध हो जाते हैं। - सख्या:-संस्कृत पञ्चम्यन्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप सहीश्र, सहोश्रा, सहीइ और सहीए होते हैं। इनमें 'सही' रूप तक की साधनिका इसी सूत्र में वर्णित रोति अनुसार और ३.२६ से संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'श्र-प्रा.इ.ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'सही-सहीआ-सहीद और सहीए' सिद्ध हो जाते हैं। धेन्या:-संस्कृत पञ्चम्यन्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप घेणूत्र, घेणू पा, घेणूइ, धेणूए, धेणूओ, घेणूर और घेणूहिन्ता होते हैं। इनमें 'घेणु' रूप तक को साधनिका ऊपर इसी सूत्र में पर्णित रीति अनुसार और ३-२६ से आदि के चोर रूपों में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'अ-श्रा-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति एवं इमी सूत्र से अन्त्य हस्व स्वर 'ड' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर आदि के चार रूपयेणाअ-शेणू माधेपूर और घेणूए' सिद्ध हो जाते हैं। अन्त के तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१२४ के अधिकार से एवं ३-के विधान से पंचमी विभक्ति के एक वचन में "श्रो-उ-हिन्तो" प्रत्ययों को ऋमिक प्राप्ति तथा ३-१२ से अन्त्य हस्व स्वर "" को दीर्घ स्वर "अ" की प्राप्ति होकर अन्त के तीन रूप “धणूओ, धेगूठ और धेहितो" भी सिद्ध हो जाते हैं । . . वयाः संस्कृत पाचम्यन्त एक वचन रूप है। इसके प्राकृत रूप बहूध, बहूमा, पहूइ और धतूए होते हैं। इनमें "वहू" रूप तक की सिद्धि इसी सूत्र में वर्णित रीति अनुसार और ३-२६ से संस्कृतीय पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "अपि" के स्थान पर प्राकृत में कम से "अ-बा-इ-ए" प्रत्ययों को प्राप्ति होकर चारों रूप क्रम से “पहूज-पहा-यहूद और बहूए” सिद्ध हो जाते हैं। "आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। रत्याः संस्कृत पञ्चम्यन्त एक वचन का रूप है । इस के प्राकृत रूप रईओ, रईन और रहिन्तो Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] *प्राकृत व्याकरण होते हैं। इन में सूत्र-संख्या -१४७ से मूल संस्कृत शब्द "रति" में स्थित "'का लोप, ३-८ से संस्कृतीय पचमी विभक्ति के वचन में प्रारम्य प्रत्यय "इसि" केल्यानपर प्राकृत में कम से 'मो, और हिलो, प्रत्ययों की प्रापिर गौर -10 से सदानमा वीमाईको प्राप्ति होकर कम से तीन रूप 'रईबी, रईस, और रईहिन्को' सिद्ध हो जाते हैं। 'वच्छेण रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-F७ में की गई है। 'छस्स' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४९ में की गई है। 'पश्चम्मि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ११ में की गई है। 'पच्छाओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १२ में की गई है। मुगभा-संस्कृत प्रबमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप मुद्धा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त 'म' का लोप; २-८६. से 'ध्' को द्वित्व 'ध घकी प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'घ, के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तध्य प्रत्यय 'सि ( की इत्संज्ञा होने से ) स' की प्राप्ति, और १-११ से प्राप्त अन्स्य हलन्स 'स' का सोप क्षेकर प्राकृत रूप मुस्खा सिद्ध हो जाता है। 'सद्धी':-हप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१८ में की गई है। सखी:-संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप सहीं होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१७ से 'ख' के स्थान पर ह' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि= (१ को इत्संज्ञा होने से ) =स की प्राप्ति' और १-११ से प्राप्त अन्त्य हलन्त 'म' का लोप होकर प्राकृत रूप सही सिद्ध हो जाता है। धेणू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३१९ में की गई है। वा संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप टू होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.८ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ४-४१८ से संस्कृतीय प्रयमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि- (1' की इसंशा होने से ) मा की प्राप्ति और १-११ से प्राप्त मन्च ' का लोप क्षेकर प्राशाल रूप 'यतू सिद्ध हो जाता है । ३-२६. It. नात आत् ॥३-३०॥ स्त्रियां वर्तमानादादन्तायामः परेण टा उस् छि उसोनामादादेशो न ममति ॥ मालाम । मालाइ ! मालाए कसुह टिनं भागयो वा ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित answerrantiesometriu mmmonwerstotreeMeimerome मथ:-प्राकृत भाष में श्राकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया-विमति के एक बस में पंचमी विभक्ति के एक वरन में; षष्ठी विक्ति के एक वचन में और सामो विमति एक वचन में संस्कृतीय मामय प्रत्यय 'टा-स-सस और जि' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३.२४ से ओमिक चार अादेशमान प्रत्यय "म-आई और ए" प्रात होते हैं। इनमें से "आ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। किन्तु खान प्रत्थयों की ही प्राप्ति होती हैं जो कि इस प्रकार हैं:-"अ- और ए सारांश यह है कि भाकारान्त स्त्रीलिंग में 'या' प्रत्यय नहीं होता है जैसे:-कामिक सदाहरणा-तृतीया विभक्ति के पक बचन में:मालया कृनमः मालालमालाइ और मालाए कर्य; पंचमी विभक्ति के एक वचन में:-मालायाः भागत:मालाश्र, मालाइ और मालाए आगो । वैकल्पिक पक्ष होने से मालतो, मालाश्रो, मालाउ और मालाहिती श्रागओ भी होते हैं। षष्ठी भक्ति के एक बचन में:-मालाया सुख:-मालाभ, मालाइ और मालाए सुई। सप्तमी विभक्ति के एक वचन में:-मालायाम् स्थितम्-मानाथ, मालाइ, मालाए ठिअं । इस प्रकार से सभी पाका. रान्त स्त्रीलिंग रूपों में 'अ-इ-प' प्रत्ययो की ही प्राप्ति जानना और 'या' प्रत्यय का निषेध समझना। मालया-मालायाः-मालाया:-मालायाम संस्कृत कमिक तृतीयान्त-पञ्चम्यन्त-षष्ठयम्त और सप्तम्यन्त एक वचन रूप हैं। इन सभी के स्थान पर प्राकृत में एक रूपता वाले ये तीन रूप-'मालामा मालाइ-और मालाए' होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३-२६ से संस्कृतीय क्रमिक-प्रत्यय 'टा-सि-मस्क स्थान पर श्रादेश रूप 'अ श्रा-इ-और ए' प्रत्वयों को क्रमिक प्राप्ति और ३-३० से 'मा' प्रत्यय की निषेध अवस्था प्राप्त होकर क्रमिक तीनों रूप 'मालाअ माला और मालाए' उपरोक्त सभी विभक्तियों के एक वचन में सिद्ध हो जाते हैं। 'क' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-16 में की गई है। 'सुह' रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या -78 में की गई है। 'आगओ' रूप की सिदि सूत्र-संख्या १-२०१ में की गई है। 'टिभ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १5 में की गई है। 'चा' (अव्यय) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१७ में की गई है ।।३-३०।। प्रत्यये डीन वा ॥३-३१॥ श्रणादि सूत्रेण-(हे. २-४) प्रत्यय निमित्तो यो ङीरुक्तः स स्त्रियां वर्तमानाभाम्नीः षा भवति ॥ साहणी | कुरुचरी । पचे । आत्- (हे०२-४) इत्याप् । साहया ॥ कश्चरा॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000rssetworc0.komooooooooooootosresearc00000000000000 भर्थ:--प्राकृत भाषा के पुल्लिग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों को नियमानुमार स्त्रीलिंग में परिवर्तन करने के लिए हेमचन्द्र व्याकरण के सूत्र-संख्या २८४ से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'डी-ई' के स्थान पर (प्राकृत में) 'ई' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- (साधन + ई =) साधनी पाहणो अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से साहणा । (फुरुचर + ई-) कुरुचरा-कुरुचरी अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से कुरुचरा। इन उदाहरणों में स्त्रीलिंग प्रत्यय रूप से दीर्घ 'ई' और 'आ' को कमिक रूप से प्राप्ति हुई है। अतः इस सूत्र में यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि प्राकृत-भाषा में 'स्त्रोलिंग रूप' निर्माण करने में नित्य 'ई' की ही प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु 'या' की प्रानि भी हुश्रा करती है । (साधन + ई)= साधनी संस्कृत प्रथमान्त एक वचन को रूप है। इसके प्राकृत रूप साहणी और साहणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति, १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-३१ से 'स्त्रीलिंग रूपार्थक होने से' स्त्री प्रत्यय 'ई' की चैकल्पिक प्राप्ति होने से (साधन में) क्रम से 'ई' और 'श्रा' प्रत्ययों की प्राप्ति और १.११ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिम्स् का प्राकृत में लोप होकर क्रम से दोनों रूप साहणी और साहणा सिद्ध होजाते हैं। - (कुरुचर + ई=) कुरुचरी देशज प्रथमान्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकुन रूप कुरुघरी और कुरुचरा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-३१ से 'स्त्रीलिंग-रूपार्थक होने से स्त्री-प्रत्यय 'ई' की वैकल्पिक प्राप्ति होने से कुरुचर=में) कम से 'ई' और 'श्रा' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-११, से प्रथमाविभक्ति के एक बधन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-म' का प्राकृत में लोप होकर क्रम से दोनों रूप कुरुवरी और कुरुषरा सिद्ध हो जाते हैं। ३-३१॥ ___अजातेः पुंसः ॥३-३२॥ अजातिवाचिनः पुल्लिङ्गाद् स्त्रियां वर्तमानात् डीर्वा भवति, ॥ नीली नीला । काली काला । हसमाणी हसमाणा । सुप्पणही सुप्पणहा । इमीए इमाए । इमोणं इमाणं । एईए एआए । एईणं एमाणं । अजातेरितिकिम् । करिणी । या । एलया ॥ अप्राप्तेविभाषेयम् । तेन गोरी कुमारी इत्यादी संस्कृतवन्नित्यमेव डीः । अर्थः-जाति वाचक संज्ञा वालों के अतिरिक्त संचा थाले, विशेषण वाले, और सर्वनाम वाले शब्दों में पुल्लिग से स्त्रीलिंग रूप में परिवर्तन करने हेतु 'छी = ई' प्रत्यय की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:-नीला नीली अथवा नीला, काला = काली अथवा काला; हसमाना=हसमाणी अथवा हसमाणाः शूर्पणखा-सुप्पणही अथवा सुप्पणहा; अनया इमाए अथवा इमार अर्थात् इस (स्त्री) के द्वारा श्रासाम्-इमीणं अथवा इमाण अर्थात इन (स्त्रियों) का; एतया एईए अथवा एपाए अर्थात इस Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Hinutritersartoorestro.monsoretootoobsoortootomorrori.in (स्त्री) में; एतासाम्-एईणं अथवा एमाणं अर्थात इन (स्त्रियों) का; इन उदाहरणों में ऐसा समझाया गया है कि जिन संस्कृत स्त्रीलिंग शब्दों में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'या' की प्राप्ति हुई है। उन स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति भी हुआ करती है। यों भाकान्त स्त्रोलिंग वाले अन्य शब्दों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिये । प्रान:-प्राति बाचक भाकाराम्त स्त्रीलिंग शठदों में अन्य 'या' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' मस्यय की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है। उत्तरः-जाति वाचक आकारान्त स्त्रीलिंग में अन्त्य 'आ' को 'ई' की प्राप्ति कभी भी नहीं होती है। इसी प्रकार से 'ईकारान्त' को भी 'आकारान्त' की प्राप्ति नहीं होती है । अतएव उसकी प्राप्ति का निषेध ही प्रदर्शित करना आवश्यक होने से 'अजातः' अर्थात 'जाति वाचक स्त्रोलिंग शब्दो को छोक कर' ऐसा मूल-सूत्र में विधान करना पड़ा है । जैसे:-करिणी - फरिणी अर्थात् इयिनी । यह पदाहरण ईकारान्त स्त्रीलिंग का है। इसमें 'माकारान्त' का प्रभाव प्रदर्शित किया गया है। अजा-या अर्थात् पकरी और पल्लाका एलया अर्थान् बड़ी इलायची; इत्यादि इन उदाहरणों में प्रतीत होता है कि श्राकारान्त जाति वाचक स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'या' को '' की प्राप्ति नहीं होती है । यो ग्रह सिद्धान्त निर्धारित हुआ कि जाति वाचक स्त्रीलिंग शब्दों के अनव'मा' को 'आ' ही रहना है तथा यदि अन्त्य 'ई' हुई तो उस 'ई' को भी 'ई' हो रहती है। प्राकृत भाषा में अनेक स्त्रीलिंग शल्य ऐसे भी पाये जाते हैं, जो कि जाति वाचक नहीं है; किर भी उनमें अन्त्य 'आ' का अभाव है और अन्त्य 'ई' का सद्भाव है; ऐसे शब्दों के संबंध में वृत्ति में कहा गया है कि उन शब्दों को विभाषा वाले अन्य-भाषा वाले' जानवा; अर्थात ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले ऐसे शब्दों को अन्य भाषा से आये हुए एवं प्राकृत भाषा में 'रूढ़ हुए' जानना। जैसे:-गौरी-गोरी और कुमारी कुमारी । ऐसे शब्द प्राकृत भाषा में रूद जैसे हो गये है, और इनके वैकल्पिक रूप 'गोरा अथवा कुमारी' जैसे नहीं बनते हैं। ऐसे नित्य ईकारान्त शब्दों में संस्कृत के समान ही स्त्रीलिंग-वायक' प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति ही हुश्रा करती है। मीला:-संम्कन रूप है । इसके प्राकृत रूप नीली और नीला होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३.३२ से 'स्त्रीलिंग याचक अर्थ में' अन्त्य 'या' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'नीली' और 'मीला' सिद्ध हो जाते हैं। ____ कालासंस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप काली और काला होते है। इनमें सूत्र संख्श :-३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में' अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'काली' और काला सिद्ध हो जाते हैं। हसमानाः-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हसमाणी और इसमाणा होते हैं। इनमें सूत्र - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] * प्राकृत व्याकरण * **********♠♠♠♠♠♠ संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-३२ से 'स्त्रीलिंग वाघक अर्थ में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'हसमाणी' और इसमणा मिद्ध हो जाते है । शूर्पणखा :- संस्कृत रूप है। इसके प्रकृतरूपणहो और सुप्पहा होते है । इनमें सूत्रसंख्या १-०६० से 'श्' के स्थान पर स् की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्तिः २०७४ से रू का लोभ; २-८६ से लोप हुए '२' के पश्चात शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'एप' की प्राप्ति; १- १८७ से 'ख' के स्थान पर ह की प्राप्ति और ३-३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ' में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप सुप्पणही और सुध्यणहा सिद्ध हो वाते हैं । अनया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन रूप है। इसके प्राकृत रूप इमीए और इमाए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या- ३-७२ से " इदम् सर्वनाम के स्त्रलिंग रूप "इयम्" के स्थान पर प्राकृत में "हमा" रूप की प्राप्ति ३३२ से स्त्रीलिंग वाचक अर्थ" में अन्य "या" के स्थान पर वैकल्पि रूप से "ई" की प्राप्ति और ३-२६ से संस्कृतिीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "टा" के स्थान पर "ए" की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप इमीए और इमाए सिद्ध हो जाते हैं। आसाम् संस्कृत पष्ठयन्स बहुवचन सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमी और इमां होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-७२ से " इदम् सर्वनाम के स्त्रीलिंग रूप "इयम्" के स्थान पर प्राकृत में "इमा" रूप की प्राप्ति; ३. २ से "स्त्रीलिंग वाचक- अर्थ" में अन्य "या" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ई" की प्राप्ति; ३.६ से संस्कृतीय पष्ठी विभक्तिय के बहु वचन में प्राप्त प्रत्यय "आम्" के स्थान पर प्राकृत में "ण" प्रत्यय की आदेश- प्राप्ति और १.२७ से प्राप्त प्रत्यय "" पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप इमीणं श्रर इमाणं सिद्ध हो जाते हैं । एतया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप एईए और एमए होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-११ मूल संस्कृत सर्वनाम "रतत्" में स्थित अन्त्य हलन्त "तु" का लोप; १-१७७ से द्वितीय "तू" का लोप; ३-३१ की वृत्ति से और ३-३२ से "स्त्रीलिंग - वाचक- अर्थ" में कम से और वैकल्पिक रूप से शेष [अन्त्य "अ" के स्थान पर "आ" एवं "ई" की प्राप्ति और ३-२६ से संस्कृतीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "टा" के स्थान पर "ए" की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप एईए और एआए सिद्ध हो जाते हैं। आसाम संस्कृत षष्ठयन्त बहुवचन सर्वनाम स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप एणं और आणं होते हैं। इनमें "एई" और "पक्षा" रूपों की सानिका उपरोक्त इसी सूत्र में वर्णित रीति अनुसार ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तस्य प्रत्यय "आम्" के स्थान पर प्राकृत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # 98904000 [ ६३ 0.0 में "पण" प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १.२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण" पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप एई और एआणं सिद्ध हो जाते हैं । करिणी संस्कृत स्त्रोलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप (मां) करिणी ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-४४८ से यथा रूप वत् स्थिति की प्राप्ति होकर करिणी रूप सिद्ध हो जाता है। अजा संस्कृत रूप हैं | इसका प्राकृत रूप श्रया होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से “ज” का ओप और १-१५० से लोप हुए "ज्" के पश्चात् शेष रहे हुए "आ" के स्थान पर "या" की प्राप्ति होकर अया रूप सिद्ध हो जाता है । एलका संस्कृत रूप है। इसका प्रीकृत रूप एलया होता है । इममें सूत्र संख्या १-१०७ से "क" के पश्चात् शेष रहे हुए " श्र!" के स्थान पर "या" की प्राप्ति होकर एलया रूप सिद्ध हो जाता है । गौरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गाये होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५६ से " औ" के स्थान पर "ओ" की प्राप्ति होकर गोरी रूप सिद्ध हो जाता है । कुमारी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप (भो) कुमारी हो होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-४४८ से यथा रूपवत् स्थिति की प्राप्ति होकर कुमारी रूप सिद्ध हो जाता है। किं यत्तदोस्य मामि ॥ ३-३३ ॥ 1 "सि भम् श्रम्" वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां ङी वां भवति ।। की । काओ । कीए । काए । की । कासु । एवं जीओो । जाओ । ती । ताओ । इत्यादि || अस्य मामीति किम् का । जा । सा । कं । जं । तं । कारण | जागा | ताय || , I 1 , अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम "किम्", "यत्" और " तत्" के प्राकृत स्त्रीलिंग रूप "का", "जा" और "सा अथवा ता" में प्रथमा विभक्ति के एक वचन के प्रत्यय "सि", द्वितीया विभक्ति के एक वचन के प्रत्यय " अम्" और पट्टी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्ययों को छोड़ कर अन्य विभक्तियों के प्राकृत प्रत्यय प्राप्त होने पर इन आकारान्त 'का-जा-सा अथवा ता' सर्वनामों के अन्त्य '' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर इनका रूप 'की-जी और ती' भी हो जाया करता है । इनके कमिक उदाहरण इस प्रकार हैं:- काः = कीओ अथवा काश्रो; कया की अथवा काय; कासु की अथव! कासु । या: = जीओ अथवा जाओ और ताःतीश्रो अथवा ताओ इत्यादि ॥ प्रश्नः - 'सि', 'अम्' और 'आम' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर इन आकारान्त सवनामों में अर्थात 'का' 'जा' और 'सा अथवा सा' में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] * प्राकृत व्याकरण * कहा गया है ? उत्तर:- चूँकि प्राकृत-साहित्य में अथवा प्राकृत भाषा में इन आकारान्त सर्वनामों में 'सि'; 'अम्' और 'आम्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर अन्त्य 'आ' की स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहती है; श्रतएव ऐसा ही विधान करना पड़ा है कि प्रथमा विभक्ति के एक वचन में, द्वितीया विभक्ति के एक वचन में और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में इन आकारान्त सर्वनामों के अन्त्य 'श्री' को 'ई' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से भी नही होती है। उदाहरण इस प्रकार है: -का का; कामूकं और कासामू=काण; या=जा; याम् =जं और यासाम् = जाण; सा=सा; ताम = तं और तासाम्-ताण ॥ J संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है; इसके प्राकृत रूप की और और काम होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' में स्थित अन्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप; ३-३१ और ३-३३ से शेष रूप 'कि' में वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'स्त्रीलिंग अर्थक-प्रत्यय' 'की' और 'आप्=आ' की प्राप्तिः प्राप्त प्रत्यय 'श्री' अथवा 'आप' के पूर्वस्थ 'कि' में स्थित '' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'को' और 'का' रूप की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथम एवं द्वितीया विभक्ति के बहु बचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस शस के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीओ और फाभी सिद्ध हो जाते हैं। कया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कीए और काए होते हैं । इनमें 'को' और 'का' तक रूप की साधनिका उपरोक्त रीति अनुसार और ३-२६ से तृतीया श्रिमति के एक वचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय टा' के स्थान पर माकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीए और काए सिद्ध हो जाते हैं। फासु, संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन स्त्रोलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कीलु और कासु होते हैं । इनमें 'की' और 'का' तक रूप की साधनिका उपरोक्त रोति अनुसार और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहु वचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर शकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप की सु और कासु सिद्ध हो जाते हैं । याः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जीआ और जाओ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११ से भूल संस्कृत शब्द 'यस्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'सू' का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-३१ और ३-३३ से 'स्त्रोलिंग अर्थक-प्रत्यय' 'को' और 'आप' को कम से प्राप्ति; तदनुसार ङी' और 'आ' प्रत्यय प्राप्त होने पर प्राप्त प्राकृत रूप 'ज' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'जी' और 'जा' रूप की प्राप्ति एवं ३१७ से प्रथम तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप जीओ और जाभी सिद्ध हो जाते हैं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 90001000934--000890426************** [ ६५ ❖❖❖❖❖♦♦♦❖❖OD�◆◆◆◆� ताः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तोश्रो ता होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यकजन "तू" का लोप; ३-३१ और ३-३३ से "स्त्रीलिंग अथंक-प्रत्यय" "डी" और "आप् = भा" की क्रम से प्राप्ति; तदनुसार "डी" और "आ" प्रत्यय प्राप्त होने पर प्राप्त प्रोकृत रूप "त" में स्थित अन्त्य '' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से "ती" और "ता" रूपो की प्राप्ति एवं ३ २७ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहु वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप तीओ और ताओ सिद्ध हो जाते हैं । : "का" संस्कृत प्रथमा एक वचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप भो “का” ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द "किम" में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन -‘मू” का लोपः ३-३१ से 'त्रीलिंग श्रर्थक प्रत्यय" "आप्=अा" की प्राप्ति; तदनुसार पूर्व प्राप्त प्राकृत रूप "कि" में स्थित अन्त्य स्वर 'इ'' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं शेष हलन्त "क' में प्राप्त प्रत्यय "च्या" की संधि होकर "का" रूप की प्राप्तिः ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय "सि" की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य प्राप्त हलन्त प्रत्यय रूप व्यञ्जन "स" का लोप होकर "का" रूप सिद्ध हो जाता है । "या" संस्कृत प्रथमा एक वचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत "जा" होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-११ से मूल संस्कृत शब्द "यत्" में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन "तू" का लोप १-२४। मे "य" के स्थान पर "अ" को प्राप्ति; ३-३१ से स्त्रीलिंग अर्थक-प्रत्यय" "आप्"= 'आ' की प्राप्ति; तदनुसार पूर्व प्राप्त प्राकृत रूप "ज" में स्थित अन्त्य स्वर "अ" की इत्संज्ञा होकर लोप एवं शेष हलन्त "ज्" में प्राप्त प्रत्यय "आ" की संधि होकर "जा' रूप की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय “सिस् की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य प्राप्त हलन्त प्रत्यय रूप व्यञ्जन "स्” का लोप होकर "जा" रूप सिद्ध हो जाता है "सा" स्त्रोलिंग सर्व नाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १०१३ में की गई है। · "काम" संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग सर्व नाम रूप है। इसका प्राकृत रूप "क" होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप "का" में स्थित "आ" के स्थान पर "" की प्राप्ति और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतोय प्राप्तथ्य प्रत्यय "अम्” के स्थान पर "मू" की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त "म्" का अनुस्वार होकर "कं" रूप सिद्ध हो जाता है। "याम्" संस्कृतद्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप "जं" होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप "या" में स्थित "आ" के स्थान पर "" की प्ररभिः १. २४५ से प्राप्त "य" के स्थान पर "ज" की प्राप्ति और शेष साथनिका उपरोक 'क' के समान ही होकर "जं" रूप सिद्ध हो जाता है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . *प्राकस यार* sometimesometertaineerinterestinentrementitientiretrette . "ताम्" संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकूल रूप "तं" होता है इसमें सूत्र-संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप 'ता' में स्थित "श्रा" के स्थान पर "अ" को प्राप्ति और शेष-सानिका उपरोक्त "क' के समान ही होकर "" रूप सिद्ध हो जाता है। - "कासाम्" संस्कृत पष्ठयन्त बटुवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप "काण" होता है। इसमें सूत्र-संख्या-३-६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप “का" के प्राकृत रूप "का" में संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहु वचन में प्राप्तध्य प्रत्यय "श्राम" के संस्कृत विधानानुसार प्राप्त स्थानीय रूप "साम" के स्थान पर प्राकृत में "ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर "काण" रूप सिद्ध हो जाता है। "यासाम्"संस्कृत षष्ठयन्त बहु वचन स्त्रीलिंग मर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप 'जाण' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से "य" के स्थान पर "ज" की प्राप्ति और ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहु वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "श्राम-साम् के स्थान पर प्राकृत में "" प्रत्यय की प्राप्ति होकर "जाण" रूप सिद्ध हो जाता है। "तासाम्"संस्कृत षष्टयन्त बहु वयम स्त्रीलिंग प्रर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप "ताण' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहु वचन में पाठय प्रत्यय "प्राम"== साम् के स्थान पर प्राकृत में """ प्रत्यय की प्राप्ति होकर "ता" रूप सिद्ध हो जाता है । ३-३३।। . छाया-हरिद्रयोः ॥ ३-३४ ॥ अनयो राप-प्रसङ्ग नाम्नः खियं वीर्चा भवति ।। लाही छाया । इलदी हलहा ।। अर्थ:-संस्कृत स्त्रीलिंग शब्द 'छाया' और 'हरिद्रा' के प्राकृत रूपान्तर में अन्तत्र श्रा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डी-ई' की प्राप्ति होती है । जैसे:-छाथा-छाही और छाया था हरिद्रा हलहो और हलदरा । संस्कृत में 'छाया' और 'इन्द्रिा' नित्य रूप से श्राकारान्त स्त्रीलिंग हैं, जब कि ये शब्द प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'कारान्त हो जाते हैं। इसीलिये ऐसा विधान बनाने की श्रावश्यकता 'नही' और 'छाया' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४९ में की गई है। 'हलही' और 'हलहा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-८८ में का गई है। ॥३-३४॥ स्वस्लादेर्डा ॥ ३-३५ ।। स्त्रसादः स्त्रियां वर्तमानोद डा प्रत्ययो भवति ॥ ससा । नणन्दा । दुहिना । दुहिपाहिं । दृहिआसु । दुहिया-सुभो । गउआ ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Meritorietotratortoontroversitierreronormometerminorireonoree भयर--स्वस, ननान और दुहित आदि कारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में अन्स्य के स्थान पर 'हा ' प्रालय नीति होती है। माप प्रत्यय 'का' में 'इ' इत्संज्ञक ने से अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'ऋ' . का लोप होकर तत्पश्चात उसके स्थान पर 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होने से ये शब्द प्राकृत में बाकारान्त स्त्रीलिंग वाले बन जाते हैं । जैसे:-स्वस-ससा; ननान्द नगन्दा दुहित-दुहिश्रा; दुहितृभिःन्दुहिश्राहि दुहिता-दुहिनासु और दुहित-सुतः-दुहिया-सुओ । इत्यादि । 'गउमा' शब्द 'गस्तृ' से नही बना है; किन्तु सूत्र-संख्या १-५४ में वर्णित 'गश्य' से बनता है अथवा १-१५८ में वर्णित 'गो' से बनता है। इसी प्रकार से अन्य प्राकारान्न शब्दों के संबंध में भी विचार कर लेना चाहिये, जिससे कि भ्रान्ति न हो। इसी विशेषता को प्रकट करने के लिये ऋकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्रसंग में इस 'गया' शब्द को भी लिखना आवश्यक समझा गया है। स्पसा संस्कृत के स्वस शब्द के प्रथमान्त एक वचन का स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ससा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'व' का लोप; ३-३५ से अम्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'यो' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय 'सि = स' की प्राप्ति और १-१५ में प्राप्त प्रत्यय स का लोप होकर ससा रूप सिद्ध हो जाता है। .. नमान्दा संस्कृत के 'ननान्द' शब्द के प्रथमान्त एक वचन का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकत रूप "नमन्ना" होता है। इसमें सूत्र-संपा-१-२२८ से द्वितीय "न्" के स्थान पर "ण" की प्राप्ति; १-८४ से "श्रा" के स्थान पर "" की प्राप्ति; ३-३५ से अन्त्य "" के स्थान पर "आ" की प्राप्ति; और शेष माधनिका उपरोक्त "ससा" के समान ही क्रम से सूत्र-संख्या ४-४४८ से एक १-११ से होकर "नणन्दा" रूप सिद्ध हो जाता है। “वाहा " रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 7-१२% में की गई है । दुहिभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप दुहियाहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से "त" कालोप; ३-३५ से लोप हुए "त" के पश्चात शेष रहे हर "कृ" के स्थान पर "आ" की प्राप्ति और ३-७ से संस्कृतीय सृतीया-विभक्ति के बहु वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "भिः" के स्थान पर प्राकृन में "हिं" प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर दुहिआहिं रूप सिद्ध हो जाता है। पुहित संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रुप दहियास होन है। इसमें "दुहिया" रूप की साधनिका उपरोक्त रीति-अनुसार और ४-४४८ से सप्तमी विमक्ति के पहु वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रस्थय "" की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर दुहिआसु रूप सिद्ध हो जाता है। इक्षित सुतः संसास सस्पुरुप समामात्मक प्रथमान्त एक पचन का रूप है। इसका प्रासन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * दुहिओ-सुनी होता है। इसमें "तुहिया" रूप की सानिका परोक्त रीति-अनुसार १-१७७ से द्वितीय "त" का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति; "सुअ" के अन्त्य "अ" की इसंज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् "ओ" प्रत्यय को उपस्थिति होकर दुहिआ-मुओ रूप सिद्ध हो जाता है। "गउआ" रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५४ में की गई है । ३-३५ हस्वो मि ।। ३-३६ ।। स्त्रीलिंगस्य नाम्नी मि परे इस्वो भवति ।। माल । नई । बहु । हसमाणिं । हसमार्य पेच्छ । अमीति किम् ।। माला । सही । बहू ।। अर्थः-प्राकृत-भाषा में आकारान्त, दीघ इकारान्त और दोघं ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्ति के एक वचन का प्रत्यय "श्रम् =म" प्राप्त होने पर दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर हो जाता है। जैसे- संस्कृत-मालाम का प्राकृत में माल; नवीम-गई; वधूम- बहु इसमानोम- इसमाणिं; हसमानाम पश्य-इसमाणं पेच्छ । इत्यादि। प्रश्न:- "दीर्घ स्वरान्त स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विमति बोधक एक वचन म" प्रत्यय प्राप्त होने पर दीर्घ स्वर का स्व स्वर हो जाता है" ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:-क्योंकि प्रथमा आदि अन्य विभक्ति बोधक प्रत्ययों के प्राप्त होने पर स्त्रीलिंग में दीर्घ स्वर का द्वस्व स्वर नहीं होता हैकिन्तु स्वता को प्राप्ति केवल द्वितीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ही होती है। अतएवं ऐसे विधान का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- माला =माला; सखो= सही और वधूः-बहू । इन उदाहरणों में प्रथमान्त एक वचन का प्रत्यय प्राप्त हुआ है, किन्तु अन्त्य दध म्बर को हस्त्र स्वर को प्राप्ति नहीं हुई है। इससे प्रमाणित होता है कि अन्य दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति केवल द्वितीया विभक्ति के एक वचन के प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ही होती है; अन्यथा नहीं। मालाम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत-रूप मालं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-३६ से द्वितीय "प्रा" के स्थान पर "अ" की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में "म्" प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय को "म" का अनुस्वार होकर "मा" रूप सिद्ध हो जाता है। भट्टीम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत-रूप नई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०० से 'द' का लोप; ३-३६ से दीर्घ ईकार के स्थान पर हस्व "इकार" की प्राप्ति; ३-५ से Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # [ ६२ द्वितीया के एक वचन में "स्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म" का अनुस्वार होकर न रूप सिद्ध हो जाता है । 000000 धूम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप बहु होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से "घू" के स्थान पर "ह" की प्राप्तिः ३-३६ से दोर्घं "ऊकार" के स्थान पर ह्रस्व " उकार" की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में "म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म" का अनुस्वार होकर व रूप सिद्ध हो जाता है । हस्रमानीम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग का विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप इस्माणिं होता है । इसमें सूत- १९८१ से प्राम-धातु 'इस' में संस्कृतीच वर्तमान कन्त में प्राप्तम्ब प्रत्यय "आनच्" के स्थानीय रूप "मान" के स्थान पर प्राकृत में "माण" प्रदेश-प्राप्ति ३-३१ से तथा ३-३२ से प्राप्त प्रत्यय "माग" में स्त्रीलिंग - अर्थक प्रत्यय "की-ई" की प्राप्ति; एवं प्राप्त स्त्रीलिंग - अर्थक प्रत्यय “ढो" में ‘“हु ” इत्संशक होने से प्राप्त प्रत्यय "माग" में अन्त्य "अ" की इसझा होकर लोप तथा "ई" प्रत्यय को हलन्त "माए" में संयोजना होकर "हसमाणी" रूप की प्राप्तिः ३-३६ से दीर्ष 'कार' के स्थान पर ह्रस्व ' इकार" की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में "भू" प्रत्यय की प्राप्ति और १-५३ से प्राप्त "म" का अमुस्वार होकर हसमणि रूप सिद्ध हो जाता है। समानाम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग का विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप समारं होता है। इसमें "हसमासु" तक की साधनिका उपरोक्त रोतिअनुसार ३-३१ की वृद्धि से प्राप्त रूप "हसमाण" में स्त्रोलिंग अर्थक प्रत्यय "य" की प्राप्ति; तनुसार प्राप्त रूप "समाजा" में ३-३६ से अन्य "आ" के स्थान पर "अ" की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में "म" प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "" का अनुस्वार होकर "हसमाण" रूप सिद्ध हो जाता है । 'येच्च्छ ” ( क्रियापद ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.२३ में की गई है। "माला" रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८२ में की गई है। "सही" रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है । "छ" रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३--१९ में की गई है । ३-३६ ।। नामन्त्र्यात्सौ मः ॥ ३-३७ ॥ श्रमन्यार्थात्परे सौ सति क्लीवे स्वरान्म् से: ( ३- २५ ) इति यो म् उक्तः सन भवति ॥ हे वया । हे दहि । हे महु । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ] * प्राकृत व्याकरण * +++++++++++++ +++++++++++++++++++** *99$$$$$$$$$+++++++++++4+5+++++ अर्थ:-प्रयमा विभक्ति के प्रत्ययों की प्राप्ति संबोधन-अवस्था में भी हुआ करतो है; तदनुमार प्राकृत--भाषा के नपुंसक लिंग वाले शब्दों में संबोधम-भवाथा में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "स" के स्थान पर सूत्र--संख्या ३-२५ के अनुसार (प्राकृत में) प्राप्त होने वाले "म्" आदेश-प्राप्त प्रत्यय का अभाव हो जाता है । अर्थात् नपुंसक लिंग वाले शब्दों में संबोधन के एकवचन में प्रथमा में प्राप्तव्य प्रत्यय "म" का अभाव होता है । जैसे:-हे तृण-हे सण; हे दधि-हे दहि और हे मधु-हे महु इत्यादि । हे तृण । संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुसक लिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप "हे तण !' होता है। इसमें सूत्र-मंख्या १-१२६ से "" के स्थान पर "अ" की प्राप्ति और ३-३७ से थमा के समान ही संबोधन के एक वचन में प्राप्तम्य 'सि' के स्थान पर पाने वाले "म्" प्रत्यय का प्रभाव होकर "हे तण" रूप सिद्ध हो जाता है। हे दधि ! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नमक लिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप दे दहि !' होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८० से धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर आने वाले 'म्' प्रत्यय का प्रभाव होकर 'हे बहि' रूप सिद्ध हो जाता है। . हे मधु । संस्कृत संबोधन एक वचनान्त नपुसकलिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप "हे महु !" होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से "ध" के स्थान पर "ह" की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय मि" के स्थान पर आने वाले "म्' प्रत्यय का अभाव होकर "हे महु !'' रूप सिद्ध हो जाता है । ३-३७।। डो दीघों वा ॥ ३..३८ ॥ श्रामन्च्यार्थात्परे सौ सति अतः सेडों (३-२) इति यो नित्यं डोः प्राप्तो यश्च अक्लीवे सौ (३-१६) इति इद्भुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घः स वा भवति ॥ हे देव हे देवो ।। हे खमा-समण हे खमा-खमणो। हे अज्ज हे अज्जो ॥ दीर्घः। हे हरी हे हरि । हे गुरू हे गुरु । जाइ-विसुद्ध ण पहु । हे प्रभो इत्यर्थः । एवं दोगिण पह जिअ-लोए । पक्षे । हे पह। एषु प्राप्त विकल्पः ॥ इहत्व प्राप्ते हे गोअमा हे गोअम । हे कासवा हे कासव ।। २रे चप्पलया ! रे रे निग्विण्या ॥ अर्थ:-प्राकृत-भाषा के प्रकारान्त पुल्लिग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विमक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-२ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि" के स्थान पर आने वाले "ओ" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ७१ terroronar000000000rasoosrotococcorrrrrrro00000rsorrnsoosteroo000000+ प्रत्यय की प्राप्ति कमी होती है, और कभी कभी नहीं भी होती है। जैसे:-हे. देव ! देव ! अधषा हे देखो !हे क्षमा-श्रमण ! हे खमा-समरण ! अथवा हे खमा-ममरणो !; हे पाये ! हे अज्ज ! अथवा हे अजी। इसी प्रकार से प्राकृत-भाषा के इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा-विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-१६ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर शप्त होने वाले "अन्त्य हस्थ म्बर को दीर्घत्व" की प्राप्ति की होती है और कभी नहीं भो होनी है । जैसेः-हे. हरे :-हे हरी, अथवा हे हरि!; हे मुरो ! हे गुरू! अथवा हे गुरु |; जाति--विशुद्धन हे प्रभो ! =जाइ-विसुद्धण हे पहू ! इसी प्रकार से दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-हे द्वौ जित लोक ! प्रभो ! हे दोगिण जिन्न-लोए पहू ! अर्थात हे दोनों लोकों को जोतने वाले ईश्वर ! अथवा वैकल्पिक पक्ष में 'हे प्रभो !' का 'हे पहु' भी होता है। इस प्रकार से इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शम्भ में संबोधन-अषस्था के एक वचन में अन्य हस्व स्वर को दीर्घत्व की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुश्रा करती है। अकारान्त पुल्लिग शब्दों में भी संबोधन-अवस्थों के एकवचन में प्रथमा-विमक्ति के एक वचन के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' के श्रभाष होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्रारित वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । जैसे:--हे गौतम ! हे गोआमा ! अथवा हे गोश्रम ! हे कश्यप ! हे कालवा ! अथवा हे कासव ! इत्यादि । इस प्रकार उपरोक्त विधि-विधानानुसार संबोधन-प्रवस्था के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग शब्दों में तीन रूप हो जाते हैं, जो कि इस प्रकार हैं:-(१) 'औ' प्रत्यय होने पर; (२) वैकल्पिक रूप से 'श्री' प्रत्यय का अभाव होने पर मूल रूप की यथावत् स्थिति और १३) अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घत्व को प्राप्त होकर 'आ' की उपस्थिति । जैसे:-हे देव ! हे देवा ! हे देवो ! हे स्वमा ममण ! हे खमासमणा ! हे खमाप्तमणो ! हे गोश्रम ! हे गोधमा ! हे गोअगो ! इत्यादि ! विशेष रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन-श्रवस्था के एक वचन, में "ओ" प्रत्यय के अभाव होने पर अन्त्य "अ' को वैकल्पिक रूप से "आ" की प्राप्ति हुअा करती है । जैसे:- रे ! रे ! निष्फलक ! = रे ! रे ! चाफलया ! अर्थात् 'अरे ! अरे ! निष्फल प्रवृत्ति करने वाले । रे! रे ! निघणक ! = रे ! रे ! निम्धिणया ! अर्थात् अरे ! अरे ! दयाहीन निष्ठर इन उदाहरणों में संबोधन के एक वचन में अन्त्य रूप में "यात्व" की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में "रे ! घफलया ! और रे ! मिम्धिणय ! " मी होते हैं । यो मम्बोधन के एकब वन में होने वाली विशेपताओं को समझ लेनी चाहिये । हे देव ! संस्कृत संबोधन एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे देव ! और हे देवो! होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-३८ से सम्बोधन के एक वचन में प्रथमा-विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय "यो" की बैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप-हे देव और हे देवो सिद्ध हो जाते हैं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * mmsamreamsterrorkerrrrrrrorisorosor हे भमा-श्रमण ! संस्कृत संबोथन एक वचन रूप है । इसके प्राकृत रूप हे खमा-ममण और खमासमणो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-३ से '' स्थान पर रन की पामि से 'x' में स्थित 'र' का लोप, १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप-हे रमा-समण ! और हे खमा-समणो सिद्ध हो जाते हैं। हे माय ! संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप है अज्ज | और हे अयो! होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर '' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति = से प्राप्त 'ज' को विष 'उज' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे अज्ज ! और है जो सिद्ध हो जाते हैं । हे हरे संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे हरी ! और हे हरि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'हरि' में स्थित अन्त्य गुरव स्वर 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हेहरी ! और हे हरि ! सिद्ध हो जाते हैं। हे गुरू ! संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे गुरु ! और हे गुरू! होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विमक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'गुरु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ज' को वैकल्पिक रूप से दोघं 'क' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे गुरू ! और हे गुरु ! सिद्ध हो जाते है। . ___ जाति-विशुद्धन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाह-विसुद्ध' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४७ से 'त' का लोप; १-२६० से श के स्थान पर 'स' को प्राप्ति ३-६ से तृतीया विर्भाक्त के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश प्राप्ति और ३-१४ सं आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शटदान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'जाइ-विमुखेण" रूप सिद्ध हो जाता है। हे प्रभो । संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पहू ! और हे पछु ! होते हैं । इन में सूत्र संख्या :-७. से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक बचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'प्रभु' में स्थित अनय हस्व स्थर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दंघ स्थर 'ऊ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'हे पर • और हे पाहु' सिद्ध हो जाते हैं। ही संस्कृत का विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप दोरिण होता है । इसमें सत्र-संख्या Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Imastriwwentraneerisarrestheroserowarrowerrestrotrearrowesoordarmins ३-१२० से प्रथमान्त द्विवचन रूप 'हो' के स्थान पर 'दोरिण' श्रादेश प्रामि होकर 'कोण्णि' अप सिद्ध हा जाता है। (है। जित लोक ! संस्कृत विशेषणात्मक संबोधन के एक वचन को रूप है । इसका प्राकृत (अथवा मागधी। रूप (हे) जि अ-लोप होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' और 'क' का लोप श्रीर ४-५८.५ से संबोधन के एक वचन में-(नामधी-भाषा में) संस्कृतोय-प्रातभ्य प्रत्यय 'सि' आगे रहने पर अन्स्य 'श्र के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति एवं ४-४४० से संस्कृतीय-संबोधन-स्थिति के समान ही प्राकृत में मी प्राप्त प्रत्यय 'सि' का लोप होकर, अथवा १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'सिस' का लाप होकर प्राकृतोय (अथवा मागधीय) संबोधन के एक वचन में 'हे जिअ-लोए रूप सिद्ध होता है। हे गौसम ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे गोभमा और हे गोश्रम होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१५६ से 'नो' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति और ३--३८ से सबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'घ' को वैकश्पिक रूप से दोघं 'पा' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे गोअमा ! और हे गोभम ! सिद्ध हो जाते हैं। हे कश्यप ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे कासवा ! और हं कामव ! होते हैं ! इनमें सूत्र संख्या-१.४३ से 'क' में रहे हुए 'अ' को दोर्घ 'श्री' की प्राप्ति २.७८ से 'य' का लाफ, ५.२६० से लोप हुए य' के पश्चात् शेष रहे 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १०-२३१ से 'प' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और ३-१८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को वैकल्पिक . रूप से दीघ 'मा' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे कासका ! और हे कासव ! सिद्ध हो जाते हैं। र रेमिफलक ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसका (आदेश प्राप्त) देशज रूप रे ! रे ! चाफलया ! होता है। इसमें सूत्र संख्या २.१७४ से संस्कृत संपूर्ण शब्द 'निष्फल' के स्थान पर देशज-प्राकृत में 'चाफल' रूप की प्रादेश-प्राप्ति; २-१६४ से प्राप्त 'चाफल' में 'स्व-अर्थक' प्रत्यय 'क' की प्राप्ति; १--१७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १.-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३.-३८ से संबोधन के एकश्चन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'श्रा' की प्राप्ति होकर र रे ! चप्फलया ! रूप सिद्ध हो जाता है। रे रे ! निणक ! माकृत के मंबोधन का एक बचन रूप है। इसका प्राकृत (देशज) रूप रे ! रे ! निगिनणया होता है ! इसमें सूत्र-संख्या २-० से रेफ रुप'र' का लोपः १-१२८ से 'अ' के स्थान पर 'इ' को प्राति; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'घ' को द्वित्व 'घ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से खोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'या' की प्राप्ति होकर रे रे । निरिक्षणया रूप सिद्ध हो जाता है।३-३८।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ] 2 प्राकृत व्याकरण * +0000000000004446+000000000000468006180664000444 ++ शुतोद्वा ।। ३-३६ ॥ अकारान्तस्यामन्त्रसो सौ परे अकारोन्तादेशो वा भवति ॥ हे पितः । हे पिश्न " हे दातः । हे दाय । पक्षे । हे पिमरं । हे दायार ॥ अर्थ:-कारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में ) संबोधन के एक वचन में प्रापव्य प्रत्यय 'सि' का विधानानुसार लोप होकर शब्दास्य 'स्वर-महित व्यसन' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' प्रादेश को प्राप्ति होती है। जैसे-हे पितः- हे पिन और वैकल्पिक पक्ष में हे पितरं । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- हे दात हे दाय ! और वैकल्पिक पक्ष में है दायार ! होता है। हे पित्तः । संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पित्र ! और पिचरं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-३-३६ से 'स्वर-सहित व्यञ्जन-त' के स्थान पर '' को प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर "हे पि" : रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४० से 'स्वर सहित व्यञ्जन त' के स्थान पर 'अरं' आदेश की प्राति और १-११ से अन्त्य हलन्त रूप विमर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप “हे पिअरं" सिद्ध हो जाता है। हे दातः । संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृन रूप हे दाय ! और हे दायार ! होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३६ से 'स्वर' महिन व्यञ्जन-त के स्थान पर 'न' की प्राप्ति; १-५८० से प्राप्त हुए थ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलम्न म्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर प्रथम रूप 'हे दाय !' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्रसंख्या-१-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'दातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-४५ से संबोधन के एक वचन में शेष 'ऋ' के स्थान पर 'भार' भादेश को प्राप्तिः, और १-१८० से प्राप्त 'बार' में स्थित 'पा' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर विसीय रूप ' हे पायार !' भी सिद्ध हो जाता है । ३.३६ ।। नाम्न्यर वा ॥ ३-४० ॥ ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति ।। हे पितः हे पिअरं ! पक्षे । हे पिअ ॥ नाम्नीति किम् । हे कर्तः। ह कत्तार ॥ भर्थः ऋकारान्स शब्दों के ( प्राकृत-रूपान्तर में ' संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' का विधानानुसार लोप होकर अन्त्य 'क' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'परं' आदेश की प्राग्नि होती है पान्तु इसमें एक शर्त यह है कि ऐसे ऋकाराम शम ह संझा रूप होने चाहिये, गुणवाचक अकारान्त Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित mostratimriteo.remittart+tterstitter.roteoroorreartronversion संज्ञा पाले अथवा कियावाचक ऋकागन्त संज्ञा वाले शब्दों के संबोधन के एक वचन में इल सूत्रा. नुसार प्रामध्य 'अर' आदेश की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार की विशेषता सूत्र में उल्लिखित 'नाम्नि' पद के आधार से समझनी चाहिये । जैसेः हे पितः हे पिधरं । वैकल्पिक पक्ष होने से 'हे मित्र भी होता है। प्रश्न: रूद संझा बाले ऋकारान्त शब्दों के संबोधन के एक वचन में ही 'अर' अरमेश को प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-जो सद संज्ञा वाले नहीं होकर गुण वाचक अथवा किया वाचक कारान्त संशा रूप शब्द हैं; उनमें संबोधन के एकवचन में श्ररं' आदेश-प्राप्ति नहीं होतो है; ऐमी विशेषता बतलाने खिये ही 'नाम्नि' पद का उल्लेख किया जाकर संबोधन के एकवचन में 'पर' आदेश-प्राप्ति का विधान रूद-संज्ञा वाले शब्दों के लिये ही निश्चित कर दिया गया है । जैसे कि-क्रिया वाचक संज्ञा के संबोधन के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:-हे कर्तः ई कचार । 'हे पिमरे के समान 'हे कभरं' रूप नहीं बनता है यों रूढ़ वाचक संझा में एवं क्रिया वाचक अथवा गुण-वाचक संज्ञा में 'संबोधन एकवचन को विशेषता' समझ लेनी चाहिये । "हे पिअर" रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३६ में की गई है। "हे पिअ" रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३९ में की गई है। हे फतः ! संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे कत्तार ! होता है। इसमें सूत्र-संख्या-७ से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' को प्राप्ति; ३-४५ से मूल संस्कृत शब्द 'क' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत में 'बार' श्रादेश-प्राग्नि और १-१९से संस्कृतीय संबोधन के एकवचन में प्राप्त अन्त्य हलन्त म्याजन रूप विसर्ग को लोप होकर हे कत्तार!" रूप सिद्ध हो जाता है । ३-४०॥ वाप ए ॥३-४१॥ श्रामन्त्रणे सौ परे आप एत्वं वा भवति ।। हे माले । हे महिले। अज्जिए । पञ्जिए। पथे। हे माला । इत्यादि ।। आप इति किम् । हे पिउच्छा । हे माउच्छा ।। बहुलाधिकारात् क्वचिदोत्वमपि । अम्मो भणामि भणिए । अर्थ:-'आप' प्रत्यय वाले आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में संबोधन के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-हे माले हे माले; हे महिने हे महिले; हे आर्यिके = (अथवा हे आर्यके !)=हे-मजिए; हे प्रार्थिक - हे पज्जिए पशाम्ता में कम से ये रूप होंगे: हे माला; हे महिला; हे अग्जिमा और Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण 600000000otatorstressessonsertisemrootoosterrerotikotteo.roin हे पन्जिया । इत्यादि। प्रश्न:-'पाप' प्रत्यय वाले आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के ही संबोधन के एकवचन में 'ए' की प्राप्ति होती है, ऐसा उल्लेन क्यों किया गया है ? उत्तरः-जो स्त्रीलिंग शब्द 'आप' प्रत्यय से रहित होते हुए भो आकारान्त हैं; उनमें संबोधन के एकवचन में अन्य रूप से 'ए' की प्राप्ति नहीं हात्तो है; इसलिये 'आप' प्रत्ययान्त श्राकारान्त स्त्रोलिंग शब्दों के सम्बन्ध में 'सबोधन के एकवचन मे उपरोक्त विघान सुनिश्चित करना पड़ा है। जैसे:- हे पितृ-स्वसः ! हे पिउछा ! होता है; न कि 'ह पिउच्छे' हे मातृ-स्वसः !-ह माउच्छा! होता है; न कि हे माउच्छे; इत्यादि । - 'बहुलं' सूत्र के अधिकार से किती किसी प्राकारान्त प्राकृत स्त्रीलिंग शब्द के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'श्री' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होती हुई भी पाई जाती है । जैसे:--हे अम्ब भणितान भणामि = हे अम्मो ! भणामि भणिए ! अर्थात हे माता ! मैं पड़े हुए को पढ़ता हूँ । यहां पर संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द 'अम्बा' के प्राकृत रूप 'अम्मा' के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'या' फं स्थान पर 'भो' की प्राप्ति हो गई है; यो अन्य किसी किसी श्राकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्द के संबन्ध में भी समझ लेना चाहिये । हे माले ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हे माले ! हो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-४१ से मूल प्राकृत शब्द 'माला' के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और १-११ से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' का प्राकृत में भी संस्कृत के समान हो लोप होकर 'हे माले' रूप सिद्ध हो जाता है। हे महिले । संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भी है महिले ! ही होता है। इसमें भी सूत्र संख्या ३-४१ से और १-११ से उपरोक्न 'हे माले' के समान हो साधनिका की प्राप्ति होकर है महिले ! रूप सिद्ध हो जाता है। हे आयके ! सांकृत संयोधन एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप हे अज्जिए ! होता है ! इसमें सूत्र-संख्या १८४ से 'या' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-९६ से प्राप्त 'ज' को द्विस्व 'जन' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-४१ से मूल संस्कृत शब्द 'मार्यिका' में स्थित अन्त्य 'या' के स्थान पर संबोधन के एक्रवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर हे अज्जिए रूप सिद्ध हो जाता है। हे आर्यके ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हे अज्जिए ! होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'श्रा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८४ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व जज को प्राप्ति; २-१०० से प्राप्त ज में आगम रूप 'इ' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * । ७७ wrroreosorrowonorridoessetorwarsworrowarrestorernoteorometoot00000 को प्रापि; १.१७% से 'क' का लोप और ३-४१ से मूल संस्कृत शब्द 'पार्यिका में स्थित अन्त्य 'या' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में #त के समान हो 'ए' को प्रानि होकर 'हे अजिए' रूप सिद्ध हो जाता है। है प्राधिके ! संस्कृत संबोधन के पकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप हे पउजए ! होता है हमसे सूत्र प्रख्या -२-६ मे प्रथम 'र' का जाप १८१ से 'आ' के स्थान पर 'श्र' की प्रामि; २-२४ से संयुक्त मजा ' के स्थान पर 'ज' की नापित, २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'अ' को प्राप्ति; १-१७७ से 'क' ..!Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: * प्राकृत व्याकरण * •merimentratimeosetortoitreastestronowroomenorrenormonsorror ३.१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'इ' की प्राप्तिः २.१७. से संस्कृतीय कृदन्तात्मक प्राप्त प्रत्यय 'त' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'न' का प्राकृत में लोप और ३.१४ से प्राप्त रूप मणिरता' में स्थित लान्ट सं गनमा प्रत्यय 'स' में से शेष 'अ' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर 'भणिए' रूप सिद्ध हो माता है। -३-४॥ इदूतोर्हस्वः ॥ ३-४२ ॥ आमन्त्रणे सौ परे ईदन्तयोईस्वो भवति ॥ हे नइ । हे गामणि । हे समणि । है बहु । हे खलपू. ॥ अर्थः-दीर्घ इकारान्त और दीर्घ ऊकारान्त प्राकृत स्त्रीलिंग शब्दों में संबोधन के एकवचन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर विधानानुमार प्राम प्रत्यय सि का लोप होकर अन्त्य दीर्घ स्वर के स्थान पर सजातीय हुस्व स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:-हे नदि ! = हे नइहे ग्रामणि हे गामणि; हे श्रमणि ! =हे समणि; हे वधु-हे वहु और हे खलपु-हे खलपु । इत्यादि ।। हे नदि । संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे नइ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लाप और ३-४२ से संबोधन के एकवयन में अन्त्य दीर्घ-स्वर । के त्यान पर हस्व स्थर 'इ' की प्राप्ति एवं १-११ से प्रथमा-विभक्तिवत् संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृतीय रूप हे नइ ! सिद्ध हो जाता है। हैं ग्रामणि ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे गामणि ! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-० से 'र' का लोप; ३-४२ से संबोधन के एकवचन में मूल-शरद प्रामणीगामणा में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और १-५१ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृतीय रूप हे गामणि ! सिद्ध हो जाता है। है श्रमाण ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप हे समणि ! होता है इसमें सूत्र-संख्या २-१ से 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, ३-४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'श्रमणि-समणी' में स्थित अन्त्य वीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व'' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर हे समाण! रूप सिद्ध हो जाता है। हे पधु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप हे बहु होता है ! इसमें Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ७९ meeruttorrettornwormoorterwarewanmorterrestreetrootnotorinister सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति; ३-४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'वधू-बहू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और (-११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही (संबोधन के एकवचन में) प्राप्त प्रत्यय प्सि' के स्थानीय रुप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृतीय रुप 'हे प? सिद्ध हो जाता है । हे खलयु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का अप है। इसका प्राकृत रूप भी हे खलपु हो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-४२ से संबोधन ने एकवचन में मून शब्द 'खलपू' में स्थित अन्त्य दोर्ष स्वर 'ऊ' के स्थान पर लस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विमक्ति के समान ही संबोधन के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' को लोप होकर 'हे खलघु रूप सिद्ध हो जाता है ३-४२॥ क्विपः ॥३-४३ ॥ विपन्तस्येद्दन्तस्य हस्त्रो भवति ।। गामणिणा । खलपुणा । गामणिणो। खलपुणो । अर्थः-प्रामणी गामणी अर्थात गाँव का मुखिया और खलपू अर्थात दुष्ट पुरुषों को पवित्र करने पाला इत्यादि शब्दों में पी' और 'पू' आदि विशेष प्रत्यय लगाये जाकर ऐसे शब्दों का निर्माण किया. जाता है। इससे इनमें विशेष-अर्थता प्राप्त हो जाती है और ऐसी स्थिति में ये विषयन्त प्रत्यय वाले, शब्द कहलाते हैं । ऐसे त्रिचन्त प्रत्यय वालों शब्दों में जो दीघ ईकारान्त वाले और दीर्घ ऊकारान्त वाले शम्न हैं; उनमें विभक्ति-बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने वाले अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' अथवा '' का हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' हो जाता है और तत्पश्चात् विभक्ति-बोधक प्रत्यय संयोजित किये जाते है जैसे:-प्रामण्यो - गामणिया, अर्थात् प्राम- मुखिया द्वारा; खलप्वा खलपुणा अर्थात दुष्टों को (अथवा खलिहान को) साफ करने वाले से प्रामएयः = (प्रथमा-द्वितीया बहु वचनान्त)-गामणिणो अर्थात् गाँव मुखिया (पुरुषगण) अथवा गांव मुखियाओं को और खलप्वः = ( प्रथमा-द्वितीया बहुवचनान्त ) बलपुणो अर्थत् दुष्ट-पुरुषों ( या खलिहानों ) को साफ करने वाले अथवा साफ करने वालों को । इन सदाहरणों से प्रतीत होता है कि विभक्त बोधक प्रत्यय प्राप्त होने पर विबन्त शब्दों के अन्त्य दीर्घ स्वर हुष हो जाया करते हैं । 'गामाणणा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२४ में की गई है। 'खलपुणा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४ में की गई है। मामपयः संस्कृत प्रथमा-द्वितीया के बहु वचनान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप गामणिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-० से 'र' का लोप; -४३ से मूल शब्द 'गामणी' में स्थित अन्त्य दोघे स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहु वधन में संस्कृतीय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ಶ ] * प्राकृत व्याकरगा *******-**०००००० ****664464449649 'जस' शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णा प्रत्यय का कर गामणिको रूप सिद्ध हो जाता है । खलप्यः संस्कृत एवमानद्वतीया के बहुवचनान्त रूप है। उसका प्राकृत रूप खलपुगो होना है। इसमें सूत्र संख्या ३-४३ मे सूज शब्द 'ख' में स्थित अन्त्य ऊ के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'ख' की प्राप्ति और ३२६जस शस के स्थान पर प्राकृत में णों' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ख' मा है । ३-४३ ।। ऋतामुदस्यमी वा ॥ ३-४४ ॥ I । मत्तू | | टा | सि अम् वर्जिते अर्थात् स्यादी परे दन्तानामुदन्तादेशो वा भवति ।। जस् मत्चुणी | भत्तउ । भत्तयो । पत्रे । भत्ता | शस् । भत्तु भक्षूणां । पक्षे भत्तारे मत्तुणो । पञ्चे । भत्तारंग ।। मिम् । मर्दि | पक्ष भत्तार िङसि । मत्चुगो भत्तश्रो । मत् । भहिं । भत्त हिन्ती । पक्ष । भत्तारायां । मत्त राउ । भत्ताराहि । मत्ताराहिन्तो । भत्तारा । ङ स् । भत्तुणो । भत्तु स्म । पक्ष भत्तारस्य । सुप् । भसूसु | पक्ष । भचारेषु ॥ बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वात् यथां दर्शनं नाम्न्यपि उद् व भवति जम् शस्-ङ सिङस्-सु । पिडो जामाउणी | भाउणो || टायाम् । पिउ || पिंक ि सुवि । विऊखु । पते । पिश्ररा। इत्यादि ।। अस्य मौस्थिति किम् / मि । पिश्रा | 14 9 ॥ अम् । पिअरं ॥ । पिवरा || अर्थ :- संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकृत-रूपा तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' द्विवचन के प्रत्यय 'औ' और द्विताया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय अम्' के सिवाय अन्य किसी भी विमति के एकवचन के अथवा बहुवचन के प्रत्ययों को संयोजना होने पर शब्द के अन्त्य स्वर '' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उ' की प्राप्ति होता है और तत्पश्चात् उकारान्त के समान ही इन तथाकथित हन्तुमकारान्त शब्दों में विभक्ति-बाधक प्रत्ययों का सयोजना हुआ करता है। जैसे:- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'ज' प्रत्यय की प्राप्त होने पर म के रूप-र' के प्राकृत रूपान्तर भत्त ू, 'भत्ता, भत्त और मत्त होते हैं । एवं वैकल्पिक पक्ष होने से 'भत्ताग' रु। भी होता है । । द्वितीया विभक्ति बहुवचन के शस् प्रत्यय के उदाहरणः- भर्तृनमत्त भसो तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्तारे भी होता है। तृतीया विभक्ति के एकवचन के 'टा' प्रत्यय का उदाहरण:ममता और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारण होता है । तृतीया बहुवचन के प्रत्यय 'मिस का उदाहरण:-मदभिः भत्तहिं और वैकल्पिक पक्ष में सत्तारहिं इत्यादि होते है । 'उस' पंचमी विभक्ति एकवचन के उदाहरणः भत्त भत्तो, भत्त श्रो, भत्त, मन्त हि और भत्त हिन्तो तथा वैकल्पिक पक्ष में भशाराम महागर, असाराहि मत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते है । 'स' ठी विक्ति 1. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ f ♪♪**$**$$$$$$$$$$**÷÷÷÷÷6÷÷÷÷÷÷÷6÷÷÷÷÷ के एकवचन के उदाहरण:--भत्त:-मत्तणो, मत्त स तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्ताररूप रूप होता है । 'सुप्' सप्तमां त्रिभक्ति के बहुवचन का उदाहरण: भतृ पु=भत्त सु और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेसु होता है । 6♠♠♠♠ ऋकारान्त शब्द दो प्रकार के होते हैं; संज्ञा रूप और विशेषण रूप; तदनुसार इस सूत्र की वृत्ति में 'ऋदन्तानाम्' ऐसा बहुवचनात्मक उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि संज्ञारूप और विशेषण रूप दोनों प्रकार के ऋकारान्त शब्दों के अस्वस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'सि' और 'अम्' प्रत्ययों को छोड़कर शेष सभी प्रत्ययों का योग होने पर वैकल्पिक रूप से '' की प्राप्ति हो जाता हैं । जैसे:-- प्रथमा बहुत्रवन के प्रत्यय 'ज के उदाहरणः पि+जामातृ + इसि= जाभानुः = जामाउणो और भ्रातृ + कम भ्रातुः भाजणी इत्यादि । इस प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन मे 'श' प्रत्यय, पंचमी विभक्ति के एक वचन में 'ङ' प्रत्यय पत्र विभक्ति के एकवचन में 'स' प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय प्राप्त होने पर ऋकारान्त संज्ञाओं के अन्य स्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है। तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रश्यय का उदाहरणः पितृ + टापित्रा = पिडा; तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'मिस्' प्रत्यय का उदाहरण: पितृभिः = पिऊहिं और सप्तमा विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय का उदाहरण:-पितृषु = पिऊलु यो 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति का विधान समझ लेना चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र संख्या ३-४७ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति भी होती है और ऐसा होने पर इन शब्दों की रूपावति अकारान्त शब्दों के अनुसार होता है । जैसे:- पितृ + जस पितरः पिचरी; इत्यादि । प्रश्नः -- 'सि' 'औ और अम् प्रत्ययों को प्राप्ति होने पर ऋकारान्त शब्दों में 'ऋ' के स्थान पर ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? उत्तरः- सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ+सिपिता का प्राकृत रूपान्तर 'पिया' होता है; 'अम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ + श्रम् पितरम्' का प्राकृत रूपान्तर पिअर होता है; तथा प्रथमा विभक्ति और द्वितीय विभक्ति के द्विवचन में 'औ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ + औ = पितरों का प्राकृत रूपान्तर 'विवश' होता है; अतव 'सि' 'अम्' और 'औ' प्रश्यों को इस विधान के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है । भर्त्तारः - संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप भत, भलो भत्तव, भत्तश्र और मशारा होते है इनमें से प्रथम रूप में सूत्र--संख्या २७६ से मूल संस्कृत शब्दमत में स्थित 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'तु की द्विश्व 'ल' की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति और ३-४ से तथा ३-२० की वृति से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस' प्रत्यय का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त तथा लुम (जस् प्रत्यय के कारण ) अन्त्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] * प्राकृत व्याकरण हृम्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भत्त सिद्ध होता है । द्वितीय रूप - ( भर्तारः = ) मणी में 'भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भत्तुणी' सिद्ध हो जाता है । 444064 +4444444 तृतीय रूप - ( मतारः = ) भत्तर में 'भतु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् तत्पश्चात सूत्रसंख्या ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत रूप में '' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्तिः प्राप्त प्रत्यय 'डर' में 'ड्' इट वंशक होने से 'भत्त' अंग में स्थित अस्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा हो जाने से'' का लोग एवं पाप्त भत्' में 'अ' प्रत्यय को संयोजना होकर तृतीय रूप 'भत्तउ' भी सिद्ध हो जाता है । चतुर्थ रूप (मर्तारः = ) भत्तश्रो में 'भत्तु' श्रंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और शेप साधनिका तृतीय रूप के समान ही सूत्र संख्या ३-२० से होकर एवं 'डोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप-भत्तओं भी सिद्ध हो जाता है । पंचम रूप- 1- ( भर्त्तार:-) मतारा में सूत्र संख्या २७१ से मूल संस्कृत रूप 'भर्तृ' में स्थित 'र' का लोप २-८ह से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'तु' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्तिः ३ ४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस का प्राकृत में लांप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पंचम रूप भत्तारा सिद्ध हो जाता है । भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्त मत्त गो और भत्तारे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ७६ से 'र' का लोप २-८६ से लोप हुए र के पश्चात् रहे हुए 'तू' को द्वित्यन्त की प्राप्ति ३-५४ से मूल संस्कृत शब्द 'भ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर '' देश की प्राप्ति ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय शस् का में लीप और ३-१८ से प्राप्त एवं एवं लुप्त प्रत्यय शस् के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ब' को दीघ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भन्न् सिद्ध हो जाता है । प्राकृत द्वितीय-रूप- (भर्तृ न्= ) भत्तणो में 'भन्न रूप रंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३०२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप संयो' प्रस्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप- (भर्तृ न्= ) भत्तारे में सूत्र संख्या २७१ से '' का लोप २०६२ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'त' को द्विल 'त्त' की प्राप्तिः २०४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तष्य प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१४ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नियोदय हिन्दी व्याख्या सहित かかるのかがですから 、 かかるか分からなのか से प्राप्त तथा लुप्त शस प्रत्यय के कारण से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भतारे सिद्ध हो जाता है। भर्चा संग्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रुप भत्तणा और भत्तारेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या -७ से 'र' का लोप, २-१ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३.२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'दा-या' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रू।(भाभत्तारेण में सूत्र संख्या२-७ से 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए र' के पश्चात रहे हुए 'तु' को द्वित्व 'त' को प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'धार' आदेश की प्राप्ति; ३. से तृतीया विभक्ति के एकवचन में सस्कृतीय 'टाया' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेण सिद्ध हो जाता है । भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्न बटुवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप भत्त हिं और भत्तारहिं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'भत मतु' अंग की सानिका इसी सूत्र में अपर कृतवतः तत्पश्चात् सूत्रसख्या-३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय मित् के स्थान पा प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.१६ से प्रान प्रत्यय 'हि' के पूर्व स्व भत्त' श्रम में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्थ . स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तूहि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(भन भिः) भत्तारेहि में 'भतृ भत्तार' श्रग की साधनिका इमी मूत्र में पर कृतवत्त तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-७ से तृतीया विमक्ति के बहुवचन में संस्कृनाय प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय हिं' के पूर्व स्थ 'भप्तार' श्रग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो कर द्वितीय रूप भत्तारहि सिद्ध हो जाता है। भर्तुः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप भगुणो, भत्ता , भत्त ब, भत्तू हि, भत्तू हिन्तो, तथा भत्ताराश्री भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'भा,' अंग की सानिका इसी सूत्र में अपर कृतवतः तत्पश्चात् सूत्र-मख्या ३-२३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में बैकल्पिक रूप से हो' प्रत्यय की प्रामि शेकर प्रथम रुप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ और पंचम रूपों में-अर्थात् भक्तो , भत्तू उ, मतहि और भत्तू हिन्तो में 'भातु' अंग की प्राप्ति इसो सूत्र में कृत साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल प्राप्त-अंग 'भत्तु में स्थित अन्त्य हृम्य स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर '' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-२३ की Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] *ग्राकृत व्याकरखा * *1400Netrotro64041storrrrrrrror0000006storeo100000000000+ वृत्ति से पंचमी विकास के एकवन में संताल प्रत्यय 'सि के स्थान पर क्रम से 'प्रो-ज-हि-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप-(२ से ५ तक) भत्ती , मनूउ, अनहि, और भत्तू हिन्ती सिद्ध हो जाते हैं। छ8 से दशवं रूपों में अर्थात- (मतु' :=)मत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्ती और भसारा में सूत्र-संख्या २-३६ से 'र' का लाप; २.८६ से लाप हुए र' के पश्चात् रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स्' को प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्द 'भ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' प्रादेश को प्राप्ति; यों प्राप्त-अंग भत्तार' में ३-१२ से अन्त्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में कम से-'ओ-उ-हि-हिन्तो और लुक् प्रत्ययों की प्रादिन होकर कम से भत्ताराओ भत्ताराज, भत्ताराहि भसाराहिन्ती, एवं भत्तारा रूप सिद्ध हो जाते हैं। भर्चः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मत्तणी, मसुम और भत्तारस्त होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २.७६ से 'र' का लोप; ५-८६ से 'त' को द्वित्त्र 'त' को प्राप्ति ३-४४ से मूल शनाय अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' श्रादेश की प्राप्ति और ३.२३ से प्राप्तांग 'भत्त' में षष्ठी विमक्ति के एकवचन संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'जो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(भतु :-)भत्तस्स में भस्' अंग की सानिका ऊपर के समान; और ३-१० से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग भतु' में पठी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुस्त सिद्ध हो जाता है। तृतीय कप-(मतु: %) मशारस में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-१ 'त्' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्दाध अन्त्य '' के स्थान पर 'श्रार' आदेश की प्राप्ति और ३-१० मे प्राप्तांग भतार' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भत्ताररस सिद्ध हो जाता है । भद्देषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है ! इसके प्राकृत रूप मत्सु और भत्तारसु होते हैं। इनमें सं प्रथम रूप में *भत्त' अंग की साधनिका ऊपर के समान; ३-५६ से प्राप्तांग भत्तु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति और ४-४४ से सप्तमी विमक्ति के बहुषचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप' की प्राकृत में भी प्राप्ति; एवं १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'सुप.' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प' का लोप होकर प्रथम रूप भत्तूसु प्सिस हो जाता है। द्वितीय रूप (मत पु) भत्तारेसु में 'भत्तार' अंग की साधनिका ऊपर के समान; ३-२५ से प्राप्तांग भतार' में स्थित अन्त्य स्वर 'च' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष सापनिका की प्राप्ति Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * kredatorrorrentrorderertorrenderweetrorerotrostonomorror000+ प्रथम रूपयात ४-४४८ तथा १.११ से हाकर द्वितीय रुप भतारेसु भी सिद्ध हो जाता है। पितरः संस्कृन प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप पिउणो और पिग होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूल-संस्कृत शब्द 'पित' में स्थित 'त' का सूत्र-मख्या १-१७७ से लोप, २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अ' श्रादेश की प्रामि; और ३.२२ मे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिउणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(पितरपिग में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४५ से लोप हुए 'ह' के पश्चात शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' पादेश की माप्ति, ३.१२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति रही हुई होने से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप पिझरा सिद्ध हो जाता है। जामातुः संस्कृत पञ्चम्यन्त एक बचन को रूप है। इसका प्राकृत रूप जामाउणो होग है। इसमें मूल संस्कृत शब्द 'जामात' में स्थित 'त' का सूत्र संख्या १-१५७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'भू' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३-२३ से पंचमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में (वैकल्पिक रूप से) 'गो' प्रत्यय की की प्राप्ति होकर जामाउणो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रातः संस्कृत पष्ठन्यत एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भाउणो होता है। इसमें मूल शब्द भ्रातृ में सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; १-१६५ से 'त्' का लोप, २-४४ से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रह हुए '' के स्थान पर '' श्रादेश की प्राप्ति और ३-२३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' प्रत्यय की मामि होकर भाउणी रूप सिद्ध हो जाता है। पित्रा संस्कृत हतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पित्रणा माता है । मूल शरद पितृ में-सूत्र संख्या १-१७७ से 'तु' का लोप -४ से लोप हुए तू के पश्चात् शेष रहे हुए ऋ' के स्थान पर 'त' की प्रानि और ३.२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में मंस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में पा प्रत्यय कर प्राप्ति होकर पिउणा रूप सिद्ध ो जाता है। पितृभिः संस्कृत तृतीयान्न बहुवचन रूप हैं । इसका प्राकृत रूप दिन होता है । इसमें मिड' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुमार; ३-१६ से प्रासांग पिउ' में म्गित द्वस्व स्पर'' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ॐ' प्राप्ति और ३-० से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिकहिं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] 40999 पितृषु संस्कृत सप्रम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप पिऊस होता है। इसमें 'पिड' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार ३ १६ से प्राप्तांग 'पिउ' में स्थित ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्ति ४४४ सेप्मानित के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सुप्सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिक रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * fter संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिश्रा होता है। इसमें -- मूल शब्द 'पितृ' में स्थित 'a' का सूत्र संख्या १-१७७ से लोपः ३-४५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय-'सि-स् का अकृत में लोप होकर पिआ रूप सिद्ध हो जाता है । पितरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप हैं । इसका प्राकृत रूप पिचरं होता है। इसमें-मूल शब्द 'पितृ' में स्थित त का सूत्र संख्या १-१७० से लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर ॠ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- २३ प्राप्त प्रत्यय में 'म्' का अनुस्वार होकर पिअर रूप सिद्ध हो जाता है । पितरी संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्स द्विवचन का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पिचरा होता है। इसमें 'पिचर' चग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिकानुसार, ३ १३० सेद्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'पिचर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'अ' प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृनीय प्रत्यय 'जस्' शस्' का प्राकृत में लोप होकर पिंजरा रूप सिद्ध हो जाता है | ॥ ३-४४ ॥ - आरः स्यादौ ॥ ३-४५ ॥ स्यादौ परे ऋत और इत्यादेशो भवति || मचारो | भतारा । भचारं । मत्तारे । मन्तारंण । भत्तारेहिं ।। एवं ङस्यादिषूदाहार्यम् ॥ लुप्तस्याद्यपेक्षया । मत्तार - विहि || अर्थ:--- ऋकारान्त शब्दों में और ऋकारान्त विशेषणात्मक शब्दों में विभक्ति-बोधक 'सि' 'अम्' आदि प्रत्ययों की संयोजना होने पर इन शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति होती है तत्पश्चात इनकी विमक्ति-बोधक रूपावली अकारान्त शब्द के समान संचालित होती है । जैसे:- मर्ता मत्तारो::-मतरः यतारा भर्तारम्= भतार मन=मतारे भर्त्रान्मत्तारेण; भर्तृभिः = ताहि इसी प्रकार से पंचमी आदि शेष सभी विभक्तियों में स्वयमेव रूप निर्धारित कर लेना चाहिये; ऐसा आदेश वृति में दिया हुआ है। समास गत ऋकारान्त शब्द में भी यदि वह समा समय वाक्य के प्रारम्भ मे रहा हुआ तो 'ऋ' के स्थान पर 'बोर' आदेश की प्राप्ति हो जाती है एवं समाड़ I Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 10000000000000000trrorenstressrotor+000000000000000000000000000+roin गत होने से विभक्तिबोधक प्रत्ययों का लोप होने पर भी 'ऋ' के स्थान पर 'भार' आदेश प्राप्ति का श्रभाव नहीं होता है। जैसः-मत्- वाहतम् = भत्तार-विहिंअं । मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारो होता है । इसमें-मूल शब्द 'भतू' में स्थित 'र' का सूत्र संख्या २०७६ से लोप; २-६६ से 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति, ३-४५ स अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'पार' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में श्रकारान्त पुल्लिग में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारो रूप सिद्ध हो जाता है। भारः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भत्तारा होता है। इसमें 'भत्तोर अंग का प्राप्ति उपरोक्त शति अनुग, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३.१२ से प्राप्तांग भतार' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप होकर भत्तारा रूप सिद्ध हो जाता है। भर्तारम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का सप है। इसका प्राकृत रूप भतारं होता है। इसमें 'भत्तार' अंग की प्राप्ति उपरोक्त रीति अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३.५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से 'म्' का अनुस्वार हो कर भन्सार रूप सिद्ध हो जाता है। भर्तन संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भतारे होता है। इसमें 'मत्तार' अंग की प्राप्ति-उपरोक्त रीति अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्नाम 'भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'प्र' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस' का प्राकृत में होप होकर भत्तारे रुप सिद्ध हो जाता है। .. भन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप-मसारण होता है। इसमें 'मत्तार' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-२४ से प्राप्तांग 'भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय टा'='आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ग' प्रत्यय की प्राप्ति शेकर भत्तारेण रूप सिद्ध हो आता है। भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप मचाहिं होता है। इसमें 'भत्तार' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'म' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से सूतीया विभक्ति के बहुपएन में संस्कृतीय प्रत्यय 'मिस्' के स्थान पर प्राकत में हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भतारोह रूप सिद्ध हो आशा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ca] *प्राकृत व्याकरमा .000000000000000000000000oresentiretroverstoordaroromansootdoor... भर्तृ-विहितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तार विहिश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; 2-2 से 'त' को द्वित्व त की प्राप्ति; ३-४५ से 'ऋ' के स्थान पर 'बार' आदेश की प्राप्ति १-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक विकृत: प्रत्यय 'सि' पान र माकृत में म' प्रत्यय की पाप्ति और १-२३ से 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भत्तारविहिभं रूप सिद्ध हो जाता है । 1॥३४५ ॥ मा अरा मातुः ॥ ३-४६ ।। मात् संवन्धिन ऋतः स्यादौ परे ा अरा इत्यादेशी मवतः ।। मात्रा । मारा। माप्राउ | मामाश्रो । माअराउ । मारामा । माझं । मारं इत्यादि | बाहुलकाज्जनन्यर्थस्य आ देवतार्थस्य तु अरा इत्यादेशः । मात्राए कुच्छीए । नमो मारास ।। मातुरिदवा [१-१३५] इतीचे माईण इति भवति || ऋतामुद [३.४४] इत्यादिना उश्वे तु माउए समम्निमें वन्दे इति । स्यादावित्येव । माइ देयो । माइ-गयो ।। अर्थ:-'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर आगे विभक्ति-बोधक 'सि', 'अम आदि प्रत्ययों के रहने पर 'श्री' और 'अरा' ऐसे दो आदेशों का प्राप्ति यथाकम से होती है। जैसेःमातामात्रा अथवा मारा । मातरः मात्राउ और मात्राश्री अथवा माअराउ अथवा माअगोन माताएं । मातरम् मा अथवा माअरं अर्थात माता को। 'मातृ' शब्द दो अर्थों में मुख्यत: व्यवहृत होता है:-(१) जननी अर्थ में और (२) देवता के स्त्रोलिंग रूप देवी अर्थ में; तदनुमार जहाँ 'मात' शब्द का अर्थ 'जननी होगा वहाँ पर प्राक्स-रूपान्तर में अन्स्य '' के स्थान पर 'पा' आरश की प्राप्ति होगी; एवं जहाँ 'मार' शब्द का अर्थ देवी होगा; वहां पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति होगी। जैसे:-मातुः कुतः-मापार कुच्छा! अर्थात् माता के पेट से । नमो मातभ्यः=नमो माअराण अर्थात देवी रूप माताओं के लिये नमस्कार हो । प्रथम उदाहरण में "मातृ जननी" अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आवेश किया गया है। जब कि द्वितीय-उदाहरण में 'मात-वी' अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश किया गया है; यों 'आ' और 'धरा' आदेश-प्राप्ति में रहस्य रहा हुश्रा है उसे ध्यान में रखना चाहिये । सूत्र-संख्या १-१३५ में कहा गया है कि-जब 'मान' शम्न गौण रूप से समास-अवस्था में रहा हुआ हो तो उस 'भात' शरण में स्थित अन्त्य ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति होती है । तदनुसार यहां पर दृष्टान्त दिया जाता है कि- 'मातभ्यः माईण' अर्थात् माताओं के लिये; इस प्रकार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी होती है । इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-४४ में विघोषित किया गया है कि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ९ HWARRIraniawwwwwssssssssmrtersnewsexmarwane अकारान्त शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है'; तदनुसार 'मातृ' शब्द में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति भी होनी है। जैसे:मात्रा समन्वितम वन्दे माऊए समन्निनं वन्दे श्रधांत में माता के साथ (ममुच्चय रूप से) नमस्कार करता हूँ । इस 'माऊए' उदाहरण में 'मातृ' शब्द के 'ऋ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३.१४ के अनुमार वैकल्पिक रूप से 'उ' बादेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है; अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। प्रश्न:-सूत्र की वृसि मे ऐमा क्यों कहा गया है कि सि' 'अम्' आदि विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के श्रागे रहने पर ही 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'या' अथवा 'श्ररा' आदेश की प्राप्ति होती है। ___ उत्तर:-विमलित-बोधक प्रत्ययों से रहित होतो हुश्रा समास-अवस्था में गौण रूप से रहा हुना हो तो 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' स्थान पर 'या' अथवा 'परा' आदेश प्राप्ति नहीं होगी, किन्तु सुत्र संख्या १.१३५ अनुमार इस अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' आदेश की प्राप्ति होगी; ऐमा सिद्धान्त प्रदर्शित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति में 'सि' श्रम' आदि प्रत्ययों के आगे रहने की आवश्यकता का उल्लेख करना सर्वथा उचित है । जैसे:-मातृ देवः -माइ-देवो और मात-गण-माइ-गणो; इत्यादि। इन उदाहरणों में उक विधानानुमार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' श्रादेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। माता संस्कृत्त प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप मात्रा और मारत होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'न' का लोप; ३-५६ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'या' आदेश की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कूनीय प्रत्यय ' सिस' की प्राकृत में प्राप्त अंग 'माया' में भी प्राप्ति एवं १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स' का 'हलन्त होने से लोप होकर माआ रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (माता=) माअरा में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मात' में स्थित है का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति और शेष सावनिका प्रथम रूपचन होकर द्वितीय रूप मामरा भी सिद्ध हो जाता है। मातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मानाज, मापात्रो, माअराउ, और मा परायो होते हैं । इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या ११७. से मूल संस्कृन शमन 'मात' में स्थित 'त' का लोप; ३.४६ से लोप; हर त' के पश्चात शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर 'पा' आदेश की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में श्राकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'जन' के स्थान पर प्राकृत में ऋय से '' और 'श्री' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर माआउ और माआमओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय और चतुर्थ प-(मातरः =) मारा और माअरात्री में सूत्र संख्या १.१७७ से मूल Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ] * प्राकृत व्याकरण * orks.10000600mmedkarrierroretroreserterstostheatresses..... संस्कृत शब्द मातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-१६ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'श्ररा' प्रादेश-की प्राप्ति और ३.२७ से प्रथम दो रूप के समान ही 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की अम से प्राप्ति होकर माअराउ और माअराओ रूप सिद्ध हो जाते है। मातरम संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप माअं और माअरं होते हैं। इनमें 'माया' और 'भारा' अंगों की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-३६ से 'अन्त में द्वितीया विभ.केत के एकवचन का प्रत्यय आने से मूल-अंग 'मात्रा तथा माअरा' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर मा के स्थान पर हस्व वा 'अ' की प्राप्ति; 2.५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्रम' के स्थान पर शकृत में 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से शेनों रूप-माझे और माअरं सिद्ध हो जाते हैं। मातुः संस्कृत षष्ठवन्त ऋचन सा है। इस समाज मा समाए होता है। इसमें 'माश्रा' अंग की साधनिका उपरोक्त विधि अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-२६ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में श्राकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस = अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माआए रूप सिद्ध हो जाता है। कुक्षे संस्कृत पचम्यन्त एकत्रवन का रूप है। इसका प्राकृत रूर कुच्छीए होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मुल संस्कृत शब्द 'कुक्षि' में स्थित 'तू' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; 2 से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति; २-० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च्' का प्राप्ति और ३-२६ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में इकारान्त के स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'असि = अस' के स्थान पर प्राकृत में अन्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्थ 'ई' की प्राप्ति करावे हुए 'ए, प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुच्छीए रूप सिद्ध हो जाता है। नमः संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप नमो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-३७ के विसर्ग के स्थान पर 'हो' श्रादेश की प्राप्ति; नत्पश्चात् 'डो' में 'ड' इसझक होने से मूल अध्यय 'नम' में स्थित अन्त्य 'अ' की इसंज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त अंग 'नम्' में पूर्वोक्त 'प्रो' आदेश की प्राप्ति संधि-संयोजना होकर प्राकृतीय श्रव्यय रूप नमो सिद्ध हो जाता है। मातृभ्यः संस्कृत चतुर्थ्यन्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप माअराण होता है। इसमें 'माबरा' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् प्राप्तांग ' मारा' में सूत्र संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योग-दान एवं तदनुसार ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ग' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मामराण कप सिद्ध हो जाता है। मातृभ्यः संस्कृत चतुर्यन्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप माईग होता है। इसमें .. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ६१ 0000000 सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोग; १-१३५ से लोग हुए न क पश्चात शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योगदान; ३-१२ से प्राप्तांग माद' में स्थित अन्त्य हृम्य स्वर 'इ' के आगे पछी विभक्ति के बहुवचन-बोवक त्यय का सद्भाव होने से' दीघ 'ई' की प्राप्ति और अन्त में ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय श्राम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माईण रूप सिद्ध हो जाता है । *********060606066$$$$$$$ मात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूपमाऊर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-५४ से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; और ३-२६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीष प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राप्तरंग 'माड' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ब' को दीर्ष स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माऊए रूप सिद्ध हो जाता है । तिम् संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप समधिं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १८६ से लोप हुर 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'अ' की माप्ति: १-१७७ से 'तू' का लोप ३-२४ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में माकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर समन्नि रूप सिद्ध हो जाता है । '' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है। मातृ देव: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइ-देवी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'लू' का लेप; १-१३५ से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कुतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डोयो' की प्राप्ति होकर माह-देषो रूप सिद्ध हो जाता है । मातृ-मणः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइ-गणो होता है। इसमें 'माइ-देवो' में प्रयुक्त सूत्रों से साधना की प्राप्ति होकर माहमणो रूप सिद्ध हो जाता है । ३-४६ ।। नाम्न्यरः || ३-४७ ॥ ऋदन्तस्य नाम्नि संज्ञायां स्यादौ परे घर इत्यन्तादेशो भवति ।। पिारा । विश्वरं । विश्वरे । पिश्ररेण । विश्ररेहिं जामायरा । जामायरं । जामायरे । जामायरेण । जामाचरेहिं । मायरा | भायरं । मायरे । भायरे । मायरेहिं || 1 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * .0000000000000000000000rsorrorseniors+0000000000000000000000000 अर्थ:-नाम-बोधक ऋकारान्त संज्ञाओं में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर, आगे विभक्ति बोधक 'सि''अम्' आदि प्रत्ययों के रहने पर, 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है। और इस प्रकार ये संस्कृतीय ऋकारान्त संज्ञा शब्द प्राकृत रूपान्तर में 'अर-अादेश प्राप्ति' होने से अकारान्त हो जाते हैं; एवं तत्पश्चात् इनकी विभक्ति-बोधक-रूपावलि जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुमार बनती है। जैसे:-पितर पिपरा, पितरम् विप्रपिटाचा पित्रापरेण और पितृभिः पिअहि; इत्यादि । जामातरः-जामायरा; जामातरम-नामायरं; जामातृनजामायरे, जामात्रामामायरेण और जामातृभिः-जामायरेहिं इत्यादि । भ्रातरः- भायरा; भ्रातरम् = भायर; भ्रातून-भायरे; भ्रात्रामायरेण और भ्रातृभिः=.मायरेहिं; इत्यादि । पिजरा और पिभर रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४४ में की गई है। पितृ संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप पिअरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पित' में स्थित्त 'स' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'श्रर' आदेश की प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्तांग 'पिअर में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे द्वितीया बहुवमन बोधक प्रत्यय 'शम्' की प्राप्ति होने से'-'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीयाविमक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस' का प्राकृत में लोप होकर पिअरे रूप सिंच हो जाता है। पित्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसक, प्राकृत रूप पिअरेण होता है। इसमें 'पिअर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के समान; सत्पश्चात् सुत्र-संख्या ३.१४ से प्रातांग 'पिबर' में स्थित अन्स्य 'अ' के स्थान पर 'पागे तृतीया विभक्ति-बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया चिमक्किन के एकवचन में अकागन्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा-प्रा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिअरेण रूप मिद्ध हो जाता है। पितृभिः संस्कन तृतीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप पिपरेहिं होता है। इसमें 'विप्रर' अंग की प्राप्रि उपरोक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य 'अ' स्थान पर आगे तृतीया-विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति ३-७ से तृनीया विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिग में संस्कनीय स्यय भिस' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर यिभरोहिं रूप सिद्ध हो जाता है। जामातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है । इमका पाकृत रूप जामायरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द-जामात' में स्थित 'त' का लोप; ३-४५ से लोप हुए त के पश्चात शेष रहे हुप 'ऋ' के स्थान पर 'बार' आदेश की प्राप्ति; १-१८ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'ब' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थितं अन्य 'अ' के स्थान पर आगे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ प्रथमा विभक्ति के बहुबचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जम्' का प्राकृत में लोप होकर जामायरा रूप सिद्ध हो जाता है । 2000866466. * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित •*$*$*04660000000666666666666666/ जामातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामायरं होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के समान तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया भक्ति के एकवचन में अकारान्त पुहिल में संस्कृतिीय प्रस्यय 'श्रम् = म्' के समान ही प्राकृत में मी 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति हो कर जामायरं रूप सिद्ध हो जाता है। जामातून संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामायो होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त सावनिका के समान नत्पश्चात सूत्र संख्या ३०१४ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे द्वितीया विभक्ति के बहुत्रवन प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति; और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर जामायरे रूप सिद्ध हो जाता है । जामात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप जामायरेग होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के ममोनः तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-९४ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'धागे तृतीया विभक्ति के एकवचन प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-३ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्रत्यय 'टा=ओ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामायरेण रूप सिद्ध हो जाता है। जामातृभ: संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत जामारेहिं होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के मनानः तत्पश्वात् शेष साधनेका सूत्र संख्या ३-१५ तथा ३-७ से उपरोक्त 'पिअरेहिं' के समान ही होकर जामायरेहिं रूप सिद्ध हो जाता है । भ्रातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से मूल संस्कृत शब्द भ्रातृ में स्थित 'र्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप ३-४७ से लोप हुए 'तू' के पश्चात शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; २-६८० से आदेश प्राप्त 'अर' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'भायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर ' आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप होकर भायरा रूप सिद्ध हो जाता है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ६४ ] * प्राकृत व्याकरण * +++++++++++ +&+++++++++++++++++++++%%%%%%%%% %+++++ + +++++++ प्रातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भायर होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के समान, तत्पश्चात् शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-५ तथा १-२३ से 'जामायर' के समान होकर प्राकृत-रूप भायरं सिद्ध हो जाता है। भ्रानुन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप मायरे होता है । इसमें 'भायर' अंग भी प्राप्ति उपरोक्तमाधानका के समान, तत्पश्चात शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ धौर ३.'. हे समायरे माह ताकत का सारे सिद्ध हो जाता है। प्रात्रा संस्कृन तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत सप भायरेण होता है । इसमें 'मायर' अंग कामाप्ति उपरो. सानिका के समान; तत्पश्चात शेष सानिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ तथा ३-६ से 'जामायरेण' के समान ही होकर प्राकृत-रूप भायरे सिद्ध हो जाता है । धातुभिः तृतीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भायरेहिं होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ तथा ३-७ से उपरोक्त 'पिअरेहिं अथवा 'जामायरहि' के समान ही होकर प्राकृत रूप 'भायरेहि' सिद्ध हो जाता है। ३.४७ ।।। श्रा सौ न वा॥ ३-४८ ॥ दन्तस्य सौ परे आकारो यो भवति ॥ पिया । जामाया । भाया । कत्ता । पथे। पिरो । जामायरो । भायरो । कत्तारो । ___ अर्थ:-संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकन-रूपान्तर में प्रथमा-विभक्ति बोधक प्रत्यय 'सि' परे रहन पर शम्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर वैकलिपक रूप से 'या' की आवेश-प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-पिता- पित्रा अथवा पिश्रगेजामाता-जामाया अथवा जामायरो; भ्रातामाया अथवा भायरो और कता कता अथवा फत्तागे; इत्यादि । "पिभा" रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४४ में की गई है। जामाता मंस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप जामायो और जामायरो होते हैं। इनमें से प्रथम रुप में सुत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'जामात में स्थित 'स' का लोप; ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए '' के स्थान पर 'श्रा' आदेश-प्राप्ति, १-२८० से आदेश प्राप्त 'या' स्थान पर 'या' प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवषन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि''स्' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स' का प्राकृत में लोप होकर प्रथम रूप जामाया सिद्ध हो जाता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 160masterstudiosroorkestrostsssssssorrow.000000serrestrostressetosotor द्वितीय रूप 'मामायरी' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७ में की गई है। भ्राता संस्कृन प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप भाया और भायरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २.७६ से मूल संस्कृत शश्न 'घात' में स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त' का लोप; ३.४८ से लोप हुए 'ल' के पश्चात शेष रहे हुर :अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१८० से प्राम'या के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और शेष साधानेका को भनि सूत्र संख्या ४-४४८ तथा १-११ से उपरोक्त 'जामाया' के समान ही होसार साप मानता है : द्वितीय रूप-(भ्राता) भायशे में सूत्र-संख्या २-६ से मूल संस्कृत शब्द 'भ्रातृ' से स्थित्त 'र' का लोप; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति; १-१८० से आवेश-प्रात 'श्रर' में स्थित प्रथम 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रातगि 'भायर' में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भायरी सिद्ध हो जाता है। फर्ता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप कप्ता और कत्तारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-० से मूल संस्कृत शब्द कत' में स्थित 'र' का लोप; २-८8 से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को 'द्वित्व' 'स' की प्राप्ति; ३-४८ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'बा' आदेश प्राप्ति; और शेष सानिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४४८ तथा १-१५ से उपरोक्त 'जामाया' के समान हो होकर प्राकृत रूप 'कत्ता' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (कर्ता) कत्तारो में सूत्र-मख्या २-७६. से मूल संस्कृत शब्द 'क' में स्थित 'र' का लोप; -से लोप हुए 'र' के पश्चात् हे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४५ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'प्रार' आदेश प्राप्ति; और १.२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कत्तार में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'दो-' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कत्तारो सिद्ध हो जाता है। पिता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप-(पूर्वोक्त पित्रा के अतिरिक) पिनागे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पिच' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए, 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर '' के स्थान पर 'श्री' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'पिलर' में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में दोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिभरी रूप सिद्ध झ जाता है।। ३-४६॥ राज्ञः ॥ ३-४९ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकस व्याकरण * 1+00000000000000000000000000000rssaroknet00000rassroorkestendoor00000 राझो नलोपेन्त्यस्य श्रात्वं वा भयति सौ परे । राया। हे राया । पछे । प्राणा । देशे। रायायो । हे राय । हे रायं इति त शौरसेन्याम् । एवं हे अप्पं । हे अप्प ।। अर्थ:---संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'सि' परे रहने पर सूत्र-संख्या १-११ से 'न' का लोप हो र अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'या' की प्राप्ति होती है। जैसे:-राना गया: वैकापक पल में सुत्र-मख्या ३.५६ से 'प्राण' आदेश की प्राप्ति होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में राजा-रायाणो रूप में होता है। संबोधन एकवचन का उदाहरण:- हे राजन ई राया ! और हे राय ! शौरसेनी भाषा में मूत्र संख्या ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में 'हे रायं!' रूप भी होता है । इसी प्रकार से प्रात्मन्' शब्द भी राजन् के समान ही नकारान्त होने से इस 'मात्मन' शब्द के संबोधन के एकवचन में भी दो रूप होते हैं:-जैसे:हे आत्मन अप्प अथवा हे अप्प !" प्रथम रूप शौरसेनी भाषा को है; जब मि द्वितीय रूप प्राकृत भाषा का है ! राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप रोया और रायाणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप; एवं ३-४ से शेष शब्द राज के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात शेष रहे हुए 'श्रा' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय पाप्तव्य प्रत्यय 'सि''स' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय हलन्त 'स' का लोप होकर राया रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(राजा)रायाणी में सूत्र-संख्या १-१७० से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'ज' का लोप १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्त; ३.५६ से प्राप्तांग रायन्' में स्थिन अन्त्य 'अन् के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्तांग 'रायाण' में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' प्रत्यय की प्राप्ति योका द्वितोय रूप रायाणो भी सिद्ध हो जोता है। हे राजन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृन रूप हे गया ! और हे राय ! होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप एवं ३-४ से शेष शब्द 'राज' के अन्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'आ' की प्राप्तिः १-७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुप 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'या' के स्थान पर 'या' को प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तांग 'राया' में अन्त्य 'श्रा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप-हे राया ! और हे राय : सिद्ध हो जाते हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * worrespressorrorensterstoodoosedronsetroreovotestostrosarorosorison हे राजन् ! संस्कृत संबोधनात्मक सघन रूप है। इसका शौरसेनी रूप हे पर्य होता है। . इसमें सूत्र-संख्या १-७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के कारण से शौरसेनी में प्राप्तांग गयन्' के अन्त्य 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर शौरसनी रूप हे राय। मिद्ध हो जाता है। हे आत्मन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है । इसका शौरसेनी रूप हे अप्पं ! होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीघ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-५१ से संयुक्त व्यजन 'स्म' के स्थान पर 'प' को प्राप्त; २-८६ से प्राप्त १ को द्वित्व 'आप' की प्राप्ति ५-२६४ से संबोधन के एकवचन में शौरसेनी में प्राप्तोंग 'अप्पन ' में स्थित अन्त्य 'न' के स्थान पर अनुस्वार का प्राप्ति होकर हे अप्पं रूप सिद्ध हो जाता है। हे आत्मन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अप्प ! होता है। इसमें 'अप्प' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या १-११ से हलन्त 'न' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में वैकल्पिक रूप से प्रभाव होकर प्राकृतीय-संबोधनात्मक एकवचन रूप हे अप्प ! सिद्ध हो जाता है । ३-४६ || जस-शस्-डसिङसां णो ॥३-५०॥ राजन् शब्दात् परेषामेषां णो इत्यादेशो वा भवति ॥ जस् । रायाणो चिट्ठन्ति । पक्षे । राया ।। शस् । रायाणो पेच्छ । पक्षे । राया. राए | उसि । राइणो रगणी आगी । पक्षे । रायाो । रायाउ । रायाहि । रायाहिन्तो । राया । उस् । राइणो रगणो धणं । पक्षे । रायस्स ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्न राजन' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय “जस्' के स्थान पर; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'शस के स्थान पर; पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'एसि' के स्थान पर और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'अस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:--'जस' प्रत्यय का उदाहरण- राजानः सिष्ठन्तिमरायाणो अथवा राया चिटुन्मि । 'शस्' प्रत्यय का उदाहरणः रामः पश्यायाणो अथवा गया अथवा राय पेन्छ, अर्थात् राजाओं को देखो। असि' प्रत्यय का उदाहरणः- राज्ञः आगतः = राइणो रणो-अागओ; पक्षान्तर में मंच रूप होते हैं:- गयाओ; रायाज; रायाहि; रायाहिन्तो और राया मागश्री अर्थात् राजा से भाया हुआ है । 'स' प्रत्यय का अवाहरा-राशः धनम-राइणो-रएणी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] अथवा रायम्स धरणं अर्थात् राजा का धन । यो उपरोक्त उदाहरणों से विदित होता है कि 'जस्' 'शस्' 'कसि और इस्' प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुई है। * प्राकृत व्याकरण * 640090666666660 I राजान: संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-रायाणो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में | सूत्र संख्या १०९७७ में संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'न्' का लोप १-६८० स लोप हुए 'ज्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त 'न' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'थ' के स्थान पर 'आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यथ रहा हुआ होने से 'र' की प्राप्ति और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्’ के स्थान पर प्राकृत में 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( राजान: =) राया में 'शय अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात्, सूत्र संख्या ३-१२ से उपरोक्त रीति अनुसार हो अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति एवं प्राप्तांग 'राया' में ३-४ से प्रथम बिभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तत्र्य प्रत्यय 'जस' की प्राकृत में प्राप्ति और लोप स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता हैं । 'चिन्ति' रूप की सिद्धि सत्र संख्या 2-२० में को गई है। राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-रायाणो, राया और १८ होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'राय' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साघनिका के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३०१२ से प्राशंग 'राय' में स्थित अन्त्य '' के स्थान पर 'आगे द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य 'शस' के स्थान पर प्राकृत में 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप-रायाण सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - ( राज्ञः = ) गया में 'राय' अंग को प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुपार सत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१० से राय में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'शसू' को प्राकृत में प्राप्ति एवं लोक स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूपराया भी सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप-(राज्ञः=) राए में सूत्र संख्या लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त 'न' व्यञ्जन का स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया की १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'ज्' कह लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'रात्र' में स्थित अन्त्य 'अ' के विभक्त के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शासु' प्राकृत में प्राप्ति एवं लोपस्थिति प्राप्त होकर तृतीय रूप 'राम' भी सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ************ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 1044009440 [ ६६ **** राज्ञः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राहणो, रखो, रायाओ, राया गयाहि, रायाहिन्तो और राबा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यखन 'न' का लोपः ३२२ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में बैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राहणी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( राज्ञः = ) ग्राणो में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप ३-५५ से से शेष रूप 'राज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में बैकल्पिक रूप से 'अ' की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तांग 'र' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'इसि' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'पो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'रण' सिद्ध हो जाता है । रायाड, रायाहि, रायाहिन्तो अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का रहे हुए 'छ' के स्थान पर 'य' तृतीय रूप से सात रूप तक में अर्थात् - (शक्षः) रायाची, 'और राधा में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन् ' में स्थित लोप; १-१७७ से 'अ' का लोपः १-९८० से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'राय में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय रहे हुए होने से' दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति एवं उसे प्राप्तांग 'राया' में पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय उ-हि हिन्तो और लुक' की क्रम से प्राप्ति होकर कम से रायाजी सचाज, रायाहि रायाहिन्तो और राया रूप सिद्ध हो जाते हैं । 'आग' रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-१०९ में की गई है । राज्ञः संस्कृत पष्ठन्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राइयो, रणो और रामरत होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सुत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप ३-५२ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'जो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप राहणी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- (राज्ञः = ) रणो में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप ३-५५ से शेष रूप 'रोज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अणू की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तोग 'रण' में षच्छी विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'क' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'जो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-रण भी सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप-( राक्षः =) रायरस में सूत्र- संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित धन्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] 000000000000 * प्राकृत व्याकरा * ***********÷÷÷$666664 $❖❖❖++++++* हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए '' के पर 'य' की प्राप्ति १००० से ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप रायस्स भी सिद्ध हो जाता है । धनम् संस्कृत प्रथमान्त एकवचन को रूप है। इसका प्राकृत रूप वर्ण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृती प्राप्तब्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर धक रूप सिद्ध हो जाता है । ३-४० ॥ टा खा ॥ ३-५१ ॥ राजन् शब्दात् परस्य दा इत्यस्य णा इत्यादेशो वा भवति ।। राइगा । रपणा पक्षे रापण कयं || अर्थः--संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप राशा कृतम् - राहणारया (अथवा ) राण कथं; में 'णा' आदेश का प्राप्ति हुई है । रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय ''णा' आदेश की प्राप्ति हुआ करती हैं। जैसे:अर्थात् राजा से किया हुआ है। यहां प्रथम दो रूपों राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राहणा, रण्णा और राण होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'राह' अंग प्राप्ति सूत्र संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'दा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' आदेश प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप राहणा सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- (राज्ञा) रखा में 'रण' अंग की प्राप्ति सूत्र संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र- मंख्या ३-४१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन प्रथम रूप के 'गा' आदेश प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-रण्णा भी सिद्ध हो जाता है । समान ही तृतीय रूप- (राशा = ) राएण में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-१७७ से 'जू' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'श' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'राए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'दा' के स्थान पर 'क' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप राएण सिद्ध हो जाता है । 'क' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११६ में की गई है । ।। ३-५१ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १०१ इर्जस्य णो-णा-ङो ॥ ३-५२ ॥ राजन शब्द संबन्धिनो जकारस्य स्थाने णो-गा-किस परेषु इकारी वा भवति ॥ राइणो चिट्ठन्ति पेच्छ आगो धणं वा ॥ राइणा कयं । राहम्मि । पक्षे । रायाणो । रपणो। रायणा | राएग । रायम्मि । __ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में (प्रथमा बहुववन में, द्वितीया बहुवचन में, पंचमी एकवचन में और षष्ठी एकवयन में प्राप्तव्य प्रत्यय) णो; (तृतीया एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय) णा और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'झि' के स्थानीय रूप 'म्मि' परे रहने पर (मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित) 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' को प्राप्ति होती है । जैसे:-- राजानः तिष्ठन्ति-राक्षणो चिट्ठन्ति अर्थात् राजा गण ठहरे हुए हैं। राज्ञः पश्य-राइणो पेच्छ अर्थात राजाओं को देखो। राज्ञः आगतः राइणो भागश्रो अर्थात राजा से आया हुआ है । राज्ञः धनम् राइणो धणं अर्थात राजा का धन । इन उदाहरणों से विदित होता है कि-प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में और पंचभी षष्ठी के एकवचन के प्राप्तव्य प्रत्यय 'णो' के पूर्व में राजन' शब्द में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की यादेश प्राप्ति हुई है । '' प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है:- राज्ञा कृतम्-रापणा कयं अर्थात् राजा से किया हुआ है । इसी प्रकार से 'द्धि' प्रत्यय के स्थानीय रूप 'म्मि' का उदाहरण इस प्रकार है:रोज्ञि-अथवा राजनि-राइम्मि अर्थात् राजा में । इस प्रकार तृतीया के एकवचन में और सप्तमी के एकवचन में कम से प्राप्त 'या' प्रत्यय और 'मिम' प्रत्यय के पूर्व में 'राजन' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की आदेश-प्राप्ति हुई है । वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ प्राप्त प्रत्यय 'गो', 'णा' और म्मि' प्रत्ययों के पूर्व 'राजन' शब्द मे स्थित्त 'ज' के स्थान पर 'इ' आदेश-प्राप्ति-नहीं होगो; वहाँ राजन शहर के रूप उपरोक्त विमक्तियों में इस प्रकार होंगे: राजानः = शयाणो अर्थात् राजा गण । राज्ञः-रायाणो अर्थात राजाओं को । राज्ञः = रणो अर्थात् राजा से । राशः-रएणो अर्थात राजा का । राज्ञा-गयणा अथवा राएण अर्थात् राजा द्वारा या राजा से । राशि या राजनि-रायम्मि अर्थात् राजा में श्रथवा राजा पर । इन आहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि 'णो', णा' और म्मि' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर भी वैकल्पिक पक्ष होने से 'राजन' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं हुई है। यो वृत्ति में वर्णित शब्द 'इकारो वा' का अर्थ जानना । 'राजाम संस्कृत प्रथमान्त बहुष धन का रूप है । इसका प्राकृत रूप राइणो होता है । इसमें 'राइ अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३.५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर राइणो सिद्ध हो जाता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] * प्राकृत व्याकरण ॐ 69♠♠00460 44444444 राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप राहणो होता है। इसमें उपरोक्त प्रीति से हो सूत्र संख्या ३-५० और ३- २२ से साधनिका की प्राप्ति होकर राइणो रूप सिद्ध हो जाता है । इण पंचम्यन्त एकवचन और षष्टयन्त एकवचन रूप है। इसकी सिद्धि सूत्र संख्या ३.५० में की जा चुकी है। विन्ति रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१० में की गई है। च्छ रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है । आओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०९ में की गई है। धर्ण रूप की सिद्धि सूत्र-संयो०-५० में की गई है। कथं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६ में की गई है । राणा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५१ में गई है । 'वा' अध्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है। राशि अथवा राजाने संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राहम्मि और रायमि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राई' अंग की प्राप्ति सूत्र संख्या ३-५८ में वर्णित साधनिका अनुसार (और तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३०९९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'किम' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इम्म सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- (राशि अथवा राजनित्र) रायमि में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र- संख्या ३-११ से प्रथम रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रामि भी सिद्ध हो जाता है । 'रायाणी' (प्रथमान्त-द्वितीयान्त रूप) की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५० में की गई है। रणी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३०५० में की गई है । राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायणा और रायगण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-५९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रापणा सिद्ध हो जाता है । + Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित है [ १०३ 400000+rorkoNort+00000000000000000000000000000000000000000000000000 (द्वितीय रूप.)-राएण-की सिद्धि सूत्र-संख्या ५१ में की गई है । ॥ ३-५२ ।। इणममामा ॥ ३-५३ ॥ राजन शब्द संबन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति || राहणं पेच्छ । राइणं घणं । पक्ष । रायं । राईणं ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'अम्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'श्राम' प्राप्त होने पर मूल शब्दस्थ 'ज' व्यञ्जन सहित उपरोक्त प्राप्त प्रत्मय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इणं' आदेश की प्राप्ति हुमा करती है । नापर्य यह है कि प्राकृत रूपान्तर में 'ज' और उपरोक्त प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर 'पूर्ण' आदेश वैकल्पिक रूप से हुआ करता है । जैसे:-राजानम् पश्य-राइणं (अथवा गर्य) पेच्छ; यह उपरोक्त विधानानुसार द्वितीया विभक्ति के एकषचन का उदाहरण हुआ । षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का जदाहरण इस प्रकार है:-राज्ञाम् धनम् इण (अथवा राईणं वा रायाणं) धणं । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षास्तर में द्विताया विभक्ति के एकवचन में राहणं के स्थान पर राय जानना चाहिये और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में राइणं के स्थान पर राईणं अथवा रायाणं जानना चाहिये ! राजानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राइणं और राय होते हैं। इनमें से प्रथम रुप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-५३ मे द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्रम' सहित पूर्वस्थ 'ज व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इणं' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-राजानम राय में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन न्' का नोप; १.१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३.५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय अम के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायं सिद्ध हो जाता है। पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-72 में की गई है। रक्षाम् संस्कृप्त पन्छी बहुवचनान्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और राई लेते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यसन 'न' का लोप और ३-५३ से षष्ठीविभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' सहित पूर्णस्थ 'ज' स्पचन के स्थान पर प्राकृत में 'इण' आदेश की प्राप्ति लेकर प्रथम रूप राइप सिद्ध हो जाता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरवा* .000000+oorrorietorrentiretre e narroriorsr000woodsosition द्वितीय रूप-(राज्ञाम=) राईणं में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यसन 'न' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर 'पागे षष्ठी विभक्ति का बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'आम' रहा हुआ होने सेई की प्राप्ति; ३-६ से पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप राईण भी सिद्ध हो जाता है । . पण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 3-40 में की गई है। ईभिस्भ्यसाम्सुपि ॥ ३.५४ ॥ राजन् शब्द संबन्धिनो अकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारों भवति ।। भिस् । राईहि |! भ्यस् । राईहि । राईहिन्तो। राई-सुन्तो । पाम् । राईणं ॥ सुम् । राईस । पक्षे । रायाणेहि । इत्यादि। __ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया-विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय, पंचमी षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय परे रहने पर मूल शब्द 'राजन में स्थित 'ज' ध्यान के स्थान पर वैकष्पिक रूप से दीघ 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-'मिस्' प्रत्यय का उदाहरण:-राजभिःम्राईहि अथवा पक्षान्तर में रायाणेहि भ्यस् प्रत्यय के उदाहरणः-राजभ्यः-राईहि; राईहिन्तो, राईसुन्तो अथवा पक्षान्तर में रायाणाह, गयाणाहन्तो, रायाणासुन्तो; इत्यादि । 'घाम' प्रत्यय का उदाहरणः-राक्षाम-राईणं अथवा पक्षान्तर में रायाणं और 'सुप' प्रत्यय का उदाहरणः- राजसु-राईसु अथवा पक्षान्तर में रोयाणेसु होता है। . राजभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुषघन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राईहि और रायाणेहि होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-५१ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और ३-७ से सृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राईहि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (राजमिः) = रायाणेहि में सूत्र-संख्या १-१४४ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन,' में स्थित '' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति ३.५६ से प्राप्तांग 'रायन' में स्थित अन्त्य अवयव 'अन,' के स्थान पर 'आण' आदेश-प्राप्ति; सत्पश्चात् ३-१५ से प्राप्तांग रायाण' में स्थित अन्त्य म्वर 'म' के स्थान पर 'भागे तृतीया-बहुवचन बोधक-प्रत्यय रहा ना होने से' 'ए' को प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुषचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणेहि सिद्ध हो जाता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १०५ homwwwwwwwwwwwwwwwantastrorewww.antrvasana.orain. राजभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन सर है। इसके प्राकृत रूप राईहि, राईहिन्तो और राई सुन्ती होते है। इनमें सूत्र-संख्या १.११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त म्यनन 'न' का लोप; ३-२४ से 'ज' के स्थान पर-(वैकल्पिक रूप से)-गोर्घ 'ई' की पति और ३-६ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भ्यत' के स्थान पर प्राकृत में कम से हि-हिन्तो-सुन्तो 'प्रत्ययों की प्राप्ति होकर राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्तो रूप सिद्ध हो जाते हैं। राईण रूप की सिदि सूत्र-संख्या ३-५३ में को गई है। राजस संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप राईसु होता है । इसमें 'राई' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ४-४४८ से मातमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर राईम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५४ ॥ आजस्य टा-सि-हुस्सु सणाणोष्वण ॥ ३-५५ ॥ राजन् शब्द संबन्धिन श्राज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु रणा णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अण वा भवति ।। रगणा राइणा कयं । गणो राइणो आगो धणं वा । टा सि इस्स्विति किम् । रायाणो चिट्ठन्ति पंच्छ वा ॥ सणाणोध्विति किम् । रापण । रायाप्रो । रायस्स ।। अर्थ:-संस्कृत शब्न 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-५१ से प्राप्तव्य 'जा' प्रत्यय परे रहने पर तथा पंचमा विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत-प्रत्यय कमि ८ अस्' और षष्ठी-विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत-प्रत्यय अम-अस् के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-५० से प्राप्तव्य 'गो' प्रत्यय पर रहने पर एवं सूत्र-संख्या १-११ से 'राजन' के अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर शेष रहे हुए हुए 'राज' के अन्त्य अवयव रूप 'प्राज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अण' आदेश की प्राप्ति हुश्रा करती है। राज्ञा कृतम्ररणा कर्य अथवा राणा कयं अर्थात राजा से किया गया है। राज्ञः पागतः रगणो श्रागो अथवा राणो आगत्रो अर्थात राजा से पाया हआ। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:राः पनम् एणो धणं अथवा राइण वर्ष अर्थात् राजा का धन (है)। यो 'अण' श्रादेश-प्राप्ति की वैकल्पिक स्थिति समझ लेनी चाहिये। मा-मूल सूत्र में 'टा-मि-स' का उल्लेख क्यों किया गया है ? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] उत्तर:- संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में 'आज' अवयव के स्थान पर 'छ' (देश) की प्राप्ति उसो अवस्था में होती हैं, जब कि 'टा' अथवा 'सि' अथवा अस्' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुआ हो; अन्यथा नहीं। जैसे:- राजानः तिष्ठन्ति रायाणी चिट्ठन्ति यह दाहरण प्रथमान्त बहुवचन वाला है और इसमें 'टा' अथवा 'सि' अथवा 'ङस्' प्रत्यय का अभाव है; इसी कारण से इसमें 'राजन' के अवयव 'आज' के स्थान पर 'अण्' आदेश प्राप्ति का भी अभाव है । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है: - राज्ञः पश्य रायाणो पेन्छ अर्थात राजाओं की देखो; यह उदाहरण द्वितीयान्त बहुवचन वाला है और इसमें भी 'टो' अथवा 'सि' अथवा 'इस' प्रत्यय का अभाव है । इसी कारण से इसमें 'राजन' के अवयव 'आज' के स्थान पर 'श्रण आदेश नाप्ति का भी अभाव है । इस विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि 'टा' 'णा'; 'दसि' = 'ए' और 'इस' = 'णो' प्रत्यय को सद् भाव होने पर ही राजन्' के 'आज' अवयव के स्थान पर 'श्रण (आदेश) को प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है और इसी लिये मूल सूत्र में 'दाङ-सि-कस' का उल्लेख किया गया है । * प्राकृत व्याकरण * ◆❖❖❖$$$�*444 प्रश्नः - मूल सूत्र में 'णा' और 'णो' का उल्लेख क्यों किया गया है। उत्तर:- संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचन में जब सूत्र संख्या ३-५१ के अनुसार 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की (आदेश) - प्राप्ति होकर सूत्र संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होती है तब 'राजन' शब्द के 'आज' अवयत्र के स्थान पर 'अ' आदेश प्राप्ति नहीं होती। जैसे::-राज्ञा =रायण अर्थात् राजा से । इसी प्रकार से इसी 'राजन' शब्द के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन में जब सूत्र-संख्या ३-५० के अनुसार 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'खो' प्रत्यय की (आदेश)- प्राप्ति नहीं होकर सूत्र संख्या ३-८ के अनुसार 'इस' प्रत्यय के स्थान पर 'दोश्रो, उ हि, हिन्तो लुक् प्रत्यय की प्राप्ति होटो हैं; तब 'राजन्' शब्द के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण' ( प्रवेश) की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-- राः = रायाओ अर्थात् राजा से, इत्यादि । यही सिद्धान्त षष्ठी विभक्ति एकवचन के लिये भी समझना चाहिये; तदनुसार जब राजन्' शब्द के प्राकृत रूपान्तर में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में मंत्र-संख्या ३-५० के अनुसार 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की (आदेश) -प्राप्ति नहीं होकर मूत्र-संख्या ३-१० के अनुसार 'ङ' प्रत्यय के स्थान पर ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तब 'राजन् ' के 'आज' अत्र के स्थान पर 'श्रण' (आदेश) की प्राप्ति नहीं होती हैं । जैसे: - राज्ञः = रायरस अर्थात् राजा का। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि जब 'टा' के स्थान पर 'ण' और इft' अथवा 'इस' के स्थान पर 'गो' की प्राप्ति होती है; तभी 'राजन' के 'आज' अवयय के स्थान पर 'अ' आदेश प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। इसी लिये मूल सूत्र में 'या' और 'जो' का चकलेख करना पड़ा है। शब्द 'रण' और 'राणा' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या ३५१ में की गई है। A 7 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित में [१०७ 000000000000000000000000000+okart+ro+000000+++stonoran+60000000000 'कर्य' रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १.१२% में की गई है। 'पी ' और 'राणी' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। 'आगओं' हप की मिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'धणं' रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या ५० में की गई है। 'पा' अव्यय की मिद्धि सूत्र-संख्या १-१७ में की गई है । 'रायाणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५० में की गई है। 'चिन्ति (किया प३) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-२० में की गई है। 'पेच्छ' (क्रिया-पद) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-72 में की गई है। 'या' अध्यय की सिद्धि सूत्र संस्था १-६७ में की गई है। 'राएण' रूप की सिद्धि मन्त्र संख्या ३.५१ में की गई है। 'रायाओं 'रायस्स' रूपों की सिद्धि सत्र संख्या ३.५० में की गई है । पुस्यन प्राणो राजपच्च ॥ ३-५६ ॥ पुल्लिङ्ग वर्तमानस्यानन्तस्य स्थाने आग इत्यादेशो या भवति । पक्षे । पथा दर्शनं । राजवत् कार्य' भवति )। भाणादेशे व अत: सेडौंः (३-२) इत्यादयः प्रवर्तन्ते । पचे तु राज्ञः जस-शस-डसि-ङसां णा (३-५०) टी याा (३-२४) इणममामा (३-५३) इति प्रवत्तन्ते ।। अप्पाखो ! अप्पाणा । अप्पासं । अप्पाणे | अप्पाणेण । अप्पाणेहि। अप्पासाओ । अप्पाणा. सुन्तो । अपाणस्स | अप्पाणाण । अपाणम्मि । अप्पाणेसु । अप्पाण-कयं । पचे राजवत् । अप्पा । अप्पो । है अथा। हे अप्प । अप्पाणो चिट्ठन्ति । अप्पासो पेच्छ । अप्पणा । अप्पहिं । प्रधाणो। अप्पारे। अम्पाउ । अप्पाहि । अपाहिन्वी 1 अप्पा | अप्पासुन्तो ।। अप्पणो धणं । अप्यावं । अप्पे । अप्पेसु ॥ रायाणी । रायाणा । रायाणं रायाणे । रायाणेण । रायाणेहिं । रायाणा हिन्तो। रायासम्स । रायाणाएं । रायाणम्मि । रायाणेसु । पचे। राया इत्यादि । एचं जुवायो । जुवाण-जयो । जुमा । बम्हाणो । बम्हा । अद्धाणो । अद्धा ॥ उछन् । उच्छाणो । उच्छा ।। गावायो। गावा ॥ पूमाणो । पूसा ॥ तस्खायो । तक्या । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] 464 096280960040059 मुद्धाणो | मुद्धा || श्वन् | सायो | सा ।। सुकर्मणः पश्य || सुकम्माणे पेच्छ । निम्ह कह सो कम्माये । पश्यति कथं स सुकर्मण इत्यर्थः । पु'सीति किम् । शर्म । सम्भं ॥ I * प्राकृत व्याकरण * अर्थ :--- जो संस्कृत शब्द पुल्लिंग होते हुए 'अन' अन्त वाले हैं; उसके प्राकृत रूपान्तर में उस 'अन्' अवयव के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आप' (आदेश) की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां धन के स्थान पर 'आण आवेश की प्राप्ति नहीं होगी; वहीं उन शब्दों की विभक्तिबोधक-रूपावली 'राज' शब्द के समान उपरोक्त सूत्रों में वर्णित विधि-विधानानुसार होगी । 'अन' के स्थान पर 'आण' (आदेश) - प्राप्ति होने पर वे शब्द 'अकारान्त' शब्दों की श्रेणी में प्रविष्ट हो जायगे । और उनकी विभक्ति-बोधक-रूपावली 'जिण' आदि शब्दों के अनुरूप हो निर्मित होगी; तथा उनमें 'अतः से डों:' (३-२) आदि सभी सूत्र वे ही प्रयुक्त होंगे, जो कि 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों में प्रयुक्त होते हैं। वैकल्पिक पक्ष में 'अन्' के स्थान पर 'आप' (आदेश) की प्राप्ति नहीं होने पर 'राज' के समान ही विभकि-बोधक-रूपावलि होने के कारण से उनमें जम शस असि-उस' णो(३-५०); 'टो-णा'-(३-२४) और 'इणममामा'- ( ३-५३) इत्यादि सूत्रों का प्रयोग होगा इस प्रकार अन अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों की विभक्ति बोषक रूपावलि दो प्रकार से होती है; प्रथम प्रकार में 'अन्' के स्थान पर 'आप' (आदेश) की प्राप्ति होने पर 'अकारान्त शब्दों के समान ही रूपावलि - निर्मित होगी और द्वितीय प्रकार में 'आण' आदेश प्राप्ति का अभाव होने पर उनकी रूपावलि 'राज' शब्द में प्रयुक्त किये जाने वाले सूत्रों के अनुसार ही होगी । यह सूक्ष्म भेद ध्यान में रखना चाहिये । यहां पर सर्वप्रथम 'अन' अन्त वाले 'आत्मन्' शब्द में 'अन' अवयव के स्थान पर 'आप' देश-प्राप्ति का विधान करके इसको 'अकारान्त' स्वरूप प्रदान करते हुए जिए' आदि अंकारान्त - शब्दों के समान ही उक्त 'आत्मन - अप्पाण की विभक्तिबोधक रूपावलि का उल्लेख किया जाता है । = एकवचन प्रथमा - ( आत्मा ) श्रपाणा द्वितीया - ( आत्मानम् -) अप्पा-1 तृतीया - ( चात्मना = ) अप्पाषेण । पञ्चमी - (आत्मनः = ) अप्पाणाश्रा | षष्ठी - (आत्मन: =) अप्पाणस्स | सप्तमी - ( आत्मनि) अप्पाणमि । बहुवचन (आत्मान: =) अप्पाणा । ( श्रात्मन) अप्पाणे । ( श्रात्मभिः =) अप्पाहि । (अस्मभ्य: =) अप्पाणा सुन्तो । ( अत्मनाम् = ) अपाखान | (आत्मसु =) अप्पासु । समास अवस्था में 'आत्मनं = अप्पाण' में रहे हुए विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का लोप हो जाता अपने से अथवा आत्मा से किया हुआ | जैसे:- श्रात्म कृतम् = पायं श्रर्थात खुद से स्वयं ト Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 10+♠♠♠♠♠ 46004 है। उपरोक्त 'आत्मन = अप्पा' के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि 'अन' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन' श्रवयव के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति होकर वे शब्द अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की श्रेणी के अन्तगत हो जाते हैं । किन्तु यह स्थिति वैकल्पिक पवाली है; तदनुसार 'आण' आदेश को प्राप्ति के अभाव में 'अन' श्रमत वाले शब्दों की स्थिति सूत्र- संख्या ३-४६ से लगाकर ३-५५ तक के विधि-विधानानुसार निर्मित होती हुई 'राज' शब्द के समान संचारित होती है। इस विधि-विधान को 'आत्मन = अप्पा' के उदाहरण से नीचे स्पष्ट किया जा रहा है: [ १०३ प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरण: श्रात्मा = अप्पा और अप्पो । संबोधन के एकवचन का उदाहरण: - हे आत्मन हे अप्पा ! और हे अप्प ! प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का उदाहरणः - श्रात्मानः तिष्ठन्ति अप्पाणो चिट्ठन्ति इस उदाहरण में 'श्रात्मन अल' अंग में सूत्रसंख्या ३.५० के अनुसार प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का उदाहरणः - आत्मनः पश्य = अप्पाणो पेच्छ अर्थात अपने आपको (आत्मगुणों को) देखी । इस उदाहरण में भी 'श्रात्मन = अप' अंग में सूत्र- संख्या ३-५० के अनुसार ही द्वितीया के बहुवचन में 'खो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है । अन्य विभक्तियों में 'श्रात्मन = अप्प' के रूप इस प्रकार होते हैं:-- विभक्ति नाम एकवचन तृतीया --- ( श्रात्मना = ) अपर्णा । पंचमी - (आत्मनः = ) अप्पा, अप्पा. 918, cafe, carsgeät, scar i षष्ठी - (आत्मनः धनम् = ) अपणो धणं । सप्तमी - ( श्रात्मनि = ) अ + बहुवचन ( आत्मभिः =) अप्पेहि । (आत्मभ्यः) अप्पा सुन्तो हस्यादि । ( श्रात्मनाम् =) अप्पणं । ( श्रात्मसु =) अप्पे | उपरोक्त उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि अन् अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन' अवमत्र के स्थान पर 'आप' आदेश की प्राप्ति के प्रभाव में विभक्ति (बोध) कार्य की प्रवृत्ति सूत्रसंख्या ३-४६ से प्रारम्भ करके सूत्र संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र में 'राजवत्' शब्द का सूत्र रूप से उल्लेख करके प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार से 'राजन' शब्द भी पुल्लिंग होता हुआ 'अन्' अन्त वाला है; तदनुसार सूत्र संख्या ३-५६ के विधान से 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में बैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है और ऐसा होने पर 'राजन रायाण' रूप अकारान्त हो जाता है; तथा अकारान्त होने पर इसकी विभक्तिबोधक कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है। बैकल्पिक पक्ष होने से जब सूत्र- संख्या ३-५६ के अनुसार प्राप्तब्य 'अन्' के स्थान पर 'प्राण' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ] * प्राकृत व्याकरण .000000000000roverstorror000000xtorterrrrrrrrrontrastotrorren604 । आवेश-प्राप्ति का अभाव होगा; तब इसकी विभक्ति (बोधक) कार्य की प्रवृत्ति सत्र-संख्या ३.४६ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है। इस महत्व पूर्ण स्थिति को सदेव ध्यान में रखना चाहिये । अब राजन रायाण' रूप की विभक्ति-जोधक कार्य की प्रवृत्ति नीचे लिखी जाती है:विभक्ति नाम एकवचन बहुवचन प्रथमा-(राजा = ) रायाणो। (गजान:-) रायाणा । द्वितीया-(राजानम् - ) राया। (राज्ञः-) रायाणे । तृतीया-(गज्ञा = ) रायाशेण ! (राजभिः=) रायाणेहि । पंचमी-(राज्ञः=) रायाणाहिन्तो (रोजभ्यरायाणासुन्तो। ... इत्यादि इत्यादि । ) षष्ठी-(राझ) रायाणम्स । (राज्ञाम् =) रायाणाणे । सप्तमी-(राशि) रायाणम्मि। (राजसु-) रायाणेसु । शेष रूपों की स्थिति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार जानना चाहिये । वैकल्पिक पत्त होने से 'राजा-राया' आदि रूपों की स्थिति मूत्र-संख्या ३-४६ से प्रारम्भ करके सत्र-संख्या ३-५५ के अनुसार स्वयमेव जान लेना चाहिये । कुछ 'अन' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों का प्राकृतरूपान्तर सामान्य-अवधोधन हेतु नीचे लिखा जा रहा है: युवन - जुवाण; तदनुमार प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरण:---युवा-जुवाणो, इत्यादि । ममाम-अवस्था में विभक्ति (बोधक) प्रत्ययों का लोप हो जाता है; तदनुसार इसका उदाहरण इस प्रकार है:-युवा-जनः जुयाण-जणो । वैकल्पिक पक्ष होने से युवन' शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सत्र संख्या ३-४६ के विधान से 'जुआ रूप भी होता है। ब्रह्मन शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संत्र-संख्या ३-५६ और ३-४६ के विधान से कम से एवं वस्पिक रूप से (मामा) बम्हाणी अयत्रा बम्हा रूप होते हैं। संस्कृत शब्द 'श्रध्वन्', 'उक्षन', 'प्रावन्'. 'पूषन', 'तज्ञन', मूर्धन', और 'श्वन इत्यादि पुल्लिग होते हुए 'अन्' अन्त वाले हैं; तननुसार इन शब्दों के प्रथमा विभक्त के एकवचन में सत्र-संख्या ३.५६ और ३.४६ के विधान से कम से एवं वैकल्पिक रूप से दो दो रूप निम्न प्रकार से होते हैं:-- अध्वा = श्रद्धाणों और श्रद्धा । उक्षा = उच्छाणो और उच्छा । प्राया = गावाणो और गावा । पूषा - पूमाणो और पूमा । तक्षा तक्खाणो और तक्खा । मृर्धा = मुद्धाणो और मुद्धा । श्वा = साणों और सा ! शेष विभक्तियों के रूपों की स्थिति 'पारमा - अपाण के समान जान लेना चाहिये । इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि 'अन्' अन्त वाले पुष्ज्ञिग शब्दों के अन्तिम अवयव 'मन' के Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *पोइथ हिन्दी व्याख्या सहित * worrimestoriesmarrioritrakoorimrosorrowrimetestostosterometrin स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति होकर ये शब्द अकारान्त हो जाते हैं और इनकी विभक्ति (बोधक) कार्य को प्रवृत्ति जिण' अथवा 'वच्छ' अथवा 'अप्पाण' के अनुसार होती है। उपरोक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये दो उदाहरण और दिये जाते हैं:-- सुकर्मणः पश्य -- सुक्रम्माण पेच्छ अर्थात् अच्छे कार्यों को देखो । इस उदाहरण में 'सुफर्मन' शब्द 'अन' 'अन्त वाला है और इसके अन' अवयव के स्थान पर 'पाण' प्रादेश की प्राप्ति करके प्राकृत रूपान्तर 'सुकम्माण" रूप का निर्माण करके द्वितीया विभाक के बहुवचन में 'अच्छे' के समान सत्र संख्या ३-४ और ३-१५ के विधान से 'सुकम्माणे' रूप का निर्धारण किया गया है, जो कि स्पष्टता भकागन्त-स्थिति का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है: पश्यति कथं स सुकमणः = निएइ कह सो सकम्माणे अर्थात वह अच्छे कार्यों को किस प्रकार देखता है ? इस उदाहरण में भी प्रथम उदाहरण के समान ही 'सुकमन' शब्द की स्थिति को द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त शब्द की स्थिति के समान ही समझ लेना चाहिये। प्रश्न:--मूल सत्रों में सर्व प्रथम 'सुमि' अर्थात् 'पुल्लिग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तर:--'अन' अन्त वाले शब्द पुल्लिम भी होते हैं और नपुसकलिंग भी होते है। तदनुसार इम 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में केवल पुल्लिंग शब्दों में ही 'श्राएं भादेश प्राप्ति होती है; नपुंसकलिंग वाले शब्द चाहे 'अन,' अन्त वाले मलं हो हो; किन्तु जनमें 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण आदेश-प्राप्ति नहीं होती है; इस विशेष तात्पर्य को बताने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये हा मूल मूत्र में सर्व प्रश्रम 'सि' अर्थात् 'पुल्लिग मे' ऐसा शब्दोल्लेख करना पड़ा है। नएसक लिंगात्मक उदाहरण इस प्रकार है:-जैसे शर्मन. शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत रूप 'शर्म, का प्राकृत रूपान्तर सम्म' होता है । सदनुसार यह प्रतिभासित होता है कि संस्कृत रूप 'शम का प्राकृत-रूपान्तर 'सम्माणो' नहीं होता है । अतएव 'पुसि शब्द का उल्लेख करना सर्वथा न्यायोचित एवं प्रसंगोचित है। ___ आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें सत्र-संख्या-१-८४ से आदि 'आ' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ३.५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म्' के स्थान पर प' आदेश की प्राप्ति; २.८८ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति३-५६ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अत्रमय के स्थान पर-(जैकल्पिक रूप से)- आण' प्रादेश को मानि; यो 'पास्मन् के प्राकृत रूपान्तर में 'अप्पाण' अंग की प्राप्ति होकर तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृतीव प्राप्तव्य प्रस्थय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति झेकर 'अप्पापी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * narinosistectivenirvindainstreetootoorror+0000000000000000000000 आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें 'आत्मन् - अपाण' अग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'भागे प्रथमा-बहुवचन-बोधक प्रत्यय की स्थिति होने से' "श्रा' की प्राप्ति एवं ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर-अप्पाणा रूप सिद्ध हो जाता है । आत्मानमः संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकुन रूप अप्पाणं होता है। इसमें 'आत्मन् = अपाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचम में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम-म्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पाणे रूप सिद्ध हो जाता है। - आत्मनः संस्कृत द्वितोयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रापाणे होता है । इसमें 'धात्मन्-चप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'भागे द्वितीया-बहुवचन-प्रत्यय की स्थिति होने से 'ए' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर अप्याणे रूप सिब हो जाता है। आत्ममा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप-अप्पाण्ण होता है । इसमें 'मात्मन=अप्पाण' अंग की प्राप्ति-उपरोक्त विधि अनुसार, तत्पश्चात मूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'आगे तृतीया-एक-वचन-बोधक प्राय का मदभाव होने से' 'प' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में ''प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्याणणरूप सिद्ध हो जाता है। भास्मभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप-अप्पाणेहि होता है। इसमें 'आत्मन = श्रापाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का समाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विमक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिम' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्माणहि रूप सिद्ध हो जाता है। ___आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणारी होता है। इसमें 'प्रात्मक-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३.१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे पंचमी-एकवचन-बोधक प्रत्यय का सदुभाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीच प्रत्यय 'सि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पामाओ रूप सिद्ध हो जाता है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११३ ] आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणासुन्तो होता है । इसमें 'आत्मन्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१३ से प्राप्तांग 'अयाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'श्रागे पंचमी बहुवचन-बोषक-प्रत्यय का सदुभाव होने से ' 'आ' की प्राप्ति और ३.६ से पचमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय ध्य' के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अव्वाणासुन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। · ++++++++++++** * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *********D आत्मनः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अध्यास होता हैं। इसमें 'आत्मन' = श्रध्वाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१० से पी विभक्त के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'उस' के स्थान पर भात ने संयुक्त 'ए' की प्राप्तिकर अप्याणस्स कप सिद्ध हो जाता है । મ आत्मनाम्, संस्कृत षष्ठयन्त बहुवचनरूप है। इसका प्राकृत रूप धप्पाणाय होता है। इसमें 'आत्मन् अप्पण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१२ से मातंग' अध्यान' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे षष्ठी विभक्ति-बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्रकाशन्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाण रूप सिद्ध हो जाता है। आत्माने संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पासम्म होता है। इसमें 'आत्मम= अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्रत्यय 'कि' के स्थान पर प्राकृत में संयुन्नत 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अध्याणम्मि रूप सिद्ध हो जाता है । आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अध्यास होता है। इसमें 'श्रस्मिन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पा' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे सप्तमी विभक्ति के बहुत्रचन बोधक प्रत्यय का सदुभाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ४-४४५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रय प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेषु रूप सिद्ध हो जाता है । आत्म-कृतम् संस्कृत-(आत्मना कृतम् का समाम अवस्था प्राप्त) विशेषणात्मक रूप हैं। इसका प्राकृत रूप प्राण कथं होता है। इससे 'अप्पा' अवयव रूप अंग को प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार और 'कथं' रूप उत्तरार्ध श्रवयव की साधनिका का सूत्र संख्या १-९२६ के अनुसार प्राप्त होकर अपाण कय रूप सिद्ध हो जाता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * ++600.worko+640404&00000000000000000000000000000***404660460007460064 आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप अप्पा और श्रप्पो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'अप्या' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है । द्वितीय रूप-अपो' में सूत्र संख्या १.११ से मूल संस्कृत शब्द 'श्रात्मन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप, ३.५१ से 'स्म' अवयव के स्थान पर q' की श्रादेश-प्राप्ति २.८६. से श्रादेश-प्राप्त 'प' को द्विस्त 'प' को प्राप्ति और ३.२ से प्रधमा विभक्ति के रकवचन में (पाप रूप-) अकारान्त पुल्लिग में संस्कृतीय प्राप्तव्य "से' के स्थान पर प्राकृत में 'डो - प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्विनीय रूप अप्पो मि हो जाता है। हे आत्मन दाल संगोपना नाक काप है। गले प्राकृन कप हे अरपा ! और हे अप्प! होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १.६४ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति ३-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर '' की प्रादेश को गतिः ५-८६ से आदेश प्राप्त को द्वित्व '' की प्रापि; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-४६ से (तथा ३-५६ के निर्देश से)-संबोधन के एकवचन में संस्कृतीच प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ह अप्पा ! सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-हे अप्प ! की सिद्धि सूत्र संख्या ३-४९ में की गई है। आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन फा रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणो दोता है। इस में 'आत्मन-अप' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के .'श्रागे प्रथमा बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'श्री' को प्राप्ति और ३-५० से (तथा ३-५६ निर्देश से.) प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ाप्तीग प्रारमन से अप्पा' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'or' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्याणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'चिन्ति' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.70 में की गई है। आत्मनः संस्कृन द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पाणों होता है। इसमें 'अप्पा' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तापश्चात् सूत्र-संख्या ३-५० से (तथा ३-४६ के निर्देश से) द्वितीया विभक्ति के बहुश्चन में प्राप्तांग 'अप्पा' में संस्कृतीय प्रत्यय 'शम' के स्थान पर प्राकृत में 'ग' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्याणी रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' कियापा की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है। आत्ममा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पणा होता है। इसमें 'प्रात्मनप्प अंग को प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से (तथा ३.५६ के निर्देश से) तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा- श्रा' के स्थान पर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है। आलाभ. संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप अपेहि होता है। इसमें 'आत्मन् = अप्प' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-३५ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' फे 'पागे तृतीया-बहुवचन-(बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की र ३७ सीमा लिने बहुमत में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में हिं प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमेहि रूप सिम हो जाता है। आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप अप्पाणो, अप्पारो, अप्पाउ, अप्पाहि अप्पहिन्तो और अप्पा होते हैं। इनमें 'अप्प' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार सत्पश्चात् सुत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे पंचमी-एफवरन(योधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति; और ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से}. प्राप्तांग 'अप्पा' के प्रथम रूप में परमी विभक्ति के एकचन में संस्कृतीय प्रत्यय हसि-प्रस' के स्थान पर प्राकृत में 'यो' प्रत्यय की वैकनिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पाणो सिव हो जाता है। शेष पाँच रूपों में प्राप्तांय 'अप्पा' में सूत्र संख्या ३-- से पंचमी विभक्ति के एकवचन में मंस्कृतीय प्रत्यय 'सिम्प्रस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से दो-प्रो, दु-उ, कि, हिन्तो और (प्रत्यय-) लुक' प्रत्यवों की की प्राप्ति होकर क्रम से शेष पाँच हप-'अप्पाओ, अप्पाउ, अव्याह अप्याहिन्तो और अप्पा सिद्ध हो जाते हैं । आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पा-सुन्तो होता है। इसमें 'प्रात्मन्स अप' अंग की प्राप्ति उपरोक विधि-अनुमार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१३ से प्राप्तांग के 'अप्प में स्थित अन्त्य ' के आगे पंवमी-बहुवचन-(बोधक प्रत्यय) का मभाव होने से 'श्रा' को प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'अषा' में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पासुन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। भात्मनः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्परमा होता है। इनमें 'आत्मन-अप' अंग की प्राप्ति उपरोक विधि-अनुभार; तत्पश्चाम सूत्र संख्या ३.५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कम् = अस्' के स्थान पर प्रान्त में गो' प्रत्यय की माप्ति होकर अपणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'm' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। आत्ममास संस्कृत्त पटवन्त बहुषचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणं होता है। इसमें 'प्रास्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१२ से प्राप्तांग Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११६ ] * प्राकृत व्याकरणा *********6$44006646666556004 ***♠♠♠♠*००** 'अ' में स्थित अन्त्य '' के 'आगे षष्ठी बहुवचन- बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३ : से प्राप्तांग 'अप्पा' में पष्ठी विभक्त के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पार्थ रूप सिद्ध हो जाता है। *** आत्मनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पे होता है। इसमें 'आत्मन्=अप्प' अंग की प्राप्ति-उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'अप' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'डि=ड' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति; 'डे' में स्थित 'ङ' इत्संज्ञक होने से प्राप्तोग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' की संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त 'थप' में पूर्वोक्त 'हे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अय्यरूप सिद्ध हो जाता है । आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पे होता है। इसमें 'आत्मन् श्रप' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात सूत्र- संख्या ३-१४ से प्राप्लोग 'अप' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे सप्ती बहुवचन (घोचक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से' '' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में मो 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पेमु रूप सिद्ध हो जाता है । राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजत्' में स्थित 'ज्' व्यजन का लोप; १-१०० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः ३-५६ से प्राप्त रूप 'रायन' में स्थित अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग अकारान्त रूप 'रायाण' में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणी रूप सिद्ध हो जाता है । राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूपरायाण होता है। इसमें 'रायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्यात् सूत्र- संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा-बहुवचन-बोचक प्रत्यय का सदुभाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में सत्कृताय प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर रायाणा रूप सिद्ध हो जाता है। राजानम्, संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणं होता है। इसमें 'रोजन् = रायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधिअनुसार तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-५ से प्राप्तांगरायण में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तत्र्य प्रत्यय 'श्रम=म्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रायाणं रूप सिद्ध हो जाता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११७ ] Protesto00000wwserservorroresrorstoorstertorrorsroomroserodroinon राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त वहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप रायाणे होता है। इसमें 'राजन रायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुपार; तत्पश्चात् सत्र संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे द्वितीया-ब वचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए की प्राप्ति और ३.५ से द्विनोया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय ‘शस' का प्राकृत में लोप होकर रायाणे रूप सिद्ध हो जाता है । राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप रायाणेण होता है। इसमें 'राजनरायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुमार; तत्पश्चात् सत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'पागे तृतीया-एकवचन-(बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'ए' की प्रान्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में मस्कतीय प्रत्यय 'टा-श्रा' के स्थान पर प्राक़त में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणेण रूप सिद्ध हो जाता है।। राजाभिः संस्कृत तृतीयान्त बटुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप गयाणेहिं होता है। इसमें 'राजन = पायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त-विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'श्रागे तृतीया-बहुवचन-(बोधक-प्रत्यय) का सद्भाष होने से' '' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिप्स' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणहिं रूप सिद्ध हो जाता है। राक्ष: संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप-रायाणाहिन्तो होता है । इसमें 'राजनरायाण' अंग की प्रामि उपरोक्त विधि-अनुमार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राग 'रायाण' में स्थित अन्य 'अ' के आगे पंची एकवचन-(बोधक प्रत्यय) का मद्भाव होने से' 'या' की प्राप्ति और ३-६ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'डसि-अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्ता' प्रत्यय का प्राप्ति होकर रायाणाहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। . राज्ञः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप-रायागास होता है। इसमें 'राजम्याण' अंग की प्राप्ति-उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३.१० से षष्ठी-विभक्ति के प्रवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस्-अम्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणा रूप सिद्ध हो जाता है। राक्षाम् मंस्कृन षष्ठयन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणाणं होता है। इसमें 'राजनरायाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग याण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी- बहुवचन-(बोधक प्रत्यय) का सदुभाव होने से' 'या' की प्राप्ति ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रायाणाणं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११८ ] * प्राकृत व्याकरण * 149+++ +$$$$$******* $$$$ $$$$$$$$ $$*$$$$$$$$$$ $$ $$$444 राज्ञि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप रायाणम्मि होता है । इममें 'रायाण' अंग की प्राप्ति पोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के गफवचन में संस्कृतीय प्रत्यय कि- इ के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणाम्म रूप सिद्ध हो जाता है। राजसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणेसु होता है। इसमें 'गजनरायाण अंग की प्राप्ति नपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'प्र के आगे सप्तमी-बहुवचन-(बोधक-प्रत्यय) का भद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४.४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृती य प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के समान हो प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणेसु रूप सिद्ध हो जाता है। 'राया' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४९ में की गई है। युवा संस्कृत रूप है । इसकें प्राकृत रूप जुवाणी और जुआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्तिः ३.७६ से मूल संस्कृत शब्द 'युधन' में स्थित अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' श्रादेश को प्राप्ति; और और ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त अकारान्त अंग जुवाण' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जुषाणों सिद्ध हो आता है। द्वितीय रूप-(युवन ) जुगा में सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-२४४ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप और और ३-४५ से (तथा ३-५६ के निर्दश से प्राप्तांग अकारान्त 'जुब' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का सद्भाव होने से प्राकृत में अन्त्य 'अ' को 'श्रा की प्राप्ति; एवं १-११ से प्राप्त वक्त प्रत्यय 'मिस' का लोप होकर प्रथमान्त एकवचन रूप जुआ सिद्ध हो जाता है । युषा-जनः संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप जुवाण-जणो होता है। इममें 'जुवाण' रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या १२८ से अन्त्य 'न' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिय में संस्कृतीय प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो = श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुषाण अणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'बहमा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत कप बम्हाणो और धम्हा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-४६. से मूल संस्कृत शब्द 'प्रझन में स्थित 'र' का लोप; २-४४ से 'झ' के स्थान पर रह' की प्राप्ति; 4.५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३.२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'बम्हाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित ११६ ] wwersosorrorestsootroseross.orosottonoronstrwarettotketreesonotorior प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'हो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बम्हाणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-'चहा' की सिद्धि सूत्र-संख्या २.७४ में की गई है। अध्वा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रद्धा और श्रद्धा होते है। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या २-७६ से मूल संस्कृत शब्द "अश्वन' में स्थित '' का लोप, २.८६. से लोप हुए 'व्' के पश्चात शेष रहे. हुए 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त हुए पूर्व 'ध' के स्थान पर 'द्' को प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर. 'श्राण' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप अद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में ' होली' लय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अचाणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(अध्वन-अभ्वा- प्रद्धा में सूत्र-पंख्या २.७६ से 'व' का लोप, २-८८ से लोप हुए 'धू' के पश्चात शेष रहे हुए 'ध' को द्विश्व 'धध' की प्राप्ति २०६० से प्राप्त पूर्व 'धू के स्थान पर 'द' की प्राप्ति: १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-४६ से (तथा ३.५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'श्रद्ध' में स्थित अन्त्य '' के 'आगे प्रथमा-एकवचन बोधक प्रत्यय का सभाष होने से' 'या' की प्राप्ति और १-१५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार प्रत्यय 'सिम्स' का प्राकृत में लोप हो कर द्वितीय रूप अद्धा भी सिद्ध हो जाता है। उक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचत का रूप है । इसके प्राकृत रूप उच्छाणो और उबला होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३ के अनुसार अथवा ३-१७ से मूल संस्कृत शब्द 'अक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति २.६० से प्रारत पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च्' को प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'उच्छाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृन में 'डो-ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप उजाणी सिद्ध हो जाता है। उच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १७ में की गई है। यावा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गात्राणो और गावा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या २-७८ से मूल संस्कृत शब्द 'प्रावन' में स्थित 'र' का लोप; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' श्रादेश प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप गावाण में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम-रूप गावाणो सिर हो जाता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरणा* +++on+++0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000rnor. द्वितीय रूप प्रावन् = ) गावा में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३.४६ से (तथा ३.५६ के निर्देश से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'गाय' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'मागे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृतीय प्रत्यय fस =प्स' का प्राकृत में लोप हाकर द्वितीय रूप गाया मा सिद्ध हो जाता है। पूषा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकुन रूप पूमाणो और पूसा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या १.२६० से मूल संस्कृत शब्द 'पूपन' में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश को प्राप्ति और ३.२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप- पूसाण' में प्रथमा विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप यूसाणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (पूषन = ) पूसो में सत्र-संख्या १२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-४४ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'पूस' में स्थित अन्त्य '' के 'पागे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'श्रा' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४५८ के अनुसार संस्कृतीय प्रत्यय ' सिस्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप यूसा भी सिद्ध हो जाता है। तक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप तववाणी और लक्खा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या २.३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-.६ से प्राप्त 'न' को द्वित्व 'वस्त्र' की प्राप्ति; ६० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३.२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्खाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तक्खाणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(तक्षन = तक्षा%) तक्खा में सत्र संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति: २-२६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २.१८ से प्राप्त पूर्व ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्सि; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यसन 'न्' का लोप; ३-४६ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तपख' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १.१५ से प्रथमा विभक्ति के एकषचन में ४.४४ के अनुसार संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिम्स' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप तक्खा भी सिब हो जाता है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२१] •orroriawwwesomeonomerometrosorrrrrrrrrrrrowwwserswers rutton मूर्श संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप-मुद्धाणो और मुद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या १.८४ से मूल संस्कृत शब्द 'मूर्धन' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्य स्वर 'उ' को प्राप्ति; २-७ से 'र' का लोप: २-८से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए ध' को द्विस्व धधु' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'ध' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति उपरोक्त; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'मुद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त व्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो - ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुखाणो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप 'मुद्धा' की सिद्धि सूत्र संख्या २-४१ में की गई है। 'साणी' और 'सा' रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या १-५२ में की गई है। सुकर्मणः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप सुकम्माणे होता है । इममें सूत्र संख्या २-७१ से मूल संस्कृत शम्न 'सुकर्मन्' में स्थित 'र' का लोप; -से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'सुझम्माण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'श्रागे द्वितीया बहुवचन बोध रु.प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के पहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'शस' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृतीय द्वितीयान्त बहुवचन का रूप सुकम्माणे सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-73 में की गई है। पश्यति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसको (आदेश-प्राप्त) प्राकृत रूप निएइ होता है। इसमें मत्र-संख्या ४-१८१ से संस्कृतीय मूल धातु 'शू-पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'निन' रूप की.श्रादेश-प्राप्ति; ३-१५० से प्राप्त प्राकतीय धातु 'निश्र' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'श्रागे वर्तमान काल प्रथम पुरूष के एकवचनीय प्रत्यय का सदभात्र होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३.१३६ से 'ति' के स्थान पर प्राकृत में इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निएइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'कह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'सो' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। 'सुकम्माणे' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में-(३.4% में) ऊपर की गई है । 'सम्म रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-३२ में की गई है । ३-५६ ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२२ ] *प्राकृत व्याकरण ++00000000000000+claimro0000000000.we.....0000046rrordotc00000000000000 आत्मनष्टो णिमा गइया ॥ ३-५७ ।। आत्मनः परस्याष्टायाः स्थाने मिश्रा णइबा इत्यादेशौं वा भवतः । अप्पणिया पाउसे उवगयम्मि । अपणिश्रा य विआड्डे खाणिया । अप्पणुइया । पक्ष । अप्पाणेण ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'प्रात्मम्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवधान में संस्कृत्तीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टाया' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से "णि प्रा' और 'पइया' प्रत्ययों को (श्रादेश) प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-आत्मना प्राषि उपगतायाम-अप्परिणश्रा पाउसे उवायम्मिअर्थात वर्षा ऋतु के व्यतीन हो जाने पर अपने द्वारा । इस उदाहरण में तृतीया के एकवचन में 'आत्मन्' शब्द में 'दा' के स्थान पर 'णि प्रा' प्रत्यय की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:--प्रात्मना च वितर्दिः खानिता अर्थात् वेदिका अपनेद्वारा खुदवाई गई है। इस उदाहरण में भी तृतीया के एकया में 'मापन शक में पाय के या पर 'मिश्रा' प्रत्यय की संयोजना की गई है । 'णइया' प्रत्यय का उदाहरण:--प्रात्मना-अप्पणइयो अर्थात् आत्मा से । वैकल्पिक पक्ष होने से प्रात्मा अप्पाणण' रूप भी बनता है । यो 'प्रात्मता के तीन रूप इस सत्र में बतलाये गये हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:-अप्पणिया, अप्पणहा और , अप्पाणेण अर्थात् श्रास्मा के द्वारा अथवा पारमा से; इत्यादि। 'अप्पणिआ रूप की सिद्धि मत्र संख्या ३.१४ में की गई है। प्रादपि संस्कृत साम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पास होता है । इसमें मन्त्र संख्या १.३१ से मूल संस्कृत शब्द 'प्राद' के स्त्रीनिंगत्व से प्राकृन में 'पुस्जिगत्व' का निर्धारण २.७६ से 'र' का लोप; १-१७६ से 'व' का लोप; ११३१ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति: १-१६ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट् अथवा ' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति ३.६१ में प्राप्तांग 'पास' में सनी विभक्ति के कवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बि-इ' के स्थान पर हैं प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में इ' तसंज्ञक होने से 'पास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्मज्ञा होकर लोप; तत्पश्चात प्राप्तांग हलन्त 'पास' में पूर्वोक्त ।' प्रत्यय की संयोजना होकर पाउसे रूप सिद्ध हो जाता है। उपमसायाम् संस्कृत सप्तम्यन्त स्त्रीलिंगात्मक एकवचन का कार है। इसका प्राकृत रूप(प्रावट के प्राकृत में पुल्लिग हो जाने के कारण से एवं प्रावट के साथ इसका विशेषणात्मक संबंध होने के कारण से) उत्रगयम्मि होता है । इसमें सूद-संख्या १.२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति १-९७७ से 'त' का लोपः ३-१८० से लोप हुर. 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय वि-ई' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उक्मम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [ १२३ ] Roorkers 00000NRNMDM अप्पणिआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'य' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१८४ में की गई है। 'विअहिड' (अथवा प्रथमान्त एकवचन रूप विडी) को सिद्धि सूत्र-संख्या-१६ में की गई है। रवानिता संस्कृत विशेषणात्मक रूप। इस कृत २ लामिका होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२५८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-१७७ से 'तू' का लोप होकर खाणि रूप सिद्ध हो जाता है। 'अप्पणइमा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'अप्पाणण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५६ में की गई है। ३-५७ ॥ ___ अतः सर्वादे . जसः ॥ ३-५८ ॥सर्वादेरदन्तात् परस्य जसः डित् ए इत्यादेशो भवति ॥ सव्वे । अन्ने । जे । ते । के । एक्के । कपरे । इयरे । एए । अत इति किम् । सम्बाश्री रिद्धीओ ॥ जस इति किम् सव्यस्स ।। अर्थ:- (सर्वसम्व) श्रादि अकारान्त मर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृताय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर 'डे' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'इ' इत्संज्ञक है; तदनुसार अकारान्त सर्वनामों के अंग रूप में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर को इसंझा होकर उक्त अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात प्राप्तांग हलन्त रूप में उक्त प्रथमा बहुवचन (बोधक) प्रत्यय 'ए' को संयोजना होती है । उदाहरण इस प्रकार हैं:-सर्वसम्वं । अन्ये = अन्ने । ये = जे । तेन्त । के - कं ! एक-एकके । कतरे कयरे । इतरे-इअर और ऐत=५९; इत्यादि। मदन;-मूल सूत्र में 'अकारान्त' ऐसा विशेषण क्यों दिया गया है ? उत्तर:--सर्वनाम 'अकारान्त होते हैं एवं प्राकारान्त मा होते हैं; तदनुसार प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य 'जस' प्रत्यय के स्थान पर 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती हैं; श्राकारान्त सर्वनामों में नहीं; इस विधि-विधान को ध्यक्त करने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये ही 'अकारान्त' ऐमा विशेषण मूल सूत्र में संयोजित किया गया है । जैसेः सर्वाः अद्धयः-सम्वानो रिद्धीश्रीः इस उदाहरण में प्रयुक्त मन्त्रा' सर्वनाम अकाराम्त नहीं होकर श्राकारान्त है; तदनुसार इसमें अधिकृत सूत्र-संख्या ३-५८ के विधान से प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'टे =ए' प्रत्यय की संबोजना नहीं होती है । 'जस' के स्थान पर ढेए प्रत्यय की संयोजना केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती है; अन्य में नहीं; इस सिद्धान्त को प्रकट करने के लिये ही मूल सूत्र में 'अकारान्त' विशेषण का प्रयोग करना पड़ा है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण प्रम:-'जस' ऐसा प्रत्ययात्मक उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है ? उत्तरः-अकारान्त सर्वनामों में केवल प्रथमा विभक्ति के बहु ववन में ही संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर हो प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की संयोजना होती है; अन्य किसी भी प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय को संयोजना नहीं होती है; इस विशेषता पूर्ण तात्पर्य को समझाने के लिये हो मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना पड़ा है । जैसे:--सर्वस्य-सन्वस्स । इस उदाहरण में षष्ठी-विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस अस' के स्थान पर प्राकृत में (सत्र संख्या ३-१० के अनुसार 'स' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है और 'जस' प्रत्यय का अभाव है। तदनुसार 'जस्' प्रत्यय की अभाव-स्थिति होने से तद्-स्थानीय 'डे = ऐ' आदेश-प्राप्त प्रत्यय का भी श्रमाव है । यो यह सिद्धान्तात्मक निष्कर्ष निकलता है कि केवल 'जस' प्रत्यय के स्थान पर ही प्राकट में 'डे - ए' प्रत्यय की प्रादेश प्राप्ति होती है। अन्यत्र नहीं । ऐसी भावनात्मक स्थिति को प्रकट करने के लिये ही मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना प्रन्थकत्ता ने आवश्यक समझा है जो कि यूक्ति-संगत है एवं न्यायोचित है। सर्वे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्न सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत-रूप सव्वे होता है। इसमें सूत्र संख्या-२.५ से 'र' का लोप; २.से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'व' को द्वित्व 'श्व की प्राप्ति और ३-१८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में ' = ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सत्ये रूप सिद्ध हो जाता है। अन्ये संस्कृत प्रश्रमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्ने होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् रह हुए 'न' को विश्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्ने रूप सिद्ध हो जाता है। 'जे' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २२१७ में की गई है। 'ते' रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-२६९ में की गई है। 'के संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृन रूप 'के होता है । इसमें सत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' स्लप की प्राप्ति और ३.५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में -ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है। 'एके' संस्कृत प्रथमा बहुवचनाम्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रुप एक्के होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-4 से 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और ३.५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में -ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एके' रूप प्ति हो जाता है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित かやるのがややかかなかなかいなかわからないのかゆかやかやかやかやかやかやかやかやで कतरे संस्कृत प्रश्रमा बटुवचनान्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप कयरे होता है। इसमें सत्र संख्या १.१७७ से 'त' का लोपः १-१८० से लोप हुए त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और ३ ५८ से प्राप्तांग 'कयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकत में 'हे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयरे रूप सिद्ध हो जाता है । इतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप इयरे होता है। इसमें सत्र-संख्या १.२७७ से '' का लोप; १-१० से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर - 'य' को प्राप्ति और ३.५८ से प्राप्तांग 'इयर' में पथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय जस् के स्थान पर प्राकृत में 'डे-' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जयरे रूप सिद्ध हो जाता है। 'एए' रूप की सिद्धि सत्र संख्या ४ में की गई है। सर्वाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त त्रीलिंगात्मक सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप मन्त्राओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से मूल मस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे छुए 'व' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति; ३-३२ से और ४-४५८ के निर्देश से पुल्लिगस्व से स्त्रीलिंगत्व, के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'सव' में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में सस्कृतीय प्रत्यय जप्त' के स्थान पर प्राकृल में 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सम्मान रूप सिद्ध हो जाता है । अयः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धीयो होता है सरें सत्र-संख्या १-१४ से मूल संस्कृत शब्द 'ऋद्धि' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संकृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दाघ र 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिजीओ रूप सिद्ध हो जाता है । - सर्वस्य संस्कृत षष्ठी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप सबस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात् बहे हुए 'अ' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति और ३-१० से पक्ष विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'रुस - अस्' के स्थान पा प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सवरस रूप सिद्ध हो जाता है । ३.२८ ।। : स्ति-म्मि-स्थाः ॥ ३-५६ सदिरकारात् परस्य : स्थाने रिंस म्मि स्थ एते मादेशा भवन्ति ।। सञ्चस्मि । सबम्मि । सव्वस्थ ॥ अनस्सि । अनम्मि । अभस्थ ॥ एवं सर्वत्र ।। अत इत्येव । अमुम्मि ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • [१२६ *प्राकृत व्याकरण w+torsmootosroorstetronorartootocortiorrorrorontroloreroortoon अर्थ:-सर्व (= सन्च) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रुपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'डि ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से)-'सि'-म्मिस्थ ये आदेश प्राप्त रूप प्रत्यय प्राप्त होते हैं। जैसे:-सर्वस्मिनसध्यस्सि अथवा सम्बम्मि अथवा सव्यत्य । अन्यस्मिन् - अनस्सि-अथवा अन्मम्मि अथवा अन्नस्थ । इसी प्रकार से अन्त्य अकारान्त सर्वनामों के संबंध में भी जानकारी कर लेना चाहिये । प्रथमः -'अकारान्त' सर्वनामों में ही कि= इ' के स्थान पर 'सि-म्मि-स्य' आदेश-प्राप्ति दुधा करती है, ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:-अकारान्त सर्वेनामों के अतिरिक्त उकारान्त आदि अवस्था प्राप्त सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि इ' के स्थान पर 'सि-म्मि-स्थ' श्रादेश प्राप्त-प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है। किन्तु केवल "छि - इ' के स्थान पर मिम' प्रत्यय को ही आदेशप्राप्ति होती है; इस विधि-विधान को प्रकट करने के लिये ही 'अकारान्त सर्वनाम' ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-अमुष्मिन् ८ अमुम्मि; इत्यादि । सर्वस्मिन् संस्कृत सप्तमी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप-'सम्यसि सम्वम्मि और सम्वत्थ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २.७५ से 'र' का लोप; २८ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति और ३.५९ से प्राप्तांग 'सच' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'विइ' के स्थान पर कर सं (पवं वैकल्पिक रूप से.) भिम्मि-त्थ' प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति होकर क्रम से तीन रूप-सम्मास्ति, सयाम्म और सपथ सिद्ध हो जाते है। अन्यस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त मर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप-अन्नस्सि, अन्नम्मि और अन्नस्थ होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या २-३८ से 'य' का लोप; २-48 से लोप हुए 'य' के पाचात शेष रहे हुए 'न' को द्विस्य 'न्न" की प्रापि और ३.१ से प्राप्तांग 'मन्न' में सममी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय कि- के स्थान पर क्रम से-(एवं वैकल्पिक रूप से.) FAमि-स्थ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर क्रम से सीनों ग्रुप. अन्नस्ति, अन्नामि और अन्नस्थ सिद्ध हो जाते हैं। ___ अमाम संस्कृत सप्तमी एकवचनान्स सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रुप अमुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अद्स' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स' का लोप; ३-८८ से 'द' के स्थान पर 'गु' आदेश की प्राप्ति और ३.११ से प्राप्तांग 'अमु' में सप्तमी विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय कि- के स्थान पर प्राकृत में 'मिस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमाम्म रूप सिद्ध हो जाता है। ३.५६ 11 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२७ ] movesponsideretoooooooooornsroornktotoonsornmooorworrenterter0. न बानिदमेतदो हिं ॥ ३-६० ।इदम् एतद्वर्जितात्स दरदन्तात्परस्य है। हिमादेशो वा क्षति !! सव्वहिं । अन्नहिं । कहिं । जहि । तहिं | पहुलाधिकारात् किंयत्तद्भ्यः स्त्रियामपि । काहिं । जाहिं । ताहिं 11 राहुलकादेव किंवत्तदोस्यमामि (३-३३) इति की स्ति ॥ पचे। सन्यास्सि । सवम्मि । सन्चत्य | इत्यादि ॥ स्त्रियां तु यचे । काए । कीए । आए । जीए । साए । तीए ।। इदमेतद्वर्जनं किम् । इमस्सि । एअसि ।। ___ अर्थ:--इदम् हम और एतत् = एन सर्वनामों के अतिरिक्त अन्य सर्व-सव्व धादि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृततीय प्रत्यय 'बि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'हि' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-सवस्मिन् सम्वहिं । अन्यस्मिन् धन्नहिं । कस्मिन् कहिं । यस्मिन-महिं और सस्मिन्=तहिं । 'बहुलम् सूत्र के अधिकार से 'किम्' 'यत' और 'तम्' सर्षनामों के स्त्रीलिंग रूपों में भी सप्तमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'डिन्द' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-कायाम् काहिं; यस्याम् जाहिं और तस्याम् ताहि । 'बटुलम्' सूत्र के अधिकार से हो किम्', 'यात' और 'तत' मर्वनामों के स्त्रीलिंगत्व के निर्माण में सूत्र-संख्या ३-३३ के विधान से प्राप्तव्य स्त्रीलिंग बोधक प्रत्यय "काई' की प्राप्ति उपरोक्त 'काहि-जाहि-ताहि' 'नदाहरणों में नहीं हुई है। अर्थात प्राप्तब्य रूप की, जी, नी, के स्थान पर 'का. जा, ता 'रूपों की प्राप्ति 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से जानना; ऐसा तात्पर्य अंथ कर्ता का है। उपरोक्त सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति बकल्पिक रूप से बतनाई गई है; तदनुमार जहाँ पर 'हि' प्रत्यक्ष की प्राप्ति नहीं होगी वहां पर सूत्र-संख्या ३-१९ के विशनानुसार 'मि-म्मि-स्थ' प्रत्यय की प्राप्ति होगी । जैसे:-सर्वसिमम् = सम्वस्सि, मम्मि और सम्बत्य; यो अन्य उदाहरणों की भी कल्पना कर खना चाहिये । स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों में भी जहां सप्तमी विभक्ति के एकवचन में हि' प्रत्या की वैकल्पिक पक्ष होने से प्राप्त नहीं होगी; वहां पर सूत्र-संख्या 3-के अनुमार 'अ, (प्रा), इ और 'ए' प्रत्यगे की प्राप्ति होती है । जैसे:-कस्याम-काए अथवा कीए; यत्याम-जाए अथवा जीण और नस्याम्=ताए अथवा सीए इत्यादि । प्रश्नः--इएम् - इम और पतत एव सर्वनामों को 'अकारान्त होने पर भी' उपरोक्स हिं' प्रत्वम के विधान से पृथक क्यों रखा गया है ? उत्तर:- कि प्राफत-भाषा के परम्परात्मक प्रवाह में उपरोक्त 'इम' और 'ग' सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि के स्थान पर 'हि' (आदेश) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H प्राकृत व्याकरण i nmeth000000000000000rnerkravarteoroork000 प्राप्ति का अभाव दृष्टि-गोचर होता है। अतएव प्रभावात्मक स्थिति में 'हि' प्रत्यय का निषेध किया जाना न्यायोचित और व्याकरणीय-विधान के अनुकूल ही है । जैसे-अस्मिन = इमरिंस और एतस्मिन - एअस्ति इत्यादि । यों सप्तमी विभक्ति के एकवचन में सवनामों में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की स्थिति को समझ लेना चाहिये। सर्वस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सयहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से 'र' का लोप; २-4 से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'व' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और ३-६० से सप्तमी विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'fe=' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सवाह रूप सिद्ध हो जाता है। __अन्यस्मिम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप अन्नहि होता है । इसमें सुत्र संख्या २-से 'य' का लोप; होकर २-८६ से लोप हुए य' के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३.६० से प्राप्तांग 'बन्न' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय कि-द' के स्थान पर प्राकृत में हं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्न िरूप सिद्ध हो जाता है। फस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप कहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' अंग को प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'क' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रतिव्य प्रत्यय शि' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कह रूप सिद्ध हो जाता है। रस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप जहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यत्' में स्थित 'यक स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यान 'त' का लोप और ३.६० से प्राप्तांग 'ज' में सप्तमी विभक्ति के एकवधान में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर जहिं रूप सिन हो जाता है। तस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत-रूप सहि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द्ध तत' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-६. से प्राप्तांग 'त' में सप्तमी विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय मिन्ह' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तर्हि रूप सिद्ध हो जाता है। कस्पाम संस्कृत सप्तमी एकवचनाम्त सर्वनाम का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप काहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३.३१ एवं २-४ से प्राप्तांग 'क' में स्त्रीलिंग-प्रबोधक श्रा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.६० से प्राप्तांग 'का' Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित . [१२६] +0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय इिके स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहि रुप सिद्ध हो जाता है । यस्याम संस्कृत सप्तमी एव वनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप जाहिं होता है । इसमें सत्र संख्या १०.४. से मूल संस्कृत शब्द 'यत' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति, १.११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप; ३०३९ एवं २-४ से प्रातांग 'ज' में स्त्रीलिंग-प्रमोधक 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'जा' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय fr=' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाहिं रूप सिद्ध हो जाता है। सस्याम संस्कृत सममी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप ताहिं होता है । इसमें सत्र संख्या १-११ से मून संस्कृत शब्द 'तत' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप; ३-३१ एवं २-४ से प्रामांग 'त' में स्त्रीनिंग-प्रबोधक 'ओ' प्रत्यय का प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'ता' में सप्तमी विभक्ति के एरुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय ई के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय को प्रामि होकर ताहि रूप सिद्ध हो जाता है। 'सपरिस' रूप की सिद्धि सत्र-संख्या ३.५९ में की गई है। 'सबम्मि' रूप की सिद्धि सूत्र-संखमा ३-५९ में की गई है। 'सम्वत्थ' रूप की सिद्धि सत्र-संख्या ३-५९ में की गई है। फस्याम् संस्कृत सममी एरुवचनाम्त सर्वनाम श्रीलिंग का रूप है। इसके प्राकृत रुप काट और कीर होत हैं। इनमें उपरोक्त विधि अनुमार प्राप्तांग 'का' में पत्र संख्या ३.३१ से और ३-३२ से स्त्रीजिंग-प्रबोधक 'या' प्रयय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डी = ई प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से कम से प्राप्तांग 'का' और 'की' में सप्तमी किभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय ' ईके स्थान पर प्राकून में 'ए' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप काए और कीए सिद्ध हो जाते हैं। यस्थाम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्न सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है । इसका याकत रूप जाए और जीए होते हैं। इनमें अपरोक्त विधि अनुसार प्राप्तांग 'जा' में सब-संख्या ३.३१ से एवं ३-३२ से स्त्रीलिंग-जोधक 'श्रा' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से %ई प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से क्रम से प्राप्तांग 'जा' और 'जी' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृनीय प्रत्यय 'कि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप जाए और जीए सिद्ध हो जाते हैं। सस्याम संस्क्रत मप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप साए, और तीए होते हैं। इनमें उपरोक्त विधि अनुसार प्राप्तांत 'सा' में सूत्र-संख्या ३.३१ से एवं ३-३२ से स्त्रीलिंग-प्रयोधक 'या' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ' ई' प्रत्यय की प्राप्ति और Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३० ] * प्राकृत व्याकरण * ******* $600060646000. ३-२९ से कम से प्राप्तांग 'ता' और 'ती' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप ताए और नए सिद्ध हो जाते हैं । अस्मिन् संस्कृत नमो एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इसकी प्राकृत रूप इमसि होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ १२ से संस्कृतीय सर्वनाम रूप 'इदम्' के स्थान पर 'इम' श्रादेशप्राप्ति और ३०५६ से प्राप्तांग 'इम' में विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'रिस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इस रूप शिद्ध से जाता है। एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप एव्यस्त होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-११ से मूल संस्कृत-सर्वनाम एतद् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दू' का लोप १-१७७ से 'तू' का लाप और ३-५६ से प्राप्तांग 'एच' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बि६' के स्थान पर प्राकृत में 'स्पि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एमसि रूप सिद्ध हो जाता है । ३-६० - आमो डेसिं ॥ ३-६१ ॥ सर्वादिरकारान्तात्परस्यामो डेसिमित्यादेशो वा भवति ॥ सव्येसि । अन्नेति । अवरेसिं । इमेसिं । एए सिं । जेसिं । तेसिं । केसि । पते । सव्वाण | अन्नाथ | अवराण । इमाण । एमाण । जाण । तारा काम || बाहुलकात् स्त्रियामपि । सर्वामाम् । सच्चेसिं ॥ एवम् अन्नेसिं । तेसिं ॥ अर्थ:--म ( सव) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृताय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'सि' प्रत्यय की प्रवेश-प्राप्ति हुआ करती है। प्राकृत में आदेश शप्न प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'जू' दासंज्ञ है; तदनुमार श्रंग रूप प्राकृत सर्वनाम शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संक्षा होने से इस अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप में उक्त पड़ी-बहुवचन- बोधक प्रत्यय 'डेसिं=एसिं' की संयोजना होती है। जैसेः--सर्वेषामू सव्वेति अथवा पक्षान्तर में सन्त्राण | धन्येषाम् अनति अथवा पज्ञान्तर में अन्ना । अपरेषाम अवरे अथवा पक्षान्तर में अवराण स्वाम्-हमेि अथवा पक्षान्तर में इमाण । एतेषाम् एसिं अथवा पक्षान्तर में एओए । येषाम = जेसिं अथवा पक्षान्तर में जान पाते अथवा पक्षान्तर में ताण षसि अथवा पक्षान्तर कारण। 'बहुल' सूत्र के अधिकार से अकारान्त सर्वनामों के अतिरिक्त अकारान्त स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों में मी षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'माम् के स्थान पर (प्राकृत में 'देखि सिं प्रत्यय D Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१३१ ] Vororessonitorstoornosotroversitorsosiatoroorrearres+worhoosteoroor0. की प्राप्ति देखो जाती है । जैसे:-मर्वासाम् सञ्चेनि अर्थात् सभी (स्त्रियों के | अन्यासाम्-अन्नेसि अर्थात अन्य (स्त्रियों के । तासाम् - तेमि अर्थात उन (स्त्रियों) के । इस प्रकार 'बहुलं' सूत्र के आदेश से श्राकारान्त स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों में भी 'एमि' प्रत्यय की प्राप्ति हो सकती है। सर्वेषाम् संस्कृत षष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप सन्धेसिं और मव्वाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-मख्या २-७ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २-८४ मे लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'व' को द्वित्व 'घ' की प्राप्ति और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेति=सिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सव्वेसि सिद्ध हो जाता है। द्वितोय रूप-(मर्वेषाम् ) सम्वाण में 'सठव' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात प्राप्तांग 'सब्ब' में सूत्र-संख्या ३.१२ से अन्त्य 'अ' को आगे षट्री बहुवचन-बोयक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'या' की प्राप्ति और ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर (प्राकृत में) 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होफर द्वितीय रूप सध्याग भी सिद्ध हो जाता है। ___ अन्येषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिगके सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप अम्नेसि और अन्नाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सुस-संख्या २-१८ से मूल संस्कृत शब्द 'अन्य' में स्थित 'य' का लोप; २.५ से लोप हुए 'य' के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीम प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिमि ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अन्नसि सिर हो जाता है। द्वितीय रूप (अन्येषाम्=) अन्नाव में 'अन्न' अग की प्राप्ति उपरोक्स विधि अनुसार, तत्पश्चात प्राप्तांग 'अन्न' में सूध-संख्या :-१२ से अन्त्य 'अ' को 'श्रागे पच्छी बाहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'श्रा' को प्राप्ति और ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीच प्रत्यय "श्राम' के स्थान पर प्राकृत में ' प्रत्यय की पाप्त होकर द्वितीय रूप-अन्नाम भी सिद्ध हो जाता है। अपरेषाम् संस्कृत पाठी बहुववनाल पुन्निा के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकन रूप अवरसिं और भवराण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत शब्द 'पर' में स्थित 'प' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति और ३-६१ मे षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रस्थान 'श्राम के स्थान पर पाकृत में बैकल्पिक रूप में 'बेमि - एसि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रचम रूप अपरोसे सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-अपरेषाम=) अपगण में 'अवर' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार नत्पश्चात सूत्र संख्या ३.५२ और ३ ६ से परोक्त 'अन्नाण' के ममान ही साधनिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अवगण भो सिद्ध हो जाता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३२ ] 0044864 * प्राकृत व्याकरण * *********0*$$$$$+VID. *******6620699666044444 एवम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमेसि और इमाण होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द इदम् के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रूप की प्राप्ति और ३-६९ से पष्ठी विभक्त के बहुवचन में संस्कृती प्रत्यय 'आप' के स्थान पर ग संप्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमेसि सिद्ध हो जाता है । में रूप से द्वितीय रूप- ( एप. = ) इमाण में 'इम' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३ १२ से प्राप्तांग 'हम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे बडी बहुवचन-प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'इमा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप प्रमाण भी सिद्ध हो जाता हैं । एतेषाम् संस्कृती बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप पि और एक होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' का लोप: १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-६१ सेविभक्ति के बहुत्रचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से देखि' प्रत्यय की प्राप्तिः तत्पश्चात 'डेसि' में स्थित 'जू' इत्संज्ञक होने से 'एन' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इस्संज्ञा होकर इस 'अ' वर का लोप; तत्पश्चात् शेष अंग 'ए' में उपरोक्त 'पति' प्रत्यय की संयोजना होकर एएसिं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (एतेषाम् ) एथा में 'एका' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३ १२ से प्राप्तांग 'एम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'जागे षष्ठी बहुवचन प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति ३६ से प्राप्तांग 'एला' (में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन) में संस्कृतोय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एआण मी सिद्ध हो जाता है । येषाम् संस्कृत षष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जेर्सि और जाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२२ से मूल संस्कृत शब्ः 'य' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप ३६१ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसि' में स्थित 'छ' इत्संज्ञक होने से 'ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' को इस्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'जू' में उपरोक्त 'एसिं' प्रत्यय को संयोजना होकर प्राप्त प्रथम रूप जेसि सिद्ध हो जाता है। जाण की सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित Presseswwwsrorseeneterroriterternortssorrorrotransornerwssnessson तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकत रूप तेसि और ताण होते हैं। इनमें से प्रथम स त्र २.६१ मूस कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त ज्यञ्जन 'द' का लोप और ३-६१ से प्राप्तांग 'a' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकत में 'डेसि' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्र' की इसंज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'न' में उपरोक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तेसि सिद्ध हो जाता है। ताण की सिद्धि सूत्र-संख्या -32 में की गई है । केशाम संस्कृत पष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप केमि और काय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या ३.७१ से मुल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर भाकृत में 'क' अंग को प्राप्ति और ३.६१ से 'क' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेति' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'क' में उपरोक्त 'एसि' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप केसि सिद्ध हो जाता है। 'शाण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 5-5 में की गई है। सर्वासाम् संस्कृत षष्ठी बहुक्क्मान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप सम्वेसि होता है। इसमें सत्र-संख्या २-४६ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित हलन्त 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए. 'र' के पश्चात् रहे हुए 'प' को द्वित्व '' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ के विधान से 'सव्व' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणाथे 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'सव्वा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसि प्रत्यय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'सि' में स्थित 'इ' इत्संनाक होने से सन्या' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्रा' की इत्संज्ञा होकर इस 'आ' को लोप एवं हलन्त 'सच' में 'उपरोक्त 'एसि' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) सब्वेसि सिद्ध हो जाता है। अन्यासाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप अन्नेमि होता है । इसमें सब-संख्या २.७८ से मूल संस्कृत शब्द 'अन्य' में स्थित 'य' का लोप; २.से लोप हुए थ' के पश्चात बहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति ३-३२ और २-४ के विधान से 'अन्न' में पुल्लिगरव से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ 'श्रा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१से 'अन्ना में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसि' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'लेसि' में स्थित 'छु'इसंझक होने से प्राप्तांग 'अन्ना' में स्थित अन्त्य म्वर 'आ' की इत्संझा होकर इस मा' का लोप एवं हलन्त 'धन्न्' में उपरोक्त 'सिं' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिग रूप के समापन प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) अन्तर्सि सिद्ध हो जाता है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३४ ] * प्रात व्याकरण * .orosorrorestmetosssssssssetrorecorrrrrrrorestrono60646400*60000oksator तासाम् संस्कृन पष्ठी बहुवचनान्त स्लोजिंग के मर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप तेमि होता. है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' म स्थित्त अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द का लोप; ३.३२ और २-४ के विधान से 'त' मे पुल्लिगत्व से स्त्रीजिंगत्व के निर्माणार्थ 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'ना' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय को प्रारित, प्राप्त प्रत्यय 'डेमि में स्थित्त 'ड' इत्संज्ञक होने से प्राप्तांग 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'या' की इनमज्ञा होकर इस 'श्रा' का लोप एवं हलन्त 'त' में उपरोक्त 'एनि" प्रत्यय की योजना होकर (पुल्लिग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) तेसिं सिद्ध हो जाता है। ३-६१ ।। कितद्भ्यां डासः ॥ ३-६२ ॥ किंतझ्या परस्यामः स्थाने डास इत्यादेशो का भवति ॥ कास । तास । पक्षे । केसि । तेसि ।। ___अर्थ:-संस्कुन सर्वनाम 'किम्' के प्राकृत रूपान्तर 'क' में और संस्कृत मर्वनाम 'तद्' के प्राकृत रूपान्तर 'त' में पष्टी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'प्राम' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डाम' (प्रत्यय) की प्राप्ति हुश्रा करती है । प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास' (प्रत्यय) की प्राप्ति हुथा करती है । प्राकृत में प्राप्त प्रत्यय 'डाप्स' में स्थित 'लु' इत्संशक है, तदनुसार प्राकृत मर्वनाम रुप "क" और "त' में स्थित अन्त्य स्वर "अ' की इत्संज्ञा दोने से इस अन्त्य स्वर "अ" का लोप हो जाता है एवं सत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त मनाम रूप "क" और "त्" थंग में उक्त षष्ठी के बहुवचन का प्रत्यय "डास-पास' को संयोजना होती है। जैसे:-वेषाम् कास और तपाम्-तास धैकल्पिक पह होने से (केपाम् ) बेसि और (तेषाम-) तसिं रूप भी बनते हैं। केषाम् संस्कृत पधी बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है इस के प्राकृत रूप कास और केमि होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सुत्र संख्या ३-७१ मे मूल संस्कृत शब्द ''किम्" के स्थान पर प्राकृत में "क" रूप की प्राप्ति, ७-६२ से प्राकृती "क" में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय "श्राम्"" के स्थान पर प्राकृन में 'बोस' प्रत्यय की प्रामि, प्रान प्रत्यय "हास्" में स्थित "ड" इत्संजक होने से "क" में स्थित अन्स्य स्वर "अ" को इत्संज्ञा होकर इस "अ" का लोप एवं हलन्त “क' में उपरोक्त "श्रास" प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रुप कास सिद्ध हो जाता है। कास की सिद्धि, सूत्र मख्या ३-१ में की गई है। तेषाम संस्कृत पष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम का रूप है । इस के प्राकृत रूप तास और तसिं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द "त" में स्थित अन्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 100000086 * प्रियोश्य हिन्दी व्याख्या सहित # ******** [ १३५ ] ००००००००००० हलन्त व्यञ्जन "दू" का लोप, ३-६२ से प्राकृतीयमासांग "त" में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय "आ" के स्थान पर प्राकृत में "डास" प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय ' डास " में स्थित "डू" इत्संज्ञक होने से "त" में स्थित अन्त्य स्वर "अ" की इत्संज्ञा होकर इस "अ" का लोप एवं हलन्त "त्" में उपयुक्त "डासश्रास" प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है । रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३६१ में की गई है । ३-६२ - किंयत्तभ्योङसः ॥ ३-६३ ॥ 1600 एभ्यः परस्य स: स्थाने डास इत्यादेशो वा भवनि । इसः सः (३-१० ) इत्याख्या - पवादः । पते सोपि भवति || कास । कस्स । जास । जस्स | तास । तस्स । बहुलाधिकारात् । किंतद्भयामाकारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा । कस्या धनम् | कास धणं ॥ तस्या धनम् | तास. । पछे । काए । ताए ॥ अर्थः - संस्कृतीय सर्वनाम किम्, यद् और तद के कम से प्राप्त प्राकृत रूप "क", "ज" और "त" में पड़ी त्रिभक्ति के वचन में संस्कृतोय प्रत्यय "उस्=अस्" के स्थान पर प्राकृत में "डास" का आदेश बैकल्पिक रूप से हुआ करता हैं । प्राकृत में प्रदेश रूप "डास" में स्थित "इ" इत्संज्ञक हैं;तदनुसार प्राकृत सर्वनाम रूप 'क', 'ज' और 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य स्वर 'अ' का लोप हो जाता है । एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप 'कू', 'ज' और 'त' में उक्त पठी एकवचन का प्रत्यय 'डास = ग्रास' की संयोजना होती है। जैसे:कस्य = कास; यस्य जाम और सत्यतास। इस तृतीय पाद के दशवे सूत्र में यह विधान निश्चित. किया गया है कि 'संस्कृतिीय षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'इस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' का आदेश होता है। तदनुसार उक्त सूत्र संख्या २०१० के प्रति इस सूत्र (३-३३) को अपवाद रूप सूत्र-समझना चाहिये। इस प्रकार इस अपवाद रूप स्थिति को ध्यान में रखकर हो प्रन्थ-फत्ती ने 'वैकल्पिक स्थिति' का उल्लेख किया है; तदनुमार वैकल्पिक स्थिति का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र संख्या ३-९० के आदेश से 'क', 'ज' और 'त' सर्वनामों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'रस' प्रत्यय का अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिये। इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:कस्य करसः यस्य =जस्म और तस्य = तस्त । 'बहुलं' सूत्र का अधिकार होने से 'क' के स्त्रीलिंग रूप 'का' में और 'त' के स्त्रीलिंग रूप 'ता' में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में यैकल्पिक रूप से 'डास' आदेश हुआ करता है। प्राकृत में आदेश 'डास' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक है। तदनुसार प्राकृतः सर्वनाम स्त्रीलिंग रूप 'का' और 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'या' की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण Prerritosessorro00000000rrorecorrectrosteron.esko+00000000000000000. रुपर 'श्रा' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूपक' और 'त्' में उक्त षष्ठो विभक्ति एकवचन-(बोधक-प्रत्यय। आस-पास' की संयोजना होती है । जैसे- कस्या धनम् = कास धणं ? और तस्या धनम् = तास घणं वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'कस्या' का 'काए' रूप भी बनता है और 'तस्या' का 'ताए' रूप भी होता है। कस्य सस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है । इसके प्राकृत रूप कास और कस्म होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'किम् के स्थान पर प्राकृत में 'क' रूप की प्राप्ति और ३.६३ से 'क' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कनीय प्रत्यय 'डान = अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डासम्झास' प्रत्यय को (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप कास सिद्ध हो जाता है। कस्स रूप को सिसि सूत्र-संख्या -२०४ में की गई है। यस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है। इसके प्राक़त रूप जास और जस्स होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राति १-११ से 'अन्य स्तमा ज्यान 'द का लोप और ३-६३ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठो विभक्ति के एकवचन में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सन्स' क स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से डास = पास प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जास सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (यस्य ) जस्स में पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'ज' में सूत्र संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'उत-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जस्स भी सिद्ध हो जाता है। तस्य संस्कृत षष्ठी एक वचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम को रूप है । इसके प्राकृत रूप साप्त और तस्स होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप, और ३.६३ से 'त' में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृनाय प्रत्यय इस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-पास' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है। तस्स रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८६ में की गई है। कस्याः संस्कृत पष्ठी एक वचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है इसके प्राकृत रूप कास और काए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र- संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप को प्राप्ति ३-३२ और २-४ के निर्देश से 'क' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.६३ की धुति से प्राप्तांग 'का' में षष्टी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-पास' प्रत्यय की आवेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप कास सिद्ध हो जाता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित द्वितीय रूप-: कम्या = ) कार में सूत्र संख्या ३ २६ से उपरोक्त रोनि से प्राप्तांग 'का' में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप का सिद्ध हो जाता है । 'धर्ण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६-५० में की गई है। तस्याः संस्कृत पक्षी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सवनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तास और ताए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'लदू' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप ३-३२ और २-४ के निर्देश से 'त' में पुल्लिंग से स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु '' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-३३ की वृति से 'ता' में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास = स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है। [ १३७ ] **❖❖❖❖❖0600066�++664 900430 द्वितीय रूप ( तस्या = ) ताए में सूत्र संख्या ३- २६ से उपरोक्त रीति से 'ता' में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'कम् = अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ताए सिद्ध हो जाता है । ३-६३ ईदभ्यः सा से || ३-६४ ॥ किमादिभ्य ईदन्तेभ्यः परस्य सः स्थाने स्सा से इत्यादेशो वा भवतः । टा-इस्-दो रादिदेश तु ङसे (३-२६ ) इत्यस्यापवादः । पक्ष श्रदादयोपि || किस्सा | कौसे । की । कीथा । की । की || जिल्ला । जिसे । जीश्र । जीश्रा । जीड़। जीए ॥ तिस्सा । तीसे । 1 ती | तीचा । ती । तीए ॥ I अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम 'किमू' यदू तद् के प्राकृतीय ईकारान्त स्त्रीलिंग रूप-की-जी-ती' में विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'उस्स' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'रमा' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। इसी तृतीय पाद के उन्नतोसवें सूत्र में यह विधान निश्चित किया गया है कि 'संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में स्त्रीलिंग बाते शब्दों में 'अतु = श्र; श्रत = था; इत् = इ और एत् "ए' प्रत्ययों की कम से प्राप्ति होती है। तदनुसार उक्त सूत्र संख्या ३ २६ के प्रति इस सूत्र (३-६४ ) को अपवाद रूप सूत्र समझना चाहिये। इस प्रकार इस अपवाद रूप स्थिति को ध्यान में रखकर ही मन्थकर्ता ने 'वैकल्पिक स्थिति का उल्लेख किया है; तदनुसार वैकल्पिक स्थिति का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३२६ के आदेश से स्त्रीलिंग वाले सर्वनाम रूप 'की- जी-ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में ( प्राकृत में ) 'अत् श्रतश्राः इत् = इ और पत् = ए' प्रत्ययों का भी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३८ ] $40044064944 * प्राकृत व्याकरण * 0000000006666600 क्रम से अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये । हम से बाहरण इस प्रकार है:- :- कस्याः (३-६४ के विधान से) फिरमा और कीसे एवं (३-२६ के विधान से ) पक्षान्तर में कीम, कीचा, कोइ और कीए । यस्याः = जिस्मा और जीसे; पक्षान्तर में जीअ, जीओ, जीइ और जीए। तस्या: =तिस्पा और तीसें; पक्षान्तर में ती, ती, तीइ और तीए । कस्याः संस्कृत षष्ठो एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किस्सा. कोसे, की, की, कोइ और कीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति ३-३२ से 'क' में पुल्लिंग से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'की' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप में प्राप्ति ३-६४ से 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्=अस् के स्थान पर ( प्राकृत में) 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १८४ से प्राप्त प्रत्यय 'Far' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'की' में स्थित दीर्घश्वर 'ई' के स्थान पर हस् स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप किस्सा सिद्ध हो जाते हैं । द्वितीय-रूप- (कस्याः) = कीसे में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रीति से एवं तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-६४ से प्राप्तोग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय '= अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की काप्ति होकर द्वितीय रूप कीसे सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप से खट्टे रूप तक ( कश्या: = ) कीश्र, कीथा, कोई और कीए में 'की' अंग की प्रमि का विधान उपरोक्त रीति से एवं तखात् सूत्र संख्या ३ २६ से प्राप्तांग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङ = अस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ आ इ ए प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कम से कीअ, कीआ, की और कीए रूप सिद्ध हो जाते हैं । यस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिस्मा, जीसे, जंश्र, जीश्रा, जीइ और जीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'ज' में पुल्लिंग से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'डोई' प्रत्यय की प्राप्तिः ३-६४ से प्राप्तांग 'जा' में षष्ठी विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'इस अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्वा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'जी' में स्थित दार्धस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिस्सा सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (यस्या:= ) जी से में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'जी' में पष्ठो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस अस् स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्ति होकर द्वितीय रूप जीसे सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप से रूप तक - (यस्याः = ) जीम, जीश्रा, जीई और जीए 'जी' श्रंग की प्राप्ति का विवान टपरीत रीति से एवं तत्पश्चात सूत्र - संख्या ३ - २६ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित *************$**$*se 1999♠♠♠♠♠०००० एकवचन में संस्कृती प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ आ-इन्छ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तृतीय रूप से छठे रूप तक अर्थात् जीभ, जीभ, जीर और जीए रूप सिद्ध हो जाते हैं । [ १३६ ] 140000000004 तस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीजिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तिस्सा, ती ती, ती, ती और तीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द तद् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दु' का लोप ३-३२ से प्राप्तांग 'त' पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'ई' प्रत्यय की प्राप्तिः ३-६४ से प्राप्तांग 'ती' में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय ‘ब्रस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'ती' स्थित दीर्घ 'ई' के स्थान पर इत्र '' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तिस्ता सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( तस्या:= ) तीले में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'तो' में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय ' अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप से सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप से छुट्टे रूप तक (तस्या: = ) ती, तोश्रा, ती और तीए में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रीति से एवं तत्पश्चात सूत्र संख्या ३ २९ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'बस अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ आ-इन्छ' प्रत्ययों को प्राप्त होकर क्रम सेती, तीआ, तीइ और सीए रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३-६४ ॥ - ङोर्डा डाला इकाले ॥ ३-६५ ॥ - किंयत्तद्भयः कालेभिधेये ड े: स्थाने आहे भवन्ति । हिंस्सिम्मित्थानामपवादः । पक्षे ते पि जाला | जाइयां || ताहे । ताला | तया ॥ कत्थ || मला इति डितों इआ इति च आदेशा वा भवन्ति ॥ काहै । काला । कइया || जाड़े | ताला जायन्ति गुणा जाला ते सहिश्रहिं घेप्यन्ति । पछे । कहिं । कर्टिस | कम्मि | अर्थ:-- जब 'किम्, यद् और तद्' शब्द किसी काल वाचक शब्द के विशेष रूप हो; तो इनके प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'चिन्ह' के स्थान पर वैकलिक रूप से और क्रम से 'बाई, डाला और हुआ' प्रस्थयों की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है । प्राप्त प्रत्यय 'डोहे और डाला' में स्थित ' इत्संज्ञक है; अब प्राकृत में प्राप्तांग 'क, ज और त' में स्थित अन्य स्वर 'का' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो आता है; एवं तत्पश्चात शेषगि हलन्त 'क, ज् और तू' में उक्त प्रत्यय Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४० ] 4446054444499 के रूप में 'आई और आला' (प्रत्ययों की संयोजना होती है। इसी तृतीय पात्र के सूत्र संख्या ३-३० और ३-५६ में क्रम से यह विधान निश्चित किया गया है कि 'संस्कृतीय सप्तमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय' 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं, म्सि, म्मि और त्थ' प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होतो है'; तदनुसार उक्त सूत्र संख्या ३६० ओर ३-५३ के प्रति इस सूत्र (३ ६५ ) को अपवाद रूप सूत्र समझना चाहिये । पक्षान्तर में हिं. सि, किम और त्य' प्रत्ययों का अस्तित्व भी है; ऐसा ध्यान में रखना चाहिये । प्रदाहरण इस प्रकार हैं: * प्राकृत व्याकरण * $40944000000000000090096bu Batuhat कश्मिन् = ( किस समय में ) - काहे, कला, कहा और पक्षान्तर से कहिं, कति कमि और कत्थ । यस्मिन् - ( जिस समय में ) = जाहे, आला और जया पक्षान्तर में जहिं, जग्सि, जम्मि और जत्थ ( भी होते हैं ) । तस्मिन = ( उप समय में ) = ताई, ताज़ा और तत्रा एवं बज्ञान्तर में तीिं, तिमि और तत्थ ( मी होते हैं ) । किसी पथ षिशेष से प्रन्थ-कतों ने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने के लिये निम्नोक्त छन्दांश को वृति में उधृत किया है: संस्कृतः - तस्मिन् जायन्ते गुणाः यस्मिन् से सहृदयः गृह्यं ते । प्राकृत रूपान्तरः- ताला जायन्ति गुणा जाला ते सहिश्रएहिं घेप्पन्ति । हिन्दी भाषार्थ :- उस समय में गुण ( वास्तव में गुण रूप ) होते हैं; जिस समय में वे (गुण) सहृदय पुरुषों द्वारा पण किये जाते हैं । (अथवा स्वीकार किये जाते हैं ) । इस दृष्टान्त में 'त' और 'ज' शब्द समय वाचक स्थिति के द्योतक हैं, इसीलिये इनमें सूत्र संख्या ३-६५ के विधानानुसार 'बाला आला' प्रत्यय की संयोजना की गई है; यो अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये । = कस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय स्थिति-बोरु) विशेष रूप है। इसके प्राकृत रूप काहे. काला, कड्या, कहि, कति, कम्मि और कत्थ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द किम् के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६५ से प्राप्तांग 'क' में (समय-स्थित-बोधकता के कारण से ) सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीयप्रत्यय '' के स्थान पर प्राकृत में 'ढाई आहे' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप का सिद्ध हो जाता है । द्वित्तीय और तृतीय रूप 'काला एवं कइभ' में भूज़ 'क' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधिअनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३ ६५ से प्रथम रूप के समान हो क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'डाला भाला और श्या' प्रत्ययों की प्रवेश प्राप्ति होकर काला और का रूप सिद्ध हो जाते हैं । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१४१ } やタックククククククククククククククククククロッ クされるなかできなかからないので) चतुर्थ रूप 'कहि' की सिद्धि सूत्र संस्था :-50 में की गई है। कम्सि' में 'क' श्रङ्ग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रोति अनुमार एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५६ से तममी विभक्ति के एक वचन में संस्कृती प्रत्यय 1 2' के स्थान पर प्रति म ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर पंचन रूप कर्सित सिद्ध हो जाता है। 'कम्मि' में भी उपगेक पंचम रूप के समान हो सूत्र संख्या ३-* के विधान में स्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छट्ठा रूप कम्भि सिद्ध हो जाता है। 'कत्थ' में भी उपरोक्त पंचम रूप के समान ही सूत्र संख्या ३-५६ के विधान से 'स्थ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सप्तम रूप कत्थ सिद्ध हो जाता है। यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एक वचनान्त ( समय-स्थिति-बोधक ) विशेषण रूप है इसके प्राकृत रूप जाहे, जाला और जइबा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' को प्राप्तिः १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप और ३-६५ से प्राप्तांग 'ज' में सप्तमो विभक्ति के एक वचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'डाहे आहे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जाहे सिद्ध हो जाता है। जाला में 'ज' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-विधान के अनुसार एवं तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-६४ से प्रथम रूप के समान ही 'माला' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जाला सिद्ध हो जाता है। जइया में 'ज' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रीति-अनुप्तार एवं तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-६५ से प्रथम-द्वितीय रूपों के समान हो 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सृतीय रूप जइआ भी सिद्ध हो जाता है। तस्मिन् संस्कृत सप्तमी एक वचनान्त ( ममय-स्थिति-बोधक) विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप ताहे, ताला और तइत्रा होते हैं । इनमें सत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६५ से प्राशंग 'त' में मातमो विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'कि=इ' के स्थान पर कम से 'वाहे आहे; डाला - श्रोला और इया' प्रत्ययों की प्रादेश-प्राप्ति होकर तीनों रूप तहि, ताला और तइभा सिद्ध हो जाते हैं। 'ताला' रूप की सिशि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। जायन्ते संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाअन्ति होता है। इसमें सत्र-संख्या १-२७७ से 'य' का लोप और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहु वचन में संस्कृतीय पात्मनेपदीय प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय को प्रानि होकर जान्ति रूप सिद्ध हो जाता है। 'गुणा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११ में की गई है। 'जाला' रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-१६९ में की गई है ! Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४२ ] * प्राकृत व्याकरण 0000000000++++ 'ते' (सर्वनाम ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६९ में की गई है । 'सहिअर्हि रूप की सिद्धि मूत्र-संख्या १-२६९ में की गई है। 'पति' रूप की सिद्धि सत्र - संख्या १-२६९ में की गई है। 4006940**** 6644444444640 से ह ॥ ३-६६ ॥ किं तद्भयः परस्य उसे: स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति ॥ कम्हा | जम्हा । तम्हा | पते । काओ । जाओ । ताओ । अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम 'किमन्यद्वद्' के प्राकृत रूपान्तर 'क जन्त' में पचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय इति अम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'महा' प्रदेश की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:सः कस्मात् = कम्हा; यस्मात् जम्हा और तस्मात् तम्हा | वैकपिक पक्ष का विधान होने से पक्षान्तर में सूत्र संख्या ३८ के विधान से उपरोक्त 'क-ज-त' सर्वनामों में 'तो; दो = श्रो; दु = उ; हि, हिन्दी और लुक्' प्रत्ययों की भी प्राप्तिक्रम है । जैसे:- कस्मात् काश्री, (कुसो, काउ, काहि, (जसी, जाब, जाहि, जाहिन्तो और जा ) एवं तस्मात हुआ करती काहिन्ती और का आदि) । यस्मात् =जाओ, ताओ. (तचो, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता ) ! = कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एक वचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप कम्हा श्रीर काय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३.७९ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर 'क' रूप की देश-प्राप्ति और ३-६६ से प्राप्तांग 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'इसि= अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की प्रदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप कन्हा सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( कस्मात् = ) कात्रो में 'क' अंग की प्राप्ति उपरोक्त सांधनिका के अनुसार; तपश्चात् सूत्र संख्या २-१२ से प्रयोग 'क' में स्थित अन्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे पञ्चमां विभक्ति एकवचन- चोक प्रत्यय 'ओ' का सदभाव होने से' दीर्घ 'या' की प्राप्ति और ३० से प्राप्तांग 'का' में विभक्ति के एक वचन में संस्कृताय प्रत्यय 'उसिस के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कभी भी सिद्ध हो जाता है। यस्मात् संस्कृत पञ्चमी एवं वचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जम्हा और जाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ ले मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की 'प्रामि १-१२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्चन 'दु का लोप और ३-३६ से प्राप्तांग 'ज' में पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इसि = अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'हा' प्रत्यय की प्रदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप जम्हा सिद्ध हो जाता है । ? Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .ooordskriskosekasdressrotesterodrowseredaveideoxxxsexstoerseos00* द्वितीय रूप-( यस्मात = ) जाओ में 'ज' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिका के अनुसार, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३.१२. से प्राप्तांग 'ज' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति और :-- से प्राप्तांग 'जा' में उपरोक्त रीति से पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय-रूप जाभी भी सिद्ध हो जाता है । तस्मान संस्कृत पञ्चमी एक वचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप तम्हा और ताओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दु' का लोप और ३-६६ से प्राप्तांग 'न' में पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'कमि = श्रम' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की ( आदेश ) प्राग्नि होकर प्रथम रूप तम्हा मिद हो जाना है। द्वितीय रूप- तस्मात ) तानी में 'स' अंग की प्राप्ति उपरोक सानिका के अनुसार; तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'त' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दोष स्वर 'या' की प्रानि और ३-८ से प्रातांग 'ता' में उपरोस्त रीति से पवमी विमक्ति के एकवचन में 'दोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूपताओ भी सिद्ध हो जाता है । ३-६६ ॥ तदो डोः ॥ ३.६७ ॥ तदः परस्य उसेडों इत्यादेशो वा भवति ।। तो । तम्हा ॥ अर्थ:-संस्कृत मर्वनाम 'तद्' के प्राकृत रूपान्तर 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राध्य प्रत्यय 'मि = अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो' प्रत्यय की श्रादेशप्राप्ति हुश्रा करनी है। प्राच्य प्रत्यय 'डो में स्थित '' इसंज्ञक है। तदनुसार उक्त सर्वनाम 'त' में स्थित अन्त्य द्वार सर 'अ' की इस्मज्ञा होकर इस 'अ' घर का लोप हो जाता है; एवं तत्पश्चात शेांग हलन्त त्' सर्वनाम में उक्त प्रत्यय 'श्रो' की संयोजना होती हैं । जैसे:-तम्मात ती । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सत्र संख्या ३.६३ के विधान से ( तस्मात = ) सम्हा रूप की प्राप्ति होती है। 'सम्हा' रूप में भी वैकल्पिक पक्ष का पदभाव है अतएव सत्र-संख्या ३-८ के विधान से ( तम्माता, 'तत्तो, ताओ, तार, ताहि, ताहिन्तो और ता' रूपों का भी सद्भाव जानना चाहिये। तस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप 'नो' और 'तम्हा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १.११ से मूल संस्कृत-शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और, ३-६७ से प्राप्तांग 'न' में परमो विक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि-प्रस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो-यो' प्रत्यय की (श्रादेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तो' सिद्ध हो जाता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४४ ] *प्राकृत व्याकरण * 'तम्हा' की मिशि सूत्र-संख्या ३.६६ में की गई है। ३.६७ ।। किमो डिगो होसौ ॥ ३.६८ ॥ किमः परस्य ङसेर्डिगो डीस इत्यादेशी वा भवतः ॥ किणो । कीस । कम्हा ॥ अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम किम्' के प्राकृत रूपान्तर 'क' में चमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिम्यम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'हिणी और डोस प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डियो और डोस' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक हैं; तदनुसार प्राकृतीय अंग-प्राप्त रूप'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्र की इसंज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् शेषांग हलन्त 'क' में आदेश प्राप्त प्रत्यय 'इण्णा और ईस' की कम से और वैकल्पिक रूप से संयोजना होती है। जैसे:- कस्मात-किरणो और कीस । वैकल्पिक पन होने से (कस्मात=) कम्हा रूप का भी सद्भाव जानना चाहिये । कस्मात संस्कृत पञ्चमो एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किणो, कीस और कम्हा होते हैं। इनमें से प्रथम के दो रूपों में सूत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६८ से प्राप्तांग 'क' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में कम से एवं वैकल्पिक रूप से 'डियो - इणो' और 'डीस = ईस' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से और वैकल्पिक रूप से प्रथम दोनों रूप-किणी और कीस सिद्ध हो जाते हैं । कम्हा की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.६ में की की गई है। इदमेतक-यत्तभ्य ष्टो डिण ॥ ३-६६ ॥एम्यः सर्वादिभ्योकारान्ते . भ्यः परस्याष्टायाः स्थाने डित् इणा इत्यादेशो या भवति ॥ इमिणा ! इमेण ॥ एदिणा । एदेण ॥ किणा ! के" ॥ जिणा । जैण । तिणा । तेण ।। अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम 'इदम् एतद्, क्रिम, यद्' और तद् के क्रम से प्राप्त प्राकृतीय प्रकारान्त रूप 'इम. एद (शौरसेनी रूप), क, ज, और त' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'लिणा' प्रत्यय की श्रादेश-माप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डिणा' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है तदनुसार प्राकृतीय प्राप्तांग 'इम, एक, क, ज और त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' को इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात कम से प्राप्तांग हलन्त शब्द 'इम्, एदू, क, ज, और त्' में उपरोक्त हिणा-इणा' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से संयोजना हुआ करती है । उपरोस्त सर्वनामों के कम से उदाहरण इस प्रकार हैं:-अनेन - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१४५ ] b02999999タクタクなP2099DSCoffsetOSかなるitenages oooooooooootes इमिणा और पक्षान्तर में इमेण; एतेन = एदिणा और पक्षान्तर में एदेण; केन=किणा और पक्षान्तर में फण; येन-जिणा और पनान्तर में जेग; तेनतिणा और पक्षान्तर में तेग रूप होते हैं। अनेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्न पुल्जिग सवनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप इमिणा और इमेण होते हैं। इनमें सत्र संख्या ३७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में इम' बादेश का प्राप्ति; और ३.६६ से प्रथम रूप में प्राप्तोग 'इम' में नृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्जिग में संस्कृतोय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकून में वैकल्पिक रूप से डिणा-इणा' प्रत्यय की प्रादेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमिणा सिद्ध हो जाता है। द्वतीय रूप इमेण में उपरोक्त ३-७२ के अनुमार प्राप्तांग 'इम' में मत्र-संख्या ३.१४ से अन्स्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे नृतीया विभक्ति एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाक होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से पूर्वक्ति गति से पापा 'इमे' में तृतीया विभक्ति के वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर ' प्रत्यय का श्रादेश-प्राप्ति हो कर द्वितीय रूप इमण भी सिद्ध हो जाता है। एतेन संस्कृत तृतीया एकवचनात पुल्जिग सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप पदिणा और एदेण होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दु' का लोप; ४.२६० से 'न' के स्थान पर को प्राप्ति और ३-६६. से प्रथम रूप में 'ए' में हनीया विभक्ति के एकवचन में पुल्जिग में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में बैकल्पिक रूप से 'डिणा=इणा' प्रत्यय की प्रादेश-प्रारित होकर प्रथम रूप पदिणा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( एतेत- ) एदेण में उपरोक रीति से प्राप्तांग 'पद' में सूत्र संख्या ३-१४ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति एकवचन बोबक पत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३.६ से 'एने' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय टा' के स्थान पर '' प्रत्यय की ( आदेश ) प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एदेण सिद्ध हो जाता है फेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप किणा और कंण होने हैं। इनमें से प्रथम रूप में सब-संख्या ३.७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्रादेश-प्राप्ति; और ३.६८ से प्राप्तांग 'क' में तृतीया विभक्ति के एकवचन पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिशा = इणा प्रत्यय को प्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप किणा सिद्ध हो जाता है। 'केण' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में को गई है। येन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिणा और जेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित अन्त्य हलन्त च्यञ्जन 'द' का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ३-६६ से प्राप्तांग 'ज' में तृतीया Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४६ ] *प्राकृत व्याकरण * .0000000000000000rrofessoorrearreroorkersonastessertersneosreasoo. विभक्त्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृतीय प्रत्यय 'दा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से, खिणा इणा' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिणा सिद्ध हो जाता है। जेण की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३६ में की गई है। तन संस्कृत तृतीय! एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है । इसके प्राकृत रूप तिणा और तेण होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; और ३.६६ से प्राप्तांग 'त' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृतीय प्रन्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से विणा = इणा' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप लिणा' सिद्ध हो जाता है। तेण की सिद्धि सूत्र संख्या १.३ में की गई है। ३.६६ ॥ तदो णः स्यादी क्वचित् ॥ ३-७० ।। तदः स्थाने स्यादौ पर' '' श्रादेशी भवति कविर समानुवाच । शं पेच्छ । तं पश्ये.. त्यर्थः ॥ सोअह अणं रहुई। तमित्यर्थः ।। त्रिपामपि । हत्थुन्नामिन-मुही णं तिमा। तां त्रिजटेत्यर्थः ॥ गेण भणि । तेन भगितमित्यर्थः ॥ तोणेण का-यज-दिया। तेनेत्यर्थः ।। मणिग्रं च णाए । तयत्यर्थः ॥णेहि कयं । तैः कृतमित्यर्थः । णाहिं कयं । नाभिः कृतमित्यर्थः । अर्थ:-कभी कभी लक्ष्य के अनुमार मं अर्थात संकेनित पदार्थ के प्रति दृष्टिकोण विशेष से संस्कृत सर्वनाम 'तद् के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के परे रहने पर 'ण' अंग रूप आदेश का प्राप्ति ( वैकल्पिक रूप से ) हुआ करती है । जैसे-तम् पश्य-णं पेच्छ अर्थात् उसको देखो । शोचति च तम् रघुपतिः= पोश्रइ अ णं रघुबई अर्थात रघुपनि उसको चिन्ता करते हैं-शोक करते हैं। प्रालिंग' में भी 'तद्' सर्वनाम के स्थान पर 'ण' अथवा 'णा' अंग रूप श्रावेश को प्राप्ति पाई जाती है। जैसे हस्तांनामित-मुवी ताम् त्रिजटा हत्थुम्नामिअ-मुही ऐ तिला अर्थात हाथ द्वारा ऊंचा कर रखा मुंह को जिसने ऐसी त्रिजटा नामक राक्षसिनी ने उस (ही । को........... ( वाक्य अधूरा है)। तन भरिणतम-गणेण भणि अर्थात उसके द्वारा कहा गया है । तस्मात तेन कर-तल स्थिता ती गेण करबल-दिमा अर्थात् म कारण से उसके द्वारा हथेली पर रखी हुई " " " "( वाक्य अधूरा है)। भणितम् च तया=भगधे च पाप अर्थात् उस द्वारा-( उस श्री के द्वारा)-कहा गया है। तेः कृतम् - रोहिं कयं अथात उनके द्वारा किया गया है । तामिः कृतम् =णाहिं कयं अर्थात उन (स्त्रियों ) के द्वारा किया गया है। इन उदाहरणों में यह समझाया गया है कि पुल्लिग अवस्था में अथवा स्त्रीलिंग अवस्था में (भी) अनेक विभक्तियों में तथा एकवचन में अथवा बहुवचन में (भी) संस्कृतीय सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृन में 'ण' अंग रूप ( अथवा स्त्रीलिंग में 'णा' अंग रूप) आदेश-प्राप्ति कमी कमी पाई Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १४७ ] かやのみから00000000000000:00かかります。 आना है यह उपलब्धि प्रासंगक है । और ऐसी स्थिति को 'वृत्ति' में 'लक्ष्यानुसारेण' पद से अभिव्यक्त किया गया है। तम् संस्कृत द्विनीया एकवचनान्त पुल्लिग मर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर (कभी कभी) रणं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७० से मूग संस्कृत शब्द 'ई' के स्थान पर प्राकृत में घंग की श्रादेश-प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत के समान ही प्राकत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रात प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुसार की प्राप्ति होकर णं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' । क्रियपद ) रूम की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२ में की गई है। शोचति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सोअइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्रादेप्रामि होकर सोअइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ (अव्यय) की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'ण' (सर्वनाम) रूप की सिसि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। रघुपति: संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिग का रूप है । इसका प्राकृत रूप रहुबई होता है। इपमें सूत्र-मखमा १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ; २-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति १.५७७ से 'त का लोर और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रारम्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में अंग के अन्त में स्थित हरव स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' को शाति होकर रहुषई रूप सिद्ध हो जाता है। हस्तानामित मुखी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हत्थुन्नाभि अ-गुही होता है । इस में सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त के स्थान पर '' की प्रापि; २.८ से प्रात 'थ' का द्वित्व 'थथ की प्राधि, २.६० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्तिः १-८४ से दोघं स्वर 'ओ' के स्थान पर 'आगे संयुक्त व्यञ्जन 'ना' का सद्भाव होने से द्वस्व स्वर 'ड' की प्राधि; १.९७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हस्शुन्नार्मिअ-मुही सिद्ध हो जाता है। ताम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त स्वीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप 'पं. होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में नालिंग में 'गा' अंग रूप को आदेश-प्राप्ति; ३-३६ से प्राप्तांग णा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर 'पागे द्वितीया एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' ह्रस्व 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४८ ] 69400 * प्राकृत व्याकरण 90000000०००० ***** प्राप्तांग 'ण' में संस्कृतिीय प्रत्यय 'म्' के समान ही प्राकृत में भी 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राम प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृतिीय स्त्रीलिंग रूप ' सिद्ध जाता है। त्रिजटा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त खोलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप तिखडा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ ''त्रि' में स्थित 'र' का लोप १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'लू' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सिस्' का प्रकृत में लोप होकर तिभा रूप सिद्ध हो जाता हैं । सेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप रोग होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर 'ण' अंग रूप की आदेश प्राप्ति ३-१४ से प्रप्तांगण में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया एकवचन चोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' को प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग '' में तृतीया विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' श्रादेश की प्राप्ति होकर प्राकृतीयरूप योग सिद्ध हो जाता है। 'भाण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९३ में की गई है। 'तो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ ६७ में की गई हैं। '' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है । कर-तल स्थिता संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप करन्यज-द्विआ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१७७ से प्रथम 'तू' का खोप १-१५० से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'ट्' को प्रदेश प्राप्ति २६ से प्राप्त '' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ११७७ से द्वितीय 'तू' का लोप होकर कर-यलडिआ रूप सिद्ध हो जाता है । भणि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९३ में की गई है। 'च' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४ में की गई है। तया संस्कृत तृत्तोया एकऋचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप गाए होता है। इसमें सूत्र- संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'सद्' स्थान पर स्त्रीलिंग-अवस्था में प्राकृत 'णा' अंग की प्रदेश-प्राप्ति और ३ २६ में प्राप्तांग 'णा' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर पाए रूप सिद्ध हो जाता है। में है Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१४६ ] +000000006%erroroot000000000000000000skriods0000000000000000000 तैः संस्कृत तृनीया बहुवचनान्त पुस्जिग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णेहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत मर्वनाम 'तद्' के स्थान पर पाकृत में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३.१५ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'श्रागे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३.७ से प्राप्तांग रणे' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मित्र' के स्थान पर प्राकून में हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हि रूप सिद्ध हो जाता है। 'कर्य कर की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। ताभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त स्रोलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप णाहिं होता है। इसमें सूत्र-संखया ३-७० से मूज संस्कृत मवनाम 'तदु' के स्थान पर प्राकत में पुल्लिंग में 'ण' जंग रूप की प्राप्ति; ३.३२ से एवं २-४ के निर्देश से पुर्तिलगत्व से स्नालिंगत्व के निर्माण हेतु 'पा' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'णा' अंग का सद्भाव; और ३- से प्राप्तांग 'णा' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय को प्राप्ति होकर पाई रूप सिद्ध हो जाता है। 'कर्य' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६ में की गई है। ३-७० ।। किमः कात्र-तसोश्च ।। ३-७१ ॥ किमः को भवति स्यादौ । तमोश्च परयोः । को। के । कं । के । केख ॥ १ । कस्थ ॥ तम् । कश्रो । कत्तो ! कदो ॥ ___ अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम 'किम्' में संस्कृतीय प्राप्तव्य विभकिल बोधक प्रत्ययों के स्थानीय प्रोकृतीय विभक्ति बोधक प्रत्ययों के परे रहने पर अथवा स्थान वाचक संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय त्रप' के स्थानीय प्रकृतीय प्रत्यय 'हि-हस्थ' प्रत्ययों के परे रहने पर अथवा सम्बन्ध-सूचक मंस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'तस' के स्थानीय प्राकृतीय प्रत्यय 'ती अथवा दो' प्रत्ययों के परे रहने पर 'किम्' के स्थान पर पाकत में 'क' अंग रूप की आदेश पारित होती है । विभक्ति-बोधक प्रत्ययों से संबंधित उदाहरण इस प्रकार हैं:-क:- को; के = के; कम् = कं; कान्–के और फेन = कण इत्यादि। 'त्रप' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण यों हैं:-कुत्र-कत्थ अथवा कहि और कह । 'तम' प्रत्यय * उदाहरणः--फुतः-कश्रो; कत्तो और कदो । 'को' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.१९८ में की गई है। 'के' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५८ में की गई है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५. ] *प्राकृत व्याकरण * ++++++49499$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 'क' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 1 में की गई है। कान संस्कन द्वितीया यहुवचनान्त पुल्लिा सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप के होता है । इस में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकन में 'क' अंग रूप की प्रादेश-प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्ताः 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'पागे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव हाने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्तांग 'के' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय भाप्तव्य प्रत्यय 'जम' का प्राफत में लोप होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कण' रूप की मिशि सूत्र-संख्या १४. में की गई है। 'कत्थ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २.१? में की गई है। कुतः संस्कृत (अव्ययात्मक) रूप है। इसके प्राकृत सप की, कत्तो और कदा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूच सस्तन सवनाम शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; १-१७७ से 'न्' का लोप और १-३७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए विसर्ग के स्थान पर 'श्रो' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप को सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'पत्तो' और तनीय रूप 'कदो' की मिचि सूत्र संख्या २-१६० में की गई है । ३.११॥ इदम इमः ॥३-७२ ॥ इदमः म्यादौ परे हम आदेशो भवति । इमो । इमे । इमं । इमे । इमेण ॥ स्त्रियामपि । इमा । . अर्थ:--संस्कन मर्वनाम शब्द इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति वोधक प्रत्यय परे रहने पा 'इमअंग रूप आदेश की प्राप्ति होती है । जैसे:-अयम = इमो; इमे = इमे; इमम् इम; इमान - इम अनेन-इमेण इत्यादि । वालिंग-अवस्था में भी 'इरम' शब्द के स्थान पर प्राकृत में 'इमा' अगर आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:-इयम् = इमा इत्यादि। ___ अयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिग मर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप इमो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३.७२ से मूल सं कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' अंग रूप को श्रादेश प्रारित और ३-२ से प्राप्तांग 'इम' में प्रथमा विमत के एकवचन में पुल्लिा में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यत्र 'सि के स्थान पर प्राकृत में 'डो-प्रो' प्रत्यय को आदेश-प्राप्ति होकर इमों रूप मिद्ध हो जाता है। हमे संस्कृत प्रथमा यहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमे होता है। इसमें 'इम' मंगरुप की प्राप्ति उपरोक्त (३-७२ के) विधान के अनुमार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५१ ] 1501601244 संप्राप्तांग इम' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्रत्यय की देश-प्राप्ति होकर इसे रूप सिद्ध हो जाता है। 'डे 'इ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८१ में की गई है। इमान्, संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमे होता है । इसमें 'इम' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त (३-०२ के) विधान के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'इम' में स्थित अन्त्य स्वर '' के स्थान पर 'आगे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्तांग 'इमे' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में संस्कृती प्रामस्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर इसे सिद्ध हो जाता है । * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित ********÷÷÷÷÷÷4 'इमेज' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६९ में की गई है। इयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमा होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम् के स्थान पर 'इम' अंग रूप की देश-प्राप्ति २-४ के निर्देश से प्राग 'इम' में पुल्लिंगश्व से स्त्री-लिगल के निर्माण हेतु 'श्रा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से प्रातांग 'इमा मे प्रथमा त्रिभक्ति के एकवचन मे संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिन्स्' का प्राकृत में लोप होकर इस रूप सिद्ध हो जाता है। २-७२ ।। पु-स्त्रियोर्न वायमिमिया सौ ।। ३-७३ ।। इदम् शब्दस्य सौ परे चयनित पुल्लिंगे इमिग्रा इति स्त्रीलिङ्ग प्रादेशो वा भवतः ॥ वायं कय वज्जो | इमिया वाणिअ-धूया । पचे । इमो | इमा | I अर्थ:-संस्कृत मर्वनाम 'इम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीन प्रत्यय 'सि' की प्रामि होने पर इदम + मि' के स्थान पर पुल्लिंग में 'श्रम' रूप की और सीलिंग में 'इमिश्रा' रूप की वैकनिक रूप से आदेश प्राप्ति हुआ करता है। जैसे- श्रथवा श्रयम् कृत कार्य:- अहत्रा अयं कयकता; यह पुल्लिंग का उदाहरण हुआ। जीलिंग का उदाहरण इस प्रकार है: -- इयम धाणिका दुहितादमिया वाशिअ धूआ । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पुल्लिंग में 'इदम्+ सि' का 'इम' रूप भी प्राकृत में बनेगा और स्त्रीलिंग में 'इयम्' का 'इमा' रूप भी बनता है। 'अहवा' अव्यय की सिद्धि सुत्र संख्या १-६७ में की गई है। अयस् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रय और इमो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-७३ के विधान से संस्कृत के समान ही 'अयम् रूप की आदेश प्राप्ति और १-२३ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर अर्थ रूप सिद्ध हो जाता है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५२ ] $44454440 * प्राकृत व्याकरण * ************* द्वितीय रूप 'मी' की सिद्धि सूत्र संख्या ३७२ में की गई है। कृत कार्यः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग विशेष रूप है इसका प्राकृत रूप कय-कज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से आदि स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्तिः १२७७ से 'तू' का जोपः १ १८० से लीप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति २४ से दीर्घ स्वर 'थ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २-८६ से प्रदेश प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृताय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'दोन प्रां' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कय कज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। इयम संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप मित्र और इमा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३७३ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'इयम्' के स्थान पर प्राकृत में 'मित्रा' रूप की प्रदेश-प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप 'इशंषा' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप 'हम' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-७१ में की गई है। afree gear संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप वाणि धूम्रा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-०७ 'हलन्त व्यञ्जन 'क' का लो१; १-१७० से 'य्' का लोन; २-१२६ से सम्पूर्ण शब्द 'दुहिता' के स्थान पर प्राकृत में धूआ रूप की देश-प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रायसिस' की अमि और (-११ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'सू' का लोप होकर वाणि-भूआ रूप सिद्ध हो जाता है । ३-७३ ।। रिंस - स्सयोरत् ॥ ३-७४ ॥ इदमः हिंसस्स इत्येतयोः परयोरद् भवति वा ॥ असि पत्रे इमादेोपि । इमसि । इमस्स । बहुलाधिकारादन्यत्रापि भवति । एहि । एतु आदि । एभिः । एषु । श्रभिरित्यर्थः ॥ अर्थ:-- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इम' के प्राकृत रूपान्तर में समीति के एकवचन में मध्य प्राकृतीय प्रत्यय हिंस' और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्राकृतीय प्रत्यय 'रस' के प्राप्त होने पर सम्पूर्ण सर्वनाम इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की वैकल्पिक रूप से प्राप्त हुआ करती है । जैसे:- 'रिस' प्रत्यय का उदाहरण- अस्मिन = अति अर्थात् इसमें और 'स' प्रत्यय का उदाहरण---अस्व=अरस अर्थात् इसका वैकल्पिक पक्ष का उल्लेख होने से पक्षान्तर में सूत्र संख्या ३-७५ के विधान से 'इम्' के स्थान पर 'इम' अंग रूप की प्राप्ति भी होती है। जैसे:--अस्मिन = इमसि अर्थात् इसमें और अस्य- इमस अर्थात इसका बहुलाधिकार से 'बम' के स्थान पर पुल्लिंग में 'ए' अंग रूप की Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित १५३ ] Poroscomroorkersorderwent orderedeodeserternationarrowonwrowonlor और सीलिंग में '' गरी भोपि देखी जाती है । जैसे:-भिः एहि अर्थात इनके द्वारा। स्रोलिंग का उदाहरण:--प्राभिः- श्राहि अर्थात इन ( त्रियां से Jषु-रसु अर्थात् इनमें । इन उदाहरणों में 'इत्म' के स्थान पर प्राकृत में '' अंगर को और 'या' अंगका उपलब्धि दृष्टिगोचर हो रही है। इसका कारण 'बहुलं' सूत्र ही जानना ।। अस्मिन संस्कृत मत्तमा एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अस्ति और इममि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३.७४ से 'इदम' शब्द के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति और ३-1 से सप्तमा विभक्ति के प्रवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि' के स्थान पर प्रातीय अंग रूप 'अ' म रिस' प्रत्यय की श्रादेश पारित होकर प्रथम रूप अस्सि सिख हो जाता है। द्विनीय रूप इमस्मि की सिद्धि सूत्र संख्या 3.80 में की गई है। अस्य संस्कृत पष्ठी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अस्स और इमस्त होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७४ से 'इदम्' शान के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'छस्' के स्थान पर प्राकृतीय अंग रूप 'अ' में 'रस' प्रत्यय को आदेश-प्राप्ति होकर प्रश्रम रूप अस्स सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(अत्य=) इमस्म में सूत्र संख्या ३-७२ से संस्कृतीय शब्द इदम्' के स्थान पर 'इम' अग रूप की प्राप्ति और ३-१० से प्रथम रूप के ममान हो 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप . इमस्स भी सिद्ध हो जाता है। एभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम का है। इसका प्राकृत रूप एहि होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७४ की वृत्ति से संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' श्रग रूप की प्राप्ति और ३-७ सं तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय भिम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्मय की प्राप्ति होकर एहि रूप सिद्ध हो जाता है। एषु संस्कृत मप्तमी बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है इसका प्राकृत रूप ए होता है। इसमें ६.७४ को वृत्ति से 'इसमके स्थान पर 'ए' अंग रूप की प्राप्ति और १-२६. से 'प' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर एम रूप सिद्ध हो जाता है। अभिः संस्कृन तृतीया बहुवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वचरम रूप है। इसका प्राकृत रूप पाहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७४ की वृति से मूल संस्कृत शब्द 'इझम' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिग में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति; ३-३२ और २.४ से पुस्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'अ' में 'मा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-७ से मृतोया विभक्ति बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिम' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आहि रूप सिद्ध हो जाता है। ३-७४ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५४] 44044448 इदमः कृते इमसि । इमम्मि || * प्राकृत व्याकरण * $*****4*40****** 45046444 ङो में न हः ॥ ३-७५ ॥ मादेशात् परस्य के स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति । इह | पक्षे | अर्थ :- संस्कृत सवनाम शब्द 'इदम् प्राकृत रूपान्तर में सूत्र संख्या ३-७२ से प्रामांग इम' में सममी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'द्धि' के माम होने पर मूलांग 'इस' में स्थित 'म' और 'कि' प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ह' की श्रदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:अस्मिन-इह अर्थात् इसमें अथवा इन पर वैकल्पिक पक्ष का सदुर्भाव होने से पतान्तर में 'अस्मिन् = इमस्सि और इमम्मि रूपों का अस्तित्व भी जानना चाहिए । 1 Į इम अस्मिन् संस्कृत सप्रमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनामरूप है। इसके प्राकृत और इमम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम् के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रंग रूप की प्राप्ति और ३-७५ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि' की प्राप्ति होने पर मूलांग 'इम' में स्थित 'म' और प्राप्त प्रत्यय 'कि' इन दोनों के स्थान पर 'ह' की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इह सिद्ध हो जाता है । ६० में की गई है। द्वितीय रूप इमसि' की सिद्धि सूत्र संख्या तृतीय रूप (अस्मिन् इमम्मि में 'इम' अरंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-विधानानुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'इम' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'जि' के स्थान पर प्राकृत में 'किम' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप इमम्मि भी सिद्ध हो जाता है । ३-७५ ।। न त्थः ।। ३-७६ ।। इदमः परस्य ङ: सिम्मि त्थाः (३-५६ ) इति प्राप्तः त्यो न भवति ।। इह । इमसि । इमम्मि || अर्थ:--सूत्र-संख्या ३५६ में ऐसा विधान किया गया है कि अकारान्त सर्वसव आदि सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि' के स्थान पर हिंसस्मित्थ' ऐसे तीन प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होती है; तदनुसार प्राप्तव्य इन तीनों प्रत्ययों में से अंतिम तृतीय प्रत्यय 'थ' की इस 'दम' सर्वनाम के प्राकृनीय प्राप्तांग 'इम' में प्राप्ति नहीं होती है। अर्थान 'धूम' में केवल उक्त तीनों प्रत्ययों में से प्रथम और द्वितीय प्रत्यय 'हिंस' और 'भिम' की ही प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मिन् इमस्सि और इमम्मि । सूत्र-संख्या ३-७५ के विधान से 'इम + डि' इह ऐसे तृतीया रूप का अस्तित्व भी ध्यान में रखना चाहिए । प Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 1000000rrestrisorsrwirowroinservatirrrrrrrrrrrrrrrrorscerns roosteron. 'इह' रुप को सिद्धि सूत्र संख्या ७५ में की गई है। इमारंस' की मिद्धि सूत्र-संख्या 350 में की गई है। 'इमम्मि रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-७५ में की गई है । ३.७६ ।। गोम्-शस्टा भिसि ॥ ३-७७ ॥ इदमः स्थाने अम् शस्टा भिस्तु परेषु ण आदेशो वा भवति ॥ स पेच्छ । णे पेच्छ । रणे ण । णेहि कयं । पक्षे । इमं । इमे । इभेण । इमेहि ।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राव्य प्रत्यय 'अम'; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शा'; तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा और सतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राज्य प्रत्यय 'भिम' के स्थानीय प्राकृतीय प्रत्ययों को प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'ण' अंग रूप को प्राप्ति हुआ करती है। यों संपूर्ण 'इदम्' शब्द के स्थान पर 'ग' अंरकर की प्रामि हो कर तस्य वात प्राकृनीय उक्त विमक्तियों स्थानीय प्रत्ययों की योजना होता है । जैसे: - इभम् पश्य-ग पेच्छ अर्थात इसको देखो। इमान पश्य-शे पेच्छ अर्थात् इनको देखो । अनेन - गणेगा अर्थात इसके द्वारा। एभिः कृतम् = गोहि कयं अर्थात इनके द्वारा किया गया है। थे उदाहरण कम से द्वितीया और तृतीया विभक्तियों क एकवचन के तथा बहुवचन के हैं । वैकल्पिक पक्ष का सदभाव होने से पन्नास्तर में मं' के साथ 'इम'; 'गे' के साथ इमे'; 'ण' के साथ 'इमेण' और 'हो है' के माथ 'इमेह रूपों का मनुभाव भी ध्यान में रखना चाहिये । इमम् संस्कृन द्वितीया एकवचनान्त पुर्तिलग मर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत कर 'ण' और इम झोल है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-६ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इनस' के स्थान पर 'ण' अंग रुप को प्राति ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त मत्व म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्त होकर प्रथम रूप ' सिद्ध हो जाता है। हिनीय रूप 'इमं की सिद्धि सूत्र-पंख्या 2-07 में की गई है। छ' क्रियापद रूप की सिद्धिसूत्र-संख्या १-में की गई है। इमान मंस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त पुल्जिाम सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप 'णे' और इसे होते हैं। इनमें से प्रश्रम रूप में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त रोनि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३.१४ से प्राप्तांग 'क' में स्थित अन्त्य स्वर '' के स्थान पर 'श्राने द्वितीया विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का मभाव होने से' 'द' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति कं बहुवचन में संस्कृतीय स्तम्च प्रत्यय 'शस का प्राकृत में लोप होकर प्रथम रूप 'णे' सिद्ध हो जाता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५६ ] *प्राकृत व्याकरण * द्वितीय रूप 'इमे' की सिद्धि सूत्र-संख्या 8-97 में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १3 में की गई है। अनेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुस्लिग सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप णण' और 'इमेज' होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त ति अनुसार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे हनीया विभक्ति एकवचन के प्रत्यय का सदुभाव होने से Q' को प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग रणे' में नताया विभक्त के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रुप 'गेण सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'इमेण' की मिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है। एभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है इसके प्राकृत रूप हि और 'इमेहि' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'ण' श्रग रूप की प्राप्ति उपरोक्त रीति-अनुसार; तत्पश्चात् सत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'आगे नतम्या विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से प्राप्तांग ‘णे' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में हिं प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गाह' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(एभिः-) इमेहि में सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शमन 'इम' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' अंग रूप की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान हो सूत्र-संख्या ३-१५ एवं 1-5 से प्राप्त होकर द्वितीय रूप 'इमेहि भी सिद्ध हो जाता है। कयं क्रियापन रूप की सिदि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है । ३-७४ ।। अमेणम् ॥ ३-७८ ॥ इदमोमा सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति ।। इणं पेच्छ । पहे। इमं । अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के द्वितीश विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग प्रायव्य प्रत्यय 'अम्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'इमम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रूप की अादेश-प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । इसमें यह स्थिति बतलाई गई है कि- 'इदम् शब्द और अम प्रत्यय' इन दोनों के स्थान पर 'इणम्' रूप की आदेश प्राति वैकल्पिक रूप से हुश्रा करती है, जैसे:-इमम् पश्यइण पेच्छ अर्थात् इसको देखो। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पनान्तर में इमम् का प्राकृत रूप 'धर्म' भी होता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [१५७ ] 000000000000restrost000000000wors000000000000000000000000000000r. इमम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप इणं और इमं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूर-संख्या ३-७८ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'इमम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इणं' रूप की आवेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप इणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप इम की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है। 'येच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १३ में की गई है।३-७८ ।। क्लीबे स्यमेदमिणमो च ॥ ३-७६ ॥ नमक लिङ्ग वर्तमानस्येदमः स्यम्भ्यां सहितस्य इदम् हणमो इणम् च नित्यमादेशा भवन्ति ॥ इदं इमामो इर्ण धणं चिट्ठा पेच्छ वा || अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम नपुसकलिंग शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'इदम्' और मुक्त प्रत्यय, इन दोनों के स्थान पर नित्यमेव कम से 'इदम्, इणमो और इणं' ये तीन श्रादेश रूप हुश्रा करते हैं । यो प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति दोनों के एकवचन में समान रूप से 'इदम्' के नपुसकलिंग में उक्त तीन तीन रूप होते हैं । ये नित्यमेव होते हैं; वैकल्पिक रूप से नहीं। उदाहरण इस प्रकार है:-इदं अथवा इणमो अथवा इणं धर्ण चिट्ठइ = इदम धनम् तिष्ठति अर्थात् यह धन विद्यमान है। इदं अथवा इणमो अथवा इणं धनम् पश्य अर्थात इस धन को देखो । उक्त उदाहरण क्रम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के एकवचन के द्योतक हैं। इडम् संस्कृत प्रथमा-द्वितीया एकवचनान्त नपुंसकलिंग सर्वनाम रूप है । इसके (दोनों विभक्तियों में भमान रूप से) प्राकृत रूप इदं, इणमो और इणं होते हैं। इन तीनों रूपों में सूत्र-संख्या ३-७५ से मूल संस्कृत शब्द 'इम्' और प्रथमा द्वितीया के एकवचन में कम से प्राप्तव्य संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' और 'अम्' सहित दोनों के स्थान पर कम सं नित्यमेव 'इदं, इणमो और इणं' रूपों की (प्रत्यय साहत) आदेश-प्राप्ति होकर ये तीनों रूप इदं, इणमो और इण सिद्ध हो जाते हैं। 'धणं रूप. की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। 'चिट्ठइ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१९९ में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-१३ में की गई है । ३-७६ ।। किमः किं ॥ ३.८० ।। किमः क्लीवे वर्तमानस्य स्यम्म्यां सह किं भवति । किं कुलं तुह । किं किं ते पडिहाइ ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८ ] *प्राकृत व्याकरण * +00++roposal kondookatarans000000000000000000000+konths0000000000000 अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम नपुंसकलिंग शब्द 'किम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'मि' प्रत्यय आम होने पर और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'किम' और उक्त प्रत्यय. इन दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'किं' आदेश हर की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि 'किम् + मि' का प्राकृत रूपान्तर "f' होता है । और 'किम + अम्' का प्राकृत सनरी 'कि' शेतः है असा द्वितीया सन विभक्तियों के एकवचन में समान रूप से ही प्रत्यय सहित मूल शब्द 'किम' के स्थान पर 'कि' रूप की प्राकृत में नित्यमेव आदेश-प्रानि होती है । जैसे:किम कुलम् तब-किं फुल तुह अर्थात तुम्हारा क्या कुल है ? (तुम कौन से कुल में उत्पन्न हुप हो ? ) यह उदाहरण प्रथमा एकवचन वाला है। किम किम् ते प्रति भाति = f: किं ते पडिहाइ ? तुम्हें क्या क्या मालूम होता है ? यह उदाहरण द्वितीया के एकवचन का है। किम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त नपुंसक लिंग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप 'कि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर शरद सहेत प्रत्यय के स्थान पर f' रूप की नित्यमेव प्रादेश प्राप्ति होकर किं रुप सिद्ध हो जाता है। 'फुलं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.३३ में की गई है। 'तव' संस्कृत षष्ठो एकवचनान्त पुल्लिग मनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप 'तु' होता है। इसमें सत्र-संख्या ३-6 से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद् में संयोजित षष्ठी एकवचन बाधक संस्कृतीय प्रत्यय 'हस-प्रस' के कारण से प्राप्त रूप 'तव' के स्थान पर प्राकृत में 'तुह' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'तुह' रूप सिद्ध हो जाता है। ___किम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुसक जिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कि' होता है । इसमें सूत्र-सख्या ३-८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्न 'किम्' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय का संयोजना होने पर शब्द सहित प्रत्यय के स्थान पर 'कि' रूप को नित्यमेव आदेश प्राप्ति होकर किं रूप सिद्ध हो जाता है। ___'ते संस्कृत चतुर्थी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राक्त प भी 'ते' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.६६ से मूल सं कृत शब्द 'युष्मद् में संयोजित चतुर्थी एकवचन बोधक संस्कृतीय प्रत्यय '' के कारण से मंकृतीय श्रादेश प्राप्त रूप 'ते' के स्थान पर प्राक्त में भी रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१३१ चतुर्थी-षष्ठी की एक रूपता प्राप्त होकर प्राकृतीय रूप 'ते' सिद्ध हो हो जाता है। प्रतिभाति संस्कृत कियापर रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहाइ होता है। इसमें सूत्र संख्या २.5 से 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'इ' को प्राप्तिः १-१८७ से भ' के मान पर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ******$46000 [ १५६ ] 1000000866 'ह' की प्राप्ति और ३०१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय का प्राप्ति होकर पडिहार रूप सिद्ध हो जाता है । ३-८० ॥ वेद - तदेतदो सम्भ्यां से सिमौ ॥ ३८१ ॥ I इदम् त एतद् इत्येतेषां स्थाने ङस् आम् इत्येताभ्यां सह यथासंख्यं से सिम् इत्यादेश वा भवतः । इदम् । से सीलम् । से गुणा । अस्य शीलं गुणा बेत्यर्थः ॥ सिं उच्छाहो। एषाम् उत्साह इत्यर्थः । तद् | से सौलं । तस्य तस्या वेत्यर्थः ॥ सिं गुणा । तेषा तासां बेत्यर्थः ॥ एतद् । से अहि । एतस्याहितमित्यर्थः ॥ सिं गुणा । सिं सीलं । एतेषां गुणा ! शीलं वेत्यर्थः । पते । इमस्स | इमेसि । इमाय || तस्स | तेर्सि | तारा || एस्स । एएसि । एआय । इदं तदोरामापि से आदेशं कश्विदिच्छति ॥ अर्थ :-- संस्कृत सर्वनाम शब्द बदम्, तद् और एतद्' प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सू' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' की संयोजना होने पर मूल वक्त शब्दों और प्रत्ययों, दोनों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'से' रूप की तथा 'सिम' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है: का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप (1) इदम्+ स (२) इदम् + आम् (३) तद् + इस (४) तद् + उस (५) तद् + श्राम् (६) तद् + थाम् (७) एतद् + उ (८) एतद् + आम् " - = R K Oc ( अस्य ) ( एषाम् ) ( तस्य ) (स्त्रीलिंग में तम्बाः) (ताम् ) (स्वीलिंग में तासाम्) ( एतस्य= ) ( एतेषाँ = ) 33 31 P4 . 11 PI " 13 " " از " . ا. 11 " 91 W IP " " " " " 34 " 13 'से' । 'सिं' | 'से' । 'से' | 'सिं' | 'से' । 'से' । सिं' | इस प्रकार शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर उक्त रूप से 'से' अथवा 'सिं' रूपों को षष्ठी विभक्ति एकवचन में एवं बहुवचन में कम से तथा वैकल्पिक रूप से प्रदेश-प्राप्ति हुआ करती है। क्वात्मक उदाहरण इस प्रकार है-- 'इदम्' से संबंधितः - अस्य शीलम् से सील अर्थात् इसका शीलधर्म स्व गुणाः = गुणा अर्थात् इसके गुण-धर्म; एषाम् उत्साहः सिं उच्छाहो अर्थात इनका उत्साह | 'सद्' से संबंधितः तस्य शीलम् - से सील अर्थात् उसका शील-धर्म: तस्याः शीलं = से सीलं अर्थात् (त्री) का शील-धर्म; तेषाम् गुणा:-सिं गुणा- उनके गुण-धर्म; तासाम् गुणा: सिं गुणा अर्थात् उन (त्रियों) के गुणधर्म | 'एतद्' से संबंधितः एतस्य वहितम् = से महिषं अर्थात् इसकी हानि अर्थात Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६० ] 994 * प्राकृत व्याकरण श्रहित; एतेषाम् गुणा-सिं गुणा अर्थात् इनके गुण-धर्म और एतेषाम् शीलम् = सिं सील अर्थात् इनका शील-धर्म | इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि 'इदम् तद् और एतद्' सर्वनामों के षष्ठो विभक्त के एकवचन में समान रूप से 'से' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी समान रूप से सिं' रूप की देश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष को सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'इदम् तद् और एतद्' के जो दूसरे रूप होते हैं; वे एकवचन और बहुवचन में क्रम से इम प्रकार हैं: - इदम् के ( अस्य = ) इमस्त और (एषाम् ) इमेि और इमाण । तद् के ( तस्य= ) तरस और ( तेषाम् ) तेर्सि और ताण । एतद् के ( एनश्य= ) एहस और ( एतेषाम् = } पर्सि और एषाण । कोई कोई व्याकरण-कार 'इदम' और 'तद्' सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी एकवचन के समान ही 'मूल शब्द और श्रम्' प्रत्यय के स्थान पर 'से' आदेश प्राप्ति मानते हैं । इन व्याकरण-कारों की ऐसी मान्यता के कारण से षष्ठी विभक्ति के दोनों वचनों में 'शब्द और प्रत्यय के स्थान पर' 'से' रूप की प्राप्ति होकर एक रूपता' का सद् भाव होता है । अस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप से और इमस्ल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप अस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'सें' रूप की देश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप से सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'हमस्य' की सिद्धि सूत्र संख्या ९७४ में की गई हैं। शीलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सील होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसक लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सील' रूप सिद्ध हो जाता है । गुणाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गुणा होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१२ से मूल अंग 'गुण' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृती प्राप्तम्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप होकर गुणा रूप सिद्ध हो जाता हूँ । एवम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप निं', 'इमेसिं' और 'इमान' होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ६-८१ से सम्पूर्ण रूप 'पाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सिं' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय और तृतीय रूप 'इमे तथा इमाण' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-६१ में की गई हैं। 'अच्छा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६१ ] 666548800 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित तस्य संस्कृत पुल्लिंग पठी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप से' और तर होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'तथ्य' के स्थान पर प्राकृत में '' रूप का आदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप से' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप 'तस्' की सिद्धि सूत्र संख्या २-९८६ में की गई है। 'सी' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है । तेवा संस्कृत षष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिं', 'मिं' और 'ताण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'तेषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भिं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तेसिं की सिद्धि सूत्र संख्या ३-३१ में की गई है। तृतीय रूप 'ताण' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-३३ में की गई है। "गुण" की सिद्धि इसी सूत्र से की गई। 'एतस्थ' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'से' और 'एअरस होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-८१ से संपूर्ण रूप 'एतस्य' के स्थान पर प्राकृत में ' से ' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'से' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप ( एतस्य ) एम्स में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एलद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दू' का लोप; १-१७० से 'तू' का लोप और ३-१० से प्रामांग 'एम' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामन् प्रत्यय 'छस् = अस्स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रुप' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'एस्स' की सिद्धि हो जाता है। अहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अहिष्नं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७५ से 'तू' को लोप; ३००५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृती प्राप्तभ्य प्रत्यस्म 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति और १०२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर आकृतीय रूप अहि सिद्ध हो जाता है । एतेषाम् संस्कृत पष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'लिं' और 'एएस' तथा 'एआय' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३८१ से संपूर्ण रूप 'एतेषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की प्रदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सि' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप 'एएसें' की सिद्धि सूत्र संख्या ३१ में की गई है। तृतीय रूप 'एआण' की सिद्धि सूत्र संख्या १६१ में की गई हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६२ ] ***** * प्राकृत व्याकरण * गुणा रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'सी' रूप को सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 64646644444444 वैतदो उसे स्तो ताहे ॥ ३-८२ ।। एतदः परस्य इसे: स्थाने तो ताहे इत्येतावादेशौ वा भवतः । एत्तो । एत्ताहे । पचे । एखाओ | एउ। पचहि । एवाहिन्तो । एमा ॥ 1 अर्थः - संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन संस्कृती प्राप्तस्य प्रत्यय 'इस् अस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ( एवं क्रम से) तां और चाहे ' प्रत्ययों की देश-प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :- एतस्मात् = एत्तो और एताहे । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में निम्नो पाँच रूपों का सद्भाव और जाननाः -- ( एतस्मात् = ) एमओ, एवा एहि, एहिन्ती और एचा अर्थात इससे । एतस्मात् संस्कृती एकवचन एल्गिन रूप 'एल, एस. आओ, एउ, एहि, एश्राहितो और एच्चा होत हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या १-११ मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'दू' का लोप ३८३ से 'न' का लोप और ३-५२ से प्राप्तांग 'ए' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय अमि=अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से ' से और ताछे' प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होकर कम से प्रथम दोनों रूप 'एतो और एत्ता हे सिद्ध हो जाते हैं। शेप पांच रूपों में ( एतस्थात ) एमओ, एश्राउ, एग्राहि, ए पाहिलों और एम' में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्य हलन्त व्यञ्जन 'ट्रू' का लोप; १-१७७ से 'तू' का लोप ३-१२ से प्राप्तांग 'ए' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'का' के स्थान पर आगे पंचमी विभ के एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्त और ३-६ से प्राप्तांग 'आ' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इसिश्रम' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'ओ, उ, हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर क्रम से पांचों रूप एमओ, एआउ, ए, एआहितो और एज' रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३-८२ ॥ त्थे च तस्य लुक् ॥ ३ ८३ ॥ एतद स्त्थे पर चकारात् तो चाहे इत्येतयोथ परयोस्तस्य लुग्भवति । एत्थ । एतो। एताहे ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 1000000000000rsonosso000+deokokar+00000000000000000000000000000000000 ___ अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' में स्थित संपूर्ण व्यञ्जन 'त' का 'स्थ' प्रत्यय और 'तो, ताहे' प्रत्यय परे रहने पर नित्यमेव लोप हो जाता है। जैसे:-एतस्मिन् एत्थ । एतस्मात-एत्ता और एत्ता । एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप पस्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शठन 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३.८३ से 'त' का लोप और ३-५६. से प्राप्तांग 'ए' में सप्तमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'स्थ' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'पत्थ' सिद्ध हो जाता है। एत्तो और एत्ताह रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या -7 में की गई है। ३.८३ ॥ एरदीतौ म्मौ वा ॥ ३.८४॥ एतद एकारस्य स्थादेशे म्मौ परे भदीतौ वा भवतः ॥ अयम्मि । ईगम्मि । पक्षे । एअम्मि । अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द सद्' के प्राकृत-रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'वि' के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय 'म्मि' पो रहने पर मल शब्द 'एतद्' में स्थित 'ए' के स्थान पर हरिक रूप से तथा प्रा से 'अ' और 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-पताम्मन-प्रयाम्म अथवा ईम्मिा कल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में एअम्मि रूप का भी सद्भाव भ्यान में रखना चाहिये । एतस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अचम्मि, यस्मि और एअस्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या १-१९ से मल संस्कृत शब्द 'एतदु' में स्थित अन्य हलन्त व्याखन 'द' का नया १.१७७ से 'सु' का लोपः १-१८० से लोप हुये 'त' के पाश्चात्त शेष . रहे हुये 'न' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-८४ से आदि 'ए' के स्थान पर क्रन से और वैकल्पिक रूप से 'अ' अथवा ' की प्राप्ति; और ३११ से कम से प्राप्तांग 'अय' और 'ईय' से सप्तमी विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीव प्राप्तन्य प्रत्यय कि-ई' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर फम से तथा वैकल्पिक रूप से प्रथम शेनों रूप अयाम और ईयम्मि सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप(पतस्मिन् =) एम्मि में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद् में स्थित अन्त्य हत्तन्त पवन 'ई' का लोप: १-१७७ से 'त' को लोप और ३.११ से प्राप्तांग 'एन' में सप्तमी विभकि के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि =ह' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेशराप्ति होकर वृतीय रूप एअम्मि भी सिद्ध हो जाता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] *प्राकृत व्याकरणा * •oroneensorrometowroteoroorrearresosorrrrrrorkersorriorterstion वै सेण मिणमो सिना ।। ३-८५ ।। एतदः सिना सह एस इणम् इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति ॥ सव्वस्स वि एस गई । सव्वाण वि पत्थियाण एस मही ॥ एस सहाओ चित्र ससहरस्स !! एस सिरं । इणं । इणमो । पक्षे । एअं । एसो । एसो ॥ अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' को संयोजना होने पर मूल शब्द 'एतद' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से (एवं क्रम से) 'एम, इणं और इणमो' उन तीन रूपों की श्रादेश-प्रानि हुया करती है। एतद् +सि = (प्राकृत में) एस अथवा इणं अथवा इणमो; दम प्रकार इन तीन रूपों की वैकल्पिक रूप से श्रादेश-प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:-सर्वस्यापि एषा गतिः सम्बास वि एस गई अर्थात सभी की यह गति है। सर्वेषामपि पार्थिवानाम् एषा मही = सव्वाण विपस्थिवाण एस मही-अर्थात् सभी औदारिक शरीर धारो जीवों की यह पृथ्वी है । एषः एव स्वभायो शशधरस्य - एस सहाओ चित्र ससहरस्स अर्थात् चन्द्रमा का यहो स्वभाव है । एतद् शिर: एम सिरं अर्थात यह शिर है । इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि प्राकृत में 'एस' प्रथमा एकवचनान्त सर्वनाम रूप तीनों लिंगों में समान रूप से एवं वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त हुश्रा करता है। यही स्थिति 'एतद + सिपूर्ण और इणमो रूपों को भी समझ लेना चाहिये। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होन से पक्षान्तर में 'एतद्' शब्द के तीनों लिंगों में 'सि' प्रत्यय की संयोजना. होने पर इस प्रकार रूप बनते हैं: नपुंसक लिंग में:-एतद् + सि-एतद् = एअं । बीजिंग में:-एतद् + सि = एषा = एसा । पुल्लिंग में:-तद् + सिन् एषः = एसो । 'सव्वस्स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.५८ में की गई है। 'वि' अव्यय की मिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। 'एस' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'गई' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९५ में की गई है। सर्वेषाम् संस्कृत षष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप सव्वाण होता होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २.८६ से लोप हुये 'र' के पश्चात शेष रहे हुये 'व' को द्वित्व 'व' की प्राप्तिः ३-१२ से प्राप्तांग 'सव्य' में स्थित अन्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६५ ] •ormirat porminedoisxeiversips o f worstoorvostoriesrooooom हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठो बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाष होने से' 'श्रा' की प्राप्ति और ३.६ से प्रामगि 'सव्वा में षष्टी विमक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'सवाण' सिद्ध हो जाता है। 'वि' अमय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। पार्थिवानाम संस्कृन षष्ठो बहुवचनान्त विशेषण रु.प है। इसका प्राकृत रूप पस्थिवाण होता है। इसमें सूत्र-सख्या ५-८४ से 'पा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-L. से '' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए, 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्ष 'थ' के स्थान पर 'त' को प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्तांग 'पस्थिव' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के 'धागे षष्टी बहुवचन-बाधक प्रत्यय का सद्भाव होने सं' 'श्रा' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'पस्थिवा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'पस्थिवाण' सिस हो जाता है। एषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप एस (भी) होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-८४ से संपूर्ण रूप 'एषा' के स्थान पर 'एस' की (वैकलिपक रूप से) श्रादेशप्रालि होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है। __ महिः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्रीलिंग संता रूप है। इसका प्राकृत रूप मही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३.१६ से प्रथमा विक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्रव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मही रूप सिद्ध हो जाता है। 'एस' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। स्वभाषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप सहाको होता है। इममें सूत्र-संख्या ५-७६ से प्रथम 'च' का लोप: १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व' का लोप और ३-7 से प्रातांग सहा ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'दो = श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सहामो रूप सिद्ध हो जाता है। "चिवा' अव्यय की सिदि सूत्र-संख्या ?-८ में की गई है। शधरस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिग संज्ञा रूप है । इसका प्राकृत रूप ससहरस होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२६० से दोनों 'शकारों के स्थान पर दोनों 'सम' की मारित; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति और ३-१० से प्राप्तांग 'ससहर' में षष्ठा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'इस अस-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स' की प्राप्ति होकर ससहरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६६ ] *प्राकत व्याकरण* 'एस' विशेषण रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'सिरं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 1-37 में की गई है। 'इणं' रूप की सिद्धि मूत्र संख्या F-२०४ में की गई है। एष: संस्कृत प्रथमा पकवचनान्त मयनाम प है। इसका प्राकृत रूप इणमो भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.८५ से “एर' के स्थान पर 'इणमो की श्रादेश-प्राप्ति कोल्पक रूप से) हो र इणमो रूप सिद्ध हो जाता है । 'ए' रूप का मिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है । 'एसा रूप की सिद्धि सूत्र-मख्या १-३३ में की गई है। 'एसी' की सिद्धि मत्र संख्या २.११8 में की गई है। ३.८५ ॥ तदश्च तः सो क्लीचे ॥ ३-८६ ॥ तद एतदश्च तकारस्य सो परे अक्लीचे सो भवति । सो पुरसो । सा महिला। एसी पियो । एसा मुद्धा । सावित्येव । से एए धन्ना । नायो एमाओ महिलाओ । अन्कीच इति किम् । तं एअं वर्ण । ____ अर्थः-संस्कृत मर्वनाम शब्द 'सन् और एतद् के पुलिंदा अश्रय वानिन में प्रथगा बिभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय पर रहने पर प्राकृत-पास्तर में इन दोनों शादी में ग्थिन पृण व्यञ्जन त' के श्रान पर 'म' को प्रानि हैनी है । बाहरण इस प्रकार है:( सट् +मि = )मः पुरुषःम्सी पुरिमा और ( i) मा महिला मा महिला । (एत +सि = ) एष: नियः = सलो पिया और (एतद् + सि = ) १षा मुग्धामा मुद्धा। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि 'त' और 'एतद् के प्रथमा विमा कं प्रकवचन में प्राकृत में पुलिंग और स्त्रीलिंग में 'त' के स्थान पर 'म' की श्रादेश-प्रापि हुई है। प्रश्न:-'सि' प्रत्यय परे रहेने पर हो तद' और 'एनट्' के 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'म' की भाभि होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः--'मि' प्रत्यय के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्रानि होने पर 'न' और 'गतद्' में स्थित 'न' व्यञ्जन के स्थान पर 'म' की प्राप्ति नहीं होती है। इसीलिये 'मि' प्रत्यय का उल्ख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार हैं: -ले एते धन्याः ते पर धन्ना और ताः एमाः महिला:-ताश्री पाश्री मरिलाओ। इन उदाहरणों से विदिन होता है कि 'न' और 'एसद्' शब्दों में 'सि' प्रत्यय के अतिरिक्त अभ्य प्रत्यय परे रहे हुए हो ना इनमें थित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' व्यञ्जन की श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है। . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६७ ] Moonsetorrearrketressorrorobretorono.00000maroorkersona0000000000oor प्रश्नः-पूत्र में वर्णित-विधान में 'नपुसकलिंग' का निषेध क्यों किया गया है ? उत्तरः---नमकलिंग में 'सद्' और 'एनद्' शब्द में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर भी प्राकृत *.पान्तर में 'त' व्यन्न के स्थान पर 'स' व्यञ्ज । की आदेश प्रानि नहीं होती है, इसलिये 'नमकलिंग' या निषेध किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है.--तत एतत वनम् = तं एवणं अर्थात यह वही वन है । इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि केवल पुल्लिंग और ब्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ही 'नद्' और 'एनद्' के प्राकृत रूपान्तर में 'त' के स्थान पर 'सि' प्रत्यय परे रहने पर 'स' की प्राप्ति होता है; अन्यथा नहीं। 'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। 'पुरिसो' रूप की मिद्धि मूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'सा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। 'महिला' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.३४ में की गई है। 'एसो' कप की मिद्धि सूत्र संख्या -११६ में की गई है। 'पिओ' रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-४२ में की गई है। एगा'प की सिद्धि मूत्र संख्या १3 में की गई है। 'मुद्धा' रूप की सिद्धि मूत्र संख्या ३.९ में की गई है। में रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.५८ में की गई है। .!ए' मा की मिद्धि सूत्र संख्या ३.४ में की गई है। 'धन्ना' रूप का सिद्धि सूत्र-संख्या :-१८४ में की गई है। 'नाः' मन प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीजिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इममें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'नंद' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३१ और .४ के निर्देश से प्रारंम 'ते' में पुल्लिगाय से स्त्रीनिंगत्व के निर्माण हेतु 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२६ से प्राशंग 'ता' में प्रथमा विक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रातव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ताओ' रूप सिद्ध हो जाता है। एताः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप एआयो होना है। इसमें सूत्र-संख्या १.११ से मूल संस्कृन शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन द्' को लोप ९.१७७ से 'त' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'ए' में पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगख के Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६८ ] *040000 निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२७ से प्राप्तांग 'ए' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'जय' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय का प्राप्ति होकर एमों का सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * महिला संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है इसका प्राकृत रूर महिलाओ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२७ से मूल रूप 'महिला' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महिलाओ रूप सिद्ध हो जाता है। 'तं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। 'एम' रूप की सिद्ध सूत्र संख्या १२० में की गई है। 'वर्ण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है । ८६ ।। वादसदस्य होनोदम् ॥ ३-८७ ॥ अदसो दकारस्य सौ परं ह यादेशो वा भवति तस्मिंश्च कृते श्रतः सेड (३३) इत्यत्वं शेर्पा संस्कृत वत् (४-४४८) इत्यतिदेशात् आत् हे० २-४ ) इत्याप् क्लीचे स्वरान्म से: (३-२५) इतिमश्च न भवति । अह पुरियो । अह महिला । अह व अह मोहो पर-गुण- लहुअयाइ || अह ये हिश्रएण हसइ मारुय तणओ | असावस्मान् हसतीत्यर्थेः । कमल-मुही | पत्रे | उत्तरेण मुरादेशः । अमू पुरिसो । अमू महिला । अवणं ॥ अर्थः - संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के तोनों लिंगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' परे रहने पर प्राकृत रूपान्तर में प्राप्त प्रत्यय मि' का लोप उस समय में हो जाता है जब कि मूल शब्द 'श्रदस्' में स्थित 'द' के स्थान पर 'ह' श्रादेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप सं होती है; इस प्रकार तीनों लिंगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में समान रूप से दस का प्राकृ मैं 'अह' रूप वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। इस विधान से पुल्लिंग में सूत्र संख्या ३.३ प्राप्तव्य प्रत्यय 'डो=ओ' की प्राप्ति भी नहीं होती है; ४-४४ और २-४ के निर्देश से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'अस' में 'आ' प्रत्यय का सद्भाव भी नहीं होता है एवं ३ २७ से नपुंसकलिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' की संयोजना भी नहीं होती है; यो तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'अदस्' का 'अह' रूप ही जानना । उदाहरण इस प्रकार है: -- असौ पुरुष: पुरियो अर्थात् वह पुरुष असौ महिला - अह महिला अर्थात् वह स्त्री और श्रदः वनम् = अह वणं अर्थात वह जंगल | यो यह ज्ञात होता है कि 'अदस्' के तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'यो का 1 I # Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १६६ ] 00000000000000000000 0000000 करती है। और म' प्रत्ययों की 'अदर्शन स्थित होकर एक ही रूप 'अह' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप इस विषयक अन्य उदाहरण इस प्रकार है: - असो मोहः पर-गुण लध्वयाते = अह मोहो पर-गुणलहुश्रयाइ-वह मोह दूसरों के गुणों को लघु कर देता है ( अर्थात् मोह के कारण से अन्य गुणवान् पुरुष के गुण भी हीन प्रतीत होने लगते हैं ।) अमौ श्रस्मान् हृदयं हसति मारुत तनयः ॥ थह ऐ हिश्रए हम मारुय तो वह मात-पुत्र हृदय से हमारी हँसी करता है; ( हमें हीन दृष्टि से देखकर हमारा मजाक करता है ) । असौ कम-मुह कमल-मुही अर्थात वह (स्त्री) कमल के समान वाली हैं। = ******* वैकल्पिक पक्षका सद्भाव होने से पक्षान्तर में मूत्र-संख्या ३८८ के विधान से 'अस' में स्थित 'द' व्यञ्जन के स्थान पर 'सि' आदि प्रत्ययों के परे रहने पर 'मु' आदेश की प्राप्ति होता है। तदनुसार 'अम्' शब्द के स्थान पर प्राकृत में अंगरूप से 'श्रमु' का सद्भाव भी होता है । जैसे:-- श्रसौ पुरुष: अमू पुरिमा; श्रमौ महिलामू पहला और बदः वनम् श्रमु वर्ण । = असी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग विशेषण और सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप अह और अमू होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-८७ से '' के स्थान पर 'ह' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति एवं इसी सूत्र से प्रथमा एकत्रचन बोधक प्रत्यय 'सिं=स्' के स्थानीय प्राकृतीय प्रत्यय 'खो=षो' का लोप होकर प्रथम रूप अह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( असू+सिसौ = ) अम् में सूत्र संख्या १-११ से मूल शब्द 'अश्स्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप से 'द' के स्थान पर 'मु' की आदेश प्राप्ति और ३-१६ सं प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तष्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग द्वितीय रूप अमू सिद्ध हो जाता है । 'पुरिसो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। असे संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषय ( और सर्वनाम ) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अह' और 'अमू' होते हैं। दोनों रूपों की साधनिका उपरोक्त पुल्लिंग रूपों के समान होकर 'अह' और 'अमू' सिद्ध हो जाते हैं । 'महिला' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४६ में की गई हैं। अदः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त नपुंसक लिंग विशेषण ( और सर्वनाम ) रूप हैं। इसके प्राकृत रूप 'अह' और 'अ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप की साधनिका उपरोक्त पुल्लिंग रूप समान ही होकर प्रथम रूप 'अह' सिद्ध हो जाता है । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७० ] *********$84. द्वितीय रूप ( अद: ) अमु' में 'अ' अंग की प्राप्ति उपरोक्त पुल्लिंग रूप में वर्णित विधिअनुसार और तत्पश्चात सूत्र संख्या ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचत में नपुंसक लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर द्वितीय है। * प्राकृत व्याकरण * 'वर्ण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है। 'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है। 'मोह' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप मोडो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि=स' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्री प्रत्यय की प्राप्ति होकर मोही रूप सिद्ध हो जाता है। पर - गुण - लघ्वयाते संस्कृत क्रियापद रूप है इसका प्राकृत रूप पर-गुण- लहु-याइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-९८७ से ( लघु + अयांत में स्थित ) घ के स्थान पर ही प्राप्ति और ३- १३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर गया हुअयाइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। अस्मान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त ( त्रिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णे' (भो) होता हैं । इसमें सूत्र संख्या ३०१०८ से मूल संस्कृत शब्द 'श्रस्मद्' के द्वितीया बहुवचन बोधक रूप 'अस्मान' के स्थान पर प्राकृत में '' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'णे' रूप सिद्ध हो जाता है । हृदथेण संस्कृत तृतीया एकवचनान्तु संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप हिश्रण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान 'इ' की प्रति १-१७७ से 'द्र' और 'य' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'ह्रदय से हिअअ' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन बोधक अत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'हिश्रए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राव्य प्रत्यय 'टा के स्थान पर प्राकृत में 'गु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिअएण रूप सिद्ध हो जाता है । '' किया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९८ में की गई है। मारुत-तनयः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप हैं। इसका प्राकृत रूप माय-ओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथम 'तू' का लोपः १-१६० ले लोप हुये 'स्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति २२ लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के से 'न' के स्थान पर 'ए' की प्राप्तिः १-१७७ से 'य्' का एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्तांग 'मय-समय' में Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७१ ] संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मारुय-तणओ रूप सिद्ध हो जाता है । 'अह' रूप की सिद्धि ऊपर इसी सत्र में की गई है । कमल-मुखी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कमल-मुही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-११ से प्रथमाविभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रातस्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य दोघं स्वर 'ई' को यथावत स्थिति प्राप्त होकर कमल-मुही रूप मिद्ध हो जाता है । रिस रूप को सिद्धि-सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। महिला रूप को सिद्ध सूत्र संख्या १-१४६ में की गई है। वर्ण रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१७२ में की गई है । ३-८० ॥ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *9****900*66666666666666666695609900*1 मुः स्यादौ ३-८८ ॥ सदस्य वादों पर मुरादेशो भवति ।। अमू पुरियो । श्रमुखों पुरिसा । अमु चणं । श्रमूई वाई । अविणाणि । अमू माला । अउ श्रश्र मालाओ | अमुणा | अहिं || ङसि । अमू । श्रउ | अमूद्दिन्तो ॥ स् । अमूहिन्तो । अमूमुन्तो ॥ इस् । श्रमुणो । अमुस्स । श्रम् | अमूग || ङि । श्रमुम्मि !! सुप् । अभूसु ॥ I अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति बोधक प्रत्यय 'सि' आदि परे रहने पर मूल शब्द 'इस' में स्थित 'द' व्यञ्जन के स्थान पर ( प्राकृत में ) 'मु' व्यञ्जन की आदेशप्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है अौ पुरुष: + अ पुरियो । धर्मी पुरुषाः अभुणो पुरिसा श्रदः वनम् = श्रमु ं वं । श्रमूनि वनानि श्रई वखाई अथवा अमूणि वजाणि । श्रसी मालामाला | अमू माला || अमूर अथवा अमूओ मालाओ। अन्य विभक्तियों के रूप इस प्रकार है: 1 विभक्ति नाम तृतीया (बहुना = ) पंचमी ( अमुष्मात् ) षष्ठी (अध्य= ) सममी अमिन ) एकवचन श्रमुणा । अमूओ, अमृउ अमूहिन्तो । सुखो असुस्त | 1 बहुवचन ( श्रमोभिः = ) अमूहिं ॥ ( अमीभ्यः = ) अमूहिन्तो अमूसुन्तो । ( श्रमीषाम् = ) अभूख । ( अमीषु == ) अमृसु Z Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७२] *प्राकृत व्याकरण 00000000000000w.rrmirenderstoorearrrrrrrrrrrrrorosconst000+000. उपरोक्त विभक्तियों में इन वर्णित रूपों के अतिरिक्त अन्य रूपों का सदभाव 'गुरु' श्रादि उकारान्त शब्दों के रूपों के समान ही जानना चाहिये । स्त्रीलिंग में 'म' सर्वनाम शब्द के रूप 'वहू' आदि दीर्घ अकारान्न शब्दों के रूपों के ममान हो समझ लेना चाहिये । 'अम' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८७ में की गई है। 'पुरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। अमी संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त पुल्लिग विशेषण ( और मर्वनाम ) रूप है । इसका प्राकन रूप अमुणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदप्त में स्थित अन्त्य हलन्त ध्यञ्जन म्' का लोप; ३-८ स '६' के स्थान पर 'मु व्यजने की मादश-प्राप्ति और ३.२२ से प्राप्तांग 'प्रमु' में प्रथमा विभक्ति के बहुववन में ( उकारान्त पुल्लिा में ) संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुणों रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुरिसा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या P-POP में की गई है। 'अ ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८७ में की गई है। 'वणं' रूप की सिद्धि मूत्र-संख्या १-१७ में की गई है। अमूनि संस्कृत प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त नमक लिग विशेषण ( और मबनाम ) रूप है। इसके प्राकृत रूप अमई और अमणि होते हैं । इनमें 'अमु अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधिअनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-२६ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को द्वाघ स्वर'' की प्राप्ति कराते हुए कम से 'इ' और 'M' प्रत्यय की प्रथम द्वितीया बहुवचन में पत्र नपुसक लिंगार्थ में प्राप्ति होकर कर से दोनों रूम असई और अनगि सिद्ध हो जाते है। बनानि संस्कृत प्रश्रमा-द्वितीया बहुवचनान्त संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप वणाणि होता है। इसमें सब-संख्या १.२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'वन में स्थित 'न' के स्थान पर 'ग' की प्रानि और ३.२६ से प्रातांग 'वण' में स्थित अन्य स्त्रर 'श्र' को दो वर 'या' की प्रारित कराते हुए नपुसक लिंगार्थ में प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत में 'fण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाणि रूम सिद्ध हो जाता है। असौ संस्कृत प्रथमा एकवचमान्त स्त्रीलिंग विशेषण (और मर्वनाम ) रूप है। इसका प्राकृत रूप अमू होता है। इसमें प्रमु' अंग रूप की प्राप्ति नपरोक्त विधि-अनुमार; तत्पश्चात सुत्र संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में उकारान्त में संस्कृतीय प्राप्नव्य प्रस्थय 'लि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हुत्व स्वर '3' को दोघं स्वर '' की प्राप्ति होकर असू रूप सिद्ध हो जाता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१७३ ! 9,84%9999999999*********** *$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ $$$ 'माला रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८२ में की गई है। अमू संस्कृत प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्ठ स्त्रीलिंग विशेषण (और सर्वनाम ) रूप है । इपके प्राकृत रूप अमूत्र और अमनो होते हैं। इनमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-मख्या ३-२७ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति कराते हुए प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तथ्य प्रत्यय 'जस' और 'शस्' के स्थान पर दोनों विभक्तियों में समान रूप से 'उ' और 'श्री' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर दोनों रूप अभूउ और अमुभो सिद्ध हो जाते हैं । 'मालाओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-१७ में की गई है। अमुना संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप अमुरण होता है। इसमें "भमु' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२४ से तृतीया विभाग के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुणा रूप सिद्ध हो जाता है। अमीभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भमूहि होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्रामि उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१६ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य हम्ब स्वर 'ज' को आगे तृतीया बहुवचन घोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'क' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभकि के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रमूहि रूप सि हो जाता है। अमुष्मात संस्कृत पश्चर्मर एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अमूओ, श्रमर और अमहिन्तो होते हैं । इनमें 'प्रमु' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अमू' में स्थित अन्त्य हरव स्वर 'ख' के 'श्रागे पञ्चमी एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' दीर्घ '' की प्राप्ति और ३८ से प्राप्तांग 'श्रम' में पञ्चमी विक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'मो-अ-हिन्तो' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर क्रम से 'अमूओ, अमृउ, और अमाहन्तो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। अर्माभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रमूहिन्ता और अमसुन्तो होते हैं । इनमें 'अमू' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१६ से प्राप्तांग 'अमु में स्थित अन्त्य ह्रस्व 'उ' के 'मागे पञ्चमी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से वीर्घ 'क' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'श्रम' में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर अहिन्ती और अमूमन्तरे रूप सिद्ध हो जाते हैं । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७४ ] *प्राकृत व्याकरण * amoroorworterwsnressteamerersoverintereomroomorrowrorermometer अमुख्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप अमुणो और अमुस्स होते हैं । इनमें 'यमु' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात स्त्र-संख्या ३-२३ से प्रथम रूप में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'उस अस' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप अमुणो मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'अमुस्स' में सूत्र संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बु-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अमुस्स भी सिर हो जाता है। ___अमीषाम् संस्कृत षष्ठी घटुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप अमृण होता है। इसमें 'अ' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अमु में स्थित अन्ध्य हस्व स्वर उ' के 'आगे 'षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' दीर्घ 'अ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'अमु' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृन में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भमण रुप सिद्ध हो जाता है । अमुस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनोन्त पुल्लिग मर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप अमुम्मि होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात्तु सूत्र-मख्या ३.११ से प्राप्तांग 'श्रमु' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रस्थय कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर अमुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। अमोघु मंस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त पुस्जिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृन सप अमूख होना है। इसमें प्रमुअंग रूप की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार, नत्पश्चात सुत्र संख्या ३-१६ से प्राप्तांग अमु' में स्थित अन्त्य दान स्वर '' के 'आगे सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय होने से दीघ '3' की प्राप्नि और ४-५४८ से सातमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'प्रमू में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सूप' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमृसु रूप सिद्ध हो जाता है । ३-८४ ॥ म्मावये औ वा ॥३-८६ ।। अदसोन्त्यव्यञ्जन लुकि दकारान्तस्य स्थाने उयादेशे मी परत: अय इन इत्यादेशौ वा भवतः ।। अयम्मि । इयम्मि । पढे । अमुम्मि ॥ ... ___अर्थ:-संस्कृन सर्वनाम शठन 'श्रास के प्राकृत-रूपान्तर में सूत्र-संख्या १.११ से अन्त्य इलन्त व्यञ्जन 'स् का लोप होने के पश्चात शेष रूप अद' में स्थित अन्त्य सम्पूर्ण व्यञ्जन व सहित Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ १७५ ] 'अद' के स्थान पर सप्तमा विभक्ति के एकान में संदी साप्रामा 'किस' के शान पर श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय 'म्मि परे रहने पर वैकल्पिक रूप से ( और क्रम से) 'श्रय और इय' अंग रूपों की प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:--अमुध्मिन् = अम्मि और इम्मि अर्थात उसमें । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पशान्तर में (अमुष्मिन्-) अमुम्मि रूप का भी सद्भाव होता है। अमुभिन्न संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप अयम्मि, इम्मि और अमुम्मि होते हैं । इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस' में स्थित अन्त्य हलन्त ग्यजन 'स' का लोप; ३-८८ से शेष सम्पूर्ण रूप 'अद' के स्थान पर 'बागे सप्तमी एकवचन बोधक प्रत्यय 'मि' का सद्भाव होने से कम से 'श्रय' और 'इय' अंग रूपों की वैकल्पिक रूप से प्रदिश-प्राप्ति तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३.११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय "कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर कम से एवं वैकल्पिक रूप से प्रथम और द्वितीय रूप अयम्मि और इयाम्म सिद्ध हो जाते हैं। कृतीय रूप-(अमुष्मिन् = )अमुम्गि की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८८ में की गई है । ३-६ ॥ युष्मद स्तं तु तु तुह तुमं सिना ॥ ३-६० ॥ युध्मदः सिना सह तं तु तुवं तुह तुम इत्येते पश्चादेशा भवन्ति ॥ तं तु तुवं तुह तुम दिवो ॥ अर्थ:-संस्कृत मर्वनाम शरद गुरुमद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय मि',की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर प्रादेश-प्राप्त संस्कृत रूप त्वम्' के स्थान पर प्राकृत में कम से पाँच रूपों को प्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है। ये पाँच रूप क्रम से इस प्रकार है:- (त्वम्-) तं, तु, सुर्व, तुह और तुम । उदाहरण इस प्रकार है:-त्वम् दृष्टः - तं, (अथवा) तु' (अथवा तुवं, (अथवा) तुह (अथवा) तुमं विट्ठो अर्थात् तू देखा गया। स्वम् संस्कृत प्रथमा एफवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनामरूप है । इसके प्राकृत रूप 'तं, तु, तुवं, नुह और तुम' होते हैं । इन पाँचों में सूत्र-संख्या ३-९० से 'स्वम्' के स्थान पर इन पांचों रूपों को क्रम से श्रादेश-प्राप्ति होकर ये पाँच रूप कम से तं, तु, तुषे. तुह और तुम सिद्ध हो जाते हैं। दृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप दिटो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्रामि; २-३४ से 'ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्नि; २-८६ से श्रादेश-प्राप्त '' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २६. से आदेश प्राप्त पूर्ण 'ह' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग दिनु' में अकारान्त पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के के स्थान पर प्राक्त में 'डो-यो' प्रत्यय की चादेश-ग्राग्नि होकर दिए। रूप सिद्ध हो जाता है। ३-६० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७६ ] * मास व्याकरण में wrometoreovertistorirstoosterstosworrierrormeroreroton भे तुम्भे तुझ तुम्ह तुम्हे उरहे जसा ।। ३-६१ ॥ युष्मदो जसा सह भे तुब्भे तुझ तुम्ह तुम्हे उरहे इत्येते षडादेशा भवन्ति ॥ मे तुम्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उव्हे चिट्ठह । भो म्हज्झौ वा (३.१०४ ) इति वचनात् तुम्हे । तुज्झे एवं चाष्टरूप्यम् ॥ अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय भाम्य प्रत्यय 'जस' की संयोजना होने पर 'मूल शम्न और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर श्रादेश-पान संस्कृत रूप 'यूयम' के स्थान पर प्राकृत में कम से छह रूपों की आदेश प्रानि हुआ करती है । वे छह रूप कम से इस प्रकार हैं।-भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे और सरहे । उदाहरण इस प्रकार है:-यूयम् तिष्ठयम्भ, (अथवा) तुम्मे, (अथवा) तुझ, (अथवा) तुम्ह, (अथवा) तुम्हे और (अथवा) उयहे चिट्ठह अर्थात तुम खड़े होते हो । सूत्र-संख्या ३.१०४ के विधान से आदेश-प्राप्त द्वितीय रूप 'तुठभे' में स्थित 'डभ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'उझ की कम से आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:-'तुम्हे और तुम्भे'; यो 'यूयम्' के स्थान पर प्राकृत में कुन्त आठ रूपों की क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) पादेश-प्राप्ति हुआ करती है। यूयम् संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप पाठ होते हैं:-भे, तुम्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उव्हे, तुम्हे, और तुझे । इनमें से प्रथम छह रूपों में सूत्र-संख्या ३-६१ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'यूयम्' के स्थान पर इन छह रूपा को श्रादेश-प्राप्ति होकर ये बह रूप-भे, तुभे, तुज्झ, सुम्हे, तुम्हे, और उरहे' सिद्ध हो जात है। शेष दो रूपों में( याने यूयम् = ) तुम्हे और तुन्भे में सूत्र संख्या ३-१०४ से आदेशप्राप्त द्वितीय रूप 'तुम्भे' में स्थित 'भ' अंश के स्थान पर 'म्ह और 'झ' अंश रूप की श्रादेश-प्राप्ति होकर क्रम से सातवा और पाठवां रूप तुम्हे एवं तुज्म' भी मिद्ध हो जाते हैं। तिष्ठथ संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप चिट्ठप होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.१६ से संस्कृतीय श्रादेश प्राप्त कप 'तिष्ठ' की मूल धातु 'स्था' के स्थान पर प्राकृत में मंचट्ठ' रूप को आदेश-प्राप्ति और ३-१४३ से वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य परस्मैपदीय प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर चिट्ट रूप सिद्ध हो जाता है । ३-६१ ॥ ते तु तुमं तुवं तुह तुमे तुए अमा ॥ ३-६२ ।। युप्मदोमा सह एते सप्तादेशा भवन्ति ॥ तं तु तुम तुवं तुह तुमे तुए बन्दामि ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * । १७७ ] 10000000000000rsoreworkerreroonerosrorostrrs0000000000000000000+ अर्थः-संस्कृत सवनाम शब्द 'युष्मद्' के द्वितीया विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम् = म्' की संयोजमा होने पर 'भूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप त्वाम्' के स्थान पर प्राकल में कम से सात रूपों की श्रादेश-प्राप्ति हुआ करतो है । वे मात रूप क्रम से इस प्रकार है:-तं, तु, तुमं, तु, तुम, तुमे और तुए । उदाहरपा इस प्रकार है:- अहम् ) त्वाम् वन्दामि = (अहं) तं, (अथवा) तु, (अथवा) तुमं, (अथवा) तुर्क, (अथवा) तुह, (अथवा) तुमे और (अथवा) तुर चन्द्रामि = अर्थात (मैं) तुझे बन्दना करता हूँ। वाम संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप सात होते हैं। तं, तु, तुम, तु, तुह, तुमे और तुए। इन सातों रूपों में सूत्र संख्या ३-६२ से संस्कृत रूप 'स्वाम्' के स्थान पर कम से इन सातों रूपों को आदेश-प्रारित होकर य सातों रूप कम से 'त, तु, तुम तुर्व , तुह, नुमें और तुए सिद्ध हो जाते हैं। 'वनदामि' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। ३-६२॥ वो तुझ तुब्भे तुरहे उव्हे में शसा ॥ ३-६३ ।। युष्मदः शसा सह एते षडादेशा भवन्ति ।। वो तुझ तुम्भे । भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हे तुज्झे तुम्हे उय्हे भे पेच्छामि ॥ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस - अस् की सयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'युष्मान' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की श्रादेश-प्राप्ति हुश्रा करती हैं । वे छह रूप क्रम से इस प्रकार है:--वो, तुज्झ, तुम्भे, तुम्हे, उरई और भे । सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से प्रादेश-प्राप्त तृतीय रूप 'तुम्भे' में स्थित 'हम' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'मह' और 'ज्म' अंश रूप को क्रम से आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तन्तुमार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते है:--'तुम्हे और तुझे' यो 'युष्मान' के स्थान पर प्राकृत में कुल पाठ रूपों की कम से ( एक वैकल्पिक रूप से ) प्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण इस प्रकार है:-( अहम् ) युष्मान प्रेक्षे = वो, (अथवा ) तुझ, ( अथवा ) तुम्भे, (अथवा ) तुम्ई, ( अथवा ) तुझ ( अथवा ) तुय्हे, (अथवा ) उरहे और (अथवा ) में पेच्छामि अर्थात ( मैं ) पाप ( मी ) को देखता हूं । युष्माच संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप पाठ होते हैं:--दो, तुझ, तुभे, तुम्हे, तुज्झ, तुरई, हे, और भे । इन पाठों रूपों में सूत्र-संख्या ३-६३ से संस्कृत रूप 'युष्मान' के स्थान पर क्रम से इन आठों रूपों की मादेश-प्राप्ति होकर ये पाठों रूप क्रम से 'वो, तुज्झ तुभे, नुम्हे, तुझे, तुरहे, उय्हे, और भे' सिद्ध हो जाते हैं। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७८ ] प्राकृत व्याकरण, wee66666666 468 46$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$ $$$$$ प्रेक्षे संस्कृत आत्मनेपदीय सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पेच्छामि होता है। इममें सूत्र-संख्या २-७६ से मूल मंस्कृन धातु 'प्रेझ' में स्थित 'र' का लोप; ३-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २८८ से आदेश प्राप्त छ' को द्विध छछ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्तिः ४-२३६ से प्राप्त प्राकृत धातु पच्छ में हलन्न होने से विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-५५४ से प्राप्त विवरण प्रत्यय 'सा' को 'श्रा' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्तांग परछा' में वतमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रात्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि प्रत्यय की प्राप्ति होकर पंच्छामि क्रियापीय रूप सिद्ध हो जाता है । ३.६३ ।। - भे दि दे ते तइ तए तुम तुमइ तुमए तुमे तुमाइ ट! ॥ ३.६४ ॥ युष्मदप्टा इत्यनेन सह एते एकादशादेशा भवन्ति ॥ में दि दे ते तइ तए तुम तुमइ तुमए तुमे तुमाइ जम्पियं ।। __ अर्थ:-सस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा-प्रा' को संयोजक होने पर 'भूत हक छौ यात्र' दोनों को स्थान पर प्रादेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'स्वया' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से ग्यारह रूपों को आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। वे ग्यारह रूप क्रम से इस प्रकार है:- त्वया=) भे, दि. दे, ते, सइ, तए, तुम. तुमई, तुमए, तुमे और तुमाह । उदाहरण इस प्रकार है:-त्वया कथितम - भे, दि. दे. ते, तइ, तर; तुम, तुमइ तुमए, तुमे और तुमाइ जम्पियं अर्थात तेरे द्वारा ( या तुझ से ) कहा गया है । या मंकन तृतीया एकवचनान्त ( त्रिलिंगात्मक) मर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप ग्यारह होते हैं । भे. दि, दे, ते, तइ, तए, तुम, तुमह, तुमए, तुमे और तुमाइ । इनमें मूत्र संख्या ३-६४ से संस्कृत रूपत्वया' के स्थान पर क्रम से इन्हीं ग्यारह रूपों की श्रादेश प्राप्ति होकर क्रम से ये ग्यारह कपभ, दि, दे, ते. तह, तप, तुमं, तुमइ, तुमए, तुमे और नुमाइ मिद्ध हो जाते हैं। कथितम् संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका पाकन रूप जम्पिन होता है इसमें सूत्र-संख्या ४.२ से मूल संस्कृत धानु 'कथ' के स्थान पर प्राकन में 'जम्प' रूप की आदेशप्रारितः ४-२३६ से प्राप्त प्राकृत-धातु 'जम्प' में हलन्त होने मे विकरण प्रत्यय '' का प्राप्ति, ३-१५६ में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'न' के स्थान पर 'ई' की प्रापिन, ४-४४८ मे संस्कृतीय भूतकालीन भाव वाच्य क्रियापदीय प्रत्यय 'त-त' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त उक्त प्रत्यक्षात्मक 'न' का लोप, ३-२५ से पूर्वोक्न रीति से प्राप्तांग जम्पिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकागन्त नपुभकलिग में संस्कृताय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर जम्पिों रूप मिस हो जाता है। ३.६४ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित [ १७६ ] भे तुम्भेहि उपभेडिं उम्देहिं तुम्हेहिं उम्हेहिं भिसा ॥ ३-६५ ।। युष्मदो मिया सह एते षडादेशा भवन्ति ॥ मे । तुब्मेहिं । भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हहिं तुझेहिं उज्महिं उम्हहिं तुम्हहिं उच्येहिं भुतं । एवं चाष्टरूप्यम् ॥ अर्थः-- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस्' की संयोजना होने पर मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आवेश प्राप्त संस्कृत रूप युष्मभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की प्रदेश-प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार है: - भे तुम्भेदि उज्मेहि, उम्हेहिं तुय्येहिं और उय्यहिं । सूत्र संख्या ३- १०४ के विधान से आदेश पाप्त द्वितीय रूप 'तुडभेहिं' में स्थित 'भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'रूह' और 'फ' को क्रम से और वैकल्पिक रूप से यादेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- तुम्हेहिं और तुज्झेहि यों 'युष्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में कुल चार रूपों की क्रम से ( एवं वैकल्पिक रूप से ) आदेश प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण इस प्रकार है: - युष्माभिः मुक्तम् भे, (अथवा ) तुम्भेहिं (अथवा ) उम्मेहिं (अथवा ) (थ) तुम्हे (अथवा ) उम्म्हेहिं (अथवा ) तुम्हहिं और (अथवा ) तुम्मेहि भुतं श्रर्थात् तुम सभों द्वारा ( अथवा तुम सभी से ) खाया गया है । युष्माभिसंस्कृत तृतीया बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते हैं: - से, तुम्सेहिं उज्मेहिं उम्देहि, तुम्हेहिं. उन्हेहिं तुम्हेहिं और ज्केहिं । इनमें से प्रथम छः रूपों में सूत्र-संख्या ३-६५ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'युष्माभि:' के स्थान पर इन छह रूपों की आदेश-प्राप्ति होकर ये छह रूप में तुम्भेहि, उज्झेहि, उम्हहिं, तुय्येहिं, और उच्येहिं, सिद्ध हो जाते हैं। शेष दो रूपों में (याने युष्माभिः = तुम्हेहिं और तुमेहिं में ) सूत्र संख्या ३-१०४ से पूर्वोक्त द्वितीय रूप आदेश प्राप्त रूप 'तुमेहिं में स्थित 'म' अंश के स्थान पर 'ह' और 'उ' अंश रूप की प्रदेश-प्राप्ति होकर क्रम से मानवां और आठवां रूप 'तुम्हहिं और तुज्झेहिं' सिद्ध हो जाता है । '' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है । ३६५ ॥ ३-६६ ॥ तइ - तुत्र- तुम - तुह - तुभा ङसौ ॥ युष्मदो सौ पञ्चम्येकवचने परत एते पंचादेशा भवन्ति । उसेस्तु तो दो हि हिन्दी लुको यथाप्राप्तमेव ॥ तइसो | तुवत्तो | तुमत्तो ॥ तुहत्तो । तुग्भत्तो । ब्भो म्हइकौ चेति वचनात् तुम्हलो। तुज्झत्तो ॥ एवं दो दृ हि हिन्तो लुक्ष्वप्युदाहार्यम् | तत्तो इति तु त्वत्त इत्यस्य व लोपे सति ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८० ] प्राकृत व्याकरण* .000000000000000000serte.netoroork.000000000000000000000000000000000+ अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्राकृत-रूपान्तर में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'मि - अस' के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय 'लो, दोश्रो, दु, हि. हिन्ता और लुक' प्रत्ययों को क्रम से प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण मूल संस्कृत शब्द 'युष्मदू" के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में क्रम से पाँच अंग रूपों की प्राति होती है; जो कि कम से इस प्रकार है: -तइ, तुत्र, तुम तुह और तुम्भ । सूत्र-संख्या ३.१०४ के निर्देश से प्रातांग पाँचवें रूप 'तुम' में स्थित 'भ' अंश के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'म्ह और ज्झ' अंश रूप की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। यों 'युष्मद' के जत पाँच अंग रूपों के अतिरिक्त ये दो रूप 'तुम्ह और तुझ' और होते हैं। इस प्रकार 'युष्मद' के प्राकृत रूपान्तर में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्ययों के संयोजनार्थ सात अंग रूपों की कम से प्राप्ति होती है। तत्पश्चात सातों प्रामांगो में से प्रत्येक अंग में कम से { एवं वैकल्पिक रूप से ) छह छह प्रत्ययों को अर्थात 'तो, ओ, उ, हि, हिन्तो और लुक' प्रत्ययों की प्राप्तिकाती है । इस प्रकार 'युष्मद् के पञ्चमो विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में बयालीस ( = ४२) रूप होत हैं; जो कि कम से इस प्रकार हैं:-'तई अंग के रूपः-तइत्तो, तईओ, तईल, तईहि, तईहिन्तो और तई (त्वत-) अर्थात तेरे से । 'तुव' अंग के रूपः- तुबत्तो, सुवाओ, तुषार) सुवाहि. तुवाहिन्तो और तुवा (स्त्वत्) अर्थात तेरे से। 'तुम' अंग के रूपः-तुमती, तुमाश्रो, तुमाउ, तुमाहि, तुमाहिन्तो और तुमा (त्वन्-) अर्थात तेरे से। यों शेषांग 'तुह, तुम्भ, तुम्ह, और तुझ' के रूप भी समझ लेना चाहिये । प्राकृत में प्राप्त रूप 'तसो' की प्राप्ति 'स्वत:' से हुई है। इसमे सूत्र-संख्या २.७ से 'व' का लोप हुआ है और १.३७ से विसग के स्थान पर 'छो-ओ' की प्राप्ति होकर 'तत्ता प्राकृत रूप निर्मित हुआ है । अतः इस रूप 'तत्तो' को उक्त ४२ रूपों से भिन्न हो जानना। नीचे साधनिका उन्हीं रूपों की की जा रही है; जो कि ति में उल्लिखित हैं; अत. प्रामध्य शेष रूपों की सानिका स्वयमेव कर लेनी चाहिये । त्वव ( अथवा 'स्वद्') संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त ( त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप तइत्तो. तुबत्तो, तुमत्सो, सुइत्तो, तुठभत्तो, तुम्हत्तो और तुज्झत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम पाँच रूपों में सूत्र-संख्या ३.६६ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर क्रम से पाँच अंगों को आदेश-प्रामि; छट्टे और सातवें रूपों में सूत्र-संख्या ३.१०४ के निर्देश से छटे और सातवें अंग रूप की प्राति तत्पश्चात ऋम से सातों अंग-रूपों में सूत्र-संख्या ३-८ से पंचमो विभक्ति के एकवचनार्थ में 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से सातों रूप-तइत्तो, तुरुत्तो, तमत्तो, तुहत्तो, नुमत्तो, तुम्हत्ता और तुज्झत्तो सिद्ध हो जाते हैं। स्वतः संस्कृत तद्धित-रूपा शब्द है। इसका रूप तत्ता होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'व' का लोप और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'टोपी' की प्राप्ति होकर प्राकृत तद्धित रूप 'तत्तौ' सिद्ध हो जाता है। ३६६ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [११] reasoooooorrearrrrroo0000000000000000000000rnvernmenorrrrowroorroom तुम्ह तुब्भ तहिन्तो असिना ॥ ३-६७ ॥ युष्मदो असिना सहितस्य एने त्रय आदेशा भवन्ति ॥ तुम्ह तुम्भ तहिन्तो आगो । मो म्ह-ज्झी वेति वचनात् तुम्ह । तुज्झ । एवं च पञ्च रूपाणि । ___ अर्थः--संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद् के पश्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इसि -- अस' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृतीय रूप त्वत' के स्थान पर मांकृत में क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से ) तीन रूपों की आदेश-प्रानि हुआ करती है। ये प्रादश-प्राप्त रूप ये है:'तुरड, तुभ और तहिन्नी' । उदाहरण इस प्रकार हैं:-त्वत श्रागत:-तुयह अथवा तुम्भ अथवा तहिन्तो आगो अर्थात तुम्हारे से- (तेरे से) पाया हुआ है । सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उपरोक्त प्रादेशप्रान द्वितीय रूप 'पुर में 47 भा १ 'म..' सौर 'झ' की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हुया करती है, तदनुसार स्वत' के स्थान पर दो और प्रादेश मान रूपों का प्रभाव पाया जाता है। तो कि इस प्रकार है:--'तुम्ह और तुझ' । यो पञ्चमी पकवचनान्त ( में) 'युष्मद' के प्राप्त रूप स्वत्' के उपरोक्त रीति से आदेश प्राप्त पाँच रूप जानना । स्वत (स्वद्) संस्कृत पन्चमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप पाँच होते हैं:-तुम्ह, तुम, तहिन्तो, तुम्ह और तुन्झ । इनमें सूत्र-संख्या ३.९७ से 'स्वत्' रूप के स्थान पर इन पाँचों रूपों की प्रादेश-प्राति कम से ( तथा वैकल्पिक रूप से ) होकर क्रम से ये पाँचों रूप 'तुम्ह, तुभ. तहिन्ता, तुम्ह और तुज्म' सिद्ध हो जाते है। 'अरगओ' रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। ३-६७ ।। तुभ-तुय्होयहोम्हा भ्यसि ॥ ३-६८ ।। युष्मदो भ्यसि परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ भ्यसस्तु यथाप्राप्तमेव ॥ तुभत्तो। तुम्इत्तो । उहत्तो । उम्हत्ती । भो म्ह-जझी वेति वचनात तुम्हत्तो। तुज्झती ।। एवं दो-दु-हि-हिन्तो-सुन्तोष्वप्युदाहार्यम् ।। अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शन 'घुष्मद् के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृतीय प्रत्यय 'यस' के प्राकृतीय स्थानीय प्रस्थय 'त्ती, दोश्रो, दु - 3, हि. हिन्तो और सुन्तो' प्राप्त होने पर 'युष्मद्' के स्थान पर बार आदेश अगों की कम से प्राप्ति हुआ करती है। तत्पश्चात प्रत्येक आदेश-प्राप्त अग में उस पंचमी बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना होती है। बेचारों अम रूप इस प्रकार है:--'जुम्भ तुह, उमह और सम्ह' । सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८२ ] प्राकृत व्याकरण * +0000000000000000000rnoornsrc0000000orrors+000rKarter064004446660000000** उक्त श्रादेश प्राप्त प्रथम अग 'तुम' में स्थित 'म' अश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'मह' और 'उझ अंश रूप को प्राप्ति हुश्रा करती है, तदनुसार उक्त चार अंग रूपों के अतिरिक्त दो श्रग रूपों की प्राप्ति और होती है; जो कि इस प्रकार है:--'तुम्ह' और 'तुझ' । यो पंचमी बहुवचन के प्रत्ययों के संयोजनार्य कुला , भरूप की प्राप्ति होता है । पंचमी बहुवचन में 'भ्यस्' प्रत्यय के स्थान पर 'सो' दो-ओ, शुज, हि, हिन्तो और सुन्तो यों छह प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति का विधान है । ये छह ही प्रत्यय कम से वक्त छह अंगों में से प्रत्येक अंग में संयोजित होते हैं। तदनुमार पंचमी बहुवचन में संस्कृतीय रूप 'युधात्' के प्राकृतीय रूप छत्तोस होते हैं। उदाहरण इम प्रकार हैं: तो-प्रत्यय-तुम्मतो, तुम्हसो. उरहत्ती, उम्हत्तो. तुम्हती, तुकत्ती । प्रो-प्रत्यय-तुभाश्री, तुम्हाओ, खय्याही, जम्हात्रो, तुम्हाओ, तुझाश्री । उ-प्रत्यय - तुभाउ नुय्याहु. उपहाड, उम्हाउ, तुम्हाउ, तुकाल, । यो शेष प्रत्यय 'हि-हिन्तो और सुन्ता' की योजना करके स्वयमेव समझ लेना चाहिये। युष्मत संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त त्रिनिगात्मक सर्वनाम रूप है। इस प्राकृत कम-तुम्भतो, तुम्हत्ता, उरहत्तो, उम्हत्तो, तुम्हसो और तुकत्ता होने हैं। इनमें से प्रथR बार रूम में सूत्र संख्या ३.६८ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूप 'सुभ -तुर:-उन्ह-उन्ह' का आदेशप्रानि शेष दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से पूर्वोक्त प्रा प्रथम अंग तुम्भ' में स्थित 'डम' श्र' के स्थान पर क्रम से 'मह और अझ की प्रानि होने से उक्त पचम और षष्ठ अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात सूत्र-संख्या ६-६ सं जमत पातांग छहों में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रामण्य प्रत्यय 'भ्यास के स्थान पर प्राकृत में प्रादेश प्राप्त प्रत्यय 'सो, प्रो. 'उ, हि, हिन्तो, सुन्तो' में से प्रथम प्रत्यय 'तो' की प्रानि होकर उक्त छह ही प्राकृत रूप तुमसो. तुम्हत्तो, उहतो, उम्हत्ता, तुम्हत्तो और तुज्रनो' मिद्ध हो जाता है। ३-६८ ।। भइ-तु-ने-तुम्हं, तुह-तुह-तुब-तुम-तुमे--तुमो-तुमाइ-दि दे-इ-ए-तुब्भोभोव्हा उसा ॥ ३-६६ ॥ युप्पदो मा षष्ठयेक वचनेनसहितस्स एते अष्टादशादेशा भवन्ति ॥ तह । तु । ते तुम्हें । तुह । तुई । तुव । तुम ! तुमे । तुमी । तुमाइ । दि । दे । इ । ए। तुष्भ । उन्म । उह धर्ण । मी म्ह-ज्झो वेति वचनात् तुम्ह । तुज्झ । उम्ह । उज्झ । एवं च द्वाविंशति रूपाणि । अर्थः----संस्कृन सर्वनाम शरद 'युष्मद् के षष्ठी विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्रामस्य प्रत्यय 'रुस अस' की संयोजना होने पर प्रान संस्कृतीय रूप 'नव' अथवा ते के प्राकृत मपान्तर में संपूर्ण उक्त 'सर' अथवा ते रूप के स्थान पर क्रम से अठारह रूपों को श्रादेश प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१८३ । morrorosorrowroomssesterestowsrooriossessmootoosteoretorstretortoon इस प्रकार है: . तव ( अथवा ते ) धनम् = तइ-तु-ने-तुमई-तुह-तुई-तुष-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ-दि-वे... ६-ए-तुभ-उभ-उमाधम अर्थात तेग धन । सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से वक्तपास अठारह रूपों में से सोलह और सतरहवें रूपों में स्थित 'लभ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'हम की प्राप्नि क्रम में हुआ करती है। तदनुसार संस्कृत रूप 'तर' के स्थान पर चार रूपों की और भादेशप्राप्ति कम से तथा वैकल्पिक रूप से हुआ करती है; ओ कि इस प्रकार है:-( तब) तुम्ह, तुझ, सम्र और उम । यो संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के षष्ठी एकवचन में प्राप्त रूप 'तव' ( अथवा दे ) के स्थान पर मान में कुल बाइम कपों को बादेश-प्रानि कम से जानना चाहिये। 'तष यथा 'ने' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त (बिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप हैं। इसके प्राकृत रू.५ (२.) होते हैं:-तई, तु, ते, तुरहं, तुह, नुह, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुभाइ, दि. दे, इ, ए, तुभ, उद्यम, जगह, तुम्ह, तुज्मा, उम्ह और रझि । इनमें से प्रथम अठारह रूपों में सूत्र-संख्या ३.६६ से संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के षमो विभक्ति के प्रवचन में प्राप्तव्य प्रश्यय 'कस् = अस' को संयोजना होने पर प्राप्त कप 'तव' अथवा 'ते' के स्थान पर उक्त प्रथम अटोगह रूपरों को आदेश-प्राप्ति होकर प्रथम अठारह रूप 'तर, तुं. ते, तम्ह तुह, तुह, तुष, तुम, तृमे, तुमी, तुमान: दि.३, इ, ए, तुम्भ, उच्भ और उरह सिद्ध हो जाते है। शेष १६ में से २२नक के चार रूपों में सूत्र-संस्वा ३-१०४ के विधान से उक्त सोलहवें और मतरह रूप में स्थित भ' अंश के स्थान पर कम से तथा वैकल्पिक रूप से 'मह' और 'जम' अंश को श्रादेश प्राप्ति हो कर उक्त शेष चार रूप 'तुम्ह, तुज्झ, उम्ह और उज्म भी सिद्ध हो जाते हैं। 'धणे' रूप का सिद्ध सूत्र संख्या ३.५० में की गई है। ३-६६ ।। तु वो भे तुम्भं तुम्भाश तुवाण तुमाण तुहाण उन्हाण आमा ॥३-१०॥ - युष्मद थामा महितस्य एते दशादेशा भवन्ति ।। तु। वो । मे। तुम्भ । तुम्भ । तुम्भाण । तुवाण । तुमाण । नुहाण । उम्हाण । क्त्या-स्यादे णेस्वोर्वा (१.२७) इत्यनुस्वारे तुम्भाणं । नुवाणं । तुमाणं। तुहाणं । उम्हाणं ॥ भो म्ह-जझी बेसि । वचनात् तुम्ह । तुझ । तुम्हं । तुझ । तुम्हारा । तुम्हाणं तुज्झाग । तुज्माणं । घणं । एवं च त्रयो विंशति रूपाणि ॥ ___ अर्थ:-संस्कन-मवनोन शब्द 'युष्मद' के पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'ग्राम' की संयोजना होने पर पत. संस्कृन रूप-'युष्माकम्' अथवा वः के स्थान पर प्राकृतरूपान्तर में सर्व प्रथम ये दश रूप 'तु, यो, में, तुम्भ, तुम, तुम्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण और Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८४] *प्राकृत व्याकरवा * womensorrorsewissattreerintensterstreetstrekkersitionerstotram सम्हाण आदेश-रूप से प्राप्त होते हैं। तत्पश्चार-पून-संख्या १.१७ के विधान से उपरोक्त प्राप्त दश रूपों में से छठू रूप से लगाकर दशवें रूप के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है। तदनुसार पांच रूपों का निर्माण और इस प्रकार होता है:-तुभाणं, तुवाणं, तुमाण, तुहाणं, और जम्हाणं । सूत्र-संख्य ३.१०४ के विधान से उपरोक्त प्रथम श रूपों में से चौथे, पांचवें और छट्टे रूपों में स्थित 'डम' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'म' अंश की आदेश-प्राप्ति हुश्रा करती है; तदनुमार छह आदेश प्राप्त रूपों का निर्माण और इप्त प्रकार होता है:----तुम्ह और नज्मा तुम्हें और तुझ; तुम्हाण और तुझाण । सूत्र-संख्या १-२७ के विधान से पुनः उपरोक्त 'तुम्हाण और तुझाण' में आगम र अनुस्वार की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होने से दो और रूपों का निर्माण होना है। ओकि इस प्रकार हैं:-तुम्हाणं और तुझाणं । इस प्रकार 'युष्माकम्' अथवा 4 के प्राकृत रूपान्तर में कम से नथा वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्त ये कुल से इस रूप जानना । उदाहरण इस प्रकार है:-युष्माकम् अथवा वः धनम् = तु. वो .... ....." इत्यादि २३ वो रूप तुझाणं धणं अर्थात तुम सभी का धन । युष्माकम् संस्कृत पष्ठी बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सब नाम रूप है । इसके प्राकृत सप 'तु, षो में ... ... ... ... ""से लगाकर तुझाण' तक २३ होते हैं। इनमें से प्रथम दश रूपा में सूत्र-संख्या ३-१०० की प्राप्ति; ११ से १५ ब तक के रूपों में सूत्र संख्या १२७ की प्राप्ति; १६ वें से २१३ तक के रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ की प्राप्ति और २२ वे तथा २३ वें में सूत्र-संख्या १.२७ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप से लगाकर २३ रूप तक की अर्थात् 'तु.को, भे तुम. तुम्भ, तभाण तुषाण, नमाण, सुहाण, उम्हाण, तुबभाणं, तुषाणं, नुमाण, तुहाणं, उम्हाणं, तुम्ह, तुझ तुम्ह, तुम.. तुम्हाण, ज्माण, तुम्हाण और तुज्माणं रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'वर्ण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 4-40 में की गई है । ३.१०० ।। .. तुमे तुमए तुमाइ तह तए हिना ॥ ३-१०१ ।। सुष्मदो हिना सप्तम्येक वचनेन सहितस्स एतं पञ्चादेशा भवन्ति || तुमे तुमए तुनाई तह तए ठि।। अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मदु' में सप्तमी त्रिभक्ति के एकवचन में मेकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'किन इ' की संयोजना होने प्राप्त संस्कृत रूप-'त्वयि' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में प्रत्यय सहित अवस्था में कम से पांच रूपों की प्रदेश-प्राप्ति होती है। ये पांचों रूप क्रम से इस प्रकार हैं:-- ( स्वयि - ) सुमे, तुमप. तुमाइ, तह, और तए । जवाहरण इस प्रकार है:-त्वयि स्थितम-तुमे, तुमय, नुमाइ, तइ और तए ठिअं अर्थात तुझ में अथवा तुझ पर स्थित है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१५] 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000. त्वयि' संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम है । इसके प्राकृत में पांच रूम होते हैं । तुमे, तुमय, तुमाइ, नई और तग; इनमें सूत्र संख्या ३.६०१ से संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' में सप्रमो परचने में संस्कृतीय प्रातल्या प्रत्यय हि-इ' की मयोजना होने पर पाम रूप त्वयि' के स्थान पर उक्त पाँचों of की क्रम में श्रादेश-प्राति होकर क्रन सं थे पाँवों रूप तुझे, तुमर, तुमइ, तइ और तए' सिद्ध हो जाते हैं। 'ठिों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है । ३.१०१ ।।। तु-तुव-तुम-तुह-तुब्भा छौं । ३.१०२ ।। युष्मदी डौ परत एते दिशा भवन्ति । उस्तु यथा प्राप्तमेव ।। तुम्मि । तुबम्मि । तुमम्मि । तुम्मि । तुमम्मि । ब्भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हम्मि ! तुज्झम्मि । इत्यादि ॥ अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम शब्द "युष्मद्" के प्राकृत रूपान्तर में सामी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय "डे,इ" के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय "म्मि' (और "डे-ए") प्रत्यय प्राप्त होने पर “युष्मद" के स्थान पर प्राकत में पाँच अंग रूपों को क्रम से मि होनी है, जो कि इस प्रकार हैं:युष्मद-तु, तुत्र, तुम, तुई. और तुम्भ । उदाहरण यों हैं:.-'वयि' = तुम्मि, तुम्मि, तुमम्मि तुहम्मि और तुर्भाम्म | सूत्र संख्या ३.१०५ के विधान से उपरोक्त पश्चम अंग रूप 'तुम' में स्थित 'दम' अंश के स्थान पर कम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'a' अंश रूप की प्रापि हुना करती है; तदनुमार दो और अंग रूपों की इस प्रकार प्रानि होती है:-'तुम्ह' और 'तुम'। ऐसी स्थिति में 'म्मि' प्रत्यय की संयोजना होने पर दो और रूपों का निर्माण होना है:--तुम्हम्मि और तुज्झम्मि। वृत्ति में 'इत्यादि' शब्द का उल्लेख किया हुआ है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अपरोक्त प्राप्त सात अंगों में से प्रथम अंग के अतिरिक्त शेष छह अंग रूपों में सूत्र-संख्या ३.११ के विधान से संस्कृतीय प्रत्यय 'डि =इ' के स्थान पर 'डे = ए' प्रत्यय को संयोजना भी होना चाहिये; लरनुसार छह रूपों की प्राप्ति की संभावना होती है; जो कि इस प्रकार है:-तुवे, तुमे, तुहे तुझे, तुम्हे और तुज्झे; यो वृति के अन्त में उल्लिखित 'इत्यादि' शब्द के संकेत से प्रमाणित होता है। स्वयि संस्कृत सप्तम। एकवचनान्त त्रिलिंगामक सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत तुम्मि, तुबम्मि, तुमम्मि, तुम्मि, तुम्मि , तुम्हम्मि और तुजम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम पांच रूपों में सूत्र-संख्या ३.१०२ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद' के स्थान पर क्रम से पांच अंग रूपों की प्राग्नि और छ8 तथा सातवें रूप में सूत्र-संख्या ३-३०४ से पूर्व में प्राप्तांग पांचवें तुम्भ' में स्थित 'लभ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा कल्पिक रूप से 'मह' और 'म' अश की प्रामि; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से उपरोक्त रीति से सासों प्राप्तांगों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ] प्राकृत का कारण +0000000dsoonsore46000000000000+storri.00000000000000000000000000+ 'म्मि' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से बातों रूप तुम्पि, तुमित, तुमझिम, नुहम्मि, नुमम्मि, तुम्हम्मि और तुझम्मि' सिद्ध हो जाते हैं । ३-१६२ ॥ सुपि ॥ ३-१०३ ॥ युप्मदः सुपि परतः तु तुव तुम-तुह-तुमा भवन्ति ।। तुसु । तुयेसु । तुमेसु । तुहेसु । तुम्भेसु || मी म्ह-ज्मी चेति वचनात् तुम्हे यु । तुज्झे ।। केचितु सुष्यत्व विकल्पमिच्छन्ति । तन्मते तुवसु | तुम मु | तुहसु । मसु। तुम्हसु । तुज्झगु ॥ तुम्भस्यात्वपपीच्छत्यन्यः । तुम्भासु | तुम्हासु तुज्झासु ) अर्थ:-संस्कृत पर्वनाम शब्द "युष्मद्" के प्राकृत रुपान्तर में मामा विभक्ति के बहुववन में "सुप-सु" प्रत्यय परे रहने पर "युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में पाँच अग रूग की आदेश-प्राप्ति हुश्रा करती है। जो कि इस प्रकार है:- युष्मद्-तु, तुब, तुम, तुह और तुम्भ उदाहरण यों हैं:- युष्मासु-तुक्ष, तुबसु, तुमसु, । तुहेसु, और तुभेसु । सूत्र-पंख्या ३-१४४ के विधान से पंचम-अंग रूप 'तुम्भ' में स्थिन 'A' अंश के स्थान पर कम से और वैकल्पिक रूप से 'मह' और 'a' अंश की प्राप्ति हुपा करती है, तदनुसार दो अंग रूपों का पानि और होती है:-तुम्ह तथा तुज्झ । यो प्रामांग 'तुम्ह' और तुझ' में 'सु प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तुम्हेसु' तथा 'तुम्झसु' रूपों को संयोजना होती है । कोई कोई व्याकरणाचार्य 'सु' प्रत्यय परे रहने पर उपरोक्त रीति से प्राप्तांग अकारान्त रूपों में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर अपर-वर्णित एवं सूत्र-संख्या ५-१५ से प्रात्तव्य 'ए' की प्राप्ति का विधान वकल्पिक रूप से ही मानते हैं; नननुभार 'युमा' के छः प्राकृत रूपान्तर और धनते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:--- युष्मासु= तुबसु, तुमसु. तुह्सु सुम्भसु, तुम्हमु और तुझसु । ऊपर बाल रूपों में और इन कपों में परस्पर में 'सु' प्रत्यय के पूर्व में स्थित प्राप्तांग के अन्त में रहे हुए अथवा प्राप्त हुए 'ए' और 'अ' स्वरों की उपस्थिति का अथवा अभाव ६१ का ही अन्तर जानना । कोई कोई प्राकृत-भाषा-तत्त्वज्ञ प्रातांग तुम' में स्थित अनध स्वर 'अ' के स्थान पर 'स' प्रत्यय रे रहने पर 'आ' का सभात्र भी वैकल्पिक रूप से मानते हैं । इनके मन से 'युष्मासु' के तीन और प्राकृत रूपालगे का निर्माण होता है; जो कि इस प्रकार हैं:-'युष्मासु' = तुम्मासु, तुम्हासु और नुज्झासु । इनका अर्थ होता है:-श्राप मभी में । 'युमा' संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त (त्रिनिगात्मक) मवनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप १६ होते हैं जो कि इस प्रकार है:-तुपु, तुबसु, तुमेमु. सुद्देसु तुभेसु, तुम्हे सु. तुझसु, तुबसु. तुमसु, सु, तुठभसु, तुम्हसु, तुझसु. तुम्भास, तुम्हासु और तुज्झासु । इन में से प्रथम पांच रूपों में से सूत्र संख्या ३-१०३ से संस्कृत मूल शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी. विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय की संयोजना होने पर 'तु, तुब, तुम, तुह, तुम्भ' इन पाँच अंग रूपों की Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १८७ ] ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ ++++ क्रम से प्रामि, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ४-४५८ से प्राप्रांग इन पांचों क्रम से सप्रमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप =सु' के समान ही प्राकृत में भो 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति एवं द्वितीय से पंचम रूपों में सूत्र संख्या ३-१५ से प्राप्तांग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'श्रागे सप्तमी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से पांच रूप तुसु, तुसु. तुम मु. तुहेसु, और तुभेमु सिद्ध हो जाते हैं। छठे और सातवें कपों में पूत्र मरूपा ३-१०४ के विधान से उपरोक्त पांचवें प्राप्तांग में स्थिन 'क' अंश के स्थान पर कम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'म' अंश की प्राप्ति होने से 'तुम्ह और तुजम' श्रंग रूपों की प्राप्ति एवं शेष सावनिका की प्राप्ति उपरोक्त सूत्र-रूश ३-१५ तथा ४-४४% से होकर छट्टा तथा सातवा रूप तुम्हसु और तुझे तु मी सिद्ध हो जाते हैं श्राठवं रूप से लगाकर तेरहवें सप तक में सूत्र संख्या ३.१०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त सातो अंग रहों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तव्य 'ए' को निषेध स्थिति; एवं यथा-प्राप्त अंग हपों में हो सूत्र संख्या ४.४४८ से सप्तमी के बहुवचनार्थ में 'मु' प्रत्यय का प्राप्ति होकर पाठवें रूप से तेरहवें भी अर्थात 'तुपसु, जुमगु, सुरज, तुमसुमसु, और नुअझ तु' रूपों की सिद्ध हो जाती है। शेष चौदह रूप से लगाकर मालवे रूप में सूत्र-संख्या ३-२०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त प्राप्तांग 'तुम, तुम्ह और तुझ में स्थित अन्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति; यो प्राप्तांग प्राकारान्न रूप में पत्र संख्या ४.१४% से पानमा विभक्ति के बहुवचनार्थ में 'सु प्रत्यय का संभानि होकर चौदहवां पन्द्रहवां और सो नहबां 'तुमासु 'तुम्हासु पोर तुमासु' भी सिद्ध हो जाते हैं. १ ३-१०३ ।। भो म्ह-जमो वा ॥३-१०४ ।। युष्मदादेशेषु यो द्विरुक्तो मस्तस्य म्ह उझ इत्येताबादेशी वा भवतः ।। पचे स एवास्ते । तथैव चोद हितम् ।। अर्थ.-उपरोक्त सूत्र संख्या ३.६१ ३-६३, ३-६५, ३-६६, ३.६७. ३.६८, ३-६६, ३.१००, ३-१०२ और ३.१०३ में ऐमा कयन किया गया है। के संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मदू' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'तुम' अंग रूप की आदेश पारि हुमा करता है; यो प्रप्तांग 'तुम्म' में स्थित संयुक्त ध्यान उभ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'मह' और 'म' अंश रूप की प्राप्ति इस सूत्र ३.१०४ से छुपा करता है। तदनुसार 'तुभ' अंग रूप के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुझ' मंग रूपों की भी कम से तथा बैकल्पिक रूप से संप्राप्ति जानना चाहिये । वैकल्पिक पा का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'युष्मद्' के स्थान पर 'तुम्म' अंग रूप का अस्तित्व भी कायम रहता ही है। इस विषयक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८८ ] * प्राकृत व्याकरा * **6000000 14090604 900*900*6500* उदाहरण उपरोक्त सूत्रों में यथावसर रूप से प्रदर्शित कर दिये गये हैं; अतः यहाँ पर उनको ना करने की आवश्यकता नहीं रह जाती हैं, इस प्रकार वृत्ति और सूत्र का ऐसा तात्पर्य है । ३-१०४ ।। हयं सिना ।। ३-१०५ ।। अस्मदो म्म अम्मि अम्हि हं हं मदः सिना सह एते पडादेशा भवन्ति । अज्ज म्मि हासिया मामि ते ।। उन्नम अम्म कुवि । अहि करंभि । जेण हं विद्धा । किं श्रहं । अयं कयपणासो || अर्थः - संस्कृत मर्वनाम शवर 'अस्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'हम' के स्थान पर प्राकृन में ( प्रत्यय माहेत मूल श के स्थान पर ) क्रम से ( तथा वैकल्पिक रूप से ) छह रूपों का आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। वे श प्राप्त छह रूप इस प्रकार हैं: - ( अस्मद् + मि ) श्रहम् = 'मि, अम्म, अहि, हं, अह और अयं अर्थात मैं । इन श्रादेश प्राप्त छह रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं - अहम् हासिता हे सखि ! तेन=अज्जम्भ हासिया मामि तेण श्रर्थात् हे सखि । आज मैं उससे हवाई गई याने उपने आज मुझे हँसाया | यहां पर 'अहम्' के प्राकृत रूपान्तर में 'म्मि' का प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग प्रेरणार्थक भाव है। उम् शिविया अर्थात् उठ बैठो ! ( याने अनुनयविनय-प्रणाम आदि मत करो; क्योंकि ) मैं ( तुम्हारे पर ) कोवित (गुरुसेवाली ) नहीं हूं। यहां पर 'अहम् के स्थान पर प्राकृत में 'अस्मि रूप का प्रदर्शन कराया गया है। करोमि = मैं करता हूँ अथवा मैं करती हूँ । अहम् करोमि = येन अहम् वृद्धा=जेग हूं विद्वा=जिम (कारण) से मैं वृद्ध हूँ । किम प्रोऽस्मि (प्रमृष्टः अस्मि) अहम् = किं पटुम् अहं अर्थात् क्या मैं भूला हुआ हूं याने मैं भूल गया हूं । क्या अहम् कृत-प्रणामः = अहयं कय पणामो अर्थात मैं कृत-प्रणाम (याने कर लिया है प्रणाम जिसने ऐसा हूँ। उपरोक्त वह उदाहरणों में संस्कृतोय रूप 'अम्मू ( मैं ) के आदेश प्राप्त छह माकृतीय रूपों का दिग्दर्शन कराया गया है। = 'अज्ज' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है । अहम्' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'म्मि' होता हैं। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'म्मि' आदेश प्राप्ति होकर 'म्मि' रूप सिद्ध हो जाता है । 'हाfear संस्कृत प्रेरणार्थक तद्धित विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप हासिया होता है । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित ********60066666666+00009004 904 [ १८६ ] 444 **** 10000 इसमें सूत्र-संख्या ३-१४२ और ३-१५३ से मूल संस्कृत धातु के समान ही प्राकृती हलन्त धातु 'हंस' में स्थित आदि 'अ' को प्रेरणार्थक अवस्था होने से 'आ' की प्राप्तिः ४-२३६ से प्राप्त हल प्रेरणार्थक धातु 'हास' में विकरण प्रत्यया' की प्राप्ति ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे 'क्त' वाचक प्रत्यय का सद्द्माव होने से 'इ' की प्रामि ४-४४% से प्राप्तांग प्रेरणार्थक रूप 'हासि' में संस्कृत के समान ही प्राकृत म भी भूत कृदन्त वाचक 'क्त' प्रत्यय सूचक 'ल' की संतपय 'व' में स्थित हलन्त 'त' का लोप और ३-३२ एवं २४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'हासिल' को पुल्लिंगत्त्र से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-५ से पूर्व प्राप्त 'हामित्र' में प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'धा' प्रत्यय की सन्धि होकर हासिभा रूप सिद्ध हो जाता है ।" 'मामि' 'अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९५ में की गई है। 'तण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १३ में की गई है । उम्मम संस्कृत आज्ञार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी उन्नम ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ में मूल प्राकृत हलन्त धातु 'उन्नम' में त्रिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में 'लुक' रूप अर्थात प्राप्तव्य प्रत्यय की लोपावस्था प्राप्त होकर 'उन्नम' क्रियापद की सिद्धि हो जाती है । 'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.६ में की गई है । 'अहम्' संस्कृत प्रथमां एक वचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनामरूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्' होता है। इसमें सत्र संख्या ३ १०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'अम्मि' रूप की आदेश पारित होकर 'अम्मि' रूप सिद्ध हो जाता है । fear संस्कृत विशेषणात्मक स्त्रीलिंग रूप है। इस का प्राकृत रूप 'कुविआ' होता है । इसमे सूत्र संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'कुप' में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' को प्राप्तिः ४.२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'कुष' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-९४६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के 'आगे भूत कृदन्त नामक 'तत' प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूतकृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'तन्त' प्रत्यय की प्राप्तिः १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से 'हलन्त त' का लोप ३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'कुविश्र' को पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग-सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और १-५ से पूर्व प्राप्त 'कुवित्र' में प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'आ' प्रत्यय की संधि होकर कुवि रूप सिद्ध हो जाता है । 'अहम्' संस्कृत प्रथमाएक वचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अहि होता हैं | इसमें सूत्र-संख्या ३- १०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'अहि' रूप की देश-प्राप्ति होकर 'जन्हि' रूप सिद्ध हो जाता है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] 466696646+÷÷÷÷÷÷÷00066 $$$**$**$44$$$$4 * प्राकृत व्याकरण $4440044 ‘करोन' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है । 'जे' नाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६६ में की गई है। 'अहम्' संस्कृत प्रथमा एक वचनान्त त्रिलिंगाला सर्वनामरूप है। इसका प्राकृत रूप 'हे' होत हूँ । इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'काम' के स्थान पर 'ह' रूप की देश-प्राप्ति होकर 'हं' रूप सिद्ध हो जाता है । वृद्धा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विद्धा होता है। इसमें सत्र संख्या १-१२५ मे 'ऋ' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति ३-३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'वृद्ध से विद्ध' में पुल्लिंगत्व मे स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग-सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्तिः ४-४४८ से प्राप्तांग 'चिद्धा' में आकारान्त स्त्रीलिंग रूप में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि=म' की शाप्ति और १-६६ प्राप्त प्रत्यय 'स' हलन्त होने से इस 'स्' प्रत्यय का लोप होकर प्रथमा-एक वचनार्थक स्त्रीलिंग रूप 'विद्या' सिद्ध हो जाता है । '' अथम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२ में की गई है। प्रमृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पछुट्ट होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५६ मे 'र' का लोप ४-२५८ से 'म्' को 'वह' रूप से निपाल प्राप्ति अर्थात् नियम का अभाव होने से आप स्थिति की प्राप्ति; १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से '' के स्थान पर 'ठ' 'की प्राप्ति; वह से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और १-११ से अन्य विसरा रूप हलन्त व्यखन का लोप होकर पस्छु रूप सिद्ध हो जाता है । अस्मि संस्कृत क्रियापद रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'म्मि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१४० से मूल संस्कृत धातु 'अम्' में वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृतिीय रूप 'अरिम' के स्थान पर प्राकृत में 'हिम' रूप की यादेश प्राप्ति होकर 'म्मि ं रूप सिद्ध हो जाता है। 'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४० में की गई है । 'अहयें' सर्वनाम रूप की सिद्ध सूत्र संख्या १-१९९ में की गई है। कृत प्रणामः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसको प्राकृत रूप क्रय-पणामी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'सु' का लोप; १-१६० से लोप हुए 'तू' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः २०७६ से 'लू' का लो५ २०८६ से लोप हुए 'टू' के पश्चान शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति और ३०० से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कय-पणाम में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'सिस' के स्थान पर प्राकृत में 'डो = श्री प्रत्यय की संप्राप्ति होकर कय-प्रणामी रूप सिद्ध हो जाता है । ३०१०५ ॥ 人 F-. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित * { १६१] nokreenakanswerwww.orassmeeroesroodhwarrrorecommetrorestreetin अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं में जसा ॥ ३-१०६ ॥ अस्मदो जमा सह एते पडादेशा गवन्ति ॥ अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे भणामो। अर्थ:- संस्कृत सधनाम शब्द 'अस्मद' के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय जम' की संयोज नाम पर 'मूल शहद और प्रत्यय दोनों के स्थान पर श्रादेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'वयम्' के स्थान पर प्राकृन में कम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रुप कम से इप्स प्रकार है:--(वयम्=) श्रमह, यम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे । उदाहरण इस प्रकार है:--अयम भणामः = श्रम्ह, अ.. अहो, मो. वयं भे भणामो अर्थात म अध्ययन करते हैं !. 'वयम्' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक मषनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप अम्ह, अाहे. अहो, मो, जथं और भे होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ५-१०६ से मूल भन्फत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्रथमा बहुवचन मे सम्पतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'जम्' की संप्राप्ति होने पर प्राक्ष रूप 'वयम्' के स्थान पर . प्राकृत में उक्त छह रूपों की कम से प्रदेश iin होकर नम से छह रूप 'अम्ह, अम्हे, अहो, मी, सय और भे" सिद्ध हो जाते हैं। भणामः संस्कृत क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रूप भणामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से प्राकृत हलन्त पातु भण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-१४४ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'म:' के स्थान पर प्राकृत में 'मी' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भणामो' रूप सिद्ध होजाता है । ३-१०६ ।। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ॥३-१०७ ॥ अस्मदोमा सह एते दशादेशा भवन्ति ॥णे णं मि अम्मि श्रम्ह मम्ह मं ममं मिम अहं पेच्छ । अर्थ:-- संस्कृत सर्वनाम शब्न 'अस्मद' के द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम' को संबोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर अामेश-प्राम संस्कृत रूप 'माम्' अश्रवा मा के स्थान पर प्राकृत में क्रम में इस रूपों की आदेश-प्रालि छुया करती हैं। वे दस रूप कम से इस प्रकार है:-- (माम) णे, पं. मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, में, मम, मिमं, और अहं । बदाहरण इस प्रकार है:-माम पश्य = पोरग, मि, अम्मि,त्रम्ह, मम्ह, में, मम, मिमं अहं पेच्छ अर्थान् मुझे देखो। माम् अधधा मा संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप 'णे, णं, मि, अम्मि, अह, मम्ह, में, मम, मिमं, और अहं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३-१४७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मदु' के द्वितीया विभक्त के एकवचन में संस्कृतीय प्रासम्म प्रत्यय 'म्' की Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] * प्राकृत व्याकरण * •oooook.000000tsdesocks000000rstarsionerserracondssssdomovernment संप्राप्ति होने पर ग्राम रूप 'माम् अथवा मा के स्थान पर प्राकन में रक्त दश रूपों का क्रम में श्रादेशप्राप्ति होकर क्रम से ये दश रूप-ण, णं, मि, अम्मि. अम्ह, मम्ह, म. म. मिमं और अहूँ सिद्ध हो जाते हैं। वेच्छ क्रियापद रूप की गिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है । ३-१०७ ।। अम्हे अम्हो अम्ह णे शसा ॥३-१०८ ॥ अस्मदः शसा सह एते चत्वार आदेशा भवन्ति । अम्हे आम्ही सम्ह रणे पेच्छ ।। अर्थ:- संस्कृत सवनाम शब्द 'अस्मद्' के द्वितीया विभक्त के बयान में मंरकृतीय प्राप्रम्य प्रत्यय 'शस = अस की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पः आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्मान् अथवा नः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार रूपों की श्रादेश-प्रानि हुआ करती है। के आदेश प्राप्त चार रूप क्रम से इस प्रकार है:-अम्माम् अथवा न:-अम्हे, अम्हो. अम्ह और रणे। दाहरण इम प्रकार है:-अस्मान अथवा नः पश्य = अम्हें, श्रम्हो, यह को पच्छ अर्थात हमें अथवा हम को देखो। अस्मान् अथवा नः संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त निलिंगात्मक के सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप श्रम्ह, अम्ही, श्रम्ह और गो होते हैं। इनमें सूत्र मख्या ३-१०० से मेम्कृत मूल सर्वनाम शब्द है। 'अस्मद्' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शाम' की योजना होने पर प्राप्त रूप 'श्रमान अथवा नः' के स्थान पर प्राकृत म लक्त चार रूपों की कम से श्रादेश-प्राप्ति होकर श्रम से चाय रूप 'अम्हे. अम्ही, अम्ह और णे' सिद्ध हो जाते हैं । 'येच्छ' यिापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-73 में की गई है। ३-१०८ ।। मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ॥३-१०६ ।। अस्मदष्टा सह एते नवादेशा भवन्ति ॥ मि में ममं ममए मनाइ मइ मए मयाइ णे कयं ॥ अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शठन 'अस्मद' के तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा श्रा' की संयोजना होने पर मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर श्रादेश प्राप्त संस्कृत रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से नव रूपों की श्रादेश प्राप्ति हुआ करती है । वे आवंश-प्राप्त नव रूप क्रम से इस प्रकार हैं:-(मया) मि, मे, मम, भमए, ममाइ, मइ, मए, मया और रणे उदाहरण इस प्रकार हैं:-मया कृतम् - मि, मे, ममं, पमए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ, गणे, कयं = अर्थात मुझ से अथवा मेरे से किया हुआ है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित ************6667 24406040044&&&&&&�666400�6❖. कथं किया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६ में की गई है। १०६ ।। अहि हाहि अह अहे थे भिसा ॥ ३-११० ।। [ १६३ ] 'मया' संस्कृत तृतीया एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भि, मे, मम मम ममाइ, म मग, मयाइ और गं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २ १०६ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द अम में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' को संप्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में उक्त नत्र रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर ये नत्र ही रूप 'मि, में, ममं, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ और के' सिद्ध हो जाते हैं। **$**** श्रस्मदो भिसा सह एते पश्चादेशा भवन्ति ।। अम्हेहि अम्हाहि श्रम्ह श्रम्हे से कर्म ॥ अथ:- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'श्रस्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिसू' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत-रूप'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से पाँच रूपों की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त पाँच रूपम से इस प्रकार हैं: - (अस्माभिः = ) अहि अम्हाहि श्रम्ह, अहे और में । उदाहरण इस प्रकार है: - श्रस्माभिः कृतम् श्रमदेहि अम्हारि श्रम्ह, कम्हे, कयं अर्थात हम सभी से अथवा हमा से किया गया है । 'कर्य' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है । ३-११०, मइ-मम-मह- मज्झा ङसौ ।। ३-१११ ।। अस्माभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अम्देहि, म्हाहि श्रम्ह अम्हे और 'णे' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-११० से संस्कृत- सर्वनाम शब्द अस्मद् में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में उक्त पाँचों रूपों की कम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये पाँचों रूप 'अहोई, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और ये सिद्ध हो जाते हैं। प्रस्मदो सौ पञ्चम्पेकवचने परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ ङसेस्तु यथा प्राप्तमेव || महतो - ममतो- महतो मज्झतो आगो || मत्तो इति तु मत इत्यस्य ।। एवं दो-दुहि- हिन्तो वप्युदाहार्यम् ॥ अर्थ :-- संस्कृत सर्वनाम 'अस्म' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय माप्तम्ब प्रत्यय 'कसि असू' के स्थान पर सत्र संख्या २०८ के अनुसार प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तो, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६४ ] ********668968564409944 दोश्रो, दु=उ, हि, हिन्दी और लुक की कम से प्राप्ति होने पर 'अरमदू' के स्थान पर प्राकृत से में क्रम चार अंग रूपों की प्राप्ति होती है। वे चारों अंग रूप क्रम से इस प्रकार है: - (अस्मद् ) मद्द, भ्रम, मह और ase | इन प्राप्तांग चारों रूपों में से प्रत्येक रूप में पंचमी विभक्ति के एक वचनार्थ में क्रम से 'सी, दोश्रो, दु. = उ, हि हिन्तो और लुक अत्ययों की प्राप्ति होने से कचमी एक वचनार्थक रूपों की संख्या होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: 00000440 * प्राकृत व्याकरण * 'मह' के रूपः - ( अस्मद् के मत् अथवा मद्- ) महतो, मईओ, मर्द भई महिला और भई । अर्थात् मुझ से ) 'मम' के रूप--( सं . म अथवा मदु = ) ममतो ममाओ, ममाव, ममाहि ममाहिन्तो और ममा तमु सं ) । 'मह' के रूप - (सं. – मत अथवा मद् = ) महत्तो, महाश्री, महाउ, महाहि महाहिन्तो और महा । (अर्थात् मुझ से ) . मज्म' के रूप - ( संमत् अथवा मद् = ) मज्झतो, मज्झाओ, मञ्झाव, मञ्झाहि, मझाहिन्तो और मझो। (अर्थात मुझ से ) वृति में प्रदर्शित उदाहरण इस प्रकार है: - मन (मदु) आगतः = महत्तो मम सो-महतो मन्मत्ती धागओ अर्थात मेरे से- ( मुझ से ) अश्या हुआ है । संस्कृत में 'मत्त' विशेषत्मक एक शब्द है; जिसका अर्थ होता है-मस्त, पागल अथवा नशा किया हुआ; इस शब्द का प्राक्रत-रूपान्सर भी 'मत्त' ही होता है; तदनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में सूत्र संख्या ३-२ के अनुसार इसका रूप 'मत्तो' बनता है। इसलिये ग्रंथकार वृत्ति में लिखते हैं कि संस्कृत में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'अस्मद' के प्राप्त रूप 'मत' को प्राकृत अंगरूप की अवस्था मानकर 'तो' प्रत्यय लगाकर 'मतो' रूप बनाने की भूल नहीं कर देना चाहिये | बल्कि यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्राकृतीय प्राप्त रूप 'मत्ती' की प्राप्ति अंगरूप 'मत' से प्राप्त हुई है । 'मन् अथवा मद्' संस्कृत पस्चमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप मत्ती, ममत्त महत्ती और मक्कत्ती होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३-१११ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर पञ्चमी के एकवचन में प्राप्तथ्य प्रत्ययों की संयोजना होने पर प्राकृत में उक्त चारों अंग रूपों की कम से प्राप्ति एवं ३ से प्राप्तांग यारों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय रस अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'तो' आदि प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर उक्त चारों रूप 'महत्तो, ममत्तो, महतो और मतो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १६५ ] Herrestretworkshore romosomvokestrwsness.orrentortoonserton... अगओं कप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। मत्तः सकृन विशेषणामक रूप है । इसका प्राकृत रूप मत्तो होता है । इस सूत्र-संख्या ३.२ से मा विभास पचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' प्रत्यय की प्रारित होकर प्राफत-रूप मत्ती सिद्ध हो जाता है । ३-१११ ।। ममाम्ही भ्यसि ॥३-११२ ॥ अम्मदो भ्यसि परतो भम अम्ह इन्यादेशौ भवतः । भ्यसस्तु यथा प्राप्तम् ।। ममत्तो । अम्हत्तो । ममाहिन्तो अम्हाहिन्तों । ममासुन्तो । अम्हासुन्तो । ममेसुन्तो । अम्हेसुन्सी ।। अर्थ:--संस्कृत मवनाम शब्द 'शम्मद' के प्राकृत रूपान्तर में पञ्चमी-विभक्ति के बहुवचन में संम्वृ त्तीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर प्राकृतीय प्राप्तन्य प्रत्यय जी, दो, दु हि, हिन्ना और मुन्तो' प्राप्त होने पर मूल संस्कृत सर्वनाम शद 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दी अंग रूपों को आदेश प्राप्ति हुश्रा करती है। वे प्रामव्य अंग रूप इस प्रकार हैं:-'मम और अम्ह' । इस प्रकार आदेश प्रान इन दोनों अंगों में से प्रत्येक अंग में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में सूत्र संख्या ३-६ के अनुमार छह छह प्रत्यय प्र.म से संयोजित होते हैं; यो अस्मद्' के पक्षमा बहुवचन में संस्कृतीय प्राम कप 'अस्मत' के प्राकृत-रूपान्तर में बारह रूप होते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है: मंस्कृत अस्मत = (मम के रूप = ) ममचो, ममाओ, ममात्र, ममाहि, ममाहिन्ती और ममासुन्तो । ( अम्ह के ) = अम्हन्ती, अम्हाओ, अम्हाउ, अम्हाहि, अम्हाहिन्तो और अम्हासुन्तो । सूत्र संख्या ३.१५ से उपरोक्त प्राप्तांग 'मम' और 'अम्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'एका प्रानि धैकल्पिक रूप से हि. हिन्तो और सुन्तो' प्रत्यय प्राप्त होने पर हुआ करती है; तदनुमार प्रत्येक अंग रू.ए के नीन तीन रूप और होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:--मम के रूप = ममेहि, ममहिन्तो और ममेमुन्नी । अह के रूप = अम्हेह, अम्हेहिन्तो, और अम्हेसुन्तो । यो उपरोक्त चारह रूपों में इन छ: रूपों को और जोड़ने से पञ्चमी बहवचन में संस्कृत रूप 'अस्मत' के प्राकृत में कुल अठारह रूप होते है । ग्रंथकार में वृत्ति में 'अस्मत' के ऋवल आठ प्राकृत रूप ही लिखे हैं; अनएष इन पाठों रूपों का माधानका निम्न प्रकार से है: अस्मत् संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत आठ रूप इस प्रकार हैं: ममतो, अमहतो, मभाहिन्तो, अम्हाहिन्तो, ममासुन्तो, अम्हासुन्तो, ममेसुन्नो और अम्हेसुन्तो। इनम सूत्र संख्या ३-११२ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय सर्वनाम शब्न 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में दो अंग रूप 'सम और अम्ह' को प्राप्ति; उत्पश्चात् तीसरे रूप से प्रारम्भ कर के छद्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६६ ] *प्राकृत व्याकरण 0000000000000000000000000000rstenttorestrosses.6000000000000 रूप तक दोनों अंगों में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर सूत्र संख्या ३.१३ से वकालपक रूप से 'श्रा' को प्राप्ति एवं सात तथा पाठ दोनों अंगों में स्थित अन्त्य स्वर, प्र' के स्थान पर सूत्र-मंख्या -१५ से (वैकल्पिक रूप से ) 'ए' को प्राप्ति और ३-६ से उपरोक्त आठों अंग रूपों में पचमी विभक्ति के बहुवचन में कम से 'तो, हिन्ती और सुन्ती' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर आठों ही रूप-ममनी, अम्हत्तो, ममाहिन्तो, अम्हाहिन्तो, ममान्तो, अम्हासुन्तो, ममेसुन्तो और अम्हेसुन्नी' सिद्ध हो जात हैं । ३-११२ ॥ मे मह मम मह मह मझ मज्भं अम्ह अम्हं उसा ॥३-११३॥ अस्मदो उसा पष्ठयेक वचनेन सहितस्य एते नवादेशा भवन्ति ॥ में मह मम मह महं मझ मज्झं अम्ह अहं धणं । अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् के प्राकृत रूपान्तर में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'इस-प्रस' के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय स प्राप्त होने पर 'मून्न शठन और प्रत्यय' दोनों के ही आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'मम' अथवा 'मे' के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी एकवचनार्थ में नव रूपों की कम से आदेश-प्राप्ति हुआ करती है। जो कि इस प्रकार है:-मम अथवा मेन्मे, मइ, मम, मह, महं, मम्म, मझ, अम्ह और अम्हं अर्थात मेरा । उदाहरणः-- म अथवा में धनम्-मे-मइ-मम-मह-महंमझ-मझ-अम्ह बम्हं धणं अर्थात् मेरा धन | ___ मम अथवा मे संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त (त्रिलिंगास्मक) सर्वनाम रूप है । इसके प्राकृत रूप नव होते हैं। मे. मा, मम, मह, मह, मझ, मन्झ श्रम्ह और अम्ह । इनमें सूत्र-संख्या ३-१९३ से मुल मस्कत शब्द 'अस्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकत्रचन में प्राप्त रूप मम अथवा में के स्थान पर प्राकृत में उपरोक्त नव ही रूपों की श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से ये ना हो रूप में, मह, मम, मह, महं, मझ, मन, अम्ह और अम्हे सिद्ध हो जाते हैं । 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 3-40 में की गई है । ३-११३ ।। णे णो मज्म अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हा ममाण महाण मज्झाण आमा ॥ ३-११४ ॥ अस्मद् आमा सहितस्य एते एकादशादेशा भवन्ति ।। यो णो मज्झ अम्ह अहं अम्हें अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण धर्ण ॥ क्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्या (१-२७) इत्यनुस्वारे । अम्हाणं । ममाणं । महार्ण । मज्झनणं । एवं च पञ्चदश रूपाणि ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित - [१६७ ] .0000000reworstoorenorrooros000000ormineroseroesrrrrosorrowonrotion अर्थ:--संस्कृन सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के षष्ठी-विभक्ति के महूवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'श्राम की मयोजना होने पर 'मूल शब्न और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्माकम् अथवा नः के स्थान पर प्राकृत में अर्थात प्राकृत मूल शब्द और प्राप्त प्रत्यय 'ण' दोनों के हो स्थान पर कम से ग्यारह रूपों की आदश-प्राग्नि हुआ करती है। ये ग्यारह ही रूप इस प्रकार है:अम्माकम् अथवा नाणे, गो, मझ. 'अम्ह, अम्ह. अम्हं, अहो, आम्हाण. पण, महाए, और मज्माण । उदाहरण इम प्रकार है:-भस्माषम अथवा न: धनम् = रणे णो-मम-ग्राम्ह-अम्ह-अम्हे-धम्होअम्हाण-ममाण-महाण-ममाण धण अर्थात् हम मी का ( अथवा माग) धन (है)। सूत्र-संख्या १-२७ में ऐसा विधान प्रदर्शित किया गया है कि-पटी विभक्त के बटुवचन में प्राप्तव्य प्राकृतीय प्रत्यय 'ण' के ऊपर अर्थात् अन्त में वैकल्पिक रूप से अनुस्वार का प्राप्ति हुआ करती हे; तदनुसार उपरोक्त ग्यारह रूपों में से पाठवें रूप से प्रारम्भ करके ग्यारहवें रूप तक अर्थात इन चार रूपों के अन्त में स्थित एवं षष्ठा-विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में संभावित प्रत्यय 'ण' पर धैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है, जो कि इस प्रकार है:-अम्हाणं, ममाणं, महाणं और मझाणं । यो अस्माकम् अथवा नः' के प्राकृत-रूपान्तर में उपरोक्त ग्यारह रूपों में इन चार रुपों को और संयोजना करने पर प्राकृत में षष्ठी-विभक्ति के बहुवचन में कुल पन्द्रह रूप हान है। अस्माकम अथवा नः संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सवनाम मप है। इसके प्राकून रूप पन्द्रह होते हैं । गणे, यो, मझ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हा. अम्हमाण, ममाण, महाण, मज्माण, अम्हाणं, ममाण महाणं और माणं । इनमें से प्रथम ग्यारह रूपां में सूत्र-सख्या ३-११४ से षष्ठी विभक्ति के बहुववन में संस्कृत मूल शब्द 'अस्मद् में पानध्य प्रत्यय 'श्राम' के योग से प्राप्त रूप 'अस्माकम् अथवा नः के स्थान पर उक्त प्रथम ग्यारह रूपों की आदेश प्रानि होकर 'ण, णो, मा. अम्ह, अम्हं, अम्, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण और मज्माण इस प्रकार प्रथम ग्यारह रूप सिद्ध हो जाते हैं। शेष चार रूपों में सूत्र-संख्या १-२७ से : चारहवें रूप से प्रारंभ करके पन्द्रह रूप तक में) षष्ठी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय 'ग' का मद्भाव होने से इस प्रत्यय रूप 'ग' के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर शेष चार 'अम्हाणं, ममाण, महार्ण और मज्झा' भी सिद्ध हो जासे हैं । ३-११४ ॥ मि मइ ममाइ मए मे डिना ॥ ३-११५ ।। अस्मदो बिना सहितस्य एते पश्चादेशा भवन्ति ।। मि मइ ममाइ मए मे ठिअं॥ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्न 'अस्मद्' के मप्रमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रात्तव्य प्रत्यय लिइ की संयोजना होने पर 'मूल शम्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'ममि' के स्थान पर प्राकृत में (प्रातीय मूल शब्द और प्रातभ्य प्राकृतीय प्रत्यय दोनों के ही स्थान Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९८] प्राकृत व्याकरण * •nworor.000000srowseroseekenarkestrenderwesoressive+wsersosorror600000 पर) क्रम से पाँच रूपों की श्रादेश-श्रामि हुश्रा करती है। मादेश-प्रान पांचों ही रूप क्रम से इसप्रकार हैं:-(माय = ) मि, मइ, ममाइ मर और मे अर्थान मुझ पर अथवा मेरे में । उ सहरण इस प्रकार है:--- मयि स्थित्म = मि-भइ-ममाइ-माए-मे ठिथ अर्थात मुझपर अथवा मेरे में स्थित है। . ' माकृत सप्तमी ५कवचनानि बिलिंगात्मक सब नाम रूप है । इसके प्राकृत रूप मि, मइ, ममाइ. मप. और में होते हैं। इसमें सब संख्या ३-११५ से मप्तगी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत-शम्द'अस्मद् में संप्राप्न प्रत्यय छिम' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'माय' के स्थान पर उक्त पाँचों रूपा को क्रम में प्राकृन में श्रादेश प्राप्ति होकर ये पाँचों रूप. 'मि, में, ममाद, मए और में सिद्ध हा जाते हैं । 'ठिोंकप की मिद्धि मूत्र-मख्या ३-१६ में की गई है । ३.११५ ॥ अम्ह-मम-मह-मझा ङौ ॥३-११६ ॥ अस्मदो डी परत एते चत्वार प्रादेशा भवन्ति ॥ उस्तु या प्राप्तम् ॥ अहम्मि ममम्मि महम्मि मम्मम्मि ठिअं॥ अर्थ:-संस्कन सर्वनाम शन 'अस्मद' के प्राकृत मपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कुतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'रि-ह' के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय सत्र संख्या ३.११ से प्राप्तव्य "म्मि' प्रत्यय को संयोजना होने पर संस्कृत शब्द 'अस्मद" के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूपां की प्रादेश प्राप्ति हुयी करना है एवं तर पश्चात मातमी एकव व नाथ में उन श्रादेश-प्राप्त अंग रूपों में म्मि प्रत्यय को मंयोजना हुश्रा करती है । उक्त विधानानुमार 'अस्मद्' के प्रकृतीय प्राप्नध्य चार अंग रूप इस प्रकार है:---अम्मद अम्ह, मम, मह और मझ । उदाहरण इस प्रकार है:--मयि स्थितम् अहम्मि-मममि-महम्मि-मज्झम 'ठ अर्थान मुझ पर अथवा मेरे में स्थित है। 'मयि संस्कृत मप्तमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक मनाम है। इसके प्राकृत प 'अम्हगिम, ममम्मि, महम्मि और मझम्म' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११६ से सप्तमी विभक्ति क एकवचन में संस्कृत शब्द 'अस्मद् के स्थान र प्राकृत में उक्त चार 'अम्ह, मम, मह और मझ अंग रूपों की प्रादेशप्राप्ति एवं तत्पश्चात मूत्र संख्या ३.११ से इन चारों प्राप्तांगों में सप्तमी विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय कि-इ' स्थान पर प्राकृत में म्मि' प्रत्यय की प्रादेशः ति होकर कम से चारों रूप. अहम्मि, मम्मि, मम्मि और मज्झम्मि' सिद्ध हो जाते हैं । विभ' रु.५ की मिद्धि-सत्र-मस्या ३.१७ में की गई है। ३.११६ ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100+ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # *************************** सुपि ।। ३-११७ ॥ [ १६६ ] अस्मदः सुपि परं श्रम्हादय अत्वार आदेशा भवन्ति || प्रदेषु । ममेसु । महेतु । roha | एत्व विकल्पमते तु । अम्हसु । ममसु । महसु । मन्मसु । अम्हस्यात्व मपीत्यन्यः । म्हासु || 4 अर्थ :- संस्कृत मर्धनाम शब्द 'अम्मद' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोष प्रतिष्य प्रत्यय सुप सु के समान ही प्राकृत में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संयोजना होने पर संस्कृत शब्द 'परम' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूप की आदेश प्राप्ति हुआ करती है एवं तत्पश्चात् सप्तमी बहुवचनार्थ में उन आदेश प्राप्त चारों अंग रूपों में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होती है। एक विधानानुसार 'अस्मद्' के प्राकृतीय प्राप्तव्य चार अंगरूप इस प्रकार हैं: - अस्मद् = श्रम्ह, मम, मह और मक । नगरूपों की प्रत्यय सहित स्थिति इस प्रकार है: - मासु = श्रहेषु ममेसु महेलु और म अर्थात हम सभी पर अथवा हमारे पर; हम सभी में अथवा हमारे में । किन्ही किन्हीं की मान्यता है कि सप्तमी बहुवचनार्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संप्राप्ति होने पर एक चारों प्राप्तांगों में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है । सहनुसार एक श्रादेश प्राप्त वार्गे अंगों में 'सु' प्रत्यय प्राप्त होने पर इस प्रकार रूप स्थिति बनती हैं: म्हसु मम महसु और ससु । इनमें अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्तव्य छ का अभाव प्रदर्शिन किया गया है । कोई एक ऐसा भी मानता है कि संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर सर्वप्रथम आदेशप्राप्तांग 'अम्ह' में 'ख' प्रत्यक्ष को संगति होने पर 'अम्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है। इसके मत से 'अम्' में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर सप्तमी बहुवचनार्थ में 'हा' रूप की भी संप्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अस्मासु के प्राकृत में उक्त नव रूप होते हैं। अस्मासु' संस्कृत मप्तमी बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'श्रम्हे, मे, महेतु म हसु ममधु, महसू, मक्कसु और अम्हासु होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-११७ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप' प्रत्यय की संयोजना होने पर संस्कृत मूल शब्द 'श्रमदू' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अम्ह, मम, मह और अंगों की संभाप्ति; तत्पश्चात सूत्र - संख्य ३-१५ से प्राप्तांगों के अंत में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथम चार रूप में आगे सप्तमी बहुवचन बोलक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्तिः ३-११७ की वृत्ति से पांचवे रूप से प्रश्वम्भ करके आप तक में उक्त अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित करके अन्त्य स्वर 'अ' की श्रवा पूर्व स्त्रिते का ही सद्भाव, जबकि नवर्षे रूप में ३-११० को वृत्ति से प्राप्त मग 'ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की शप्ति और सूत्र संख्या ४-४४८ से Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २०० ] 40066600449* * प्राकृत व्याकरा * अनु♠♠सक ++++++++++++++÷÷÷÷0$. का संपादित होकर उपरोक्त रोति से प्राप्त नय ही अंगों में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सु' कम से ये नत्र ही रूप 'अहं ममे, महेस, मझे, अम्मु, ममभू, मह्सु, मज्झतु, और अम्हासु सिद्ध हो जाते हैं । ३-११७ ।। स्ती तृतीयादौ ॥ ३-११८ ॥ (1 त्रेः स्थानं ती इत्यादेशो भवति तृतीयादी ॥ तीहि कयं । तोहित आगश्री । तिवहं घ। ती ठिन्यं ॥ अर्थ:-- संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'त्रि अर्थात् 'तीन' नित्य बहुत बनात्मक है इस 'त्रि' शब्द के एकवचन और द्विवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है। क्योंकि यह 'त्रि' शब्द उप संख्या का वाचक हैं; जो कि 'एक' और 'हो' से नित्य ही अधिक होते हैं। तृतीया विभक्ति पञ्चनो विभक्ति farक्त और सप्तम वक्त के बहुवचन में पर संकट शब्द 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'ता' अंग रूप की आदेश नाति होती है, तत्पश्चात प्रानीय प्राभोगतो' में उक्त विभक्तियों के बहुबचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं: सेना = FC तृतीया विभक्ति बहुवचनः - त्रिभिः कृतम् ही कयं अर्थात् तीन द्वारा किया गया है । पञ्चमी बहुवचनः---त्रिभ्यः भागतः तीहिन्ती आगधा अर्थात तीनों ( के पास ) से आया हुआ है। पष्ठी बहुवचनः -- त्र्याणाम् धनम् तिरहं धणं अर्थात् तीनों का धन और सप्तमां बहुवचनः त्रिषु स्थिनम् = ती ठिक अर्थात् तों पर स्थित है। = त्रिभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेष ) रूप है। इसका प्राकृत पती होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११६ से मूल संस्कृत शब्द 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'ता' अंग रूप की श्रदेश-प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृतीय प्राच्य प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर ती िरूप सिद्ध हो जाता है। कर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है। त्रिभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसका प्रकृत रूप तोहिन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आवेश-प्रम और ३-६ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृतीय व्य प्रत्ययस्यम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर तीहिलो रूप सिद्ध हो जाता है। 'आओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १२०९ में की गई है ! * Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4004 * प्राकृत व्याकरण * 1000001 [ २०१ ] S�92496669994 त्रयाणाम् संस्कृत पष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसका प्राकृत रूप तियहं होता है। इस सूत्र संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत 'तो' अंग रूप की आदेश प्राप्ति ६-१२३ से पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्ताग 'ती' में संस्कृतीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'यह' प्रत्यय का आदेश और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' संयुक्त व्यञ्जनात्मक होने से अंग रूप 'ती' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'सिहं' सिद्ध हो जाता है । 'ध' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५० में की गई है। त्रिg संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है । इसका प्रकृत रूप ती होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११८ से मूत्र संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की प्रदेश प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप्=सु' के समान हो प्राकृत में भो 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप तीसु सिद्ध हो जाता है । 'टिभ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है । ३-६८ ॥ 1 ह्र द वे ॥ ३-११६ ॥ द्वि शब्दस्य तृतीयादौं दो में हत्यादेशौ भवतः । दोहि वेहि कयं । दोहिन्तो वेहिन्तो आमची दोराहं वेराई धणं । दोसु वेसु विचं । अर्थ :- संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'द्वि' अर्थात 'दो' नित्य प्राकृत में ( न कि संस्कृत में ) बहुवचनात्मक है; इस 'द्वि' शब्द के एकवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है; क्योंकि यह 'द्वि' शब्द उस संख्या का वाचक है; जो कि नित्य ही 'एक' से अधिक हैं। तृतीया विभक्ति पंचमी विभक्ति, षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर इस संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और '' अंग रूपों की आदेश प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् प्राकृतीय इन दोनों प्राप्तांगों में बाने 'दो' और 'वे' में क्रम से उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं: - तृतीया विभक्ति बहुवचनः --- द्वाभ्याम् कृतम्-हि reat are sir दो से किया गया है। पंचमी बहुवचनः--- द्वाभ्याम् आगतः रोहिन्तो अथवा बेहिन्तो गम अर्थात दो [ के पास ) से आया हुआ है। षष्ठी बहुवचनः - द्वयोः धनम् दोहं अथवा अर्थात दोनों का धन और सप्तमी बहुवचनः - द्वयोः स्थितम् दोस अथवा वेसु ठिक अर्थात् दानों पर स्थित है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०११ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 100000000000000000+stoissersacrossovo.20000000000000rashtr+s0600 द्वाभ्याम् संस्कृत तृतीया द्विवचनात संख्यात्मक मर्वनाम { और विशेषण ) रूप है। इसके प्रान कप 'बाहि' और 'हि' होत हैं । हममें सूत्र संख्या ३-१६९ से मूल मंस्कृत शब्द के स्थान पर प्रावत में से की और 'वे' an रूपों घी अ'देश-प्राणिः । १३० से संस्कृतीय द्विवचनात्मक पद से प्राकृत मे हुवचनामक पद की (पर्याय अयाथा की प्राप्ति और ३.७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्रामांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत्तीय प्राव्य प्रत्यय याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आवेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप दाहि और घोहि सिद्ध हो जाते हैं ।। कर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में का गई है। द्वाभ्याम् संस्कृत पञ्चमो द्विवचनान्त मंख्यात्मक मर्वनाम (ोर विशेषण ) है। इसके प्राकृत रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्दो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-११६ मे मूल मंस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकत में क्रम में 'दो' और 'ई' अंगरूपों को श्रादेश-प्राप्ति; ३-१३० में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का मात्र और ३.६ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग दो' और 'वे' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यांम' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की आवेश-प्राप्ति होकर क्रम से दोनों कए दाहिन्तो' और 'हिन्सो सिंद हो जाते है। 'आगओ' रूप की मिद्धिमत्र-सक्ष्या १-०९ में की गई है। तो. संस्कृत पष्ठी द्विवचनान्त संख्यात्मक पर्वनाम ( और विशेषण ) २.१ है । इसके प्राकन रूप 'दोरह' और 'राह' होते हैं । इनमें सूअ-संख्या ३-०१६ से मून संस्कृत शरद 'वि' के स्थान पर प्राकृत में कम सं 'दा' और वे' अंगरूपों को आदेश-वानि; ३.६३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का मदभात्र और ६-१.२ से पाठः विभक्ति कं बहुवचन में पाप्तांग 'दो' और 'व' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम के स्थान पर प्राकृत में 'राह' प्रत्यय का श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप दाण्ई' और 'वाह' सिद्ध हो जाते है 'धणं झप की सिद्धि मूत्र-भख्या 8.10 में की गई है। द्वयोः मंस्कृन मातमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रप है। इसके प्राकृत रूप मासु और वसु होते हैं। इनमें मूत्र-संख्या ३-११६ से 'द्वि' के स्थान पर 'दो' और 'ई' अंग रूपों की क्रम में श्रादेश-पिता ३.१३० मे द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का पदभाव और ४.१४- से सप्तमी विनिता के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान को प्राकन में मा 'सु' सत्यय को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'दोसु' और धसु' सिद्ध हो जाते हैं । 'ठि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है। ३-११६ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरा * [२०३ ) 20000000000controta0000000000000*600x60eartheorinetisanded0+0000 दुवे दोगिण वेरिण च जस्-शसा ॥ ३-१२० ॥ जस् शसम्यां सहितस्य द्वेः स्थाने दुवे दोषिण वेएिण इत्येते दो वे इत्येतो च श्रादेशा च गन्ति । दुधे दागिण वेरिण दो चे ठिा पेच्छ वा । हस्यः संयोगे (१-८४) इति हस्थत्वे दुषिण विरिण अर्थ:-- संस्कृत संख्या-पाचक शब्द 'द्वि के प्राकत-रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस और द्वितीया विभक्ति के पहुवचन के प्रत्यय शस' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द द्वि' और प्रत्यय शेने के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में समान रूप से और नाम से पाँच प्रादश-रूपों का प्राप्ति होती है। वे पादेश प्राप्त पौना रूप क्रम में इस प्रकार हैं:-(प्रथमा) द्वौ दुवे, दोरिण. वेरिण, दो और व । (द्वितीया) द्वौ - दुष, दागिण, बारण, दो और वे । प्रथमा का उदाहरण इस प्रकार है:-द्वी स्थिती दुवे, दोएिण. वेरिण, दो, चे ठिश्री अर्थात दो ठहरे हुए हैं। द्वितीया विभक्ति का उदाहरण:-द्वौ पश्यन्दुवे, दोरिण पिण, दो, व पेच्छ अर्थात दो की देखो ! सूत्र संख्या १.८४ में ऐपा विधान प्रदर्शिन किया गया है कि संस्कृत से प्रान प्रकर-रूपान्तर में यदि दीघ वर के आगे संयुक्त व्यम्जन की प्राप्ति हो जाय तो वह दीर्घ स्वर स्वावर में परिणत हो जाया करता है; तदनुसार इम सूत्र में प्राप्त दोरिण और वेरिण' में दीघम्वर 'श्री' के स्थान पर हम्ब स्वर '४' की प्राप्ति तथा दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर उक्त पाँच प्रदेश-प्राप्न रूपों के अतिरिक्त 'हो' के प्राकृत रूपान्तर दो और बन जाते है। जो कि इस प्रकार हैं:-(दौ =) दुरिण और विरिण । यो प्रथमा और द्विनीया में 'हो' के कुल मात प्राकृत रूप हा जाते हैं। है मकत प्रथमा द्विवचनात और द्वितीया द्विवचनान्न संख्यात्मक सर्वनाम (श्री विशेषण) रूप है । इपफ प्राकृत रूप मात हास है.-सुधे, दोरिण, वैरिया, दो, थे. हुरिण और विरिण । इन में से प्रथम पाँच रूपों में सूत्र-संख्या ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३.१२० में प्रथमा द्वितीया कंबहुवचन में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' और 'शस' की प्राप्ति होने पर 'मूल शरद और प्रत्यय दोनों के स्थान पर उक्न पाँचों रूपों को क्रम में श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से इन पाँचौ रूपों 'दुवे, दोषिण, वणि दो और ' का पिद्धि हो जाती है। शेष दो रूपों में सूत्र-संरख्या १-८१ से पूर्वोकन द्वितीय तृतीय रूपों में स्थित 'श्री' और ए' स्वरों के स्थान पर कम से हस्वस्वर 'उ' और 'इ' की प्राप्ति होकर बढे सातवें म्प 'दुषिम' और 'विषिष' की भी सिद्धि हो जाती है । स्थिती संस्कृत रूप है। इसका प्राकन रूप ठिा होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१६ से मूल संस्कृप्त धातु 'स्था - सिष्ठ के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' अंग रूप की श्रावेश-प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त धात 'सी' में स्थित अन्त्य स्वर 'मा' के स्थान पर 'आगे भूत कन्दष्ट से सम्बन्धित प्रत्यय त - त' का Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * +000+ko+ko+torrectroenteronesirearrormwaretworrisonkskriworkerson सद्भाव होने से' 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत कुन्दत के अर्थ में संकृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'तत' की प्राकत में भी इसी अर्थ में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १.१७७ से उक्त प्राप्त प्रायय 'त' में स्थित हलन्न 'त्' का लोप; ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव और ३.४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' का प्राक्कत में लोप एवं ३.१२ से उक्त प्राप्त एवं लुप्त जम्' प्रत्यय के कारण से पूर्वोक्त ठन' म स्थित अन्त्य लम्ब स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा की प्राप्ति होकर 'ठिा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की मद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है । ३.६३० ।। स्तिरिणः ॥ ३-१२१ ॥ जम्-शस् भ्यां सहितस्य ः तिष्णि इत्यादेशो भवति ।। तिष्णि ठिा पेच्छ वा ॥ अर्थः- संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'नि' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जम्' प्रत्यय परे रहने पर नथा द्वितीया विभक्त :, चित प्रकार दिने का दोग मानों विभक्तियों में समान रूप से 'मूल शब्द और प्रत्यय दोको केही स्थान पर तिगिरण' रूप का श्रादेश. प्राप्ति होती है। जैसे प्रथमा के बहुवचन में 'य.' का रूपान्तर 'तिएिण' और द्वितीया के बहुवचन में 'त्रीन्' का रुपान्तर भी 'तिरिण' ही होता है। वास्थात्मक उदाहरण इस प्रकार है-प्रयः स्थिताःनिरिण ठिमा अर्थात तीन (व्यक्ति) ठहरे हुए हैं । त्रीन् पश्यनिरिण पेच्छ अर्थात् तीन को देखो : यो प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत में एक हो रूप तिरिण' होता है। त्रयः मंग्कृत प्रश्नमा बहुवचनान्त संख्यात्मक सपनाम (और विशेषण) म.प है। इसका प्राकृत रूप निरिण' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-३२१ से प्रथमा ।यभारत के बहुवचन में सस्कृतीम प्रामण्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में प्रालि होकर 'मूल शब्द त्रि' और 'जाम' प्रत्यय' दोनों के स्थान पर 'तिरिण' रूप की श्रादेश-प्राप्ति होकर तिणि रूप मिद्ध हा जाता है। "ठिा कियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१२० में की गई है। जिसमें सूत्र संख्या ३-१३८ का इम शब्द साधनिका में अभाव जानना; क्योंकि वहां पर द्विवचन का रूपान्तर सिद्ध करना पड़ा है। अर्थाक यहां पर 'बहुवचन' का ही सदुभाव है । शेष सानिका में :क्त सभी सूत्रों का प्रयोग जानना । श्रीन - तिरिण की साधनिका भो 'यः = सिरिज' के समान ही सूत्र-संख्या ३.१२१ के विधान से उपरोक रीति से समझ लेनी चाहिये। 'पंछ' यापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१ में की गई है । ३.५२३ ।। चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि ॥ ३-१२२ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * orrorrecoronwrosorrotso.00000oorrearrorrorosonsorsteron.000000000000000 चतुर् शब्दस्य जस्-शसम्पां सह चत्तारो चउरो चत्तारि इत्येते आदेशा भवति ।। चत्तारो। चउरो । चत्तारि चिट्ठन्ति पंच्छ वा ।। अर्थ:-संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'चतुः = (चार) के प्राकृत-कमान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जम्' प्रत्यय परे रहने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन म 'श' परे रहने पर दोनों विभक्तियों में ममान रूप से 'मून शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही स्थान पर तीन रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार है:--प्रथमा के बहुवचन में संकृताय रूप चत्वारः के प्राकृत रूपान्तर 'चत्तारो, चररों ओर चत्तारि तथा द्वितीया के महुवचन में सस्कृतोय रूप चतुरः के प्राकृत रूपान्तर में 'चत्तारो, चारो और चत्तारि' ही होते हैं । यो प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में लगे का समानता ही जानना चाहिये । वाक्यात्मक दाम इस प्रकार है- तिष्ठन्त - चना, चउगे, चसारि चिन्ति अर्थात् चार (व्यक्ति) स्थित हैं। चतुरः पश्य - चतारा, चा, चत्तारि पेच्छ अर्थात् चार (व्यक्तियों) को देखो। चत्वारः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त संख्यात्मक मर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसके प्राकृत रूप चत्तारो, चारो और चत्तारि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जम' परे रहने पर मूल शब्द 'चतुर और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर उक्त तानों रूपों की प्रादेश-प्राप्ति होकर (कम से ) नीनों रूप चत्तारो, चउरो और चनारि सिद्ध हो जाते है। चतुरः संस्कृन द्वितीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है । इसके प्राकृत रूप चत्तारो, चउरो और चत्तारि होते हैं । इनमें भा सूत्र-संख्या ३.१२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'शम' पर रहने पर मूल शब्द 'चतुर और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर उक्त तीनों रूपों की आदेश-प्राप्ति होकर (क्रम से) तीनों रूप घसारो, चउरी और चत्तारि सिद्ध हो जाते हैं। .. चिटठान्ति क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-70 में की गई है। "पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१ में की गई है । ३-५२२ ।। संख्याय। आमो राह रहं ॥ ३-१२३ ॥ संख्या शब्दात्परस्यामो यह एह इत्यादेशी भवतः ॥ दोह। तिण्ह । चउण्ह । पञ्चपह । घण्ह । सत्तण्ह । अट्टाह ।। एवं दोपहं । तिगई । चउण्हं । पश्चएहं । छगहँ । सत्ताह । अदुव्हं ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * ++000000000000rrorddssoortonirodkaroorkerreroinekkersonso+++stoson नवदह । दसरह । परास्ता दिखता । वारसाई सपण पाहस्पीणं । कतीनाम् । कइएहं ।। बहुलाधिकाराद् विंशत्यादे न भवति ।। ___ अर्थ:-संस्कृत संख्या वाचक शरदों के प्राकृत रूपान्तर में घटी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत्तीय प्रामध्य प्रत्यय 'श्राम के स्थान पर क्रम से 'राह' और 'राह' प्रत्ययों को आदेश पानि होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-द्वयोः - मोगह और दोण्ह अर्थात् दो का बयाणाम् = तिराह और तिरह अर्थात तीन का; चतुर्णाम् = चउराह और चण्ड अर्थात् चार का; पत्रानाम = परह और पञ्चराह अर्थात पाँच का; परणाम् - छरह और छण्हं अर्थात् छन का; महानाम्-सत्तरह और सत्तरहं अर्थात सात का; अष्टाणाम् = अट्टएह और अट्ठण्ड अर्थात श्राट का, नवानाम-नवरह और नवरहं अर्थात नव का; दशानाम्-इसराह और दररहं अर्थात दश का; पादशानाम् दिवमानाम् पारसण्हं दिमाण अर्थात पन्द्रह दिनों का; अष्टादशनाम श्रमग-पाम्रीणाम् = अट्ठारतगह समए -साहस्तीणं अर्थात अठारह हजार साधुओं का । कीनाम्= इण्ह अर्थात कितनों का इत्यादि । 'बहुल' सूत्र के अधिकार से 'विंशति' अर्थात् 'बीप' आदि संख्या वाचक शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रानग्य प्रत्यय 'माम परे रहने पर प्राकृत-रूपान्तर में 'रह' अथवा 'एह श्रादेश प्राप्ति नहीं भी होती है। यह ध्यान में रखना चाहिये कि । त्रि और चतुर' संख्या वाचक शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में तीनों लिंगों में विभक्ति योधक अवस्था में समान का हो होते हैं । अर्थात् इनमें लिंग भेद नहीं पाया जाना है। इयों: संस्कृत षम्री द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है । इसके प्राकृत रूप दोगह और दोरहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या :-११६ से मूल संस्कृत शब्द 'ट्रि' के स्थान पर प्राकृत में अंग कर दो' की अादेश-प्रामि, ३.५३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का मभाव और ३-१.३ से पी त्रिभ.क्त के बहुववन में संस्कृतीय प्राप्रव्य प्रत्यय 'आम' के स्थ'न पर प्राकृन में 'राह' और 'राई' प्रत्ययों की प्रादश-प्राप्ति ( क्रम में ) होकर दोनों रूप दोह' एवं 'दोपह' सिद्ध हो जाते हैं। त्रयाणाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक मर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निएह और तिराहे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृन शहर त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'नी' अंगरूप की श्रादेश-श्रामि; ३-५२३ से प्रारंग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम के स्थान पर प्राकुन में राह' और 'राई' प्रत्ययों की (कम से) श्रादेश-प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त रूप तीह' 'तीर' में दोघस्वर 'ई' के आगे संयुक्त व्यन्जन 'ह' और 'हं' का सद्भाव होने से उक दोध स्वर 'ई' के स्थान पर हाव घर 'इ' को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'तिण्ड' और 'मिण्ह' सिद्ध हो जाते हैं। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २०७] 40000014sotosinderst o od.0000000searmonesek000000000000000000000 चतुर्णाम सस्कृत पठी बहुवचनान्त संख्यात्मक मर्वनाम { और विशेषण ) रूप है। इसके प्राकुन रूप 'चउण्ह' और घाउण्डं होते हैं। इनमे सूत्र-संख्ण १-१७७ से 'त' का लोप; २.७६ से 'र' का लाप और ३-१२३ से प्रारं 'च' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृन में ' और 'हं' प्रत्ययों को कम से आदेश-प्राप्ति होकर दोनों रूप 'वउण्ह' और 'चउण्ह' सिद्ध हो जाते हैं। पञ्चानाम् संस्कृत षष्टी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप पञ्चह और पञ्चहं होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-१२३ से संस्कृत के समान ही प्राकृतीय अंग रू। 'पत्र' में पठी विभाक्त के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम' के स्थान पर पाकृत में 'ह' और 'राई' प्रत्ययों की क्रम से श्रादेश-प्रालि होकर दोनों रूप 'पञ्चह' और पञ्षण् है' सिख हो जाते हैं। पपणाम संस्कृत पश्वी बहुवचनान्ट संख्यात्मक भर्घनाम (और विशेषण) रूप है । इसके प्राकृत स्य '' और 'अहं हात है । इनमे सूत्र-सख्या १.२६५ से मुल संस्कृत शब्द 'घट में स्थित 'ष' व्यजन के स्थान पर प्राकृत में 'छ' व्यजन की प्रादेशःप्रामि; १.११ से (अथवा २.७७ से) अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'ट' का लोप और ३.१२३ से प्राप्तांग 'छ' में षष्टी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' और 'गहुँ' प्रत्ययों का कम से आदेश-प्राप्ति होकर दोनों रूप 'छाह' और 'छ' सिद्ध हो जाते हैं। सप्नानास संस्कृन पष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है । इसके प्राकन सप 'मत्त' और 'मत्त होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत शब्द 'सर' में स्थित हलन्त 'प' का लोप; २.८६ स लोप हुए 'प' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३.१२३ से प्राप्तांग 'मस' में पविभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम' के स्थान पर प्राकृन में गह' और 'राह' प्रत्ययों का क्रम से आदेश-प्राप्ति होकर दोनों रूप सत्तण्ह' और 'सत्ताह' सिद्ध हो जाते हैं। अष्टानाम संस्कृत षष्ठी बहु पचताम्त संख्यात्मक मर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत कर अटुह और अटुण्डू होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या २-३४ से मूल संस्कृत शब्द 'अ' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 3 की प्राप्ति; २-६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति, २-६० से प्राप्त पूर्व 'ड' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ३-१२५ से प्राप्तांग 'पटु' में षष्ठी बिभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'ह' और 'हे' प्रत्ययों का आदेश-प्राप्ति होकर दोनों रूप 'अट्ठण्ह' और 'अट्टह सिद्ध हो जाते हैं । भयानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है । इसका प्राकृत रूप 'नवम्हं होता है । इसमें सूब संख्या ३-५५३ से मूल संस्कृत के समान ही प्राकतीय अंग रूप 'न' Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * -tourisaook000000ksridrosorroreoverintenderstandsonsentences. में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम' के स्थान पर प्राकृत में 'हं' प्रत्यय को आदेश-प्राप्ति होकर 'नवण्ह' रूप सिद्ध हो जाता है। दशानाम् मस्कत षष्ठी बहुवचनान्न संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) म.प है । इसका प्राकृत रूप दस होता है । इसमें सूत्र संस्था १.२६. से 'श के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः ५-८५ से प्रथम दाघ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति श्री ३.१.३ से षष्ठी विभक्ति के बहुववन में संस्कनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम' के स्थान पर प्राकृत में पह' प्रत्यय की आदेश-प्रारित होकर 'दसण्ह' रूप सिद्ध हो जाता है। पञ्चदशानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप पण्णरसहं होता है। इममें सूत्र-संख्या -४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'च' के स्थान पर 'ण' वणं की आदेश-प्राप्ति; २-८६ से श्रादेश प्राप्त 'ग' को द्वित्व ज्य' को प्राप्ति; १.२५६ से 'द' वण के स्थान पर र वर्ण को आदेश प्राप्तिा १-२६. से 'श' स्थान पर स्' को प्रभाग १-४ ले प्रथम वाच स्वर 'श्रा के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति और ३-१२३ से षष्ठो विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय 'अाम् के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर 'एहँ प्रत्यय को आदेश-प्ति होकर 'पपणरसपह' हा सिद्ध हो जाता है । दिवसानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त कए है। इसका प्राकृत प दिवसारणं हाना है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल संस्कृत के समान ही प्राकृतीय अंग रूप दिनम' में स्थित अन्त्य हस्वस्वर 'अ' के स्थान पर 'धागे षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का मात्र होने से' 'आ' की प्राप्ति; ३.६ से फठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय 'श्राम के स्थानीय रूप 'नाम' के स्थान पर प्राकृन में 'ण प्रत्यय की श्रादेश प्राप्त और १-२७ से आनेश-प्राप्त प्रत्यय 'ण' के अन्त में आगम रूप 'अनुस्वार' की प्राप्ति होसर दिवसाणं रूप सिद्ध हो जाता है। अष्टादशानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक विशेषण रूप है ! इसका प्राकृत रूप अट्ठाग्मराह होता है । इसमें सूत्र संख्या २.३४ से संयुक ब्यञ्जन 'ष्ट्र के स्थान पर प्राकृत में '४' को प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त ४ को द्वित्व 'ल' की प्राप्रि; २.९० से प्राप्त पूर्व के स्थान की प्राति; १.२.१६ से 'द' के स्थान पर 'र' का श्रादेश-प्राप्ति; १-२६. से 'शा' के स्थान पर 'सा' की प्रानि, १.८४ से प्रात 'मा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्रान और ३१२३ में प्राain अलारस में षा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'रई' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'अद्वारसण्ह' सिद्ध हो जाता है। श्रमण-साहलीणाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप समण साहसाण होना है। इसमें सूत्र संख्या २.५ से 'x' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लीप; हुए 'र' के पश्चात Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * 1664000000000000 शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २००६ से 'स्त्री' में स्थित 'लू' का लोप; २-८६ से लोग हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुन् 'सी' में स्थित 'सु' को द्विप' की प्राप्ति ३-६ से पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'म्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १२० से आदेश या प्रत्यय के अन्त में आगम रूप अनुस्वार' की प्राप्ति होकर रूप से जाता है। [ २०६ ] *********** 404 तीनाम् संस्कृत बहुवचनात् सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसका प्रान रूप कइरहुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोग १-८४ से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए दीर्घ स्वर '५' के स्थान पर आगे बढी बहुवचन चोधक संयुक्त व्यञ्जनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से' ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप नाम के स्थान पर प्राकृत में यह प्रत्यय का आदेश-प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'क' सिद्ध हो जाता है । ३-१२३ ॥ शेषे ऽ दन्तवत् ॥ ३-१२४ ॥ उपर्युक्तादन्यः शेषस्तत्र स्यादिविधिरदन्तवदनि दिश्यतं । येष्वाकाराद्यन्तेषु पूर्व कार्याणि नोक्ताणि तेषु जस् शसो लुक् ( ३ - ४ ) इत्यादिनि अदन्ताविकार विहितानि कार्याणि भवन्तीत्यर्थः ॥ तत्र जस् शसो लुक् इत्येतत् कार्यातिदेशः । माता गिरी गुरू सही बहू रेहन्ति पेच्छ वा ॥ श्रमांस्य ( ३-५ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिं गुरु सहि बहुंगा मणि खलपु' पेच्छ । दा-या मोर्णः : ( ३६ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । हाहाण कयं । मालाण गिरीण गुरुण सहीण हूण aj | टायास्तु । टोखा (३-२४) दा ङस् ङरदादिदेद्वा तु ङसे: (३-२६ ) इति विधिरुक्तः ।। मिसोहि हि हिं ( ३-७) इत्येतत् कार्यातिदेशः । मालाहि गिरीहि गुरूहि सही हूहि कथं । एवं सानुनासिकानुस्वारयोरपि ।। ङस् तो- दो-दु-हि- हिन्तो लुकः ( ३-८) इत्येतत् कार्यातिदेशः । मालाओ | मालाउ | मालाहिन्तो || बुद्धीओ | बुद्धीउ | बुद्धिहन्तो । धेओ घेउ | वेखूहिन्तो श्रमश्र | हि लुक तु प्रतिवेत्स्येते (३-२२७, १२६) । भ्यस् तो दी दु हि हिन्तो सुन्तो ( ३-६ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । माजाहिन्तो । मालासुन्तो । हिम्तु निषेत्स्यते (३-१२७) एवं गिरोहिन्तो इत्यादि । इसः सः (३-१० ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिस | गुरुस | दहिस्स | सुहस्स || स्त्रियां तु टा-दस-ङ (३-२६ ) इत्यायुक्तम् ॥ म्सिङ (३११) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिम्मि | गुरुम्मि | दहिम्मि । महुम्मि | स्तुनिषेत्स्यते (३-१२८ ) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २१० ] * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित # 00000000० I स्त्रियां तु टा-ङस् ङ े: (३-२६ ) इत्याद्युक्तम् | जस्- शस् ङसि त्ता-दो- द्वामि दीर्घः (६-१२) इत्येतत कार्यातिदेशः । गिरी गुरू चिह्नन्ति | गिरीश्री गुरूओ आगयो । गिरीण गुरूण धणं ॥ *यसि वा (३-१३) इत्येतत् कार्यातिदेशो न प्रवर्तते । इदुत दीर्घः (३-१६) इति नित्यं विधानात || दाण-शस्त (३-१४) । निम्म्यस सुनि (३-१५) इत्येतत् कार्यातिदेशस्तु निषेत्स्यते ( ३- २६ ) ॥ I Basu अर्थः- इस सूत्र में अकारान्त शब्दों के अतिरिक्त श्राकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि बड- लिंग वाले शब्दों के लिये विभक्ति-बीचक प्रत्ययों से संबंधित ऐप का उल्लेख किया गया है, जो कि पहले नहीं कही गई है। तदनुसार सर्व प्रथम इस सर्व सामान्य विधि की रोषणा की गई है. किं 'जिन आकारान्त आदि शब्दों के लिये पहले जो प्रत्यय विधि नहीं बतलाई गई है; उसको 'अकारान्त शब्द के लिये कही गई प्रत्यय-विधि' के समान हो इन आकारान्त श्रादि शब्दों के लिये भी समझ लेना चाहिये । इस व्यापक श्री घोषणा के अनुमानविक्तिबोधक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत भाषा में व्यकाशन्त शब्दों में जुड़ने वाले प्रत्ययों की कार्य-विधि और प्रभावशीलता इन आकारान्त आदि शब्दों के लिये भी जान लेना चाहिये इस व्यापक विवि-सूचना को यहां पर कार्याति 'देश' शब्द से उल्लिखत की गई है। सर्वप्रथम सूत्र संख्या ३-४ जन् म लुक का कार्यातिदेशना का उदाहरण देते हैं::- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के उदाहरणः - माला, गिरयः गुरवः सख्यः षधव राजन्ते = माला, गिरी, गुरु, सही, हू, हम्तिमात्तायें, पहाड़, गुरूजन, मखियां और बहुएं सुशोभित हो रही हैं। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के उदाहरण यो है.. - माला गिरीन, गुरून् मब्रोः वधूः पंज्ञ = माला, गुरू, सही, बहू ऐकताओं को, पहाड़ी की, गुरुजनों को, मखियों की और बहुप को देखो। इन प्रथम और द्वितीयामिति के बहुवचन 市 उदाहरणों में कागन्त, इकारान्त ईकारान्त और ऊकारान्त पुल्लिंग एवं सीलिंग के शब्दों में अकारान्त शब्द क' प्रत्यय-चिकायां होती है; ज्ञान कराया गया है। 'अमोस्य' ( २-१ ) सूत्र की काय अतिदेशना उदाहरण इस प्रकार हैं: गिरिम्, गुरुम् सखीम् ; वधूम, ग्रामण्यम् खलध्वम् प्रेक्ष, गुरू, सहि बहु, गामगिं खल पंछाड़ को गुरू की, सखी की, वधु को ग्राम- मुखिया का और खलिहान नाफ करने वाले को देखो। इन शहरों में भी अकारान्त शब्द के समान ही द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय की कार्य शीलता प्रदर्शित की गई है । - 'दा-यामांण ( ३-३) सूत्र की कार्य-प्रतिदेशना का स्वरूपदर्श उदाहरण इस प्रकार है:हाहा-वृत्तम=हाहाण कथं=गन्धर्व से, अथवा देव से किया गया है। यह तृतीया विभक्ति के एकवचन का 'उदाहरण हुआ; ष्टो विभक्ति के बहुवचन से होने वाले कार्यातिदेश के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं। - 5 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरया * [ २११ } 6000******************** 14000000000 ******** भालानाम्, गुरुणाम्, गिरीणाम्, सखीनाम, वधूनाम्, घनमू=मालाण, गिरीण, गुरुण, सहोण बहूण = मालाओं का पहाड़ों का गुरूजनों का मत्रियों का बहुओं का धन तृतीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'टा' से सम्बन्धित सूत्र पहले कहे गये हैं जो कि इस प्रकार हैं:- टोणा, (३०२४) और 'दास को रदादिदेद्वा तु मे (२६); इनकी कार्य-विधि इनको वृत्त में बतलाये गये विधान के अनुसार ही समझ लेना चाहिये । तृतीया विभक्ति के बहुवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र भिमा हि हिं हिं', (३७) कहा गया है; उसका कार्यातिदेश इन आकारान्त इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग वाले शब्दों के लिए भी प्राप्त होता है; यह ध्यान में रहे। उदाहरण इस प्रकार हैं:- मालाभिः गिभिः गुरुभिः सखीभिः वधूभिः कृतम् = मालाहि हि गुरूहि सोहि बहूहि कथं मालाओं से पहाड़ों से, गुरु-जनों से मखियों से, बधुओं से किया गया है। इसी प्रकार से इन शब्दों में 'ह' और 'हं' प्रत्ययों की संप्राप्ति भी तृतीया विभक्ति के बहुवचन के निर्माण हेतु की जाती हैं। जैसे कि मालाहि मालाहि गुरूहि, गुरूहिं इत्यादि । ***44660 विभक्ति एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र इसेस तो-दो -दु-हि- हिन्सो-लुकः → (८) कहा गया है; उसका कार्यानदेश इन श्राकारान्त, इकारान्त उकारान्त आदि खालिंग वाले शब्द के लिए भी होता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- गलायाः, बुद्धधा बुद्धे, घेन्वाः, धेनोः आगतः = मालाओ. मालाड मालाहिती बुद्धीश्रो, बुद्धी बुद्धीन्टिो घेणू घेणूड घेणूहितो आगो माला से गाय से, बुद्धि से श्राया हुआ है । इस सम्बन्ध में सूत्र संख्या ३-१०६ और ३-१२७ में उल्लिखित नियम का भी ध्यान रखना चाहिये; जैसा कि आगे बतलाया जाने वाला है। तदनुवार 'लुक प्रत्यय का और हि अत्यय का' इन शब्दों के लिये प्रभाव होता है। सूत्र संख्या ३-३० के अनुसार आकारान्त शब्दों के लिये विभक्ति में प्रागतव्य प्रत्यय 'आ' का भी निषेध होता है। पञ्चमी त्रिभक्ति के बहुवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र -'म तो दो दुहि हिन्दी मुन्ती (३-६)' कहा गया है; उसका कार्यातिदेश इन आकारान्त आदि शब्दों के लिये भी होता है । उदाहरण इस प्रकार है: - मालाभ्यामालाही मालमुन्नी 'माल मालाओ मालाव' रूप वृत्ति में प्रदान नहीं किये गये है; किन्तु इनका सद्भाव है। केवल 'ह' प्रत्यय का अभाव जानना जैसा कि सूत्र-संख्या ३-१२७ सें इसका निषेध किया जाने वाला है। इसी प्रकार से 'गिरीहिन्ता' आदि रूमें को कल्पना स्वमेव कर लेनी चाहिये। ऐसा तात्पर्य प्रतिध्वनित होता हूँ । पठी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र - 'सः सः (३-१० ) ' कहा गया है; उसका कार्यातिदेश पुल्लिंग और नपुंसकलिंग वाले इकारान्त उकारान्त आदि शब्दों के लिये भी होता | उदाहरण इस प्रकार हैं: - गिरो-गिरिस् गिरि का पहाड़ का; गुरोः गुरुस्स गुरूजन का दमः दहिस्त = दही का; मुलम्म=मुहरल =मुख क्का; इत्यादि । बोलिंग वाले शब्दों के लिये इस सूत्र संख्या ३-१० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # *6669969 [ २९२ ] की कार्यातिदेश की प्राप्ति नहीं होती है; क्योंकि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ष्ठी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु अलग हो एक अन्य सूत्र संख्या ३००६ का विधान किया गया है। जो कि इम प्रकार है:- टाइम के स्वादि देवा तु । 44404 सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र 'डेम्नि डे (३-१२ ) का विधान किया गया है; उसका कार्यातिदेश पुल्लिंग और नपुंसक लिंग वाले इकारान्त उकारान्त आदि शब्द के लिये भी होता है । किन्तु इसमें यह विशेषता रही हुई है कि 'डे' प्रत्यय का सद्भाव इन शब्दों के लिये नहीं होता है; जैसा कि सूत्र संख्या ३-१२८ में ऐसा निषेध कर दिया गया है। वक्त सूत्र प्रकार है: - ' ' । इसी प्रकार से स्त्रीलिंग वाले आकागन्त, इकारान्त उकारान्त आदे शब्दों के लिये भी सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण में उक्त सूत्र संख्या ३-११ का कार्यातिदेश नहीं होता है; किन्तु सूत्र- संख्या २०१६ की ही कार्य शीजना उक्त स्त्रीनिंग वाले शब्दों के लिये होती है ! पुल्लिंग और नपुंसक लिंग वाले शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है: - गिगै-गिरिनि पहाड़ पर अथवा पहाड़ में; गुरी गुरुम्मिगुरूजनों में अथवा गुरूजन पर दनि अथवा दान-हिम्मदा में बवा दही पर मधुनि=मम्मि = मधु पर अथवा मधु में इत्यादि । सूत्र-संख्या ३-१२-जस-स- इस दो- दो- द्वामि दीर्घः' के अनुसार प्राप्तन्य स्वस्वर की दीर्घा का विधान उपरोक्त संबंधित सभी रूपों में होता है; ऐसा जानना चाहिये। कम से उदाहरण इस प्रकार है: - प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्त - गिग्यः अथवा गुरवः तिष्ठन्तिगिरी गु चिन्ति=अनेक पहाड़ अथवा गुरूजन हैं। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्तगिरीन् अथवा गुरुन पश्यगिरी अथवा गुरू पे पहाड़ों को अथवा गुरूजनों को देखो। पंचमी विभक्ति के एकत्रचन और बहुवचन का दृष्टान्त - गिरेः गिरिभ्यः, सुगे:, गुरूभ्यः आगतः=गिओ गुरूओ आओ पहाड़ से, पहाड़ों से, गुरू से, गुरुओं से आया हुआ है । षष्ठों के बहुत का टशन्- गिरीशाम् गुरूणाम् धनमगिरीण, गुरुण धर-पहाड़ों का गुरुजनों का धन । सूत्र-संख्या ३-१३ भ्यसि वा' की कार्यातिदेशता की प्राप्ति उपरोक्त आकारान्त इकारान्त उकारान्त आदि शब्दों के संबंध में नहीं होती है; किन्तु सूत्र संख्या ३-१६ ' इतो दीर्घः' को कार्यातिदेशता की प्राप्ति इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये नित्य होती है; ऐसा विधान वृति में 'नित्यं विधानात' शब्दों द्वारा मन्यकार ने प्रकट किया है। इसी प्रकार में 'दाण-शम्येत (३-१४ ) और 'सिग्ध्यपि (३-२५)' सूत्रों की कायनिदेशता का निपेत्र आगे सूत्र संख्या ३०२२३ में प्रकट करके वृत्तिकार यह बतलाते हैं कि आकारान्त इकारान्त उकारान्त बाद शब्दों के अन्त्य स्वर को उपरोक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है। इस विषयक उदाहरण आगे सूत्र संख्या ३-१९१६ में प्रदान किये गये हैं। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २१३ ] Matrosssssssssssadiworroristassornworosiretrroristmorrorension माला संस्कृत प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का लीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप माला होता है। इसमें सत्र-संख्या ३-४ में संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तध्य प्रत्यय जस और स. का प्राकन ने साप हो र ति कप बाला सिद्ध हो जाता है। गिरयः और गिरीन संस्कृत में कम में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विमक्ति के बहुवचनीय पुलिंग रूप हैं । इन दोनों का प्राकृत समान रूप गिरी होता है। इसमें सत्र-संरख्या ३.१२ से और ३.१८ से मूल प्राकृत रूप गिरि में स्थित अन्त्य हस्य स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३.४ से संस्कृतीय प्रथमा और द्विनीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय जम् और शम का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्राकृत रूप गिरी सिद्ध हो जाता है। गुरवः और गुरून संस्कृत में कम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय पुल्लिंग रूप हैं । इन दोनों का प्राकृत रूप गुरू होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१२ से और ३-१८ से मूल प्राकृत रूप गुरु में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'क' को प्राति; तत्पश्चात् ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय जस् और शम का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहुषचन में प्राकृत रूप गुरू सिद्ध हो जाता है। 'सही प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.२७ में की गई है। 'वह' प्रथमा द्वितीया विभक्ति के पहुवचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.२७ में का गई है। 'रेहान्त' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 1-17 में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-में की गई है। 'या' अन्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। 'गिरि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है। गुनम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.५ से संस्कृतीय प्रापन्य प्रत्यय 'अम्' में स्थित 'अ' का लोप होकर प्राकृत में म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रात प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप गुरुं सिद्ध हो जाता है। सखीम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप सहिं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३.३६ से प्राप्त रूप सही' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति, ३-५ से द्वितीया विभक्ति के प्रावधान में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२५ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप सहिं सिद्ध हो जाता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१४ ] * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * +++++++++rohtos.sonorarist.caci.000000rn.windorostatest+kroin 'पहुँ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -३६ में की गई है। ग्रामण्यम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से मूल संस्कृत रूप ग्रामणी में स्थित 'ए व्यञ्जन का लोप; ३-४३ से प्राप्त रू. में नि:: .. दीइसाब 'ई' के गाल पर ह्रस्व स्वर 'इ' को प्राप्ति; ३-३ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकनीय रूप गामाण सिद्ध हो जाता है। खलप्पम संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुस्लिग रूप है। इसका प्राकृस रूप खलपु होता है इसमें सूत्र संख्या ३-४३ से मूल रूप खलपू में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'धु' की प्राप्रि; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के पकवचन में प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२ से प्रारत प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप खलघु सित हो जाता है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि मत्र-संख्या १-२३ में की गई है। हाहा संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्निग का है । इसका प्राकृत रूप हाहाण होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय ' टाया ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप हाहाण सिद्ध हो जाता है। 'कर्य' क्रियापद रूप की मिद्धि नत्र-मंख्या १-१६ में की गई है। मालानाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप मालाण होता है इसमें मूत्र-संख्या ३६ से षष्ठी विर्भात के बहुवचन में संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'श्राम' (नाम) के स्थान पर प्राकृन में 'श' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतोय कप मालाण सिद्ध हो जाना है। गिरीणाम् संस्कृत षष्ठी विकि का यह वचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रुप गिरीण होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ १२ से मूल प्राकृत शब्द गिरि में स्थित अन्त्य इव स्वर 'इ' के धागे षष्ठो बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीघ स्वर 'ई' को प्राप्ति और ३.६ से प्राप्त रूप गिरि में पटो विभक्ति के बहुवचनार्थ में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'आम् = गाम्' के स्थान पर प्राकृत 'ए' प्रत्यय की प्रानि होकर गिरीण रूप सिद्ध हो जाता है। गुरूणाम् संस्कृत पठी विभक्त का बहुवचनान्त पुल्लिग रूप है । इसका प्राकृत रूप गुरूण होता है । इसमें भी उपरोक्त गिरीण रूप के समान ही सूत्र-संखका ३-१२ और ३.६ से कम से अन्त्य हाच स्वर को दोपता की प्राप्ति एवं पर्ण बहुवचनार्थ में प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरूण क्य मिद्ध हो जाता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * 00000kboterotica.odesorderstakoscoww0xs000000000000000000000000 सखीनाम् संस्कृन षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रुप सहीण होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-६ से प्राम रूप सही में षष्ठी विभक्ति के बहुवचनार्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम् = काम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृन रूप सहीण सिद्ध हो जाता है। बधूनाम् संस्कृत षष्ठी विक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप बहूण होता है । इसमें भी अपरोक्त सहीण रूप के समान ही सूत्र-संख्या १-१८७ और ३.६ से क्रम से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और षष्टी बहुवचनार्थ में प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहण रूप सिद्ध हो जाता है। 'भणं' संज्ञा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या :-२० में की गई है। मालाभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप मालाहि होता है । इसमें सूत्र संख्या 3-9 से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय मिस् के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप मालाह सिद्ध हो जाता है। गिरिभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त पुर्तिलग रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरोहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१६ से मून प्राकन शव गिरि में स्थित अन्त्य हर स्वर 'इ' के आगे तृतीया बहुवचनान्त प्रत्यय का प्रभाव होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-७ मे तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तग्य प्रत्यय भिम् के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप गिरीहि सिद्ध है आता है । गुरुभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरूहि होता है। इसमें मत्र-संख्या ३-१६ से मूज शम्भ गुम में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'पु' के भागे तृतीया बहुवचनान्त मत्यय का सद्भाव होने से दोघं स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-७ से हतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीव प्राप्तध्य प्रत्यय 'भिमके स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरूह रूप सिद्ध हो आता है। " सखीभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप सहीहि होना है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-9 से तृतीया विमति के बहुववन में संस्कृतीय प्राव्य पत्यय भिम' के स्थान पर प्राकृन में 'हि' प्रत्यय यो प्राप्ति होकर सही रूप सिद्ध हो जाता है । धामः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुषचनान्त स्त्रीलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप वहूदि होता है। इसमें सूत्र-मररूपा १.१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोत्र प्रापण प्रत्यय 'मित्' के स्थान पर प्राकृत में "हि' प्रत्यय की प्राप्ति कर अनूहि रूप सिद्ध हो जाता है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१६ ] प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * morrecortersnessmanarsisterest.resmenorreareerustratoriessatan 'कार्य' रूप को सिद्ध सूत्र-संख्या १.१२८ में की गई है। मालायाः संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का एकवचनान्न स्त्रीलिंग रूप है । इसके प्राकृत रुत मालाओ. मालाड, मालाहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-८ से और ३-१२४ के निर्देश से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'जमि-असभ्याः ' के स्थान पर प्राक़त में कम से 'ओ, उ, हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से प्राकृतीय रूप मालाओ, मालाउ, मालाहिन्ती सिद्ध हो जाते हैं। खुख्याः संस्कृत पञ्चमी विमति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग कप है । इसके प्राकृत रूप बुीओ. बुद्धोउ, बुधौहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३.१२ से मूल शब्द चुद्धि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के श्रामे पञ्चमी विभक्ति के एकवचनान्त प्रत्ययों का सद्भाव होने से दोर्घ स्वर 'ई' की प्रानि; तत्पश्चात ३.८ से और ३-१२४ के निर्देश से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्रामध्य प्रत्यय 'इंसि-प्रसमस पास' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'श्री. 'उ, हिन्तो' प्रत्ययों को प्रानि होकर क्रम से प्राकृतीय रूप बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो, सिद्ध हो जाते हैं। 'धेणूओ, भेषाउ, धे]हिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या ३१९ में की गई है। 'भागओ' रूप की सिवि सूत्र-संख्या १.३०९ में को गई है। मालाभ्यः संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का बहुवचनान्त वालिंग रूप है । इसके प्राकत रूप मालाहिन्तो, मालासुन्तो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-६ से पंचमी विभक्ति के बटुवचन में संस्कनीय प्राप्तन्य प्रत्यय भ्यस्त के स्थान पर प्राकृत में क्रम से हिन्तो, सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होगर प्राकृतीय रूप मालाहिन्तो, माला सुन्तो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। गिरिभ्यः संस्कृत पञ्चमो विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१६ से मूल रूप गिरि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर ३' की प्राप्ति और ३-६ से पचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय भ्यस के स्थान पर प्राकृत में हिन्तो प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतोय रूप गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाता है। 'गिरिस्स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.२३ में की गई है। गुरोः संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप गुरुस्स होता है । इममें सूत्र संख्या ३.१० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रातव्य प्रत्यय 'छम-अस' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुस्स रूप मिड हो जाता है । दस्तः संस्कृत षष्टी विभक्ति का एकवचनान्त नपुसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिस्स होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८ से मूल संस्कृत रूप दधि में स्थित ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २१७ ] いやいやいや、なかなかなかなかからないのか分からないのですが、 प्राप्तव्य प्रत्यय 'हस्प्रस' के स्थान पर प्रान प्राकृत रूप दहि में स्त्र' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिस्त रूप सिद्ध हो जाता है। मुखस्य संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचमान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८७ से 'ख' के स्थान पर 'ई' प्राप्ति तत्पश्चात ३-१० से षधी विभक्ति के एकवचन में 'स्म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है। गिरौ संस्कृत सप्रमी विभक्ति का पकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिम्मि होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.११ से और ३-१२४ के निर्देश से मूल प्राकृत रूप गिरि में सप्तमो विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यक "न्दि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूत गिरीम सिद्ध हो जाता है। गुरी संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है । इसका प्राकृत रूप गुरुम्मि होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.११ से और ३-१२४ के निर्दश से उपरोक्त गिरिम्मि रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गुरुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। दान अथवा दधनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नसालग रूप है । इसका प्राकृत रूप इहिम्मि होता है । इममें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द दधि में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इ व्यजन को प्राप्ति; तपश्चान् ३-११ से और ३.१२४ के निर्देश से प्राम प्राकृत रूप दाह में सप्तमी विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। मधुनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकत्रचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप महुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द मधु में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में ह' व्यश्चन की प्राप्ति; तत्पश्चान् ३-११ से और ३.१२४ के निर्देश से उपरोक्त प्राकृत रूप दहिम्मि के समान ही म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मछम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। 'गिरी' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या में की गई है। गुरू प्रथमा बहुवचनान्त रूप की सिकि इसी सूत्र ३.१२४ में ऊपर की गई है। चिन्ति क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० की गई है। गिरीओ रूप की सिद्धि एकवचनान्त अवस्था में तो सूत्र-संख्या 373 में की गई है तथा बहुवचनाम्त अवस्था में सूत्र-संख्या -१5 में की गई है। ___ गुरोः और गुरुभ्यः क्रम से संस्कृत पशमो त्रिभक्ति के एकवचनान्त और बहुवचनान्त पुल्जिग रूप है । इन दोनों का प्राकृत रूपान्तर एक जैसा हो-(समान रूप ही ) गुरुप्रो होता है। इसमें सूत्र Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१८] * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * oconorroristerestronxossworrrrrrrrrrrrrrrrrrrtoonsortinsonsksistan संख्या ३-१२ से और ३.१६ से कम से एकवचन में और बहुवचन में मून शब्द गुरु में स्थित अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'अ' को प्रामि, तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३.८ से और ३-६ से तथा ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त प्राकृत रूप 'गुरू' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इसि-प्रस' के स्थान पर प्राकृत में 'दो - श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रामण्य प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर भी दो = श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर दोनों वचनों में समान स्थिति घाला प्राकृताय रुप गुरूओ सिद्ध हो जाता है। मागओ क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-०९ में की गई है। 'गिरीण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र -१४ में ऊपर की गई है। 'गृरूण' रूप की सिद्धि इसी मूत्र ११४ में ऊपर की गई है। 'घ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 3-५० में की गई है। १२४॥ न दीपों णो ॥ ३-१२५॥ इदन्तयोराजस्-शस् स्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो दीघों न भवति || अग्गियो। वाउणो ॥ णो इति किम् अग्गी । अग्गीश्री ॥ अर्थ:--इकारान्त अकारान्त शब्दों में सत्र मंख्या ३-२२ के अनुमार प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहु वचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' और 'शस के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर इन शब्दों में स्थित अन्त्य हम्ब स्वर 'इ' अथवा 'ड' को दोस्व की प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार से सत्र संख्या ३-२३ के अनुमार इन्ही इकागन्त और उकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'सि-अप्स' के स्थान पर प्राकृत में 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य इस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्धत्व की प्राप्ति नहीं होती है। चनाहरण इस प्रकार हैअग्नयः= अम्गिणी; अग्नीन् = अग्गियो । बाथव :- वारणो; वायून = वाजणो पंचमी विभक्ति के एक षचन के उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नेः = अम्गिणो और वायोः । दाउणो; इत्यादि। प्रश्नः-- उक्त विभक्तियों में और सत शब्दों में 'नो' प्रत्यय का सवभाव होने पर अन्त्य इव स्वर को दीर्घता की प्राप्ति नहीं होती; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्योंकि यदि उक्त विभक्तियों में 'नो' प्रत्यय का सदभाव नहीं होकर अन्य प्रत्ययों का का सदभाव होगा ऐसी दशा में इकारान्त और वकारान्त शब्दों में स्थित अन्य इस स्वर को पीता की प्राप्ति हो जानी है। उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नय :- अमी; अग्नीन; * अगा, अग्ने अमीनो 'वायच :- वार; वायून - वाऊ वार्योः = वाऊो; आदि। 'अग्गियो' पाउणों और 'अग्गी, रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या 420 में की गई है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ २१६ ] mo000oormartworroronstreeroenorrotoconomireosnoon.orrorrorosorrow.in अग्ने संस्कृत पधमी विभक्ति का एक वचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गियो होता है । इसमें मत्र-संख्या २-७ से मूल शब्द 'अग्नि' में स्थित 'न्' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'न्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग ग' की प्रास्ति; ३-१२ से और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'अगि' में स्थित अन्स्य ह्रस्व स्वर 'इ' के आगे पंचमी विभक्ति के एक वचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-१२४ से प्राप्त प्राकृत रूप 'धम्गी' में पंचमी विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'कसिम्स' के स्थान पर प्राकृत में 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गीओ रूप सिद्ध हो जाता है। १२५ ॥ ङसे लुक् ॥ ३-१२६ ।। आकारान्तादिभ्योदन्तवत् प्राप्ती उसेढुंग न भवति ।। मालतो । मालाओ । मालाउ । मालाहिन्तो प्रशासगी । एवं प्रमीयो ! मालश्यो । इत्यादि ।। अर्थः- प्राकृत में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों के समान ही सूत्र-मंख्या ३-१२४ के निर्देश से आकारान्त, इकारान्त उकारान्त पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय "कसिः अस्' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र संख्या 2 से प्रामध्य प्रत्यय 'सो, दो, दु. हिन्तो' का स्लोप नहीं हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:-मालयाः श्रागत:=पालसो, माला श्रो, मालाउ माला हिन्तो आगो । इसी प्रकार से इकारान्त, उकारान्द शब्दों के उदाहरण यों है:-अम्नः प्रागीओ अग्नि से इस्वादि । पायोः = वाऊो = वायु से इत्यादि । मालायाः संस्कृत पश्चमी एकवचनान्त स्रोलिंग रूप । इसके प्राकृत रूप मालतो, मालाश्री, मालाउ, मालाहिन्तो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.५१ से मूल शब्द माला में स्थित अन्त्य शीर्ष म्वर 'श्रा' के स्थान पर हाव स्वर 'अ' को प्राति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३.८ से और ३.१२४ के निर्देश से तथा ३-१२६ के विधान से पञ्चमी विक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्रापव्व प्रत्यय 'सि-अस' के स्थान पर प्राकृत में सो' प्रत्यय की प्रानि होकर प्रथम रूप मालत्तिा रूप सिद्ध हो जाता है। 'मालाओ: मालाउ, मालाहिन्ती' रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या ३.१४ में की गई है। 'आगओं' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संस्था १-२०१ में की गई है। 'अग्गाओ' रूप की सिच मूत्र संख्या ३-१५ में की गई है। पायोः संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप वाऊो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ ले मूल शब्द 'वायु में स्थित 'ब' व्यखन का लोप, ३-१२ से प्राप्त रूप 'वाट' में स्थित अन्त्य हम्ब स्वर 'ड' के स्थान पर पखमी एकवचन के प्रत्यय का सद्भाव क्षेने से दीर्घ स्वर 'क' की प्रामि सवाल ३-से प्राप्त रूप वाऊ में पाश्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रातस्य प्रत्यय 'सि-अस' के स्थान पर प्राकृत में 'दो प्रो' प्रत्यय की प्रामि होकर पाऊओ रूप सिद्ध हो जाता है । १२६।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ****००**० भ्यसश्च हिः !! ३-१२७ ॥ श्राकारान्तादिम्यो दन्तवत् प्राप्तो भ्यसो सेव हिर्न भवति ॥ माला हिन्तो । माला सुन्तो । एवं श्रग्गीहिन्तो । इत्यादि ॥ मालाओं । मालाउ । मालाहिन्तो ॥ एवं अगी । इत्यादि ॥ 1 [ २२० ] अर्थ :-- प्राकृत भाषा के पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में अकारान्त शब्दों के समान ही सूत्र संख्या ३-१२४ के निर्देश से आकारान्त इकारान्त, उकारान्त पुल्लिंग श्रथवा खलिंग शब्दों में क्रम से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'उसि = अस' और 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र संख्या ३८ से प्राप्तस्य प्रत्यय 'तो, दो, दु, हि हिन्तो और ३-६ से 'तो, दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्तों' में से 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार है: - मालायाः = मालाओ, मालाउ मालाहिती = साला से; इत्यादि । मालाभ्या=मालाहिन्तो, मालासुम्तो = मालाओं से; इत्यादि । अग्निम् श्रीहिन्तो श्रग्नियों से; इत्यादि । श्रस्ते अशीओ अग्नि से; इत्यादि । 'माहित' और मालासुन्तो रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१२४ में की गई है। - - अग्निभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त पुंलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अोहिन्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या २७८ से मूल शब्द 'अग्नि' में स्थित 'न्' व्यञ्जन का लोप २०८६ से लोप हुए 'न्' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'गंगू' की प्राप्तिः ३-१६ से प्राप्त रूप 'रिंग में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के आगे पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का भाव होने से दीघं स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-६ से तथा ३-५६४ के निर्देश से प्राप्त रूप अग्गो में पञ्चमी विभक्ति के प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गीहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है । बहुवचन 44444444 'मालाओ' 'मालाउ' और 'मालाहिती' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है। अगीओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१२५ में की गई है । ।। १२७ ।। दहिम्मि | मम्मि || ङ ः || ३- १२८ ॥ : श्राकारान्तादिभ्यो दन्तवत् प्राप्तो ङर्डे न भवति || अग्मिम्मि । वाउम्मि । अर्थः- प्र - प्राकृत भाषा के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र संख्या ३-११ के अनुसार अकारान्त शब्दों में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'डिन्छ' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त होने वाले 'डे=ए' की प्राप्ति आकारान्त कारान्त, उकारान्त शब्दों में नहीं हुआ करती है। इन आकारान्तादि शब्दों में सूत्र संख्या ३-१२४ के निर्देश से केवल एक प्रत्यय 'म्मि' की ही सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रामि होती है । उदाहरण इस प्रकार है- अनी अम्मि अग्नि में; वायौ वाम्मि; दनि अथवा दनि= दहिम्म= दही में और मधुनि=महुम्मि=मधु में; इत्यादि । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २२१ ] .000000000000000000000000000000000rootkiwookwantarottornealosop0000000000 अग्नौ संस्कृत मतभी विभक्त का एकव वनान्त पुलिं नग रूप है । इसका पाकन रूप अग्गिम्मि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से मूल शब्द अग्नि में स्थित 'न् व्यञ्जन का लोपः २-८४ से लोप हुए 'न्' के पश्चान शेष रहे हुए 'ग्' व्यञ्जन को द्विस्व 'गग' की प्राप्ति; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप श्रम्गि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय द्वि-इके स्थान पर प्राकृत न मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। पायो संस्कृत सप्तम' विभक्ति का एकवचनान्त पुलिंजग रूप है। इसका प्राकृत रूप वाउम्मि होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१५ से मूल शकः वायु में स्थित 'यू' व्यञ्जन का लोप; तत्पश्चात् प्राप्त रूप बाउ में सूत्र-संख्या ३-१२ से और ३.१२१ के निर्देश से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य इ' स्थान का पा न सिय को प्राप्ति हो कर बातम्भ रूप सिद्ध हो जाता है। 'हिम्म' और 'मम्मि रूपों की सिजि सूत्र संख्या ३-१२४ में की गई है । १२८ । ___ एत् ।। ३-१२६ ॥ श्राकारान्तादीनामर्थात् टा-शम-मिस-भ्यस-सुपसु परतो दन्तवत् एत्वं न भवति ॥ हाहाण कयं ।। मालाश्रो पच्छ ॥ मालाहि कयं ॥ मालाहिन्तो । मालासुन्तो आगमओ ।। मालासु ठिअं । एवं अग्गिणो । बाउणो । इत्यादि । अर्थः-अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में; द्वितीया विभक्ति के एकवचन में, तृतीया विभक्ति के बहुवचन में, पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में सूत्र-संख्या ३-१४ से तथा ३.१५ से उक्त विभक्तियों से संबंधित प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर जैसे 'ए' स्वर को प्राप्ति हो जाती है, वैसी 'ए' की प्राप्ति इन प्राकारान्त, इकारान्त, उकागन्त श्रादि पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शो में स्थित अन्य स्वर 'श्रा, इ. उ' आदि के स्थान पर सूत्र-पंख्या ३-१२४ के निर्देश से उक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर नही हुआ करतो है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-हाहा कुतम् हाहाणं कयं - गन्धर्व से अथवा देव से किया गया है। इस उदाहरण में आकारान्त शब्द हाहा में तृतीया विभक्ति से संबंधित 'ण' मस्यय की प्राप्ति होने पर भी अकारान्त शछन 'बन्छ + ए = वच्छेण के समान शम्दान्स्य स्वर 'पा' के स्थान पर ए' की प्राप्ति नहीं हुई है । मालाः पश्य = माला गो पेक-पाला मां को देखो; इस उदाहरण में श्राकारान्त शङन 'माला' में द्वितीया विभक्ति से संबंधित 'श्री' प्रत्यय की प्रकारान्त शरुन 'वच्छ + (शस) लुक-वच्छे के समान शम्दान्त्य म्बर श्रा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाभिः कृतम् मालाहि जयं =मालाओं से किया हुआ है। इस दृष्टान्त में भी 'मत्य स्वर श्रा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाभ्यः आगतः मालाहिन्तो, मालासुन्तो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Imorrowesonscrosotrosorsroorosorrroroomsroreroosrerestmetrorsion आगोमालाओं से आया हुआ है। इस पञ्चमो बहुववनान्त उदाहरण में मी 'वच्छे हन्ता, बच्छेसुन्तो' के समान अन्त्य स्वर 'श्री' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है । मालासु स्थितम = मालासु ठिअं =F]त्रों का जन्म हुआ है । इसमें ! पच्छेस के समान अन्त्य स्वर 'आ' स्थान पर 'ए' प्राप्ति नहीं हुई है । इमी प्रकार से इकारान्त, उकागन्त शब्दों का एक एक उदाहरण हम प्रकार है:अग्नीन् = अागणी = अग्नियों को; इस उदाहरण म द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'वच्छे के समान अग्नि = अग्गि-शब्दान्त्य स्वर 'इ' के स्थान पर 'p' का सद्भाव नहीं हुआ है । वायून- वाण = वायुओं को; इसमें भी 'वच्छे' के समान द्वितीया बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने पर भी वायु = वास-शब्दान्त्य स्वर 'सु' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उरणों को कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये ऐसा संकेत वृत्ति कार ने धृति में प्रदत्त शब्द इत्यादि से किया है। हाहाण' रूप की मिसि सूत्र-संख्या ३-११४ में की गई है। 'करं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.१२ में की गई है। 'मालाभों' रूप की सिसि सूत्र-संख्या १७ में की गई है। 'पेच्छ' रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'मालाभि संस्कृत तृतीया बहुष बनान्त खोलिंग रूप है । इसका प्रकृत रूप मालाहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३७ से तथा ३-१२५ के निर्देश से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मालाहि रूप सिद्ध हो जाता है। 'कर्य' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०६ में की गई है। 'मालाहिन्ती और मालासुन्तो' रूपों की मिद्धि सूत्र-मंख्या ३-१79 में की गई है। 'आगओ' हप की सिद्धि सूत्र-संख्या १२०९ में की गई है। मालामु संस्कृत मनमी बहुवचनान्त खोजिंग रूप है। इपका प्राकृत रूप भी मालासु होता है। इसमें मूत्र-संख्या ४-४४० से सप्तमी विभक्ति के बहुत्र वन में संस्कृतीय प्राप्तव्य पत्यय 'सुप - सु के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय को प्राप्त होकर मालासु रूप मिडहो जाता है। भिं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है। 'अग्गिणो और पाउणी' रूपों की सिद्धि सूत्र-मंग्ख्या 20 में की गई है। ३.१२६॥ द्विवचनस्य बहुवचनम् ।। ३-१३० ॥ सर्थासां विभक्तीनां स्यादीनां त्यादीनां च द्विवचनस्य स्थाने बहुवचनं भवति ॥दोपिण कुणन्ति । दुचे कुणन्ति । दोहिं । दोहिन्तो । दोसुन्तो । दोसु । हरया । पाया । थणया । नयणा । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * M400000000本やかわかりやゆかゆかやかやかやか0000000000分かりややややややややややややややややや 400 अर्थ:- सभी प्रकार के शम्मों में सभी विभक्तियों के प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृतीय प्राप्तष्प द्विवचन के प्रस्थयों के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन के प्रत्ययों की प्राप्ति हुश्रा करती है । इसी प्रकार से सभी धातुओं में सभी प्रकारों के अश्वषा काल के प्रत्ययों को संयोजना होने पर संस्कृतीय प्राप्तव्य द्विवचन-योधक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन के प्रत्ययों की प्राप्ति हुश्रा करता है। प्राकृत. भाषा में संस्कृत भाषा के ममान द्विवचन-बोध प्रस्थयों को प्रभाव है; तदनुमार द्विवचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन का ही प्रयोग हुआ करता है। यह सर्व सामान्य नियम ममो शब्दों के लिये तथा सभी धातुओं के लिये समझना चाहिये । इस सिशान्तानुमार प्राकृत में केवल दो ही वचन है: एकवचन और बहुवचन के कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-दौ अथवा द्वे कुरुप्तः= दोणि कुणन्ति = दो करते हैं। इस उदाहरण में यह प्रदर्शित किया गया है कि संस्कृत में कुरुतः क्रियापद रूप द्विवचनात्मक है। जबकि प्राकृत में कुगन्ति क्रिया पर रूप बहुववनाम है; यह स्थिते बतजाती है कि प्राकृत मे द्विवचन का अभाव होकर उपके स्थान पर बहुवचन की ही प्राप्ति होती है। हो अथवा द्वे कुरुतः = दुवे कुणान्त = वेदो दो (कामों) को करते हैं। इस उदाहरण में 'द्वौ अथवा द्वे' पर द्वि ववनात्मक एवं द्वितीया विभक्ति वाले हैं; जबकि इनका प्राकृत रूपान्तर 'दुवे' पद बहुवचनात्मक और द्वितीया विभक्ति वाला है । कुरुतः क्रिया पद संस्कृत में विवचनात्मक है; जबकि प्राकृत में इसका रूपान्तर बहुवचनात्मक है । अन्य दृष्टान्त इस प्रकार है: पिभाक्त-संस्कृत विषचनात्मक पाकृत बहुवचनात्मक तृतीया-द्वाभ्याम् दोहिं = दो से। पंचमी-द्वाभ्याम् होहिन्तो; दो सुन्तो =दो से। सप्तमी यो शेसुदरे में; दो पर। प्रश्वमा हस्तौ हस्था- दो हाथ । द्वितीया-हस्ती हत्था -दो हाथों को। प्रथमा पादौ पाया = दो पर। द्वितीया-पादी पायादौ पैरों को। मथमारतनको स्या =दो स्तन । द्वितीया-स्तमकी थणया-दोनों स्तनों को। प्रथमा-नबने (नषु) नया (पु०)दो अाखे । द्वितीया-नाने (म) नयणा (पु) दोनों आंखों को। यो संस्कृत भाषा की अपेक्षा से प्राकृत-मारा में रहे हुए बचन-संबंधी अन्तर को समझ लेना चाहिये । 'कोण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -१२० में की गई है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित morrorrowokadke000000000rearrerrosaksesoreservo06600assrootrsstton कुरुतः संस्कृत वर्तमानकालीन द्विवचनात्मक प्रथम-पुरुष का क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत उगनार पुगनि होना है इसमें नः संदना :-६५ से संस्कृतीय मूल धातु डुला = कृ के स्थान पर प्राकृत में 'कुण' आदेश की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की प्राप्ति और ३.१४२ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के बहुवचनार्थ में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुणन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। ‘दु' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ११० में की गई है। 'कुणन्ति' क्रियापद रूप की सिद्धि इप्ती सूत्र में ऊपर की गई है। वाभ्याम् संस्कृत तृतीया विभक्ति का द्विवचनात्मक संख्या रूप विशेषण पर है । इस 6T Iाकन रूप दोहिं होता है । इसमें सुत्रसंख्या ३-११६ से संस्कृत के मूल शब्द द' के स्थान पर प्राकृत में 'दो' रूप की श्रादेश-प्राप्ति, सत्पश्चात् ३.७ से और ३-१२४ के निर्देश से तथा ३-१३० के विधान से प्राकतीय प्राप्त रूप 'दो' में तृतीया विभक्ति के चहवचन में संस्कताय प्राप्तम्य प्रत्यय यर' के स्थान पर f' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोहि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'दोहिन्तो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.११९ में की गई है। छाभ्याम् संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का द्विवचनात्मक संख्या रूप विशेष -पद है। इसका प्राकृत रूप दोसुन्तो है । इसमें मूत्र-संख्या ३-११६ से संस्कृत के मूल शब्द द्वि' के स्थान पर प्राकन में 'दा' रूप की आदेश-प्राप्ति; तत्पश्चात ३-६ से और ३.१२५ के निर्देश से नया ३-१३० के विधान से प्राकनीय प्राप्त रूप दो' में पञ्चमी विभक्ति के बहुब वन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दोमुन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'बोस' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१११ में की गई है। हस्तौ संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का पुलिलग रूप है। इसका प्राकृत रूप हत्या होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.४५ से स' के स्थान पर 'थ की प्राप्तिः २८६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थथ' को प्राप्तिः २.६० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'न' की पाप्तिः ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बाषचन के प्रयोग का आदेश प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त शब्द 'हत्या' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय का मद्भाव होने से दीघ स्वर 'आ' को प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में कम से संकृत्तीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'नौ' तथा प्रौट' के स्थान पर प्राकृत में ३-१३० से प्रारेशगत प्रत्यय 'ज-शम्' का लोप होकर इत्था रूप सिद्ध हो जाता है। पानी संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का पुल्लिा रूप है। इसका प्राकृत रूप पाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल शब्द पाद में स्थित 'दु व्यञ्जन का लोप, १-१८० Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२२५ ] .new.commanderstoorrearrowrwww.ressdesortoisornstoroorkersonsoon से लोप हुए द् व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' स्वर के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की प्रादेश-माप्ति; ३-१२ से प्राप्त शब्द 'पाय' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा-द्वितीया-विभक्ति के बहुववन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दोघ स्वर 'या' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में कम से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्री' तथा भौट के स्थान पर प्राकसमें ३ १३० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' का लोप होकर पाया रूप सिद्ध हो जाता है। स्तनको सस्कृत की प्रथमा एवं बिताया विमान के द्विवचन का पुल्जिम रूप है । इसका प्राकृत रूप थणया होता है। इसमें सूत्र संख्या-२-१५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से स्वार्थक प्रत्यय 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' व्यजन के पश्चात शेष रहे हुए 'या' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३० मे द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की आदेश पारित ३-१२ से मन संस्कृत शब्द 'स्तनक' में प्राप्त प्राकृत शब्द 'यागय में स्थित अन्य ह्रस्व घर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में कम से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'औ' एवं 'प्रौट' के स्थान पर प्राकृत में ३-१६० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस' का लोप होकर थणया रूप सिद्ध हो जाता है। नयने संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का नपुसकलिंग रूप है ! इप्स का प्राकृत रूप नयणा होता है । इसमें सूत्र संख्या १२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'नयम' में स्थित द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रानि; ३३ से प्राकृन में पान शब्द 'नयण को नपुंसकलिंगस्व से पुल्लिगव की प्राप्ति ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग को श्रादेश-प्रामिः ३-१२ से प्राम प्राकृत शब्द 'नयण' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्ययों का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'श्री' की प्राप्ति और ३-४ से पथमा एवं द्वितीया विभक्ति के विवचन में कम से प्राप्तव्य नवुमकलिंग-बाधक प्रत्यय 'ई' के स्थान पर प्राकृन में ३-१३० के निर्देश से तया १-३३ के विधान से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शा' का लोप होकर नयणा रूप सिद्ध हो जाता है । १३७ ।। चतुर्थ्याः षष्ठी ॥ ३-१३१ ॥ चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठी भवति ॥ मुणिरुस । मृणोण देह ॥ नमो देवस्म । देवाण ।। अथ:-प्राकृत-भाषा में चतुर्थी विभक्ति बोधक प्रत्ययों का प्रभाव होने से चतुर्थी विभक्ति की संयोजना के लिये षष्ठी विभक्ति में प्रयुज्यमान प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है । तनुमार चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी को सदुभाव होकर संदर्भ के अनुसार चतुर्थी का अर्थ निकाल लिया जाता है । उदाहरण इस प्रकार है:-मुनये मुणिस - मुनि के लिये । मुनिभ्यः ददते = मुगीण देइ - मुनियों के लिये Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २२६ ] 14446000 देता हैं । नमो देवाय नमो देवस्त देवता के लिये नमस्कार हो । देवेभ्यः = देवाण-देवताओं में लिये । 147 इन दृष्टान्तों से प्रतीत ********$*$$6608660000000000000 अथवा बहुवचन के प्रत्यय का प्रयो प्राकृत मे चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में कम से होता है । सुन संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणिम है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द सुन में स्थित '' व्यक्त के स्थान पर 'ण' क प्राप्ति; ३ १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर विभक्ति को आदेश प्राप्ति ३-१० से प्राकृत में प्राप्त रूप मुणि में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय डी विम के शोधक प्रत्यय 'ख' की प्राप्ति होकर मुणिस्स रूप सिद्ध हो जाता है। मुनिभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुखी होता है। इसमें सूत्र संख्या १२२८ से मुक्ति में स्थित 'न्' के स्थान पर 'गु' को प्राप्ति ३-१०१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की आदेश वानि ३ १२ से प्राप प्रारूपण में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर आगे चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक बहुवचनात्मक प्रध्यय का सदुभाव होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्तिः तत्पश्चात् ३-६ से प्राप्त प्राकृनीय रूप मुणी में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय पष्ठी विभक्ति बोरु बहुवचनात्मक संस्कुतीय प्राव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर शकृत में 'ण' प्रत्यय की प्रामि होकर सुणीण रूप सिद्ध हो जाता है। 'इ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०६ में की गई हैं । 'नमो' रूप को सिद्धि सूत्र संख्या ३-४६ में की गई है। देव य संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्डिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दवस होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेशप्राप्तिः ३०९० से पष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ते होकर देवरस रूप सिद्ध हो जाता है । देवेभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है इसका प्राकृत रूप देवाण होता है । इसमें सूत्र संख्या ३ -१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पड़ी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश-प्राप्ति; ३-१२ से देव शब्द में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति-बोधक बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'था' को प्राप्ति; सत्यश्वात ३-६ से प्राप्त प्राकृत रूप देवा में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति बोधक बहुवचनात्मक संस्कृतीय प्रातव्य प्रत्यक्ष 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ग' प्रध की प्राप्ति होकर देवाण रूप सिद्ध हो जाता है । १३१ || : Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २२७ } ++0000000000000000680eoskoshoot0000brooks+++recoraki000000000 तादर्थ्य कै ; ॥ ३-१३२ ॥ तादयविहितस्य श्चतुर्येकवचनस्य स्थाने षष्ठी वा भवति ॥ देवस्म । देवाय । देवार्थमित्यर्थः ॥ रिति किम् । देवाण ।। अर्थ:- तादी प्रथात उसके लिये अथवा उपकार्य उपकारक अर्थ में प्रयुक्त को जाने वाली चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रारम्य प्रत्यय 'ए' के स्थानीय संस्कृतीय रूप 'आय' की प्राप्ति प्राकृन शब्दों में वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । तानुसार प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति एकवचन में कभी षष्ठीविभक्ति के एकवचन की प्रामि होती है तो कभी संसनीय चतुर्थी विमलेन के ममान ही 'आय' प्रत्यय की प्रानि भो हुप्रा करता है । परन्तु मुख्यता और अधिकांशतः प्राकन-शब्दो में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठो विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की ही प्रालि होठो है । उदाहरण यों है:-देवार्थमदेवाय अथवा देवस्स अर्थात देवता के लिये । प्रश्न:-जन मूत्र में चतुर्थी विभक्ति के एव वन में प्रत्यय 'क' का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:-क्यों कि चतुर्थी विभक्ति में दो वचन होते हैं । एकवचन और बडववन, तनुपार प्राकृत शब्दों में केवल चाय विभक्ति के एकवचन में ही वैकल्पिक रूप से संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'पाय' की प्राप्ति होती है, न कि संस्कृतीय बहुवचनात्मक प्राप्तष्य प्रत्यय 'भ्यस' की बहुवचन में तो षष्ठीविभक्ति में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय की हो प्राप्ति होती है । इस अन्तर को प्रदर्शित करने के लिये ही हे' प्रत्यय को सूचना मूल-सूत्र में प्रदान की गई है। उदाहरण इस प्रकार है:-देवेभ्यःदेशण अथान देवताओं के लिये । यहाँ पर 'देवाण' में 'ण' प्रत्यय षष्ठी बहुववन का है; जोकि चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । यों यह विधान निर्धारित किया गया है कि प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन में और षष्ठीविभक्ति के बहुवचन में समान रूप से हो प्राकृत प्रत्यय की प्राप्ति हुओ करती है। अन्तर है तो केवल एकवचन में ही है और यह भी वैकल्पिक रूप से है । नित्य रूप से नहीं । वार्थम. संस्कृत तादर्श्व-सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवस्ल और नेवाय होते हैं । इनमें से प्रथम रूप देवास की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.१३१ में को गई है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१३३ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय == पाय' की प्राप्ति होकर देवाय रूप सिद्ध हो जाता है । देवाण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है। १३२ ॥ वधाड्डाइश्च वा ॥ ३-१३३ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 000000000000orernoosamsterdasterstirernoredowworrentroottoonrooto... वध शब्दाव परस्य तादर्यड डिद् प्राइः षष्ठी च वा भवति ।। वहाइ बहस वहाय । वधार्थमित्यर्थः ॥ अर्थ:-संस्कृत में 'वध' एक शब्द है; जिसका प्राकृत रूप 'वह' होता है । इस 'वह' शब्द के लिये चतुर्थी के एकवचन में 'तादर्य' = 'उसके लिये' इस अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति के अतिरिक्त षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्म' के साथ साथ एक और प्रत्यय 'प्राइ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यों 'वधार्थम्' के तोन रूप प्राकृत भाषा में बन जाया करता है। जो किस प्रकार:-अवार्थम-सहा, पहन, वहाय प्रधान वर केलिये: मारने के लिये । यह ध्यान में रहे कि इन रूगों को यह स्थिति वैकल्पिक है; जैसा कि सूत्र में और वृत्ति में 'या' अव्यय का उल्लेख करके सूचित किया गया है। बधार्थम् संस्कृत दादथ्य-सूच 6 यतु” विभक्ति का एक प्रान्त का है। इस पावन हा वाई, वहम्स और वहाय होते हैं। इनमें से पथम रूप में सूत्र संख्या १-१-७ से मन संस्कृत शब्द 'वर' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राति; ३-२३३ से चतुर्थी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रामस्य प्रत्यय 'स। के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आई' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति; १-१० से प्राकृतीय पान शब्द वह में स्थित अन्त्य म्बर 'अ' के आगे 'श्राइ' प्रत्यय का 'मा' रहने से लोग तत्पश्चात् १-५ से प्राप्त रूप 'यह + प्राइ' में संधि होकर प्रथम रूप पहाइ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप कहस्म' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पाठी विभक्ति के प्रयोग करने की प्रादेश प्ति तानुमार ३.१० से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय " - अस् के स्थान पर प्राकन में 'स' को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप वहस्प्त की सिद्धि हो जाती है । तृतीय रूप वहाय में सूत्र-संख्या ३-१३२ मे चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय और = प्राय' को प्राकृत में वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; तत्पश्चात १-५ से संधि होकर तृतीय रूप वहाय सिद्ध हो जाता है। १३३ ॥ क्वचिद् द्वितीयादेः ॥३-१३४ ॥ द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठो भवति क्वचित् ॥ भीमा-धरस्स चन्दे । तिस्सा मुहस्स गरिमो । अत्र द्वितीयायाः षष्ठी ।। धणस्स लद्धो । धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरस्स मुका। चिरेण मुक्त त्यर्थः । तेसिमेअमणाइएणं । तैरेतदनाचरितम् । अत्र तृतीयायाः ॥ चोरस्स बीहइ । चोराद्विभेतीत्यर्थः । इअराई जाण लहु अक्खाराइं पायन्ति मिल सहिआण | पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति । अत्र पञ्चम्याः ॥ पिट्ठीएँ केस-मारो। अत्र सप्तम्या: ।। ___ अर्थः-प्राकृत भाषा में कभी कभी अनियमित रूप से उपयुक्त विभक्तियों के स्थान पर किसी अन्य विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है । तदनुसार द्वितीया. तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी विभक्ति Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * ++++++++++ ++++++84 9999999$$$$$}}+++++++++++++++++++++++++++++ के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति कमी कभी और कहीं कहीं पर ही होती है; नित्य और सर्वत्र ऐसा नहीं होता है। द्वितीया के स्थान पर पष्ठी के प्रयोग के उदाहरण यों हैं:-सीमाधरं वन्ने मोमाधरस्स वन्दे मैं सीमाधर को वंदना करता हूं: तस्याः मुखम् स्मरामः तिस्सा मुहस्स भरिमो हम उसके मुख को स्मरण करते हैं। तृतीया के भान पर षष्ठी के प्रयोग के दृष्टान्त इप्स प्रकार हैं:-धनेन लब्धः-धणम लद्धो-धन से वह प्राप्त हुअा है; चिरेण मुक्ता-चिरस्स मुका-चिर काल से वह मुक्त हुई है । तैः एतत् अनाचरितम् ति एअम् अणाइएनके द्वारा यह आचरित नहीं हुमा है; इन उदाहरणों में धनेन के स्थान पर घणाम का, चिरेण के स्थान पर चिरस्म का और तैः क स्थान पर मि का प्रयोग यह बतलाता है कि तृतीया के स्थान पर प्राकृत में पछी का प्रयोग किया गया है। पञ्चमी के स्थान पर पष्ठो के प्रयोग के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:-चोरात बिभेति-चोरस्त बीहइ = षह चोर से डरता है; इतराणि लघु अक्षराणि येभ्यः पादान्तेन सहितेभ्या इअराई लहुअक्षराई जाण पायन्तिमिल्ल-सहिश्राग: इन उदाहरणों में चोरात के स्थान पर चोरस्स का, येभ्यः के स्थान पर जाण का और सहितेभ्यः के स्थान पर सहिप्राण का प्रयोग यह बतलाता है कि पञ्चमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है । अन्तिम उदाहरण अधुरा होने से हिन्दी अर्थ नहीं लिखा जा सका है। इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति के प्रयोग का नमूना यों है: -पृष्ठे केश-मार:-पिटीर केस-मारो=पीठ पर केशों का भार याने ममूह है। इस उदाहरण में पृष्ठे के स्थान पर पिट्ठोए का प्रयोग यह प्रदर्शित करता है कि सप्तमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है । सामाधरम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुंल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सीमाधरस्स (किया गया) है । इसमें सूत्र-मख्या ३.१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठो का प्रयोग हुश्रा है; तदनुसार सूत्र संख्या ३-१० से प्राकृत रूप सीमा घर में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय उसयस के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सीमावरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है। बन्ने' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में को गई है। 'तिस्ता' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६४ में की गई है। मुखम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुसकलिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप मुहल्स है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग हुआ है; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' को प्रारित और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप मुह में षष्ठी विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय 'डास = अस के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर महस्स रूप सिद्ध हो जाता है। स्मरामः संस्कृत वर्तमान कालीन तृतीया पुरुष का बहुवचनान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप मरिमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.७४ से संस्कृतीय मूल धातु 'मृ == स्मर' के स्थान पर 'भर' की आदेश-प्राप्ति; ४-२३६ से हलन्त व्यञ्जनान्त धातु 'भर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * ********* [ २३० ] 444464444066904406 से प्राप्त त्रिकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया पुरुष-बांधक बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से प्राप्त धातु रूप 'भोर' में वर्तमान कालान तृतीय पुरुष-बोधक बहुचान् प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति हाकर भरिमो रूप सिद्ध हो जाता है । धनेन संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसक लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप aण है। इसमें सूत्र संख्या ३ १३४ से तृनाया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति १ २.८ से मूल संस्कृत शब्द धन' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप व में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'इम्=असू' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणस्स रूप की सिद्धि हो जाती है । aar: संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचनान्त विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप लखी होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से हलन्त व्यञ्जन 'ब' का लाप; २००६ से लोप हुए 'ब' के पश्चात शेष रहे हुए च' को द्वित्य घध की प्राप्ति २१० से प्राप्त पूर्व 'ध' के स्थान पर 'दू' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'लद्ध' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' कं स्थान पर प्राकृत में 'डोश्रो प्रत्यय की प्राप्ति एवं प्राप्त प्रत्यय जो' में 'ड' की इत्संज्ञा होने से प्राप्त प्राकृत शब्द 'लय' में स्थित अन्य स्वर 'अ' का इत्संज्ञात्मक लोप होकर तत्पश्चात् शेष प्रत्यय रूप 'ओ' का प्राप्त हलन्त शब्द 'लद्ध' में संध्यात्मक समावेश होकर प्राकृत रूप लद्धी सिद्ध हो आता है । 5 विरण संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है इसका प्राकृत रूप चिरस् है । इसमें सूत्र संख्या ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर पछी विभक्ति के प्रयोग करने की श्रदेश वाप्ति; तदनुसार २०१० से मूल शब्द विर में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय छन् = अस' के स्थान पर प्राकृत 'स्व' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चिरस्स सिद्ध हो जाता है । मुक्ता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुक्का होता है। इसमें सूत्र संख्या २०७७ से 'तू' का लोप २८६ से लोग हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहें हुए 'कू' को द्विम्ब 'कक् की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत शब्दाभ्य स्वर को ना की प्राप्ति होने से मूल प्राकृत शब्द 'मुक्ता' में स्थित अन्य दीर्घ स्वर 'आ' को यथास्थिति की हो जाता है । प्राप्ति होकर सुक्का रूप सिद्ध हो 'सि' रूप को मिद्धि सूत्र संख्या ३-८१ में की गई है। 'ए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६-८५ में की गई है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण [ २३१ ] 0000000000000ゃないからできないかなかのかな0000000000000000000000yen भनाचरितम्-अनाचीर्णम् संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक नपुसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप प्रणाइएण शेता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ सेम' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ६-१:५७ से 'च' का लोप; ५.८४ से लोप हुए 'च' के पश्चात शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर संयुक्त व्यञ्जन एण' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति २.७६ से रेफ रूप हलन्त व्यखम 'र' का लो१, २-८६. से लोप हुप'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्विस्व पण' की प्राप्ति और ३.२५ से प्राप्त रूप 'अणाइएण, में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय संस्कृतीय प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अपाइण्ण रूप सिद्ध हो जाना है। चोरात् संस्कन पञ्चमी विभक्ति का एकषचमान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकन रूप चोरम्स है इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से पञ्चमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठीविभक्ति के प्रयोग करने का आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से मूल शब्द 'चोर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय पाप्तव्य प्रत्यय 'डस्-प्रस' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पोरस्स सिद्ध हो जाता है। बिभेति संस्कृत वर्तमानकालीन प्रथम पुरुष बोधक एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राधा रम जोहर हर है। इस मा ४.६ से कृतोय मूल धातु 'विभ' के स्थान पर प्राकृत में वह रूप को आदेश-प्राप्ति; ४-२३६ से हलन्त व्यञ्जनान्त धातु 'बाह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.५३६ से वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष के एकवचन में सस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप बहिइ सिद्ध हो जाता है। उत्तराणि संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषगात्मक नपुमकलिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप इअराई होता है । इसमें पुत्र-प्रख्या ११७७ से 'न' का लोप; तत्पश्चात ३-२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बानि' के स्थान पर भाकृत में प्राप्त शब्द 'इअर' में स्थित अन्त्य हस्य घर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' को प्राप्ति पूर्वक इं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप इअराई सिद्ध हो जाता है। 'जाण' रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या ३-११ में की गई है। लघु अक्षण संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त नपुसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप लहु अक्खराई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७ से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राभिः २.८६ से प्रान 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-६० से प्राः पूर्व 'ख' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३.२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'पानि' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त शष्प लहु-प्रश्वर' में स्थित अन्त्य हम्ब स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्री' की प्राप्ति-पूत्र क प्रत्यय की प्रालि लेकर प्राकृत रूप लहु-अक्षरा सिद्ध हो जाता है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ++++++++&+4 :4966 % ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ पादान्तिम मत-साहितेभ्य: संस्कृत पञ्चमी विमक्ति को बहुवचनान्त विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पायन्तिमिल्ल सहिबाण है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' व्यञ्जन का लोप; १-१८० से खोप हुए 'द्'न्यजन के पश्चात शेष रहे हुए 'पा' को 'या' की प्राति १-८४ से प्राप्त 'या' में स्थित दीर्घ स्वर 'बा' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'न्ति' का सद्भाव होने से इस्त्र स्वर 'अ' की मान; २.१५ से संस्कृताय प्रत्यय 'मत' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्तिः १-१० से प्रान पाकन रूप 'पायन्तिम' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के आगे प्रात्र प्रत्यय 'इत्ल' में स्थित स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; १-५ से प्राप्त प्राकृत रूप पायर्यान्तम् + इल्ल' में संधि होकर प्राकृतीय रूप पार्यान्समिल्ल की प्राप्ति; १-१७७ से 'सहित' में स्थित 'त' व्यञ्जन का लोप; ३-१३४ से पञ्चमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की श्रादेश-प्राप्ति ३-१२ से प्रान्तीय प्राप्त रूप पायन्तिमिल्ल-साहिश्र' में स्थित अन्त्य इव स्वर 'अ' के स्थान पर षष्ठी यिभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का समाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' को प्रानि और ३-६ से प्रात प्राकृत रूप 'पायन्तिमिल-सहिया' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद पायान्तमिल्ल. सहिआण की सिद्धि हो जाती है। पृष्ठे संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुसक लिं । रूप है। इसका प्राकृत रूप पिट्टीए है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर ह. की प्राप्ति २.७७ से 'प' का लोप; 2-1 से लोप हुए 'प' के पश्चात शेष रहे हुए '४' को द्वित्व 'ठठ' की प्राप्ति २६० से प्राप्त पूर्व '४' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; १-३५ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द पृष्ठ को नम जिगत्व से प्राकृत में श्रीलियन की शाप्ति; तदनुमार ३-३१ और २-४ से प्राकुन में प्राप्त शब्द 'पिटु' में बोलिंगत्य-योतक प्रत्यय डीई' की प्राप्ति -१३४ से संस्कृनीय सप्तमी विमक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्टी विभक्त के प्रयोग करने की आदेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-२६ से प्राप्त प्राकृत स्त्रीलिंग रूप पिट्टी में षष्ठो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस = अस' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पिट्ठीए सिव हो जाता है। केश-भारः संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्न पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप केश-भारी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय नस' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप केश-भारो सिद्ध हो जाता है । ११४ ॥ द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ॥ ३-१३५ द्वितीया तृतीययोः स्थाने कचित् सप्तमो भवति ॥ गामे यसामि । नयरे न जामि । भत्र द्वितीयायाः ॥ मइ वेविरीए मलिआई ॥ तिसु तेसु प्रलंकिया पुहवी । अत्र तृतीयायाः ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२३३ ] •norrrrrrrrrrrrrrrrrorosconstor.or.000000setstrost000000000000000000 अर्थ:--प्राकृत-भाषा में कभी कभी द्वितीया विभक्ति और तृतीया विभक्ति के स्थान पर मप्तमी विभक्ति का प्रयोग भी पाया जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-प्रामम् वमामि=गामे वमामि अर्थात मैं शाम में वमना ई; नगरम् न यामिन्जयरे न जामि अर्थात में नगर को नहीं जाता हूं; इन उदाहरणों म संस्कृत में प्रयुक्त द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकन में मप्रमी का प्रयोग किया गया है। हनीया के स्थान पर मामा के प्रयोग के दृष्टान्त इस प्रकार है: मया वेपमा मदिताईन-मइ वेविगए मलो प्राइ' - कोपती हुई मेरे द्वारा वे मदत किये गये हैं। त्रिभिः तः अलंकृता पोउन टोनों द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुइ है । इन दृष्टान्तों में संस्कृतीय तृनो या विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में मनमो विभक्ति का प्रमोद मिट गोचर हो गया है । प्राकृत में कभी कभी और कहीं कहीं पर विभक्तियों के प्रयोग में धनियमितता पाई जाती है। श्रामम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त रूप है । इपका प्राकृत का गामे है । इसमें सूत्र-संख्या २-E से 'र' का लोप; ३ १३५ से द्वितीया के स्थान पर प्राकृत में मनमा विभक्ति के प्रयोग करने की श्रादेश-प्रामि; ३.११ से प्राप्त प्राकृत शउन 'काम' में सामीविभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्रात्रभ्य प्रत्यय लि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामे रूप सिद्ध हो जाता है। सामि संस्कृत के वर्तमानकालीन तृतीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भा वमामि ही होता में । इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ सं मूल प्राकृत हलन्त धातु 'वस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से ग्राम विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से पान धातु 'वपा' में वर्तमान कालीन तृतीय पुरुष क एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्रामि होकर यसामि रूप सिद्ध हो जाता है । नगरं संस्कृत के द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप नयरे (प्रदान किया गया है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ग' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३५ से द्विनीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने को आदेश-पादित और ६-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'नयर' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रासम्म प्रत्यय 'विइ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे=7' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नयरे रूप लिक हो जाता है। '' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। 'जामि' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संखया २-२०४ में की गई है। मया संस्कृत की तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त अस्मद् मर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृन रूप मह है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३५ से तृतीया के स्थान पर प्राकृत में मामी विभक्ति के प्रयोग Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * .0000000000000000000000crore..sot.forensterstooretorer.rrotoros000 करने की आदेश-प्राप्ति; तदनुमार संस्कृतीय सर्वनाम शहद 'अम्मद' में सप्तमी विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय दिइ' की प्रामि होने पर ३-११५ सं 'अस्मद् + ई' के स्थान पर मई' की श्रादेश-प्रानि होकर प्राकृत रूपई' सिद्ध हो जाना है। बैंपित्रा संस्कृत में तृतीया विभक्ति के एकवचनान्त स्त्रोलिंगात्मक विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप वेविरीए होता है। इसमें सूत्र-संन्या १-२३१ से मूल संम्मत हार शेषित मान के स्थान पर '' की प्राप्तिः १-१७७ से 'त' का लोप; १-१४२ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति; ३.३२ और २-४ से प्राप्त रूप वेविरेि में स्त्रीलिंगापक प्रत्यय 'हाई' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त रूप विरि + ई' में संधि होकर वेविरी' की प्राप्ति; ३-१३५ से तृतीय विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आवेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-२६ से प्राप्त बीलिंगात्मक विशेषण रूप षेविरी में सप्तमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि = इ' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत विशेषणात्मक स्त्रीलिंग रूप वेपिरीए सिद्ध हो जाता है। मृहितानि संस्कृत प्रथमा विभक्ति का बदवचनान्त विशेषमानक नपुप फलिंग का रूप है। इमका प्राकृत रूप मलिभाई होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४.१२६ से मून संस्कृत वातु 'मद्' के स्थान पर प्राकृत में 'मल' म्प की आदेश माप्ति; ४-४४८ से संस्कृत के ममान हो प्राकृन में भरे विशेषण-निमाणअर्थ में मिल' धातु में 'इन' प्रत्यय को प्राप्रि; १-१७७ से प्राप्त रूप 'मलित' में स्थित 'तू' व्यञ्जन का लोप; और ३-२६ से प्राप्त रूप मलि प्र' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुस मलिंग में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दो स्वर 'श्री' को प्रानि पूर्वक '३' प्रत्यय की प्राप्ति हाकर मलिआई का सिद्ध हो जाता है। त्रिभिः पन तृतीया विक्ति का बहुपरान्त प्रख्यात्मक विशाण का का है। इा पाकृत रूप निसुई। इसमें सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; ३-१३। से तृतीया विम.क्त के स्थान पर पाकत में मप्तमा विभक्त के प्रयाग करने का आदेश-माप्ति; तदनुमार ४-४४८ सालमा त्रिभक्ति के बहुवचन में मैस्कृत के मभान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर तिमु विशेषणात्मक मप सिद्ध हो जाता है। तैः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त तद् मर्वनाम का पुल्लिा रूप है। इसका प्राकृत रूप नस है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल संस्कृत मर्वनाम शब्द 'तद्' में स्थिन अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३.१३४ से तृनाया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयाग करने की आदेश माप्ति; ३.१५ से प्राकृन में प्राप्त सर्वनाम शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सप्तम) विभक्ति क बहुवचन-योधक प्रत्यय 'सु' का प्रभाव होने से '' की प्रान्ति और ४.४४८ से प्राप्त रूप 'ते' में मप्तमा विभक्ति के बहुववन में संस्कृत के समान ही मन में भी 'सु' प्रत्यय को प्रानि होकर प्राकृतभर्वनाम-रूप तेसु सिद्ध हो जाता है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २३५ ] 000000rsinestostersnssorro+sooktorrormvediossrorestrossonsorr0000 अलंकृता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषरण का रूप है। इसका प्राकृत रू.५ अलंकिश्रा होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-17 से के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, १-१७७ में 'त' यम का लोपः तत्पश्चात ४.६१८ स संवत के समान हो प्राकृत में भी अलका पद आकारान्त श्रीलिंगात्मक होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का लोप होकर 'अलंकिआ' प्राकृत-रूप सिद्ध हो जाता है । 'पुहवी पद की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१६ में की गई है । १३५ ।। पंचम्यास्तृतीया च ॥ ३-१३६ ।। पञ्चम्याः स्थाने चित वृतीयासप्तम्यौ भवतः ।। चोरेण बोहह । चौराविभेतीत्यर्थः ।। अन्तेउरे रमिउमागो राया । अन्तः पुराद् रन्यागत इत्यार्थः ।। अर्ध:- कभी कभी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत भाषा में तृतीया अथवा सममी विक्ति का प्रयोग भी हो जाया करना है। उदाहरण कम से इस प्रकार है:चोगत बिभेति = चोरेण बीहइ-वह घोर से डरता है; इस नदाहरण में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। दूसरा दृष्टान्त इस प्रकार है:-धन्त: पुरान् रत्वा आगत्तः राजा-अन्ते उरे मिठ आगो राया-अन्तपुर में रमण करके राजा श्रागया है; इम इष्टान्त में 'अन्तःपुरा-श्रउरे' शब्दों में संस्कृतीय पञ्चमी यिभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमो विभक्ति का प्रयोग देखा जा रहा है। यों अन्यत्र भी पंचमी के स्थान पर तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाय तो वह प्राकुन भाषा में अशुद्ध नहीं माना जायगा । चौरान संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का है। इसका प्राकृत रूप चोरेण है । इसमें सूत्र-संख्या ३-१३६ में संस्कृताय पश्चमो विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में ततोया मिक्ति का प्रयाग करने की प्रादेश-प्राप्ति और शेष सानिका सूत्र संख्या ३-१३४ के अनुसार होकर चोरेण कए सिद्ध हो जाता है। धीहइ क्रियापद को मिति सूत्र-संख्या ३-१३४ में की गई है। अन्तः पुरात (द) संस्कृत की पञ्चमी विभक्ति को एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है । इसको प्राकृत रूप अन्तेरे होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-६० से 'तः' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' घर की प्राप्ति; २.७७ से 'विसर्ग-स' हलन्त ध्यान का लोप; १-१७७ से 'प' व्यञ्जन का लोप; ३-१३६ से संस्कृतीय पञ्चमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग करने का आदेश-प्राप्ति तानुसार ३-११ से प्राप्त प्राकृत शछन् 'अन्तर' में सप्तमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्सेउरे पद सिद्ध हो आता है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३६ ] *षियोदय हिन्दी व्याख्या सहित . ••0000000000000000000000mintodsosorrorno.000000000000000000000000000 रस्त्वा संस्कृत का संबन्धात्मक भूत कृतन्त का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमिड होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से मूल प्राकृतीय हलन्त धातु 'रम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ'को प्राप्ति; २.१४ से प्राप्त धातु रूप रमि' में संबन्धात्मक भूतकुदन्तार्थे में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय त्वा' के स्थान पर प्राकृन में 'तुम्' प्रत्यय को आदेश-पाक्ति; १.१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तुम्' में स्थित 'त' व्यञ्जन का लोप १.२५ से प्राप्त रूप रमिउम् में स्थित अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर पूर्व में स्थित स्वर 'उ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकुमाय रूप रमि सिद्ध हो जाता है। आगतः संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्म : पुस्जिग रूप है । इसका प्राकृत रूप आगो होना । इस सूत्र-संख्या १.१७७ से 'न' व्यवन का लोप और ३.२ मे प्रथमा विभक्ति के एकचन में प्रकाराम पुल्लिा में प्रकाय नास्थय मि' के स्थान पर प्राकृत में डोन्मो प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पर आगमी सिद्ध हो जाता है। राया पद की सिद्धि खूब संख्या ३-४९ में को गई है.। १३६ ॥ सम्सम्या द्वितीया ।। ३-१३७ ।। सप्तम्याः स्थाने कचिद् द्वितीया भवति ॥ विजुजोयं भरह रचि ॥ आर्षे तृतीयापि दृश्यते । तेणं कालेणं । तेणं समएणं : तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः ॥ प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते चउबीसपि जिगावरा । चतुर्विशतिरपि जिनवरा इत्यर्थः ।। अर्थः-संस्कृत भाषा में प्रयुक्त सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी कभी प्राकृत भाषा में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग भी हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:-विद्युत्ज्योतम् स्मरति रात्री वह रात्रि में विद्युत प्रकाश को याद करता है। इन उदाहरण में सहनम्यन्त पर 'रात्रौ' का प्राकृत रूपातर द्वितीयान्त पर रसिं' के रूप में किया गया है । यो सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। श्राप प्राकृत में सप्तमी के स्थान पर ततोया का प्रयोग भी देखा जाता है । इस विषयक दृष्टान्त इस प्रकार है:-तस्मिन काले तस्मिन् समए - तेग कालेणं तेणं सनरणं = उस काल में (और) उस समय में; यहां पर स्पष्ट रूप से सप्तमी के स्थान पर ततीया का प्रयोग हुआ है। कभी कभी भाष प्राकृत के प्रयोगों में प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का सद्भाव भी पाया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है।-चतुर्विशतिरपि जिनबरो:-चवीमपि जिणवराचौत्रीस तीर्थक्कर भी। यf पर चतुर्विंशतिः प्रथमान्त पद है; जिपका प्राकृत रूपान्तर द्वितीयान्त में करके 'चवीस' प्रदान किया गया है । यो प्राकृत भाषा में विभक्तियों की अनियमितता पाई जाती है । इससे पता चलता है कि आर्ष प्राकत का प्रभाव उत्तर वर्ती प्राकृत भाषा पर अवश्यमेव पड़ा है। जो कि प्राचीनता का सूचक है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ २३७ ] 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पियुज्योतम संस्कृत का द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलि । का रूप है । इसका भाकृत रूप विज्जुजोयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२४ सं संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' का पारित: REE से आदेश प्राप्त व्यञ्जन 'ज' को द्वित्व 'जज' की प्राप्ति; २-७७ से प्रथम हलन्त व्यञ्जन 'स' का लोप; २.७८ से द्वितीय 'य' व्यञ्जन का लोप: २.८८ से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए व्यञ्जन 'ज' को द्वित्व 'ज्ज की प्राप्ति; ६-१७. से द्वितीय 'न' व्यञ्जन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' स्वर के स्थान पर 'य' वर्ण की प्राप्ति; ३-५ पे प्राप्न प्राकृत शब्द 'विजुजोय में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.०३ से प्राप्त प्रत्यय 'म के स्थान पर पूर्वस्थ व्यञ्जन 'य' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद-विजुज्जा' सिद्ध हो जाता है। ___ स्मरति संस्कृत का वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप है । इसका प्राकत रूप भर होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-७४ से मूल संस्कृत-धातु 'स्म = स्मर' के स्थान पर प्राकृत में 'भर' रूप को आदेश-शप्ति; ४.२३६ से प्राप्त हलन्त धात् 'भर' में विकरण-प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्त प्राकृत धातु 'भर' में वर्तमान कानी न प्रयन पुरुष के वनार्थ में संक्रतीय प्राप्तध्य प्रत्यय ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'भरई' सिद्ध हो जाता है। रात्रौ संस्कृत की सप्तमो विभकिन का एकवचनान्न स्त्रीलिंग का रूप है । इसका प्राकृत रूप रत्ति है । इप्त में सूत्र-संख्या २.७२. से मूल संस्कृत शब्द 'रात्रि में स्थित द्वितीय 'र' व्यजन का लोप २-से लोप हुए 'र' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-८४ से आदि वर्ण 'रा' में स्थित दीघ स्वर 'मा' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यजन "त्ति' का सद्भाव होने से हर स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-९३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया त्रिभक्ति का प्रयोग करने की श्रादेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर शब्दस्थ पूर्व वर्ण 'ति' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रत्ति रूप सिद्ध हो जाता है । __ तस्मिन् संस्कृत का सप्तमो विभक्ति एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है । इसको प्राकृत रूप तेणं है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृतीय सर्वनाम शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त ग्यजन 'द्' का लोप; ३-१३७ का वृत्ति से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा= श्रा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति प्राप्त प्रत्यय 'ण' के कारण से पूर्वोक्त प्राप्त प्राकृत शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति और १.२७ से प्राप्त प्राकत रूप 'तेण' में स्थित अन्त्य वर्ण 'ए' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर तेणं रूप सिद्ध हो जाता है । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * roorrow00000000000000000rpoernvr0000000000strorse.n0600000000000000 कारले संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग का रुप है। इसका प्राकुन रूप कालोप है ! इस संग्या को वृत्ति से सप्रमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदश-प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से नृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टाश्री स्थान पर प्राकृत में 'रण' प्रत्यय का प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मला 97वृत्त शब्द 'पाल में स्थित अन्य वर्ण 'ल' के अन्त्य 'श्र' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ..७ से प्राप्त प्राकृत रुप कालंण में स्थित अन्य वणं 'ज' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कालणे रूप सिद्ध हो जाता है। 'तेणे' मर्वनाम रूप की सिद्धि ऊपर इसी सूत्र में की गई है। समये संस्कृत को सममी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्रारुन रूप समार है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'समय' में स्थित 'य' व्यञ्जन का लोप; ३-१३७ की वृत्ति सं सममी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की श्रादेश-श्राप्ति; तदनुसार ३.६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा-प्रा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्रामि; ३-१४ से नृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'समन' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १.२७ से प्राप प्रकट कर में स्थित अन्त्य वर्ण 'या' पर अनुम्बार की प्राप्ति होकर समएणं रूप सिद्ध हो जाता है। चाशतिः संस्कृत का प्रथमान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है इसका प्राकृत रूप चउबीसं है । इसा सूत्र-संर या १.६४७ से प्रध्यम 'न व्यजन का लोप;२-७६ से रेफ रूप 'र' व्यजन का लोप; FF में 'वि' ६ में fer हम्ब इवे स्थान पर इसी सूत्रानुसार अन्तिम वर्ण ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोग; १.२६० से 'श' कथान पर 'स' की प्रारित ३-५३७ की वृत्ति से प्रथमा-विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने आदेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर प्राकत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त पत्ययम'के स्थान पर प्राप्त प्रोकत शान 'चउर्षास' में स्थित अन्य वणं 'स' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चउपसिं सिद्ध हो जाता है । 'पि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १४१ में की गई है। जिनवराः संस्कृत का प्रथमो विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप शिणवरा होता है । इसमें सूत्र-संख्या - से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति ३.१२ से प्राप्त प्राकृत शब्द-'जिणवर में स्थित अन्त्य इस्त्र वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीघ स्वर 'आ' को नास्ति और ३-४ से प्रा: प्राकृत शब्द जिणपरा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३६ ] 1400000000000$40$$$$$$$4606666666000640 में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रातव्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोर होकर प्रथमाबहुवचनान्त प्राकृत पद जिणवरा सिद्ध हो जाता है । ३-१३७ ॥ क्योर्य लुक् ॥ ३-१३८ ॥ * प्राकृत व्याकरण * क्यङन्तस्य क्यङ षन्तस्य वा संबन्धिनो यस्य लुग्भवति || गरुश्राह । गरुआ | गुरु गुरु भवति गुरुरिवाचरति वेत्यर्थः । क्वङषु । दमदमाह । दमदमाह ॥ लोहियाइ | लोहिया । = अर्थ:-- संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में संज्ञाओं पर से धातुओं अर्थात क्रियाओं के बनाने का विधान पाया जाता है; तदनुसार वे नाम-धातु कहलाते है और रोति से प्राप्त धातुओं में अन्य सबं सामान्य धातुओं के समान ही कालवाचक एवं पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती हूँ । जब संस्कृतसंज्ञाथों में 'काक' और 'क्ष' 'य' और 'इ' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है; तब वं शब्द नामक नहीं रहकर धातु-अर्थक बन जाते हैं; यों धातु-अंग की प्राप्ति होने पर तत्पश्चात् उनमें काल-वाचक तथा पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। ऐसे धातु रूपों से तब 'इच्छा, आचरण, अभ्यास' आदि बहुत से श्रथं प्रस्फुटित होते हैं। जहां अपने लिये किसी वस्तु की इच्छा की जाय वह 'इच्छा अर्थ में' उस वस्तु के बोधक नाम के श्रागे 'क्यच्=य' प्रत्यय लगाकर तत्पश्चात कालवाचक प्रत्यय जोड़े जाते हैं । उदाहरण इस प्रकार है:- पुत्रीयति = (पुत्र + ई + य् + ति) = वह अपने पुत्र होने की इच्छा करना है । कवीयति= (कवि + ई + य + ति) = अपने आप कवि बनना चाहता है । कर्त्रीयति = खुद कर्ता बनना चाहता है। राजीवति आप राजा बनना चाहता है; इत्यादि । कभी कभी क्यच्य' 'स्यवहार करना अथवा समझना' के अर्थ में भां श्रा जाता है। जैस:-पुत्रीयति छात्रम् गुरुःगुरु अपने छात्र साथ पुत्रवत् व्यवहार करता है। प्रासादयति कुटयां भिक्षुः भिखारी अपनी झोपड़ी को महल जैसा समझता हूँ । जहां एक पदार्थ किसी दूसरे जैसा व्यवहार करे; यहां जिसके सदृश व्यवहार करता हो, उसके बाचक नाम के आगे 'वयड न्य' प्रत्यय लगाया जाता है एवं तत्पश्चात् काल बोधक प्रत्ययों की संयोजना होती है। जैसे:-- शिष्यः पुत्रायते = शिष्य पुत्र के समान व्यवहार करता है; गोपः कृष्णायते = गोप कृष्ण के समान व्यवहार करता है। विद्वायते - वह विद्वान के सदृश व्यवहार करता है। प्रश्नयति = वह प्रश्न करता है; मिश्रयति=मिलावट करता है; लवणयति षह खारा जैसा करता है । वह लवण रूप बनाता है. सुनार वह पुत्र जैसा व्यवहार करता है; पितरति वह पिता जैसा व्यवहार करता है । इसी प्रकार से गुणाधन्तं, शेषाय से, हुमायते दुःखायते सुखायते' इत्यादि सैकड़ों नाम धातु रूप हैं। उक्त 'यङ ' और क्य' के स्थानीय प्रत्यय 'ब' का प्राकृत में लोप हो जाता है और सत्पश्चात प्राकृतीय फाल C Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H [२४.] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - orrrrrrrrrorisirrorkwor*************tosrriterarmeroornstrator बोधक प्रत्यय जोड़ दिये जाते हैं । उदाहरण इस प्रकार है:-अगुरुः गुरुः भवति-गुरूयति गरु आई-वह गुरु नहीं होते हुए भी गुरु बनता है; यह 'क्यच' का उदाहरण हुश्रा । क्या' का उदाहरण यों है:गुरुः इव पाचरति = गुवायते-गुरुपाद(वह गुरू नहीं होता हुश्रा भो) गुरु जैसा आचरण करना है। वृत्तिकार ने दो उदाहरण और दिये हैं, जो कि इस प्रकार है:-दमदमीयति-दमदमाइ-वह नगारा रूप बनता है; दमदमायते-दमदमाइ-वह नगारा जैसा शब्द करता है । लोहितीयति-लोहिसार-वह रक्त वर्ण पाला बनता है । लोहितायते-लोहियावह रक्त वर्णीय बनने की इच्छा करता है । इमा प्रकार से अन्य संज्ञाओं पर से बनने वाले धातुओं के रूपों को भी समझा लेना चाहिये । अंग्रेजी-भाषा में इसको 'Denominative' प्रकिया कथाimiliai-titrval प्रकिया कहा। गुरुयति संस्कृत का वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नाम धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप गरु अाइ होता है । इसमें मूत्र संख्या १-१.५ से पत्र में रहे हुए आदि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'अ' की प्राप्ति; १-४ से 'क' में स्थित दोघ स्वर 'क' के स्थान पर हरव स्वर 'ड' की प्राप्ति; ३-१३८ से नाम-धातु-द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्त से लोप हुए 'यू' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरूष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुआड़ रूप सिद्ध हो जाता है । गुर्वायते (गुरु + आयते) संस्कृत का वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नामधातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप गरमाथइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१०७ से पत्र में रहे हुए श्रादि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'श्र' की प्राप्ति; तत्पश्चात उत्तराध प्रत्ययात्मक पद 'आयते' में स्थित 'य' प्रत्यय का ३-१३८ से लोप और १-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय आत्मनेपदीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृन में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुभाअइ रूप सिद्ध हो जाता है। उमड़मीयति = संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथम पुरुष को एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप दमदमाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३० से नाम-धातु द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्ति से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति १-१० से पदस्थ वर्ण 'मी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का आगे प्रत्ययात्मक स्वर 'या' का सद्भाव होने से लोप; १-५ से लोप हुए स्वर 'ई' के पश्चात शेष रहे हुए इलन्त व्यञ्जन 'म' में आगे स्थित प्रत्ययामक दीर्घ स्वर 'या' को संधि; यों प्राप्त नाम-धातु रूप दमपमा में ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय परस्मैपदीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बमड़माइ रूप सिद्ध हो जाता है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रांकृत व्याकरण 2 ६२४१] •subeddistoresdoktro000000000000kshrookersonotekkootobort+0000000001 जमदमायते संस्कृत का वतमान कालोन प्रथम पुरुषका एक वचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित थापन का रूप है। इसका प्राकृत रूप इमदमाह होना है। इसमें सुत्र-संख्या ३-१३८ से नाम-धातु योतक प्रत्यय "य" का लोप और ३-१२९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृतीयः श्रात्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय ते" के स्थान पर प्राकृत में "" प्रत्यय की प्रानि होकर महमाई रूप सिद्ध हो जाता है। लोहितीमा त पनाम कालीन यम पुरुष का एक अचान्न नाम-धातु रूप से निर्मिन क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप लोहियाइ होता है । इस में सूत्र-संख्या ३-१३८ से नामधातु द्योतक प्रत्यय "य" का लोप; ३-१५८ को वृत्ति से लोप हुए "य" के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रा" की प्राप्ति; १-१७७ से "तु" व्यजन का जोप; १-१० से लोप हुए "त" ध्यान के पश्चात् शेष रहे हुए दीघस्वर "ई" का अागे माम-धातु द्योतक प्रत्यय "अ" का सद्भाव होने से लोप एवं प्राम रूप "लोहिया" में ३-१३६ सं वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय परस्मैपदीय प्रापन्य प्रत्यय "fa" के स्थान पर प्राकृत में "" प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप लोहिभाइ सिब हो जाता है। लोहितायते संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु-रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप लोहियामा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२७७ से "तु' का लोप; ३-१३८ से नाम-धातु-योतक प्रत्यय “य्" का लोप, और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृतीय आत्मने पदीय मानव्य प्रत्यय "ते" के स्थान पर प्राकृत में "इ" प्रत्यय की प्राप्ति हो कर प्राकृत रूप लोहियाअइ सिद्ध हो जाता है। ३-१३८ । त्यादिनामायत्रयस्याद्यस्येचेचौ ॥३-१३६ ॥ त्यादीनां विभक्तीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च सम्बन्धिनः प्रथमत्रयस्य यदायं वचनं तम्य स्थाने इच् एच इत्येताबादेशौ भवतः ।। हसइ । इसए । वेवइ । वेवए । चकारी इचेचः (४-३१८) इत्यत्र विशेषणार्थी। अर्थ:-संस्कृत-भाषा में धातुएँ दश प्रकार की होती है; जो कि 'गण' रूप से बोली जाती है। वैसा गण-भेद प्राकृत-भाषा में नहीं पाया जाता है। शत-भाषा में तो सभी धातुएँ एक ही प्रकार की पाई जाती है, जो कि मुख्यत: स्वसन्त ही होती है; थोड़ी सी जो भी यजमान्न है; उन में भी सूत्र-संख्या ४-१३६ से अन्त्य हलन्त व्यकजन में विकरण प्रत्यय "अ' की संयोजना करके उन्हें अकारान्त रूप में परिणत कर दिया जाता है । इस प्रकार प्राकृल-भाषा में सभी घांवर स्वरान्त ही एवं एक हो प्रकार का पाई जाती है। संस्कृत-भाषा में "परस्मै पद और मारमने १६" रूप से प्रत्ययों में तथा धातुओं में जैसा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४२ ] 4444487 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या संहित 6000094040004686000466646 6♠♠***** भेद पाया जाता है, प्राकृत भाषा में बैमा नहीं है; तदनुसार प्राकृत भाषा में काल- बोधक एवं पुरुष बोधक प्रत्ययों की श्रेणी एक ही प्रकार की है। संस्कृत समान " परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय " प्रत्ययों को भिन्न भिन्न श्रेणी का प्राकृत में अभाव ही जानना । इसी प्रकार से संस्कृत में जैसे दश प्रकार के लकार होते हैं; वैसे प्रकार के लकारों का भी प्राकृत मे प्रभाव है; किन्तु प्राकृत भाषा में वर्तमान-काल, भूतकाल भविष्यकाल आज्ञार्थक, विधि- अंक और क्रियातिपत्ति अर्थात लृङ -हकार यो कुल छह लकारों के प्रत्यय ही प्राकृत में पाये जाते है। सूत्र संख्या ३-९४८ में प्रज्ञार्थक लकार के लिए 'पञ्चमी' शब्द की प्रयोग किया गया है और ३-१६५ में विधिलिङ के लिए सप्तमी शब्द का प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष से एक बचन के प्रत्ययों का निर्देश किया गया है; नदनु सार संस्कृत भाषा में परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय रूप से प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय नि' और 'ते के स्थान पर प्राकृत हो "इच = " और "एच् ए" प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:दसति = हमइ और हसवता है अथवा वह हनी है। वे वेत्र और वह काँपता है अथवा वह काँपती है । उपरोक्त "इच् और एच् प्रत्ययों में जो हलन्त चकार लगाया गया है; उसका यह तात्पर्य है कि आगे सूत्र संख्या ४-३१८ में इनके सम्बन्ध में पैशाची भाषा की दृष्टि से विशेष स्थिति वनलाई जाने वाली है; इसीलिए हलन्त चकार की योजना अन्य रूप से करने की आवश्यकता पड़ी है। "हस" क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९८ में की गई है। हसति संस्कृत का बर्त मान काल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप हए होता है। इस में सूत्र संख्या ३ १३६ से संस्कृतीच प्रत्यय "ति" के स्थान पर प्राकृत में 'तु" प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसए रूप सिद्ध हो जाता है। संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त आत्मने पदीय क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृन रूप वेंवइ और वेबए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२१ से '१' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१३६ से संस्कृती प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और '' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृतीय क्रियापदों के रूप देव और ये सिद्ध हो जाते हैं । ३-१३६॥३ द्वितीयस्य सि से ॥ ३-१४०॥ त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य त्रयस्य संबन्धिन भाद्य वचनस्य स्थान सिसे इत्येतावादेशौ भवतः ॥ हससि । इससे । देवसि । वेष से || I अर्थः- संस्कृत भाषा में द्वितीय पुरुष के एक वचन में वर्तमान काल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और थम्मने पदीय प्रत्यय मि' तथा 'से के स्थान पर प्राकृत में 'सि' और 'से' प्रत्ययोंकी श्रादेश प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण इस प्रकार हैं: - हमसिहसा और इससे तू हंसता है अथवा तू हंसती है | पसे देवसि और वेत्र से = तू काँपता है अथवा त काँपती है। ← Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण amsoorsetorwwsecorrenternsxetterrowesorrkestreamsootrewarsooconowin हसास संस्कृत का वर्तमान काल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसकं प्राकृत रूप हसास और हससे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१४० से 'हस' धातु में वतमामकोल के द्वितीय-पुरुप एक वचनाथ में प्राकृत में कास सि' और 'स' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर हसास तथा हसस रूप सिद्ध हो जाते हैं । वेपसे संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक कियापद का रूप है ! सप्तये प्रापन पदमि और मंत्र से होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१४० में प्राप्त 'वेव' धातु में वर्तमान काल के द्विनीय पुरुष के एकवचनार्थ में श्रमसे 'सि' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर वेवास और वेपसे रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३-१४० ।। तृतीयस्य मिः ॥ ३-१४१॥ त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च तृतीयस्य त्रयस्यायस्य वचनस्य स्थाने मिरादेशो भवति । हसामि । वेदामि ।। बहुलाधिकाराद् मियः स्थानीयस्य मेरिकार लोपश्च ॥ बहु-जाणयरूसि सक्क । शक्नोमीर्थः ॥ न मरं । न म्रिये इत्यर्थः । अर्थः-संस्कृत भाषा में तृतीय पुरुष के ( उत्तम पुरुष के) एक वचन में वर्तमानकाल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और थारमनेपलीय प्रत्यय 'मि' और 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:-हसामि-हसामि मैं हंसता हूँ अथवा मैं हंसती हूँ । वेपे = वेवामि = मैं कॉपता हूं अथवा मैं कापती हूँ। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से प्राकृतीय प्राम प्रत्यय 'मि' में स्थित 'इ' स्वर का कहीं कहीं पर लोप भी हो जाया करता है; तदनुसार लोप हुए स्वर 'इ' के पश्चात शेष रहे हए प्रत्यय रूप हलन्त 'म' का सूत्र संख्या १-२३ के अनुसार अनुस्वार हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:-हे बहु-शानक ! रोषितुम् शक्नोमिहे बहु जाणय ! रूमि सक्कं - हे बहुज्ञानी ! मैं रोष करने के लिए समर्थ हूँ। इस अदाहरण में सकामि के स्थान पर सवं की प्रानि हुई है। जो यह प्रदर्शित करता है कि प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्रत्ययस्य 'इ' स्वर का लोप होकर शेष प्रत्यय रूप हलन्त 'म' का अनुस्वार हो गया है । आत्मनेपदीय धातुका उदाहरण इस प्रकार है:-न म्रिये = न मरं = मैं नहीं मरता हूं अथवा मैं नहीं मरती हूँ; यहां पर प्राकृत में मरामि के स्थान पर प्राप्त रूप 'मरं' यह निर्देश करता है कि 'मि' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त विधानानुसार हलन्त 'म' की ही प्रत्यय रूप से प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। हसामि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एक वचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक कियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हसामि हो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-३-१५४ से मूल प्राकृत धातु 'इस में स्थित अन्त्य हस्थ स्वर 'अ' को 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्त प्राकृलीय धासु 'हसा' Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४४ ] * पियोदय हिन्दी व्यारूपों सहित * moovernoooooootonormeterrorseenetworkrrearretarrowessoonwermire में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप हसामि सिद्ध हो जाता है । पे संस्कृत का वर्तमानकाल को तृतीय पुरुष का एकवचनान्त पात्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप वेवामि होता है । इसमें सूत्र संख्या -२३१ से मूल संस्कृत धातु वेप में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'ये व मे विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति;३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर र्घ स्वर 'श्रा की प्राप्ति और ३-१४१ से प्रान प्राकृतीय पातु 'धेवा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकत्रचन में संस्कृतीय श्रात्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृनीय रूप धामि सिद्ध हो जाना है। हे बहु-ज्ञानक ! संस्कृत का संबोधन का एक वचनान्त पुंल्लिंग विशेषण को रूप है। इसका प्राकृत-रूप हे बहु-जाण्य ! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-८३ से 'ज्ञ, 3 ज+ब' में स्थित 'ब' व्यंजन का लोप होने से 'ज्ञा' के स्थान पर प्राकृत में 'जा' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१८७ से 'क' व्यंजन का लोप, १-१८० से लोप हुए व्यंजन 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्रश्रमा विभक्ति के समान ही ३-२ के अनुसार प्राकृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय दो-श्री' का अभाव हो कर प्राकृतीय रूप हे पहु-जाणाय । सिद्ध हो जाता है। रोषितुम् सम्कृत का हेत्वर्थ कुदन्त का रूप है। इसका प्राकृत रूप रूसिउं होता है। इसमें सूत्र-- संख्या-४-२३६ से मुल सस्कृत-धातु 'रूप' में स्थित हस्व स्वर 'ड' को प्राकृत में दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति, १.९६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति, १-१७७ मे 'न व्यञ्जन का लोप और १-२३ से अन्तिम हलत 'म' के स्थान पर अनुषार को प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप रूतिउं सिद्ध हो जाता है। शकोम संस्कुत का वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप सवक्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ४-२३० से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्रामि; प्राकृत में गण भेद का अभाव होने से संस्कृत धातु 'शक' में पंचम-गण-द्योतक प्राप्त विकरण प्रत्यय 'नो-नु-नु' का कृत में अभाव; तदनुसार शेष रूप से प्राप्र धातु 'सक्क' में ३-१४१ की वृत्ति से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय "मि' में स्थित इस्व स्वर 'इ' का लोप होकर हलन्त रूप से प्राप्त 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप सक्क सिद्ध हो जाता है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 की गई है। निये संस्कृत का वर्ततमान काल का तृतीय पुरुष का एक वचनान्त यात्मनेपदीय षष्ठ--गणीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मरं होता है। इसमें सत्र संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २४५] Roorkworrroresstormerorrectoriomwwestensinesssssssnotoriorrore...] धातु 'म' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत में 'श्रर' की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'मर' अंग रूप की प्राप्ति, तत्पश्चात् ३-१४१ की वृस से वर्तमान काल के ततीय पुरुष के एकबाचन में संस्कृत में प्राप्तव्य श्रात्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तन्य प्रत्यय 'मि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' का लोप हो कर हलन्त रूप से प्राप्त 'म' प्रत्यय की अनुम्बार की प्राप्ति ओर १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म् को अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्राकृत क्रिया पद का रूप मरं सिद्ध हो जाता बहुप्यायस्य न्ति न्ते इरे ॥ ३-१४२ ॥ त्यादीनां परम्मैपदात्मनेपदानामाधत्रय संबन्धिना बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने न्ति ने इरे इस्लादेशा मयन्ति । इतति । चन्हि । हसिज्जन्ति । रमिअन्ति । गज्जन्ते से मेहा ।। बोहन्ते रक्खसाणं च ॥ उपमन्ते कइ- हिय-पायो कन्य-रयणाई ।। दोरिण चि न पहुपिर वाहू । न प्रभवत इत्यर्थः ॥ विच्छुहिरे । विक्षुभ्यन्तीत्यर्थः ।। क्वचित्र इरे एकत्वेपि । सहरे गामचिखक्लो । शुष्यतीत्यर्थः ॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा में प्रथम (पुरुष अन्य पुरुष) के बटुवचन में वर्तमान-काल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और श्रात्मनेपदीय प्रत्यय 'अन्ति' और 'अन्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति, न्ते और हरे' प्रत्ययों की श्राद्देश-प्राप्ति हुश्रा करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:--हसन्नि-हसन्ति वे हँसते हैं अथवा हैमती हैं । वेपन्त वेवन्ति वे कांपते हैं अथवा वे कापती हैं | हासयन्ति हसिन्नन्ति-वे हसाये जाते अथवा वे हमाई जाती हैं । रमयन्ति-रमिनन्ति वे खेलाये जाते हैं अथवा खेलायी जाती हैं। गर्जन्ति खे मेघाः = गजन्ते खे मेहा - बादल श्राकाश में गर्जना करते हैं । बिभ्यति राक्षसेभ्यः-बोहन्ते रक्खसाणं = वे राक्षमों से डरते हैं अथवा डरती हैं। उत्पद्यन्ते कवि हृदय सागरे काव्य-रत्नानि - मुष्पजन्ते-कइ- हिय-सायरे कव्व-रयणाइ कवियों के हृदय रूप समुद्र में काव्य रूप रत्न उत्पन्न होते रहते हैं ।द्वौ अपि न प्रभवत: बाहू =दोरिण दिन पहुप्पिर बाहू दोनों ही भुजाएं प्रभावित नहीं होती हैं। वितुभ्यन्ति-विहिरे-वे घबराते हैं अथवा वे घबड़ाती हैं। वे चंचल होती हैं। इन उदाहरणों को देखने से पता चलता है कि संस्कृतीय परस्मैपदीय अथवा आत्मनेपदीय प्रत्ययों के स्थान पर वर्तमान काल प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों को प्राप्ति हुश्रा करती है । कहीं कहीं पर वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में बहुववनीय प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति भी देखी जाती है । उदाहरण इस प्रकार है:-शुष्यति प्राम-कर्दमः = सुसदरे गाम-चिखलो = गाँव का कीचड़ सूखता है । इस उदाहरण में संस्कृतीय क्रियापद 'शुष्यात' एकवचनात्मक है तदनुसार इसका प्राकृत रूपान्तर सूसइ अथवा सूसए होना चाहिये था, किन्तु 'सूसइरे' ऐमा रूपान्तर करके प्राकृतीय बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' को संयोजना की गई है। ऐसा प्रसंग कभी कभी हो देखा जाता है। सर्वत्र महीं। इसे 'बहुलम्' सत्र के अन्तर्गत हो समझना चाहिये । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * roore.orrenetworrenemierwortramworroworwearers.comseworketin हसन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रुप है । इसका प्राकृत रूप भी इसन्ति ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३.१४२ से प्राकृत-धातु 'हस' में धर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। पेपन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप धन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२३१ से मूल धातु वेप' में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; तत्पश्चात प्राप्तांग 'ये' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत में श्रात्मनेपदीय प्राप्तस्य प्रत्यय "अन्ते-न्ते' के स्थान पर प्राफत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप वेवन्ति सिद्ध हो जाता है। हासयन्ति संस्कृत का वर्तमान काल का प्रथम पुरुष रूप बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप हसिजन्ति होता है । इममें सूत्र संख्या ३-१६० से मूल धातु हस में भाव-विधि अर्थ में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से 'हस' धातु में स्थित अन्त्य स्वर के धागे प्राप्त प्रत्यय 'इजन' की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त 'हस' के साथ में आगे रहे हुए प्रत्यय रूप 'जज' की संधि होकर 'इसिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'हसिज' में वर्तमान काल के बहुवचनात्मक प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसिज्जन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। __ रमयन्ति संस्कृत का वर्तमान काल के प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त भाव-विधि द्योतक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमिज्जन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१६० से मूल-धातु 'रम में भाव विधि योतक 'इन' प्रत्यय की प्रामि; -१० से 'रम' धातु में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्रात्र प्रत्यय 'इज्ज' को 'इ' होने से लोप; 1-4 से हलन्त 'रम्' के साथ में आगे रहे हुए प्रत्यय रूप 'इज्ज' की संधि होकर 'रमिज' अंग की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'रमिज में वसमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रमिन्जन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। 'गजन्ते' 'रखे' और 'महा' तीनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१८७ में की गई है। बिभ्यति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचनात्मक अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मोहन्ते होता है। इसमें सूत्र-सख्या-४-५३ से भय-अर्थक संस्कृत-धातु 'भा' के स्थान पर प्राकृत में 'बी' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'बीह' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बोहन्त रूप सिद्ध हो जाता है। राक्षसभ्यः संस्कृत का पञ्चमी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है । इसका प्राकृत रूप रखसाणं है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर 'अ' को प्रारित २-३ से 'न' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'स्व' की प्राप्ति, २-६० से Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण [ २४७] www 6 -9% 0% 6666 * *$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-१३४ की वृत्ति से संस्कृतीय पद में स्थित पञ्चनी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करने की प्रदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१२ से प्राप्तांग 'रक्तम' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के आगे षष्ठी विभक्ति के बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दी स्वर 'श्रा' को प्राप्ति; यो प्राप्ताय रक्खमा' में ३-६ से उपरोक्त विधानानुसार षष्ठी विर्भात क बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अाम् के स्थान पर प्राकृन में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२४ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप रक्खसाणं सिद्ध हो जाता है। उत्पद्यन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पाजन्ते होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७१ से प्रथम हलन्त भ्यञ्जन '' का लोप; २.८६ से लोप हुए हलन्त व्यञ्जन 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति ३.२४ से संयुक्त बजन 'य' को 'ज' की प्राप्ति, २.८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ल' की प्राप्ति और ३-१४५ से प्राप्तांग 'उपज' में वर्तमान काल के प्रथम पुरुप के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति हीकर प्राकन क्रियापद का रूप उपजते सिद्ध हो जाता है। का हृदय-सागरे संस्कृत का समासात्मक सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इम का प्राकृत प 'कहाश्रय-सायरे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोः १-१२८ से '' के स्थान पर 'इ' का पानि; १-१७७ से 'दु' का लोप; १-१७७ से 'ग' का लोपः १-१८० से लोप हुए 'ग' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति; बों प्राain 'कइ- हिय-सायर' में ३ ११ में सप्तमी विभक्ति के एकत्र वन में संस्कृतीय प्राप्तण्य प्रत्यय ' डिई' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में हनन्त 'इ' इस्य नंबर होने से प्राप्तांग मूल शब्द 'कइ.हि ग्रसायर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का लोर हार शेष हजम्न अंग में उपरोक्त 'द' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सप्तम्यन्त रूप कड-हिअय-सायरे पिर हो जाता है। काव्य-रस्मानि संस्कृत का समास :मक प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त नपुसक जिंगात्मक संज्ञा का रूप है। इसका प्राकृत कम रखमाई होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २.८ से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'घ' को द्विस्व 'व्य' की; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोष; ३.१०१ से लोप हुए 'तू' के पश्वास शेष रहे हुए म' के पूर्व में 'अं' की पागम रूप प्राप्ति; १-१८० से आगम-रूप से प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति; वों प्राप्तांग-कच. रयण' में ३-२६ से प्रथमा विभक्त के बहुवचन में नपुंसक लिग में अन्त्व हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की मारित होते हुए संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यक्ष 'जस' के स्थान पर प्रारूत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माकृत-पद पध्व-रपणा सिद्ध हो जाता है। 'कोपिण' संख्यात्मक विशेषण-पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # 'वि' और 'न' दोनों अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। प्रभवतः संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का द्विवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पहुपिरे होता है। इसमें सूत्र संख्या २२७६ से 'र' का लोप ४-६३ से धातु श्रंश 'भू'= 'भ' के स्थान पर प्राकृत में 'हुप्प' आदेश की प्राप्तिः १-१० से प्राप्त धातु-अंग 'पहु' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ' होने से लोय; तत्पश्चात् ३ २३० से प्राप्त हलन्त धातु 'पप्पू' में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष 名 बहुवचन में प्राकृत में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पहारे सिद्ध हो जाता है । [ २४८ ] 300000 46605460060000 संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का द्विवचनात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बाहू ही होता है। इस में सूत्र- संख्या ३ १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति ३-१२४ के निर्देश से चकारान्त शब्दों में भी अकारान्त शब्दों के समान ही विभक्ति-बोध-नव्ययों की प्राप्ति; नदनुसार ३-४ से प्रथमा विमति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' को प्राक्त-शब्द 'बाहु' में प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्रथमा के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' का सदुभाव होने से बाहु' शब्दान्त्य ह्रस्व श्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बाहू रूप सिद्ध हो जाता है । विक्षुभ्यन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विच्छुहिरे होता है। इसमें सूत्र मंख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'बिन्नुभ' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'छ' की द्विश्व 'छ छ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्तिः ९-१८० से 'भ् के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ४ २३५ से प्राप्त हलन्त धातु 'विच्ह' में विकरण प्रत्यय 'थ' की प्राप्तिः ९-१० से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' का पुनः श्रागे प्रत्ययात्मक 'इरे' को 'इ' होने से लोपः तत्पश्चात् ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में उपरोक्त रीति से प्राप्त 'बि' धातु में 'हरे' प्रत्यय का प्राप्ति होकर प्राकृत रूप विचदुहिरे सिद्ध हो जाता है। शुष्यति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप सूमइरे है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से संस्कृतिीय मूज़ धातु 'शुष्' में स्थित दोनों प्रकार के 'श' और 'घ' के स्थान पर क्रम से दो दन्त्य 'स' की प्राप्तिः ४-२३६ से आदि ह्रस्व स्वर '' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति ४-२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'सूस' में त्रिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१४२ की वृद्धि से एक वचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग करने को मान्यता का निर्देश; तदनुसार ३-१४२ प्राकृत धातु 'सूप' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के अर्थ में एकत्रचन के स्थान पर बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप सूसरे सिद्ध हो जाता है। : ग्राम-कर्म संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का एक वचनान्त पुंल्डिंग का रूप है। इसका देशज प्राकृत का रूप गाम-चिक्खल्लो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से माम' में स्थित 'र' व्यञ्जनका Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २४६ ] Koreanervernoornstoriesootrarerso000000rnetroot000***600kworrotram लोप; ३-१४२ की वृत्ति के आधार से मूल-संस्कृत-शब्द 'कदम' के स्थान पर देशज-भाषामें चिखल्ल शब्द की आदेश प्रामि; ३-२ से प्राप्त देशज शब्द गाम- चिखल्ल' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त लिंजग में संस्कृतीय प्रारतव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज-प्राकृत पद 'गाम- चिखल्लो' सिद्ध हो जाता है । ३.१४२ ।। मध्यमस्येत्था-हचौ ॥ ३-१४३॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां मध्यमस्य त्रयस्य बहुषु वर्तमानस्य स्थाने इत्या हच् इत्येताबादेशौ भवतः ॥ हसित्था । हसह । वेवित्था । वह । बाहुलकादित्थान्यत्रापि । यद्यचे रोचते । जं जं त रोइत्या । हच् इति चकारः इह-इचोईस्य (४-२६८) इत्यत्र विशेषणार्थः ।। अर्थ:-संस्कृत-धातुपों में वर्तमान-काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनाथ में परस्मैपदीय-धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय यस्' तथा 'थ' के स्थान पर और श्रामनेपदीय धातु प्रों में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'इथे' और '' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' और 'हच्-ह' प्रत्ययों की अादेश प्राप्ति होती हैं । उदाहरण इस प्रकार है:-हमयः = हसिया और हसह = तुम दोनों हँसते हो; अथवा तुप दोनों हँसती हो । हपथ = हसित्था और हसह = तुम हँसते हो अथवा तुम है पती हो । वेपथ =विथा और वह = तुम दोनों कांपते हो अथवा तुम दोनों कांपती हो । वेपवे = वेविस्था और वह = तुम (मब) कांपते हो अथवा तुम (सब) कापतो हो। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'इत्या' प्रत्यय का प्रयोग द्वितीय पुरुष के अतिरिक्त अन्य पुरुष के अर्थ में भी प्रयुक्त होना हा देखा जाता है । जैसे:-यत् यत् ते राचले = जं जं ते रोइत्या - जो जो तुझे रुचता है; इत्यादि । यहां पर संस्नीय क्रियापद रोचते में वर्तमान कालोन प्रथम पुरुप का एकवचन उपस्थित है; जबकि इसी के प्राकृत रूपान्तर रोइत्था में द्वितीय पुरुष के बहुवचन का प्रत्यय 'इत्या' प्रदान किया गया है। यों वर्तमान कालान द्वितीय पुरुष के बहुवचन में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय 'इत्था' के प्रयोग को अनियमितता कभी कभी एवं कहीं कहीं पर पाई जाती है। उपरोक्न 'ह' प्रत्यय के साथ में जो 'चकार' जोड़ा गया है; उम का तात्पर्य यह है कि प्रागे सूत्र-संख्या ४-२६८ से इह-हचोहस्य 'सूत्र का निर्माण किया जाकर इस 'ह' प्रत्यय के संबंध में शोर मनी भाषा में होने वाले परिवर्तन को प्रदर्शित किया जायगा । श्रतएच 'सूत्र रचना' करने की दृष्टि से 'ह' प्रत्यय के अन्त में हलन्त 'च' की संयोजना की गई है। हसथः तथा हसथ संस्कृत के वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इसके प्राकृत रूप शेनों वचनों में समान रूप से ही हसिस्था एवं हसह होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति, 1-१० से हम धातु के अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इत्या' को 'इ' का सद्भाव Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *. होने से लोप; तत्पश्चात प्राप्तांग-धातु 'हस्' में ३-१४३ से वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन और बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'यस' तथा 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'इस्या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रश्रम रूप हसिस्था सिद्ध हो जाना है। _ द्वितीय रूप हप्तह में सूत्र संख्या ३.१४३ से हम धातु में वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन और बहुववन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'यस' और 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति हाकर द्वितीय रूप हसह भी सिद्ध हो जाता है। पेथे और वेपध्ये संस्कृत के वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से हो येविस्था और वेवह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' व्यञ्जन के स्थान पर व' को प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की श्रादेश प्राप्तिा १-१० से प्राप्त प्राकृत-धातु वेव' में स्थित अन्त्य स्वरअ'के श्रागे प्राप्तव्य प्रत्यय 'इत्था की'का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात प्राप्तां-धातु 'वे' में ३-१४३ से वर्तमान फाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में तथा पहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्ध प्रत्यय 'इथे' और ' के स्थान पर प्राकृत में इत्या प्रत्यय प्रारित होकर प्रथम रूप घेविस्था सिद्ध हो जाता है। द्विनीय रूप वेवह में नव-संख्या ३-१४३ से प्राकृन में प्राप्त धातु वेव में वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में और बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इथे' और 'धवे' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्विनीय रूप वेवह भी सिद्ध हो जाता है। 'ज' (मय नाम) रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है । 'ने (मर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.९९ में की गई है। रोचते संस्कृत का वर्तमान काल का प्रथम पुरुष को पकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्म के क्रियापद का रूप है। इसका (ोष) प्राकून का रोहस्था है। इसमें सूत्र संख्या १-६४७ से 'च' का नोप; १.१० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हर स्वर 'अ' के श्रागे प्रत्ययानक 'इत्या' की 'इ' का माव होने से लाप; ३-१-४३ की वृत्ति से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्रामण्य आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीय पुरुष बांध क बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्थी' की प्राप्ति होकर (श्राप) प्राकृतोय कर रोइत्या सिद्ध हो जाता है । ३-१४३ ।। तृतीयस्य मो-मु-मा: ॥ ३-१४४ ॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्प समन्धितो बहुषु वर्तमानस्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [२५१ ] Petạ4495689464699688888888 489 ****$$, $%&$ वचनस्य स्थाने मो मुम इत्येते प्रादेशा भवन्ति ॥ हसामी । हसामु । हसाम । तुवरामो । तुवराम । तुवराम ।। अर्थ:-संस्कृत-धातुओं में वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनार्थ में परस्मैपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय वस्' और 'मस्' के स्थान पर तथा आमनेपदीय-धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'वह' एवं महे' के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से 'मो, मु, और म' में से किसी भी एक प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:-हमायः और हसामः = हसमा अथवा हसामु अथवा हसाम - हम दोनों अथवा हम (सब) हँसते हैं या हँसती है । स्वरराव और त्वरामहेतुबमो अथवा तुवरामु अथवा तुवराम = हम दोनों अथवा हम (सब) शीघ्रता करते हैं या शीघ्रता करती है। हसायः और इसामः संस्कृत के वर्तमान काल त तृतीय पुरुष क्ने क्रम से द्विवचन के और बहु वचन के परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से हो हसामो, हसामु और हसाम होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५५ से प्राकृत-धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' स्थान पर 'श्रा की प्राप्ति, ३-६३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की मादेशप्राप्ति, यो प्राप्तांग 'हसा' में ३-१४४ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ में एवं बहुवचनाथ में संस्कृत में कम से प्राप्तध्य प्रत्यय 'वस' और 'मस' के स्थान पर प्राकृत में ऋम से 'मो मु, म' प्रत्ययों का प्राप्ति होकर कम से हिवचनीय अथवा बहुवचनीय प्राकृत रूप हसामो, हसामु और हसाम सिद्ध हो जाते हैं। वराव और विरामहे संस्कृत के वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहु.. वचन अात्मनेपदीय अफर्मक प्रियापद के रूप हैं । इसके प्राकृत रूपवानों वचनों में समान रूप से ही तुवरामो, तुवराम और तुवराम होते है। इनमें सूत्र संख्या ४-१५० से संस्कृतीय मूल धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' रूप की श्रादेश-प्राप्ति, ४.२३॥ से प्राप्त प्राकृत हलन्त धातु 'सुवर' में विकरण प्रत्यय '' की प्राप्ति, ३-१५५ से प्रा विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति, ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहु वचन का प्रयोग करने की यादेश प्राप्ति, यो प्रामांग-धातु 'तुवरा' में ३-६४४ से वतमानकाल तृतीय पुरुष के द्विवचाथं एवं बहुवचनार्थ में संस्कृत में क्रम से प्रामध्य प्रत्यय 'वह' और 'मह' के स्थान पर प्राकत में कम से 'मो मु, म' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर क्रम से द्विवचनीय अथवा बहुवचनीय प्राकन रूप तुवरामी, पराम, और तुयराम सिद्ध हो जाते हैं । ३.१४४ ॥ अत एवैच् से ॥ ३-१४५ ॥ स्पादेः स्थाने यो एच् से इत्येतावादशी उक्ती ताबकारान्तादेव मयतो नान्यस्मात् ।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ..10000+soooootoseximoonkewestoreworkwormanawareneusernoonsert.in हसए । इससे ।। तुवरए। तुघरसे ॥ करए करसे ॥ अन इति किम् । ठाइ । ठासि ॥ वसुआइ बसुआसि ॥ होइ । होसि ॥ एवकारोकारान्ताद् एच से एव भवत इति विपरीतावधारणनिषेधार्थः । तेनाकारान्ताद् इच् सि इत्येतावपि सिद्धौ ॥ हसइ । हससि ।। वेवइ । वेत्रसि ।। अर्थ:-सूत्र संख्या ३-१३६ में और ३-१४० में वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम-पुरुष के अर्थ में तथा द्वितीय पुरुष के अर्थ में कम से जो १८=ए' एवं से प्रत्यय का उल्लेख किया गया है, वे दोनों प्रत्यय केवल अकारान्त धातुओं में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, इनका प्रयोग श्राकारान्त, श्राकारान्त मादि धातुओं में नहीं किया जा सकता है । उदाहरण इस प्रकार है:-हमति-हसए- वह हंसता है अथवा वह हंसती है। हप्ति-हससे= तू हंमता है अथवा तू हंसती है । वरते = तुवरए- वह जल्दी करता है अथवा वह जल्दी करती है । त्यरस = तुवरसे = तू जल्दी करता है अथवा तू जल्दी करती है । करोति - करए - वह करता है अथवा वह करती है । करोषि = करसे = तू करता है अथवा तू करती है । इल्यादि । प्रश्न:-अकारान्त धातुओं में ही 'ए' तथा 'से' का प्रयोग किया जा सकता है, ऐमा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त श्राफागन्त, बोकारान्त धातुओं में इन 'ए' तथा 'से' प्रत्ययों को प्रयोग कभी भी नहीं होता है और अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष धातुओं में केवल 'इ' तथा 'सि' का ही प्रयोग होता है, ऐमी निश्चयात्मक स्थिति होने से हो 'अकारान्त' जसे विशेषणात्मक शब्द को संयोजना करनी पड़ी है । उदाहरण इस प्रकार है:- तिष्ठति = ठाइ = वह ठहरता है अथवा वह ठहरती है । तिष्ठमि = ठास = तू ठहरता है अथवा तू ठहरती हैं। उद्वाति = वसुबाइ वह सूखता है अथवा वह सूखती है । उदासि = बसुआमि = तू सूखता है अथवा त् सूखती है। भवति = होइ = वह होता है अथवा वह होती है । भवास -सि-तू होता है अथवा तू होता है, इत्यादि । मूल सूत्र में जपर जो 'एव' जोड़ा गया है उसका तात्पर्य यह भी है कि कोई व्यक्ति यह नहीं ममम ले कि 'अकारान्त धातुओं में केवल 'ए' और 'से' प्रत्यय ही जोड़े जाते हैं और 'इ' तथा 'सि' प्रत्यय नहीं जोड़े जाते हैं; ऐमा विपरीत और निश्चयात्मक अर्थ का निषेध करने के लिए ही एव' अव्यय को सूत्र में स्थान दिया गया है। तदनुसार पाठक-गण यह अच्छी तरह से समझ लें कि अकारान्त धातुओं में तो 'ए' और 'से' के समान हो 'इ' तथा "म' को भी प्राप्ति अवश्यमेव होती है; किन्तु अक्रान्ति के सिवाय श्राकान्ति, ओकारान्त आदि धातुओं में केवल 'इ' तथा 'सि' की प्राप्ति होकर 'ए' एवं 'से' की प्राप्ति का निश्चयात्मक रूप से निषेध है । इस प्रकार से प्राकारान्त, ओकारान्त धातुओं के समान ही अकारान्त धातुओं में भी 'इ' तथा 'सि' प्रत्ययों की प्राप्ति अवश्यमेव होती है। इस विवेचना से यह प्रमाणित होता है कि अकारान्त धातुओं में तो 'इ, ए, सि, से' इन चारों प्रकार के प्रत्ययों की प्राप्ति होती है परन्तु आकारान्त, बोकारान्त श्रादि धातुओं में केवल 'इ और प्सि' इन दो Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण, Wooootsradheotroserotteroserotronewsroorseworterroristomers+ o m मस्ययों का प्रयोग किया जा सकता है। 'ए और से' का नहीं । अकारान्त-धातुओं के उदाहरण इस प्रकार है:--हमति हसइ = यह हँसता है अथवा वह हंपती है । हससि = हससि =तू हंसता है अथवा सू हँसती है । वेपते = घेवइ = यह कापता है अथवा वह कांपती है । वेपसे = वेबसि तू कांपता है अथवा तू कांपता है । इत्यादि। 'हसए' (क्रियापद) रूप को सिसि सूत्र-संख्या १३ में की गई है। 'हससे' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४० में की गई है। स्वरते संस्कृत का वर्तमान काल का प्रथम पुरुष का पक्रवचनान्त श्रात्मनेपदीय अर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृतीय रूप तुपरए होता है। इसमें सूत्र संख्या ४.१७० से संस्कृतीय धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में तुवर रूप की आदेश-प्रानि४-२२६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में प्रामा संस्कृतीय श्राप होय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की राप्ति होकर तुवरए रूप सिद्ध हो जाता है। त्वरसे संस्कृत का वर्तमान काल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त अात्मनेपदीय अकर्मक कियापद का रूप है इसका प्राकृत-रूप तुवरसे होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१७० से 'स्वर' के स्थान पर 'तुवर' की प्रादेश प्राप्ति; ४.२३६ से 'सुवर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.१४० से वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तब्य संस्कृतीय-प्रात्मनेपदीय प्रत्यय 'से' के स्थान पर प्राकत में भो 'स' प्रत्यय की प्राप्ति क्षेकर तुपरसे रूप सिद्ध हो जाता है । फरोसि संस्कृत का वर्तमानकाज का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप करए होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' में स्थित्त अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति होकर अंग रूप से कर' की प्रप्ति और ३.१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में प्राप्तम्य संस्कृतीय परस्मैपदीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करए रूप सिद्ध हो जाता हैं। करोषि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचानन्त परस्मैपदीय सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप करसे होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ से संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत में 'कर' रूप की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्तांग धातु 'कर' में वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के एक बचन में प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फरसे रूप सिद्ध हो जाता है। ठाई ( क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१९१ में की गई है। तिष्ठसि संस्कृत को वर्तमान काल का द्वितीय पुरुष का एक वचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप ठासि होता है । इसमें सूत्र संख्या ४.१६ से मूल संस्कृत धातु Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित morrowerror000000000000000000000000000000000000000000000000000000 'स्था' के आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'हा' रूप की प्रामेश प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ठासि प्राकृत रूप सिब हो जाता है। उहात सस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वसुबाई होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-११ से संस्कृतीय मूल धातु 'उद्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'वसुधा' रूप अंग की प्राप्ति और ३.१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य मस्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'यमुआई' सिद्ध हो जाता है । उद्घासि संस्कृत का वर्तमानकाल को द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप वसुप्रासि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४.११ से संस्कृतीय मून धातु 'उद्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'वमुश्रा' रूप धातु अंग की प्राप्ति और ३.१४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के मभान हो प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय क्रियापद को रूप पसुआरी सिद्ध हो जाता है। 'होइ' ( क्रियापद ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.९ में की गई है। भवार्स संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप होसि होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से संस्कृतीय मूल धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रारम्य प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी सि' प्रत्यय की प्राप्त होकर प्राकृत रूप होसि सिद्ध हो जाता है। 'हसई' ( क्रियापद ) रूप को सिद्धि सूत्र संख्या ३-१३९ में की गई है। 'हसास' ( क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.१४० में की गई है। 'वेषई' ( क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.१३९ में की गई है। 'पास' ( क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४० में की गई है। सिनास्तेः सिः ॥ ३-१४६ ॥ सिना द्वितीय त्रिकादेशेन सह अस्तेः सिरादेशो भवति ॥ निट्टरो सि ।। सिनेतिकम् से भादेशे सति अस्थि तुम ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ २५५ ] 1000000000000000000000000000000かからないので अर्थ:-संस्कृत में 'श्रम' - हो ना एनी एक धातु है जिसको वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के एक धचन में मस्कतीग प्रायजा प्रत्यय 'सि' की मंगोजना होने पर 'श्रमि' रूप बनता है। इस संस्कृतीय प्राप्त रूप 'अमि' =(तू है %) के स्यान पर प्राकृत में उक वर्तमान काल के द्वितीय पुरुप के एक वचन में सूत्रसंख्या ३.१४० से मानव्य प्रत्यय 'सि' और 'से' में से सब 'सि' प्रत्यय की योजना हो रही हो तो उस समय में 'अम + सि' में से प्रस्' का लोप होकर शेष प्राप्त रूप 'सि' ही उक्त 'असि' कप के स्थान पर प्राकृन में प्रयुक्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-निष्ठुगे यन असि-निदो जं सि = (अरे). तू निष्ठुर है। यहां पर संस्कृनीय धातु 'सि' के स्थान पर प्राशन में 'सि' रूप को श्रादेश-प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। प्रमः-मून सूत्र में 'सि' ऐ.पा निश्चयात्मक उल्लेख क्यों किया गया है ? - उत्तरः--तमान काल के दिनोय पुरुष के एकवचन में सूप-संख्या ३.१४० के अनुसार प्राकृतीय धातुओं में 'सि' और 'से' या दो प्रकार के प्रत्ययों की संयोजना होती है । तदनुसार जब 'अस्' धातु में 'सि' प्रणय को संयोजना होगी; तभी 'अम् + प्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' रूप की आयश-मामि होगी; अन्यथा नहीं। यदि 'अम्' धातु में उक्त 'सि' प्रत्यय की संयोजना नहीं करके 'से' प्रत्यय को संयोजना का जायगी तो उस समय में सूत्र-संख्या ३-१४८ के अनुसार संस्कृत रूप 'अस + मि'प्राकृत रूप 'अस+ से' के स्थान पर प्राकृत में 'अस्थि' रूप को आदेश प्राप्ति होगी । यो 'सि' से सम्बन्धित विशेषता को प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सि' का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:--स्वमसि अस्थि तुमः तू है । यहाँ पर 'आम' के स्थान पर 'मि' रूप की आदेश प्राप्त नहीं करके 'अस्थि' रूप का प्रदर्शन किया गया है। इसका कारण प्रायनीय प्रत्यय 'सि' का प्रयोग नहीं किया जाकर 'से' का प्रयोग किया जाना ही है । यो अन्यत्र भशन में रखना चाहिये । 'निदरों रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.२१४ में की गई है। 'अ (सर्वनाम) रूप की सिद्वि सूत्र संख्या १४ में की गई है। अलि सांकृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सि' होना है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४६ से मुम्पूर्ण संस्कृतीयपर 'असि' के स्थान पर प्राकृत में वतमान काल के द्वनीय पुरुष के एक वचनार्थ में सूत्र-संख्या ३-१४० के आदेशानुसार 'सि' और 'से' प्रत्ययों में से 'सि' प्रत्यय की 'अस्' धातु में संयोजना करने पर प्राकृत में केवल 'सि' मादेश प्राग्नि होकर 'सि' रूप प्रिय हो जाता है। आरी संस्कृत का वर्तमानकाल का द्विनीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद कप है। इसका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१४८ से सम्पूर्ण संस्कृतीय क्रियापद 'सि' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३.१४० के निर्देशानुमार एवं ३-१४३ की धृत्ति के आधारानुसार प्राकतीय प्रत्यय 'से' को संयोजना होने पर अस्थि रूप सिद्ध हो जाता है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५६ ] *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moot0rporosorrovestostonstresssss.orresporneroseron.000000000000000 स्वम संस्कृत का युष्मद् सर्वनाम का प्रथमाविभक्ति का एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप तुम होता है इसमें सूत्र संख्या ३-९० से प्रथमाविभक्ति के एफवन में तया तीनों लिंगों में समान रूप से ही प्रथमा-विभ उघोषक प्रत्यय 'मि' की योजना होने पर सम्पूर्ण संस्कृत पर 'स्वम्' के स्थान पर प्राकृत में 'तुम रूप सिद्ध हो जाता है । ३-१४६ ।।। मि-मो-मै-हि-म्हो-म्हा वा ॥ ३-१४७ अस्तेर्धातोः स्थान मि मी म इत्यायशः स यथासंहप हि हो म्ह इत्यादेशा वा भवन्ति ॥ एस म्हि । एषो स्मीत्यर्थः ।। गय म्हो । गय म्ह। मुकारस्याग्रहणादप्रयोग एव तस्येत्यवसीयते । पक्षे अस्थि अहं । अस्थि अम्हे । अस्थि अम्हो ।। ननु च सिद्धावस्थायां पक्ष्म शम-म-स्मामा म्हः (२.७४। इत्यनेन म्हादेशे म्हो इति सिध्यति । सत्यम् । किंतु विभक्तिविधौ प्रायः साध्यमानावस्थाङ्गोक्रिपो । अन्यया वच्छे । वच्छे पु । सव्वे । जे । ते । के । इत्यादर्थ सूत्राण्यनारम्भणीयानि स्युः॥ अर्थः-'अस्' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकान के तृतीय पुरुष के एकवचनात्मक प्रत्यय 'मि' को संयोजना की जाय तो वैकल्पिक रूप से धातु 'अस्' और प्रत्यय 'मि' दोनों ही के स्थान पर म्हि' पद की प्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है । जैसे- एषोऽस्मि-एस मिह - मैं हूं । वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ पर 'हि' नहीं किया जायगा वहाँ पर सूत्र संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृतीय रूप 'अस्मि' के स्थान पर 'अस्थि' पद की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार से इसी 'अस' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनात्मक प्रत्यय 'मो' एवम् 'म' की योजना की जाय तो वैकक्षिपक रूप से घातु 'अस्' और प्रत्यय 'मो' एवं 'म' दोनों ही के स्थान पर क्रम से 'म्हो' तथा 'मह' पद की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। बाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:गताः स्मः गय म्हो हम गये हुए है । गताः स्मः हम गये हुए हैं । यो वतमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतीय धातु 'अस' से 'मर' प्रत्यय को संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृतीय पद 'स्मा' के स्थान पर प्राकृत में कम से तथा वैकाल्पक रूप से 'मो और म' प्रत्ययों के सद्भाव में 'म्हो तथा म्ह पद की भादेश-प्रामि जानना । वैकल्पिक पक्ष होने से जहा पर हो तथा ' रूपों की प्राप्ति नहीं होगी; वहाँ पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृताय रूप 'स्मः' के स्थान पर 'अस्थि' आदेश प्राप्त पद की प्राप्ति होगी। सूत्र-संख्या ३-१४४ में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में धातुओं में जोड़ने योग्य तीन प्रत्यय 'मो, मु और म' बतलाये गये हैं। जिनमें से इस सूत्र में 'अस्' धातु के साथ में जुड़ने योग्य केवल दो प्रत्यय 'मी तथा म' का ही उल्लेख किया है और शेष तृतीय प्रत्यय मु' को छोड़ दिया है। इस पर से निश्चयात्मक रूप से यही जानना चाहिप कि 'यह' धातु के साथ में 'मु' प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जाता है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५७ ] * प्राकृत व्याकरण * 0000000 श्रम् अश्म= पह् अस्थि = जूं त्रयम् स्मः प्रमड़े है = हम हैं। यों अम और स्मः' के स्थान पर सूत्र-संवर ३-१४ के आदेशानुसार 'अस्थि' पत्र की आदेशप्राप्ति का सदुभाव होता है। 2000004400566666�***** शंका:- पहले सूत्र संख्या २ ७४ में आपने बतलाया है कि 'पदम शब्द के संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर तथा 'श्म, ष्म, स्म और अ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्ह' रूप की देश-प्राप्ति होती है' वदनुसार 'अस्मि किया रद में और 'स्म' क्रियापद में स्थित पर्दा 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश प्राप्ति होकर इष्ट पदांश म्ह' को प्राप्ति हो जाती है; तो ऐसी अवस्था में इस सूत्र संख्या ३-१४० को निर्माण करने की कौन सी आवश्यकता रह जाती है ? उत्तरः- यह सत्य हैं; परन्तु जहाँ विभक्तियों के संबंध में विधिविधानों का निर्माण किया जा रहा हो; वहाँ पर प्रायः माध्यमान अवस्था ही (सिद्ध को जाने वाली अवस्था हो ) अंगीकृत की जाती है। यादे विक्तियों से सम्बन्धित विधि-विधानों का निश्चयात्मक विधान निर्माण नहीं करके केवल व्यञ्जन एवं स्वर वर्णों के विकार से तथा परिवर्तन से सम्बन्धित नियमों पर ही अवलम्बित रह जॉयरों तो प्राकृत भाषा में जो विभक्तिबोधक स्वरूप संस्कृत के समान ही पाये जाते हैं; उनके विषय में में व्यवस्था जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायगी; जैसे कि कुछ उदाहरण इस प्रकार है: -- वृक्षेन=वच्छेणः वृक्षेषु सर्वयेः ये-जे; ते-ते; के= हे; इत्यादि इन विभक्तियुक्त पदों को साधनिका प्रथम एवम् द्वितीयपादों में वर्णित विकार से सम्बन्धित नियमों द्वारा भली भांति को जा सकती है; परन्तु ऐसी स्थिति में भी तृतीय पात्र में इन पदों में पाये जाने वाले प्रश्थयों के लिये स्वतन्त्र रूप से विधि-विधानों क निर्माग किया गया है; जैसे वज्रेण पत्र में सूत्र संख्या ३६ और ३-१४ का प्रयोग किया जाता है; पत्र में सूत्र संख्या ३०१५ का क्योग होता है; 'सब्बे, जे, ते के' प में सूत्र संख्या ३५८ का आधार हैं; यों यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल वर्ण-विकार एवं वर्ण-परिवर्तन से सम्बन्धित नियमोपनियमों पर ही अवलम्बित नहीं रहकर विभक्ति से सम्बन्धित विधियों के सम्बन्ध में सर्वथा नूनन तथा पृथक नियमों का ही निर्माण किया जाना चाहिये; अतएव आपकी उपरोक्त शंका अर्थ शून्य ही है। यदि आपकी शंका को सत्य माने तो विभक्तिस्वरूप बोधक सूत्रों का निर्माण 'श्रतारम्भणीय' रूप हो जायगा जो कि अनिष्टकर एवं विघातक प्रमाणित होगा । ग्रन्थकार द्वारा वृत्ति में प्रदर्शित मन्तव्य का ऐसा तात्पर्य है । 'एस' (सर्वनाम ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३१ में की गई है। अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदोय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप म्हि होता है। इस में सूत्र संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस् धातु में प्राकृतोय प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्त रूप 'अ + मि' के स्थान पर 'म्हि रूप की सिद्धि हो जाती है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * wwwwwwcorrentiatimorroorkeerna.orosroroscorrearransorrorsr000000002 गता संस्कृत का जिग विशेष का रूप है । इसका प्राकृत रूप गय है। इसमें सूत्र संख्या १.११ से पान्त विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोग; १.१७७ से 'त' व्यजन का लोप, १.१८० से लोप हुए त' घ्यजन के पश्चान शेष रहे हुए 'श्रा' स्वर के स्थान पर 'या' को प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त वर्ण 'या' में स्थित दीर्घ स्वर 'पा' के स्थान पर भागे संयुक्त व्यन्जन 'हो' का सद्भाव होने से हव स्वर 'म' की प्राप्ति होकर 'गय' रूप की सिद्धि हो जाती है। स्मः संस्कृत का वर्तमान काल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापर का रूप है । इसका प्राकृत रूप 'म्हों दिया गया है । इम में सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस' धातु में प्राकृतीय प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप 'अम+ मो' के स्थान पर 'हो' रूप की सिद्धि हो जाती है। 'गय' (विशेषणात्मक ) रूप को भिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई हैं। स्मा संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदाय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मह' होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस' धातु में प्राकृतीय प्रत्यय 'न' का प्राप्ति और ३-१४७ से पाप्त रू.५ 'अस + में' के स्थान पर है रूप की सिद्धि हो जाती है। अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकमक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अस्थि' भी होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.१४१ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुप के एकवचन में 'प्रस' धातु में प्राकृतीय प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४८ से प्राप्त रूप 'अस + मि' के स्थान पर 'अस्थि' रूप की सिद्धि हो जाता है। 'अहं' (मनाम) रूप की सिद्धि मूत्र संख्या ३-१0५ में की गई है। स्नः संस्कृत का वर्तमान काल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपर्दय अकर्मक क्रियापई का रूप है। इसका प्राकृत रूप अस्थि' मो होता है । इसमें पुत्र-संख्या ३-६४४ मे वर्तमानकाले' के तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'यस' धातु में प्राकृतीय प्रत्यय 'मो-मु-भ' को प्राप्ति और ३.१४८ से प्राप्त कर 'अस + मो-मु-म' के स्थान पर 'अस्यि रूप की सिद्धि हो जाती है। 'अम्हे' (सर्वनाम) रूप की सिउ सूत्र-संख्या ३-१० में की गई है। 'स्मः अस्थि' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। अम्ही' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१०६ में की गई है। 'घच्छण' (प्राकृत पर) को सिद्ध सूध-संखश 1.5 में की गई है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124000000 * प्राकृत व्याकरण * **************÷÷÷00434669 'बच्छेतु' (प्राकृत-पद) की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१५ में की गई है। 'सध्ये' 'जे' 'ते' और के चारों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या -१८ में की गई है । ३-१४० ॥ पुरुष प्रथम द्वितीय तृतीय अस्थिस्त्यादिना ॥ ३-१४८ ॥ यस्तै स्थाने त्यादिभिः सह अस्थि इत्यादेशो भवति । श्रत्थि सो । प्रत्थि ते । अस्थि तुमं । अस्थि तुम्हे । अस्थि अहं । अस्थि अहे || = अर्थ :-- संस्कृत धातु 'अ' के प्राकृत रूपान्तर में वर्तमानकाल के एकवचन के और बहुवचन के तीनों पुरुषों के प्रत्ययों को संयोजना होने पर तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में उक्त धातु 'अस्' तथा प्रामण्य अथ्यों के स्थान पर समान रूप से एक ही रूप 'अस्थि' को आदेश प्राप्ति होती हैं। उदाहरण इस प्रकार है : - ( १ ) सः भक्ति=सो अस्थिवाह है; (२) ततः श्रथवा ते सन्ति ते अस्थि वे दोनों अथवा के (सब) E; (३) स्वमसि तुमं श्रथ = तू है, (४) गुवाम् स्थः अथवा यूयम् स्थ= तुम्हे स्थितुम दोनों अथवा इम (सत्र) हो; (५) श्रहम् अस्मि = श्रहं श्रस्मि = मैं हूँ और (६) आवाम् स्वः अथवा वयम् रमः = अम्हे अस्थि हम दोनों श्रथवा हम ( स ) हैं । यो 'अस' धातु के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों में और दोनों बचनों में सूत्र संख्या १-१४६, ९४७-१४६ के अनुसार प्राकृत भाषा में निम्न प्रकार से रूप होते हैं: [ २५ ] एकवचन प्रस्थि स और afte मिह और अवि इस प्रकार 'अं' धातु के माकृत भाषा में आदेश मात्र प्राप्त एक रूप शित कर देता है। बहुवचन अस्थि अस्थि हो; म्ह और थि पाये जाते हैं, और केवल आदेश हो तीनों पुरुषों के क्षेत्रों में समान रूप से प्रयुक्त होकर ष्ठार्य की प्र 'अस्ति अस्थि' (किवाद की सिद्धि सूत्र संख्या -४५ में की गई हैं । 'सी' (नाम) को सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है। सन्ति ( और स्तः) संस्क्रू के वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचनान्त ( और द्विव नान्त क्रम से ) परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन दोनों का प्राकृत रूप इनमें सूत्र-संख्या ३-१४८ से दोनों रूपों के स्थान पर 'अस्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। ही होता है ! 'असि = अस्थि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४६ में की गई है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ते (सर्वनाम) रूप को सिवि भूत्र-संख्या ३.५८ में की गई है। 'तुम (सर्वनाम' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४६ में की गई है। 'स्थः और स्थ' संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के कम से द्विवचनान्त तथा बचचनान्त परम्मैपदोय अकर्मक क्रियापद के रूप है। इनका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इनमें सूत्र-संख्या ३-१४८ से दोनों रूपों के स्थान पर 'अस्थि' रूप सिद्ध हो जाता है । 'तुम्हें' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.९१ में की गई है। 'अस्मि = अत्थि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४७ में की गई है। 'अहं' (सर्वनाम) रूप की रिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। 'स्मः ( और स्वः) = 'अस्थि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४७ में की गई है। 'अ' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.१०f में को गई है । ३.१४८ ।। णेरदेदावावे ।। ३-१४६ ॥ णः स्थाने अत् एन पाव भावे एते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । दरिसइ । कारे । करावइ । करावे ॥ हासेइ । हसावइ । हसावेइ । उबसामेइ । उबसमावइ । उबसमावेइ ॥ बहुलाधिकारात् कचिदेन्नास्ति । जाणावेइ ।। क्वचिद् आवे नास्ति । पाएइ । भावेइ ।। अर्थ:--इस सून से प्रारम्भ करके प्रागे १५३ मूत्र तक प्रेरणार्थक क्रिया का विवेचन किया जा रहा है। जहाँ पर किलो की प्रेरणा से कोई काम हुआ हो वहाँ प्रेरणा करने वाले की क्रिया को बताने के लिए प्रेरणार्थक क्रिया को प्रयोग होता है। संस्कृत भाषा में प्रेरणा अर्थ में धातु से परे 'णिच् = अय' प्रत्यय ओड़ा जाता है; इसलिये इस क्रिया को 'णिजन्त' भी कहते हैं । प्राकृत-भाषा में प्रेरणार्थक क्रिया का रूप बनाना हो तो प्राकृत धातु के मूल रूप में सर्व प्रथम संस्कृतीय पानध्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्रादेश-माप्त 'अत, एन, आव और श्रावे' प्रत्ययों में से कोई भी एक प्रत्यय जोड़ने से वह धातु प्रेरणार्थ कियादाली बल जायगी; तत्पश्चात प्रामांग रूप धातु मैं जिस काम का प्रत्यय जोड़ना चाहें उस काल का प्रत्यय जोड़ा जा सकता है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'श्रत और एस' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' को संज्ञा होकर, यह लोप हो जाता है । इस प्रकार किसी भी धातु में काल बोधक प्रत्ययों के पूर्व में 'श्र, र, श्राव और आवे' में से कोई भी एक णिजन्त बोधक अर्थात् प्रेरणार्थक प्रत्यय जोड़ने से जम धातु का अंग प्रेरक- अर्थ में तैयार हो जाता है। इस सम्बन्ध में विविध नियमों की Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * [२६१ なかなかかないのか分かるか分からないから00000000000000000000 विवेचना मागे को सूत्रों में की जा रणार्थ कियाओं के कुछ सामान्य बाहरण इस प्रकार है:दर्शनातेदारसई-वह दिखलाता है . कास्यनि - काइ, करावई, करावद - वह कराता है। हासयति = हासंइ, हमावइ, हमाबेइ-वह हँमाता है । उपशाभय ते = उपाइ, घसमावइ, उसबमाह - वह शांत कराता है। 'चहलम् सूत्र के अधिकार से किती कि समय में और किमा किस धातु में सरोक्त 'एत-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं भी होती है। जैसे:-ज्ञापाते-जाणविइ -- वह बतलाता है । यहाँ पर 'ज्ञापयर्यास' के ग्थात पर 'जाणइ रूप का प्रेरणार्थक में निषेध कर दिया गया है। कहीं कहीं पर 'श्रावे' प्रत्यय की भी प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः-पायय ते मापद यह पिलाता है । यहाँ पा. 'राययत्ति' के स्थान पर 'पावेइ' रूप का निषेध हैं। जानना । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-भावयति =भावेई वह चिंतन करता है । यहाँ पर मंस्कृत रूप 'भावयति' के स्थान पर प्राकृत में 'भावावइ' रूप के निर्माण का अभाव हो जानना चाहिये । इस प्रकार से प्रेरणार्थक क्रियाओं का विशेष विशेषताएं आगे के सूत्रों में और भी अधिक बतलाई जाने वाली है। दर्शयति संस्कृन औरणार्थक किया का रूप है । इसका प्राकृत रूप दरिषद होता है। इसमें सूत्रसंख्या-.-१५ से रेफ रूप हलन्त व्यञ्जन 'र में पागम रूप 'इ' की प्रालि, १-२६० से 'श' के स्थान पर म' को प्राति; ३.१४६ से प्रेरणार्थक-या-रोधक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत म अत ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्त प्रेरणार्थक पाकृत धातु दरिस' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय पान्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक-क्रिया बायक प्राकृतीय धातु रूप दारिसह सिद्ध हो जाता है। कारयति संस्कृन प्ररणार्थक क्रिया का रूप है । इसके प्राकृत म्हप कारेइ, करावइ, और कराबेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र संख्या-३-१५३ से मूल प्राकृन-धातु 'कर' में स्थिन आदितव स्वर 'डा' के स्थान पर आगे पार्श्व स-किया-बोधक-प्रत्यय 'अन्' अथवा 'एतका लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ की प्राप्ति; ३.१५८ में प्राप्त प्रेरणार्थक-धातु-अं । 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नागे वर्तमानकाल बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३.१३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकन धातु 'कारे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्थानीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारेड़ सिद्ध हो जाता है। करायइ एवं फरावेइ में सूत्र-संख्या ३-१४६. से मूल प्राकृत धातु 'कर' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-माघ में संस्कृतीय प्रारतम्य प्रत्यय 'श्रय' के स्थान पर प्राकृत में कम से यात्र और श्रावे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल धातु 'कर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में अागत प्रत्यय 'आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंगरूप 'कराव और करावं' की प्रानि और ३-१३१ से प्रात प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से करावड़ और करावेइ दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६२ । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ह्रासयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप हास हाव और हसावे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-९५३ से मूल प्राकृत धातु 'हम' में स्थित आदि हम्ब स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक क्रिया-बोधक-प्रत्यय 'अ' अथवा 'ए' का लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ'' की प्राप्ति; ३-६५८ से प्राप्त प्रेरणार्थक धातु अंग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'व' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-१३१ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु-चंग 'हासे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्च प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासेई सिद्ध हो जाता है। हमार और हसावं में सूत्र संख्या ३-१४६ से मूल प्राकृत धातु 'हम' में न्ति अर्थात प्रेरणार्थक भाव में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'आव और आत्रे' प्रध्यय की प्राप्ति १५ से मूल धातु 'हस' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में आगत प्रत्यय 'श्राव एवं ' में स्थित श्रादि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंग-रूप 'हसार और हसावे की शक्ति और ३१२६ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु चंगों में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृताय प्राप्त व्यप्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से earer और हसाह दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। उपशामयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है । इसके प्राकृत रूप उवसामेश, उसमाव और जयसमाबेह होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या- १-२३१ से '१' के स्थान पर 'व' की प्राप्तिः १-२६० से ‘श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः ३ १६६ से णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु-अंग 'उवसामें' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्राय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप उत्साह सिद्ध हो जाता हैं । समाव और समावेद में सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १२६० ले 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति ३-१५९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'उमम्' में णिजन्त अर्थात प्रेरणार्थक भाष में संस्कृतिीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दोनों रूपों में 'आव और आवे प्रत्ययो की प्राप्ति यो प्राप्त प्रेरण थक रूप समाव और उबममाथे में सूत्र संख्या १९३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में दोनों रूपों में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप उवसमाष और उपसमा सिद्ध हो जाते हैं । ज्ञापयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप हैं । इसको प्राकृत रूप जाखावेद होता है। इसमें सूत्र संख्या - ४-७ से मूल संस्कृत धातु 'क्षा' के स्थान पर प्राकृत में 'जाण' रूप को धादेश-प्राप्तिः ३-१४६ से प्राप्त रूप 'जाणू' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप जाणावे में वसे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६३ ] मानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पातीय प्रेरणार्थक क्रिया का रूप जाणावेद सिद्ध हो जाता है । पाययति संस्कृत प्रेरणाथक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप पाएद्द होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३-९४६ से मूल प्राकृत धातु 'पा' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'थय' के स्थान पर प्राकृत में 'Q' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप 'पा' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'लि' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत्तीय प्रेरणार्थक क्रिया का रूप पाए सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * ******......000 भारत संस्कृत पेरणार्थका प्राकृत रूप भावे होता है। इसमें सूत्रसंख्या -१-१० से मूल प्राकृत धातु भाव में स्थित अन्त्य स्वर 'स' का आगे खिजन्त बोधक प्रत्ययात्मक स्वर 'ए' का सद्भाष होने से लोप: १-१४६ से प्राप्त हलन्त प्रेरणार्थक क्रिया 'भाव' में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'काय' के स्थान पर प्राकृत में विजन्त-बोधक प्रत्यय 'ए' को प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक किया रूप 'भाव' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रस्थय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय प्रेरणार्थक क्रिया का रूप भाषे सिद्ध हो आता । ३-१४६॥ गुर्वादेरवि ।। ३-१५० ॥ : देः स्थाने अधि इत्यादेशो वा भवति || शोषितम् । सोसवियं । सोसिनं ॥ तोषितम् । तोसविनं । तोसिचं ॥ अर्थ:-जिन धातुओं में आदिश्वर गुरु अर्थात दीर्घ होता है, उन धातुओं में जिस अर्थ में प्रेरणार्थक भाव के निर्माण में उपरोक्त सूत्र संख्या: ३-१४६ में वर्णित णिजन्त- बोधक प्रत्यच श्रत, 'ए' आम और आ' में से कोई भी प्रस्थ नहीं जोड़ा जाता है; किन्तु केवल एक ही प्रत्यय 'अति' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। तदनुसार आदि-स्वर दीर्घ वाली धातुओं में जित अर्थ में कभी 'अर्थ' प्रत्यय जुड़ता भी है और कभी किसी भी प्रकार के प्रत्यय को नहीं जोड़ करकं णिजन्त- अर्थ प्रदर्शित कर दिया जाता है । उदाहरण इस प्रकार है:- शोषितम् = सोचियं प्रथवा सोसिअं सुखाया हुआ; तोषितम् = तोलविथं अथवा तोसि = संतुष्ट कराया हुआ | इन उदाहरणों में अर्थात सोमवयं और तोसवि में तो णिजन्त अर्थ में 'वि' प्रत्यय जोड़ा गया है, जबकि द्वितीय क्रम वाले 'सोसिश्रं' और तोंषिथं' में जिन्स अर्थ में 'वि' प्रत्यय की बैंकfers स्थिति घतलाते हुए एवं प्रभाव स्थिति प्रदर्शित करते हुए किसी भी प्रकार के रिजन्त-बोधक प्रत्यय की संयोजना नहीं करके Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * **600000000rsonsoooooooosrorestrorseonorensorrorisdiharstor0000000 भी इन क्रियाओं का रूप णिजन्त अर्थ सहित प्रदर्शित कर दिया गया है ; या अन्य प्रादि-स्वर-दीर्घ वाली धातुओं के सम्बन्ध में भी णिजन्त-अर्थ के मभाव में 'अवि' प्रत्यय को वैकल्पिक स्थिति को समझ लेना चाहिये तथा णिअन्त-श्रर्थ-बोधक-प्रत्य का अभाव होने पर मा रोमी धातुओं में णि जन्म-अथ का सद्भाव जान लेना चाहिये। शोपितम् संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है । भके प्राकुन रूप सोसबिअं और सोमिश्र होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु 'शो' में स्थित दोनों प्रकार के 'श' और 'ष' के स्थान पर प्राकृत मे 'स' की नाति; ३-१५० से प्राप्त रूप सोस' मे श्रादि स्वर दीर्घ होने से प्रेरणार्थक-भाव में प्राकृत में 'अवि' प्रत्यय की प्राप्ति; १.४४८ से भूत- कृदन्न पार्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त रूप 'सोसवि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्तिः १-१७७ से ग्राम प्रत्यय त' में से हलन्स 'तू' ध्ययन का लोप:३-२५ से प्राप्त विश्र में प्रथमा विभात वचन में सकारान्त नपुसकलिंग में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय मंस' के स्थान पर प्राकृत में 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १०.३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अपर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृगिय भूनकृर्वतीय एकवचनान्न प्रेरणा र्थक-क्रिया का प्रथम रूप सोसदि सिद्ध हो जाना है। सोसिथ में सूब-संख्या १.२६० से मूल सस्कृत रूप शोध में स्थित 'श और ष के स्थान पर स' की प्राप्ति; ३-१५० से प्रेरणार्थक माव का सदभाव होने पर भी प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभावः ४-२३९ से प्राकृतरीय प्राप्त हलन्त रूप 'मोम' में बिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्नि; ३-१४६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर श्रागे भून-कुन्दन साथ प्रत्यय 'त' का सद्भाव हाने से 'इ' प्राप्ति, ४-४४८ से भूत-कृन्दत अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी न' प्रत्यय की प्राप्ति, १-१७७ में प्राप्त त वर्ण में सहलान्न व्यञ्जन 'त' का लोप; यो प्राप्त रूप मारिअ' में शेष माधनिका प्रथम रूप के समान ही सुन्न-संख्या ३-२५ और २३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप सोसि भी सिद्ध हो जाता है। होषितम् संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है । इसके प्राकृत रूप तोमविश्र और तोमि होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १.२६० से मूल संस्कृत धातु 'तो' में स्थित मूर्धन्य 'प' के स्थान पर प्राकृत में 'स' की प्राप्ति; ३.१५० से प्राप्त रूप सास' में आदि स्थर दोघ होने से प्रेरणाथ क-भाव में प्राकृत में 'अवि' प्रत्यय की प्राप्ति, ४ ४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त रूप 'तोधि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; ६-१७७ से प्राप्त वर्ण 'त' में से हलन्त व्यायन 'त' का लोप; ३.२५ सं प्राप्त रूप तोमविश्भ में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसव लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति हाकर प्राकृनीय भूत-कृदन्तीय एकवचनान्त प्राणायक किया का प्रथम रूप तोसविमं सिद्ध हो जाता है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २६५ ] +00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 तोसिअं में सूत्र संख्या १-२६. से मू। संस्कृत धातु तोप में स्थित 'प' के स्थान पर 'स' की प्रारित, ३-१५० से प्रेरणार्थक-मात्र का पदभाव होने पर भी प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३१ से प्राकृतीय प्राप्त हलन्त रूप तो में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर श्रागे भूत-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' को प्राप्ति, ४-१४८ से भूत-कृदन्त-अर्थ में संस्कृत के समान ही पाक़त में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'त' वर्ग में से हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोया यों प्राप्त रूप 'तोसिअ' में शेष सावनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप तोसि भी सिद्ध हो जाता है । ३-१५०|| भ्रमे राडो वा ।। ३-१५१॥ अमे; परस्य णेराड श्रादेशो वा भवति ॥ भमाडइ । भमाडेइ । पक्षे । भामेइ । भमावइ । ममावे ।। ___ अर्थ:-संस्कृत भाषा की धातु भ्रम् के प्राकृत रूप भम् में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तथ्य प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'पाड' प्रत्यय को श्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:-नाम तभमाई अथवा भाडेइ-वह धुमाता है । कल्पिक-पज का सद्भाव होने से प्रेरगार्थ क-भाव में जहां भम् धातु में 'अाउ' प्रत्यय का अमाव होगा वहाँ पर सूत्र-संख्या ३.१४५ के अनुपार प्रेरणाय क-भाव में प्रत, पत, याव और भावे प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय का सद्भाव होगा। जैम-भ्रामयति=भामइ, भामेइ. भमावद और भमा इ- वह घुमाता है । यो प्राकृत धातु 'भम्' के प्रेरणाक-माव में छः रूपों का सद्भाव होता है। तत्पश्चात्त इष्ट काल-बोधक प्रत्ययों को संबोजना होती है। धामयत्ति संस्कृत प्रेरणार्थक-किया का रूप है। इसके प्राकृत रूप भमाद, भमाडे, भामद, भामेइ, भपावइ और भभावेद होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संखया २. से मूल संस्कृत-धातु 'धम्' में स्थित 'र' व्यञ्जन का लाप; ३-१५१ से प्राप्तांग भम्' में प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'पाड' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३.२५८ से द्वितीय रूप में प्राप्त प्रत्यय 'बार्ड में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के प्रथम पुरुप के एकवचन बोधक प्रत्यय का सदभाव होने से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; यो प्राप्तांग 'भमाड और भमाडे में सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' की प्राप्ति होकर भमाडद और भमाडेइ प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाते हैं । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 20006004 [ २६६ 1 62604 भामइ में सुत्र संख्या २-७६ से संस्कृत धातुम्' में स्थित 'व्यञ्जनका लोप: ३-१५३ से प्राप्तांग 'अम्' में स्थित आदि स्वर 'य' के स्थान पर आगे प्रेरणाथ क-बोधक-प्रत्यय का वैकल्पिक रूप से लोग कर देने से 'आ' की प्राप्तिः ४ २३६ से प्राप्त; भाम्' में त्रिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्तांग 'भाम' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचनाथ में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर तृतीय रूप मामइ भी सिद्ध हो जाता है । भामेइ में 'भाग' अंग की प्राप्ति उपरोक तृतोय रूप में वर्णित सानिका के समान ही होकर सूत्र-३-१३ सेके ्' को प्राप्ति और ३-९३६ से सुतीय रूप के समान ही 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप भामेइ सिद्ध हो जाता है । भयावह और भमाचेइ में सूत्र संख्या ३-१४६ से पूर्वोक्त रोति से प्राप्तांग भमू में प्रेरणार्थकभाव में वैकल्पिक रूप से संस्कृतीय भरतव्य प्रत्यय 'श्रय' के स्थान पर प्राकृत में 'आव और आवे' प्रत्यय का क्रम से प्राप्ति और ३- १३६ से दोनों प्राप्तांगों 'ममाव और समावे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक भाव में अन्तिम दोनों रूप 'भाव और भमाई' कम से हो जाते हैं । ३-१५१।। लगावी - क्त-भाव - कर्मसु ॥ ३ - १५२ ॥ । 1 1 ः स्थाने लुक् श्रावि इत्यादेशौ भवतः क्तो मात्र कर्मविहिते च प्रत्यये परतः ॥ कारि । कराविअं । द्वासिनं । इसावित्र्यं ॥ खामियं । खमाविश्रं || मा कर्मणोः । कारीअ । करावी | कारिज्जइ । कराविज्ज | हासies | हसावी | हासिज्ज | साविज्जइ ॥ अर्थ :- जिस समय में मातु में भूत कृत सम्बन्धी प्रत्यय ल' लगा हुग्रा हो अथवा भावन्त्राज्य एवं कर्मखिवाच्य सम्बन्ध प्रत्यय लगे हुए हों तो उन धातुओं में प्रेरणा मात्र की निर्माणअवस्था में सूत्र-संख्या ३-१४६ में वर्णित प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'ऋतू, एन्, आव और अवे' का या तो लोप हो जायगा अथवा इन प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आम' प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति हो जायगी और उन धातुओं का भून कृदन्त अर्थ सहित अथवा भाववाच्यकर्मणिवान्य अ महितप्रेरणार्थक रूप का निर्माण हो जायता । उदाहरण इस प्रकार हैं:- कारितम् कारिथं श्रथवा कशविश्रं=कराया हुआ; हानितम् हासिनं श्रथवश हताविष्यं - हॅनाया हुआ और क्षामितम्खामि अथवा रखमात्रिभं=क्षमाया हुआ; ये उदाहरण भूतकृदन्त सम्बन्धी हैं इनमें से प्रथम रूपों में प्रेरणार्थक किया का सद्भाव प्रदर्शित किया जाता हुआ होने पर भी इनमें सूत्र संख्या ३-१४४ के अनुसार प्राकृत में प्राप्तव्य खिजन्त-अथ चोधक प्रत्यय 'ऋत् एत आव और आवे' का लोन प्रदर्शित किया गया है । → 3 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २६७ ] ***** $3400004600 +66666666666666666666666600200 अबकि द्वितीय द्वितीय रूपों में प्रेरणार्थक भाव में प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'त्रि' का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। भाव वाचक और कर्मणिवाचक उदाहरण इस प्रकार है: - कार्यकारी अइ करावी, कारिज्जइ और कराविज्जइससे कराया जाता है; हाप्यते = हासीअसावी, हाजिद और हसाविजइ = उससे हंसाया जाता है। इन उदाहरणों में भी अर्थात 'कारी अत्र, कारिज्जइ, हासीय और हासिज' में तो प्रेरणार्थक-भाव- प्रदर्शक प्रश्ययों का अभाव प्रद शिंत करते हुए भी प्रेरणार्थक भाव का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। जबकि शेष उदाहरणों में अर्थात् 'करावी, करादिजइ, हसावी और हसावित्र' में प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक - प्रत्यय 'श्रत् एव, आव और श्रावे' के स्थान पर 'आणि प्रत्यय की आदेश प्राप्ति प्रदर्शित करते हुए प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार अन्यत्र भी यह समझ लेना चाहिये कि प्राकृत भाषा में धातुओं से भूत-कुन्त-सम्बन्धी प्रत्यय 'त' और भाववाच्य कर्मणिवाच्य प्रत्ययों के परे रहने पर णिजन्त- बोधक प्रत्ययों का या तो लोप हो जायगा अथवा इन प्रत्ययों के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की कल्पिक रूप से आदेश हो जायगी । और रात्रि होते हैं । कारितम् संस्कृत का भूतकृदन्तीय रूप है। इसके प्राकृत रूप कारि इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-२५३ मेनू पात घातु 'कर' वियर 'छ' ले स्थान पर आगे भूत कृदन्तीव प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्तो' फार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत'कृइन्त बोचक प्रत्षय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' को प्राप्तिः ४-४४६ से प्राप्तमि 'कारि' में भूत कृदन्तबाचक संस्कृतिीय प्रामध्य प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त मध्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप ३.२५ से प्राप्तांग 'कारिय' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' को पूर्व वर्ण पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर भून कृदन्तीम प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रथमान्त एकवच नी प्राकृस पद कारि सिद्ध हो जाता है । कराविश्रं में सूत्र संख्या ३-१५६ से मूल कृत धातु 'कर' में प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान हो प्राप्त होकर द्वितीय रूप करावि भो सिद्ध हो जाता है । हातिम् संस्कृत हृदन्त का रूप है । इसके प्राकृत रूप हासिश्रं और हमावि होते हैं। इनमें प्रथम रूप हासि में सूत्र संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कुम्तीय प्रत्यय का सदुभाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का सोप हो जाने से 'आ' की प्राप्तिः ३.९५६ से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर आगे भूतक्वदन्त-वाचक प्रत्यन्न 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति ४०४४६ से प्राप्तांग 'हासि' में भूत • कुदन्त Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d [२६८] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ++++++&++++++++++++++++++++++++++ ++ +++++++++++++++++++be पाचक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के समान ही ग्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्रापि, १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'हामिश्र' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त व्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ष पर अनुम्बार की प्राप्ति होकर भुत-कृदन्तीय प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत-पद हासिभ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( हासितम्) हसावि में सूत्र-संख्या-३.१५. से मूल प्राकृत-धातु 'हम' में प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'कात्रि की प्राप्ति प्राप्तांग 'हसावि' में शेष-मार्धानका प्रथम रूप के समान ह । सूत्र-संख्या ४-४४८६१-१७७,३-२५ और १-२३ द्वारा होकर विनीय रूप हसायिभं भी सिद्ध हो जाता है। क्षामितम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है । इम के प्राकृत-रूप खामिश्र और खमावि होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत-धातु क्षम' में स्थित 'ज्ञ' व्यवन के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति, ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम में स्थित श्रादि स्वर 'श्र' के स्थान पर आगे भूत कदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'श्रा' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'खाम' में स्थित अन्त्य हलन्त व्याजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्तांग 'खाम' में उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भून कृदन्तवाचक प्रस्थय 'त' का मभाव होने से 'इ' को प्राप्ति; ४.४४८ से प्राप्तांग 'खामि' में भूत-कृदन्तवाचक संस्कृतीय प्राप्तग्य प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय को प्राप्त; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यन्जन 'त' का लोप; ३.२४ से प्राप्तांग खामि' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृनीय प्रारनव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वणं पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कदन्तीय प्रेरणार्थक-भावसूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत्तीय प्रथम पद खामिअं सिद्ध हो जाता है । खमावि में मूल प्राकृत अंग 'खम्' की प्राप्ति उपरोक प्रथम रूप के समान और ३-१५२ से मूल-प्राकृत धातु 'खम्' में प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'श्रावि' की प्राप्ति; इइ प्रकार प्रेरणार्थक रूप से प्रामांग समाधि' में शेष सावनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ४-४५८; १.१७७, ३-२५ और १.२३ द्वारा होकर द्वितीय रूप रखमावि भी सिद्ध हो जाता है। कार्यते संस्कृत प्रेरणार्थक रूप है । इसके प्राकृत रूप कारीआइ, करावीअइ, कारिजा और कराविजड होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३.१५३ से मूल-प्राकृत-धातुकर में स्थित श्रादि स्वर 'अ' के म्यान पर आगे प्रेरणार्थक भाय-सूचक प्रत्यय के सद्भाव फा ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'मा' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे प्राप्त कर्मणि-वाचक-प्रत्यय 'ई' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का सदभाव होने से लोप; ३.१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कर्मणि-प्रयोग Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२६६ पाचक प्रत्यय 'ई' को प्रानिः १.५ से इसन्त 'कार' के साथ में उक्त प्रान प्रत्यय ईअ' को संधि हो जाने से कारीअ' अंग की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्तांग 'कार्गश्र' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में इ' प्रत्यय की प्रालि होकर प्रथम रूप कारी सिद्ध हो जाता है। करावीअइ में सूत्र-संख्या ३.१५२ से मूल प्राकृत-धातु 'कर' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'प्रावि' की प्रामि; १-५ से 'कर में स्थित अन्त्य स्वर 'श्र' के साथ में आगे रहे हुए 'श्रावि' प्रत्यय के आदि स्वर 'श्रा' की संधि; ३-१६० से प्राप्तांग करावि' में कर्मशि-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इ' की प्राप्तिा १.५ से 'करावि' में स्थित अन्त्य हब स्वर 'इ' के साथ में प्रागे प्राप्त प्रत्यय 'ई' में स्थित श्रादि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३.१३१ से प्राप्तांग 'करावी' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकचन में संस्कृतीय प्राप्तम्या प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप करावीअड़ सिद्ध हो जाता है। कारिजइ में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में स्थित श्रादि स्वर 'अ' के स्थान पर भागे प्रेरणार्थक-भाष सूचक-प्रत्यय के सद्भाव का ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'या' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का श्रागे प्राप्त प्रमाण-प्रयोग-वाचक प्रत्यय इज' में स्थित इस स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कमणि-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'कार' के माथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इन्ज' की संधि हो जाने से 'कारिज' चंग की प्राप्ति और ३.१३६ से प्राप्तांग कारिज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप कारिजइ सिद्ध हा जाता है। कराविज में सूत्र संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; १५ से 'कर' में स्थित अन्स्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'आ' की संधि होकर 'करावि' अंग की प्राप्ति; १-१० में प्राप्तांग 'कवि' में स्थित अन्त्य हब स्वर 'इ' का धागे कर्मणि-प्रयोग-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'इज' में स्थित श्रादि स्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कराव' में कर्मणि-प्रयोगवाचक प्रत्यय 'इन्ज' की प्राप्ति, १-५ से हलन्त 'कराव' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'हज' की संधि होकर कराविज' अंग की प्राप्ति और ३-१३६ से भाप्तांग 'कराविग्ज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीम प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप कराविज्जा सिद्ध हो जाना है। हास्यते संस्कृत का कर्मणि-वाचक रूप है । इसके प्राकृत रूप हासीइ, हसावीआइ, हासिज्जा, और इसाविग्जद । इनमें से प्रथम रूप में पूत्र संख्या ३,१५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि कार 'म' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-माव सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३.१५२ द्वारा लोप कर देने से Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * meonom0000000000wwameerstoorreadowwoosariwarmenterestinodrowroom 'या' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'प्र' के आगे प्राप्त कर्मणवाचक प्रत्यय 'ईअ' में स्थित दीर्घवर 'ई' का सद्भाव होने से लोप; ३-६६० से प्राप्तांग हलन्त 'हास' में कर्मणि-प्रयोग वाचक-प्रत्यय 'ईम' की प्राप्ति; १-५ से हलन्स 'हास' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इश्र की संधि हो जाने से 'हासी अंग की प्राप्ति और २-१३६ से प्राप्तांग हासीन' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्ययकी प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासीअ सिद्ध हो जाता है। हसावीआइ में सूत्र संख्या ३-६५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आब' की प्राप्ति; ५.५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'या' की संधिः ३.१६० से प्राप्तांग 'इसावि' में कमणि-प्रयोगवाचक प्रत्यय 'ईथ' को प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग सावि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के साथ में श्रागे प्राप्त प्रत्यय 'ई' में स्थित प्रावि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दौर्घ स्वर 'ई' की प्रारित और ३-१५६ से प्राप्तांग सा. वीअ' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते के स्थान पर प्राकन में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हसावीअई सिद्ध हो जाता है। हासिज्जद में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत-धातु 'इस में स्थित श्रादि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-भाव-सूचक-प्रत्यय के सद्भाव का ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'या' की प्राप्ति १-१० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्थर '' के आगे प्राप्त काण-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज्ज' मे स्थित हस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त हास' में कर्मणि-प्रयोग-धायक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति, १-५ से हलन्त 'हास' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज' की संधि हो जाने से 'हासिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्ता हासिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्नध्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप हासिज्जन सिद्ध हो जाता है। हताविनइ में मूत्र-संखया ३.१५२ से मूल प्राकृत धातु 'हम' में प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'आधि' की प्राप्ति १-५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में भागे रहे हुए प्रत्यय 'भाषिके श्रादि स्वर 'श्रा' की संधि होकर 'हमावि अंग की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'हमावि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के आगे कर्मणि-प्रयोग-सूचक प्रत्यय 'इज' में स्थित आदि हरव स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'हसाब' में कर्माण प्रयोग-वाचक प्रत्यय की प्राप्तिः १-५ से हलन्त 'हसाब' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'ऊज' की संधि होकर 'हसाविज में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप हसाधिज्जह सिद्ध हो जाता है । ३-१५२।। अदेल्लुक्यादेरत आः ॥३-१५३॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२७१ ] 46900 4$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$$$$1$$$$$$$$$$ णेरदेल्लोपेषु कृतेषु आदेरकारस्य आ भवति ॥ अप्ति । पाडइ। मारह ।। एति । कारेइ । सामेछ। लुकि । मारिया शामिअं| कारीअइ । खामीअइ | कारिजाइ । खामिज्जइ । प्रदेन्लुकीतिकिम् । कराविरं । करावीश्रइ ॥ कराविज्जइ ॥ श्रादेरितिकिम् । संगामेइ । इह ध्यहितस्य मा भूत् ॥ कारिअं : इहान्त्यस्य मा भूत् ।। अत इति किम ॥ दूसेइ ।। केचित्त आवे आव्यादेशयोरप्पाइरत प्रात्वमिच्छन्ति । कारावेइ। हासावित्री जणो सामलीए । अर्थ:-प्राकृत-धातुओं में जिन्त अर्थात प्रेरणार्थक भाव में सूत्र संख्या ३-१४६ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रत अथवा एत' को प्राप्ति होने पर याद उन प्राकृत-धातुओं के आदि में 'अ' स्वर रहा हुआ हो तो उस आदि 'अ' के स्थान पर 'पा' की प्राप्ति हो जाया करती है । इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-१५२ के अनुसार प्रेरणार्थक-भाष के साथ में भून-कदन्तीय प्रत्यय 'त' के कारण से और कर्मणिवाचक-भाव-वाचक प्रत्ययों के संयोग से लुप हुए प्रेरणार्थक-भाव-सूचक-प्रत्ययों के अभाव में प्राकृतधातुओं के आदि में स्थित्त 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत् एत' के सदभाव में अथवा पिन्त-बोधक-प्रत्ययों की लोप-अवस्था में धातु के आदि 'अकार' को 'आकार' को प्राप्ति हुआ करती है । 'श्रत मे सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:-पातयतिम्पादः वह गिराता है । मारय ते - मारइवह भारता है । इन ‘पड़ और मर' धातुओं में काल-बोधक प्रत्यय 'इ' के पूर्व में णिजन्त-बोध 'अत प्रत्यय का सद्भाव होने से इनमें स्थित श्रादि 'अकार' को 'श्राकार' की प्राप्ति हो गई है। इसी प्रकार na' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:-कारयत्तिकारेइ = वह कराता है; क्षाभयति = खामेह - वह क्षमा कराता है। इन 'कर और खम' धातुओं में काल. बोधक प्रत्यय 'इ' के पूर्व में णिवन्त-बोध । एत' प्रत्यय का सद्भाव होने से इनमें स्थित श्रादि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति हो गई है । भूत दन्त प्रत्यय 'त के सद्भाव में णिजन्त-बोधक प्रत्ययों के लोप हो जाने पर धातुओं के आदि 'अकार' को आकार की प्राप्ति होने के उदाहरण इस प्रकार हैं:कारितम् = कारिश्र = कराया हुत्राः क्षामितम्यामिश्रं = क्षमाया हुश्रा, इन 'कर और म' धातुओं में भूत-कृदन्त योधक प्रत्यय 'त: अ' के पूर्व में णि नन्त-बोधक-प्रत्यय का लोप हो जाने से इनमें स्थित आदि 'अकार' को 'श्राकार' का प्राप्ति गे गई है। कमणि-प्रयाग और भाव- योग का सद्भाव होने पर णिजन्त-बोधक-प्रत्ययों के लोप हो जाने पर धातुओं के अादि 'प्रकार' को 'प्राकार' को प्राप्ति होने के उदाहरण इस प्रकार जाननाः -कार्यते = कार्यश्रइ अथवा कारिजइ = उससे कराया जाता है; साम्यते = खामोश्रद अथवा खामिज्जई = उससे क्षमाया जाता है। इन कर और खम' धातुओं में प्रयुक्त कर्मणि-प्रयोग एवं भावे-प्रयोग-द्योतक प्रत्यय 'ईश्र और इज' के पूर्व में णिजन्त-बोधक-प्रत्ययों के लोप हो जाने पर इन धातुओं में स्थित प्रादि प्रकार' को 'सरकार' की प्राप्ति हो गई है। अन्यत्र भी जान खेना चाहिये। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्यां सहित * >44004646006650660060006006 [ २७२ ] 0400 प्रश्नः - णिजन्त-बोधक 'अस् और एत' होने पर अथवा णिजन्त बोधक-प्रत्ययों के लोप होने पर tagsों के आदि में हे हुए 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति होती हैं; एसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- जिन्व बोधक-प्रत्यय चार अथवा पाँच हैं; जो कि इम प्रकार हैं:: अत एत आव आवे और पाँचवां (सूत्र संख्या ३-१५२ के विधानानुसार ) आवि है । इनमें से यदि 'श्राव, श्रावे और आवि' प्रत्ययों का सद्भाव धातुओं में हो तो ऐसी अवस्था में धातुओं में आदि में रहे हुए 'चकार' को 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी। ऐसे उदाहरण इस प्रकार है:- कारितम् = कराविथं कराया हुआ; कार्यते=करावी अइ अथवा कराविज्जइ उससे कराया जाता है; इन उदाहरणों में न तो णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत् अथवा एत्' की प्राप्ति हुई और न णिजन्त बोधक प्रत्ययों का लोप हो हुआ है: श्रतएव 'कर' धातु में स्थित आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति भी नहीं हुई है; इसीलिये कहा गया है कि जन्तबोधक प्रत्यय 'अत् अथवा एन्' का सद्भाव होने पर ही या जिन् बोधक प्रत्ययों का लोप होने पर हीं धातुओं में रहे हुए आदि 'आकार' को 'आकार' की प्राप्ति होती हैं; अन्यथा नहीं । प्रश्तः -- धातु में रहे हुए आदि 'अकार' को ही आकार को प्राप्ति होती है, ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः- धातु रहा हुआ आदि 'आकार' यदि किसी भी प्रकार से अस्पष्ट हो अथवा व्य वधान प्रस्त हो अथवा शब्द के मध्य में स्थित हो तो उस 'अकार' को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी; तात्पर्य यह है कि स्पष्ट रूप से और व्यवधान रहित रूप से अवस्थित 'अकार' को ही आकार की प्राप्ति होती हैं; अन्यथा नहीं जैसे:-- संप्रामयत्ति= संगामेइ = वह लड़ाई कराता है। इस उदाहरण में 'संग्राम' धातु में आदि 'कार' अनुस्वार सहित होकर अस्पष्ट एवं व्यवधान वाला हो गया है अतएव इम आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। तदनुसार व्यवधान रहित तथा सप्ट रूप से रहे हुए यादि 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होतो हैं; यह तात्पर्य हो सूत्र में रहे हुए 'आदि' शब्द से प्रतिध्वनित होता है । यदि कोई 'अकार' धातु के अन्त में आ जाय तो उस अकार को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होवे इसलिये भी 'आदि' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:- कारितम् = कारि = कराया हुआ इस उदाहरण में अन्त में 'अकार' आया हुआ है; परन्तु इसको 'आकार' को प्राप्ति नहीं हो सकती है; इन सभी उपरोक्त कारणों से सूत्र में 'आदि' शब्द के उल्लेख करने की आवश्यकता पड़ी है । जो कि मनन करने योग्य है । I प्रश्नः - 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तर: -- यदि धातु के आदि में 'कार' स्वर नहीं होकर कोई दूसरा ही स्वर हो तो उस स्वर. की 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी । 'आकार' की प्राप्ति का सौभाग्य केवल 'अकार' के लिये हो है; अन्य Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२७३ ] 100000000かかりま すので、なかなかなかなかなかなかなかっ किसी भी स्तर के लिये नहीं है; एमा प्रदर्शित करने के लिये हो 'अकार' वर का उल्लेख मूल-मूत्र में करना ग्रन्थकार ने आवश्यक समझा है । जैसे:-दोषयति = दूमेइ - वह शेप दिलाता है। इस उदाहरण में 'दूम' धातु में आदि में 'अकार' नहीं हो कर उ कार' का सद्भाव है। तदनुसार णि जन्त-बोधक रूप का सद्भाव होने पर भी एवं शिजन्त बोधक-प्रत्यय 'एत' का सद्भाव होने पर भी इस धातु में आदि-रूप से स्थित 'उकार' को 'श्राकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। इस पर से यहो निष्कर्ष निकलता है कि धातु में • यदि 'श्रकार' हो श्रादि रूप से तथा स्पष्ट रूप से और अव्यवधान रूप से स्थित हो तो उसी को 'आकार' की प्राप्ति होती है। अन्य किसी भी स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राकृत भाषा के कोई कोई व्याकरणाचार्य ऐसा भी कहते हैं कि यदि पातु में गिजन्त-बोधक प्रत्यय 'आचे और आवि' का सद्भाव हो तथा उप अवस्था में धातु के श्रादि में 'श्रकार' स्वर रहा हुआ हो तो उस 'अकार' स्वर को प्राकार' को प्राप्ति हो जाती है । जैसे-कारयति = कारावेद - वह कराता है। हासितः जनः श्यामलया = हासावित्रो जणो मामली श्यामा (खा) से (वह) पुरुष हँसाया गया है । इन उदाहरणों में मूल प्राकृत-धातु 'कर और हम' में |ण जन्त बांध प्रत्यय 'श्रावे और प्रावि' का सभाष होने पर इन धातु में स्थित आदि 'अकार' स्वर को 'श्राकार' में परिणत कर दिया गया है। इस प्रकार 'श्राव और 'प्रावि' गिजन्त-बोधक प्रत्ययों के भाव में धातुस्थ आदि 'अकार' को 'प्राकार' में परिणत कर देने का वैकल्पिक रूप अथवा पार्षरूप अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। ___ पातयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है । इसका प्राकृत रूप पाहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या४.२१६ से मूल संस्कृत-धातु 'पत' में स्थित अन्त्य ध्यान 'स्' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, ३-१५३ से प्रामाग पड' में स्थित आदि 'कोर' को आगे णिजन्त-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'श्राकार' की प्राप्ति; ३-१४६ से प्राप्तांग 'पा' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत: अ' की प्राप्ति और ३-५३६ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'पाड' में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप पाडइ सिद्ध हो जाता है। मारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक-रूप है । इसका प्राकृत प मारइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या४-२३४ से मूल संस्कृत-धातु 'म' में स्थित अन्त्य स्वर '' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग'मर' में स्थित आदि 'श्रकार के स्थान पर आगे णिजन्त बोधक प्रस्थय 'अत-प्र' का सदभाव होने से 'आकार' की प्राप्ति १-१० से प्राप्तांग'मार' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के आगेणिजन्तबोधक. प्रत्यय 'अत्-अ' की प्राप्ति होने से लोप; ३.१४६ से प्राप्तांग हलन्त 'मार' में णिजन्त बोधक प्रत्यय 'अत - अ' की प्राप्ति और ३-१६ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'मार' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णिजन्तमर्थक वर्तमान-कालीन प्राकृत-क्रियापद का रूप भारइ सिद्ध हो जाता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 'कारे' प्रेरणार्थक रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४९ में की गई है। क्षा का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप स्यामंद होता है। इसमें सूत्र संख्य - ३ से मूल संस्कृत धातु 'क्षम्' में स्थित आदि व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यञ्जन की आदेशप्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के आगे जिन्त-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' को प्राप्तिः ३-१४४ से प्राप्तांग 'बाम्' में 'जन्त-बोधक प्रत्यय 'पतु ए' की प्राप्ति और ३-९३६ से णिजन्त रूप से प्राप्तांग 'खामे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तिस्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में '३' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णिजन्त अर्थक वर्तमानकालीन प्राकृत क्रियापद का रूप खामेह सिद्ध हो जाता है । काft खामि और कारिभङ्ग रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४२ में की गई हैं। क्षाम्यते संस्कृत का पिन्तका रूप है। इसका प्राकृत रूप खामीअइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २ ३ से मूल संस्कृत धातु 'तम्' स्थित आदि व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यञ्जन को आदेश- प्राप्ति २ १५३ से प्राप्तांग 'खम्' में स्थित यादि स्वर 'अ' के आगे सूत्र संख्या ३-१४६ से प्राप्तव्य णिजन्त-शोधक प्रत्यय की सूत्र संख्या : १५२ से लोप व्यवस्था प्राप्त हो जाने से 'आ' की प्राप्तिः ३ ९६० से जिन्त अर्थ सहित प्राप्ताय 'खाम्' में कर्मणि-भावे प्रयोग द्योतक at '' की प्राप्तिः १-४ से प्राप्तांग खाम्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ई' की संधि और ३-९३६ से रिजन्त अर्थ सहित कमणि भावे प्रयोग रूप से प्राप्तांग 'खामीम' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में लम्कीय मनुष्य प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप खामीअर सिद्ध हो जाता है । कारज्जङ्ग' क्रियापद की सिद्धि सूत्र संख्या ३.१५२ में की गई है। क्षाम्यते संस्कृत का रूप है। इसका प्राकृत रूप खामिज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित आदि व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यखन की श्रादेश प्राप्ति ३-१५३ से प्राप्तंग 'खम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के आगे सूत्र - संख्या ३-१४६ से प्राप्तव्य णिजन्त-बोधक-प्रत्यय की सूत्र संख्या ३-१५९ के निर्देश से लोपावस्था प्राप्त हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१६० से णित्रन्त-अर्थ- सहित प्राप्तांग 'खाम्' में कर्मणि भावे -प्रयोग-योतक प्रत्यय 'इज' को प्राप्ति १-५ से प्राप्तां 'खाम' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' के साथ में आगे प्राप्त मध्यय 'इक्ज' की संधि और ३-१३६ सेन्ति-अर्थ-अहित कर्मणि-भावे प्रयोग रूप से प्राप्तांग 'खामिन' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप खामिलाइ सिद्ध हो जाता है। [ २७४ | 2049046 $6666644444 + Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * SG9OJE 'a' saara और करााज्जिड़ तीनों रूपों की सिद्धि सुत्र संख्या ३-१५२ में की गई है । 1000064 [ २७५ ] संग्रामयति संस्कृत का णिजन्त रूप हैं। इसका प्राकृत रूप संगामेह होता है। इसमें सूत्र संख्या和の色 'मूल संस्कृत धातु संमाम् में स्थित 'र' व्यञ्जनका लोपः २३ १५३ की वृत्ति से प्राप्तांग 'संगाम यदि रूप से स्थित अनुस्वार सहित 'अ' के स्थान पर लागे णिजन्त-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने परमो 'आ' की प्राप्ति का अभाव ३-६४६ से प्राप्तांग 'सगाम्' में खिजन्त बोधक प्रत्यय 'एए' की प्राप्ति और ३-१३६ से रिजन्त र्थक रूप से प्राप्तांग 'संगामे में वतमानकाल के प्रथम पुरुष एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत किया पद का रूप 'संगामेड' सिद्ध हो जाता है । 'कार' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-१५२ में की गई है। पति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप हैं। इसका प्राकृत रूप दूसेह होता है। इसमें सूत्र संख्या९-२६० से मूल संस्कृत धातु 'दू षू' में स्थित मूर्धन्य 'प' के स्थान पर दन्स्य स्' की प्राप्ति; ३ - ९४६ से प्राप्तांग 'दूस' में णिजन्त अर्थक प्रत्यय 'एत=ए' की प्राप्ति और ३-१३६ से जिन्त अर्थक रूप से प्राप्लांग 'में' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप दूसेइ मित्र हो जाता है । फारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप करावे (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु कृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'घर' की प्राप्ति; ३ - १५.३ की वृति से प्राप्तांग 'कर' में स्थित आदि 'अ' के आगे जिन्न बोधक प्रत्यय 'आवे' का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति ३-१४६ से प्राप्तांग 'कार' में पिजन्त-बोधक प्रस्थय 'आवे' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ में आगे आये हुए प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर द आकार की प्राप्ति के साथ खिजन्त- अर्थ - श्रंग 'कारावे' को प्राप्ति और ३-१३६ से बिजन्त- अर्थकरूप से प्राप्तांग 'कारावे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य पश्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यक्ष की प्राप्ति होकर प्राकृतीय प्रेरणार्थक वर्तमान-कालीन क्रियापद का रूप कारा सिद्ध हो जाता है । हातिः संस्कृत का भूत दन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हासाविओ (किया गया है। इसमें सूत्र संख्या ३-१५३ को वृद्धि से मूल प्राकृत धातु 'हम' में स्थित आदि 'आकार' के आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आाचि' का सद्भाव होने के कारण से 'आकार' की प्राप्तिः ३-१५२ से प्राप्तांग 'हाल' में आगे भूतकृदन्ती प्रायका सद्भाव होने के कारण से प्रेरणार्थक भाव निर्माण में सूत्र संख्या ३-१४० के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'अ एल्. आज और आवे' के स्थान पर 'माथि' प्रत्यय की प्राप्ति ४४४८ से Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mosinommonsooreosorrorseeneonsorrootwosrowroomsrwari णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग 'हामादि' में कूदन्त अर्थक प्रत्यय 'म' को प्राप्रि; १-१७. से कृदन्त-अर्थक प्रान प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३.२ से शिजन्त- अर्थ सहित भूत कृदन्तीय विशेष. णात्मक रूप से प्राप्तांग अकारान्त पुल्लिंग 'हामाविअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय सि' के स्थान पर 'डा =ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पर हासाविभो सिद्ध हो जाता है। 'जणो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६२ में की गई है। श्यामल या संस्कृत श्राकारान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप सामलाए होता है। हममें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य व्यञ्जन का लोप; १-२६० से लोप हुए य' के पश्चात् शेष रहे हुए. मूर्धन्य 'शा' के स्थान पर दात्य 'सा' को प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्तांग 'मामला' में स्थिन अन्त्य स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'श्री' को 'ई' की प्राप्ति, और ३-२६ से प्राप्तांग दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग 'सामली में तृनाया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टाया' के स्थान पर ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर संघ इकारान्त स्त्रीलिंग की तृतीया विभक्ति के एकवचन के रूप से प्राप्न सामलीए रूप की मिद्धि हो जाती है । ३-१५३|| मौ वा ॥३-१५४॥ अत आ इति वर्तते । आदन्ताद्धातो मौं पर अत आत्रं वा भवति ॥ हसामि हसमि । जाणामि जाणमि | लिहामि लिहमि ॥ अत इत्येव । होमि ॥ अर्थ:-जो प्राकृत धातु अकारान्त है; उनमें स्थित अन्त्य 'अ के स्थान पर पागे 'म' व्यञ्जन से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'श्रा' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । इस प्रकार इस सूत्र का भी विधान धातुस्थ अन्त्य 'अ' को 'श्रा' रूप में परिणत करने के लिये ही किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:--हप्ताभि- हमामि अथवा हप्तगिमैं हँसता हूं; जानामि - जाणामि अथवा जाणमि - मैं जानता हूं लिखामि - लिहामि अथवा लिहमि मैं लिखता हू; इन बदाहरणों से प्रतीत होता है कि अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के पो. 'म' से प्रारंभ होने वाले प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'श्रा' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुई है। यों अन्यत्र भी जानना चाहिये। प्रश्न:-'अकारान्त-धानों के लिये ही ऐसा विधान क्यों किया गया है ? उत्तरः-जो धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं; उनमें स्थित उस अन्त्य स्वर की 'आ' की प्राप्ति नही होती हैइसलिये केवल 'अकारान्त' धातुओं के लिये ही पता विधान जानना चाहिये ! जैसे-भवामि होमि में होता हूँ । इस उदाहरण में प्राकृत धातु हो' के अन्त में 'श्री' स्वर Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २७७ ] है; तदनुसार आगे म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सदुभाव होने पर भी उस अन्त्य स्वर 'ओ' को 'आ' की प्राप्ति नहीं हुई हैं। यों यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि केवल 'अन्त्य अ' को ही 'मा' की प्राप्ति होती है; अन्य अन्य स्वर को नहीं । 'साम' क्रियापद की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४१ में की गई है । संस्कृत वर्तमानकाल का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप समि होता है। इसमें सूत्र संख्या ३. १४१ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'म' के ममान हा प्रकृत में भी मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप इसाम सिद्ध हो जाता है। $6666666DC जाना संस्कृत का वर्तमानकाल का रूप हैं। इसके प्राकृत रूप जाणाभि और जाति होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृतीय मूल-धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान' के स्थान पर प्राकृत में 'आम्' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त प्राकृत धातु 'जाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति; और ३-१४१ से प्राप्तांग 'जाना और जाण' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भो 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों क्रियापद-रूप- 'जाणामि और जाणामे' सिद्ध हो जाते हैं। I fear संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसके प्राकृत रूप लिहासि और लिहमि होते हैं में सूत्र - संख्या-१-१८७ से मूल संस्कृत धातु 'लिखू' में स्थित अन्त्य व्यकजन 'ख' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' की प्राप्ति; ४ - २३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'लिहू' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'छा' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग लिहा और लिह' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद-रूप लिहामि और लिहार्म' सिद्ध हो जाते हैं। संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इनका प्राकृत रूप होमि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-२५२ से प्राप्त प्राकृत धातु 'हो' में वर्तमानकाल के तृतीयपुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'मि' के समान हो प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत कियापद का रूप होमि सिद्ध हो जाता है । ३-१५४ ।। इच्च मो- सु-मे वा ॥ ३-१५५॥ अकारान्ताद्धातोः परेषु मो- मु-मेषु अत इवं चकारा आवं च वा भवतः ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] ** प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ++ + +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++4444444444 4444 भणिमो भणामो । भणिप्नु भणामु । भणिम भणाम । पक्षे । भागमो। भणमु : भणम ॥ वर्तमाना-मञ्चमी-शतृषुवा (३-१५८) इत्येत्वे तु भणेमो। भणेमु । भणेम ॥ अत इत्येव । ठामो । होमी ॥ अर्थः-प्राकृत भाषा की अकारान्त धातु पो में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के तृतीय पुरुप के बहुवचन के प्रत्यन शो-मु-म' परे रहने पर वैकल्पिक रूप से 'इ' को प्राप्ति हुआ करती है तथा मूल-सूत्र में चकार होने से उपरोक्त सूत्र-मंख्या ३-१४४ के अनुसार उस अन्त्य 'अ' के स्थान पर इन्हीं 'मो मु-म' प्रत्ययों के परे हम पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति मो हुश्रा करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-भणामः भणिमो भणामी; मणिमु भणामुभरिणम भणाम, वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ पर अन्त्य 'अ' को 'इ' अथवा 'श्रा' को प्रारित नहीं होगी वहाँ पर 'भणमो, मणमु और भणम' रूप भी बनेंगे । इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३.१५८ में ऐमा विधान निश्चित किया गया है कि'वर्तमानकाल के. श्राज्ञार्थक-विधि-अर्थक लकारों के और वर्तमान-कृदन्त के' प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त-धातुथों के अन्त्य 'अवारको वैकल्पिक रूप से 'एकार की प्राप्ति भी हुग्रा करतो है: तदनुसार वर्तमानकाल के प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अकार' को बैकल्पिक रूप से 'एकार' की प्राप्ति होने का विधान होने से 'मण धातु के उपरांत रूपां के अतिरिक्त ये तीन रूप और बनते हैं:- भणेमो, भणमु और भरणेम; इन बारह ही रूपों का एक ही अर्थ होता है और यह यह है कि हम (सब) स्पष्ट रूप से बालते हैं-स्पष्ट रूप से कहते हैं। इस प्रकार से अन्य प्रकारान्तधातुओं के भो अन्त्यस्थ 'अकार' को वैकल्पिक रूप से 'पा अथवा इ अथवा ए' की प्रारित होने के कारण से वर्तमानकाल के ततीय पुरुष के बहुवचन के प्रत्यय 'मो-मु-म' पर रहने पर बारह बारह रूप बनते हैं। प्रश्नः-अकागन्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों किया गया है ? अन्य स्वरान्त धातुओं के अन्त्यस्थ स्वर के सम्बन्ध में ऐसा विधान कयों नहीं बदलाया गया है ? उत्तर:-अन्य स्वरान्त धातुओं के अन्त्याथ स्वर को आगे वतमानकाल के प्रथयों के परे रहने पर किसी भी प्रकार को स्वरात्मक-ग्र देश-प्राति नहीं पाई जाती है; श्रतएव प्रचलित परम्परा के प्रतिकूल विधान कैसे बनाया जा सकता है ? जैस कः-तिष्ठामः = ठामो-हम ठहरते हैं; भवामः - होमो हम होते हैं। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि 'ठा और हो धातु कम से प्राकारान्त और प्रोकारान्त है; अतएव इन अस्बा एसो हो अन्य धातुओं के अन्त्यास्थ स्वर 'आ अथवा यो अथवा अन्य स्वर' को आगे पुरुष वोधक प्रस्थयों के परे रहने पर भी प्रकार के समान 'पा अथवा इ अथवा ए अथवा अन्य स्वर' श्रामक वैकल्पिक श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये केवल धातु स्य अन्त्य 'अकार' के संबंध में ही ग्रन्थकार ने उक्त विधि-विधान बनाना उचित समझा है और अन्य अन्यस्थ घरों के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के विधि विधान की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [२७६ ] भणामः संस्कृत का अकर्मक रूप है । इसके प्राकृत रूप बारह होते हैं भणमो, भणमु, भणम, भणामो, भणामु, भणाम, मणिमो, मणिमु, भणिम, मणेमो, भणमु और भणेम । इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१४४ से मूल प्राकृन-धातु 'भण' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतीय भाप्तव्य प्रत्यय 'मस' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'मो-मु-म' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कम से 'भणमो, भणमु और भणम सिद्ध हो जाते हैं । भणामो, भणामु और मणाम में सूत्र संख्या ३.१५४ से मूल प्राकृत-धातु 'भग' में स्थित अन्य स्वर 'अकार' के स्थान पर 'आकार' की वैकल्पिक मा से पति और ३-९४६ पत्र तान रूपों के समान हो 'मो-मु-म' प्रत्ययों को कम से प्राप्ति होकर चौथा, पाँचवां और छटा रूप भगामा, भगाए और भणाम सिद्ध हो जाते हैं। भाणमो, भणिमु और मणिम में सूत्र संख्या ३-१५५ से मूल प्राकुन धातु 'भय' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' के स्थान पर 'इकार' को वैकल्पिक रूप से प्राप्ति और ३-१४४ से प्रथम तीन रूपों के समान ही 'मो-मु-म' प्रत्ययों को कम से प्राप्ति होकर सातवां, अाठवां और नवां रूप भणिमो, मणिमु और भणिम सिद्ध हो जाते हैं। भणमो, भणेमु और भणे में सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूज शकृत-धातु 'मग' में म्बित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति और ३-१४४ से पधम तान रूपों के समान हो 'मो-भुम' प्रत्ययों को कम से प्राप्ति होकर शवां, ग्यारहवां और बारहवां रूप भगेमो, भगे मु और भणे म सिद्ध हो जाता है। तिष्ठामा संस्कृत का क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रूप ठामो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४.१६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था' के श्रादेश-मान रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूम की श्रादेश प्राति और ३.१४४ से श्रादेश प्राप्त प्राकृत धातु 'ठा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतोय प्राप्तन्य प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राक्त में 'मो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राकन-क्रियापद का रूप 'वामी सिद्ध हो जाता है। भवामः संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप होमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भूभव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-१४४ से आदेश प्राप्त प्राकृत-धातु 'हो' में वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मस् के स्थान पर प्राकृत में मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप होमो सिद्ध हो जाता है। ३-१५५ ।। पते ॥ ३-१५६ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # moortoooormeroswormstroconsoorroroscomroorkersonsorrormeworroom क्त परतोत इत्त्वं भवति। हसिनं । पढियं । नविगं । हासि। पाढिनं ।। गयं नयमित्यादि तु सिद्धावस्थापेचणात् ।। अत इत्येव । झार्य । लुझं । हुवे ।। अर्थः- अकारान्त धातुओं में यदि भून-कृदन्त का प्रत्यय 'त= लगा हुआ हो तो उन अकारान्त धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर निश्चित रूप से 'इ' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:-हपितम् = हसिश्र = हँसा हुआ; अथवा हँसे हुए को; पठितम् - पढिरं पढ़ा हुश्रा; अथवा पढ़े हुए को; नमितम् = नविश्र - नमा हुआ; अथवा नम हुए को; हाप्रितम्-हातिअं-हंसाया हुआ; पाठितम्याढियं-पढ़ाया हुआ; स्यादि । इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि धातुओं में भूत-कृदन्त-वाचक प्रत्यय 'त = अ' का सद्भाव होने के कारण से मूल धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राति हो गई है। प्राकृत. भाषा में कुछ धातुओं के भूत-कृदन्तीय-रूप ऐसे भी पाये जाते हैं जो कि उपरोक्त नियम से स्वतन्त्र होते हैं। जैसे-तम-आय-गया हश्रा नलम =नयम =नमा हुश्रा, अथवा जिप्तको नमस्कार किया गया हो-उसको इन उदाहरणों में भूत-पम्लीय-अर्थ का समाव होने पर म नम' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'इ' की प्रानि नहीं हुई हैं; इसका कारण यही है कि इनको प्रक्रिया-संस्कृतोय रूपों के आधार से बनी हुई है और तत्पश्चात प्राकृतीय वष्ण-विकारात-नियमों से इन्हें प्राकृत-रूपों की प्राप्ति हो गई है। सारांश यह है कि संस्कृतोय-सिद्ध अवस्था की अपेक्षा से इन प्राकृत-रूपों का निर्माण हुश्रा है और इसी लिये ऐसे रूप इस सूत्र-संख्या ३-१५६ से स्वतन्त्र है; इस सूत्र का अधिकार ऐसे रूपों पर नहीं समझना चाहिये । प्रश्न:-अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' को प्रामि हो जाती है। ऐसा ही क्यों कहा गया हैं ? और अन्य स्वरान्त धातुओं में स्थित अन्त्य घर के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति क्या नहीं होती है ? उत्तरः-चूँकि अकारान्त धास्थ अन्यस्य 'अ' के स्थान पर ही भूत-कृरन्तीय प्रत्यय के पर रहने पर 'इ' की प्राप्ति होती है तथा दूसरो धातुओं में स्थित अन्य किसी भी अन्त्य घर के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं होती है, इसीलिये ऐसा निश्ययात्मक विधान प्रदर्शित किया गया है। इसके समर्थन में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-ध्यातम् = भायं यान किया हुआ। लूनम - तुझं = कतरा हुका अथवा घोरा हुश्रा, और भूतम् = हूझ = गुजरा हुआ; इत्यादि । इन उदाहरणों में झा, लु और हू' में क्रम से स्थित स्वर 'श्रा, छ, और ' के स्थान पर 'इ' को प्रानि नहीं हुई है। अतएवज्ञप्ती परम्परा भाषा में प्रचलित होती है उसोके अनुसार नियमों का निर्माण किया जाता है; तरनुपार केवल अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर हो आगे भूत कान्तीय-प्रत्यय का सद्भाव होने पर 'इ' की प्राप्ति होती है अन्य स्वर के स्थान पर नहीं; ऐसा सिद्धान्त निश्चित हुआ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * [ २८१ ] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हासतम संस्कृत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हसिनं होता है । इसमें सूत्र-संख्या ५-१७७ से हलन्त-व्यञ्जन 'त' का लोप; ३.५ से द्वितीया विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त-रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्वचर्ण 'अ' पर अनुस्वार को प्राप्त होकर हसि रूप सिद्ध हो जाता है। पठितम् संस्कृत भूत-कदन्तीय रूप का प्राकृत रूप पढिरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से '' व्यञ्जन के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्लव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में म्' प्राय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्रत होकर पाहि सप सिद्ध हो आता है। नामतम् माकत का भूत-कदमी का है। इसका प्राकृत-रूप नविश्र होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य घ्यञ्जन म्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; -२३६ से प्राप्तांग 'नव' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; ३-५५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'श्र' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ४-४४: से भूत-कृदन्त-अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय को प्राप्ति; १.१७७ ' से प्राप्त प्रत्यय 'स' में से हलन्त 'स' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'नवित्र' में द्वितीय विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति .३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'घ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नपि रूप सिद्ध हो जाता है। 'हासि' प्रेरणार्थक रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१47 में की गई है। पाठितम् संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाढिरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या P-TEL से मूल संस्कृत-धातु 'पठ' में स्थित हलम्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्त 'पद' स्थित प्रादि स्वर 'अ' के स्थान पर श्रागे प्रेरणार्थक प्रत्यय का सद्भाव होकर भूतकृदन्तीय अर्थक प्रत्यय का योग होने से जस प्रेरणार्थक प्रत्यय का लोप होने के कारण से 'श्रा' की प्राप्ति ४-२३६ से प्राप्तांग हलन्त 'पाद में विकरण प्रत्यय 'भ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्तीय प्रत्यय का योग होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृत में प्राप्तव्य भूत-दन्त-अर्थक प्रत्यय 'स' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति १-१८७ से भूतकदन्तीय प्रत्यय 'स' में हलन्त व्यसन 'स' का लोप, ३-५ प्राप्तांग 'पाढिश्र' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान प्राकत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक पाविभ हप सिद्ध हो जाता है। गम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८२] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * rrior0000000000000000000000000wserrrrrrrrrrrorreoverrorreroorrearsroom नतम् सस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप नयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या F.१४७ से हलन्त व्यञ्जन 'त् का लोप; १.१८० से लोप हुए 'त्' व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर '' की प्राप्ति, ३-५ से प्राप्तांगनय में द्वितीया विभक्त के एकवचन में संकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बम के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म् के स्थान पर पूर्व वर्ण य' पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर नये रूप सिद्ध हो जाता है। ध्यातम् संस्कृत भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप मायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६ से मूल संस्कृत-धातु 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' रूप को श्रादेश-प्राप्ति, ४-५४८ से भूतकृदन्तीय-अर्थ में भारत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति, १-१७ से प्राप्त भूत-कृदन्तीय प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'त्' " कोम; १.६८.६ से लोग पान या शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्तांग 'माय' में द्वितीया विभक्ति के पकवचन में संस्कृत्तीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'स' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत-कृदन्तीय द्वितीया-चिक्ति के एकत्रवान का प्राकृत-रूप झायं सिद्ध हो जाता है। लूनम संस्कृत मूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत-रूप लुचं होना है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२५८ से सम्पूर्ण संस्कृत शब्द लून' के स्थान पर प्राकृत में 'लु थ' रूप की श्रादेश-प्राप्ति; ३-५ से आदेश रूप से प्राप्तांग 'लु श्र' में द्वितीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय श्रम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और 1-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत-कृदन्तीय द्वितीया-विभक्ति के एकवचन का प्राकृत-रूप लुभं सिद्ध हो जाता है। भूतम् संस्कृत का भून-कदन्तीय रूप है । इसका •रकृत-रूप में होता है। इसमें सूत्र-संख्या४-६४ से भून कृदन्तीय-प्रत्यय का मद्भाव होने के कारण के मूल-संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्रान्त में 'ह' कप को श्रादेश प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'स' प्रत्यय की प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'स' में से हलन्त व्यखन 'स' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग अ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की की प्रारिन और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत-कृपन्तीय द्वितीया त्रिभक्ति के एकवचन का प्राकृन-रूप में सिख हो जाता है। ॥३-१५६|| एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ॥३-१५७|| क्त्वा तुम् तव्येषु भविष्यकालविहितं च प्रत्यये परसोत एकारश्चकारादिकारण भवति ।। द Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २८३ ] + ++++ ++++ ++++++: 7 :39**********--- P rototo क्त्वा । इसेऊण । हसिऊण । तुम् । हसेउ । हसि ॥ तव्य । इसेमव्य । इसिमन्वं ।। भविष्यन् । हसेहिह । हसिहिइ ।। अत इत्येव । काऊण ॥ ___अर्थ:-प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में सम्बन्धक भूतकदन्त द्योतक संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'क्वा-त्या के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'ऊण, उपाण' आदि होने पर अथवा हेत्वर्थक-कदन्त घोतक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'तुम' के प्राकन में स्थानीय प्रत्यय उ' श्रादि होने पर अथवा विधि-कदन्त द्योतक संस्कृताय प्राप्तव्य प्रत्यय 'तम्य' के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'अब्द' होने पर अथवा भविष्यतकाल-बोधक पुरुष-वाचक प्रत्यय होने पर इन अकारान्त-धातुओं के अन्त में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है एवं मूल-सूत्र में 'चकार' का सद्भाव होने के कारण से कभी-कभी उन अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी हो जाया करती है । सम्बन्धक मत कृदन्त - घोतक संस्कृतीय प्राप्तव्य पत्यय 'क्रवा' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है: हसिाहसेऊण अथवा इमिण-हँस करके; हेत्वर्थक-कृदन्त-द्योतक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'तुम्' से सम्बन्धित उदा. हरण इस प्रकार है: हसिनुम् = इसे अथवा हसि-हँसने के लिये; विधिकृदन्त द्योतक संस्कृताय प्रामध्य प्रत्यय 'तम्य' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:- हसितव्यम् = हसे प्रन्च अथवा हमिअम्बं: हंसना चाहिये अथवा हँसी के योग्य है भविष्यकाल बोधक प्रत्ययों से सम्बन्धित बदाहरण इस प्रकार है:-हमिष्यत्ति = हसहिद अथवा हमिहिद-वह हंसेगा; इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि उपरोक्त फुरन्तों में अथवा भविष्यत-काल के प्रयोग में अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ खा 'श्र' के स्थान पर या तो 'ए' को प्रालि होगी अथवा 'इ' की प्रानि होगी। प्रश्न:-अकारान्त धातुओं के सम्बन्ध में ही ऐमा विधान क्यों बनाया गया है ? अन्य स्वरान्त धातुओं के सम्बन्ध में ऐसे विधान की पानि क्यों नहीं होती है ? उत्तर-चाक अन्य स्वर अ' के स्थान पर ही 'ए' अथवा 'इ' को श्रादेश-प्राति पाई जाती है और अन्य किसी भी अन्य स्वर के स्थान पर 'ए' अथवा 'इ' को प्रादेश प्राप्ति नहीं पाई जाती है। इस लिये केवल अन्त्य 'अ' के लिये ही एना विधान निश्चित किया गया है । जैसे-वा = काग-करके; इस उदाहरण में सम्बन्धक-भून-कृदन्त योतक प्रत्यय 'ऊण' का मार होने पर मा धातु प्राकारान्त होने से इस धातु के अन्त्यस्थ सर 'श्रा' के स्थान पर किसी भी प्रकार के अन्य स्वर की प्रादेश-प्राप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चित हुश्रा कि केवल अकारान्त-धातुओं के अन्त्यस्य 'अ' के स्थान पर ही 'करवा', तुम-तव्य और भविष्यत् कालवाचक-प्रध्धयों' के परे रहने पर 'ए' अथवा को मादश-प्राप्ति होती है; अन्य अन्त्या स्वरों के स्थान पर उपरोक्त प्रत्ययों के परे रहने पर भी किसी भी अन्य स्वर को आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। हसित्या संस्कृत भून-कुदन्त का रूप है । इसके प्राकृत-हप हसेऊण और हतिण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'प्र' के स्थान पर क्रम से 'ए' और 'इ' Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * rrorrowtrekkoreso0000000torstarrestrettesrearrrrrron0000000000000 प्रामि; ३-१४६ से संबन्ध-भूत-कृदन्त-अर्थक प्राप्तव्य संस्कृतीय प्रत्यय 'स्त्वा = स्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति और १.१७७ से प्राकृत में प्राकृत प्रत्यय 'तूण' में स्थित त' का लोप होकर शेष रूप से प्राः 'ऊण' प्रत्यय की प्रानि होकर कम सं दोनों प्राकृत रूप हसऊण और हसिऊण सिद्ध हो जाते हैं। हसितम संस्कृत का हेत्वर्थक कृदन्त का रूप है । इपके प्राकृत रूप हसे और हमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु 'हम' 4 स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर कम से ए और इ' की प्राति; ५-४५८ से इत्यर्थ कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्रामस्य प्रत्यय 'तुम' के समान ही प्राकृत में भो 'तुम्' प्रत्यय को प्राप्ति; १.९७७ से प्राप्त. प्रत्यय तुम्' में स्थित 'त' व्यञ्जन का लोप और १-२३ से 'न' व्यञ्जन के लोप होने के पश्चात शेष रहे हुए प्रत्यय रूप 'म्' में स्थित अन्त्य हलन्त म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'उ' पर अनुम्बार को प्राप्ति होकर कम से दोनों प्राकृत रूप हसेई और हसिउ सिद्ध हो जाते हैं। हसितव्यम् संस्कृत का विधि कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप से अन्द और हमिच होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृन-धातु 'हम' म स्थित अनस्य स्वर 'अ' के स्थान पर म से 'ए' और 'इ' को प्राप्ति; ४-४४८ से विधि कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्राप्तम्य प्रत्यय 'तव्य' के समान ही प्राकृत में भी 'तव्य' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तव्य' में स्थित 'न' व्यन्जन का लोप; ३.२५ से प्राप्तांग 'इसेअब और हसिलव' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वणं 'ब' पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप से अव्य और हसिअर्व मिद्ध हो जाते हैं। हसिध्यति संस्कृत का अकर्मक रूप है । इसके प्राकृत रुप हसहिद और हसिहिद होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत-धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर श्रागे भविष्यातकाल बोधक प्रत्यय का सदुभाव होने के कारण से कम ' और ' की प्राप्ति; ३-१६६ से क्रम से प्राप्ती हसे और हसि' में भविष्यत काल-अर्थक रूप के निर्माण के लिए 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.१३६ से भविष्यत-काल-अर्थक रूप से निर्मित एवं प्राप्तांग 'हसहि और हसिह' में प्रथम पुरुष के एकवचन में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भविष्यत्काल का प्राकृत रूप हसहिद और हसिहा सिद्ध हो जाते हैं । 'काऊण' कृदन्त रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-F७ में की गई है । ३.१५७ ।। वर्तमाना-पञ्चमी-शतृषु वा ॥ ३-१५८॥ वर्तमाना पञ्चभी शत्पु परत अकारस्य स्थाने एकारी वा भवति ॥ वर्तमाना । इसई Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरखा* [२८५ ] .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हसह । हसेम हसिम । हसेमु हसि ॥ पञ्चमी । हसेउ हसउ । सुणेउ सुणउ ॥ शत । हसेन्तो हसन्तो । कचिन्न भवति । जयइ ।। क्वचिदात्वमपि । सुणाउ ।। . अर्थ:- प्राकृत-भाषा की अकारान्त धातुओं में वर्तमानकाल के पुरुष बोधक-प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अथवा अथवा प्राज्ञार्थक या विधि अर्थक ल कारों के प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अथवा शत बोधक याने वर्तमान-कृदन्त-द्योतक-प्रत्ययों का सद्भाव होने पर उन अकारान्त घातुओं में स्थित भन्स्य स्वर 'अ' के स्थान पर वैकहिक रूप से 'ए' को प्राप्ति हुआ करतो है । वर्तमानकाल से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:-हसतिहसेइ अथवा हाइ = वह हँसता है । हसामः-सेम अथवा हसिम और हसमु अथवा हमिमुहम हंसते हैं। इन्न उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'हस' धातु अकारान्त है और इसमे वर्तमान-काल ग्रोतक प्रत्यय 'इ' और 'म' की प्राप्ति होने पर इस 'हस' धातु के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्रान हुई है। इसी प्रकार से आज्ञार्थक और विधि-अर्थक लकारों फ उदाहरण म इस प्रकार हैं:-हमतुम्हसेउ अश्या हसउ-वह हँसे; अणोतु (शणोतु) = सुणेउ अथवा सुण-वह सुने; इन आज्ञाधक-बाधक उदाहरणों से भी यही प्रतीत होता है कि अकारान्त धातु 'इस और सुण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे आज्ञार्थक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से जैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति हुई है। क्त्तमान-कृदन्त के उदाहरण यों हैं:-हसत अथवा हसन - हसेन्तो हसन्तो-हँसता हुआ; इस वर्तमान कृदन्त-योनक उदाहरण में भी यही प्रदर्शित किया गया है कि प्राकृतधातु 'हस' के अन्त्यस्थ 'अ' क स्थान पर आगे वर्तमान-कृदन्त-योतक प्रत्यय स्त' का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' को प्राप्ति हुई है। इस प्रकार इस सूत्र में यह विधान निश्चित किया गया है कि वर्तमानकाल थे, आज्ञार्थ-विध्यर्थक लकार के और वर्तमानकाल कृदन्त के प्रत्यय परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'ए' को प्राप्ति होती है। कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है कि प्रकारान्त-धातु के अन्त्यस्य 'अ' के स्थान पर उपरोक्त प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी 'ग' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे-जयति जयद-वह जीतता है। यहाँ पर प्राकृत में 'जयेई' रूप नहीं बनेगा । कभी कभी अकारान्त धातु के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर उपरोक्त प्रत्ययों का सद्भाव होने पर 'श्रा' की प्राप्ति भी देखी जाती है । जैसे:-श्रणोतु-सुमाउ = वह श्रवण करें। इस उदाहरण में अकारान्त प्राकृत धातु 'सुरण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे , आशार्थक-लकार क प्रत्यय का सदुभाष होकर 'श्रा' की प्राप्ति हो गई है। हसति साफत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेइ और हसइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-१५० से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर चैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१३॥ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'प्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हसे सिद्ध हो जाता है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 00000000000000000000000000000000000*woverno0000000000000000 द्वितीय रूप हसन को सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९८ में की गई है। हसामः संस्कृत का अकर्मक रूप है । इसके भकत रूप हसेम, हलिम, इसेमु और हसिमु होते है। इनमें से प्रथम और तृतीय रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकल अकारान्त धातु 'हस' में धित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' को प्राप्ति और ३-१४४ से कम से प्राप्तांग 'हसे और हस' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राक्त में म से 'म और मु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्रथम और तृतीय रूप 'हसेम और हसेम' सिद्ध हो जाते हैं। हासम सथा हसिमु में मूत्र संख्या ३-१५५ से मूल-प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य "अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से क्रम से प्राप्तांग 'हसि और हप्ति' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकत में कम से 'म और मु' प्रत्ययों की गप्ति होकर द्वितीय और चतुर्थ रूप हासिम और हसिमु' सिद्ध हो जाते हैं। हसतु संस्कृत का प्रामार्थक रूप है । इसके प्राकृन रूप हसेज और हसउ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त थातु 'हस में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'हमे और हस' में आज्ञार्थक ल कागथं में तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तु' के स्थान पर प्राकृत में 'दु-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों प्राकृत रूप 'हसंउ और हस' सिद्ध हो जाते हैं। श्रृणोतु संस्कृत का श्राज्ञार्थक रूप है । अथवा शृणुयाम संस्कृत का विधिलिङ का। (अर्थात श्रामा निमन्त्रण-श्रामन्त्रण सत्कार पूर्वक निवेदन-विचार और प्रार्थना श्रर्थक) रूप है । इसके प्राकृत रूप सुणे उ और सुण उ तथा सुणा होते हैं। इनमें मूत्र संख्या-२-४ से संस्कृत में प्राप्त धातु-अंग 'श्रनु' में स्थित 'थ' के 'र' व्यञ्जन का लो१, १.२६० से लोप हुए 'र' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए शु' में स्थित तालव्य 'श' के स्थान पर प्राकृत में इस्य 'स' की प्राप्ति; २२८ से 'न' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति; ४-२३८ से प्राप्त 'गु' में स्थित अन्त्य ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३.१५८ से प्राप्तांग 'सुण में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'ए' और 'मा' की प्राप्ति; और १-१७३ से कम से प्राप्तांग 'सुण, सुण और सुणा' में लोट् लकार और विधिलिड के अर्थ में है प्राकन में 'दु-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुणे उ. मुणउ और मुणाउ प्राकृत रूप सिद्ध हो जाते हैं। हसत - हसन संस्कृत का कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेन्तो और हसन्तो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३.१५८ से मूल प्राकृत प्रकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमान कृवन्त अथक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' की शप्तिः ३-१०१ से कम से Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ २८७ } 00000000000001 प्राकृतमंहसे और इस में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'राष्ट्र' के स्थान पर 'त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्राकृत में कम से प्राप्तांग 'हसेन्त और हसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ढो = श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत पद इसेन्तो और हसन्ती सिद्ध हो जाते हैं। जयति संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप जयह होता है। इसमें सूत्र संख्या-३-९३६ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त धातु 'जय' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में '५' प्रयय की प्राप्ति होकर जयह रूप सिद्ध हो जाता है । ३-९४८ ज्जा - ज्जे ॥ ३ - १५६ ॥ ज्जा ज्ज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति ।। हसेज्जा । इसेज्ज || अत इत्येव । होज्जा । होज्ज || अर्थ:--सूत्र-संख्या ३- १७७ के निर्देश से धातुओं के अन्त में प्राप्त होने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत् काल के, श्राशार्थक के और विध्यर्थक के सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'जा और ज' के परे रहने पर अकारान्त-धातुओं के अस्वस्थ 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:- हसन्ति- हसिष्यन्ति - हसन्धु-हसेयुः = हसेना अथवा हसेज= वे हँसते हैं - हँसेगे - हँसे इत्यादि । यहाँ पर 'हस' धातु अकारान्त है और इसमें वर्तमान आदि लकारों में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जान' की प्राप्ति होने से 'इस' के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की बिना किसी वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हो गई है। यों आदेशग्राम 'जान' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अन्य अकारान्त धातुओं में भी अन्त्य 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'एकार' की प्राप्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिये । प्रश्न: - 'अकारान्त-वातुओं' के लिये ही ऐसा विधान क्यों बनाया गया है ? उत्तरः- जो प्राकृत धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं उनमें आदेश प्राप्त 'ना ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी उन अन्त्य स्वरों के स्थान पर अन्य किसी भी स्वर की देशप्राप्ति नहीं पाई जाती है; इसलिये केवल अकारान्त धातुओं के लिये हो ऐसा विधान बनाने की आवश्यकता दी है। जैसेः - भवन्ति भविष्यन्ति भवन्तु भवेयुः = होज्जा श्रथवा हवे होते हैं-वे होंगे-षे होवें इस उदाहरण में 'हो' धातु श्रीकाशन्त है; इसी लिये आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ज्जाज' का समाष होने पर भी अकारान्त धातुओं के अन्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति के समान इस 'हो' धातु के अन्दयस्थ 'आकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। पी चन्तर-भेद यह प्रदर्शित Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # ***$$$❖❖❖÷600000000000 'कार' के करता है कि केवल 'अकारान्त-धातुओं' के अशा प्रत्यय 'ज्जाज्ज' का सद्भाव होने पर 'एकार' की प्राप्ति होती है; अन्य स्वरान्त धातुओं में स्थित अन्त्य स्त्ररों के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति का विधान नहीं है । $964606456646004 हसन्ति, हसिष्यन्ति, हसन्तु, और इसेयुः संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, लोट् लकार के और लिङ्ग लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन के अकर्मक किशापड़ के रूप हैं । इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से हसेज्जा और हसेज्ज रूप होते हैं। इन दोनों प्राकृतरूपों में सूत्र संख्या ३-९५६ से मूल प्राकृत धातु 'इस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'इसे' में वर्तमालकाल के भविष्यकाल के लोट् लकार के और लिङ् लकार के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृतिीय प्रत्ययां के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्जा और ज्ज' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों 'प्राकृत क्रियापद के रूप इसेजा और दसेन सिद्ध हो जाते हैं । craft, भविष्यन्ति भवन्तु और भवेयुः संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, मविध्यत काल के, लोट् लकार के और लिङ, लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से होना और होउज रूप होते हैं। इन दोनों प्राकृत रूपों में सूत्र संख्या ४०६० से संस्कृत धातु 'भू - भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप को आदेश प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हो' में वर्तमानकाल के भविष्यत्र काल के लोट् लकार के और लिह लकार के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृतीय प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'बजा और उज' प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत क्रियापद के रूप होना और होज सिद्ध हो जाते हैं । ३-१५६।। ई - इज्जौ क्यस्य ॥३ - १६०॥ - चिजि प्रभृतीनां भाव - कर्म - विधिवदयामः । येषां तु न च ते संस्कृतातिदेशात् प्राप्तस्य वयस्य स्थाने ई इज इत्येतावादेशौ भवतः ॥ हसीड़ | हसिज्ज | इसी अन्तो । इसिज्जन्तो । हसीमायो । हसिज्जमाणो । पढी | पत्रिज्जइ होईअइ । होइज्जइ । बहुलाधिकारात् कचित् क्योप विकल्पेन भवति । मए नवेज्ज । मए नविज्जेज्ज । तेरा लहेज्ज | तेरा लहिज्जेज्ज | वे अच्छेज्ज । तेसा अच्छिज्जेज्ज | तेख अच्छी बड़ ॥ I अर्थ:- संस्कृत के समान ही प्राकृत भाषा में भी क्रिया तीन प्रकार की होती है जो कि इस प्रकार है: -- (१) कर्तृवाचक, (२) कर्मवाचक और (३) भाववाचक | इसी पाद में पहले कलु बाय प्रयोग के सम्बन्ध में बतलाया जा चुका है अब कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग का स्वरूप बतलाया す Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0400000000000000 605000 [ २८६ ] आता है । कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग की रचना पद्धति एक जैसी ही अर्थात् ममान ही होती है; इन क्षेत्रों में इतना सा नाम मात्र का ही अन्तर है कि कर्मणि प्रयोग मुख्यतः सकर्मक धातुओं से ही बनाया जाता है जबकि भावे प्रयोग अकर्मक धातुओं से ही बनता है; प्रत्यय आदि की दृष्टि से दोनों की रचनाऐं परस्पर में समान ही होती है। भावे प्रयोग में कर्मका अभाव होने से सदा प्रथम पुरुष और एकवचन ही प्रयुक्त होता है जबकि कर्मणि प्रयोग में कर्म का सद्भाव होने से तीनों पुरुषों के साथ साथ बहुवचन का प्रयोग भी होता है। इन दोनों प्रयोगों में कर्ता तृतीयान्त होता है और कर्म प्रथमान्त होता है । क्रिया के पुरुष और वचन प्रथमान्त कर्म के अनुसार होते हैं। जैसे:- अस्माभिः स्वम् आहूयसे। हमारे द्वारा तू बुलाया जाता है; यहाँ कर्ता 'श्रस्माभिः बहुवचनान्त होने पर भी कम 'त्वम्' एकवचनान्त होने से 'आइय से' क्रिया कम के अनुसार एकवचनात्मक और द्वितीय पुरुषात्मक प्रदर्शित की गई है । इस प्रकार यदि किसी कर्तृवाच्य प्रयोग को कर्म-वाध्य में बदलना हो तो प्रथमान्त कर्ता को तृतीयान्त कर देना चाहिये और द्वितीयान्त कर्म को प्रथमान्त में बदल देना चाहिये। जैसे:- पुरुषः स्तेनं प्रहरति । पुरुषेण स्तेनः प्रह्नियते - पुरुष से चोर मारा जाता है । * प्राकृत व्याकरण 'चि, जि' इत्यादि कुछ प्राकृत धातुओं के बनने वाले कर्मरिण प्रयोग- मावे प्रयोग का वर्णन बागे बतलाया जायेगा; यहाँ पर तो सर्व सामान्य रूप से बनने वाले कर्मणि-प्रयोग भावे प्रयोग की पद्धति का परिचय कराया जा रहा है; तदनुसार जैसे संस्कृत भाषा में मूल धातु और आत्मनेपदीय पुरुष बोधकप्रत्ययों के मध्य में कर्मणि-मात्रे प्रयोग द्योतक प्रत्यय 'क्यन्य' जोड़ा जाता है वैसे ही प्राकृत भाषा में भी मूलधातु और कर प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्ययों के बीच में संस्कृतोय प्राप्तभ्य प्रस्यय 'क्य= थ' के स्थान पर 'ई अथवा दज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से वह क्रियापर का रूप कर्मणि-प्रयोग द्योतक अथवा भावे प्रयोग घोतक बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी भी प्राकृत धातु का अमुक काल में कर्मण-प्रयोग अथवा भावे प्रयोग बनाना हो तो उस काल के कर्तीरे प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़ने के पहले मूल धातु में 'इअ अथवा इ' प्रत्यय लगाया जाना चाहिये और तदनन्तर जिस काल का कर्मणि भावे प्रयोग बनाना हो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कड़े गये प्रत्यय लगा देने से कर्मणि-भः वे प्रयोग के रूप सिद्ध हो जाते हैं। जैसे:- हम्यते-हमी अथवा हसिज्य = उससे हँसा जाता है । हस्त = हस्यांश्रन्तो अथवा हसिज्जन्तो और हसोमाणी अथवा हसिज गाणो हँसा जाता हुआ; यह उदाहरण वर्तमान कृदन्त पूर्वक भावे प्रयोग वाला है। चूँकि प्राकृत में वर्तमान कूदन्त में सूत्र संख्या ३-१८१ के निर्देश से संस्कृती प्राप्तव्य वर्तमान-कुन्त-बोधक प्रत्यय शत्रू = के स्थान पर और माय' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; इसलिये संस्कृतीय वर्तमान कृदन्तीय क्रिया. पत्र 'हस्यत्=हस्यन्' के प्राकृत में उपरोक्त राशि से चार रूप होते हैं। सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण और दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- पठ्यते-पढी अइ अथवा पढिज्जइ = इससे पढ़ा जाता है । भूयते = होईअ अथवा होइज्ज= उससे हुआ जाता है। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कभी कभी कर्मणि भावे. प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तथ्य प्रत्यय 'ई' अथवा इज्ज' की प्राप्ति नहीं होकर भी उक्त कर्मणि-भावे Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mooooooo000ooterstootoscomwww.poranmoverestmissorrowroom प्रयोग के रूप बन जाया करते हैं; जैसे:-मया नम्बवे-मए नवेज्ज अथवा मा नविग्जेज्जम्मुझ से नमस्कार किया जाता है अथवा मुझ से समा जाता है-झुका जाता है । अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:-तेन लभ्यत-तंग लज्ज अथवा ता लज्जेि उम उम से प्राप्त किया जाता है। तेन प्रास्यते = तेण थच्छेज्ज अथवा तेण आच्छज्जेज और तण अकलो अइ उससे बैठा जाता है । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि प्राकृत में कर्मणि-माव-प्रयोग-योतक प्रत्यय 'इत्र अथवा इज्ज' की प्राप्ति कभी कभी वैकल्पिक रूप से भी होता है। इसका कारण 'बहुला' सूत्र है। इस प्रकार संस्कृत में कमणि-भाव-प्रयोग के अर्थ में 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की दिश-प्रानि होती हैं। यही तात्पर्य इस सूत्र का हस्यते संस्कृत का भावे प्रयोग अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसीआई और हसिजई होत हैं । इनमें सूत्र-संगमा १० मेगावत का काम में प्रिन्स्य स्वर 'अ' के श्रागे प्राप्त भावे प्रयोग-श्रर्थक 'इंश्र और इज' प्रत्ययों में कम सं श्रादि में स्थित दीर्घ और हव स्वर 'ई तथा ३' का सद्भाव होने के कारण से लोग; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस में भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ई और इज्ज' की कम से प्राप्त और ५.५ से हलन्त धातु 'हम' के साथ में उपरोक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय ईश्र और इज' की क्रम से संधि एवं ३.१३६ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग अर्थ रूप हसीन और इसिम्स में वर्त-निकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय'ते' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर हसीअड़ और हासज्जई रूप मिद हो जाते हैं। हस्यन् संस्कृत का वर्तमान कृदन्न रूप है । इसके प्राकृत रूप:--हसीअन्तो हसिज्जन्तो, इसीय. माणी और हमिनमाणो । इनमें गूत्र-संख्या ५-१० से मूल प्राकृत धातु हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे प्रयोग- अर्थक 'ईअ और इज' प्रत्ययों में कम से श्रादि में स्थित दीर्घ और हस्त्र स्वर ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३.१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस' में भावप्रयोग-श्रर्थक प्रत्यय 'ईथ और इज्ज' की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति, १.५ से हलन्त धातु 'इस' के साथ में उपरोक्त गीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईध और इज फी कम से (चारों रूपों में) संधि; ३-१-१ से कम से प्राप्तांग 'हसोम और हसिड तया हमीन और हसिग्ज' में वर्तमान कृदन्त-अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय ‘शत - अत' के स्थान पर प्राकृत में 'न्त और माण' प्रत्ययों की (चारों रूपों में कम से प्राप्ति; और ३-२ से क्रम से चारों प्राप्तांग 'हसीअन्त, हसिज्जन्त, हसीनमाण तथा हसिज्जमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुलिग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो = प्रो' प्रत्यय का प्रारित होकर क्रम से चारों रूप हसीअन्तो, इसिजन्तो, हसीअमाणो तथा हसिज्जमाणी सिद्ध हो जाते हैं। पठ्यते संस्कृत का कर्मशि-रूप है। इसके प्राकृत रूप पढीला और पद्विाजइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६ से मूल संस्कृत-धातु '१' में स्थित 'ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ढ' की प्राप्ति; ३-१६० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २६१ ] orosorronsoresktos00000rsorrotrrs.sorroork.000000000testrotremorson से प्राप्तांग 'पद' में कर्मणि-प्रयोग श्रर्थक प्रत्यय ईअ और इज' को कम से प्राप्ति, १-५ से हलन्त धातु पट के साथ में उपरोक्त गति से प्राप्त प्रत्यय ई और इन' को कम से संधि और ३-१३६ से प्राप्तांग कर्मणि-प्रयाग-थक रूप पढोग और पढिज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन क अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढीश्रद और प'उज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। भूयते संस्कृन का भावे-प्रयोग रूप है । इसके प्राकृत रूप होई अइ और होइज्ज होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप को. अादेश प्राप्ति ३-१६० से माग 'हो' में भावे प्रयोग-अर्थक प्रस्थय 'ईअ और इज' की कार से प्राति और ३-१३६ से प्रामांग भावे-प्रयोग अर्थक रूप होई और होइज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में मंस्कृतीय प्रामव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर होईभइ और होइजइ हप सिद्ध हो जाते हैं। 'मर' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या :-१०९ में की गई है। नम्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप नवेज और नविज्जेज होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर प्राकृत में 'व्' का आदेश-प्राप्ति; ३.१६० की वृत्ति से भावे प्रयोग के अधे में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इज्ज' को वैकल्पिक रूप से प्राप्तिा ४-२३६ से प्रथम रू. में हलन्त धातु 'नव' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१४६ से कम से प्राप्त भाव-प्रयोग अथांग 'नव और नविन' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से कम से प्राप्त भावे-योग-अर्थक-धंग 'नव और नविजे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकत्रचन के अर्थ में संस्कृताय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'कन प्र:यय की आदेश प्राप्ति होकर नन और नज्जेिज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं। "तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-3-5 में की गई है। . लभ्यते संस्कृत का कर्मणि रूप है । इसके प्राकृत रूप लहज्ज और लहिजेज होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.१८७ से मूल संस्कृत धातु 'लभ' में स्थित अन्य व्यञ्जन 'भ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' ध्यञ्जन की श्रादेश-प्राप्ति, ३-१६० की वृति से भावे-प्रयाग के अर्थ में प्राकृत में प्रामध्य प्रत्यय 'इज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्रि; ४-०३६ से प्रथम रूप में हलन्त धातु 'लह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३.०५६ से कम से प्राप्त भावे प्रयोग-अर्थक अंग 'लह और सहिज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और -१७० से कम से प्राप्त भावे प्रयोग-मर्थक अंग 'लहे और हिज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तम्ब प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६२ ] में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ञ' प्रत्यय की श्रदेश प्राप्ति होकर लहे और लहिज्जेज सिद्ध हो जाते हैं । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 66000400 1001 'ते' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-६९ में की गई है। आस्यते संस्कृत का मंक रूप है। इसके प्राकृत रूप अच्छेज अछिज्जेज और अभी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४२१५ से मूल संस्कृत धातु 'आम्' में स्थित अन्य व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'छ' की देश-प्राप्ति; २८६ से आदेश प्राप्त व्यञ्जन 'छ' को द्वित्व 'घ' की की प्राप्ति २-६० से प्रात 'छ' में से प्रथम छ' के स्थान पर 'च्' की प्राप्तिः १८४ से मूल धातु 'आम्' में स्थित श्रादि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे 'सू' के स्थान पर उपरोक्त रीति से संयुक्त व्यञ्जन छ की प्राप्ति हो जाने से ह्रस्व स्वर 'का' की प्राप्ति होकर प्राकृत में धातु रूप '' की प्राप्ति ५० की वृद्धि से प्राप्त प्राकृत-धातु 'अच्छ' मे भावे प्रयोग अर्थ में संस्कृतीय प्राव्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'इन और ईअ' प्रस्थयों की क्रम से प्राप्ति होकर भावे प्रयोग अर्थक-अंग 'अरुद्ध अजि अच्छी की प्राप्ति ४-२३६ से प्रथम रूप अच्छ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति: ३ ९५६ से प्राप्त प्रथम रूप 'अच्छ' और द्वितीय रूप 'अज्जि' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर आगे 'ज' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'क' की नित्यमेत्र प्राप्ति; ३ १०७ से प्रथम और द्वितीय भावे प्रयोग अर्थ अंगो में अर्थात् 'अच्छे और अज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय '६' के स्थान पर 'ज्ञ' प्रत्यय को आदेश प्राप्त होकर 'अच्छेज तथा अच्छिज्जेज्ज' रूप सिद्ध हो जाते हैं; जबकि तृतीय रूप में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'अच्छो' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छे' रूप भी सिद्ध हो जाता है । ३।३-१६०॥ दृशि - बचेर्डीस दुच्चं ॥३ - १६१॥ शेर्वचैव परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस डुच इत्यादेशौ भवतः ॥ अजापवादः ॥ दीसह | बुचइ || अर्थ:- दृशू और धातु का जब प्राकृत में कर्मणि मात्रै प्रयोग का बनाना हो तो इन धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में कर्म-भावे प्रयोग अर्धक संस्कृतोय प्रातस्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र संख्या २०१६० के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ईस और इज्ज' की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु इन कर्मण भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईश्र और इज' के स्थान पर क्रम से 'दृश्' वायु में तो 'डीस' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और 'वच्' धातु में 'बुध' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस प्रकार से इन दोनों धातुओं के कर्मणि भावे प्रयोग अर्थ में मूल अंगों का निर्माण होता है। प्राप्त प्रत्यय 'डोस और डुन्छ में स्थित श्रादि 'कार' इत्संज्ञक होने से पूर्वोक्त धातु 'दृश्' में स्थित अन्त्य 'शू' का और 'बच्' में स्थित अन्त्य 'च' Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ २६३ ] *** 18606806 का लोप हो जाता है । तत्पश्चात् प्राकृत भाषा के अन्य नियमों के अनुसार शेष हुए धातु अंश 'ह' 'और 'ब' में कर्मणि-भावे प्रयोग अर्थक प्राप्त प्रत्यय 'ईस' तथा 'उच्च' की प्राप्ति होकर इष्ट काल संबंधित पुरुष-बोधक प्रत्ययों की समाप्ति होती है। इस नियम को अर्थात् सूत्र संख्या ३-१६० को पूर्वोक्क सूत्रसंख्या ३-१६० का अपचाद ही समझना चाहिये । तदनुमार इस सूत्र में वर्णित विधान पूर्वोक्त कमणि-भावे प्रयोग प्रत्यय और इज्ज' के लिये अपवादस्वरूप ही है; ऐसा मन्थकार का मन्तब्य है । उपधातुओं के कर्मणि मात्रे प्रयोग के अर्थ 'उदाहरण इस प्रकार हैं:- दृश्य दीसह = ( उससे ) देखा जाता है; उच्यते = वुबह = ( उससे ) कहा जाता है । संस्कृत का कमीण रूप है। इसका प्राकृत रूप दोस होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ १६१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश' में स्थित अन्त्य 'श' के आगे कर्मणि-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'डीस' का संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय डीस' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोग; १-१० से शेष धातु-वंश 'ट' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का आगे कर्मणि-प्रयोग अथक प्रत्यय 'ईस' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'ई' का सद्भाव होने के कारण से लोप, १-५ से शेष हलन्स धातु श्रंश 'द्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईस' को संधि होकर मूल संस्कृतीय कर्मणि प्रायोगिक रूप 'दृश्य' के स्थान पर प्राकृत में कर्मणि-प्रयोग-अर्थक-अंग 'दीस' की संप्राप्ति और ३-०३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के अर्थ में सस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर सरूप सिद्ध हो जाता है । एकवचन उच्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है । इमका माकूल रूप वुश्चइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९६१ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' में स्थित अन्त्य न' के श्रागे भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय हु की संप्राप्ति होने से तथा प्राम प्रत्यय 'डच' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप: १-१० से शेष घाटु अंश 'व' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के आगे भावे -प्रयोग अथक प्रत्यय 'उच्च' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'उ' का सदुभाव होने के कारण से लोग; १-५ से शेष हलन्त धातु श्रंश 'व' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'उच्च' की संधि होकर मूल संस्कृतीय भावे प्रायोगिक रूप 'उष्य' के स्थान पर प्राकृत में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'ख' की संप्राप्ति और ३-१:६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय ते' के स्थान पर प्रान में '३' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर वह रूप सिद्ध हो जाता है । ३-१६२ ।। सी ही ही भूतार्थस्य ॥। ३–१६२ ॥ भृतेर्भे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः तस्य स्थाने सी ही हीय इत्यादेशा भवन्ति ॥ उत्तरत्र व्यञ्जनादीश्वविधानात् स्वरात्सादेवायं विधिः ॥ कासी 1 काही | काही | श्रकार्षीत् । मकरोत् । चकार वेत्यर्थः । एवं टासी । ठाही ठाही | था । देविन्दो इणमन्त्री इत्यादी सिद्धावस्थाश्रयणात् ह्यस्तन्याः प्रयोगः ॥ I Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित **000409440 [ २६४ ] ******** 44000644646999 अर्थः - संस्कृत भाषा में भूतकाल के तीन भेद किये गये हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं:-- [?] सामान्य भूत; इसका अपर नाम अद्यतन भूतकाल भी है और इसको लुङ् लकार कहते हैं; [P] ह्यस्तन-भूत; इसका अपर नाम अद्यतन भूतकाल भी है और इसको लक्ष् लकार कहते हैं; [P] परोक्ष-भूत; इमको लिट् लकार कहते हैं । संस्कृत भाषा में इस प्रकार तीन भूत-कालिक लकार हैं; प्राचीनकाल में इनके अर्थों में मे किया जाकर तदनुसार इनका प्रयोग किया जाता था; परन्तु आजकल की प्रचलित संस्कृत भाषा में बिना भेद के इनका प्रयोग किया जाता है। इस सम्बन्ध में कोई दृढ़ नियम नहीं जाना जाता है। आधुनिक समय लकारी का भूतकाल के अर्थ में बिना किसी भी प्रकार का भेद किये प्रयोग कर लिया जाना है । इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है: --- (१) प्रति निकट रूप से व्यतीत हुए काल में अथवा गत कुछ दिनों में की गई क्रिया के लिए अथवा उत्पन्न हुई क्रिया के लिये सामान्य भूतकाल का अथवा अद्यतन - भूतकाल का प्रयोग किया जाता है । (२) अति निकट के काल की अपेक्षा से कुछ दूर के काल में अथवा कुछ वर्षों पहले की गई क्रिया के लिये अथवा उत्पन्न हुई क्रिया के लिये ह्यस्तन- भूतकाल का अथवा भगद्यतन - भूतकाल का प्रयोग किया जाता है । 1 (३) अत्यन्त दूर के काल में अथवा अनेकानेक वर्षों पहिले की गई क्रिया के लिये अथवा अत्पन्न हुई क्रिया के लिये परोक्ष-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है जो क्रिया अपने प्रत्यक्ष में हुई हो, उसके लिये पगेक्ष मूतकाल का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। अन्य भाषाओं की व्याकरण में जैसे पूर्ण भूत, अपूर्ण भूत और संदिग्ध भूत के नियम और रूप पाये जाते हैं; वैसे रूप और नियम संस्कृत भाषा में नहीं पाये जाते हैं, इन सभी के स्थान पर संस्कृत भाषा में केवल या तो सामान्य भूत का प्रयोग किया जायगा अथवा परोक्ष-भूत का यही परम्परा प्राकृत भाषा के लिये भी जानना चाहिये । प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के समान भूतकाल अर्थक उपरोक्त तीनों लकरों का अभाव है; इसमें तो सभी भूत-कालिक लकरों के लिये और इनसे सम्बन्धित प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुषों के लिये तथा एकवचन एवं बहुवचन के लिये एक जैसे ही समान रूप के भूतकाल अर्थक प्रत्यय पाये जाते हैं; वातुओं के साथ में इनकी संयोजना करने से प्रत्येक प्रकार का भूत-कालिक लकार बन जाया करता है । अन्दर है तो इतना सा है कि व्यञ्जनान्ताओं के लिये और स्वरान्त धातुओं के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के भूतकाल अथक प्रत्यय है। इस प्रकार प्राकृत भाषा में सर्व सामान्य सुलभता की बात यह है कि व्यञ्जनान्त धातु के लिये अथवा स्वरान्त धातु के लिये तीनों पुरुषों में एवं दोनों वचनों में तथा सभ भूत-कालिक लकारों में एक जैसे ही प्रत्यय पाये जाते हैं। इस सूत्र संख्या ३- १६२ में स्वरान्व धातुओं में जोड़े जाने वाले भूतकाल अयंक प्रत्ययों का निर्देश किया गया है; व्यञ्जनान्स धातुओं में जोड़े जाने वाले भूतकाल अर्थक प्रत्ययों का उल्लेख इससे आगे आने वाले सूत्र संख्या ३-१६३ में किया जाने वाला 7 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * [ २६५ है। इस प्रकार इस सूत्र में यह बतलाया गया है कि यदि प्राकृत-भाषा में किसी भी स्वरात धातु का किसी भी भूत कालिक लकार में, किसी भी पुरुष का और किसी भी वचन का फैसा ही रूप बनाना हो वो प्राकृत भाषा की उप्त स्वगन्त धातु के मूल रूप के साथ में 'सो अथवा हो अथवा हो' प्रत्यय की संयोजना कर देने से भूतकाल के अर्थ में इष्ट पुरुष वाचक और इष्ट वचन बोधक रूप का निर्माण हो जायगा ! इस विवेचना से यह प्रमाणित होता है कि संत-भाषा म भूतकाल-बोधक लकारों में प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर सभी पुरुष-बोधक-श्रों में तथा सभी वचनों के अर्थों में प्राकृत्त में सी, ही और होत्र' प्रत्ययों की श्रादेश-प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ३-१६३ में 'ध्यञ्जनादोश्रः' के उल्लेख से यही समझना चाहिये कि सूत्र संख्या ३-१६२ में वर्णित भूतकाल-योतक प्रत्यय 'सी, हो. होम' केवल स्वरान्त पातुओं के लिये ही है । इस विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है: भूतकाल बोधक प्रत्यय फेवल स्वरान्त धातुओं प्रथम पुरुष-सी. ही, ही, के लिये तथा एकवचन द्वितीय , -, " " एवं बहुवचन के लिये सुनीय ,-" , " सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण इस प्रकार दिये गये हैं: भाकृत रुपान्तर फासी अथवा काही अथवा हिन्दी अर्थ मैं अथवा हमने तूने अथवा तुमने असने अथवा पन्होंने किंवा अथवा किया था अथवा कर चुके थे। संस्कृत रूप १ अकार्षीत (आदि नत्र रूप नीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में लुङ लकार में २ अकरोत (आदि मय रूप ला लकार में) ३ चकार (आदि नव रूप लिट लकार में) १ अस्थात् (श्रादि नव रूप-तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में लुरु लकार में) २ अतिष्ठत् (आदि नव रूप ला लकार में) ३ तस्थौ (श्रादि नव रूप लिट लकार में) ठासी अथवा ठाही अथवा जादी मैं अथवा इम; तू अथवा तुम; वह अथवा वे ठहरे; था सहरे थे अथवा ठहर चुके थे। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 000000000 400604 इस प्रकार तीनों लकारों में; इनके तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों (अथवा दोनों वचनों में) प्राकृत भाषा में रूपों की तथा प्रत्ययों की एक जैसी ही समानता होती है। इस प्रकार की रूप-रचना प्राकृत भाषा में जानना चाहिये । - प्राकृत में कुल चन्तर कहीं कहीं पर पाया जाता है; उसका उदाहरण इस प्रकार है:देवेन्द्रः एषः श्रब्रवीत् = देविन्दो इमरजवी = देवराज इन्द्र ऐसा बोला; इस उदाहरण में संस्कृतिीय भूतकालिक क्रियापद के रूप 'अलवंत' के स्थान पर प्राकृत में 'बवी' रूप प्रदान किया गया है, यह ह्यस्तन- भूतकाल का अर्थात लङ् लकार का रूप हैं और संस्कृतिीय रूप के आधार (पर) से ही प्राकृतभाषा के वण-परिवर्तन नियमों द्वारा इसे भूत कालिक - क्रियापदों के रूपों की आर्थ प्राकृत के रूप मान लिये हैं । अकार्षीत्, अकरोत् और चकार संस्कृत के भूत कालिक लकारों के प्रथम पुरुष कं एकवचन सकर्मक क्रियापद के रूप हैं । इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत रूपान्तर समुच्चय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- कासी, काही और काही | इनमें सूत्र संख्या४-२१४ से मूल संस्कृत धातु 'कु' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'का' में संस्कृतीय भूत कालिक लकारों के अर्थों में प्राय सभी पुरुषों के एकवचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और ही यों की प्राप्ति होकर कासी, काही और काही रूप सिद्ध हो जाते है । अस्थात्, अतिष्ठत् और तस्थौ संस्कृत के अकर्मक रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत रूपान्तर समुदय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं-ठासी, टाही और ठाही । इनमें सूत्र- संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था' के स्थानापन्न रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की प्रदेश प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'ठा' मे संस्कृती भूत-कालिक लकारों के अर्थो में प्राप्तध्य सभी पुरुषों के एवं वचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में कम से 'सो, ही और हीन' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'टा' धातु के भूतकाल वाचक रूप दासी, ठाही और ठाही सिद्ध हो जाते हैं । देवेन्द्रः = देव + इन्द्र: संस्कृत का रूप है । इसका प्राकृत रूप देविन्दो होता है। इसमें सूत्रसंख्या १०९० से तत्पुरुष समासात्मक शब्द देवेन्द्र की संधि भेद करने से प्राप्त स्वतंत्र शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य स्वर '' के आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप १-५ से प्राप्त हलन्त शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व्' के साथ में आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' की संधि २.७६ से 'द्र' में स्थित व्यञ्जन 'र' का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'विन्द' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में अकारान्त पुंल्लिंग में संस्कृत में प्राप्तष्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डी ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद वेषिन्दो सिद्ध हो जाता है । w Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरमा* [ २६७ ] 400044000+stroress6000000000000000000000000000000000000000000000. 'इ' सर्वनाम रूप को मिद्धि सूत्र-संख्या :-८५ में की गई है। अबधीन संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत-रूप अब्बयो होता है । इसमें सूत्रसंख्या 2-5 से '' में स्थित व्यन्जन र' का लोप; F-८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए व्यञ्जन वर्म 'ब' को द्विात्र '' की प्रामि और १.११ से पदान्त हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप होकर अव्यवी रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१६२ ॥ व्यञ्जनादीः ॥ ३-१६३ ॥ व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्थ भूनार्थस्याद्यतन्यादि प्रत्ययस्य ईश्र इत्यादेशो भवति ॥ हुवीन ! अभूत् । अभवत् । बभूवेत्यर्थः ॥ एवं अच्छी । प्रासिष्ट | प्रास्त । प्रासांचक्रे या ॥ गेयहीअ । अग्रहीत् । अगृह त् । जग्राह वा ॥ ___ अर्थः-पाकृत भाषा में पाई जाने वाली धातुओं में संस्कृत के समान गण-भेद नहीं होता है; परन्तु फिर भी प्राकृत धातुएँ दो भेदों में विभाजित हैं। कुछ व्यञ्जनान्त होती हैं तो कुछ स्वरान्त होती है। सदनुमार मतकाल के अर्ध में प्रामम्य पाकृत-प्रत्ययों में भेद पाया जाता है। इस प्रकार के विधि-विधान से स्वरान्त-धातुओं में भून-काल के अर्थ में प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों का सूत्र-संख्या ३-१५२ में वर्णन किया जा चुका है। अब ध्यञ्जनान्त धातुओं के लिये भत-काल के अर्थ में ग्रामव्य प्राकृत-प्रत्यय का उल्लेख इस सूत्र में किया जा रहा है । यह तो पहले हो लिखा जा चुका है कि संस्कृत भाषा में भूतकाल के अर्थ में जिस तरह से तीन लकारों का-'लुछ-न-लिद' अर्थात् 'अन्यतन, यस्तन अथवा अनद्यतन और परोक्ष' का विधान है, जैसा विधान प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; एवं इन लकारों के तीनों पुरुषों के तीनों वचनों में जिस प्रकार से भिन्न भिन्न प्रत्यय पाये जाते है वैसी सभी प्रकार की विभिन्नताओं का तया प्रत्ययों का भेइ प्राकृत-मात्रा में नहीं पाया जाता है। अतएव संक्षिप्त रूप से इस सूत्र में यही बतलाया गया है कि प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली व्यञ्जनान्स धातुओं में नन के मूल रूप के साथ में हो किसी भी प्रकार के मत काल के अर्थ में और किसी भी पुरुष के किसी भी वचन के अर्थ में केवल एक ही प्रत्यय 'ईम' की संयोजना कर देने से इष्ट-भूत-काल-अर्थक और इष्ट पुरुष के इष्ट वयन-अर्थक प्राकृत-क्रियापद का रूप बन जाता है । प्राकृन में भूत-काल के अर्थ में व्यञ्जनान्त धातुओं में इस प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' को संस्कृत में भनकाल के अर्थ में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त मत्यय समझना चाहिये । इस विषयक उवाहरमा इस प्रकार हैं: Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * संस्कृत-रूपप्राकृत-रूपान्तर हिन्दी-अर्थ १ अभूत् (आदि नव रूपा मैं अथवा हम; तु अथवा सीनों पुरुषों में और नीनों तुम और वह अथवा वचतों में लुङ् लकार में) छ हुए; हुए थे २ अभवत् (श्रादि नव रूप; दुधीभ और हो चुके थे। तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; स्लम लकार में) ३ भूय श्रादि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में लिट् लकार में) १ आसिष्ठ (भादि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों में अथवा हम; तू वचनों में लुछ लकार में) अथवा तुम और २ आस्त (प्रादि न रूप, अच्छी वह अथवा वे तीनों पुरुषों में और तीनों बैठे; बैठे थे वयनों में; लस लकार में) और बैठ चुके ३ आसांचके (आदि नवरूप; . तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में लिट् लकार में) १ अग्रहीद (श्रादि नव रूप; मैं न अथवा हमने तीनों पुरुषों में और तीनों सुने अथवा तुमने वचनों में; लुक लकार में) २ अगृहणात (श्रादि नवरूप, गण्होत्र उमने अथवा उन्होंने; तीनों पुरुषों में और तीन लिया; लिया था वचनों में; लइ लकार में) अथवा ले धुके थे या ३ जग्राह (आदि नव रूप; स्वाकार किया; स्वीकार तीनों पुरुषों में और तीनों किया था अथवा स्वीकार वचनों में लिट लकार में) ___कर चुके थे। इस प्रकार प्राकृत भाषा में व्यञ्जनान्त धातुओं में भूतकाल के अर्थ में संस्कृत में प्राग तीनों लकारों के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्रामव्य सभी प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'इन' की आदेश-प्राप्ति होती है। तदनुसार वाक्य-रचना में पाये जाने वाले सम्बन्ध विशेष को देख करके Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २६६ ] ००००००००० ❖❖❖❖❖❖�********************************** पुरुष विशेष का और वचन-विशेष का ज्ञान कर लिया जाता है अथवा स्वरूप पहिचान लिया जाता है । अभूत्, अभवत और षभूष संस्कृत के भून-कालिक लकारों के प्रथम पुरुष के एकवचन के कर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी कारों का सभी पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत रूपान्तर समुचय रूप से एक ही हुवी होना है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु भूभव' के स्थान पर प्राकृत में 'हुष' अंग की आदेश प्राप्ति और ३१६३ से श्रादेश प्राप्त अंग 'हुन्' में भूत-कालिकलकारों में सभा पुरुषों के सभी वचनों में प्राप्तव्य संस्कृतीय प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ईश्न' की यादेश-प्राप्ति होकर प्राकृत रूप षी सिद्ध हो जाता है । 1 * प्राकृत व्याकरण * आसिष्ठ, आस्त और आसांचके संस्कृत के भूत-कालिक लकारों के प्रथम पुरुष के एकश्चन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी लकारों का, सभी पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत रूपान्तर समुच्चय रूप से एक ही अच्छी होता है। इसमें सूत्र- सख्या ४-२१५ से मूल संस्कृत धातु 'आस' में स्थित अन्त्य हान्त व्यन्जन 'सु' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २-५६ से आदेश प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति २ ६० से द्वित्व प्राप्त छ' में से प्रथम 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति १-८४ से प्राप्तांग 'आ' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'छ' का सद्भाव होने के कारण से ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और ३-१६३ से उपरोक्त रीति से प्राकृत में प्राप्तांग धातु रूप 'अच्छ' में भन-कालिक लकारों में सभी पुरुषों के मभी वचनों में प्राप्तभ्य संस्कृतस्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ई की आदेश वाप्ति होकर प्राकृत रूप अच्छोअ सिद्ध हो जाता है । · अग्रहीत्, अग्रहणात् श्रौर जग्राह संस्कृत के भूत-कालिक लकारों के प्रथम पुरुष के एकवचन . के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी कारों का, मभी पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत-रूपतर समुच्चय रूप से कल एक ही रोपही होता है। इसमें सूत्र सख्या ४२०६ से मूत संस्कृत धातु 'मह' के स्थान पर कृत में 'गेव्ह' अंग-रूप की आदेश-प्राप्ति और ६०१६३ से प्राकृत में धातु रूब 'गव्ह' में भूत-कालिक लकारों में सभी पुरुषों के सभी में प्राप्तव्य संस्कृती प्रत्ययों के स्थान पर भाल में कंबल एक ही प्रत्यय 'ई' की यादेश प्राप्त होकर प्राकृत रूप येण्ही सिद्ध हो जाता । ३-१६४ ।। तेनास्तेरास्यसी ॥ ३-१६४॥ अस्ततस्तेन भूतार्थेन प्रत्ययेन सह असि अहेसि इत्यादेशा भवतः । श्रमि सां तु अहं वा जे आसि । ये प्रासन्नित्यर्थः । एवं हसि ॥ अर्थ:-- संस्कृत धातु 'अस्' के प्राकृत रूपान्तर में भूतकालिक तीनों लफारों के सभी पुरुषों में सभा इनके सभी वचनों में संस्कृताय प्रामव्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में आदेश प्राप्त प्रत्ययों की Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३०० ] ***400*699460 संयोजना होने पर ' धातु+पुरुष बोधक प्रत्यय' के स्थान पर केवल दो रूपों की प्रवेश-प्राप्ति हो जानी है। के रूप इस प्रकार है: - आम और अनि इन श्रादेश प्रात दोनों रूपों में से प्रत्येक रूप द्वारा भूतकालिक लकार के सभी पुरुषों के सभी वचनों का अर्थ प्रतिध्वानंत हो जाता है । सारांश रूप से तात्पर्य यह है कि भूतकाल में 'श्रम्' धातु के कंवल दो रूप होते हैं; १ आमि और २ मि ही रूप सभी पुरुषों में तथा सभी वचनों में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण इस प्रकार है::-मः चामोत् त्वम् आसीः, थला अहम् आसपास अथवा श्रहेति = [= वह था अथवा तू था अथवा मैं था, इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि 'तीत आती और श्रवम् प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के क्रियापद के रूपों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही क्रियापद का 'आसि अथवा असि' का प्रयोग होता है। दूसरा उदाहरण इम प्रकार है:- ये आसन जे श्रासि श्रथवा श्रहेसि = जो थे; यह उदाहरण बहुत्रचनात्मक है; फिर भी इसमें एकवचन के समान ही किसी भी प्रकार फे पुरुष भेर का विचार किये बिना ही 'आमन्' संस्कृत रूप के स्थान पर 'आसि अथवा असि' का प्रयोग कर दिया गया है । यो वचन का अथवा पुरुष का और प्रत्यय भेद का विचार नहीं करते हुए समुच्चय रूप से संस्कृतोय तीनों लकारों के अर्थ में प्राकृत में आदेश प्राप्त रूप 'श्रसि अथवा श्रदेोसे' का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में कारों की दृष्टि से मर्यादा-भेद को अत्यधिक न्यूनता पाई जाता है; जो कि ध्यान देने योग्य है । आसीत्, आसी और आसम् संस्कृत के भूतकाल के प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूपान्तर श्रासि और अहे से होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस' के साथ में भूतकाल वाचक प्राकृत प्रत्ययों को संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'श्रम अथवा असि' रूपों को आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत के रूप 'आति और अहेसि' सिद्ध हो जाते 'सी' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ८६ में की गई है। 'तुम' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३९० में की गई हैं । अहं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। '' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई। 'जे सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५८ में की गई है। *1 आसन संस्कृत के भूतकाल वाचक लक्ष् लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन का है। इसके प्राकृत रूपान्तर श्रमि और अहंति होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस' के साथ में भूतकालवाचक प्राकून प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि और अदेसि रूपों को आदेश प्राप्त होकर प्राकृत रूप 'आसे और अहेसि' सिद्ध हो जाते हैं । ३-१६४। ( Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * $60000000000066004 ज्जात्सप्तम्या इव ॥ ३--१६५ ॥ [ ३०१ ] - 0000 सप्तभ्यादेशात् ज्जात्पर इर्घा प्रयोक्तव्यः || भवेत् । होज्जइ । होज्ज | • 4 अर्थः- यहाँ पर 'सप्तमी' शब्द से 'लिङ लकार' का तापर्य है । यह लिङ् लकार छह प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त होता है जो कि इस प्रकार हैं:- १ विधि, २ निमन्त्रण, ३ आमन्त्रण अथवा निवेदन ४ अर्धष्ट अथवा अभीष्ट अर्थ, ५ संप्रश्न और ६ प्रार्थना प्राकृत भाषा में मूल धातु के आगे 'ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से सप्तमी का अर्थात् लिङ लकार का रूप बन जाता है। यह प्रत्यय तीनों प्रकार के पुरुषों के दोनों वचनों में प्रयुक्त होता है। वैकल्पिक रूप से 'ज' प्रत्यय के आगे कभी कभी 'इ' की प्राप्ति भी होती हैं । जैसे:- भवेन होज अथवा होज होये । इस विषयक विशेष वर्णन आगे सूत्रसंख्या ३-१७७ और ३-१७८ में किया जा रहा है। = भषेत संस्कृत का लिङ्ग लकार का प्रथम पुरुष का एकवचन का रूप है। इसक प्राकृत रूप हो और होन होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की श्रादेश प्राप्ति; ३ १७७ से विधि अर्थ में 'ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१६५ से प्राप्त प्रत्यय 'ज' के पश्चात् वैकल्पिक रूप से ६ की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप होजई और होन सिद्ध हो जाते हूँ । ३-१६५ ।। भविष्यति हिरादिः ॥३ - १६६॥ भविष्यदर्थे चिह्निते प्रत्यये परं तस्यैवादिहिः प्रयोक्तव्यः || होहि । भविष्यति भविता त्यर्थः ॥ एवं होति । होहिसि । होहित्था | इसिहि । काहि || अर्थ :- संस्कृत भाषा में भविष्यत् काल के दो भेद पाये जाते हैं; एक तो अन्यतन भविष्यत् अर्थात लुट् लकार और दूसरा सामान्य भविष्यत् अर्थात लृट् लकार; किन्तु प्राकृत भाषा में दोनों प्रकार कं भविष्यत् काल वाचक लकारों के स्थान पर एक ही प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग होता है । प्राकृत भाषा भविष्यकाल वाचक रूपों के निर्माण करने की सामान्य विधि इस प्रकार है कि प्रथम धातु के मूल अंग के आगे 'हि' प्रत्यय जोड़ा जाता है और तत्पश्चात् जिम पुरुष के जिस वचन का रूप बनाना हो उसके लिये उसी पुरुष के उसी वचन के लिये कहे गये वर्तमानकाल- द्योतक पुरुष बोधक प्रत्यय लगा देने से भविष्यत् काल वाचक रूप का निर्माण हो जाता है। तदनुसार भविष्यन काल वाचक प्रत्ययों की सामान्य स्थिति इस प्रकार से होती है:-- Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 100000000000000000rsonot00000srrow00000000000rstarter00000000000000+ एकवचन बढुवचन प्रथम पुरुष-हिइ, हिए हिन्ति हिन्त, हिहरे द्वितीय " हिास, हिसे हित्था, हिह । तृतीय ' हिम हिमो, हिम. हिम। तृतीय पुरुष के एकवचन में तथा बहुवचन में वैकल्पिक रूप से अन्य प्रत्यय भी होते हैं; उनका वर्णन भागे मूत्र संख्या ३-१६७; ३ १६८ और ३-१६६ श्रादि में किया जाने वाला है। इस प्रकार ग्रंथकार का तात्पर्य यही है कि भविष्यत् काल के अर्थ में धातु में सर्व प्रथम हि' का प्रयोग किया जाना चाहिये; तत्पश्चात वर्तमान-काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जानी चाहिये। जैसे:-भविष्यात अथवा भविता - हाहिद-होगा अथवा होने वाला होगा। भविष्यन्ति अथवा भथितार:-होहिन्ति - होंगे अथवा होने वाले होंगे । भविष्यात अथवा भवितामि हाहिमि - तू होगा अथवा तू होने वाला होगा। भविष्यथ अथवा भवितास्थ = होहिया - तुम होंगे अथवा तुम होने वाले होंगे। हमिष्यति अथवा हसिताइसिहिद-वह हँसेगा अथवा हमने वाला होगा करिष्यति थाथवा कर्ता = काहिइ-वह करेगा अथवा करने वाला होगा । इन सदाहरणों से प्रतीत होता है कि मंस्कृत में प्राप्तव्य भविष्यत्-काल वाचक लुट् लकार और लट् लकार के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही लकार होता है तथा इसी सामान्य लकार के श्राधार से ही भविष्यत-काल वाचक दोनों लकारों का अर्थ प्रतियनित हो जाता है। भावष्यति अथवा भविता संस्कृत के क्रमशः भविष्यत-काल वाचक लट् लकार और लुट्लकार के प्रथम पुरुप के एकवचन के रूप हैं । इनका प्राकृत रूप होहिइ होना है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भ - भव' के स्थान पर प्रकृति में 'हो' अग-रूप की प्राति ३.६ से भविष्यत काल के अथ में प्राप्तांग 'हो' में हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से भविष्यत काल के मर्ध में प्राप्तांग हो' में प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में इस्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'हो' मिद्ध हो जाता है। भविष्यन्ति, भवितारः संस्कृत के भविष्यत काललायक लुट लकार और लुट् लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन के रूप है। इनका प्राकृत रूप (एक ही) होहिन्ति होना है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० में मूल संस्कृत धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अङ्ग रूप की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यकाल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से भविष्यात काल के अर्थ में शप्तांग होहि' में प्रथम पुरुष के बहुवचन के अर्थ में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हौछिन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। भावयास अथवा भाषितास संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट् लकार और लुट् लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के रूप है । इनका प्राकृत रूप (समान रूप से) होहिसि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अक्षरूप की प्रारित Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * ३०३ ) 00000000000000000000000000000000000000000000000000 Porowwwererneerrearmerrorirem.. ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४० से भविष्यतकाल के साथ में प्राप्तांग होहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिास रूप सिद्ध हो जाता है। भविष्यथ अथवा भवितास्थ संस्कृत के क्रमश: भविष्यत काल-बाचक लट् लकार और झुटलकार के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-रूप (समान रूप से) होहत्या होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से मूले संस्कृत धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की प्राप्ति: ३.१६६ से भविष्यत् काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१८ से भविष्यत कालश्रर्थक प्राप्तांग 'होहि' में स्थित अन्य स्थान का नाम सुरु थे। प्रत्यय इत्या' में स्थित श्राद स्वर 'ई' का सद्भाव होने के कारण से लो, ३-१४३ से भविष्यत काल के अर्थ में प्राप्त हलन्त अंग 'होई में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में 'इत्या' प्रन्यय की प्राप्ति और ६.५ से प्राप्त रूप होह और इत्या की संधि होकर होहित्था रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हासण्यात अथवा हसिला सस्कृत के क्रमशः भविष्यत् काल-बापक लद लकार और लुटलकार के प्रथम पुरुष के एकवचन के रूप हैं । इन का प्रावृत्त-रूप (समान रूप से) हसिहिद होता है। इसमें सूत्र-संख्या-३-६५७ से मूल प्राकृत-धातु 'हस' में स्थित अन्रय 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत कालवाचक प्रत्यय 'हि' का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हप्ति' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से भविष्यत काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हसिह' में प्रथम पुरुष कं एवघम के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हासहिद' रूप सिद्ध हो जाता है। 'काहि कियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १५ में की गई है 1 ३-१६६ ।। मि-मो-मु-मे स्सा हा न वा ।। ३-१६७ ॥ भविष्यत्यर्थे मिमोमुमेषु तृतीय त्रिकादेशेषु परेपु तेषामेवादी स्सा हा इत्येतो वा प्रयोक्तव्यौ । हेरपवादौ । पक्षे हिरपि ॥ होस्सामि होहामि । होस्सामो होहामो । होस्सामु होदामु । होस्साम होहाम ।। पर्छ । होहिमि ॥ होहिप्नु । होहिम ॥ क्वचित्तु हा न भवति । हसिम्सामो । इसिहिमो॥ अर्थी--प्राकृत भाषा में भविष्यत्त काल के अर्थ में तृतीयपुरुष के एकवचन में अथवा बहुवचन के धातुओं में जब क्रमशः 'मि' प्रत्यय अथवा मो-मु-म प्रत्यय को संयोजना की जा रही हो तब धूम्रसंख्या ३. १६६ के अनुसार भविष्यत् काल-योनक प्राप्नध्य मस्यय 'हि' के स्थान पर वैकल्पिक प से 'सा' अथवा 'हा' प्रत्यय की भी प्राप्ति हुमा करती है। इस प्रकार से तृतीय पुरुष के स्वपन में प्रथा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * बहुवचन में भविष्य-काल-योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' के स्थान पर मैकल्पिक रूप से 'स्सा' अथवा 'हा' की प्राप्तिको पूर्वोल्लेखित भविष्यत् काल द्योतक प्राप्तष्य प्रत्यय 'हि' के लिये अपवाद रूपवान श्री समझना चाहिये । चूँकि यह अपवाद रूप प्राप्ति भी वैकल्पिक स्थिति वाली ही हूँ इसलिये पक्षान्तर मं तृतीय पुरुष के एकवचन के अथवा बहुवचन के प्रत्ययों का सदुभाव होने पर भविष्यत् काल-योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति का सद्भाव भी (वैकल्पिक रूप से) होता ही है। उक्त वैकल्पिक-स्थितिसूचक विधान को स्पष्ट करने वाले उदाहरण इस प्रकार हैं -- भविष्यामि श्रथवा भवितास्त्रिहांमामि और हो हामि अथवा पक्षान्तर में होहिमि भी होता है । इसका हिन्दी अर्थ यह है कि मैं होऊँगा अथवा होने वाला होऊँगा ! बहुवचन द्योतक उदाहरण इस प्रकार से है:-- भविष्यामः अथवा भवितास्मः = होरलामो होहामो; होस्सामु होहामु; होस्साम हो हाम; अथवा पक्षान्तर में होहिमो. होहिमु, होहिम इन सभी का हिन्दी अर्थ यह है कि- 'हम होंगे अथवा हम होने वाले होंगे' । पाठक गण इन उदाहरणों में यह देख सकेंगे कि भविष्यत् काल-योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' के अतिरिक्त वैकल्पिक रूप से 'स्सा' और 'हा' प्रत्ययों का भी प्राप्ति हुई है। ऐसी प्राप्ति कंवल तृतीय पुरुष के एकवचन में अथवा बहुवचन में ही होती है; प्रथम पुरुष में अथवा द्वितीय पुरुष में ऐसी प्राप्ति का अभाव ही जानना चाहिये । कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है कि उपरोक्त प्राप्तस्य प्रत्यय 'रसा' और 'हा' में से केवल एक ही प्रत्यय 'हा' की प्राप्ति होती है और 'हा' की प्राप्ति नहीं होती है । जैसे:-- हसिष्यामः = हसितामाँ और हसिहियो । यहाँ पर 'हसिहामो' रूप का प्रभाव प्रदर्शित कर दिया गया है। परन्तु इस स्थिति को वैकल्पिक माव वाली ही जानना; जैसा कि वृत्ति में 'कचिद्र' शब्द देकर स्पष्टीकरण किया गया है। भविस्यामि अथवा भवितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत् काल वाचक लुट् लकार और लुट् के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप ( समान रूप से होस्सामि, होहामि और होम होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=मव् के स्थान पर प्राकृत में 'हो अङ्ग रूप की प्राप्ति; ३-१६७ और ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः '(सा, हा और हिप्रत्यय की मूल प्राप्लांग 'हो' में प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत् काल के अर्थ में क्रमशः प्राप्तांग होस्सा, होहा और होहि में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप होस्सामि होहामि और होम सिद्ध हो जाते हैं । भावष्यामः और भवितास्मः संस्कृत के क्रमशः मविष्यत् काल वाचक लृट् लकार और लुद लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूप ( समान रूप से) होलामो, होहामो, होरसामु, होहामु, होहिमु, होल्साम, होहाम, हिम होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४ ६० से मूल संस्कृत धातु 'भू = भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग रूप की प्राप्ति: ३-१६७ और १-१६६ से भविष्यत काल के अर्थ में क्रमशः 'स्सा, हा और हि' प्रत्यय की मूल प्राप्तांग 'हो' में प्राप्ति और ३-१४४ से भविष्यत् काल के Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण meeroesroornawkterrrrrrrrorkerworketoorrearesosexdooroseromosoorn अर्थ में कमशः प्राप्तांग 'होरसा, होहा और होहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में क्रमशः 'मो, मु और म' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर होस्सामी. होहामो, हास्सामु. होहामु, होहम, होस्साम, होहाम और होहिम रूप सिद्ध हो जाता है। हासंध्यामः और हासतास्मः संस्कृन के कमशः भविष्यन-काल वाचक लट् लकार और लुटलकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राक्त-रूप (समान रूप से हतिम्लामो और हसिहिमो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३-३५७ से मूल प्राकृत-धातु 'हम' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर भागे भविष्यत-काल-वाचक प्रत्यय 'स्सा' और 'हि' का समाव होने के कारण से 'इ' को प्राप्ति; ३-१६७ और ३.१६६ से भविष्यन-काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हमि' में क्रमशः 'स्मा' और 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३. १४४ से भविष्यात काल के अर्थ में क्रमश: प्राप्तांग हसिम्ता' और 'हमिहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के मर्थ में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होफर हसिस्सामी' और 'हामहिमों' रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३-१६७।। - मो-मु-मानां हिस्सा हित्था ॥३-१६॥ धातोः परी भविष्यनि काले मो म मानां स्थाने हिस्सा हित्था इत्येतो का प्रयोक्तव्यों । होहिस्सा । होहित्था । इसिहिस्सा । हसिहित्था । पक्षे । होहिमो होस्सामो। होहामो । इत्यादि। ___ अर्थ:- भविष्यत्त-काल के अर्थ में धातुओं में तृतीय पुरुष के बहुवचन-मोधक प्रत्यय 'मो-मु-म' परे गहने पर नया भविष्यत काल-योतक प्रत्यय हि अथवा सा अथवा हा' होने पर कभी कभी वैकल्पिक रूप से ऐमा हाता है कि उक्त भविष्यत-काल-द्योतक मन्यय हिला-हा' के स्थान पर और वक्त पुरुष. बोधक स्यय 'मां-मु-म' के स्थान पर अर्थात दोनों ही प्रकार के प्रत्थयों के स्थान पर चातुओं में हिस्सा अथवा हिस्था' प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत-काल के अर्थ मे तृतीय पुरुष के बहुवचन का अर्थ अभिव्यक्त हो जाता है। यों धातुओं में रहे. हम हि-मा-हा' प्रत्ययों का भी लोप हो जाता है और 'मी मु-म' प्रत्ययों का भी लोप हो जाता है; तथा दोनों प्रकार के इन तुम प्रत्ययों के स्थान पर हिस्सा अथवा हिस्या' प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में भविष्यत-काल का रूप तैयार हो जाता है । जैसे:-भविष्यामः अथवा भवितास्मः = हाहिरमा और होहित्था हम होंगे; चूंकि यह विधान वैकल्पिक-स्थिति वाला है अतपत्र पक्षान्तर में 'होहिमो, होरसामो और होहामो' इत्यादि रूपों का मा निर्माण हो सकेगा । दूसरा उदाहरण इम प्रकार है:-- इसिष्यामः अथवा हसिताम:= इसिहिस्सा और हमिहिन्या; हम हँसेंगे; पक्षान्तर में हमिहिमो, हसिस्सामी प्रादि रूपों का भी सद्भाव होगा । इस प्रकार से वैकल्पिक स्थिति का समाव भविष्यत-काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बियोदय हिन्दी व्यारूपा सहित 0000 [ ३०६ ] भविष्यामः भवितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत् काल-वाचक लृट लकार और लुट लकार के तृतीय पुरुष कं बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप (ममान रूप से) होहिस्सा होहित्या, होमो, होस्सामा और होहामो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर प्राकूल में 'हो' अंग रूप की प्राति; तत्पश्चात प्रथम और द्वितीय रूपों में ३.१६५ से भविष्यत काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमश: 'हिस्सा और शिया प्रत्ययों की प्राप्ति होकर 'होहिस्सा और होहित्था' रूप सिद्ध हो जाते हैं । तृतीय रूप होहिमो में सूत्र संख्या ३-१६० से उक्त रोसि से प्राप्त धातु अंग 'हो' में भविष्यत् काल-अशंक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४४ से भविष्यत् काल-बोधक प्राप्तांग 'होहि' में तृतीय पुरुष के अर्थ में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिमो रूप सिद्ध हो जाता है। बहुवचन 'होमो और हीहामी' रूपों को सिद्धि सूत्र- संख्या - १६७ में की गई है। हसिष्यामः और हसितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत् काल-वाचक लृट् लकार और लुद लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूप ( समान रूप से ) हसिहिस्सा और सिरिया होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३--१५७ से मूल प्राकृत धातु " हस" में स्थित अन्स्य" " के स्थान पर आगे भविष्यत् काल वाचक प्रत्यय "हिस्सा और हित्था" का सद्भाव होने के कारण से 'इ' का प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग "हमि' में ३-१६८ से भविष्यत् काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमशः "हिस्सा और हिरथा" प्रत्ययों की संप्राप्ति होकर हसिहिम्सा और हसिहित्वा रूप सि हो जाते हैं । ३-१६= |. मेः स्सं ॥ ३ - १६६॥ धातोः परो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्सं वा प्रयोक्तव्यः ॥ होस् । हसिस्सं । किस्स || प | होहिमि । होस्सानि । होद्दामि । कित्तइहिम || अर्थ:--भविष्यत् काल के अर्थ में धातुओं में सुनीय पुरुष के एक वचन चौक-प्रत्यय "सि" प रहने पर तथा भविष्यत्काल-योतक प्रत्यय "हि श्रथवा सा अथवा हा" होने पर कभी कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत् काल द्योतक प्रत्यय "हिस्सा हा के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर धातुओं में केवल 'स्सं' प्रत्यय की प्रदेश-प्राप्ति होकर भविष्यत् काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एय वचन का अर्थ प्रकट हो जाता हूँ । यो धातुओं में रहे हुए 'हिस्सा हा' प्रत्ययों का भी लोप हो जाता है और 'मि' प्रत्यय का भी लोप हो जाता है; तथा दोनों ही प्रकार के इन लुप्त प्रथयों के स्थान पर केवल 'स्सं' प्रस्थय की ही आदेश-प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के एक वचन के अर्थ में भविष्यत् काल का रूप तैयार हो जाता है । जैसे:- भविष्यामि अथवा भवितास्मि 7 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत व्याकरण * roorksroor.orro++0000000000rooterstoortoonsootomorr00000000000om होस्स-मैं होऊँगा; चूँ कि यह विधान बैकल्पिक-स्थिति वाला है अतएव पक्षान्तर में होहिमि, होस्सामि और होहामि' रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। अन्य उदाहरण इस प्रकार है:-हसिस्यामि अथवा हमितास्मि हसिस्स-मैं हँसूगा । कीयिष्यामि-कित्तइस पक्षान्तर में किन हामि = मैं मोतन करूँगा; इत्यादि । इस प्रकार से वैकल्पिक-स्थिति का सद्भाव भविष्यत् काल के अर्थ में नोय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये । भविश्यामि अथवा भषितास्मि संस्कृत के क्रमश: भविष्यत-काल-वाचक लट् लकार और लुद् लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप) से होस, होहिमि, होस्लामि और होहामि होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ५-६. से मूल संस्कृत-धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की श्रादेश-प्राप्ति; सत्पश्चात सर्व प्रथम रूप में ४-१६६ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत् काल के अर्थ में ततोय -पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कथित प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की भादेश-प्राप्ति होकर होरसं रू। सिद्ध हो जाता है । शेष रूप 'होहिमि, होस्सामि तथा होहामि' को सिख सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है। हासष्यामि अथवा हसितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्-काल-वाचक लद लकार और लुट लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-सप (ममान-रूप से) हसिस होता है। इसमें मूत्र-संख्या ३-१५४ से मूज प्राकृत-धातु 'हम' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर धागे भविष्यत् काल-वाचक प्रत्यय का सदभाव होने के कारण से 'ई की प्राप्ति, तत्पश्चात प्राप्तांग 'हसि' में मूत्रसंख्या ३.६६ से भविष्यात-काल साथ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कपिल प्राध्य प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की भाषेश-प्राप्ति होकर हाससं रूप सिद्ध हो जाता है। कीर्तयिष्यामि संस्कृत का भविष्यात काल-याचक लूद लकार का तृतीय पुरुष के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप किसइस्स और कित्तहिगि होते हैं। इनमें सूत्र-सख्या २-५६ से 'तं में स्थित रेफ रूप र' का लोप; २६६सं लोप हुए रंफ रूप र' के पश्चात शेष रहे हुए 'त' को बित्व 'स' की माप्ति; १.८४ से भादि वर्ण 'की' में स्थित्त वाले स्वर 'ई' के स्थान पर आगे प्राप्त संयुक्त व्यञ्जन 'च' का सभाष होने के कारण से हरष स्वर 'इ' की प्राति; ...७७ से 'य' षर्ण में स्थित 'व्यसन का लोप; इस प्रकार संस्कृत-अंग प 'कोरीय' से प्राकृत में प्राप्तांग कित्ता' में ३-१६६ से भविष्यत-काल के अर्थ में वृतीच पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम प्रत्यय 'यामि' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर कित्तस्सं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र संख्या ३.१६६ से प्राकृत में प्रथम रूप के समान ही प्राRI'किचाइमें भविष्यत कास सूचक प्राप्तभ्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३.१४१ से भविष्यत काल के अर्थ में प्राप्तांग किचदहि' में Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित , तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कित्ताहीम रूप भी सिद्ध हो जाता है। ३-१६ कृ-दो-हं ॥३-१७०।। करोते ददातश्च परो भविष्यति विहितस्थ म्यादेशस्य स्थाने हं या प्रयोक्तव्यः ।। काहं । दाहं । करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः ।। पक्षे । काहिमि । दाहिमि । इत्यादि । अर्थः-संस्कृत भाषा में पाई जाने वाली धातु 'क' और 'दा' के प्राकृत रूपान्तर 'का' तथा 'दा' में भविष्यत-काल के अथं में प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्यय 'हि' आदि के परे बहने पर तथा तृतीय-पुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय 'मि' के परे रहने पर कभी कभी वैकल्पिक रूप से ऐमा होता है कि उक्त भविष्यतकाल-द्योतक ' ' आदि में स्थान पर सौर ३ पुष को प्रत्यय 'मि' के स्थान पर अर्थात दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर उक्त दोनों धातुओं में केवल 'ह' प्रत्यय को ही आदेश-प्राप्ति होकर भविष्यस काल के अर्थ के तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है । यो प्राकृत-धातु का अथवा दा' में रहे हुए भविष्यत-काल-योतक प्रत्यय 'हि' आदि का भी लोप हो जाता है और तृतीय पुरुष के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'मि' का भी लोप हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार के इन लुन प्रत्ययों के स्थान पर कंवल एक ही प्रत्यय 'ई' की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत् काल का रूप न धातुओं का तैयार हो जाता है । जैसे:-करिष्यामि अथवा कर्तास्मि-काह= मैं करूँगा अथवा मैं करता रहूंगा; चूंकि यह विधान वैकल्पिक स्थिति वाला है अतएव पक्षान्तर में 'काहिमि' आदि रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। 'दा' धातु का उदाहरण इस प्रकार है:-दास्यामि अथवा दातास्मि = दाई = मैं दऊँगा अथवा में देता रहूंगा । पक्षान्तर में वैकल्पिक स्थिति होने के कारण 'दाझिमि रूप का भी सद्भाव होगा । यह सूत्र कंवल प्राकृत धातु 'का' और 'दा' के भविष्यत-काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में ही बनाया गया है। करिष्यामि और कर्तास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यात-काल-वाचक लट् लकार और लुदलकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं । इनके प्राकृत रूप (समान-रूप से) काई और काहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत-धातु 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'प्रा' की प्रानि होकर प्राप्ति होकर प्राकृत में 'का' अङ्ग-रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३१७० से प्राग 'का' में मविष्यत-काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कथित प्रामध्यप्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के हो स्थान पर 'ई' प्रत्यय की आनेश-प्रानि होकर 'काई' &प सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'काहिमि' में 'का' अङ्गरूप की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही होकर सूत्र संख्या ३.९६६ से प्राप्तांग 'का' में भविष्यम-कान-सूचक प्रामध्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यात Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * [ ३०६ ] 00000rseerooterestowserverdisco.orcosterotoroorkero+000000000 काल के अर्थ में प्राप्तांग ‘काहि' में तृतीय पुरुप के एकवचन के अर्थ में मि' प्रत्यय को प्राप्त होकर फाहीम रूप भी सिद्ध हो जाता है। दास्यामि और दातास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यन-काल वाचक लट लकार और लुट् लकार के तृतीय पुरुष के पकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) दाई और दाहिमि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१७. से मूल पाकुन-धातु 'दा' में भविष्यत काल के अर्थ में तृतीयपुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में (३-१६६ और ३-१४१ में कथित प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के ही स्थान पर 'ई' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर दाहं रूप निद्ध हो जाता है। द्वितीय-रूप शाहिमि' म सूत्र-सख्या ५-१६६ से प्राप्तांग 'दा' में भविष्यत-काल-सुबक प्राप्तव्य प्रत्यय हि की प्राप्ति और ३-४१ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्तांग शाहि' में ततंय पुरुष के एकबचन के अर्थ में FREE को यत्ति होकर काम जी गिद्ध हो जाता है। ३- ७०|| श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-वचि-छिदि-भिदि-भुजां सोच्छ गच्छं रोच्छं वैच्छं दच्छं मोच्छ वोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं ॥३-१७१ ॥ ___ वादीनां धातूनां भविष्यविहितम्यन्तानां शाने सोच्छमित्यादयो निपात्यन्त । सोच्छं। श्रोष्यामि ॥ गच्छं । गमिष्यामि !! संगच्छं। संगस्ये ॥ रोच्छ । रोदिष्यामि ॥ पिद ज्ञाने । वेच्छे । चेदिष्यामि ।। दच्छं। द्रक्ष्यामि ॥ मोच्छ। मोक्ष्यामि । योच्छ । वक्ष्यामि ॥ छेच्छं । छेत्स्यामि ॥ भेच्छं । भेत्स्यामि । भोच्छ । भोक्ष्ये ॥ अर्थः-संस्कृत भाषा को इन दश (अथवा ग्यारह) धातु ओं 'श्र, गम्, (मंगम, रुद्. विद, दृश, मुच, व, छिद्, भिद्, और भुज' के प्राकृत रूपान्तर में भविष्यतू काल बोधक प्रयय के स्थान पर और हनीय पुरुष के एकषचनार्थक प्रत्यय के स्थान पर रूढ़ रूप की प्राप्ति होती है और इसी रूढ़ रूप से ही भविष्यत-काल-वाचक तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ मकट हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त स्ट रूपों में न तो भविष्यत् काल-बोधक प्रत्यय हि-स्सा-अथवा हा की ही श्रावश्यकता होती है और न ततीय पुरुष के एकवचनार्थक प्रत्यय 'मि' की ही श्रावश्यकता पड़ती है। इस विधि से प्राप्त ये रूप "निपात' कहलाते है । उपरोक्त संस्कृत भाषा की इन दश (अथवा ग्यारह) धातुओं के प्राकृप्त-रूपान्तर में भविष्यत् काल-बोधक अवस्था में पाये जाने वाले रूढ रूप में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ मे केवल अनुस्वार की ही प्राप्ति होकर भविष्यत-काल-प्रर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का रूढ रूप बन जाता है। जैसे:-(१) श्रोष्यामि सोच्छ - मैं मुनूंगा; (२) गमिष्यामि = गच्छ-मैं जाऊँगा; (३) संग्रस्ये-संगच्छंमैं स्वीकार करूंगा अथवा मैं मेल रमवू गा; (४) रोविष्यामि = रोच्छ-मैं रोऊँगा; (४) वेदिष्यामि= बेछ-मैं जानूंगा; (6) द्रक्ष्यामि दच्छ-मैं देखू गा; (७) मोक्ष्यामि = मोक्छ - मैं छोडूंगा; () वक्ष्यामि Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mroesomorroommarrposedaagmanianti Artmentervwoomerrorosroom - बोच्छं = मैं कहूँगा; (E) छेत्स्यामि = छेछ-मैं छेदूंगा; (१०) भेत्स्यामि =भेच्छ =मैं भेदूंगा और (११) भौक्ष्य = माछ-मै खाऊँगा । उपत. धात्वादेश मिति फेवल भविष्यत् काल के लिये ही होती है । इमी विषयक विप विवरण सूत्रसस्था:-१७६ में दिया जाने वाला है। श्रोध्या में संस्कृत का सबमक रूप है। इसका प्राकृत-रूपान्तर संच्छ होता है। इसमें सूत्रसस्या ३.६७६ से सम्पूर्ण संस्कृत-पद श्रीष्यामि के स्थान पर प्राकृत में मोच्छ रूप की आदेश-प्राप्ति होकर भविष्यत्-काम-थक तनीय पुरुष के एकवचन का बाधक रूप सोच्छं मिख हो जाता है । गमिष्यामि संवत का भविपर,त-काल- थक, तनीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूपांतर गच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१७१ से संपूर्ण संस्कृत-पद गमि. ध्यामि के स्थान पर प्राकृत में गच्छं' रूप सिद्ध हो जाता है। संगस्य संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत-रूप संगच्छ होता है । इममें सूत्र-संख्या ६.१७१ से संस्कृत-पद के स्थान पर प्राकृत-पद की आवश-प्राप्ति होकर संगच्छं पद की सिद्धि हो जाती है। रीविख्याम संस्कृत नियापन का रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर रोच्छं होता है । इसमें सूत्रसंख्या ३-१७१ से सस्पूर्ण संस्कृत-पद के स्थान पर प्राकृत पद की श्रादेश प्राप्ति होकर रांच्छे रूप की सिद्धि हो जाती है। इसी प्रकार से शेष सात प्राकृत रूपों में पच्छ, ३च्छ, मोच्छं, वोच्छ, छेच्छ, भेच्छ और भौच्छं भी सूत्र संख्या ३-१४१ से ही सस्कृतीय सम्पूर्ण क्रियापदों के रूपों को ऋमिक रूढमात्मक श्रादेशप्राप्ति होकर कम से ये प्राकृत कियापद के रूप स्वयमेव और अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । ३-१७१ ।। सोच्छादय इजादिषु हि लुक् च वा ॥ ३-१७२ ॥ श्वादीनां स्थान इजादिषु भविष्यदादादेशेषु यथासंख्य सोच्छादयो भवन्ति । ते एवादेशा अन्त्य स्वराधक्यवरर्जा इत्यर्थः । हिलुक् च वा भवति ।। सोच्छिइ । पक्षे । सोच्छिदिइ । एवं सोच्छिन्ति । सोच्छिहिन्ति । सोच्छिसि । सोच्छिहिसि । सोच्छित्था । सोच्चिहित्था । सोच्छिह । सोच्छिहिह । सोच्छिमि । सोच्छिहिमि । सोच्छिस्सामि । सोच्छिहामि । सोच्छिरसं । सोच्छ । सोछिमो । सोच्छिहिमो । सोच्छिरसामो । सोच्छिहामो । सोच्छिहिस्सा । सोच्छिहित्था । एवं मुभयोरपि । मच्छिद । गच्छिडिए । गच्छिन्ति । गच्छिहिन्ति । गच्छिसि । गच्छिहिसि । गरिछस्था । गच्छिहित्था । गच्छिह । गच्छिहिह । गच्छिामि । गम्छिहिमि । गच्छिस्सामि । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * [३११ ] •dostssroresasexstrorkerosecoratoriesrorseenakarsankrterosroom गच्छिहामि . गच्छिरसं । गच्छं । गच्छिमो । गच्छिहिमो । गच्छस्सामो । गच्छिहामो। गच्छिहिस्सा ! गच्छिाहित्था । एवं मुमयोरपि ।। एवं रुदादीनामप्युदाहार्यम् ॥ अर्थ:-सूत्र संख्या ३-१७१ में जिन संस्कृत धातुओं के प्राकुन रूपान्तर भविष्यत् काल-पाचक अवस्था के अर्थ में रूढ रूप से प्रदान किये गये हैं; वन रूढ रूपों में वर्तमानकालयोनक पुरुष बोधक प्रत्ययों को संयोजना करने से उसी पुरुष बोधक अर्थ की अभिव्यञ्जना भविष्यत काल के अर्थ में प्रकट हो जाती है । वैकहियक रूप से कभी कभी उन रूढ रूपों के श्रागे भविष्यलाल बोधक प्रत्यय 'हि' की अथवा तृतीय पुरुष के सद्भाव में 'स्मा, हा' की अथवा 'हिस्मा. हित्था' की प्राप्ति भी होती है । तस्पश्चात् पुरुष बोधक प्रत्ययों की जोड़ क्रिया की जाती है। सागंश यह है कि इन रूद रूपों में भविष्यात काल योधक मूल प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लोप होता है। शेष सम्पूर्ण क्रिया भविष्यत्काल के प्रदर्शन के अर्थ में अन्य धातुओं के समान ही इन रूढ प्राप्त धातु रूपों के लिये मी जानना चाहिये । उदाहरण इस प्रकार है:-श्रोष्यति-मोच्छिइ-वह सुनेगा; पक्षान्तर में भविष्यत्-काल-अर्थक प्रत्यय हि' की प्राप्ति होने पर प्रोष्यति का प्राकृत-रूपांतर 'सोचिहिइ' = 'वह सुनेगा' पा ही होगा। प्रथम पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः~-प्रोष्यन्ति = सोच्छिन्ति और पक्षान्तर में सोच्छिहिन्तिब्ध सुनेगे । द्विनाय पुरुष के पावन का हान्त:-- नोव्य मजाक पि आर पक्षाना में लोहिनि = सुनगा । द्वितीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः--श्रीध्यय-पोकिया और साकिछु ; पक्षान्तर मेंसोििहत्था और सोच्छि'हह-तुम सुनोगे। तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः-श्रोष्यामि = मोच्छिमि; पक्षान्तर में—मान्छिाहमि, सोच्छिसामि, मांच्छिहामि, सोच्छिम्म और मोच्छं = मैं सुनूँगा । ततीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्त-प्रोष्यामः = पोच्छि हमा; पक्षान्तर में सोच्छिम्सामो, सोपिछ हामो, सोच्छिहिस्सा, सोच्छिहित्था; सोच्छिहिमु और मोच्छिमामु तथा सोफिलहामु; मोच्छिहिम और सोस्सिाम तथा मोच्छिहाम - हम सुनेंगे ! इमी सिद्धान्त की संपुष्टि प्रन्थकार पुन: 'गम् = गच्छ' धातु द्वारा करते हैं:-प्रथम पुरुष के एकवचन का दृष्टान्त-गमिष्यनि- गरिछद; पक्षान्तर में गच्छिहिप-यह जावेगा । प्रथम पुरुष के बदवचन का दृधान्तः-गमिष्यन्ति गमछन्ति, पक्षान्तर में गमिछहिन्नि वे जावेंगे । द्वितीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्त:-गमिष्यसि गम्लिसि; पक्षान्तर में गच्छिहिसि = तू जायेगा । द्वितीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्त-मिन्यथ – गच्छिस्था और गम्छिर पक्षान्तर में गच्छिहित्था और गम्छिमिह - तुम जानोगे ' नतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः-गमिष्यामि = गचिमि पक्षान्तर में गच्छहि में, गच्छिरसामि. गांच्छहामि, पिस्सं और गच्छं = मैं जाऊँगा। तत्तीय पुरुष के बहुवचन का शान्त:--गमिष्यामः = गच्छिमो; पक्षन्तर में गच्छहिमो, गच्छिमामी, गाच्छहामी, गछि हिस्सा, गच्छिहित्था गििहमु, गाच्छस्सामु, गांच्छहामु, गछिहिम, गन्छिस्लाम और गच्छिहाम : हम जायेगे। इसी प्रकार से शेष रही हुई उपरोक धातुओं के भी रूप स्वयमेय समझ लेने पाहिये। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Himroor0000orrentrasorrorderrrrrrrrrrrrrrrrorostomorrotoram उपरोक्त उदाहरणों में कुछ एक पुरुष बोधक प्रत्यों से सम्बन्धित उदाहरण वृत्तिकार ने नहीं दिये हैं। उन्हें स्क्यमंव जाम लेना चाहिये, वे प्रत्यय प्रकार हैं:-ए. भो, हरे और मे । श्रीष्यति संस्कृत के भविष्यसकाल प्रथम पुरुष के एकवचन का मकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छिा और सोच्छिहिद होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यतकाल के प्रयोगार्थ 'सोच्छ' की प्रादेश-प्राप्ति; ३.१.७ से प्रामांग 'सोच्छ' में स्थित अन्स्य स्वर 'श्र के स्थान पर आगे भविष्यत काल बाधक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति ३-१६६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'सोच' में भविष्यत् काल के बांधनाथ हि' प्रत्यय की प्रार; ३.१०२ से प्रथम रूप में भावयतकाल बोधक प्रान प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लाय और ३.१६६ से भविष्यत काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छिह' म प्रथन पुरुष के एकवचन के अथं में प्रामव्य प्रत्यय 'इ' की प्राप्ति होकर सोपिछड़ और सोच्छिहिद रूप सिद्ध हो जाते हैं। श्रोष्यन्ति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथम पुरुप के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छन्ति और सोमिछहिन्ति होते हैं। इनमें सोच्छ और साच्छिहि अंग रूपों की प्राप्ति उपरोक्त एकवचनात्मक रूपों के समान ही जानना चाहिये; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-१४२ से भविष्यत्काल के अर्थ में कम से प्राप्तांग सोच्छ और सोच्छिाह' में प्रथम पुरुष के बटुव वन के अर्थ में प्राप्तम्य प्रत्यय 'न्ति' को प्राप्ति होकर सोच्छिन्ति और सोच्छिहिन्ति रूप सिद्ध हो जाते हैं। ' श्रोष्यास संस्कृत के भविष्यातकाल द्वितीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोकिछस और सोच्छिहिसि होते हैं। इनमें मांच्छि और साभिहिं' अंग रूपों को प्राप्ति प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपरोक्त सूत्र संख्या ३-१७१; ३-१५७; ३-१६५ और ३.१७२ से जानना चाहिए, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४० से भविष्यत काल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्यन्य प्रत्यय 'म' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप सोच्छिासे और सोच्छद्विारी सिद्ध हो जाते हैं। श्रीयथ संस्कृत के भविध्यत्काल अर्थक द्वितीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप सोच्छत्था सोच्छिह, सोच्छिहिस्था, साच्चिहिह होते हैं। इनमें 'सोनछ और सोच्छिह मूल अंग-रूपों की प्राप्ति प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपरोक्त सूत्र-संख्या ३.१७५; ३-१५७, ३.१६६ और ३-९७२ से जानना चाहिये, तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१४२ से भविष्यत-काल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'सोच्छि और मोलिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन क अर्थ में कम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'इत्था और है' की चारों अंगों में प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप-'सांछिस्था, सोच्छिह, सोपछाहित्था और सोस्छिाहह' सिन हो जाते हैं। यह विशेषता और ध्यान में रहे कि सूत्र-संख्या १.१. सं प्राप्त प्रत्यय 'इत्या' के पूर्वस्थ स्वर 'ई' का लोप हो जाना है । तत्पश्चात रूप निर्माण होता है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३१३ ] In+0000000000000rrrrrrrrrrotser.000000000000000000000**astrono0000000 श्रोष्यामि पृत्त के भविष्यस काल तृती पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके अायत-रूप-सोरिमि, सोमि , सोच्चिस्मामि, सोभियहामि, सोच्छिरस और सोच्छ हात हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'अ' के स्थान पर प्राकृत में भयान काल के प्रयोगाधक 'सोच्छ' की श्रादेश-.fम: ३-३५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत-शत 'मोच्छ' में स्थित स्य स्वर 'श्र के स्थान पर आगे भविष्यत-काल-वाचक प्रत्यय का मभाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; :-१६६ र ३-६६ से द्वितीय रूप, तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त राति से प्रामांग 'सोच्छि' में भविष्रत-काल-यापक प्रत्यय 'ह, स्सा और हा' की क्रम में प्राप्ति; ३.१७२ में प्रथम रूप में भविष्यत् कार वाक प्राच्य प्रत्यय 'हि' का लोप और ३.१४१ से भविष्यत-काल के अर्थ में कम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग-सोच्छि, सोच्छहि. सोलिमा और मामिछा' में सृनीयपुरुष के एकवचन के प्राथं में प्राप्तम्य प्रत्यय मि' की प्राप्ति होकर कम से प्रथम चार रूप 'सोच्छिाम सोच्छिाहीम, सरसाम और सोच्छ हामि सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप सोपस मे मूल-प्राकृत-अंग सोच्छि' की प्राप्ति उपरोक्त चार रूपों में वर्णित विधि विधानानुसार जानना जाहिये; तत्पश्चात प्राप्तांग 'सोच्छि' में सूत्र संख्या ३- १६ संभावश्चत-काल के अर्थ मे ततीय-पुरुष के एक वचन के भाव में केवल सं' प्रत्यय की हा प्राप्ति होकर एवं शेष सभी एस. दथक प्राप्तव्य प्रत्ययों का प्रभाव होकर पंचम रूप-सोच्छिस सिद्ध हो जाता है। छ । १ संचछे की सिाब सूत्र सख्या ३-१७१ में की गई है। श्रीष्याम: संस्कृत के भविष्यत-काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप यहाँ पर केवल छह ही दिय गये हैं, जो कि इस प्रकार है:--१ मच्छिमो, ५ सोच्छि. हिमो) ३ मांच्छिापामा, ४ सोच्छहामी, ५ सोधिहस्सा और ६ सोच्छिहित्था । इनमें सूत्र-संख्या ३.१७१ स मूल संस्कृत-धातु श्रु' के स्थान पर प्राकृत में मषिष्यत-काल के प्रयोगार्थ सोच्छ' रूप का आदेश. प्राप्त; ३-१५७ स प्राप्तांग सोच्छ' में 'स्थत अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भन्निध्यत-काल-वाचक त्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्रसंख्या ३-१६६ और ३.१६७ से क्रमशः भविष्य काल वाचक प्रत्यय 'ह, स्पा और हा की प्राप्नि; ३-१४२ से प्रथम रूप में भविष्यत-काल-वाचक प्राव्य प्रत्यय 'हि' का अश्वा स्लाफा अथवा 'हा' का वैवाहिक रूप से लोप, अन्त में सूत्र-संख्या ३-१४४ से उपरोक्त रीति से भविष्यन-अर्थ में प्राप्तांग सोच्छि, सोनिहि. सौछस्सा और सो, कलहा' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्रापश्य प्रत्यय 'मी' की प्राप्ति होकर श्रम से प्रथम चार रूप सोच्छिमी, सोच्छिामी, सोरिछस्सामी और सोच्छिहामी मिद्ध हो जाते हैं। पाँच और छठे रूप सोपिछहिस्सा तथा सोच्छिहिस्था' में मूल अङ्ग 'सो कत्र की प्रानि उप. रोक्त विधि-विधानों के अनुसार ही होकर सूत्र-संख्या ३-१६८ से भविष्यस काल के अर्थ में तृतीय पुरुष Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ い [ ३१४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * やいやりのなかからないから00000000 क बबहुचन के प्रभाव में कवल क्रम सं हिस्सा नया हत्था' प्रत्ययों की ही प्राप्तिकर एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्तभ्य प्रस्थयों का अभाव हो कर का से पाँचवाँ और छठा रूप 'सोच्छिहिस्सा और सोच्छिहित्था' भी सिद्ध हो जाते हैं। गमिष्यति मंस्कृत के भविष्यत-काव प्रथम पुरुप के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छद और गच्छहिई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१७९ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' व स्थान पर प्राकृत में भविष्यत् काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ' रूप की श्रादेश-पाति; ३-२५७ में प्राग गच्छ' में स्थित अन्स्य म्वर 'अ' कथान पर प्रागे भविष्यत् काल-वाचक प्रत्यय का सदुभाव हाने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३.६६ से द्विताय रूप में प्राप्तांग गन्छि' म भविष्यन काल के बोधनाथं हि' प्रत्यय को प्राप्ति, ३.१७२ से प्रथम-रूप में भावष्यत-काल बोध प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लोप और ३-१६६ से भविष्यत् काल के अथ में कम से प्राप्तांग 'गच्छि' और 'गन्हि ' में प्रथम - पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' को संप्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप गच्छिद और गाच्छहिड़' सिद्ध हो जाते हैं। गमिष्यन्ति स ऋत के भविष्यत् :काल प्रथम पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छन्ति और गछि हेन्ति होते हैं। इनमें भविष्यत काल के अर्थ में मूल अंग रूप 'गाँच्छ और गन्छि है' की उपरोक्त एकवचन के अथ में प्राप्तांग रूपों के समान ही होकर इनमें सूत्र-संख्या ३-१४२ से प्रथम पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्रत्रव्य प्रत्यय 'न्ति' को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप गच्छिन्ति और गच्छिहिन्ति सिद्ध हो जाते हैं। गमिष्यासे संस्कृत के भविष्यात काल द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूपगच्छिसि और गाकछ हिसि होते हैं । इनमें भविष्यत्काल अर्थक अंग रूपों की प्रानि प्रश्रम पुरुप के एकवचन के अर्थ में वर्णिन उपरोक्त सूत्र-संख्या ३-१७, ३.१५७, ३-१६६ और ३.७१ से जानना चाहिय; तत्पश्चान सूत्र संख्या ३-१४ से भविष्यतकाल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'गच्छ और गान्धहि' में द्वितीय पुरुप के एकवचन के अर्थ में प्रामन्य प्रत्यय 'मि' की प्रापि होकर मच्छिसि और गाछिहिसि रूम सिद्ध हो जाते हैं। गमिष्यथ संस्कृत के भविष्यत काल द्वितीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छित्था, गहि , गच्छिहित्या और गच्छहिह होते हैं। इनमें भविष्यात काल-योनक अंग रूप 'गच्छि और गच्छिाह' की प्राप्ति इसी सूत्र में कार बर्णित प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में कथित सूत्र-संख्या ३-१०१, ३-१५५; ३.२२६ और ३-१७२ से जानना चाहिये; तत्पश्चात सूत्र-संरूपा ३-१४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'गच्छ और गच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में कम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस्था और ह' को चारों अंगों में प्राप्ति होकर कम से चारों रूप गच्छित्था, गच्छिह, गच्छिहित्था और गच्छविह सिद्ध हो जाते हैं । इनमें इतनी और विशेषता Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत व्याकरण के घानना चाहिये कि प्रथम और तृतीय रूपों में इस्या' प्रत्यय को प्राप्ति होने पर सूत्र संख्या १.१० से अंग रूप 'च्छि और गच्छहि' में स्थित अन्त्य स्वर 'इ' के आगे प्राप्त 'इत्या' प्रत्यय में स्थित मादि स्वर' का सदभाव होने के कारण से लोप हो जाता है। गमिष्यामि संस्कृत के भविष्यत् काल तताय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गमिछमि, गच्छिहिमि, गच्छिम्मा म, गच्छिहामि, गच्चिस्म और गच्छं होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' के स्थान पर प्राकृन में भविष्यत काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ की आदेश-प्राप्ति, ३-१५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप नक प्राप्त प्राकृत-शब्द 'गच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत काल वाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' को प्रारित, ३-१६६ और ३-१६७ से द्वितीय रूपः तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक रोति से प्रामांग 'गच्छि' में भविष्यत्काल पापक प्रत्यय हि, मा, और हा' को कम से प्राप्ति; ३-५७२ से प्रथम रूप में भावव्यतकाल वाचक प्राप्तव्य प्रत्यय हिस्सा, अथवा हा' का लोप और ३-१४१ से भविष्यत् काल के अर्थ में कम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग गरिछ, गपिछ है, गच्छित्सा और गच्छहा में तृतीय पुरुष के एकत्रचन के अथ में प्राप्नव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम र रूप गलिमि.गच्छिहिमगच्छस्सीम भौर गच्छिहामि सिद्ध हो जाते हैं। गरिस में मूल प्रावत-अंग 'गच्छि' की प्रास उपरोक्त चार माँ में वर्णित विधि-विधाना. नुसार जानना चाहिये । तत्पश्चात् प्राप्तांग गांछ' में सूत्र संख्या ३.१६ से भविष्यत काल के अर्थ मे तृतीय पुरुष के एकवचन के मद्भाव म केवल 'स्म' प्रत्यय को ही प्राप्ति होकर शेष ममो प्रतदर्थक प्रायव्य प्रत्ययों का प्रभाव होकर पञ्चम प गरिस्सं सिद्ध हो जाता है। छ8 रूप 'गच्छं की सिदि सूत्र-मंख्या--१७१ में की गई है। गामच्यामः संस्कृत के भविष्यात काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप यहाँ पर केवन छ ही दिये गये हैं। जोकि इस प्रकार हैं:-- गच्छिमो, २ गच्छ. हिमो, ३ गच्छिासामो, ४ गमिडहामा ५ गच्छिहिमा और ६ गच्छिहित्था ! इनमें प्राकृत रूपांग 'गम्छि' को प्राप्ति इसी मूत्र में उपरोक्त तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित सूत्र संख्या ३.१७१ तथा ३-१५७ से जान लेना चाहिये; तत्पश्चात प्रारपांग 'गमिछ' में सूत्र संख्या ३.१६६ और ३- १७ से हिस्सा और हा' की क्रम में प्राप्तिः ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यात काल-वाचक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि अथवा स्सा अथवा हा' का लोप; और ३.१४ से भविष्यत काल के अर्थ में कम से प्रा: प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग 'गच्छि, गच्छिहि, गल्सिा और गांच्हा ' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर कम से प्रथम चार रूप 'गच्छिमी, गच्छिहिमो, गच्छिस्तामो और गस्छिहामी' सिद्ध हो जाते हैं। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * $$$$$$$$ $$ $ $$$$$$$$$$$$$$$*$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ गच्छिहिस्सा और ग[छहित्था में मृत अलगच्छि' की प्राप्ति उपरोक्त विधि-विधानों के अनु. सार ही होकर सूत्र संख्या ३-१६८ से भविष्यत काल के अर्थ म तृतीय पुरुष के बहुवचन के सदभाव में केवल क्रम से 'हिस्सा तथा हित्या' प्रत्ययों की हा प्रानि होकर एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्तव्य प्रस्थयों का श्रभाव होकर कम से पाँचवाँ तथा छट्ठा रूप गच्छिहिस्सा और गच्छिहित्था' भी सिद्ध हो जात है। ३-१७२. दु सु मु विध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् ॥३-१७३॥ विध्यादिप्वईषत्पन्नानामेकत्वर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दृ सु मु इत्यंत आदेशा भवन्ति । इसउ सा । हसरा तुम ! हसामु अई । पेच्छउ । पेच्छसु । पेच्छाम् ॥ दकारोच्चारणं भाषान्तरार्थम् ॥ अर्थः-मस्कृत में प्राप्तस्य श्राज्ञार्थक विधिअर्थक और श्री श.पर्थक-भाव के बोधक पृथक पृथक भत्यय पाये जाते हैं परन्तु प्राकृत-भाषा में उपरोक्त तीनों प्रकार के लकारों के प्रत्यय एक जैसे हो होते हैं; तदनुसार प्राकृत-भाषा में लत-लकारों के ज्ञानार्थ प्राप्तव्य प्रत्ययों का विधान इस सूत्र में किया गया है। प्राकन-भाषा के व्याकरण की रचना करने वाले विद्वान् महानुभाव उपरोक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में अलग-अलग रूप से प्राप्तव्य प्रस्थयों का विधान नहीं करके एक ही प्रकार के प्रस्थयों का विधान कर देते हैं। ऐसी परिस्थिति में वाचक अथवा पाठक की बुद्धि का ही यह क्तव्य रह जाता है कि वह समयानुसार तथा सम्बन्धानुसार विचार करके यह निर्णय करलें कि यहां पर क्रियापद में प्रदत्त लकार आज्ञार्थक है अथवा विधि-अर्थक है अथवा प्राषिर्थक है । इस सूत्र में उपरोक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य एकवचन-बोधक प्रत्ययों का क्रम से विधान किया गया है जो कि इस प्रकार हैं: प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में दु = उ' की प्राप्ति होती है। विर्ताय पुरुष के एकवचन के सभाव में 'मु' प्रत्यय श्राता है और तृतीय पुरुष के एकवचन के अस्तित्व में 'मु' प्रत्यय की संयोजना की जाती है । यो तीनों प्रकार के पुरुषों के एकवचन के सार्थ में उपरोक्त तीनों लकारों में से किसी भी लकार के प्रकटीकरण में क्रमश: 'च, सु, मु' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है । उदाहरण इस प्रकार हैं:-प्रथम पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः~सा हसतु अथवा सा हसेतु अथवा सा हस्यात हसड सा-वह हंसे । द्वितीय पुरुष के एकवचन का रष्टान्त:-स्वम् हस अथवा त्वम् हसतात; त्वम् हसेः, स्वम् हस्याः = तुम हससु-तुं स । तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः--अहम् इसानि; अहम् हसेयम् अहम् हत्यासम-ग्रह हमामु = मैं हसू। उपरोक्त लकारों के विधि-विधान की संपुष्टि के लिये दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:--प्रथम पुरुष के एकवचन का दृष्टांत(म) पश्यतु; (स) पश्येत; (स) दृश्यात=(स) पेच्छर = वह देखे। अथवा वह दर्शनीय बने । हिसीय Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण [ ३१७ ] .000+++++++0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पुरुष के एकवचन का दृष्टान्त:-.त्यम) पश्य अथवा (त्वम् ) पश्यतात; (स्वम् ) पश्ये:: (स्वम् ) दृश्याः = (तुम) पेच्छसु-तू देख; तू देखे अथवा तू दर्शनीय वन (अथवा तू दर्शनीय हो ; तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः -(अहम , पत्यानि; (अहम्) पश्येयम; (अहम) दृश्यासम् (हम) पेच्छामु-मैं देखू अथवा देखने योग्य बनें। लोट् लका का योग मुख्यत: 'आशा, निमंत्रण का उपदेश और पाशीर्वाद प्रादि प्रों में होता है। जबकि लिङ लकार का उपयोग 'सम्भव, श्राज्ञा. निवेदन, प्रार्थना, इच्छा. श्राशीर्वाव, श्राशा तथा शक्ति' आदि अर्थों में हुया करता है। प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तध्य प्रत्यय 'उ' है; परन्तु सूत्र में 'उ' नहीं लिखकर 'दु' का उल्लेख करने का तात्पर्य केवल उच्चारण की सुविधा के लिये है । जैसा कि यही 'अर्थ' सूत्र की वृत्ति में प्रदत्त भाषान्तराणम्' पद से अभिव्यक्त किया गया है। हसत, हसेन और हस्याच संस्कृत के क्रमशः श्राज्ञार्थक, विधि-अर्थक और आशीषर्थक के प्रथम पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप इस होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.१७३ से मूल प्राकृत धातु हस' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथम पुरुष के एकवचन के सदूभाव में प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसउ रूप सिद्ध हो जाता है। 'सा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-३ में की गई है। हस अथवा हसतातू, हसे और हस्याः संस्कृत के क्रमशः प्राज्ञार्थ क, विधि-अर्थक और प्राषिथ क के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक रूप हससु होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त प्राकृत धातु 'हम' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हप्त' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभावः में प्राकृत में 'मु' प्रत्यय का पप्ति कर हसमु रूप सिद्ध हो जाता हे। 'तुम' सर्वनाम को मिति सूत्र-संख्या ३-९० में की गई है। हसानि, हसेयम् और हस्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधि-अथक और श्राशीष. यक के तृतीय-पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापन के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप इसामु होता है। इसमें पत्र संख्या ४.२३६ से हलन्त प्राकृत-धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-१४३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसा' में उक्त टीनों लकारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सामु रूप सिद्ध हो जाता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। पश्यतु, पश्येन और दृश्यात् संस्कून के क्रमशः प्राज्ञार्थक, विधि-अर्थक, और प्राशोषक के प्रथम पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छर होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१८ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' रूप की श्रादेश प्राप्ति और ३.१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत-धातु पच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथम पुरुप के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल 'उ प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छउ रूप सिद्ध हो जाता है। पत्य, पश्यताम् पश्यः और दृश्याः संस्कृत के क्रमशः प्राज्ञाक, विधि-अर्थक और आशीषर्थक लिङ के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूपहैं । इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक रूप पेच्छसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५८१ से मुल संस्कृत धातु 'श' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ की श्रादश-प्राप्ति और ३.१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत-धातु 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकत्रचन के सद्भाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्रारित होकर पेच्छसु रूप सिद्ध हो जाता है । पश्यानि, पश्येयम् और दृश्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक विधि अर्थक और प्राशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्रकृत्त में समान रूप से एक ही रूप पेच्छाम होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'श' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' को श्रादेश-प्राप्ति; ३.१५५ से आदेश प्राप्त धातु 'पंन्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'पेक्छा' में उक्त तीनों लकारों के अर्ध में ततीय पुरुष के एक वचन के सदुभाव में प्राकन में 'मु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छाम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७३ ।। सोहिर्वा ॥ ३-१७४ ॥ पूर्व सूत्र विहितस्य सोः स्थाने हिरादेशो या भवति । देहि । देस् ॥ अर्थः-अाझाक अर्थात लोट-लकार के विधि-अर्थक अर्थात लि-लकार के और आशीप. थक-लिक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३.१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है, उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'हि' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है । इस प्रकार से प्राकृत भाषा में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में दो प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि इस प्रकार हैं:--(१) 'सु' और (२) 'हि' । मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है किन्तु वैकल्पिक स से इस 'हि' प्रत्यय की भी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकत उपाकरण * [३१६ ] Worerreroo000000000000000000000000000000000000000000000000000rrentionपर आवंश-प्राप्ति हुश्रा करती है । जैसे:-देहि. (- दत्तात); दद्याः और देयाः = देहि और वेसु-तू दे; तू देने वाला हो और तू देने योग्य (दाना) हो । इस प्रकार से अन्य प्राकृत-धातुओं में भी उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में सूत्र-संख्या ३-१७३ से प्राप्तध्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर हि' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति वैकल्पिक रूप से की जा सकती है। दहि, दत्तात, बघाः और देया संस्कृत के क्रमशः श्राज्ञाक, विधि अर्थक, और प्राय थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से दो रूप-देहि और देसु' होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ४.२३८ से मूल प्राकृत-धातु 'दा' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तत्पश्यात् प्राकृत में प्राcain 'दे' में क्रम से सत्र संख्या २-१५४ से तथा ३.१७३ से उक्त तीनों प्रकार के कारों के द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सदभाव में क्रम से 'हि' और 'सु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर देहि' और 'सु' रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३-१७४॥ अत इज्ज स्विज्ज हीजे-लुको वा ॥३-१७५ ।। अकारात्परस्य सोः इज्जसु इज्जहि इज्जे इत्येते लुक् च श्रादेशा वा भवन्ति ।। हसे. ज्जसु । हसेन्जहि । हसेज्जे । हस । पक्षे । हससु । अत इति किम् । होसु ।। ठाहि ।। अर्थः-श्राज्ञायफ, विधि अर्थक और श्राशीप क के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-९७३ में जिस 'सु प्रत्यय का विधान किया गया है उम प्राप्तध्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर केवल अकारान्त धातुओं में ही बैकल्पिक रूप से 'इन्जसु अथवा इनहि अथवा इंजे' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति हुना करती है। इस प्रकार से प्राकृत भाषा में उक्त ल कारों के द्वितीय पुरुष के एकत्रचन के सद्भाव में केकल अकारान्त धातुओं में धार प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि इस प्रकार है:-(१) 'सु', (२) इजसु; (३) इजाह और (४) इज्जे । मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है। किन्तु वैकल्पिक रूप से इन सोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय का कभी कभी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान पा आधेश-प्राप्ति हो जाती है । कमो कभी ऐमा भी देखा जाता है कि उपरोक्त चारों प्रकार के प्रत्ययों में से किसी भी प्रकार के प्रत्यय की सयोजना नहीं होकर अर्थात उक्त प्रत्ययों का मर्वथा लोप होकर केवल मूल प्राकृत धातु के अविकल रूप' मात्र के प्रदर्शन से अथवा बोलने से उक्त लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'भावाभिव्यक्ति' अर्थात् सा अर्थ प्रकट हो जाता है। इस प्रकार से उन्नत शार प्रकार के प्रत्ययों के अतिरिक्त्त 'प्रत्यय लोप' पाला पाँचवाँ रूप और जानना चाहिये। यह स्थिति केवल अकारान्त धातुओं के लिये ही जानना चाहिये । उदाहरण इस प्रकार है:-(स्वम् ) हम अथवा हसतात (स्वम् ) इसे और ( त्वम् ) हस्या: = ( तुमं) हसेनसु, इसबाह, हसंम्जे और हस । पक्षान्तर में हससु' भी होता है। इन सभी रूपों का यही हिन्दी अर्थ है कि-(तू) हँस; (तू) हंसे और (तू)हमने वाला हो। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३२० । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * morno.00000000000000trootooseroserossworrrrrrseon600000000000000mari प्रश्न:- केवल अकारान्त धातुओं के लिये हो ही उपरोक्त चार प्रत्ययों का वैकल्पिक विधान क्यों किया गया है ? अन्य स्वरान्त धातुओं में इन प्रत्ययों की संयोजना का विधान क्यों नहीं किया गया है? उत्तरः-चूँकि प्राकृत भाषा में अकारान्त धानों के अतिरिक्त अन्य स्वशन्त-धातुओं में उक्त लकारों से सम्बन्धित द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ का अभिव्यक्ति में केवल क्षे प्रत्यय 'सु' और 'ह' की शप्ति ही पाई जाती हैं; इसलिये परम्परा के प्रतिकूल विधान करना अनुचित एवं शुद्ध है। इसी दृष्टिकोण से केवल अकारान्त-धातुओं के लिये ही उपरोक्त विधान सुनिश्चित किया गया है। अन्य स्वसन्त धातुओं के उदाहरण इम प्रकार हैं:-(स्त्रम् ) भत्र अथवा भवतात (त्वम् ) भवेः और (स्वम् ) भूया: = (तुम) होमु - तू हो अथवा तू हो वे अथवा तू होने योग्य हो । दूसरा उदाहरण इस प्रकार हैं:(त्वम् ) तिष्ठ अथवा तिष्ठतात; (स्वम् ) तिष्ठ और ( स्वम् ) तिष्ठया: = ( तुम ) ठाहि = तू टहर; तू श्रीर तूं हरने योग्य हो। इन १६ हरणां दी गई धातुएँ 'हा' और ठाक्रम से ओकारान्त और श्राकारान्त हैं; इसलिये सूत्र-संख्या ३-७५ कं विधि-विधान से अकारान्त नहीं होने के कारण में वक्त तीनो लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में अकारान्त धातुओं में प्रामध्य प्रत्यय 'इज्जसु. इजाहि, इन और लुक' की प्राप्ति इनमें नहीं हो सकती है। इसलिये या सिद्धांत निश्चित हुया कि केवल अकारांत धातुओं में ही उक्त चार प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं; अन्य स्वरान्त धातुओं में ये चार प्रयन्य नहीं जोड़े जा सकते हैं। हस अथवा हसतात इसेः और हस्याः सांकृत के क्रमशः प्रामार्थक, विधि-अर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद क म.प हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से यहाँ पर पाँच रूप दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-( हसं जसु, (२) हसजहि, (३) हसज्जे, (४) हम और (५) हप्तसु । इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र संख्या ५-१० सं मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के श्रागे प्रामध्य प्रत्यय 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे में आदि में'इ' स्वर का सदुभाव होने के कारण से लोप; ३६४५ से प्राकृत में प्राप्त हलन्तांग 'हस' में खत तीनों लकरों के साथ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में प्राकृत में कम से 'इज्जसु, इज्जहि और इले प्रत्ययों की प्राप्ति और ... हलन्त-अंग हम्' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्ययों की संधि होकर हसेजमु इसेन्जाह और हसेजे रूप सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप 'हस' में मूल अकारान्त धातु 'हम' के साथ में सूत्र-संख्या ३.१७५ के उक्त प्रामव्य प्रत्ययों का लोप होकर उल्लिखित लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुप के एकवचन के संदर्भ में 'हस' रूप सिद्ध हो जाता है। पाँचवे रूप 'हस' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७ में की गई है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ ३२१ ] amoorrowsersrroretorrewwwsewwwesentertersnewwwwwwsresosorrotestion भव अथवा भवतात, भषे और भूयाः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधि अर्थक, और प्राशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के पकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन मभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूम क्षेसु होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू = भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश-प्रानि और ३-१७६ से प्राकृत में श्रादेश-प्राम धातु-अङ्ग 'हो' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय- पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'सु' प्रत्यय को प्राप्त होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप होसु सिद्ध हो जाता है। तिष्ठ अथवा तिष्ठत्तात् तिष्टेः और तिष्ठयाः संस्कृत के क्रमशः प्राज्ञार्थक, विधि-अर्थक और माशीषर्थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन मभी रूपों के स्थान पर प्राकृत म समान रूप से एक ही रूप ठाहि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१ . से मूल संस्कृत-धातु 'स्था = तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की श्रादेश-प्राति और ३.१७४ से प्राकृत में आदेश-प्रान धातु अन्न 'ठा' म उक्त नानों लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठाहि' रूप सिद्ध हो जाता है । ६-१७५।। बहुषु न्तु ह मो ॥ ३ -१७६ ॥ विक्ष्यादिपूत्पन्नानां बहुष्यर्थेषु वर्तमानानां त्रयाणां त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं न्तु ह मो इत्येते आदेशा गवन्ति ॥ न्तु । हसन्तु । हसन्तु हसेयुर्वा ॥ ह । हसह । हसत । हसेत वा ॥ मो । हसामो । हसाम । इसेम वा ॥ एवं तुरन्तु । तुवरह । तुवरामी ।। अर्थ:-संस्कृत में प्राप्त श्राज्ञार्थक, विधि अर्थक और श्राशीपर्थक के प्रथम-द्वितीय और तृतीय पुरुष के द्विवचन में तथा बहुवचन में जो प्रत्यय धातुओं में नियमानुसार संयोजित किये जाते हैं; उन प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में जिन-भादेश प्रान प्रत्ययों की उपलब्धि है; उनका विधान इस सूत्र में किया गया है। तदनुसार प्रात-धातुची मे उक्त लकारों के अथ में प्रथम-पुरुष के बहुवचन में 'न्तु' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होती है। द्वितीय पुरुप के बहुवचन में 'इ' प्रत्यय का सद्भाव होता है और तृतीय पुरुष के बहुवधान में 'मो' प्रत्यय का आदेश-भाव जानना चाहिये । यों हीनों लकार के द्विवचन के तथा बहुवचन के प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक एक प्रत्यय की ही क्रम से 'न्तु, ह और मो' को प्रथम पुरुष में द्वितीय पुरुष में और तृतीय पुरुष में प्रादेश-प्राति जाननी चाहिये । इनके क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं: - 'न्तु' प्रत्यय का सदाहरणः-हसन् हसेयुः और हस्यासुः = इसन्तु-वे हँसे; वे हँसते हें अथवा पे हँसने योग्य हो । द्वितीय पुरुष के बहुवचनार्थ-प्रत्यय 'ह' का उदाहरण:-हसत; हसेत और हस्यास्त हसह-माप मो; भाप इसे और भाप हँसने योग्य हो । तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थक प्रत्यय 'मो' का Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२२1 पियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * やかでいいからできるのですから दृष्टान्तः-हसाम; इसेम और हस्यास्म-हसामां-हम हमें; हम हँसते रहें और हम हँसने योग्य हो । संस्कृत म इस' धातु परस्मैपदी है, सदनुसार उपरोक्त उदाहरण परमपदी-धातु का प्रदर्शित किया गया है। अब 'वर -जल्दी करमा धातु का उदाहरण दिया जाना है; यह धातु पात्मनेपदीय है । प्राकृत में परस्मैपदी और प्रात्मनेपदी जैसा ध तु-भेद नहीं पाया जाता है। अतएव संस्कृत में जैसे परस्मैपदी-अर्थक प्रत्यय भिन्न होते हैं और श्रात्मनेपदी-अर्थक प्रत्यय भी भिन्न होते हैं। वैसी पृथकता प्राकृत में नहीं है। इमा तात्पर्य-विशेष का बोध कराने के लिये मस्कृतीय आत्मनेपदी धातु का उदाहरण ग्रंथकार वृत्ति में प्रदान कर रहे हैं। प्रथम पुरुष के बटुवचन का उदा:-त्वरन्तामः लरेरन और वरिन = तुवरन्तुचे शीग्रता करें; वे शीघ्रता करते रहें और वे शभ्रता फरने योग्य हो । द्वितीय पुरुष के बहुवचन का उदाहरण्य-स्वरभ्वमत्वरेश्चम् और त्वरिषश्चम-तुवरह-आप जल्दी करो; आप जल्दी करें और आप जल्दी करने वाले हों तृतीय पुरुप के बहुवचन का उदाहरण:-वरामद; स्वरेमहि और स्त्ररिपीमादि तुबरामो हम शी प्रता करें; हम शीघ्रता करते रहें और हम शीघ्रता करने वाले हो । इस प्रकार प्राकृतभाषा में आज्ञार्थक, विधि-अर्थक और श्राशीषर्थक लकारों के बहुवचन में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीयपुरुष के अर्थ मे मशः समान रूप से न्तु. ह और मो' प्रत्यय का सद्भाव जानना चाहिये । प्राकृत में परस्मैपदी और श्रात्मनेपदी जैसे धातु-भेद का अभाव होने से प्रत्यय-भेद का भी अभाव ही होता है। हसन्तु, इसेयुः और हस्यासुः संस्कृत के प्रमशः अाज्ञार्थक, विधि-अर्थक और श्राशोषर्थक प्रथम पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदीय क्रियापद के रूप है । इन ममा रूषों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हमन्तु मोना है । इममें मूत्र संख्या ४.३६ से प्राकृत हलन्त धातु 'हम' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.७६ मे प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में प्रथम पुरुष के बहुवचन के मद्भाव में प्राकृत में 'न्तु' प्रत्यय की प्रामि होकर इसन्तु रूप मिद्ध हो जाता है। हसत. हसत और हस्यास्त संस्कृत के का शः श्रासार्थक. विधि अर्थक, और श्राशीपर्थक के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परम्मैपदी क्रियापद के रूप है । इन सभी रूपों के स्थान पर पाकृत में समान रूप से एक ही रूप 'सह होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त प्राकृत-धातु 'हस' में विकरण अन्य 'अ' की प्राप्ति और ३-०६ से प्राकृत में प्रातांग 'हप्स' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अथ में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के मदभाव में प्राकृत में केरल एक ही प्रत्यय 'ह' की प्राप्ति होकर 'हरू ह' रूप मिल ही जाता है। हसाम, हसेम और हस्यास्म संस्कृत के मशः उपरोक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय - पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप हैं । इन सभी रूपों के स्थान पर माकृत में समान रूप में एक ही रूप हसामो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से हलन्त प्राकृत-धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३.१४४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३.१७६ से Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण . [ ३२३ ] Roomooooooroscook.000000000mmssoonrscoortoonsorresor00000wstraram प्राकृत में प्राग हमा' में उक्त तीनों प्रकार के कारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय मो' भी प्रााम होकर हसामो हप सिद्ध हो जाता है। स्वरस्ताम, वरेरन और त्वरिषीरन सस्कृत के मशः उक्त दानो लकारों के प्रथम पुरुष के बहुवचन के अवर्मक याम नेपः क्रियापद के रुप हैं । इन मभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुरन्तु होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-१५० से मूल संस्कृत धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'सुवर' की श्रादेश प्राप्ति और ३.७६ में उत तीनों लकारों के प्रथम पुरुष के बहुवचन के सभाव मे प्राकृत में ग्रानाग 'सुबर' में 'न्तु प्र-यय की प्रामि होकर तुवरन्तु रू; सिद्ध हो जाता है। स्वरध्वम्, स्वरघम् और त्वरिषीवम् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक प्रात्मनेपदी क्रियापर के रूप हैं। इन सभी रूपों क स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुबारह होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१५० से मूल संस्कृत-धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'घर' की आदेश-प्राप्ति और ३.१७६ से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत म प्राग 'तुबर' में 'ह' प्रःयय की प्राप्ति होकर तुघरह रूप सिद्ध हो जाता है। विरामहै, त्वरेमहि और वरिषीमहि संस्कृत के क्रमशः उक्त तोनों प्रकार के लकारों के तृनाय पुरुष के बहुवचन के अकमक अात्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में भमान रूप से एक ही सप तुवामा होना है। इसमें सूत्र संख्या ५-१७० से मूल संस्कृत-धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर का आदेश प्राप्ति; ३- ५५ से प्रदेश प्राप्त धातु अङ्ग 'तुवर' में स्थित अन्त्य स्वर 'चा' क स्थान पर आगे 'मो' प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'श्रा' की प्राप्ति और ३.१७६ से साम प्राकृत अंग 'तुवरा' में उक्त तीन प्रकार के लकारों के तृताय पुरुष के बहुवचन के अध में प्राकृत में 'गो प्रत्यय की प्राम होकर तुवरामो पलित हो जाता है। ३-१७६।। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा बा ॥३-१७७॥ ___ वर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विध्यादि पु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्न ज्जा इत्येता. वादेशी घा भवतः । पई यथा प्राप्तम् ।। वर्तमाना । हसेन्ज । हसेज्जा । पढेज्ज । पढेजा । सुणेज्ज । सुणेज्जा ॥ पञ्। हसह । पढइ । सुणइ ।। भविष्यन्ती ! पढेज | पहेजा। पक्षे । पहिहिह ॥ विध्यादिषु । हसेज्ज । हसिना । हसतु । हसेद्वा इत्यर्थः । पक्षे । हमउ ।। गर्व सर्वत्र । यथा तृतीयत्रये । अइयाएज्जा । अइवायावेज्जा । न समणु जाणामि । न समणु नागोज्जा वा ॥ अन्येत्वन्यासामपीच्छन्ति । होज्ज । भवति । भवेत् । भवतु । अभवन् । अभूत् । बभूव । भूयात् । भविना । भविष्यति । अभविष्यद्वत्यथः ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moor.0000000000000000000rsovotrorestronomrossdrensoo.0000000000000 अर्थ:-प्राकृत-भाषा में वर्तमानकाल क; भविष्यतकाल के; माज्ञार्थक; विधि-अर्थक और श्राशीषधक के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में प्रामध्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज और ब्ला' प्रत्ययों की श्रादेश-प्राप्ति हुश्रा करती है और इस प्रकार ask er या ज्जा' प्रत्यय की ही संयोजना कर देने से उक्त लकारों के किसी भी प्रकार के पुरुष के किभी भी वचन का अर्थ संदर्भ के अनुसार उत्पन्न हो जाता है। यह स्थिति वकल्पिक है। अतपत्र पक्षान्तर में उक्त लकारों के अथ में कहे गये प्रत्ययों की प्राप्ति भी यथा-नियमानुसार होती ही है। वर्तमानकाल का हटान्त इस प्रकार है:-हसति, ( हसन्ति, हसास, इसथ, हसामि और हसामः) = हसेज और हसंज्जा = पक्षान्तर में-हसह (इसप, हसन्ति, हसन्ते, हसिरे, हससि, हससे, हसिस्था, हसह, हमामि, हप्तामो, हप्तामु और हमाम )= वह हँसता है; ( वे हँसते है; तू हँसता हे. तुम हंसते हो; मैं हँसता हूं और हम हँसते हैं। दूसरा उदा. हरण:-पठति-( पठन्ति, पठास, पठथ, पठामि और पठामः ) - पढेल और पढे जा-पक्षान्तर में-पढ; ( पढ़ए, पढन्ति, पढन्से, पांढरे, पदसि, पढसे, पढिस्था, पढह, पढामि, पढामो पढामु और पढाम )-वह पढ़ता है; ( वे पढ़ते है; तू पड़ता है। मुम पढ़ते हो; मैं पढ़ता हूं और हम पढ़ते हैं )। तीसरा उदाहरण:श्रृणोति- श्रृण्वन्ति, श्रृणोषि, श्रृणुथ, श्रृणोमि, और श्रृणुमः श्रथया श्रृण्म: )- सुरणेज्ज अथवा सुणेज्जापक्षान्तर में सुण; ( सुरणप; सुगन्ति, गुणन्त, सुणिरे, सुसि, सुणसे, सुणिस्था, मुगाह, सुणामि, सुणामो, सुरणामु और सुणाम ) वह मुनता है; (घे सुनते हैं; तू सुनता है; तुम सुनते हो; मैं सुनता हूं और हम सुनते हैं। भविष्यत-काल का बदाहरण इस प्रकार है:–पठिष्यति-(पठिष्यन्ति, पठिष्यसि, पठिप्यध, पठिध्यामि और पठिष्यामः ) = पढेज्ज और पढेज्जा; पक्षान्तर में पढिहिद (पढिहिए, पढिहिन्ति पढिाहन्ते पढिहिरे, पढिहिमि, पढिहिस; पाहत्था, पढिहिह. पढिाहमि, पडिहिमो, पढिहिमु, पढिहिम ) = वह पढ़ेगा (चे पड़ेंगे, तू पढ़ेगा, तुम पढोगे; मैं पढूंगा और हम पढ़ेंगे )। मानार्थक और विधि-अर्थक के मशः उदाहरण इस प्रकार हैं:-हसतु-हमतात ( हसन्तु; हस-हसतात और हसत; इसान तथा हसाम } तथा हसेस (हसंयुः: हसेः और हसेत; हसेयम् तथा हसेम )- इसेज और हसिजा अथवा हसेंजा पक्षान्तर में हस3 ( हसन्तु; हम्सु तथा हसह; सामु और और हसामो ) - वह हँसे; ( व हस; तू हेस तथा तुम हो, मैं हँसू और हम हसें ); वह हंसता रहे; { व हंसते रहें; तू हंसती रह तथा तुम हँसते रहो; मैं इंसता रहूं और हस हससे उन्हें ) । यो क्रम से लोट लकार के तथा लि लकार के 'न-जा' प्रत्ययों के साथ में प्राकृत रूप जानना चाहिये । यही पद्धति अन्य प्राकृत धातुओं के सम्बन्ध में भी 'न अथवा जा' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर वर्तमानकाल, भविष्यसकाल, आज्ञार्थक लकार और विधि-अर्थक लकार के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के सद्भाव में समझ लेना चाहिये । इसी तात्पर्य को समझाने के लिये पुन: दो उदाहरण कम से और दिये जाते हैं:-श्रतिपातयति { अतिपातयति अतिपातयसि, अतिपातयथ, अतिपातयामि और अति Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३२५ ] पालयामः )= अवाएजा और अइवायावेज्जा = वह उल्लंघन कराता है; (वे उल्लंघन कराते हैं; तू पल्लंघन करता है तुम उल्लंघन कराते.हो; मैं उल्लंघन कराना हूँ और हम उल्लंघन कराते है)। इस प्रकार से प्राकृत क्रियापद के रूप 'अहवाएजज और इवायावेज्जा' का अर्थ वर्तमानकाल के प्रेरणार्थक भाव में किया गया है। किसी भी प्रकार का परिवर्तन किये बिना इन्हीं प्राकृत क्रियापद के रूपों द्वारा भविष्यकाल के, श्राज्ञार्थक लकार के और विधि प्रर्थक लकार के तानों पुरुषों क दोनों वचनों में भी प्रेरणार्थ भाव की अभिव्यञ्जना उपरोक्त वर्तमानकाल के समान ही की जा सकती है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:--न समनुजानामि = न ममरगुजाणामि अथवा न समगुजाणज्जामैं अनुमोदन नहीं करता हूँ अथवा मैं अच्छा नहीं मानता हूं। इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि वर्तमान काल के तृतीय-पुर, ३ को .. ६. व दान के प्रा. .:५य ' मिसान पर मा प्रत्यय की श्रादेश-प्राजि हुई है गपकार इस प्रकार की विवेचना करके यह सिद्धान्त निश्चित करना चाहते हैं कि प्राकृत-भाषा में वर्तमानकाल के, भविश्यकाल के, प्राज्ञार्थक के और विधि अर्थक के नान पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में धातुओं में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज अथवा जा' इन दो प्रत्ययों को मैकल्पिक रूप से धादेश प्राप्ति होती है। प्राकृत भाषा के अन्य वैयाकरण विद्वान यह भी कहते हैं कि संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले काल-वाचक दश ही लकारों के तोनों पुरुषों के सभी प्रकार के वचनों के अर्थ में प्राप्तम्य कुज ही प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'ज अथवा जा' प्रत्यय की संयोजना कर देने से प्राकृत-भाषा में वक्त लकारों के सभा पुरुषों के इष्ट-वचन का तात्पयं अभिव्यक्त हो जाता है। इस मन्तव्य का संक्षिप्त तात्पर्य यहा है कि धातु में किमी भी काल के किसी भी पुरुष के किसी भी वचन में केवल जज अथवा जा' प्रत्यय को जोड़ देने से उक्त काल के वक्त पुरुष के उक्त वचन का अर्थ परिस्फुटन हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:भवति, भवन , भवतु. अभवन, अभून बभूव, भूयान, भविता, भविष्यति और अभविष्यत होऊज = वह होता है, वह होवे; वह हो; वह हुआ, वह हुआ था; वह हो गया था; वह होने योग्य हो, वह होने वाला हो, वह होगा और वह हु प्रा होता । इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि प्राकृत के क्रियापद के कप 'हो' से हा किसी भी लकार के किसी भी पुरुष के किसी भी वचन का अर्थ निकाला जा सकता है। प्राकृत भाषा में यों केवल दो प्रत्यय ही 'जन और जा सावालिक और मात्रानिक तथा सार्वपौरुषेय हैं । किन्तु ध्यान में रहे कि यह स्थिति वैकल्पिक है। हसति, हसन्ति, हससि, हसथ, हसाम ओर हसामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन के और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृन रूप समान रूप से एवं समुकचय रूप से इसेज और इसेमा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-२३६ से मूल प्राकृतहलन्त धातु इस' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्रान्ति; ३.९५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे प्राप्त प्रत्यय ज और जा' का सदभाव होने के कारण से 'ए' की प्राप्ति और ३.१७७ से प्राप्तांग 'इसे' में उक्त वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में प्राप्तम्य सभी संस्कृतीय प्रत्ययों के Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२६ ] * वियोदय हिन्दी प्रारूप सहित * स्थान पर प्राकृत में कम से 'ज्ज्ञ और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति शेकर कम इसेज्जा सिद्ध हो जाते हैं। 001 दोनों रूप हसेज और पठति, पठन्ति पठारी, पठथ, पठमि और पठान: संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के कमशः एकवचन के और बहुवचन के सकर्मक क्रिया के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समुच्चय रूप से पढेज्ज और पढेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २.१६६ से मूल संस्कृत धातु 'पठ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'टू' के स्थान पर 'द' की प्राप्तिः ४ २२६ से प्राप्त हलन्त 'कृत धातु 'पढ' में बिकरण प्रत्यय 'थ' की प्राप्ति ३. ९५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राप्तांग 'पढे' में वर्त मानकाल वाचक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल ' और जा' प्रत्ययों की क्रमशः प्राप्ति होकर 'पढेज और पढेजा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। शृणीति, शृण्वन्ति, श्रोष भृथ शृणोमि और धमः संस्कृत के वर्तमानकाल के लीनों पुरुषों के क्रमश: एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से और समुच्चय रूप से सुरोज्ज तथा सुज्जा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-३६ से संस्कृत में प्रत त्रिकरण प्रत्यय सहित पञ्चमीय धातु श्रंग 'श्रुनु' में स्थित '' के 'र' व्यञ्जनका लोपः १-२६० से लाप हुए र व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए शु' में स्थित तालव्य 'श' के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स' को की प्राप्ति; १-२२६ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ४-०३८ से प्राप्त सु ́ में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर '' की प्राप्ति २-१४६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'सुण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-९०७ से प्राप्तांग 'भुणे' में वर्तमान-कालिक समी पुरुषों के सभी बच्चनों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृतिीय सभी प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल से प्रत्यय ही 'ज्ज तथा ज्जा' को क्रम से प्राप्ति होकर सुख और सुणेच्या रूप सिद्ध हो जाते हैं । 'हम' क्रियापद की मिद्धि सूत्र संख्या ३-१३९ में की गई है। 'पढ' यापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९९ में का गई है। शृणोति संस्कृत के वर्तनानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुणइ होता है। इसमें 'ग' 'यंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपरोक्त रीति अनु द्वार; तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-१३३ से प्राप्तांग सु' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्ययति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप सुमह सिद्ध हो जाता है। पठिष्यति पठिष्यन्ति पठिष्यास, पठिष्यथ, पठिष्यामि और पठिष्यामः संस्कृत के भवि यत काल के तीनों पुरुषों के मशः एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इसके में प्राकृत रूप समान रूप से पढे तथा पन्जा होते हैं। इनमें प्रारूप 'पढें' की प्राप्ति इसी सूत्र * Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * प्राकृत व्याकरण [ ३९७ ] "40000000sepatoss+for+000000000000000000000000000000000000•riवर्णित उपरोक्त राति अनुसार तत्पश्चात्त सूत्र-संख्या ३.१७५ से प्राप्तांग पढे' में भविष्यन-काल के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्राप्तध्य संस्कृतीय सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'जन तथा इजा' की क्रम से प्राप्ति होकर पढेज्ज तथा पढेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं। पठिष्यति संस्कृत के भविष्यत् काल के प्रथम पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढ हेइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ६.१६ से मूल संस्कृत हलन्त धातु 'पठ्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्तिः ४२३६ से प्रान प्राकून धातु 'पद् के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ढ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्रामि; ३.१५७ से प्रान बिकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की मानि; ३.१६ से प्राप प्राकृत धातु अन्न पढि' में भविष्यनकाल बोधक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३६ से भविष्यत् अर्थक प्राप्तांग 'पदि इ में प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाहिद कमिद्ध हो जाता है। हसत हसतात, हसन्तु; हस हसतात; हसत हसानिः हसाम और हसे, इसेयुः, हसे:, होत; हसेयम्, हसम, संस्कृत के प्राज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग अर्थक तीनों पुरुषों के एकवचन के नथा बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृन रूप समान रूप से घऔर समुख्य रूप से हसेज तथा हभिजा (अथवा इसेज्जा) होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५६ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थिन अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति; तथा द्वित्तीय रूप में ४-२२८ से उक्त 'अ' के स्थान पर'' की प्रादि यो क्रम से प्राय 'हसे औ. इसि' म सूत्र संख्या ३-१५५ से श्राज्ञार्थ और विधिलिक के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के प्रथम प्राध्य संस्कृतीय पर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल वो प्रत्यय 'ज्ज तथा जा' का हा कम से प्रारम होकर हसज्ज हसिज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं। इसउ' क्रियापद रूप फी निद्धि सूत्र-संच्या ३-१७ में की गई है। अतिपातयति, अतिपातयन्ति , अतिपातयति, अतिपातयथ, अतिप्राप्तयामि और आतिपातयामः संस्कृत क बतमानकाल के प्रेरणार्थक क्रियावाले तीनों पुरुषों के क्रमशः दोनों वचनों के सकर्मक क्रियापद के रू हैं। इन प्राकृत-रूप नमान से अवारजा और अइवायावेजा होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-१७७ से मूल संस्कृत धातु 'अतिपन्' में स्थित श्रम 'त' का लोप; १-२३६ से 'प' के स्थान पर 'ब' का प्रमात्र ३-१५३ से प्रेरणा मात्र के अस्तित्व के कारण से प्रात व्यञ्जन 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति ४-२३६ से संस्कृत को मूल धातु 'अतिपन्' के अन्त्य हलन्त व्यखन 'त' में विकरण प्रस्थय 'अ' की प्राधि; १-१७७ से वक्त प्राप्त धन्यत' का पुनः लोय; १.८० से लोप हुए 'त' क पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को बैकल्पिक रूप से मतिः ३-१५६ से प्रथम रूप में लोपहर 'स' के परवात शेष रहे हुए 'म के स्थान पर 'य' का प्राप्ति नहीं होकर 'ए' की प्राप्ति, ३.१४६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' में प्रेरणार्थक भाव के अस्तित्व में 'श्रावे' प्रत्यय को प्राप्ति, १-५ से द्वितीय रूप मशालोग 'वाय' के साथ में प्राप्त प्ररवय 'बाये का संधि होकर 'प्रवाया की प्राप्ति; अत Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * most+00000000000000000000000rstronoconor+or+00000000000000000000000m में सूत्र-संख्या ३-१७७ से कम से प्राप्तांग 'अइवाए' और 'प्रश्चायावे' में वर्तमानकाल-वाचक तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में प्राप्तव्य संस्कृतोय सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में कंवल 'जा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अड्याएज्जा और अइयायावेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'न' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। समनुजानामि संस्कृत के वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन काम कर्मक क्रियापद का रूप है । दमक प्राकृत साजरामि और समाजागोजा होने है। इनम मूत्र संख्या :-२२ से दोनों ही 'न' के स्थान पर 'रण' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्रथम रूप में प्राप्तांग 'समणु जाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राति और ३-१४१ से प्रथम रूप वाले प्राय 'समणु जाणा' में वतमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय को प्रानि होकर प्रथम रूप समणुजाणामि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१५६ से प्राग 'समगुनाण' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति तत्पश्चात प्रामात 'समगुजाणे' में सूत्र-पंख्या ३-१४७ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्रामध्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'जा' प्रत्यय की प्रानि होकर द्वितीय रूप समणुजाणेज्जा भी सिद्ध हो जाता है। 'वा' प्रन्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। भवति, मयेन, भवतु, अभवत, अभूत, प्रभूध भूयात्, भविता, भविष्यति. और अभावि. ध्यन संस्कृत के क्रमशः लट, लि, लोट, लङ, लुङ, लिट, लिछ । (आशिषि), लुट्, लद और ला. लकारों के प्रथम पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर समुचय रूप से प्राकृत में एक रूप होज होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत में प्राप्त धातु 'भु-मय के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अग-रूप को प्राप्ति ओर ३-२७७ की वृत्ति से उक्त दश ही लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृतीय सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज' प्रत्यय की ही प्राप्त होकर उक्त दशलकारों के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत-.ियापद का रूप 'होज' सिद्ध हो जाना है। ३-१७७॥ मध्ये च स्वरान्ताद्वा ॥३-१७८।। स्वरान्ताद्धातोः प्रकृति प्रत्यययोमध्ये चकारात् प्रत्ययानां च स्थाने ज्ज उजा इत्येनीवा भवतः वर्तमाना भविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च ॥ वर्तमाना । डोज । होजाइ । होज । होज्जा । पक्षे ! होई ॥ एवं होज्जसि । होज्जासि । होउन । होना ॥ पक्षे । होसि इत्यादि ।। भविष्यन्ति । होज्जहिइ । होजाहिए । होज्ज । होज्जा । पक्षे । होहिइ ॥ एवं होन्जहिसि । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २० प्राकृत व्याकरण [ ३२६ ] 406+++breastorboro00000000000000000000000000000 होनाहिसि । होज्ज | होज्जा । होहिसि । होजहिमि । होजाहिमि । होज्जस्मामि । होज्जहामि । होज्जर्स । होज्ज । होज्जा । इत्यादि । विध्यादिषु । होजउ । हाज्जाउ । होज्ज । होज्जा । भवतु भवेद्वेत्यर्थः । पञ्। होउ ।। स्वरान्तादितिकिम् । हसेज्ज । हसेज्जा । तुवरेज्ज तुवरेज्जा ।। ____ अर्थः-प्राकृत-भाषा में जो स्वरान्त धातुई हैं, उन स्वरान्त धातुओं के मूल अंग और संयोजित किये जानेवाले वर्तमान काल के, भविस्यन काल में सार्थक पौर विधि-अर्थक के प्रत्यय इन दोनों के मध्य में वैकल्पिक रूप से उन अथवा ना का प्राप्ति (विकरण प्रत्यय जैसे रूप से ) हुश्रा करती है। कभी-कभी एसा भी होता है कि वर्तमानकाल कं, भविष्यत काल के, श्राज्ञार्थक और विधि अर्थक के बोधक प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज अथवा जा' की श्रादेश-प्राप्ति भी हुआ करती है। निष्कर्ष रूप से वक्तव्य यह है कि बगन्त धातु और उक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तध्य प्रत्ययों के मध्य में जज अथवा जा' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है । तथा कमी कसी क लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य सभी प्रकार के पुरुष बाधक तथा सभी प्रकार के घचन बोधक प्रत्ययों के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा जा' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उक्त लकारों से सम्बन्धित उदाहरण कम से इस प्रकार हैं; सर्व-प्रथम वर्तमानकाल के उदाहरण दिये जा रहे हैं:- भवति होज्जइ, होज्जा होज तथा होज्जाः कल्पिक-पक्ष होने से पक्षान्तर में हाइ' भी होता है । भतिज्जसि, होज्जासि; होज्ज तथा होना; वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'होस' भी होता है। उपरोक्त दोनों उदाहरण क्रम से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के तथा द्वितीय पुरुष के एकवचन के हैं। अत्र भविष्यकाल के उदा. हरण प्रदर्शित किये जा रहे हैं। भविष्यति होज्जाहा, होज्जाहिद, होज्ज तथा मज्जा । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने के कारण से. पक्षान्तर में 'होहिई रूप भी होता है । इनका हिन्दी अर्थ होता है वह होगा अथवा वह होगी। दूसरा उदाहरण भविष्यप्ति हो जहिसि, होज्जाहिसि, होज्ज तथा होज्जा । धैकल्पिक पक्ष होने से पक्षाम्सर में होशिस रूप का भी सदभाव होगा । इनका हिन्दी अर्थ होता है-तू होगा अथवा तू होगी तीसरा उदाहरण:-विष्यामि हो जहिमि, होनाहिमि; होज्जम्मागि, होनहामि, सेक्सस्स, होज तम्रा हाजा, पक्षान्तर में हाहि मि मी होता है । इनका हिन्दी-धर्म यह है कि-मैं होऊँगा अथवा मैं होमी। आज्ञार्थक और विधि-अर्थक के उदाहरण इस प्रकार हैं:-भवतु और भवेत् - होजउ, होनाज होउन तथा होजा; पक्षान्तर में होउ' भी होता है । इनका यह अर्थ है कि वह हो अथवा बह होथे । इन उदाहरणों से यह विदित होता है कि बैकल्पिक रूप से स्परान्त धातु और प्रत्यय के मध्य में 'इज अथवा उजा' की प्राप्ति हुई है तथा पज्ञास्तर में प्रत्ययों के स्थान पर ही 'उज अयवा जा' का भावेश हो गया है। साथ में यह भी बतला दिया गया है कि उपरोक्त दोनों विधि-विधान वैकक्षिक स्थिति वाले होने से सृतीय-श्रवस्था में में अथवा ना' का धातु और प्रत्यय के मध्य में श्रागम Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 0000000000rrrrorisertoonsorrorosoorimotoronsorroroortoorsrootretroom ही हुआ है और न प्रत्ययों के स्थान पर श्रादेश ही हुवा है किन्तु पूर्व सूत्रों में वर्णित सर्व-सामान्य रूप से उपलब्ध लकार बोधक प्रत्ययों की ही प्राप्ति हुई है। यों तीनों प्रकार की स्थिति का क्रमशः उपयोग किया गया है, जो कि ध्यान देने योग्य है। पड़न! --मुल-मूत्र में स्नान कर का उपयोग करक ऐसा विधान क्यों बनाया गया है कि केवल स्वरान्त धातु और प्रारतव्य लकार-बोधक प्रत्ययों के मध्य में हो 'ज्ज अथवा जा' का वैकल्पिक रूप से पागम होता है? उत्तरः-जो धातु स्वरान्त नहीं होकर व्यञ्जनान्त हैं; उनमें 'मूल धातु अंग और प्राप्तव्य लकार बोधक प्रत्ययों के मध्यम में आगम-रूप से ज अथवा जा' की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये उन धातुओं की ऐसी विशेष स्थिति' का प्रदर्शन कराने के लिये ही मूल-सूत्र में 'स्वरान्त' पद को संयोजना की गई है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी यह बात ध्यान में रहे कि ज्यञ्जनान्त अंग और प्रत्ययों के मध्य में 'ज्च अथवा उजा' का आगम नहीं होने पर भी लकार-बोधक प्राप्तध्य प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उक्त 'ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति तो होती है । जैसे:- हसति, इससि, हसामि, हस्तिप्यत्ति, हसिष्यति, हसिष्यामि, हसतु और हसेत् हसेज अथषा हसेजावह हँसता है, तू हँसता है; मैं हँसता हूं, वह हँसेगा, तू हंसेगा, मैं हँसू गा; वह हँसे और वह हँसता रहे। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-त्वरते, स्वरसे, स्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्य से, स्वरिष्ये. त्वरताम्, स्वरस्व, त्वर, त्वरंत, स्वरेथाः और त्वरेय = तुवरेज और तुवरेजा-वह शीघ्रता करता है, तू शीघ्रता करता है, मैं शीघ्रता करता हूँ, वह शीघ्रता करेगा, तू शीघ्रता करेगा, मैं शीघ्रता करुंगा; वह शघिता करे, तू शीघ्रता कर, मैं शीघ्रता करूँ, वह शीघ्रता करता रहे, तू शीव्रता करता रह और मैं शीग्रता करता रहूं। इन 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों के सम्बन्ध में विस्तार-पूर्वक सूत्र संख्या ३.१७७ में बतलाया गया है; अत: विशेष-विवरण को यहाँ पर आवश्यकता नहीं रह जाती है। भवति संस्कृत के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन का अकर्मक शियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर होज्जइ, होजाइ होज्ज, होज्जा और होइ होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू - भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' चंग की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में सत्र-संख्या ३-१५६ से प्राप्तांग 'हो' में 'ज्ज तथा जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से ) वैकल्पिक पारित और ३.१३६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्ज तथा होज्जाइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। सुतीय और चतुर्थ रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग'हो' में सूत्र-संख्या ३-१४८ तथा ३-९४७से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्ययाति' के स्थान पर बात में कम से 'जर और पजा' प्रत्ययों की प्राप्ति झकर तृतीय और चतुर्थ रूप होज्ज सथा होऊजा' भी सिद्ध हो जाते हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * पवम रूप होड़ की सिद्धि सूत्र-संख्या १.९ में की गई है। भवसि संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपांतर होज्जसि, होज्जासि, होज्ज्ञ, होजा और होसि होते हैं । इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३.१७८ से 'उज तथा जा' प्रत्ययों की (विकरणरूप से) वैकल्पिक प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्तांग होम्ज तथा होजा' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन क अथ में सस्कृताय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्जास रूप सिम हो जाता है। तृतीय और चतुर्थ रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग 'हों में सुत्र संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'वन और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर तृतीय तथा चतुर्थ रूप 'होज्ज और होज्जा' भो सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप 'होसि' की सिद्धि सूत्र-संख्या -१४५ में की गई है। भविमति संस्कृ यो सदिचतु- मय पुरस के पकवचम का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर होजहिंइ, होजाहिद, होज, होज्जा और होहि होते हैं । इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपरोक्त रीति से प्रामांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से ज्ज अथवा जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से)कत्यिक प्राप्तिः ३-१६ से प्राप्तांग होज तथा होज्जा' में भविष्यात कालवाचक अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३६ से भविष्यत काल के अर्थ में प्राकृत में कम से प्राप्तांग होहिं तथा होनाहि' में प्रथम पुरुष के एक्वषन के अर्थ में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होजहिइ और होजाहिक्ष रूप सिद्ध हो जाते हैं । तृतीय और चतुर्थ रूप होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र संख्या ३-१७८ से तया ३-१४७ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत-काल-बाचक माप्तख्य प्राकृतीय-प्रत्ययों के स्थान पर कम से 'इज तथा जा' प्रत्ययों की कल्पिक रूप से भविष्यात काल-वाचक-अथ में प्रादेश-प्राप्ति होकर 'होज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप 'होहिई की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१६ में की गई है। भविष्यास संस्कृत के भविष्यत-काल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियाक का रूप है। इसका प्राकृत-रूपांतर होजहिसि, होजाहिसि, होञ्ज, होगा और होहिसि होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपरोक रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र संख्या ३-१७८ से 'इज तथा जा' प्रत्ययों को (विकरण रूप से)कल्पिक-प्राप्ति ३-१६६ से प्रातांग 'होम तथा होजा' में मषिष्यत कालवाचक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अर्थ में नाकृत में प्राप्तब्य प्रत्यय 'हि' की प्राति और ३-१४० से भविष्यत् काल के अर्थ में प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग होजह तथा होजाहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'सि' प्रत्यय को प्राप्त होकर 'होज्जाहास तथा होजाहीस' सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय और चतुर्थ रूप हो तथा होजजा' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१५७ से ( उपरोक्त रोति से) प्रातांग हो' में भविष्यत् काल-वाचक रूप से प्रामण्य द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्ययों के स्थान पर कम से 'जज तथा ज्जा' प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से प्राश-प्रामि होकर होऊन तथा होज्जा' रूप सिङ्गो जाने हैं। बम रूप होहिम' की सिद्धि सूत्र-संख्या -१56 में की गई है। भषिष्यामि संस्कृन के भविष्यत् काल के तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपांतर कम से होउहिमि, होजाहिमि, होजसामि, हाजहामि, होउतरत होउन और होजा होते हैं। इनमें से प्रथम पाँच रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से उज तथा जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से क्रम से संक्रपिन-मामि; तत्पश्चात् क्रम से प्रातांग होजज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१६६ से तथा ३-१६७ से भविष्यत-काल-वाचक अर्थ में प्राकृत में प्रासय प्रत्यय "हि, सा, हा' की क्रम से प्रथम द्वितीय रूपों में तथा तृतीयं चतुर्ध रूपों में प्राप्ति; यो क्रम से भविष्यत्कालवाचक अर्थ में कम से प्राप्तांग प्रथम द्वितीय तृतीय और चतुर्थ रूप होजहि होजाहि, होजसा और होज्जहा' में सूत्र-संख्या ३-१४१ से तृतीय-पुरुष के एकवचन के 'अर्थ में 'मि' प्राथय की प्रासे होकर 'होज्जहिमि, होजाहीम, होजस्ता और होज्जहामि रुप सिद्ध ही जाते हैं। पञ्चम रूप होजस्स' में 'हो' अङ्ग की प्राप्ति उपरोक्त रीति से होकर सूत्र संख्या ३.९६६ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्रातांग होज' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्रातव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'स' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर 'होज्जरस रूप सिद्ध हो जाता है। अटे और सातवें कम हो सधा होजा' में 'हो' अन की उपरोक्त रीति से प्राप्ति होकर तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७८ से सथा ३.१७७ से भविष्बत-काल के अर्थ में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर केवल ज तथा उमा' प्रत्ययों की हो काम संप्रालि होकर होज्ज तथा होजना रूप सिद्ध हो जाते है। भवतु तथा भवन संस्कृत के कम से माशार्थक तथा विधि लिक प्रथम पुरुष के छक्यचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से यहाँ पर पाँच दिये गये हैं। होमड, होजा, होज्ज, क्षेज्जा तथा कोद । इनमें धातु-मंग यी ' को प्राप्ति उपरोक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात प्रथम दोकों में सूत्र संखमा ३-१४ से 'कन तथा जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण 2 [ ३३३ ] worsmometest+of+++++orfor++ko+000000000000000+kroorkworroroom वैकल्पिक प्राप्ति और ३.१७३ से कम में प्राप्तांग होम तथा हज्जा' में लोट लकार के तथा लि लकार के प्रथम पुरुष के पकवचन के अर्थ में प्राकृत में 'ज' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होऊजउ तथा होज्जाउ' रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय और चतुथ रूपों में प्राप्तांग 'हो' में सूत्र संख्या ३-७८ से तथा ३-१७ से लोट् लकार के और लिए लकार के अर्थ में प्राप्तव्य मभी प्रकार के पुरुष-बोधक प्रत्ययों के स्थान पर कम से तथ! वैकल्पिक रूप से केवल जज तथा जा' प्रत्ययों की हो श्रादेश-प्ति होकर 'होज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप होज' में उपरोक्त गति से हो अंग की प्रादिन होने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७३ से लोट् लकार के तथा विधि-लिङ प्रथम पुरुष के वचन के अर्थ में उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हो' रूप भी सिद्ध हो जाता है। हसति, हसास, हसाम, हसिष्यति, हसिष्यास, हसिष्यामि, हसत, और हसेन आदि संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत-काल के, प्राज्ञार्थक और विधि अर्थ : प्रथम-द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समान रूप से प्राकृत में 'हसेज्ज तथा हसेजा' रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से प्राकृत में प्राप्त मून हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१४७ से प्राप्तांग 'हसे' में मभो प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों बचनों में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'उज तथा ऊना प्रत्ययों को कम से एवं वैकल्पिक रूप से प्रादेश-प्राप्ति होकर 'हसज्ज तथा हसज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। वरते, त्वरसे, सरे, स्वरियते, त्वरिपसे, स्वरिष्ये, त्वरताम, परस्व. त्वर, वरते, स्वरेथाः और त्वरेय (आदि) रूप संस्कृत के कम से वर्तमानकाल के भविष्यम-काज क, प्राज्ञार्थक और विधि लिंग के प्रथम-द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक प्रारमनेपदी क्रियापद के रूप हैं । इन सभी रूपों के स्थान पर तथा अन्य प्रकारों के अर्थ में उपलब्ध अन्य सभी रूपों के स्थान पर भी प्राकृत में समान रूप से तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातुवर के स्थान पर प्राकृत में 'तुबर' की आदेश प्राप्ति; ४-२३६ से आदेश प्राप्त हलन्त धातु 'तुबर' में विकरणप्रत्यय ' की प्राप्ति; ३.१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ में प्राप्तांग 'तुबरे' में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों क दोनों वचनों में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर ज तथा उजा' प्रत्ययों की कम से एवं वैकल्पिक रूप से भावेश प्राप्ति होकर तुवरेज तथा सुधरेना रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३.१७८ ॥ क्रियातिपत्तेः ॥३-१७६ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • [ ३३४ ] वियोदय हिन्दी सामा सहित * 100000000006roinss0000000000+soteoroostercono00000000000000000004 क्रियातिपत्तेः स्थाने जज ना वा देशौ भवतः ॥ होजन । होज्जा ॥ अभविष्यदित्यर्थः । जाइ होज्ज वण्णणिज्जो ।। अर्थ:-हेतु-हेतुलभाव' के अर्थ में कियानिपनि-लकार का प्रयोग हुआ करता है । इसको संस्कृत में 'लुङ् लकार कहते हैं । जब किसी होने वाली क्रिया का किसी दूसरी किया के नहीं होने पर नही होना पाया जाय; तब इस क्रियातिपत्ति अर्थक लक लकार का प्रयोग किया जाता है। जैसे:सुवृष्टिः अभविष्यत तदा सुभितम् अभविष्यत् = यदि अच्छो वृष्टि हुई होती तो सुभिन्न अर्थात अन्न आदि की उत्पत्ति भी अच्छी हुई होती। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि सुभिक्ष का होना अथवा नहीं होना पुष्टि के होने पर अथवा नही होने पर निर्भर करता है; यो वृष्टि' कारण रूप होती हुई 'सुभिक्ष' फल रूम होता है; इसीलिये यह लकार हेतु-हेतुमत्' भाव रूप कहा जाता है । इभीका अपर-नाम क्रियातिपत्ति भी है । यही संस्कृत का लख लकार है; जो कि अंग्रेजी में--( Conditional mood ) फहलाता है। क्रियातिपत्ति की रचना में यह विशेषता होती है कि 'कारण एवं कार्य' कप से अवस्थित तथा ऐसा होता तो ऐसा हो जाता' यो शर्त रूप से रहे हुए दो वाक्यों का एक संयुक्त वाक्य बन जाता है। इसमें प्रदर्शित की जाने वाली दोनों क्रियाओं का किसी भी प्रतिकूल सामग्री से 'प्रभाव जैसी स्थिति का रूप दिखलाई पड़ता है । इस लकार को हिन्दी में 'हेतु-हेतुमद् भूतकाल' कहते हैं तथा गुजरातोभाषा में यह संकेत भूतकाल' नाम से भी बोला जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-जइ मेहो होज, तया नणं होना = यदि जल वर्षा हुई होतो तो घास हुआ होता । इस उदाहरण से विदित होता है कि पूर्व वाक्यांश कारण रूप है और उत्तर वाक्यांश कार्य रूप अथवा फल रूप है। यों हेतु-हेमतभाव { Cause and effect) के अर्थ में क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है। प्राकृत-भाषा में धातुओं के भाप्तांगों में ज अथवा जा' प्रत्ययों की संयोजना कर देने से जन धातुओं का रूप क्रियातिपत्ति नामक लकार के अर्थ में तैयार हो जाता है। यों संस्कृत भाषा में कियातिपास के अर्थ में प्रामव्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृन में केवल ज्ज अथवा उजा' प्रत्ययों की प्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे-- अभविष्यत, अविध्यन् , 'अविष्यः, अभविश्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम =होज्ज तथा होना = वह हुश्रा होना, वे हुए होते तू हुआ होता, तुम हुए होते, मैं हुआ होता और हम हुए होते । दूमरा उदाहरण इस प्रकार है:-यदि अभविष्यत् वर्णनीयः = जई होज्ज घएणणिज्जो यदि वर्णन योग्य हुअा होता . ( वाक्य अधूरा है ); इस प्रकार से कारण कार्यात्मक क्रियातिपत्ति का स्वरूप समझ लेना चाहिये ! कोई कोई आचार्य कहते हैं कि इसका प्रयोग भूतकाल के समान हो भविष्यंतकाल के अर्थ में भी हो सकता है। अविष्यत् , अयिष्यन , अभविष्यः, अभविष्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम संस्कृत के कियातिपत्तिबोधक लुछ लकार के तीनों पुरुषों के एकवचन के तथा बहुवचन के क्रमशः अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों का प्राकृत रूपान्तर समान रूप से होज एवम् होज्जा' होता Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भाक्षात व्याकरण [ ३३५ ] है। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू- भवके स्थान पर 'हो' अंग की प्राप्ति और ३-७४ से क्रियातिपन्ति के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर समुषय रूप से प्राकृत में 'ज सथा जा' प्रत्ययों की क्रम से प्रामि होकर 'होय तथा होजा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'जा' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४० में की गई है। क्रियातिपत्ति-अर्थक 'होज' क्रियापद के रूप की सिद्धि इसी सूत्र में अपर की गई है। वर्णनीयः संस्कृत के विशेषणात्मक श्रकारान्त पुंलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वाणिज्जो होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से रेफ रूप 'र' व्यञ्जन का लोप, २ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ग को द्वित्व 'गण' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त दीर्घ वर्ण 'णी में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर श्रागे संयुक्त व्यञ्जन का सद्भाव होने के कारण से ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति १-२४५ के सहयोग से तथा १-२ की प्रेरणा से विशेषणीय प्रत्ययात्मक वर्ण 'य' के स्थान पर 'ज' की आदेश-प्राप्ति; २-4L से पादेश-प्राप्त वर्ण 'ज' को वित्व 'ज' की प्रामि और ३-२ से विशेषणात्मक स्थिति में प्राप्तांग प्राकृत शब्द 'वरणणिज' में पुलिग अकारान्तात्मक होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रापश्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत्तपद 'वष्णणियो' सिद्ध हो जाता है । ३-१७ ॥ स्त-माणौ ॥३-१८० ॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने न्तमाणौ आदेशौ भवतः ॥ होन्तो । होमाणो | अभविष्यदित्यर्थः । हरिण-हाणे हरिणत जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो । न सहन्ती चिम तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स ॥ अर्थ:--सूत्र-संख्या ३-१७६ में पूर्ण अर्थक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उज तथा जा' का उल्लेख किया जा चुका है। किन्तु यदि अपूर्ण हेतु हेतुमद्-भूत कालिक कियातिपात का रूप बनाना होतो इस अर्थ में धातु के मामांग में 'मन तथा माण' प्रयय को संयोजना करने के पश्चात् वक्त अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूत कालिक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त रूप में अकारान्त संज्ञा पदों के समान हो विभक्ति बोधक प्रत्यय की संयोजना करना प्रावश्यक हो जाता है, तदनुसार वह प्राप्त कियातिपत्ति का रूप जिम विशेष्य के साथ में सम्बन्धित होता है; उस विशेष्य के लिंग-बचन और विमक्ति अनुभार ही इस कियातिपत्ति अर्थक पद में भी लिंग को, वचन की और विभक्ति की प्रामि होती है । इस प्रकार ये अपूर्ण हेतु-हेतुमद-भूत कालिक क्रियातिपत्ति के रूप विशेषणात्मक स्थिति को प्राप्त करते हुए कियार्थक संक्षा जैसे पर पाले हो जाते हैं। इसलिये इनमें इनसे सम्बन्धित विशेष्यपदों के अनुसार ही लिंग की, वचन की और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * विभक्ति प्रत्थयों की प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर प्राकृत रूपों के साथ में सहायक क्रिया 'अस्' के रूपों का सद्भाव वैकल्पिक रूप से होता है। जैसे:-अभविष्यन् = होन्तो अथवा होमाणो-होता (छत्रा) होता । इस सदाहरण में अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूत कालिक क्रियातिपति रूप से प्राप्त रूप 'होन्त तथा होमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में मानव्य प्रत्यय 'डो = श्रो' की प्राप्ति बतलाई हुई है। यों प्रारम्य विभक्ति-बाधक प्रत्ययों की प्राप्ति अन्य अपूण हेतु-हेतुमद्भूतकालक कियातिपत्ति के रूपों के लिये मी समझ लेना चाहिये । ग्रंथकार प्रथान्तर से युक्त तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिये निम्न प्रकार से वृत्ति में गाथा को उद्धृत करते हैं:--- गाथा:-हरिण-टाणे हरिणत ! अइसि हरिमाहिवं निवेसन्ती ।। न सइन्सो चित्र तो राह-परिह से जिअन्तस्स || संस्कृतः-हरिण-स्थाने हरिणाङ्क ! यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्यः ।। नासहिष्यथा एव तदा राहु परिभयं अस्य जेतुः ।। ( अथवा जयतः ) । अर्थः-भरे हरिण को गोद में धारण करने वाला चन्द्रमा ! यदि तू हरिण के स्थान पर हरिणाविपत्ति-सिंह को धारण करने वाला होता तो निश्चय ही तब तू राहु से पराभव को-( तिरस्कार को) सहन करने वाला नहीं होता; क्योंकि राहु सिंह से जीता जाने वाला होने के कारण से ( वह राहु अवश्मयेव. सिंह से डर जाता)। इस उदाहरण में निवेसन्तो, सहन्तो और जिअन्तस्स' पद अपूर्ण हेतु हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप हैं। इनमें उक्त-अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'त' को प्राप्ति हुई है तथा विभक्ति-बोधक-प्रत्यय 'डो= श्रो' की और 'रस' की सम्बन्धानुसार प्राप्ति होकर पदों का निर्माण हुआ है। इस तरह से यह सिद्धान्त प्रमाणित होता है कि उक्त-अर्थक क्रियातिपत्ति के पदों में विशेष्य के अनुमार अथवा सम्बन्ध के अनुसार विक्ति-बोधक प्रत्ययों की प्रानि होती है। यों ये बियातिपत्ति-अर्थक पद संज्ञा के समान ही विभक्तिबोधक-प्रत्ययों को धारण करने वाले हो जाते हैं। ___ अभविष्यत् संस्कृत के क्रियातिपत्ति प्रथम पुरुष के एकवचन का रूप है । इसके कृत-रूप होन्तो और होमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-थातु 'भू-भव' के स्थान पर प्रामृत में 'हो' की श्रादेश प्राति; ३-९८० से प्राप्तांग 'हो' में क्रियातिपत्ति के श्रार्थ में प्राकृत में कम से 'मत तथा माण' प्रत्ययों की प्रादेश-प्राप्ति और ३-२ से कियातिपति के अर्थ में प्रातांग होत तथा होमाण' में प्रथमाविभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप होती और होमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। हरिण-स्थान संस्कृत के सप्तमी-विमक्ति के एकषचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिण-हारणे होना है । इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'ठा' की प्राप्ति; २-८८ से भावेश-माप्न '४' के Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण [३३७ ] 4430660000000040**mosporrontrosarok0RP00000000000000000000000 स्थान पर द्वित्व 'उ' की प्राप्ति; २६ से निव-माप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति; १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-११ से प्राकृन में प्राप्तांग हरिणा-द्वार में मातमो विभक्ति के एकमचान के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय = इ' के स्थान पर मानन में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'हारण ठाणे सिद्ध हो जाता है। हरिणा संस्कृत के सम्बोधन के एकवचन का रूप है। इपका प्राकृत का हरिणत होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८१ मे 'ण' में स्थित दीर्थ स्वर 'मा' के स्थान पर आगे संयुक्त घर्ण 'क' का सद्भाव होने के कारन मेहद पर 'अ' को प्राप्ति और ३-३८ ले सम्बोधन के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'बो ' की प्राप्ति का वे काल्पक रूसे प्रभाव हो कर 'हरिणङ्क रूप सिद्ध हो जाता है। जइ' अध्यय की पिद्धि सूत्र संख्या १४० मे को गई है। 'सि' क्रियापद-रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। हरिणाधिपम् संस्कृत के द्वितीया-विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिणाहिवं होता है । इसमें मूत्र-सख्या १-१८७ से ध्' के स्थान पर 'द' को आदेश-माप्ति: १-२३१ से 'प' के स्थान पा. 'व' की प्राप्ति; ३-से प्राकन में प्राप्त-शब्द 'हरिणाव' गहिनीया विभक्ति के एकवचन के फ अर्थ में 'म्' प्रत्यय को प्राप्त और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकनपर हरिणाहिवं सिद्ध हो जाता है। न्यपेशयिष्यः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूपान्तर निवेसम्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२० से मूल संस्कृत धातु निवेशन' में स्थित तालव्य 'श के म्यान पर पाकन में इन्स्य 'म' की प्राप्ति; १-११ से सस्कृत धातु में स्थित अन्त्य हलन्त ध्यान य' का लोप ३-१२० से पाकुन में प्राप्तांग निस' में यातिपति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की मास्ति और ३.२ में प्राकृत में कियातिपति क अर्थ में प्राप्तांग निवतन्त' में प्रथमा विभक्त के एकत्रयन फ अर्थ में 'डायो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवेतन्ना' रूप फिट हो जाता है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्रसंख्या १-१ में की गई। असाहव्यथाः संस्कृत के पियातिपत्ति के अध में द्वितीय पुरुष के एकवचन का आत्मनेपदी क्रिया. पद का रूप है । इसका पान सप सहालो होता है। इसमें सूत्र सखया ४.२३९ से प्राकृत में प्राप्त हन्त. धातु 'सह' में विकरम प्रस्थय 'अ' की प्राप्ति, ३.१८० से प्रान में प्राप्तांग 'सा' में कियातिपत्ति के अर्थ में मत' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त सहन्त' में प्रथमा विभक्ति में एकत्र चन के अर्थ में 'डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'सहन्तो' सिद्ध हो जाता है। चिम' अध्यय की सिद्धि स्त्र संख्या १८४ में की गई है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'तड़ा' संस्कृत का अव्यय है। इसका प्राकृत-( अप भ्रंश) में 'नो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४४१७ से मूल संस्कृत अव्यय 'तदा' के स्थान पर प्राकृत-( अपभ्रंश ) में 'तो' सिद्ध हो जाता है। राहु-परिभवं संस्कृत के द्वितीया विभक्ति के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप गहु-परिहवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १२८७ से 'भ' वर्ण के स्थान पर 'ह' वण की प्रादेश-प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ में म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ववर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकन-पद राह परिहर्ष सिद्ध हो जाता है। 'से' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र-संख्या 5-८१ में की गई है। जेतुः (अथवा जयतः ) संस्कृत के षष्टी विभक्ति के एकवचन का { अथवा तः प्रत्ययांत अव्ययास्मक पद का ) रूप है । इसका प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में षष्ठी-विभक्तिपूर्वक जिअन्तम रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२७.७ से संस्कृत विशेषणात्मक पद जित' में स्थित हलन्त '' का लाप; १.१८० संछियातिपत्ति के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तांग 'जिम' में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.१० से छियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'जिअन्त' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इम्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिअन्तस्स' सिद्ध हो जाता है। ३.३. ।। शत्रानशः ॥३-१८१॥ शत् श्रानश इत्येतयोः प्रत्येक न्त माण इत्येतावादेशी भवतः ॥ शत् : सन्तो हसमाणो || पानश । वेवन्तो देवमाणो ॥ अर्थः कृदन्त चार प्रकार के होते हैं जिनके नाम इस प्रकार है:-हेवर्थ कृदन्त, संबन्धक भूत कृदन्त, कर्मणि भूत कृदन्त और वर्तमान कृदन्त, इसमें से तीन कृवन्तों के सम्बन्ध में पूर्व में दूसरे और तीसरे पादों में यथा स्थान पर वर्णन किया जा चुका है। चौथे वर्तमान कृदन्त का वर्णन इसमें किया जाता है । वर्तमान कृदन्त में प्राप्त सबै प संज्ञा जैसे ही माने जाते हैं। इसलिये इनमें सोनों प्रकार के लिंगों का सद्भाव माना जाता है और संज्ञाओं के समान ही विभक्ति बोधक प्रत्ययों की भी इनम संयोजना की जाती है । सस्कृत में वर्तमान-कृदन्त के निर्माणार्थ धातु में सर्व प्रथम दो प्रकार के प्रत्यय लगाये जाते हैं, जो कि इस प्रकार हैं:-(१) शत-अत और (२) शानच-पान अथवा मान । ये प्रयय ऐसे अवसर पर होते हैं, जबकि दो क्रियाएँ साथ साथ में होती. हों। जैसे:-तिष्ठन् खादतिवह बैठा हुश्रा खाता है। हसन जल्पति-वह हंसता हुआ बोलता है । कम्पमानः गच्छतिबह कांपत्ता हुश्रा जाता है। इत्यादि। प्राकृत भाषा में वर्तमान कृदन्त भाव का निर्माण करना हो तो धातुओं में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शत और श्रानश में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्स और माण' दोनों ही प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३३६ ] +000+++000000000000rrorrearersootoorseensorronsorroorkestra00000000000om होती है । चूँकि संस्कृत-भाषा में तो धातुऐं मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं-परम्मपदी और श्रारमनपरी; तदनुसार परस्मैपड़ी धातुओं के वर्तमान-कदन्त के रूप बनाने के लिय फेवल शनु = अत् प्रत्यय की प्राप्ति होती है और आत्मनेपदी धातुओं के समान करन्त के रूप बनाने के लिये 'शानच्आ न अथवा मान' प्रत्यय की प्राप्ति होती है परन्तु प्राकृत-भाषा में धातु ओं का ऐसा भेद परस्मैपदो अथवा आत्मनेपदी जैसा नहीं पाया जाता है। इसलिये प्राकृत भाषा की धातुओं में वर्तमान कान्त के रूपों का निर्माण करने के लिये 'न्त और माण' दोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को संयोजना की जा सकता है। इसीलिये कहा गया है कि संस्कनीय प्राप्तव्य तमान कृदन्तीय प्रत्यय ‘शत अत्त और शान-आन श्रयचा मान' म से प्रत्येक के स्थान पर स और जाण' दोनों प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर प्राकृत. धातु में फिपी भी एक प्रत्यय की संयोजना कर देने से वर्तमान कृदन्त के अर्थ में उस धातु का रूप बन जाता है। तत्पश्चात् सत्र सामान्य संक्षाओं के ममान ही सम्बन्धित लिंग एवं वचन के अनुसार सभी विभक्तियों में उन वर्तमान कृदन्त-सूचक पदों में अधिकृत विभक्ति के प्रत्ययों की संयोजना कर संज्ञा के ममान रूपों का निर्माण किया जा सकता है। जैसे:-हसत. ( प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में हसन )-इसन्त अथवा हसमारण; (प्रथमा विभक्त के एकवचन के रूप में हसन्तो अथवा हसमायो') इंसता हुआ । वेपमान; (प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में-पमानः ) = वैवन्त और बेवमाणु; (प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में वेवन्तो और वेत्रमाणो। इन उदाहरणों से स्पष्ट रूप से यह ज्ञात होता है कि संस्कृत-भाषा में परस्मैपदी और आत्मनेपदी धातुओं में क्रम से 'शत् = अत् और शानच = ( श्रान अथवा ) मान' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है, किन्तु प्राकृत भाषा की धातुओं में उपरोक्त प्रकार के भेदों का अभाव होने से वतमान-कृदन्त के अर्थ में 'म तथा माण' प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को संयोजना की जा सकती है। तत्पश्चात यहाँ पर प्राप्त रूपों में अकारान्त पुंल्लिग के समान ही प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में सूत्र-संख्या ३-२ से प्राप्तव्य प्रत्यय 'डा = ओ' को संयोजना की गई है। यों अन्य विभक्तियों के सम्बन्ध में भी वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राप्त रूपों को स्थिति को समझ लेना चाहिये। हसत हसन् संस्कृत के वर्तमान कान्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का पुल्लिग-द्योतक रूप है। हमके प्राकृत रूप हसन्तो और हसमाग्यों होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-२३ से प्राकृत में प्राप्त हलन्त धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' का प्रारित; ३-१८१ से प्राप्त धातु अंग 'हम' में बतमान कृदन्त के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'शव = अस' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'स्त और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-२ से वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राप्तांग अकारान्त प्राकृतपद हसन्त और हममाण' में पुस्लिम में प्रथमा विमति के एकवचन के अर्थ में 'डो-यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतपद हसन्ती और इस माणो सिद्ध हो जाते हैं। क्षेपमानः संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के एकवचन का पुसिंलग-योतक रूप है। इसके प्राकृत रूप देवन्तो और वेवमाणो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.२३१ से मूल संस्कृत धातु 'वे' में स्थित अन्त्य Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * werstareennerroronstereofestirrrrro0000000+covernot00000setstretorodama हलन्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३६ से आदेश प्राप्त हलन्त व्याजान 'व' म विरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१८१ से प्राकन में प्राप्तांग 'वे' में वर्तमान-कदन्त के अर्थ में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शानच्मान' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'मन और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-२ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ मे प्राप्तांग अकारान्त पुल्लिंग प्राकृतपद ववन्त तथा वेवमाण' में प्रथमा विभक्ति कं एकवचन के अर्थ में हो श्रो' प्रत्यय को प्राप्त होकर प्राकृतपद पन्तों तथा वेषमाणो क्रम से सिख हो जाते है । ३-१८॥ ई च स्त्रियाम् ॥ ३-१८२ ॥ स्त्रियां वर्तमानयोः शबानशीः स्थाने ई चकारात् न्तमाणौ च भवन्ति ।। हसई । हसन्ती । इसमाणी । वेबई । वेबन्ती । वेवमाणी ॥ अर्थः-प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग के अर्थ में वर्तमानकान्त मात्र का निर्माण करना हो तो धातुओं में संस्कृनीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'शत-अतु और शान-पान अथवा मान' में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त औरमाण तथा ई' यो तीनों ही प्रत्ययों की आदेश पापि होती है। परन्तु यह ध्यान में रहे कि मालिंग स्थिति के मद्भाव में जैसे संस्कृत में परस्मैपदी धातुओं में उक्त प्रानध्य प्रत्यय 'शत् = अत' के स्थान पर 'ती अथवा न्ती' प्रत्यय को स्वरूप प्राप्ति हो जाती है तथा आत्मनेपदी धातुओं में उक्त प्राप्तव्य प्रत्यय 'शानच-पान अथवा मान' के स्थान पर 'आना अावा माना' प्रत्यय की स्वरूप प्राप्ति होती है, वैसे ही प्राकृत भाषा में भी श्रीलिंग स्थिति के सभात्र में उन रोति से आदेश-प्रात वर्तमान-कदन्तअथक प्राप्तव्य प्रनय 'न्त और माण' के स्थान पर 'न्ता, मा, माणी और माया' प्रत्ययों की स्वरूप प्राप्त हो जाती है । जहाँ पर वर्तमान-कदन्त के अर्थ में स्त्रीनिंग स्थिति के सद्भाव में उक्त प्रामव्य प्रत्यय 'न्ती, ता, माणी और माणा' प्रत्ययों की संयोजना नहीं को जाय। वहाँ पर केवल धातु अंग में दीर्घ 'ई' को संयोजना कर देने मात्र से ही वह पद स्त्रीलिंग वाच होता हुया वतमान कृदन्त- अर्थक पद बन जायगा । इस प्रकार प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग के सद्भाव में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में धातुओं में पौध प्रकार के प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती हैं, जो कि इस प्रकार है:-ई, ती, न्ता, माणा और माणी'। नत्यश्चात वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्रान दीर्घ ईकारान्त अथवा प्राकारान्त स्त्रीलिंग वाचक पदों के सभी विभिक्तियों के रूप पहले वर्णित ईकारान्त और श्राकागन्न बलिंग वाचक मंशा शब्दों के समान ही बन जाया करते हैं। जैसे प्रथमा विमति के एकवचन के अर्थ में क्तमान-कान्स सूचक स्त्रीलिंग वाचक पदों के उदाहरण इस प्रकार हैं:-हसती अथवा हसन्तो - हस है, इसन्ती, ( हसन्सा), इसमाणो (और हसमाणा) = हसती हुई (स्त्रो) दूसरा उदाहरण:--पमानावेवई, वेबन्ती, (वेबन्ता ), चेषमाणी (और वेवमाणाप्ती हुई । यो अन्य विभक्तियों के रूपों को भी वर्तमान-कान्त के सदमाव में स्वय. मेष करूपना कर लेनी चाहिये । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४१ ] हसती अथवा इसी संस्कृत के वर्तमान-कान्त के अर्थ में प्राप्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन क्रं स्त्री-लिंग-द्योतक रूप हैं । इनके प्राकृत रूप इस इसन्तो और इसमाणी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या४-२३६ से मूल हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति ३-१८२ से तथा ३०१८१ से क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय तृतीय रूपों में प्राप्त धातु अङ्ग 'हरू' में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और 'न्त तथा मार्ग' प्रत्ययों की प्राप्तिः ६-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वतंमानकृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'हसन्त और इसमाय' में स्त्रीलिंग-भाष के प्रदर्शन में 'डोई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'हसन्ती तथा हसमाणी' की प्राप्ति और ३-२८ से वर्तमान दन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग - पद 'हसई, हसन्ती और हसमाग्री' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' का श्रीकृत में लोप होकर प्राकृत पद 'इसई, हसन्ती और हलमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। * प्राकृत व्याकरण * ◆4�666�4600881 वेपमाना संस्कृत के वर्तमान कृदन्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का स्त्रीलिंग-योतक रूप है। इसके प्राकृत रूप वेबई, वेदन्ती और बेवमाणी होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'पू' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति, ४-२३६ से प्राप्त प्राकृत हलन्त धातु रूप 'व' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१८२ से तथा ३-१८१ से प्राप्तांग धातु 'वेव' में कम से *थम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में वर्तमान कुदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति: ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कुन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'बेवन्त और वेवमाण' में स्त्रीलिंगभाव के प्रदर्शन में 'डी ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वेवन्ती और बंबमाणी रूपों की प्राप्ति; और ३०२८ से वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग पद 'बंबई वन्ती और वेवमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्राप्तभ्य संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत पद 'घेवई, वेवन्ती और वेदमाणी' सिद्ध हो जाते हैं । ३-१८२ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ शब्दानुशासन सौ श्रष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ ३ ॥ इस प्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित 'श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्यापक का तीसरा पाई 'स्त्रोपस वृत्ति सहित' अर्थात् स्वनिर्मित संस्कृत टीका'प्रकाशिका' सहित समाप्त हुआ। इसके साथ साथ 'प्रियोक्य' नामक हिन्दी व्याख्या रूप विवेचन भी तृतीय पाद का समाप्त हुआ || पादान्त - मंगलाचर ऊर्ध्वं स्वगं - निकेतनादपि तले पातालमूलादपि स्वत्कीर्तिभ्रमति क्षितीश्वरमये पारे पयोधेरपि । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mor.000000000000000000000000000000****************0000000000000for तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभरुचावचैश्चापले स्ते वाचंयम-सयोपि मुनयो मौनत्रतं त्याजिताः ॥१॥ अर्थ:-हे राजाओं में मणि-समान श्रेष्ठ राजम् ! तुम्हारी यशकीर्ति ऊँचाई में तो स्वर्ग लोक तक पहुंची हुई है और नीचे पाताल लोक की अन्तिम-सीमा तक का स्पर्श कर रही है। मध्य-लोक में यही श निटी को पेसो पाग महासमुद्र के भो उस द्वितीय किनारे को पार कर गई है। तुम्हारी यह कीर्ति स्त्री-स्वरूप होने के कारण से स्त्रो-जन-स्वभाव-जनित इसकी सुलभ चंचलता के कारण से वाणी पर नियंत्रण रखने वाले तथा वाचं-यम-चि के धारण करने वाले मुनियों को भी अपना मौनप्रत छोड़ना पड़ रहा है । अर्थात् मौन-धन को प्रहण किये हुए ऐसे बड़े-बड़े मुनिराजों को भी प्रापका विशद तथा विमल फीर्ति ने बोलने के लिये विवश कर दिया है। ॐ ! सर्व विदे नमः !! ABUA १२park KARNEVIE Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत व्याकरण * ++0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 [ ३४३ ] अथ चतुर्थ पादः इदितो वा ॥४-१॥ सूने ये इदितो धातवो वक्ष्यन्ते तेषां ये आदेशास्ते विकल्पेन भवन्तीति वेदितव्यम् । तत्रैव चोदाहरिष्यते ।। __ अर्थ:- यहाँ से भागे जिन सूत्रों में सं कृत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत में श्रादेश-विधि कही जायगी; उन सभी श्रादेश-प्राप्त धातुओं की स्थित्ति विकल्प से ही होती है। ऐसा जानना चाहिये । मादेश प्राप्त धातुओं के उदाहरण यथा स्थान पर, वहाँ पर ही प्रदर्शित किये जाएँगें । कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृत-धातुधों के स्थान पर प्राकृत-भाषा में एक ही धातु के स्थान पर एक ही अर्थ वालो अबेक धातुओं के शब्द रूप पाये जाते हैं। उन सभी का संग्रह इस चतुर्व-पाद में आदेश रूप से एवं वैकल्पिक रूप से किया गया है । ५-१।। कथेबज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव -जम्प-सीस-साहाः ॥४-२॥ कथे (तोर्वज्जरादयो दशादेशा वा भवन्ति ।। यज्जरइ ! पन्जरइ। उप्पालइ । पिसुणइ । संघइ । बोरलइ । चाइ । अम्पइ । सीसइ। साहइ ॥ उन्बुक्कइ इति तूत्पूर्वस्य बुक्कभाषखे इत्यस्य । पचे। कहइ ॥ एते चान्यैर्देशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विधिधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति । तथा च । बजरियो कथितः वज्जरिऊण कथयित्वा । वज्जरणं कथनम् । वज्जरन्तो कथयन् । बजरिअव्वं कथयितव्यमिति रूप सहस्राणि सिध्यन्ति । संस्कृत-धातुषच्च प्रत्ययलोपागमादि विधिः ॥ अर्थ:-संस्कृत धातु 'कच' अर्थात 'कहना' के स्थान पर प्राप्त-भाषा में दश प्रकार के आदेश रूपों की विकल्प से प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:-क (1) वजर, (२) पज्वर, (३) उप्पाल, (४) पिसुण, (५) संघ, (६) बोल्न. १७) १८. १८) सम्प, (६) सीस और (१०) कह । इन धातुओं में और मागे पाने वाली सब प्रकारान्त धातुओं में सूत्र-संख्या ४.२३६ से विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति होकर म्यअनान्त धातुओं जैसी स्थिति से थे धातु 'अकारान्त' स्थिति को प्राप्त हुई हैं। इन प्रकारान्त रूप से दिखाई पड़ने वाली धातुओं के सम्बन्ध में इस स्थिति का सदैव ध्यान रहे। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४४ ] *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # meenroommootrosameroorkestromorrowomarwarroworrowroommom वृत्ति में प्रादेश-प्राप्त धातुओं को उदाहरण पूर्वक इस प्रकार समझाया गया ई-थयति = वज्जर इ, पज्जर इ, उत्पालई, पिसुगाइ, संघह बोललइ चवइ, जम्पइ. सीसइ और साहइ इन दश ही धातु रूपों का एक ही अर्थ है - वह कहता है। चूंकि यह प्रादेश-विधि वैकल्पिक है अतः पक्षान्तर में कथयति के स्थान पर कहा रूप भी होता है। प्रश्ना-'उबुक्कइ' इस रूप की प्राप्ति कैसे होती है ? उत्तरः---बुक्क धातु का अर्थ भाषण करमा होता है न कि कथन करना; इसालये बुक्क धातु को अधिकृत धातु कथ के स्थान पर आदेश-स्थिति की प्राप्ति नहीं होती है । इस घुक्क धातु में 'उत्' उपसर्ग हैं, जो कि 'उ' अथवा 'इ' के रूप में अवस्थित है। इस विवेचन से संस्कृत धातु रूप भाषते के स्थान पर प्राकृत में जरचुरका रूप की प्रादेश-प्राप्ति हुई है। . संस्मत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत में उपलब्ध धातु-रूपों को अन्य वैयाकरणों ने 'देशी भाषाओं के धातु-रूपों' की संज्ञा दी है; परन्तु हमने (हेमचन्द्र ने ) तो इन धातु-रूपों को वैकल्पिक रूप से प्रादेश प्राप्त धातु ही मानी हैं, तथा ये प्राकृत भाषा को ही धातुएँ हैं; ऐमा पूर्णतया मान लिया गया है। इसलिये इनमें विविध काल-बोधक प्रत्ययों को तथा आज्ञार्थक आदि सभी लकारों के एवं रुदन्तों के प्रत्ययों को जोड़ना चाहिये। थोड़े से उदाहरण इस प्रकार हैं: (१) कथितः = जरिओ कहा हुआ; २) कथयित्वा-वजाऊण-कह फरक; (३) कथनम् घजरणं-कहना, कथन करना; (8) कथयन् परन्ती = कहता हुआ; (५) कथायितव्यम् = पजरिअश्व = कहना चाहिये; यों हजारों रूपों की साधना स्वयमेव कर लेनी चाहिये । इम धातुओं में प्रत्यय, लोप, प्रागम' आदि की विधियाँ संस्कृत-धातुओं के समान ही जाननी. चाहिये । ४-२॥ दुःखे णिवरः ॥४-३॥ दुःख विषयस्य कथेणिन्दर इत्यादेशो वा भवति ॥ णिब्दरइ दुःखं कथयतीत्यर्थः ।। अर्थः-'दुःख को कहना, दुःख को प्रकट करना' इस अर्थ में प्राकृत में विकल्प से 'णिवर' इस प्रकार के धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-दुःख कथयति =णिटवरन = वह दुःख को कहता है; ठुःख को प्रकट करता है। ॥४.।। जुगुप्से झुरण-दु गुच्छ-दुगुञ्छाः ॥४-४॥ जुगुप्सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ झुणइ । दुगुच्छ। । दुगुञ्छ । पचे। जुगुच्छ । गलोपे । दुउच्छह 1 दुउन्छन् । जुउच्छइ ।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [ ३४५ ] minoorrowrotessorrorsroreworkwormerarsexrearrantosorrecadroortooorim अर्थ.--'घणा करना, निन्दा करना' इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत धातु 'जुगुप्स' के स्थान पर प्रात में विय रूप से तीन प्रकार की धातुओं की भावेश-प्राप्ति होती है। क्रम से यों हैं:-(१) भुण, (२) दुगुच्छ, और (३) दुगुज्छ । उदाहरण इस प्रयार है:- जुगुप्सति = झुणा, गच्छा , गुरुछन = व पणा करता है या ६६ निन्दा करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में जुमुच्छड़ ऐसा रू। भी होगा। सूत्र संख्या १.१७७ से मूल धातु जुगुच्छ में से विकरुप से 'ग' का लोप होने पर पूर्वोक्त तीनों रूपों की कम से वैधनिक प्राप्ति यों होगी:-(१) दुउच्छइ, १२) दुन्छइ और (३) जुच्छइ = यह घृषा करता है अथवा निन्दा करता है ॥४-४३ बुभुक्षि-वीज्योरिव-वोज्जी ॥४-५॥ बुभुक्षेराचार शिवन्तस्य च बीजेर्यथासंख्यमेताबादेशौ का भवतः ॥ शीरबह । बुहुचखइ । बोज्जइ । वीजइ ॥ अर्थ:- 'भूख' अर्थक संस्कृत-धातु 'पुभुक्ष,' फ स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'जीव' धातु की आदेश-प्राप्ति होती है; यो 'भुत्त' के स्थान पर बुहुक्व और गोरख दोनों धातुओं का प्रयोग होता है । जैसे- बुभुक्षति = गीरषद अथवा बुलुक्खइ = वह भूख अनुभव करता है अथवा वह भूखा है। इसी प्रकार से हवा के लिये पंखा करना इस अर्थ वालो और श्राचार अर्थक किम् प्रत्ययान्त वाली धातु 'बीज' के स्थान पर प्राकृत में विकाप से वोन धातु को 'आदेश-प्राप्ति होता है। जैसे-बीजयति = योजाइ अथवा वीजइ = वह पंखा करता है । यो कम से दोनों धातुओं के स्थान पर विकल्प से उपरोक्त धातों का आदेश-प्रापिस जानना चाहिये ।।४-५॥ 'ध्या--गो गौ ॥४-६॥ अनयोयथा-संख्यं झा गा इत्यादेशौ भवतः । झाई । झाइ । णिज्झाइ । विभाइ । निपूर्वादशनार्थः । गाइ । गायइ । झा । गाणं ॥ ___ अर्थ:-संस्कृत धातु 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' धातु को नित्य रूप से आदेश प्राप्ति होती है . इसी प्रकार से गायन करने अथक धातु 'गे' के स्थान पर भी नित्य रूप से गा' धातु की प्रादेश प्राप्ति क्षेती है । जैसे-ध्यायति-झाइ अथवा झाअइ = यह ध्यान करना है। ध्यान पूर्वक देखने के अर्थ में जब 'प्य धातु के पूर्व में विर' उपमर्ग की प्राप्ति होती है, उस समय में भी व्य के स्थान पर 'झा' धातुरुप की ही श्रादेश-प्राप्ति होती है। जैसे-निायति=णिज्झाइ अथवाणिज्मायावह ध्यान पूर्वक देखता है। 'गै' धातु का उदाहरण यों है:- गार्यात - माह अथवा गामह स व गाया है-पायन करता है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४६ ] . प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * merooratorrownservoirrortiorewarrowroornmovimootoobsedoorstern. इसो सूत्र-सिद्धान्त से संस्कृत शब्द म्यान और [गायन अथवा गान के स्थान पर प्राकृत में 'झाण' और 'माण' शब्दों को,क्रम स प्राप्ति होती है। जैसे-ध्यामम् = झाणम् और गानम्-गाणं । ये दोनों शब्द नपुंसकलिंग होने से इनमें मूत्र संख्या ३-२५ से पथमा विभक्ति क एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। सूत्र संख्या १-२३ मे प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से झाण और गाण म.पों का मिद्धि हो जाता है। प्र.-६।।. ज्ञो जाण-मुणौ ॥४-७॥ जाणाते औण मुग : इत्यादेशौ भवतः ॥ जाणइ । मुणइ । बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः । जाणिवे । णायं । जाग्गिऊण । णाऊण । जाणयं । गाणं । मणइ इति तु मन्यते ।। अर्थ:-जानने रूप ज्ञानार्थक धातु 'ज्ञा' के स्थान पर प्राकत में वित्यरूप से 'जाण और मुण' इन दो धातुओं को क्रम से प्रादेस प्राप्ति होती है । जैसे-जानाति = जाण अथवा मुणइवह जानता है। 'बहुलं' सूत्र का सर्वत्र अधिकार होने से कहीं कहीं पर विकल्प से 'ज्ञा' से प्राप्त रुप 'गा' भी देखा जाता है । जैसे:ज्ञातं = जाणिों अथवा गोर्य - जाना हुा । झापा-माणऊण अथवा पाऊण जान करके । कानम्-जाणणे अथवा जाणं-मानना रूप मान । यो वैकल्पिक स्थिति का भी श्याम रखना चाहिये। प्राकृत में जो 'माइ' रूप देखा जाता है; उसकी प्राप्ति तो 'मानने स्वीकार करने अर्थक संस्कृत धातु 'मन' से हुई है। जैसे-मन्यते = इवाइ मानता है अथवा वह स्वीकार करता है। यो मण धातु को जाय और मुण धातुओं से पृथक हो समझना चाहिये ।। ४-५ ।। उदो ध्मो धुमा ॥ ४-८॥ उदः परस्य ध्मो धातो धुमा इत्यादेशो भवति । द्धमा ।। अर्थ:-उद् पसर्ग जुड़ा हुआ है जिसक, ऐसी 'मा' धातु के स्थान पर प्राकृत में 'धुमा' रूप को श्रादेश प्राप्ति होती है जैसे-उधमति - उखुमा - वह प्रदीप्त करता है; व तपाता है ।।४।। श्रदो धो दहः ॥ ४-६ ॥ श्रदः परस्य दवाते देह इत्यादेशो भवति ॥ सद्दहइ । सदहमाणो जीयो ।। अर्थ:-श्रत अध्यय के साथ स्मृत धातु 'या' के प्राप्त रूप पवाति' में रहे हुए 'दधा' अश के स्थान पर प्राकृत में दह' रूप की आदेश प्राप्ति होनी है । जैसे-श्रदधाति सहावा अशा करता है, वह विश्वास करता है । अयमान जी-सहमाणो जीवो-अदा करता हुमा मोज मामा-१०। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अकृत व्याकरा * [ ३४७ ] mratarrassooraseodotkomorrestsewordNetwORRONIROMORPHARI पिवः पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोट्टाः ॥ ४-१०॥ पिनते रेते चत्वार श्रादेशा वा भवन्ति ।। पिज्जह । डन्नइ । पट्टइ । पोइ । पिअइ ॥ अर्थ:-संस्कृत धातु 'पा=पिच के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से पिज्ज, हल्ल. पट्ट और घोट्ट' इन चार आदेशों की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पञ्च होने से पिब के स्थान पर 'पिम रूम भी होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-पिचति-पिण, डल्लुइ, पट्टइ और घोट्टह-यह पीता है; वह पान करता है। पक्षान्तर में पिचति के स्थान पर पिअइ रूप को प्राप्ति भी होगी । ४-१०। उद्वातेरोरुम्मा वसुआ ॥४-११ ॥ उत्पूर्वस्य चातेः श्रोमा बसुअस इत्येवाचादेशौ वा मवतः ।। श्रोरुम्माइ। यसुभाइ । उचाइ॥ ___ अर्थ:-पतु उपसर्ग सहित 'का' धातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'प्रोसम्मा और ससुमा' रूपों की भावेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'उना = उद्वा' के स्थान पर 'उज्या' रूप भी होमा। उदाहरण यों है:--उदाति = मोहम्मा, वसुआ और उब्याइ-बह हवा करता है।४-११ ।। निद्रातेरोहीरोङ घौ ॥ ४-१२ ॥ निपूर्वस्य द्रातः मोहीर उच्च इत्यादेशो या भवतः ॥ मोहीरइ । उच्चइ । निदाइ । अर्थ:-नि उपसर्ग सहित 'दा' धातु के स्थान पर प्राकृत में शिल्प से 'ओहीर और जब इन दो रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है । पचान्तर में निद्रा के स्थान पर 'निहा रूप भी होगा। जैसेनिद्राति-ओहरिङ, उबद और निहाई - वह निद्रा लेता है ।। ४-१२ ।। आ राइग्घः ॥४-१३ ॥ आजियते राइन्ध इत्यादेशो वा भवति ॥ पाइन्धइ । अग्धाइ ।। अर्थ:-संकृत धातु 'बाजिन' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'आइग्घ' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्सर में अन्धा रूप भी होगा । जैसे-भाजनति-आइग्बड़ और अग्याइन्यह सूबता है। स्नातरम्भुत्तः ॥४-१४ ॥ नातेरभुत्त इत्यादेशो चा भाति ।। प्रसइ । हाइ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 409440 $$460460046m अर्थः - संस्कृत धातु ग्नो के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'अम्भुत' रूप की प्रदेश प्राप्ति होती है | पक्षान्तर में 'रहा' रूप भी होगा जैसे-स्नाति = अब्भुत्तइ और हाइ=बह स्नान करता है । 1 समः स्त्यः खाः ॥ ४--१५ ॥ संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति || संखाह | संखायं ॥ = अर्थ:-सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत धातु 'ये स्त्याय' स्थान पर प्राकृत में 'खा' रूप की प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे - संस्याचार्त संखाइ = वह घेरता है, वह फैलाता है । वह सर्व प्रकार से चिन्तन करता है। संस्त्यनम् = संखायं = ध्यान करना, चिन्तन करना ।। ४- १५ ।। स्थष्ठा थक्क चिह्न - निरप्पाः ॥ ४-१६ ।। - विछतेरेते नाना देवा सति || लाइ | ठाइ । ठा । पट्टि । उडिओ | पट्टाविओो । उट्ठात्रियो । थक | fage | चिऊण । निरपइ । बहुलाधिकारात् कचिन भवति । धियं । था । पत्थिओ । उत्थिश्रो । थाऊण ॥ 1 I अर्थ:- ठहरने अर्थ वाली संस्कृत धातु 'स्थातिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में चार आदेश रूपों की प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार है: - (१) ठा, (२) थक्क (३) चिठ्ठ और (४) निरप्प | उदाहरण इस प्रकार है: - तिष्ठति = ठाह, ठाअइ, थक्कड़, [ चिces निरप्पs = वह ठहरता है। अन्य उदाहरण मी इस प्रकार हैं: - ( १ ) स्थानम् = ठाणं = स्थान । (२) प्रस्थितः = पट्टिश्रो = जाता हुआ; (३) उत्थितः = उट्टी उठता हुआ अथवा उठा हुआ (४) प्रस्थापितः = पट्टाविश्र = रखा हुआ अथवा रखता हुआ; (५) उत्थापित: बठ्ठाविओो उठाया हुआ, स्थित्वा = चिट्ठिऊ = ठहर करके । = = बहुलं सूत्र के अधिकार से कहीं कहीं पर उक्त आदेश प्राप्त नहीं भी होती है, जैसे कि स्थित म थिअं ठहरा हुआ, रखा हुआ | स्थान = थार्ण = स्थान पस्थितः = पत्थिओ प्रस्थान किया हुआ, जाता हुआ । उत्थितः = उस्थिओ उठा हुआ, और स्थित्वा = थाऊण = ठहर करके । यो सर्वत्र श्रादेश रहित स्थिति को मो समझ लेना चाहिये ||४ १६।। = उदष्ठ - कुक्कुरौ ॥४--१७| उद: परस्य तिष्ठतेः ठ कुक्कुर इत्यादेशौ भवतः ॥ उड! उक करई ॥ अर्थः :- उत् उपसर्गसहित होने पर स्थातिष्ठ धातु के स्थान पर 'ठ' और 'कुक्कुर' धातु-रूपों की यादेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उतारी हह और उक्कुक्कुर = वह उठता है ॥४-१७॥ = Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरया* [ ३४६ ] .0000orrorrrrrrrrrrrrowroorkerosisterdress00000000000000000000000004 म्लेर्वा-पवायौ ॥४-१८ ॥ म्लायते; पब्वाय इत्यादेशौ वा भवतः ।। बाइ । पयायइ । मिलाइ । अर्थ:--मुरमाना अथवा कुम्हलाना अर्थ वाली संस्कृत धातु 'म्लैं' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'दा और पवाय इन दो धातुओं की आदेश प्रान होनी है वैकल्पिक यन्न होने मे पन्नांतर में मिला' रूप की भी प्राति होगी। इसका है- समागी कार, मकसद और मिलाई = वह कुम्हलाता है, वह मुरझाता है ।। ४-६८ || निर्मो निम्माण-निम्मी ॥४-१६ ॥ निर् पूर्वस्य मिमीतरतावादेशों भवतः ।। निम्माणइ । निम्मवइ ।। अर्थ:-निर उपमर्ग सहित 'मा' धातु के स्थान पर प्राकृत में निम्माण और निम्मब' ऐसे दा धातु-रूपों की प्रादेश प्रानि होता है । जैसे:- निर्मिमाते निम्माणइ और निम्मषइ = वह निर्माण करता है ।। ४-१६ ।। क्षेणिज्झरो वा ॥ ४-२०॥ क्षयतेणिज्झर इत्यादेशो वा भवति ॥ णिज्झरह । पने भिजन ॥ अर्थः-नष्ट होना अर्थ वाली संस्कृत धातु 'क्षि' के स्थान पर प्राकृन में 'णिज्झर' धातु-रूप की पादेश प्राप्ति होती है । पक्षान्तर में 'झिज' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे-क्षयति अथवा क्षयते = णिज्रइ अथवा झिज्जा- वह क्षीण होता है, वह नष्ट होता है ।। ४-२० ।। छदे णे णुम-नूम-सन्नुम-ढक्कौम्बाल-बालाः ॥४-२१ ॥ छदेपर्यन्तस्य एते पडादेशा वा भवन्ति ।। णुमइ । नूमह । णत्वे घुमड | सत्रुम । डकइ । ओम्बालइ । पब्बालइ । छायइ ।। अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णिच्' पूर्वक 'छ'- 'बादि धातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से छह धातु-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है, कम से इस प्रकार हैं:-१) णुम, (२) नूम, (३) सन्नुम, (४) दस, (५) ओम्बाल और (६) पवाल। सूत्र-संख्या १-२२६ से श्रादेश-प्राप्त रूप नूम में स्थित भादि नकार को एकार की प्राप्ति होने पर सातवां आदेश प्राप्त रूप 'णूम' भी देखा जाता है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विद्योदय हिन्दी व्याख्या सहित * 04404 वैकल्पिक पक्ष होने से आठवां रूप 'हाय' भी होगा सभी के उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:छादयति (अथवा छादयते) = (1) णुमइ, (२) नूमइ, (६) गूमइ. (४) सन्नुमइ, (५) ठक्कर, (६) ओम्बालड़. (७) पव्वाल और (4) छायड़ वह दांपता है, वह आच्छादित करता है | ४-२१ ॥ नित्रि पत्यो िहीडः || ४-२२ ॥ निवृगः पतेव एयन्तस्य सिहोड इत्यादेशो वा भवति || सिहोड | पक्षे | निवारेह पाडेह || [ ३५० ] 40 अर्थः--'नि' उपसर्गं सहित वृगु धातु और पत धातु में प्रेरणार्थक 'एयन्त' प्रध्यय साथ में होने पर दोनों धातुओं के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'हिट' धातु रूप की यादेश प्राप्ति होती है। जैसे:- निवारयति = पिछोड़ वह कमाता है, पचान्तर में निवारयति के स्थान पर नारे भी होगा । पातयति = पिहीउड़ = वह गिराता है और पक्षान्तर में पांडेइ रूप भी होगा ||४-२२ दूङो दूमः ॥४-२३॥ दूङो एयन्तस्य दूम इत्यादेशो भवति || मेड़ मज्झ हिश्रयं ॥ अर्थः- प्रेरणार्थक स्यन्त प्रत्यय साथ में रहने पर धातु के स्थान पर प्राकृत में दूम धातुरूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे दुनोति मम हृदयं = मे मज्झद्विभयं = वह मेरे हृदय की दुःखी करता है-पीड़ा पहुँचाता है। १४-२४ धवले दुमः ||४-२४|| धवलयतेपर्यन्तस्य दुमादेशो वा भवति ॥ दुमइ । धवलइ | स्वराणी स्वरा (बल) [४-२३८) इति दीर्घत्वमपि । दूमियं । ववलितमित्यर्थः ॥ I अर्थः-- प्रेरणार्थक एयन्त प्रत्यय के साथ संस्कृत बाद 'धवल' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'दम' तु रूप की. आदेश प्राप्ति होती है। जैसे: धवलयति = हम अथवा घयल कराता हैं, वह प्रकाशमान कराता है। सूत्र-संख्या ४-२३० के विधान से प्राकृत भाषा के पदों में बहे हुए स्वरों के स्थान पर प्रायः अन्य स्वरों की अथवा दीर्घ के स्थान पर हस्व स्वर की और स्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति हु करती है । जैसे- धतिमन्दुमिनं अथवा दुमि सफेद कराया हुआ अथवा प्रकाशमान कराया हुआ ।। ४-१४ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण .sretreakistrationwidootkirsasorrowersitosdhoobsitarmotise दुइटै रोइर: -.१५ तुलेण्यन्तस्य श्रोहाम इत्याविशी वा भवति ।। श्रोहामइ । सुलई ॥ अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय 'एयन्त सहित संस्कृत धातु तु न के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'मोहाम' धातु रूप को आदेश प्राप्ति हुआ करता है । जैसे-तुल यति = मोहामइ = वह लोल कराता है। प्रक्षान्तरं में तुलई' = वह लोल कराता है ।। ४-२६ ।। विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः ॥ ४-२६ ॥ विरचयतेपर्यन्तस्य भोलुण्डादयस्त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। मोलुण्डइ । उल्लु एडइ । पहिस्थइ । विरेड् ॥ अर्थ:--प्रेरणार्थक प्रत्यय यन्त सहित संस्कृत धातु विर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन पातु आदेश हुमा करते हैं; जोकि कम से इस प्रकार हैं:-18) श्रोसुण्ड, (२) मुण्ड और (३) पनहरथ । पंज्ञान्तर में विरेअ रूप भी होगा । सधारण यों है:--विरेण्यति = ओलुइ, उसलुएडइ, पहत्या-वह बाहिर निकलकाता है; पहं विरेचन (झराना पकाना) करता है। पातर में विरचयत्ति का बिरेअाह रूप भी बनेगा।।४-२६ ।। तडेराहोड-विहोडौ ॥ ४-२७ ॥ सडेयन्तस्य एतावादेशौ वा भवतः ।। आहोडइ । बिहोडई । पन्चे । ताडे । अर्थः प्रेरणार्थक प्रत्यय एवन्त' सहित संस्कृत धापू त के स्थान पर प्राकृत में 'आहोड' और 'विहाँट मी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'ताड' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैमे:- ताडयति = आहोडा और बिहोडबह मार पीट कराता है, वह ताड़ना कराता है । पक्षान्तर में ताडेइ' कर होगा ।। ४.२७ ।। मिने साल-मेलबो ॥४-२८॥ मिश्रयतेपर्यन्तस्य धीसाल मेलव इत्यादेशौ वा भवतः ।। वीसालइ ! मेलवइ । मिस्सा। अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय 'रबन्त' सहित संस्कृत धातु 'मित्र' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। ये हैं (१) कोसाल और मे लव । पक्षास्तर में 'मिस' रूप भी होगा । उदाइरल. को है।-मिश्रपति - पीसाला और मेलपद = बह मेल मिलाप कराता है, यह भेल संभेल कराता है । पक्षान्त में मिस्सह रूप.ोता है। ४-२८ ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * उद्धले गुगठः ॥४-२१ ॥ उद्ध लेण्यन्तस्य गुण्ठ इत्यादेशो वा भवति ।। गुण्ठइ । पो । उलू लेइ ॥ अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय 'एयन्त' सहित तथा उद् उपसर्ग सहित संस्कृत धातु धूल' के स्थान पर प्राकृत में 'गुण्ठ' घातुरूप को विकल्प से आदेश प्राप्ति होता है । पतान्तर में उद्धृत रूप भा बनेगा। जैसे:-उधूल यति - गुण्ठ अथवा उनले। - वह इंकाता है वह व्याप्त कराता है, वह श्राच्छादित कराता है ।। ४-२६ ॥ भ्रमेस्तालिगण्ट-तमाडौं ॥४-३०॥ भ्रमयते पर्यन्तस्य तालिअण्ट तमाड इत्यादेशौ वा भवतः ॥ तालिअण्टइ । तमाडइ । भामेइ । भमाडेइ । भमावेइ ॥ अर्थ:-प्रेरणार्थक ण्यन्त प्रत्यय सहित संकृत धातु भ्रम् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकरूप से 'सालिअण्ट और तमास' ऐसे दो धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे: भ्रमयात = तालिमपटइ और तमाडइ = वह घुमाता है । "भामेड़, भमाडेइ, भमावेड" रूप भी होते हैं । ४-३० ॥ नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः ॥४-३१॥ नशेपर्यन्तस्य एते पश्चादेशा वा भवन्ति ।। विउडइ । नासत्रइ । हारवइ । विप्पगालइ । पलाचई । पक्षे । नासह ॥ अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय बन्त सहित संस्कृत धातु नशू के स्थान पर प्राकृत माषा में विकल्प से पांच घातु रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। ये क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) 'वह (२) नासव, (३) हारव, (४) विप्पगाल और (५) पलाव । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:-नाशयति = बिससुइ, नासवइ, हारवइ, विप्पगाला और पलावइ -- यह नाश कराता है। पज्ञान्तर में नासइ भी होगा और इसका अर्थ भी 'वह नाश कराता है' होगा ।। ४-३१ ।। दृशेर्दाव-दस-दक्खवाः ॥ ४-३२ ॥ दृशेपर्यन्तस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ दायइ । दसइ । दक्खयह ! दरिसइ ।। मथः--प्रेरणार्थक प्रत्यय एयम्त सहित संस्कृत धातु देश के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकरूप से तीन आदेश होते हैं; के कम से यों हैं:-(१) वाव, (२) देस और (३) दक्खव । इनके उदाहरण इस Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * .00000000000rsorrtoortootostosroresosorrorosorrrrrrrrrrror.00+0000rn प्रकार हैं:-दर्शयति - दापड़, देसह और दक्खषद - यह बतलाता है अथवा वह प्रदर्शित कराता है। पक्षान्तर में दरिसई रूप होता है ।। ४-३२ ।। उद्घटेरुग्गः ॥४-३३ ।। उत्पूर्वस्य घटेर्यन्तस्य उग्ग इत्यादेशो वा भवति ॥ उग्गइ ! उग्घाडइ ।। अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित तथा उत्त उपसर्ग महित संस्कृत धानु घट' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकला से 'उग्ग' ऐने धातु रूप को आदेश प्रानि होती है। जैसे:-उद्घाटयति - उगई = वह प्रारम्भ कराता है अथवा वह खुला कराता है । पक्षान्तरे उरबाड रूप भी होता है ।।४-३६।। स्पृहः सिंहः ॥४-३४ ॥ स्ट हो एपन्तस्य सिह इत्यादेशो भवति ॥ सिहइ ।। __ अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित संस्कृत-धातु 'स्पृह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में नित्य रूप से 'सिंह' धातु-रूप की आदेश प्राति होती है । जैसे:-सुहयति = सिहावह चाहना-इलझा कराता है ।। ४-३४ ॥ संभावरासंघः ॥४-३५ ॥. संभावयतेरासङ्घ इत्य देशो व भवति ॥ आसङ्घइ । संभावइ । अर्थ:-संस्कृत-धातु ममावय के स्थान पर प्राकृत--भाषा में विकल्प से 'अाम ऐमे धातुरूप की आदेश प्रामि होती है। पशान्तर में समावय के स्थान पर संभाव रूप भी होगा । जैसेसंभावयति = आसाइ, पक्षान्तर में संभाषन - यह संभावना कराता है ।। ५-३५ ।। " उन्नमरुत्थंघोल्लाल-गुलु गुलोप्पेलाः ॥४-३६ ॥ उत्पूर्वस्य नमेण्यन्तस्य एते चत्वार आदेशाचा भवन्ति ॥ उपचार । उल्लालइ । गुलुगुञ्छइ ! उप्पेला । उन्नामइ ।। अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय एयरत सहित तथा सम् उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु नम् के स्थान पर प्राकृत-भाषा में वैकल्पिक रूप से चार धातुओं का आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:-(१) उत्थंध, (२) उल्लाल (३) गुलुगुच्छ और (४) उपपेज । पक्षान्तर में 'उमाम' मा की भी प्राप्ति होगी । उदाहरण इस प्रकार:-उन्नामयति - उस्था , उल्लालइ, गुलगुञ्छा , उप्पल और उन्नामइ, यह या उदाता है। वह अगर उठाता है ।। ४-३६ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * meromrrowroorter00000rootstarrestion00000000000000006onstron प्रस्थापेः पट्टव- पेरडयो ।। ४-३७ ।। प्रपूर्वस्य तिष्टतेपर्यन्तस्य पर पेण्डय इत्यादेशौ चा भवतः ॥ पढाइ ! वेण्डवइ। पट्टावह ॥ अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय प्यन्त सहित तथा प्र' उपपर्ण सहित संस्कृत-धातु प्रस्थाप' के स्थान (र प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'पटुत्र और पेण्ठव' रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है । जैसे:-प्रस्थापयति = पढन और पेण्डपइ = वह स्थापित करवाता है । पक्षान्तर में पट्टापरूप भी होता है । ४-३७ ।।. विज्ञपेर्वोक्काबुक्की ॥४-३८ ।। विपूर्वस्य जानतेपर्यन्तस्य वोक अधुक इत्यादेशौ वा भवतः ।। वोकइ । अधुकइ । विएणबइ।। अर्थ:--प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित तथा 'वि' उपसर्ग सहित विशेष ज्ञान कराने अर्थक अथवा विनय-विनाते कराने अर्थक संस्कृण धातु 'विशप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वोक और अचुक ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में विज्ञापय' का प्राकृत रूपान्तर 'विष्णव' भी बनेगा । उदाहरण इस प्रकार है:-विज्ञापयति = वीकइ, अनुक्कड़ और विण्णवड़-वह विशेष ज्ञान करवाता है अथवा वह विनति करवाता है॥४-३८ ।। अरल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः ॥ ४-३६ ।। अर्पण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ अग्लिवइ । चच्चुष्यइ । पणामह । पचे अध्येइ ॥ अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ण्यन्त माहिल संस्कृत धातु 'अप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है । जो कि इस प्रकार से है:-(१) अरिलव, (२) चच्चुप्य और (३) पणाम । पक्षान्तर में प्रार' रूप भी बनेगा । कारों के बाहरण इस प्रकार है:--अर्पयति आलिवइ, बच्चुप्पड़, पणामइ और अप्पेड़ = वह अर्पण करवाता है ।। ४. 1 . यापेर्जयः ॥४-४०॥ याते पर्यन्तस्य जब इत्यादेश्नो वा भवति ।। जवइ : जावेइ ।। अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय स्यन्त सहित संस्कृत धातु 'या' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकास से 'जब' धातु-रूप की श्रादेश प्राप्त होतो । पक्षान्सर में जाक' रूप की भी प्रालि होगी हो । जैसेयापयति = जपत्र अथवा जाह-वह गमन करवाता है। यह म्यसोत करवाता है। ४-४॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [३५] प्लावरोम्बाल-पव्वाल्लौ ॥४-४१॥ मागते कान्तरसामा गगजः ।। बोन्सालइ । फ्याला । पावे।। अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित भिगोने तर बतर करने' अर्थक संस्कृत-धातु 'लाव' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सोम्बाल और पम्यान ऐप्ती वो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में मात्रय के स्थान पर 'पाव' म्प को भी प्राप्ति होगी । बैंसे-प्लावयति आभ्वाला, परषालड़ और पापेइ = वह भिगोवाता है। वह तर बतर करवाता है । वह भिंजवाता ॥४-४१॥ विकोशेः पक्खोडः ॥४-४२ ॥ विकोशयतेनाम थातीण्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति ।। पक्खोडइ । विकोसइ ॥ अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त पहित विकसित फसना, फौलाना' अर्थक संस्कृत-पातु 'विकोश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पक्कास' धातु रूप को प्रादेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में विकोशय के स्थान पर विकास रूप को भी प्राप्ति होगी । जैसे-विकोशयतिपसोडइ अथवा विमोसह - बह विकसित कराता है, वह फैलाता है ।। ४-४२ ।। रोमन्थे रोग्गाल-बगोलो॥४-४३ ॥ रोमन्थे मधातोण्यन्तस्य एतावादेशौ वा भवतः ॥ श्रोग्गालइ 1 वग्गोलइ । रोमन्थह ॥ अर्थ:-- 'पबाई हुई वस्तु को पुनः चाना' इस अर्थ में काम पाने वाली धातु रोमन्थ' के साथ गुने हुए प्रेरणार्थक प्रत्यय एवन्त पूर्वक सम्पूर्ण धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'ग्गाल और वमोल' आदेश की प्राप्ति विकल्प से होती है । रक्षान्तर में रोमन्थ' का सद्भाव भी होगा। जैसे-रोमन्थयति भोग्गालइ, वग्गोलह अवश रोमन्थरवह चबाई हुई वस्तु को पुनः चबाता है-वह पगुराता है ।।४-४।। फमे र्णिहुवः ॥ ४-४४॥ फौः स्थार्थएयन्तस्य णिहुच इत्यादेशो का भवति ॥ णिहुवइ । कामेइ॥ अर्थ:-स्वार्थ में मेरणार्थक प्रत्यय एबन्त पूर्वक संस्कृत-धातु का के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'गिध' को भादेश प्राप्ति विकल्प से झेता ने । प्रहरणार्थक शिस् अस्यप की संबोजना से 'कम' धातु का रूप 'काम' हो जायमा । जैसे-कामयते = णिहुवह अथवा कामेइ ८ वह अपने लिये काम-भोगों की इच्छा करता है अथवा इच्छा करता है ।।-४११, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५६ ] 146640444 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 6640060454 ******* 420969494400 प्रकाशे वः || ४--४५ ॥ प्रकाशे पर्यन्तस्य च इत्यादेशो वा भवति । शुब्ध | पयासे || अर्थ:-- प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त साहेत संस्कृत धातु प्रकाश के स्थान पर प्राकृत भाषा में अ की प्राप्ति विकल्प से होती हैं। पक्षान्तर में 'क्याम' रूप को भी प्राप्ति होगी जैसे :- प्रकाशयति = शुध्ष अथत्रा पयासेइ वह प्रकाश करवाता है ।४-४५ ।। कम्पेच्छिलः ॥ ४-४६ ॥ कम् पर्यन्तस्य विच्छोल इत्यादेशो वा भवति । चिच्छोल । कम्पेड़ || अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय स्यन्त सहित संस्कृत धातु कम्प के स्थान पर प्राकृत भाषा में त्रिकल्प से 'विकल' की प्राप्ति होती है। वैकल्पि पक्ष होने से कम्प की भी प्राप्ति होगी । जैसे:- कम्पयति = विच्छी अथवा कम्पइ = वह कंपाता है, वह धुजवाता है ।। ४.४६ ।। आरोपे लः ॥ ४-४७ ॥ रुहे एर्यन्तस्य वल इत्यादेशो वा भवति ।। बलइ | आरोवेद्द || अर्थ:-- प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित संस्कृत धातु बारुद के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'बल' की प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में आरोव को भी प्राप्ति होगी। जैसे:- आरोहयति = वङ्ग अथवा भres वह चढवाता है । । ४-५७ ॥ दोलेरोलः ॥ ४-४८ ॥ दुलेः स्त्रार्थे यन्तस्य रङ्खोल इत्यादेशो वा भवति । रङ्गोलह । दोलई || अर्थः- स्वार्थ रूप में प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित संस्कृत धातु दुल् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'रोल' की आदेश प्राप्ति होती है। पचान्तर में 'दोल' की भी प्राप्ति होगी। जैसे— दोलयति = रबखोल अथवा दोलइ वह हिलाता है अथवा वह भुलाता है ॥ ४-४८ ॥ F रञ्जरात्रः ॥ ४-४६ ॥ रख पर्यन्तस्य राव इत्यादेशो वा भवति ॥ राधे । रजे६ ॥ . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३५७ ] .000000000000000000000000000000onsorror+koonl0d0torrer.00000000000000 अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ण्यन्त सहित संस्क्रुप धातु र के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'संघ' की आदेश प्राप्ति होती है । पत्तान्तर में रख की भी प्रानि होगी। जैसे रखजयति-राधेड़ अथवा रजइ = वह रंग लगाता है, यह खुशी करता है ।। ४-५६ ।। घटे परिवाडः ॥४-५०॥ घटे पर्यन्तस्यं परिवाड इत्यादेशो वा भवति ॥ परिवाइं । घडेइ ।। अधी... सार्थक प्र ति हेत संत पापा के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से परिवार की प्रादेश प्राप्ति होती है । पज्ञान्तर में धन की प्राप्ति भी होगी । जैसे:--घटयति = परिपाडेइ अथवा घडेइ = वह निर्माण करवाता है । वह रचाता है ।। ४-५० ॥ वेष्टेः परिपालः ॥४-५१॥ वेष्ट पर्यन्तस्य परिपाल इत्यादेशो वा भवति । परिमालेइ । वढेइ !! . अर्थः --प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित संस्कृत-धातु 'बेष्ट ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'परिश्राल' की आदश प्राप्ति होता है पक्षान्तर में वेद की भी प्राप्ति होगी । जैसे:-पेष्टयति = सरिआलइ अथवा वेढेइ = वह लपेटता है अथवा लपेटाता है । ४-५१ ॥ क्रियः किरणो वस्तु के च ॥ ४-५२ ॥ णेरिति नियनम् । कोणतेः किण इत्यादेशो भवति । वेः परस्य तु द्विरुक्तः केश्चकारा त्किणव भवति ॥ किपड़ । विकइ । सिक्किम । अर्थ:-प्रेरणार्थक प्रत्यय यन्त संबंधी प्रक्रिया एवं इससे संबंधित प्रादेशमाप्ति की यहाँ से समाप्ति हो गई है। अब कंवल नामान्य रूप से होने वाला आदेश-प्राप्ति का ही वर्णन किया जायेगा। खरीदने अर्थ: संस्कृत धातु की (कोणा) के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'किण' आदेश मारिस होती है। जैसे:-क्रीणाति अधवा कीगीते - किणइ = बह खरोदता है। जिस समय में को धातु के साथ में वि' उपमर्ग जुड़ा हुआ होता है तब प्राकृत-भाषा में श्रादेश प्राप्त किया धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:-विकीणाति =पिकड़ - बह बोचला है । व न में रहे कि द्वित्व के की प्राप्ति होने पर विकिए' धातु में रहे. हुप 'कार' का लोप हो जाता है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moranrotesterstoorerroronsonanews000000000modeokreerossessino.0000 __ मूल सूत्र में 'चकार' दिया हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि कभी कभी विकण' धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्र 1' की प्रामि होकर 'शकार' का लोप भी नहीं होता है। जैसे--विक्रीणाति = विविकणइ = यह बचता है ॥४-५२ ।। भियो भा-बीही ॥ ४-५३ ॥ बिभेतैरतावादेशौ भवतः॥भाइ । भाइ । मीहइ । चीहिनं ।। बहुलाधिकारान् भीओ ॥ अर्थ:-डाने अर्थक संस्कृत धातु 'भी' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'भा और बाह' की श्रादेश प्राग्नि होती है । जैसे-भयति-भाइवह डरता है; विभति-बीड-वह उरता है । भील - भाइभं और पीहिन्डरा हुश्रा अथवा उरे हुए को । बहुलं सूत्र के अधिकार से 'भीतः' विशेषण का रूपान्तर भीओ भी होता है । भीश्री का अर्थ 'डरा हुया' ऐसा है ॥ ४-५३ ॥ आलीङोल्ली ॥ ४-५४ ॥ झालीयतेः अली इत्यादेशो भवति ।। अनियइ । अलीणो । अर्थ:-'या' उपससे सहित 'ली' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अल्ली' रूप की आदेश प्राप्ति होती है । जसे- आयितेभलियइ-वह पाता है, वह प्रवेश करता है, वह पालिङ्गन करता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-आलम: अल्लीणो = माया हुश्रा, प्रवेश किया हुश्रा, थोडासा झुका हुश्रा ॥४-५ ॥ निलीङोर्णिलीअ-णिलुक-णिरिग्ध-तुक्क-लिक-ल्हिकाः ॥ ४-५५ ॥ निलीड एते पडादेशा था भवन्ति । णिलीआइ । पिलुकाइ । णिरिन्धह । लुकइ । लिका । निहका । निलिज्जई ।। अर्थ:--मेटना अथवा जोड़ना अर्थ में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत धातु नि + ली-निली' के स्थान पर प्राकृत भाषा में बिवल्प से छह धासु षों की आदेश पारित होती है। वे कम से इस प्रकार हैं:(१) गिलीम, (२) शिलुका, (३) णिरिग्ध, (४) लुका. (५) लिया और १६) सिहक । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'निली' के स्थान पर निलिज' रूप की भी बानि होगी । सभी का उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-निलीयते -णि लोअइ, णिलुका, णिरिधर, लकर, लिकर लिहका अथषा निलिजाइ = वह भेटता है, यह मिलाप करता है। ४-५५ ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * । ३५६ । .oro+00000000000toresrotrakootonosotrostoernmoremonsorderstoors... विलीडेबिरा ॥ ४-५६ ॥ विली चिरा इत्यादेशो वा भवति ।। विराइ । यिलिजइ ॥ अर्थ:--'नष्ट होना, निवृत्त होना' आदि अर्थक संस्कृत-धातु 'वि + लो' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विरा' धातु की आदेश प्रामि होती है। बैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'दि + ली' के स्थान पर विलिज्ज' रूप की भी प्राप्ति होगी । जैसे:-विलीयते-विराइ अथवा विलिज्जर-वह नष्ट होता है अथवा वह निवृत्त होता है ॥ ४-५६ ।। । रुतेरञ्ज-रुण्टौ ॥ ४-५७ ॥ रौतेरेतापादेशौ वा भवतः ।। रुञ्जइ । रुएटइ : रवई ।। अर्थ:-श्रावाज करने अर्थक संस्कृत धातु 'रु' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से हज और रुएट' की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'र' के स्थान पर 'रव' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-रीति-रुकजइ, रुण्टइ अथवा इयान्वह पायाज करता है ।। ४-५७ ।। श्रुटे ईणः ॥ ४-५८॥ शृणोते हेण इत्यादेशो वा भवति ।। हणइ । सुणइ ।। अर्थ:-सुनने अर्थक संस्कृत--धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ण' धातु-रुप की प्रादेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ध्रु' का पुण रूपान्तर भी होगा । जैसे:गुणोतिहण अथवा सुण-बइ सुनसा है ॥ ४-५८ ।।. धृगे धुवः ॥ ४-५६ ॥ धुनाने धुव इत्यादेशो वा भवति ॥ धुवइ । धुणइ ।। अर्थ:-'पाना-हिलाना' अर्थक संस्कृत-धातु धू' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'धुव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है । धैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में धू' का धुण पान्तर भी होगा । जैसे:-धुनाति = धुबई अथवा धुण = वह कंपाता है.वह हिलाना है ॥ ४-५E 11. भुवेहो-हुव-हवाः ॥४-६०॥ भुवो धातोों हुव हव इस्येते श्रादेशाचा भवन्ति ॥ होइ । होन्ति हुबइ । हुचन्ति | Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 18++++++++++++++++++$$$$$1$$1$$$$$$$$$$$$%%%%%%%%%%%%%%} $$$$$$$$$4=; हवइ । हवन्ति ।। पक्षे । भवइ । परिहीण विहवो। भविउ । पभवइ । परिभवइ । संभवई ॥ क्वचिदन्यदपि । उम्भुप्रइ । भत्तं ।।। ___ अर्थ:-होना' अर्थक संस्कृत-धातु म = भव' के स्थान पर प्राकृत-पाषा में विकल्प से हो. हुच और हव' ऐसे तीन धातु--रूपों की प्रादेश पानि होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'भ-भव' कामव' रूपान्तर भी होगा जैसः भवति = होइ, हुघा और हवाई अथवा भयावह होता है । बहुवचन के उदाहरण इस पकार है:--भवन्ति - हन्ति, हुवन्ति श्रीर हयन्ति आश्रया भवन्ति वे होते हैं। कुछ प्रकीर्ण रु उदाहरण वृत्ति में इस प्रकार दिये गये हैं: (१) परिहीन -विभवः - परिहीण विहको = घन-यभय से हीन हुआ। इस उदाहरण में 'भव' के स्थान पर 'हव' रूप को प्रदर्शित किया गया है। (२) भवितुम = भविडं = होने के लिये । इस हेत्वर्थ-कृदन्त के रूप में संस्कुत-धातु-रूप 'भव' फे स्थान पर प्राकृत-भाषा में भी भव' रूप को ही प्रदर्शित किया गया है। (३) प्रभवति = पभवन - वह समर्थ होता है, वह पटुंचता है अथवा वह उत्पन्न होता है । इस वर्तमान-कालिक क्रियापद में संस्कृत धातु रूप 'प्रभव के स्थान पर प्राकृत भाषा में भी + भव' का प्रयोग किया गया है। (४) परिभवति - परिभषद - वह पराजय करता है अथवा तिरस्कार करता है । यहाँ पर भी 'भव' के स्थान पर 'भव' रूप का ही प्रदर्शन किया गया है। संभवति-संभवद (अ) वह उन्म होता है. (ब) संभावना होती है अथवा (स) ७३ ट संशय होता है । इस उदाहरण में भी भव' के स्थान पर भव' को ही प्राप्नेि हुई है। कहीं कहीं पर 'भूम' के स्थान पर उपरोक्त रूपों के अतिरिक्त अन्य रूप भी देखे जाते हैं। जैस-उद्भवति = उम्भुइ-वह उत्पन्न होता है । इस उदाहरण में 'भूभत्र' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'भुत्र' कब का प्रयोग प्रशित किया गया है। ऐसे विभिन्न तथा अनियमित रूओं के संबंध में 'बहुल' सूत्र की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। कभी कभी सर्वथा अनियमित रूप भी 'भू-भव' के प्राकृत भाषा में देखे जाते हैं। जैसे-भूतम् = मत्त' = उत्पन्न हुश्या । यह कमणि भूतकृदन्त का रूप है । एसे रूपों की प्राप्ति 'श्रार्षम्' सूत्र से सम्बन्धित है; ऐसा समझना चाहिये ॥४ ॥ अविति हुः ॥ ४-६१ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********* हो ॥ 1205544088009 बिर्जे पाये तोह इत्यादेशो वा भवति । हुन्ति । भवन् । हुन्तो । श्रत्रितीति किम् । * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-'वि' उपसर्ग नहीं होने की स्थिति में 'भूल' भव' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हु' धातु रूप की आदेश प्रति होती है। जैसे- भवन्ति हुन्ति = वे होते हैं । भवन् - दुम्ता = होता हुआ। इन उदाहरणों में 'भय' के स्थान पर '' का प्रयोग पदर्शित किया गया है। प्रश्नः - 'वि' उपसर्ग का निषेध क्यों किया गया हूँ ? भूते स्पष्टच कर्तरि भवतीत्यर्थः ॥ उत्तर:- जहाँ पर 'बि' उपसर्ग पूर्वक अर्थ होगा वहां पर 'भू=भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'हु' की आदेश प्राप्ति नहीं होगी, जैसे- भत्रति = हाइ=वह विशेष प्रकार से होता है। यों यहाँ पर 'हु' रूप का निषेध कर दिया गया है ।। ४-६१ ॥ पृथकू - [ ३६१ । - स्पष्टे व्त्रिः ॥ ४-६२ ।। ३ ककस्य व न पहुइ । पते । पभवेइ || ............... बिड इत्यादेशो भवति || वड | पृथक् स्पष्टो वा अर्थः-- पृथक् अर्थात अलग करने के अर्थ में और स्पष्टीकरण करने के अर्थ में 'भू=भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'डि' धातुरूप की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे- पृथग्भवति अथवा स्पष्ट भषति = णिव्वडर = वह थलग होता है अथवा वह स्पष्ट होता है ।। ४-६२ ।। प्रभौ हुप्पो वा ॥ ४-६३ ॥ इत्यादेशो वा भवति ॥ प्रभुत्वं नः प्रपूर्वस्यैवार्थः । भङ्ग चित्र अर्थः- जब 'भू= भव्' धातु के साथ में 'प्र' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो और जब 'प्र' उमर्ग का अर्थ शक्तिसम्पन्नता हो तो ऐसे समय में प्र + भ्रव धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हुप्प' आदेश की प्राप्ति होगी। इसका तात्पर्य यही है कि शक्ति सम्पन्नता' अर्थ पूर्वक 'भू=भत्र' धातु को विकल्प से 'हुप्प' प्रदेश-प्राप्ति होती हैं | पक्षान्तर में 'पत्र' प्राप्ति का भी संविधान जावना चाहिये । जैसे - हे अंगे चैव न प्रभवति मुन्दर अंगों वाली शिव ही वह शक्ति सम्पन्न नहीं होता है । इसका तपान्तर इस प्रकार है-अंगे फन पशु पक्षान्तर में 'पहुप्यह' के स्थान पर 'पभषेड़' रूप भी बनता है ।। ४-६३ ।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * क्ते हूः ॥ ४-६४ ॥ भुवः क्त प्रत्यये इरादेशो भवति ॥ हूअं । अणुहरं । परमं ।। अर्थ:-कर्मणि भूतकृदन्त प्रत्यय 'क-त' के साथ में 'भू' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'लू' धातु की श्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे-भूतम् = हू = हुआ । अन्य उपमा पूर्वक भू धातु के उदाहरण इस प्रकार हैं: (१) अनुसू - अहम : तुम हुआ। (२) प्रभूतम् = पहूअं - बहुत ।। ४-६४ || कृगेः कुणः ॥ ४-६५ ॥ कृगः कुण इत्यादेशो वा भवति ॥ कुणइ करइ ।। । अर्थ:--संस्कृत 'फ-करना' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कुण' धातु की आदेश-प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'कर' की प्राप्ति भी जानना । जैसे-करोति कुणा अथवा फरइवह करता है ।। ४-६५ ।। काणेक्षिते पिआरः ॥४-६६ ॥ काणेक्षितविषयस्य कगो णिबार इत्यादेशो वा भवति । णि भारइ । काणेक्षितं करोति ॥ अर्थ:-कानी नजर से देखने अर्थक धातु 'कृके स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'शिवार' की आदेश प्राति होती है। जैसे-काणक्षित करोति - णिभारइ % वह कानी नजर से देखता निष्टम्भावष्टम्भे णिह-संदाणं ॥ ४-६७ ।। निष्टम्भविपयस्यावष्टम्म विषयस्य च कुगी यथा संख्यं णियह संदाण इत्यादेशौ या भवतः ॥ णिहुइ । निष्टम्भं करोति ! संदाणइ । अवष्टम्भं करोति ॥ अर्थ:--'निश्चेष्ट करना अथवा चेष्टा रहित होना' इस अर्थक संस्कृत-या ' निम पूर्वक क' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकरूप से 'बिदाई' धातु हर को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-निशम्भ करोति =णिनुहड़ यह निश्चेष्ट करता है अथवा वह चेष्टा रहित होता है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण 2 [ ३६३ ] 494e4968945644%+++++++++vẽ+++ +++++++5+++++++&++++++++ + इसी प्रकार से 'अवलम्बन करना अथवा सहारा लेना' इस अर्थक संस्कृत-धातुश्रवष्टम्भपूर्वक क' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'संदाण' धातु को मादेश प्राप्ति होती है। जैसे- अषष्टम्म करोत-संढाणा - वह अवलम्बन करता है अथवा वह सहारा लेता है। पक्षान्तर में निष्टम्में करोति का प्राकृत रूपान्तर 'निट करेई' ऐसा भी होगा तथा 'अषष्टम्भ करोति' का प्राकृत रूपान्तर 'आदरभं करेड' भी होगा ।। ४-६७ ।। श्रमे वायम्फः ॥४-६८ ॥ श्रमविषयस्य गो वायम्फ इत्यादेशो वा भवति ॥ वायम्फइ । श्रमं करोति ॥ अर्थ:-'श्रम विषयक कृ धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वावम्फ' धातु को आदेश प्राप्ति होतो है। जैसे-श्रम करोति वायम्फड़-वह परिश्रम करता है । पक्षान्तर में 'श्रमं करोति' का 'सम फरेई' भी होगा। ४-६८ ।। मन्युनौष्ठमालिन्ये णिवोलः ॥४-६६ ॥ मन्युना करणेन यदोष्ठमालिन्यं तद्विषयस्य कगो णिच्योल इत्यादेशो वा भवति ॥ णियोलइ । मन्युना प्रोष्ठं मलिनं करोति ।। अर्थ:--'कोष के कारण से होठ को मलिन करने' विषयक संस्कृत धात 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सिम्बोल' धातु को आदेश प्राप्त होती है। जले-'मन्युना आठ मलिनं करोति = मिधीला - कह श्रोध से होठ को मलिन करती है अथवा करता है । पक्षान्तर में 'मन्नुणा ओदठ मलिणे करेइ' भी होगा। शैथिल्य लम्बने पयल्लः ।।४-७० ॥ शैथिल्य विषयस्य लम्बन विषयस्य च कमः पयलः इत्पादेशो पा भवति ॥ पयत्नइ । शिथिली भवति, लम्बते वा !! अर्थः-'शिथिलता करना' अथवा "वीला होना-लटकना" इस विषयक संस्कृत धातु 'क' के स्थान पर प्राकृत भाषा में निरूप से 'पमल्ल' धातु की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे-शिथिली भपात (अथवा) लम्बते - पयल्लइ बह शिथिलता करता है अथवा वह डोलाई करता है-वह ढला होता है। पक्षास्तर में सिाढलइ अथया) लम्बे होगा॥ ४-७० ॥ निष्पाताच्छोटे णीलुन्छः ॥४-७१॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * -000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 निष्पतन धिपयस्य श्राच्छोटन विषपस्य च कगो णीलुच्छ इत्यादेशो भवति वा ॥ णीलुन्छ । निष्पतति । श्राच्छोटयति वा ।। अर्थ:--गिरने अथवा कूछने बिषयक संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णीलुञ्छ' धातु को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे-निष्पत्ततिणीलच्छा-वह गिरता है और आच्छोटयति = णीलुन्छह-त्रा कूदता है। पक्षान्तर में णिप्पडइ और आछोडइ भी होगा || ४-७१ ।। सुरे कम्भः ॥४-७२ ॥ क्षुर विषयस्य कृगः कम्म इत्यादेशो वा भवति ।। कम्मइ । क्षरं करोतीत्यर्थः ।। अर्थ:-हजामत करने अर्थक 'कृ' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प में कम्म' धातु की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे-शुरं करोति = कम्मइ = वह हजामत कराता है । पक्षान्तर में 'खरं करेई' ऐसा भी होगा ।। ४-७२ ।। चाटौ गुललः ।। 8-७३ ॥ चाटु विषयस्य कुगा गुलल इत्यादेशो वा भवति ॥ गुललइ । घाट करोतीत्यर्थः ॥ अर्थ:-'सुशामद करना-चाटुकानी करना' विषयक 'कृ' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गुलल' धातु को श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे- चाटुकरोति = गुललइ-वह खुशामद करता है-वह चाटुकारी करता है। पक्षान्तर में 'चाडुकरे' ऐसा भी होगा ॥४-७३ ॥ स्मरेभैर-कूर-भर-भल-लढ-बिम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः ॥ ४-७४ ॥ स्मरेते नवदेशा का भवन्ति । झरइ । सूरदा भरह । भलइ । लढइ । विम्इरह । सुमरइ । पयरइ । पम्ह इ । सरह) अर्थ:-'स्मरण करना-याद करना' 'अर्थक संस्कृत धातु 'स्मर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में : विकल्प से नव धातु रूपों को श्रादेश प्रानि होना है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) झर. (२) झूर, {३) भर, (४) भल, (५) रूढ (१) विम्हर, (७) सुमर, () पयर और (6) पहुह 1 वैकल्पिक पक्ष होने से पकान्तर में 'सार' के स्थान पर 'सर' रूप की भो प्राप्ति होगी। इनके उदाहरणं कम से इस प्रकार है: स्मरति - (१) झरह (1) अरह ) भरइ, ६) भलइ, (५) लडड़, (६.).विम्हरड़, (७) सुमरह, (८) पयरइ, (२) पम्नुहह और (१०) सरह = वह स्मरणा करता है अथवा याद करता है; यों दस हो क्रियापनों का एक ही श्री Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पांकृत व्याकरण * 200000.00600-8000000000000000000000000000000000000000000000000000000+ विस्मुः पम्हुस-किम्हर-वीसराः ॥ ४-७५ ॥ विस्मरतेरते श्रादेशा भवन्ति ॥ पम्हुसई । विभहरइ । बीसरह ।। अर्थः-- भूलना-भूल जाना' अथवा विस्मरण करना' अर्थक संस्कृत धातु विस्मर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में सान धातु की प्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:-(१) पम्हुम, (२) बिम्हर और (३) वीमर । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:-विस्मराति-पम्हसद, विम्हरइ और बीसरई - वह भूलना है अथवा वह विस्मरण करना है ।। ४-४४11. व्यागेः कोक-पोक्को ।।४-७६ ॥ व्याहरतेरेताबादेशी वा भवतः ।। कोक्कइ । हृस्वत्वे तु कुक्कई । पोक्कइ । पक्षे। वाहरइ ॥ अर्थ:--'चुलाना,अाह्वान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'ध्याल के स्थान पर प्रकृत--भाषा में विकल्प से वो धातु-रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है जो कि कम से इस प्रकार हैं:-(कोक और पोक्फ । सूत्र-संख्या १.८४ से विकल्प से दीर्घ स्वर के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन होने पर हस्व स्वर को प्रति होती है अत: 'कोक के स्थान पर 'कुक' को भी प्राप्ति हो सकता है, पक्षान्तर में 'व्याह' धातु का 'वाहर' रूप भी प्राप्त होगा । उनन चारों धातु-रूपों के उहिरण कम से इस प्रकार है:--मुयाहरांत= (१)कोड, (२)कुकर (३)ोकर और (४)वाहरइ-वह बुलाता है, वह अाह्वान करता है ।। ४-७६ ॥ . प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ॥४-७७॥ प्रसरतः पयन उवेल्ल इत्येतावादेशी वा भवतः ।। पयल्लइ । उवेलाइ । पसरह ॥ अर्थः-पसरना, फैलना' अथक संस्कृत धातु 'प्र + मृ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विश्वरूप से दो धातु का आदेश प्राप्ति होती है। के ये हैं:-) पयज और (२) वक्त । पक्षास्तर में प्र+म' के स्थान पपर' की भी प्राप्ति होगा । जे पेः-प्रसंरॉति-(१)या(क) और (३) सरबह पता है अथवा वह फैलता है ।। ४.६७ ।। - महमहो गन्धे ॥४-७८ ॥ प्रमरते गन्ध विपये महमह इत्यादेशो वा भवति ।। महमहइ माई । मालइ-गन्धों पसरह 11 गन्ध इति किम् । पसर ॥ . . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६६ । * शियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ अर्थ:-'गन्ध फैजना' इस संपूर्ण अर्थ में प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'महमह' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जहा पर 'गन्ध फैलता है' ऐसे अर्थ में 'गन्ध' शब्द स्वयमेन विद्यमान हो वहां पर 'महमह' धातु रूप का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, किन्तु 'पर' धातु रूप का ही प्रयोग किया जा सकेगा। इसलिए वृत्ति में 'गन्ध इतिकिम् = गन्ध ऐमा क्यों ? प्रश्न उठाकर आगे पर किया पद द्वारा यह समाधान किया गया है कि 'गन्ध' कर्ता के साथ 'पसर' किया का प्रयोग होगा । सः-मालती-गन्धः प्रसरति = मालइ गन्धी पसरड़ = मालती-लता का गन्ध फैलता है । यो महामह' धातु-रूप की विशेष स्थिति को समझना चाहिये ।। ४.७८ ।। निस्सरेणीहर-नील-धाड---वरहाडाः ॥४-७६ ॥ निस्सरतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥णीहरइ । नीलइ । धाडइ । वरहाउछ । नीसरह ॥ अर्थ:--'बाहर निकलना' अर्थक संस्कृत-धातु निस् + स' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती हैं। जो कि क्रम से इस प्रकार है:-(१) पीहर (२) नोल (३) धान और (४) वरहाड । वैकलिक पक्ष होने से 'निस् + सू' के स्थान पर 'नीसर' धातु की भी प्राप्ति होगी । पाँचों के उदाहरण इस प्रकार है:--नि:सरति (!' णीहरइ, (.) नीलड़, (३) धाउन, (४) परहाडा, और (३)मीसरड् = वह बाहिर निकलता है ।। ४.७६ । जार्जग्गः ॥४-८०॥ जागर्ने जग्ग इत्यादेशो वा भवति ।। जग्गइ । पक्ष जोगाइ ॥ अर्थ:-'जागना अथवा सचेत-सावधान होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जा' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'जमा' धातु की श्रादेश प्राप्ति होता है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'जागृ' के स्थान पर 'जागर' धातु-की भी प्रामि होगा। दोनों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- जागर्ति = । अथवा जागरइ-वह जागता है-वह निद्रा त्यागता है अथवा वह सावधान सचेत होती है ।।४-८ ।। व्याप्रेराअड्डः ॥४-८१॥ व्याप्रियतेराअड्ड इत्यादेशो वा भवति ॥ आअड्डे । बावरे ॥ अर्थः-'ध्यापत होना, काम लगना' अर्थक संस्कृत धातु 'न्या + पू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'भाइ' धातु की अादेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से ज्या+' के स्थान पर Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [३६७ ] .00000000000000000000000+rokerestrendisexstoriecord+0000000000000000 'वावर' धातु की भी प्राप्ति होगी। जैसे-व्याप्रियते - आअड्डेइ अथवा वावरे = वह काम में लगता संवृगेः साहर-साहट्टी ॥४-८२ ॥ संवृणोतः साहर साहस इत्यादेशौ वा भवतः ॥ साहरघ । साहट्टाइ । संवरह ॥ अर्थ:-'संवरण करना, समेटना' अर्थक संस्कृत धातु स + यु' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प सं दो धातु 'साहर और साहट्ट का आदेश प्राप्ति होती है । पक्षान्तर में 'सं +' के स्थान पर 'संघर' धातु की भी प्राप्ति होगी। तीनों धातुओं के उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:-संवृणीति = (१) साहरइ, (२) साहट्टइ और (३) संवरइ = वह संवरण करता है अथवा वह समेटता ।। ४.८२ ।। आहङ : सन्नामः ॥४-८३॥ आद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति । सम्नामइ । आदरह ।। अर्थ:-'श्रादर करना-सम्मान करना' अर्थक संस्कृत-धातु'मा+द'के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकरूप से सन्नाम' धातु को आदेश प्राप्ति होती है। काल्पक पक्ष होने से 'आ +' के स्थान पर 'वर' धातु को भी प्राप्ति होगी । जैसे:-आद्रियते = सन्नामइ अथवा आवरह-वह आदर करता है अथवा वह सम्मान करता है--सन्मान करता है ॥ ४-८३ ॥ प्रहगे: सारः ॥४-८४॥ प्रहरतः सार इत्यादेशा वा भवति || सारइ । पहरइ ।।. अर्थ:-'प्रहार परना' अर्थक संस्कृत-भातु 'प्र + ह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'मार' धातु की आदेश मात्र होती है । वैकल्पिक पक्ष हाने से 'म + हूँ के स्थान पर 'पहर' को मा प्राप्ति होगी। दोनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:--प्रहरति = सारड़ अथवा पहरड़वह प्रहार करता है - अह चोट करती है । ४-८४ ।। अवतरे रोह-पोरसौ ॥४-८५॥ अवतरतेः ओह ओरस इत्यादेशो का भवतः ॥ मोह । भोरसह । ओअरई।. अर्थ:-नीचे उतरना' अर्थक संस्कृत- धातु 'म + तृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'श्रोह तथा मोरस' ऐसे दो धातु को श्रादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अब + तृ' धातु Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६८] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * •rvisorrorreness.or000000000000000000000000000000000000ornstoortoon के स्थान १५ प्रोअरः कतु को भी प्रानि होगी । सदाहरण यों है:-अवतरति =(१) ओहद, (२) औरसइ और (३) ओभरइ = वह नीचे उतरता है. ।। ४-५॥. शकेश्चय--तर--तीर-पाराः ॥ ४-८६॥ शक्नोतरते चत्वार श्रादेशा वा भवन्ति ॥ चयः । तरह । तीरइ । पारइ । सकइ ।। स्थजतेर पि चयइ । हानि करोति । तरतेरपि तरइ ।। तीरयतेरपि तौर६ ।। पारयतेरपि पाह। कर्म समाप्नोति ।। __अर्थ:--'सकना-समर्थ होना' अर्थक संस्कृत-धालु 'शक' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु का श्रादेश प्राप्ति होती है । ओ कि क्रम से इस प्रकार है:-(१) ६य. (२) तर, (३) तार और (४) पार । पक्षान्तर में 'शक के स्थान पर 'सक' को भी प्राप्ति होगो । पाँचों धातु-रू करदाहरण कम से इस प्रकार है:-शनोति = (१)चयइ. (२)तरइ, (३)तारइ, (४)पारइ ओर (५)सक्का = वह समर्थ होता है। उपरोक्त आदेश-प्राप्त चारों धातु द्वि-अर्थक है, अतएव इन के क्रियापीय रूप इस प्रकार से होंगे:-(१)त्यजति = अपहवह छोड़ता है अथवा यह हानि करती है । १२) तरति - तरह वह तैरता है। (३ तीरयात तीरइ-वह समाप्त करता है अथवा वह परिपूर्ण करता है । और (४)पारयति - पारेड-वह पार पहुँचता है अथवा पूर्ण करता है-कार्य की समाप्ति करता है। यों चारों श्रादेश प्राप्त धातु द्वि-अर्थक होने से संबंधानुसार ही इसका अर्थ लगाया जाना चाहिये; यहां तात्पर्य वृत्तिकार का है॥४-१६॥ पकस्थकः ॥४-७॥ फकते स्थक्क इत्यादेशो वा भवति ।। थक्कइ ॥ अर्थ:--'नीचे जामा' अर्थक संस्कृन-धातु 'फ' के स्थान का प्राक-भाषा में 'थक धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे - पति-थका = वह नीचे जाता है अथवा वह अनाचरण करतो है। ४-८७ ।। श्लोकः सलहः ।।४-८ ॥ श्लाघतः सलह इत्यादेशी मवति ।। ससा || .: अर्थ:-'प्रशंमा करेसा' अर्थक संस्कृत-धातु माध' के स्थान पर प्राकन-भाषा में 'मला' धातु को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे लापते स व प्रशसा करता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $6666666666666666�S�DO * प्राकृत व्याकरण **********6600000 1 [ ३६६ ] खनेर्वेझडः ॥ ४-८६ ॥ खचते वेड इत्यादेशो वा भवति || वे अब खच ॥ अर्थः- 'जड़ना' अर्थक संस्कृत धातु 'खच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वेड' धातु का आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'खच' भी होगा जैसेः खति वेअड अथवा खचइ वह जड़ता है -- जमाता हूँ ।। ४-८६ | पचे: सोल्ल - पउलौ ॥४-६०॥ = 2001 पचतः सोल्ल पउल इत्यादेशौ वा भवतः ।। सोलह । पउलइ | पयइ ॥ क अर्थ:- 'काना' अर्थ संस्कृत धातु 'पत्र' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सोल्ल और पडल' ऐसे दो धातु की आदेश प्राप्ति होती है। रूपान्तर 'पय' भी होगा। जैसे:- पचति = सोल्लइ और पउल अथवा पथइ - वह पकाता है ।। ४३० ॥ सुड्डा व हेड - मेल्लोस्सिक रेश्रवल्लुिञ्छ- धंसाड़ाः ॥ ४-६१ ॥ मुखतेरते सप्तादेशा वा भवन्ति || छड्ड | अवहेडइ | मेल्लइ । उस्सिक्कद्द | रेावइ । शिलञ्छ | साडड़ पक्षे | मुड़ । • 4 अर्थः-छोड़ना-त्याग करना' अर्थक संस्कृत-वातु 'मुच' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से सात धातु की प्रदेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार हैं: - ( 1 ) छड, (२) अवहेड, (३)मेल, (४) उस्सिक (५) (अव, (६) णिच्छ और (७) धंसाड, पक्षान्तर में 'मुभ' भी होगा। य आठों ही धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इम प्रकार है:- मनति = (१) छल्डइ ( २ )अव हेडइ, (३)मलाइ, (४) उस्कर, (tras, (६) पिल्लुच्छ, (७)साइ अथवा मुअइ-वह छोड़ता है श्रथवा वह त्याग करती है ।। ४-६१ ।। दुःखे पिव्वलः || ४-६२ ॥ दुःख विषयः खिन्चल इत्यादेशो वा भवति || शिवलेइ । दुःखं मुञ्चतीत्यर्थः ॥ अर्थः-- 'दुःख को छोड़ना' अर्थ में संस्कृत धातु 'मुच् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'विल' (धातु) को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:- दुःखं मुध्वति = पिव्य=बह दुःख को छोड़ता है | पक्षान्तर में दुहं मुइ होगा ।। ४०-६२ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * meros...00000restmercentrepreneursesort000sesortssaardd0000000m बञ्चर्वेहत्र--बेलव-जूर बो मच्छाः ॥४-६३॥ बञ्चरते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ।। वेहवइ । बेलवई । जूरबह । उमच्छइ । वञ्चइ ।। अर्थ:-'ठामा' 'अथक संस्कृत-धातु पञ्च का स्थान पर प्राकृत- भाषा में विकल्प से चार धातु की आदेश प्रानि होती है। 'यो कि कम से इस प्रकार है-(१)बहर, (वलय, (३)जुरष और उगच्छ । रूपान्तर 'वञ्च' भी होगी । उक्त पाँचों धातु-रूपों के उदाहरमा इस प्रकार है:-कञ्चतिः (१)वेहषद, (१)बेलवा, (३) जूरखइ, (४)उ मच्छइ अोर ५)वर-वह ठगना है ॥४-१३ । रचेरुग्गहावह-विडविड्डाः ॥ ४-६४ ॥ रातोरते त्रय श्रादेशा वा भवन्ति ॥ उग्गहइ । अवहह । विडनिड्डइ । स्यइ । अर्थः-'निर्माण करना, बनाना' अर्थक संस्कृत धातु 'र' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प सनीन (धातु) रूपों की यादेश प्राप्ति होती है । जो कि म सं इस प्रकार है:-(१) लम्गह, (२) अयह और (३) विवि । वैकल्पिक पक्ष होने से 'रय' भी होगा । उक्त चारों धातु रूपों के उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:--रचयति = [१] उग्गहए, [२] अशहद, 3 विडथिक्ष और [४] रयह बह निर्माण करता हैवह रचना है अथवा वह बनाती है. ।। ४-६४ ।। समारवेस्वहस्थ-सारव-समार केलायाः ॥४-६ ॥ समारोतेचरवार श्रादेशा वा भवन्ति ।। उवहत्थइ । सारवह । समारइ । केलायइ । समारय ।। अर्थ:--'रचना-बनाना' अर्थक संस्कृत 'ममारध' के स्थान पर प्राकृत भाषा मे विकल्प से चार धातु (रूपों) की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि का से इस प्रकार है:-(६) बहत्य, (२) सारव, (३) ममार और (४) केलाय । वैकल्पिक पक्ष होने से 'समा + रच' के स्थान पर समारय' भी होगा । उदाहरण इस प्रकार हैं:-- समारचप्रति = (१) उनहत्थर, (२) सारवह, (३) समारइ, (४) केलायद ओर (१) समार ग्रह यह रचता है-वह बनाती है ॥ ४-६५ ॥ सिचे सिञ्च-सिम्पों ॥ ४-६६ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %23 प्राकृत व्याकरण [ ३७१ ] Neweekeeeeeee&&&&&&&&&&&&&&&&$%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% सिञ्चतेरेसाबादेशी वा भयतः ।। सिचइ । सिम्पइ । सेश्चात् ।। अर्थ:--'सींचना' अर्थक संस्कृत धातु 'सिच' के स्थान पर विकल्प से प्राकृत भाषा में सिञ्च और सिम्पऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है । पक्षान्तर में 'सिच' का 'सेअ' भी होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:-शिवलि 3(२) सिवइ, (२) सिम्मा और ३) सेप्रङ्क वह सींचता है अथवा सींचती है।। ४-६६ ॥ प्रच्छः पुच्छः ॥ ४-६७ ॥ पृच्छेः पुच्छादेशो भवति ॥ पुच्छ । अर्थ:--'पूछना या प्रश्न का मारा जादु प्रज' को स्थान पर प्राकृत भाषा में 'पुत्रन' (धातु) रूप को श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे-पृच्छति = पुच्छह वह पूछती है अथवा वह प्रश्न करता है।। ४-६७ ।। गर्जेषुकः ॥ ४-६८ ॥ गर्जते बुक इत्यादेशो वा भवति ॥ बुक्कई । गज्ज । अर्थ:--'गर्जन करना अथवा गरजना' अर्थक संस्कृत धातु 'ग' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प सं 'बुक' (धातु) रूप की पादेश प्राप्ति होती है । पक्षान्तर में गज्ज' की प्राप्ति भी होगी। जैसे-जति बुझाइ अथवा गजह यह गर्जन करता है अथवा वह गरजता है: ४.६८ || वृषे ढिकः || ४-६६ ॥ वृष-कर्तृकस्य गर्जेदिक इत्यादेशो वा भवति ।। हिकइ । वृषभो गर्जति ॥ अर्थ:-बैल-साएछ गर्जना करना है। इस अर्थ वाली गर्जना अर्थक धातु के लिये प्राकृत भाषा में विकरूप से दिक' (धातु) रूप की धादेश प्राप्ति होती है। जैसे-वृषभो गीत = (टसहो, ढिक्का - बैल बाजना करता है। प्राकृत रूपान्तर महाराज'ऐसा भी होगा ।।४।। राजेरम्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः ॥ ५-१०० ॥ राजेरते पञ्चादेशा वा भवन्ति । अग्घई । छज्जइ । सहह । रीरइ । रेहइ । रायई ।। अर्थः-'शोमना, विराजना, चमकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'राज' के यान पर प्राइसभाषा में विकल्प से पांच (धातु)-रूपों की प्रदेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है: Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७२ 1 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * poorosofa006+0+poorrent6446046koottostor00000000000000000000000000004 (१)अग्ध, (२)छज, (३)सह, (४)रीर और (५)रेह । रूपान्तर में राय' की भी प्राप्ति क्षेगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-राजते = (१)अग्धड़, छजड़, (सहड़, (४)रीरइ, (५)रेहइ, और रायह वह शोभता है, वह थिराजता है अथवा वह चमकता है ॥ ४-- १०० ।।. मस्जेराउड्ड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः ॥ ४-१०१ ॥ मज्जतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ।। प्राउड्डा । णिउड्डइ । बुडइ । खुप्पड़ । मज्जह ). अर्थ:-'मजन करना, डूबना, अथवा स्नान करना' अर्थक मंस्कृत-धातु 'मस्ज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से घार (धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होतो है । (२,या उड्ड, (२णिनड़, (३)बुद्ध और (१)खुप्प । वैकल्पिक-पक्ष होने से मज' को प्राप्ति भी होगी । उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-मज्जति - १)आउडइ, (२)णिउडइ, (३)बुबडइ, (४)खप्पड़, और (५)मजद- बह स्मान करता है, वह डूबती है. वह मजन करतो है ॥ ४-६०१ । पुजेरारोल-बमालौ ॥ ४-.१०२॥ पुञ्जरेताबादेशी घा भवतः ॥ आरोलइ ! धमालइ । पुजइ ॥ अर्थ:--'एकन्न करना, इकट्ठा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पुरु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो(धातु) रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। (१)प्रारोल और (षमाल । विकल्प पक्ष होने से 'पुज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:--पुंजयति (१)आरोलड़, (२)वमालइ और (३)पुंजश्-वह एकत्र करना है, वह इकट्ठा करती है ॥४-१०२ ।।. लस्जे महः ॥४-१०३ ॥ लज्जते जीह इत्यादेशो वा भवति ॥ जीहइ । लज्जइ ।। अर्थ:-'लज्जा करना, शरमाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लाज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जीह' (धातु) रूप फी श्रादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'लज' को भी प्राप्ति होगी। जैसे--लखति-जी अथवा लज्जाइ - वह लजा करती है. वह शरमातो है । ४-१.३॥ तिजेरोसुक्कः ॥४-१०४ ॥ तिजेरोसुक्क इत्यादेशो वा भवति ।। ओपुक्कइ । तेषणं ।। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण 2 [ ३७३ ] 0000 00 000000000000000000 ,000000000 अर्थ:--'तीक्षण करना, तेज करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तिज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'श्रोसुक्क' (धातु) रूप को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से तिश्र' की भी प्राप्ति होगी । जैसे:-जयति (अथवा तिजति)= ओमका, तेइ = वह तीक्ष्ण करती है, वह तेज करता है । 'ते' धातु से संज्ञा-रूप ते अणं' की प्राप्ति होती है । नपुसक लिंगवाले संज्ञा शब्द 'तेत्रण' का अर्थ 'तेज करना, पैनाना, उत्तजन ऐसा होता है ।।४-१०४ ॥ मृजेरुघुस-लुञ्छ-पुछ-पुस-फुस-पुस-लुह-हुल -रोलाणाः ॥४-१८५॥ मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति ।। उग्घुसइ । लुञ्छइ । पुञ्छइ । पुसइ । फुसइ । लुहइ । हुलइ । रोसाणइ । पक्षे । मज्जइ ।। अर्थ:-'मार्जन करना, शुम करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में चिकल्प से नव (धातु.) रूपों का आदेश प्रानि होती है । (३) उग्घुस, (२) लुब्छ, (३) पुञ्छ, (४)पुस. (४) फुस, (६) पुप्त, (७) लुह, ८) हुल और (६) रोमाण । धैकल्पिक पक्ष होने से 'मन' भी होगा। उदाहरण कम से इस प्रकार है:-मार्ट = (१) उग्घुसइ, (२) लुन्छड़, (३) युन्छड़, (४) पुसह, (५) कुसइ, (६) पुरसड़, (७) लुइ, (८) हुलह, () रोसाण पक्षे मजइ - वह मार्जन करता है। वह शुद्ध करता है ।।४-१.५ ।। भ वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज करञ्ज-नीरजाः ॥४-१०६ ॥ भञ्झेरते नवादेशाा वा भवन्ति ॥ चेमयइ । मुसुमूरइ । मृरा । सूरइ , बडइ । विरइ । पविरज्जइ । करजइ । नीरजई ! भञ्ज ।। अर्थ:-'भाँगना-तोड़ना' अर्थक संस्कृत-घातु 'भज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकरूप से नव धातु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। (१) मय, (२) मुसुमूर, (३) मूर, (५) सूर, (५) सुड, (6) विर, (७) पविरज, ८) करज और (६) नोरज । वैकल्पिक पक्ष होने से 'भ'ज' भी होगा । उदाहरण क्रम से यों है:-मनाक = (१) वेमयह (२) मुसुमूरइ, (३) मूरह, (४) सूरइ, (r.) सूड, (६) विरह, (७) पावरउजद () करञ्जद. (1) नीरजड़, और (१०) भजइ = वह माँगता है अथवा वह तोड़ता है ।। ४-१०६ ।।. अनुबजे: पडिभग्गः ॥४-१०७॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित अनुजेः परिग इत्यादेशो वा भवति । पडिअम्गइ | अणुवञ्चः ॥ अर्थ:- 'धनुसरण करना, पीछे जाना' अर्थक संस्कृत धातु 'अनु + व्रज्ञ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'डि' (धातु) रूप को आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'श्रत्रच्च' भी होगा | उदाहरण क्रम से यों हैं:- अनुषजति पडिअग्गह पक्षान्तर में अणुवच्चइ वह अनुसरण करता है, वह पीछे जाती है ।। ४-१०७ ॥ [ ३७४ ] 00000001 अजैविंदवः ||४- १०८ अजेर्विधव इत्यादेशो भवति ॥ वि । श्रज्जइ ॥ अर्थ:--' उपार्जन करना, पैदा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'अर्ज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'कल्प से 'विदव' धातु रूप की प्रदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अज' भी होगा | उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं: अर्जयति = पक्षान्तर में अज्जइ वह उपार्जन करता है, अथवा वह पैदा करती है ॥४-१०८ ।। युजो जुञ्ज जुज्ज-जुप्पाः ॥४- १०६ ॥ युजी जुञ्ज जुज्ज जुप्प इत्यादेशा भवन्ति ।। जुञ्ज ! जुज्जइ । जुष्पई ॥ अर्थ:-'जोड़ना, युक्त करना' कार्थक संस्कृत धातु 'युज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जुख, जुज्न और जुप्प' ऐसे तीन धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'जुज' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- युज्यते = (१) जुइ, (२) जुन, (३) जुप्पड़ पक्षान्तर में जुजइ= वह जोड़ता है, वह युक्त करता है ।। ४-१०६ ।। भुजो भुञ्ज - जिम जेम - कम्मागृह - चमढ - समाए - चड्डाः ॥ ४- ११० ॥ भुज एतेऽष्टादेशा भवन्ति ।। ख । जिमह । जेमइ । कम्मे । श्रहह । समाग चमढ | चहड़ | अर्थ:-'भोजन करना, खाना' अर्थक संस्कृत धातु 'भुज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आठ (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है । (१) भुज, (२) जिम, (३) जेम, (४) कम्म (५) ह, (६) चमढ़, (७) समाण और (२) च । वैकल्पिक पक्ष होने से 'भुज' की प्राप्ति होगी । इनके उदाहरण इस प्रकार है: -- सुनाती ( अथवा ) ते = (१) जद, (२) जिमइ, (३) जेमइ, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण ३७५ ] m00000000000000rtis*6000-1400000000000000000000000000000000000000+ (४) कम्मेइ, (५) अण्हइ, (६) चमहइ, (७) समाणइ, (८) बडइ, पज्ञान्तर में सुजा- वह भोजन करता है, वह खाती है ।। ४-१९० ॥. वोपेन कम्मवः ॥४-१११ ॥ उपेन युक्तस्य भुजे: कम्मव इत्यादेशो वा भवति ॥ कम्मवइ । उबहुज्जह ॥ अर्थ:-'उप' उपसर्ग सहित भुज धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कम्मष' (धातु -)रूप को श्रादेश प्रानि होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'उबहुज्ज' को भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है:--उप मुनक्ति = कम्मवड़ अथवा पक्षान्तर में उपहुज्जह = वह उपभोग करना है ४.-१११॥. __ घटे गढः ॥४-११२ ॥ धटते गंह इत्यादेशो वा भवति ।। गढइ । घडइ ॥ अर्थ:-'बनाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गद' (धातु --) रूप की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से घर' को भी प्राप्ति होगी। जैसे:षटति (अथवा पटते ) = गढइ अथवा घडइ - वह बनाता है ।। ४. ११२ ॥ समो गलः ॥४-११३॥ सम्पूर्वस्य घटते गेल इत्यादेशो वा भवति ॥ संगलइ । संघडद । अर्थ –'मम् = सं' उपसर्ग सहित संस्कृत--धातु 'घट के स्थान पर प्राकृत--भाषा में विकल्प से 'गल' ( धातु ..) रूप की श्रादेश प्राप्ति होती है, यो संस्कृत-धातु 'संघट' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'संगल' धातु-रूप का आदेश-प्राप्ति होगी। 'संघड = भी प्राप्त होगा । जैसे-संघटते. संगलाइ अथवा सघडइ - वह संघटित करता है, वह मिलाती है ।। ४--११३ ।।. . हासेन स्फुटे मुरः ।। ४-११४ ॥ हासेन करणेन यः स्फुटिस्तस्य सुरादेशी घा भवति स मुरइ । हासेन स्फुटति ।।. अर्थ:--'मुस्कराना, सामान्य रूप से हंसनी' अर्थक संस्कृत धातु 'स्फुट' के स्थान पर प्राकृतभाषा में विकल्प से 'मुर' (धातु-) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'फुट' की भी प्राप्ति होगी । जैसे: हासेम स्फुटति = सुरइ अथवा फुट वह हँसी के कारण से प्रसन्न होता है अथवा खिलती है।। १.११४ ।।, Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * monocockroatoonwrwww.orrentresorterroristossessorseenetworkot.kom मण्डोधिञ्च-चिश्चन-चिञ्चिल्ल-रीढ़-टिविडिक्काः ॥ ४..११५ ॥ मएडेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति ॥ चिञ्च । चिश्च अइ। चिचिल्लड । रीडइ । टिविडिकइ । मण्डह। अर्थः—'मंडित करना, विभूषित करना शोभा युक्त बनाना अर्थक सस्कृत-धातु भएनुय' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पाँच धातु-रूपां का श्रादेश प्राप्ति होती है । जो | क कम से इस प्रकार हैं:-११) चिश्व, (२) चिञ्चअ, (३) चिचिल्ल. . ४) गड और (५) टिबिडिकपक्षान्तर में 'मण्ड' की मो प्राप्ति होगी । उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-मण्डयति (३) चिश्चाइ, (F)चिवभइ (३) चिञ्चिल्लइ, (४) रोड, ५) टिविडिकर, पक्षान्तर में मण्डइ - वह मंडित करता है. वह शोभा युक्त बनाता है ।। ४--११५ ।। तुडे स्तोड-तुट्ट-खुट-खुडोक्खु डोल्लुक्क गिलुङ्गक-- लुक्कोल्ल राः ॥ ४–११६ ॥ तुडेरते नवादेशा या भवन्ति ।। तोडइ । तुट्ट । खुइ। खुडइ । उक्खुडइ । उल्नु कइ । णि लुक्कइ । उन्लूरइ । तुडइ ॥ अर्थ:--तोड़ना, स्खलित करना, टुकड़ा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तुड़' के स्थान पर प्राकृत.. भाषा में विकल्प से नव धातु रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है:-(१) तोड़, (२) तुट्ट. (३)खुट्टः (४) खुल, (५) खुड, (6) उल्लुका, (७) णिलुका, (८) लुछ और (६) जल्लूर । पक्षान्तर में तुइ भी होगा । उदाहरण कम से इस प्रकार है:- नडति = (१) तोडई, (२) नुट्टः, (३) खुट्टइ, (४) खुडइ, (५) उषह, (6) उल्लुकाइ, (७) जिल्लुका, 12) लकड़, (१) उल्लुरइ, पन्हान्तर में (१०० नडई = वह तोड़ता है, वह स्नंडित करती है अथवा यह टुकड़ा करता है ।। ४.११. ! . घूर्णी घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ॥४-११७ ॥ घूमौरते चत्वार श्रादेशा भवन्ति ।। घुलइ । धोलइ । घुम्मइ । यहल्लइ ।। अर्थ:--घूमना, काँपना, डोलना, हिलना' अथक मंस्कृत-धातु धूर्ग के स्थान पर प्राकृत भाषा में चार ( धातु- ) रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार है:-- १) घुन, (२) घोल, (३)चुम्म और (१) पहल्ल । उदाहरण कम से इस प्रकार है:-घूणाति = (१) धूलइ. (१) घोलइ, (३) घुम्मा और ४) पहल्लइ - वह घूमता ई अक्वा वह कॉपतो है, वह डोलना है वह हिलना है।। ४-१९१७ ।। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्राकृत व्याकरण * ********** *********$$$$$$$*** विवृतेः ॥ ४- ११८ ॥ विसेस इत्यादेशो वा भवति || दंसह । विवदुः ॥ [ ३७७ १ अर्थः- 'घसना, धनकर रहना, ( गिर पड़ता !' अर्थक संस्कृत धातु 'विवृत्' के स्थान पर प्राप्त भाषा में विकल्प से इन धातु रूप को प्रदेश मामि होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से fear भी होगा । जैसे:--विवर्तते स अथवा विवट्टर - वह धंसता है, वह धम कर रहती हैं ( अथवा वह गिर पड़ती है ) ।। ४-११८ ॥ = कथे रटः ॥ ४--११६ ॥ कर इत्यादेशो वा भवति || अ | कढ | अर्थ:- ''बाथ करना' 'उबालना काता' चर्थक संस्कृत धातु 'कथ' भाषा में विकल्प से 'श्रट्ट' धातु रूप की श्रादेश प्राप्ति होता है। वैकल्पिक पक्ष प्राप्ति होगी। जैसे:- क्वथति अट्टइ अथवा कढ=यह क्वाथ करता है--- पकाती है । ४ १२६/ स्थान पर प्राकृतहोने से 'कढ' को भी -- उचालता है अथवा वह प्रन्थे गण्ठः ॥ ४- १२०॥ ग्रन्थेष्ठ इत्यादेशो वा भवति ॥ गएठ । गण्ठी ॥ अर्थ :- गूँथना रचना बन ना' अर्थक संस्कृत धातु 'प्रन्थ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ठ' (धातु) रूप की आदेश प्राप्त होता है। पक्षान्तर में 'ग्रंथ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-ग्रध्नाति = गण्ठङ्ग अथवा गंधर = वह गूँथती है अथवा वह रचना करता है । संस्कृत स्त्रीलिंगी संज्ञा शब्द 'प्रन्थि' का प्राकृत रूपान्तर गंठी होगा। 'गंठी' का तात्पर्य है 'गाँठ' अथवा 'जोड़' | 'गण्ठ' धातु से ही गंठी शब्द का निर्माण हुआ है ॥ ४-१२० ।। मन्थे घुसल - विरोलो ॥ ४-१२१ ॥ मन्थे सल बिरोल इत्यादेशौ वा भवतः ॥ घुमलइ । विरोलइ । मन्थइ | अर्थ:--' गथना, बिलोड़ना करना' अर्थक संस्कृत धातु 'साथ' के स्थान पर प्राकृ भाषा में विकल्प से 'घुपल और विशेज' ऐसे दो धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मन्थ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-मन्थति = घुसला, विरोल अथवा मन्यन्त्र मता है, मह मर्दन करता है अथवा वह विलोड़न करती है ।। ४-१२१ ।। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * aorrenorrrrrrrrrrrrrrrorepresenterstoorrorroresrorrerootori.in ह लादेरवअच्छः ॥ ४-१२२ ।। लादते एय॑न्तस्याएयन्तस्य च अवअच्छ इत्यादेशो भवति ।। अवअच्छह । ह्लादयति था । इकारो ण्यन्तस्थापि परिग्रहार्थः॥ अर्थ:-'अानन्द पाना अथवा खुश होना' अर्थक संस्कृत धातु 'ह्लाद के स्थान पर प्राकृत भाषा में सामान्य कालवाचक क्रिया कप में' अथवा 'प्रेरणार्थक वाचक क्रिया रूप में दोनों ही स्थितियों में केवल 'अवअच्छ' धातु रूप की यादेश प्रानि होती है। 'अप्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप' का पुशहाण यों है:-इलादते = अवअच्छइ-वह आनन्द पाता है, वह खुश होती है। प्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप का दृष्टान्त इस प्रकार से है:- हलादयति अवअच्छइ-वह आनन्द कराता है, वह खुश कराती है। यों दोनों स्थितियों में प्राकृत भाषा में उपरोक्त रीति से केवल एक हो धातु रूप होता है। 'इफा' चारण 'मूत्र किया' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णि' का बोधक अथवा संग्राहक माना जाता है; ऐस। ध्यान रखा जाना चाहिये ॥ ४-२२२ ।। नेः सदो मज्जः ॥४-१२३ ॥ निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्यादेशो भवति ।' अत्ता एस्थ णुमज्जइ।। अर्थ:-नि' उपसर्ग महित संस्कृत धातु 'मद् के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'मज्ज' धातु रूप की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-आत्मा अत्र निसीवति अत्ता एत्थ पु मज्जाइ = अात्मा यहाँ पर बैठत्ती है। ४-१२३ ॥ छिदेदुहाव-णिच्छल्ल-णिज्झोड-णिवर-णिल्लूर-लूराः ॥ ४-१२४ ।। छिदेरेते पडादेशा बा भवन्ति ।' दुहावइ । णिच्छल्लइ । णिझोडइ । णिव्यरइ । णिल्लूरइ । लूरह 1 पक्षे । छिन्दइ ॥ अर्थ:-छेदना, खण्डित करना' अर्थक संस्कृत भानु 'छिद' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छद धातु रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है:-(१) तुहाव, (२) णिच्छल्न, (३) णिज्झोड. (४) णिवर, (५) णिल्लूर और (६) लूर । वैकल्पिक पक्ष होने से छिन्द' की भी प्रानि होगी । उदाहरण क्रम से यों हैं:-छिमात-(१) बुहावड़, (२) णिच्छलइ, (B)णिझोडई (४) पियरइ, (५) पिल्लूरइ, (5) लूरइ । पक्षान्तर में छिन्नइ-वह छेरता है अथवा वह स्खण्डित करती है॥४-१५॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३७६ ] orostonestors000000rrecorrespowedroortooremosome60000000000onorror अाङा ओ अन्दोद्दालौ ॥४-१२५ ॥ आङा युक्तस्य छिदेरोअन्द उद्दाल इत्यादेशौ वा भवतः ॥ ओअन्दइ । उद्दालइ । अच्छिन्दइ ॥ अर्थ:-'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'छिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में "श्री अन्द उद्दाल' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से श्रादेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से अच्छिन्द की भी प्राप्ति होती है। उदाहरण यां हैं:-आच्छिनाति = ओअन्नइ, उद्दालइ अथवा अच्छिन्दइ - वह खींच लेता है मथवा वह हाथ से छीन लेती है ॥ ४-५२५ ॥ मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खड्ड-चडूड-मड्ड-पन्नाडाः ॥४-१२६॥ मृद्नातेरेते सप्तादेशा भवन्ति । मलइ । महइ । परिहाइ । खड्डइ । चर्इ । महह । पन्नाडई। अर्थ:--'मर्दन करना, मसलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृद्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सात धातु रूपों को प्रादेश प्राप्ति होती हैं । जो कि इस प्रकार हैं:-(१) मल, (२) मढ, (३) परिस, (४) खडू, (५) चडू, (६) मधु और (७) पन्नाड ! इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:-मृदनाति = (१) मलइ, (२) महइ, (3) परिहट्टइ. (४ / खड्इ, ५) चदुइ, (२) मह और (७) पन्नाउइ ८ वह मदन करता है अथवा वह मसलती है ॥४-१२६ ।। स्पन्दश्चुलुचुलः ॥४-१२७ ॥ स्पश्चुलुचुल इत्यादेशो का भवति ।। चुलुचुलइ ! फन्दइ ।। अर्थ:-'फरकना, थोडा हिलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्पन्दू' के स्थान पर प्राकत-भाषा में विकल्प से "चुलुचुल' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'फन्द' का भी प्राप्ति होगी। दाहरण्यकों हैं:-स्पन्नति = चुलुचराइ अमवा फन्दइ वह फर कतो है अथवा वह थोड़ा हिलता है ।। ४-१२७ ।। निरः पदेवलः ॥ ४-१२८ ॥ निपूर्वस्य पदेर्चल इत्यादेशो वा भवति ॥ निन्धलइ । निप्पज्जा ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * motoriorses.instrendronservoidsssssssroorkestasoosteronorseedso.00.. ___ अर्थः-'निर' उपसर्ग सहित मंस्कृत धातु 'पद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से निव्वल' धातुरूप की आदेश पाप्ति होता है। वैकल्पिक पक्ष होने से निपज' को भाप्राप्ति होगी । बदाहरण इम प्रकार है:-निष्पद्यते-निखलई अथवा निष्पजइ = वह निम्न होता है वह सिद्ध होता है अथवा बह बनती है ॥४-१२८ ॥ विसंवदे विअट्ट-जिलोट-फंसाः ॥ १-१२६ ॥ विसंपूर्वस्य घोते त्रय प्रादेशा या भवन्ति ।। विप्रथइ । विलोट्टई । फंसइ । विसंवयइ ।। अर्थ:-बि' उपपर्ग तथा 'स' उपसर्ग, इस प्रकार दोनों उपतगों के साथ संस्कृत-धातु 'बद्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों को आदेश प्रानि होना है। जो कि इस प्रकार हैं:(१) विवाह, (२) बिलाट्ट और (३) फैन । वैकल्पिक पक्ष होने मे 'विसंत्रय' को भ, प्राप्ति होगा। उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं:-विसंवदति = (१) विअट्टइ, (२) विलोट्टइ, (३) कंसद और (४) विसंषयः = वह अप्रमाणित करता है अथवा वह अमत्य माबित करता है ।। ४-१२६ ।। शदो झड-पखोडौ ॥४-१३०॥ शीयतेरतावादेशी भवतः ।। झडइ । पक्खोडइ ।। अर्थ:--'झड़ना, टप स्ना' अर्थक संस्कृत-धातु शद्' के स्थान पर प्राकृत माषा में दो धातु-रूपों की श्रादेश पानि होती है। वे यों हैं:-१५) झड और (२) पक्वोब । बाहरण इस प्रकार हैं:--शीयते - अडड़ और परपोडवह झड़ता है. वह टपकती है, वह धीरे धीरे कम होती है ।। ४-१३०॥ आक्रन्देहरः ॥४-१३१ ॥ श्राक्रन्देगाहर इत्यादेशो वा भवति ॥ णीहरइ । अक्कन्दइ ।। अर्थ:- श्राफन्दन करना, चिल्लाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्रा + क्रन्दु' के स्थान पर प्राकृतभाषा में काल्प मे शोहर' धातु-काप की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से मान्द भी होगा। जसे:-आजन्दति = णीहरइ अथवा अक्कन्दप - वह अाकरन करती है अथवा वह चिल्लाता है ।।४-१३१।। विदेर-विसूरौ ॥ १-१३२ ॥ विदेरेताबादेशौ वा भवतः । जूरइ । विनरइ । खिज्जइ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [३८१ । wo0000000000000000000000nberrowomroorroroork00000000000000000000000mm अर्थः-'स्वेद करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु खिदू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर और विनर' ऐसे दो धातु-रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष में विज्ज' को भी प्रानि होगी । उदाहरण यों है:-खिधते =(१) जरइ, (३) पिसूरद और पक्ष में खिज्जा - वह खेद करता है, वह अफसोस करती है ।। ४-५३२ ।। रुधेरुत्थतः ॥४-१३३ ॥ रुधेरुत्था इत्यादेशो वा भवति ॥ उत्थचन्ह । रुन्धइ ।। अर्थ:--'रोकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'रुध्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'उत्थघ' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकलिपक पक्ष होने से 'गन्ध' की भी प्राप्ति होगी । जैसेः-रुणाई = उत्थंधड़ अथवा रुन्धइवह रोकता है ।। ४-१३३ ।। निषेधेहकः ॥ ४-१३ ॥ निषेधतेर्हक्क इत्गादेशो वा भवति ॥ हकइ । निसेहह ॥ अर्थ:-'निषेध करना, निधारण करना' अर्थक संस्कृत-धातु नि + षिध' के स्थान पर प्राकृतभाषा में विकल्प से 'इक' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है । वैक िपक पक्ष होने से निसेह' भो होगा। जैसे:-मिषेधति - हकइ अथवा निसेहइ - वह निषेध करती है अथवा निवारण करता है ।। ४-१३४॥ ऋधेरः ॥ ४-१३५ ॥ ऋधे र इत्यादेशो वा भवति ।। जूरइ । कुज्झइ ।' अर्थ:-कोध करना, गुस्सा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'ध' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर' धातु-रूप को आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'कुम्भ' भी होगा। जैसे:-कुध्यति =जूर अथवा कुज्झइ = वह क्रोध करती है, वह गुस्सा करता है ।। ४-१३६ ।। जनो जा-जम्मौ ॥४-१३६ ॥ जायते र्जा जम्म इत्यादेशी भवतः !। जाभइ । जम्मइ ।। अर्थ:-'उत्पन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जम् ' के स्थान पर प्राकृत - भाषा में 'जा' और "जम्म' की भावेश-प्राप्ति होती है । जैसे:-जायते =जाब और जम्मा - वह उत्पन्न होला है। ॥४-१३६॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * तनेस्तड - तड्ड - तडूडव - विरल्ला ॥ ४–१३७ ॥ वनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तडइ । तड्डह । नड्डवइ । विरलइ । तणा ।। अर्थ:-'विस्तार करना, फैलाना 'अर्थक संस्कृत - धातु 'तम के स्थान पर प्राकृत बाषा में चार धातु-रूपों को आदेश-पाति विकल्प से होती है । जो की कम से इस प्रकार है:-(१) तह, (२) तङ्क, (३) तव और (४) विरल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'तण' मो होगा । उदाहरण क्रम से यों है:- तनोति = (१) तङइ, (२) तड़, (३) तङ्कवइ, (४) विरल्लइ, I पक्षान्तर में तणाई - वह विरतार करता है अथवा वह फैलाती है ।। ४-१३७ ।। तृपस्थिप्पः ॥ ४-१३८ ॥ तृप्यते स्थिप्प इत्यादेशो भवति ।। थिप्पइ ।। अर्थ:-- 'तप्त होना. संतुष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु ' तूप ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'थिप्प' (अथवा थिप ) आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- तुप्यति = थिप्पड़ (अथवा विं१६ ) = वह तृप्त होती है, वह सन्तुष्ट होता है ।। ४-१३८ ।। उपसरल्लिमः ॥४-१३६ ॥ उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य अल्लिन इत्यादेशो वा भवति ॥ अलि अह । उबसप्पड ॥ अर्थ:-संस्कृत धातु 'स्मृप्' में स्थित 'ऋकर' स्वर को गुण करके प्राप्त धातु रूप 'सर्प के पूर्व में 'उप' उपसर्ग को संयोजित करने पर उपलब्ध धातु रूप 'उपसप के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'अल्लिम' को आदेश प्राति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'साप' भी होगा ! जैसे:-~-उपसर्पतिअहिलअई अयषा उपसप्पइ-वह पास में-ममोप में जाता है ।। ४-१३ ॥ . . संतपेमङ्ख ॥ ४-१४॥ संतपे मस इत्यादेशो वा भवति ॥ झखइ । पक्षे । संतप्पह ॥ अर्थ:--संतम होना, संताप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं + तप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से झन' की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'संत' भी होगा । जैसे:-सतपति -झंखर अथवा संतप्पा-वह संतप्त होता है अथवा यह संताप करती है ।। ४-१४० ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ३८३ ] व्यापेरोअम्गः ॥४-१४१॥ व्याप्नोतेरोअग्ग इत्यादेशो वा भवति ॥ श्रोअग्गइ । बायेइ ॥ अर्थः–'व्याप्त करना' अर्थक संस्कृत-धातु वि + श्राप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'अग' को आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'वाव' भी होगा । जैसे: व्याप्नोति अग्गह अथवा बाघेई वह व्याप्त करना है ॥ ४-१४१ ।। समापेः समारणः ॥ ४-१४२ ॥ समाप्नोतः समाण इत्यादेशो वा भवति । समाणइ । समावेइ ।। अर्थः-'समाप्त करना, पूग करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सम् + श्राप के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प मे 'समारण' की श्रादेश प्रानि होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'समाव' भी होता है। जैसे:समाप्नोति समाणइ अथवा समावड़ -- वह समाप्त करता है अथवा वह पूग करती है ।। ४--१४२ ॥ क्षिपे गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल-गोल्ल-लुह-हुल-परी-घत्ताः ॥४-१४३।। क्षिपेरते नवादशा या भवन्ति ।। गलत्थइ । अड्डाख ह । मोल्लइ । पेन्लइ । गोल्लइ । हृम्यत्वे तु णुल्लइ । छुहइ ! हुलइ । परीइ । घत्तइ । खिवह ।। अर्थः- फेंकना, बालना' अर्थक संरत धातु 'क्षिप के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नत्र धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है । जो कि कम से इस प्रकार है:-(१) गलस्थ, (२) अडकख, (३) सोल्ल, (४) पेल्ल, (५) गोल्ल, (६) छुह, (७) हुल, (८) परी और () पत्त। वैकस्मिक पक्ष होने से 'खिच' भी होगा। उपरोक्त धातुओं में से पांचों धातु 'गोल्ल' में स्थित 'प्रोकार' म्वर को विकल्प से 'वस्वत्व' की को प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'गोल्ल' के स्थान पर 'गुल्ल' कप की भी प्राप्ति हुआ करता है। संस्कृत-धातु 'क्षिप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में उक्त ग्यारह प्रकार के धातु-कप उपलब्ध होते हैं। इनके उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:-क्षिपत्ति = (२) गलत्थइ, (i) अडखा , (३) सोल्लइ, (४) पेल्लइ. (५) णोल्लइ, () पुलइ, (७) गुहाइ, (८) हुलइ, (९) परीइ, (१०) पत्ता १११) और विषद - वह फेंकती है अथवा वह डालता है ॥४-१४३ ॥ उत्क्षिपेगुलगुञ्छोत्थंघालत्थो भुत्तोस्सिक-हत्खुवाः ॥४-१४४ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८५ ] * शियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * morroronsooriterovetooterrowors.reatreesrooto.000000000000rstronom उत्पूर्वस्य चिरेते षडादेशा वा भवन्ति ॥ गुलगुज्छ । उत्थंघइ । अल्लत्याइ उन्भुत्तइ। उस्सिकइ । हक्खुवइ । उक्खिवइ ।। अर्थ:-'उत्' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि इप्त प्रकार है:-(१) गुलगन्छ, (२) उत्थंध, (३) अल्लत्य, (४) उम्भुत्त, (५) उस्मिक और (६) हक्खुव । वैकल्पिक पक्ष होने से उक्खिव भो होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:-उस्क्षिपति - (१) गुलगुञ्छइ, (२) 'उत्थंघइ, (३) अल्लत्थर, (४) उपभुधा (५) उरिस. कद, (६) हकाबुवइ । पक्षान्तर में क्खिबह-वह ऊँचा फेंकता है ।। ४-१४४ ।। आक्षिपीरवः ॥४-१४५ ॥ श्राङ, पूर्वस्य क्षिपेरिव इत्यादेशो वा भवति ॥ णीरवइ । अक्खियह । अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'क्षिप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'णोत्व' को आदेश प्राप्ति होता है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अक्खिव ' भी होगा। जैसे:आक्षिपति = णीरवड़ अथवा अविखवा वह आक्षेप करती है, वह टीका करता है अथवा वह दोषारोपण करती है ।। ४-१४५ ॥ स्वपेः कमवस-लिस-लोट्टाः ॥४-१४६ ॥ स्वरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ कमवसइ । लिसइ । लोइ । सुअइ ॥ अर्थ:- सोना अथवा सो जाना, शयन करना ' अर्थक संस्कृत धातु । स्वप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन ( धातु ) रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है (१) कमघस, (२)लिस और (३) लोट्ट । वैकल्पिक पक्ष होने से 'सुप' भी होगा। उदाहरण यों है:- स्वपिति = (१) कमवसह, (२) लिसइ, (३) लोहड़ अथवा मुअइ - वह सोता है वह शयन करती है ।। ४-१४६ ॥ वेपेरायम्बायज्भो ॥४-१४७ ।। वेपेरायम्य पायजम इत्यादेशौ वा भवतः ।। प्रायम्बइ । श्रायज्झइ । वेवइ ।। अर्थः- 'कापना अथवा हिलना ' अर्थक संस्कृत-धातु 'वे' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से श्रायम्ब और श्रायझ' ऐसे दो ( घातु + रूपों को आदेश प्राप्ति होती है वैकल्पिक-पक्ष होने से वेव' भी होगा । उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-वेपते(१) आयम्बइ, () आयडझाइ अथवा (३) देव- वह काफ्ती है, वह हिलता है अथवा कह थरथरासी है ।। ४-१४७॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * विलपे - बडबडौ ॥ ४-१४८ ॥ विल पेर्भुख- - वडवड इत्यादेशौ वा भवतः ॥ खइ । वडबड | बिलवद्द || अर्थ :- 'विलाप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'वि + लप' के स्थान पर प्राकृत भाषा से 'ख और ases' ऐसे दो (धातु) रूपों की यादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विलक्ष' भी होगा। जैसेfreपति = (१) शंख, (१) वडवड और (2) विठवड़ = वह विलाप करता है, वह जोर जोर से रुदन करती है ।। ४-१४८ ॥ लिपो लिम्पः ॥ ४-१४६ ॥ लिम्पते लिम्य इत्यादेशो भवति || लिम्पइ || गुप्येविर - ड ॥ ४- १५० ।। गुप्यतेतावादेशौ वा मत्रतः || विरह | गुड | पक्षे । गुप्पह || [ ३८५ ] अर्थ :- 'लीपना, लेप करना अर्थ संस्कृत धातु 'लिए ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'लिम्प ( धातु ) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- लिम्पति = लिम्पह = वह लीपती है, वह लेप करता है || ४- १४६ ।। 441 कपो हो ःि ॥ ४- १५१ ॥ कृपे व इत्यादेशो व्यन्तो भवति ।। अवहावे | कृपां करोतीत्यर्थः ॥ अर्थः- ' पूर्वक प्राकृत भाषा में अथवा पते = अवहावे अर्थः- ' व्याकुल होना' अर्थक संस्कृत धातु 'गुप्य के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से' विर' और ' ण्ड ' ऐसे दो ( धातु } रूपों को आदेश प्राप्ति होती हैं। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गुप्प ' भी होता है। जैसे:- गृप्यति विरइ, गड अथवा गुप्पड़ = वह व्याकुल होता है, वह घबड़ाती है । = ॥। ४- ५० : ब 'कृपा करना' अर्थ संस्कृत धातु ऋप् के स्थान पर प्रेरणार्थक प्रत्यय णिच वह + आवे ' अहावे रूप की आदेश आमि होतो है । जैसे:- कृपां करोति वह कृपा करता है, वह दया करती है ।। ४- १५१ ।। 1 प्रदीपेस्ते अव - सन्दुम-सन्धुका भुता ॥ ४--१५२ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८६ ] - * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moreesroortorrowonroteoromotoroorrorensornwworwsorroworrorum प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति || तेश्रवइ । सन्दुमइ । सन्धुकइ । अब्भुत्तइ । पलीवइ॥ अर्थः-'जलाना, सुलगाना' अथवा 'प्रकाशित होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+दीप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धानु -(रूपों) की अादेश प्राप्ति होती है । ११) ते अय, (२) संदुम, (३) संधुक और (४) अब्भुत्त । वैकल्पिक पक्ष होने से 'पत्नीच' भी होगा। जैसे:-- प्रदीप्यते, = (१) तअवह () सन्दुमड़, (२)सन्धुक्कड़, (४) अभुत्तड़ पक्षान्तर में पलीवड़ = वह प्रकाशित होता है अथवा वह जलाती है, वह सुज़गानी है ॥ ४-१५२ ।। लुभेः संभावः ॥ ४--१५३ ॥ लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति ॥ संभावइ । लुब्भइ ।। अर्थ:-'लोभ करना, प्रासक्ति करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लुम्' के स्थान पर प्रामृत-भाषा में विकल्प से 'संभाव (धातु) रूप की पादेश प्राप्ति होती है। व काल्पिक पक्ष होने से 'लुटभ' भी होता है। जैसे:-लुभ्यात = सभाषद अथवा लुभा-यह लोभ करता है, वह श्रासक्ति करती है ॥४-१५३ ।। शुभेः खउर--पड्डुहौ ॥४-१५४ ॥ शुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशौ वा भवतः । खउरइ । पड्डुहइ । सुभइ । अर्थ:- 'क्षुब्ध होना, डर से विह्वल होना' अर्थक संस्कृत-घातु 'तुभ के स्थान पर प्राकृत-माषा में विकल्प से 'खजर तथा पड्डुह' ऐसे दो (धातु) रूपो की श्रादेश-प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पज्ञ होने से 'खुटम' भी होता है । जैसे- क्षुभ्यति खउरड़, पहइ अथवा खुटमा = वह शुन्ध होता है, वह डर से विह्वल होती है ।। ४-१५४ ॥ आडो रभे रम्भ-ढवौ ॥४-१५५ ॥ श्राङः परस्य रभे रम्भ दव इत्यादेशौ बा भवतः॥ प्रारम्भइ । अाढवइ । श्रारभह ॥ अर्थः-'या' उपसर्ग महित संस्कृत-धातु 'रम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'भारम्भ और बाढव' ऐसे दो (धातु) रूपों को आदेश प्राप्त होती है । वकल्पिक पक्ष होने से 'आरम' भी होतो हैं । जैसे:-- आरभते=(१) आरम्भइ, (२) आढषड़, और (३) आरभइवह प्रारम्भ करता है, वह शुरू करती है ॥४-१५५ ।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * • [३८७ 10000000000000000000000000000000000000000000000000 उपालम्भे भैरव-पच्चार-वेलवाः॥४-१५६ ॥ उपालम्भेरते त्रय श्रादेशा वा भवन्ति ।। झंखइ । पच्चारइ | वेलवइ । उवालम्भइ ॥ अर्थः–'उपालम्भ देना, उलइना देना, उपका देना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सपा + लंम के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से सीन (घातु) पों को आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है :- (१) अंग्ब, (२) पचार, और (३)वेलव । वैकल्पिक पक्ष होने से प्रवालम्भ' भा होता हैउपालम्भते-[१] झंखडा पच्चारइ, [३] पेक्षषह पक्षान्तर में उपालम्भइ = वह उपालम्भ देतो है अथवा वह उलहना देता है ।। ४-१५६ ॥ अवजम्भिो जम्भा॥ ४-१५७ ॥ जम्भेजम्मा इत्यादेशो भवति वेस्तु न भवति ॥ जम्भाइ । जम्भाइ । अवेरिति क्रिम । केलि-पसरा विमम्भइ ।। __ अर्थः-'जभाइ लेना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जम्भ के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जम्भा अथवा जम्मः' (बोध का ही आदेश प्रालि होता है । जीस:- जम्भते - जम्भाइ अथवा जम्भाअध %3D वह जम्भाई लेता है। उपरोक्त संस्कृत-धातु 'जम्म' में यदि 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो 'जम्म' के स्थान पर पर 'जम्मा अथवा जम्मान' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति नहीं होगा। ऐसे समय में वि + जम्म' संस्कृत घातु-रूप का प्राकृत रूपान्तर 'वि अम्भ' होगा। ऐसी स्थिति होने के कारण वि उपसर्ग का विधि-निषेध' प्रदर्शित किया गया है । सैसे:-कालि-प्रसरः विजृम्भते काल-पसरी पिअम्भा = कदली-पौधा का फैलाव विकसित होता है ।। ४i १७ ॥ भाराक्रान्ते नमेर्णिसुढः ॥ ४--१५८ ॥ भाराक्रान्ते कर्तरि नमेणिसुढ इत्यादेशों मप्रति ॥ णिसुदइ । पचे । णवइ । भाराक्रान्तों नम्रतीत्यर्थः ॥ अर्थ:-'भार से प्राक्रान्त होकर-दबाव पड़कर नाचे नमना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'णिसुद्ध' (धातु-रूप) को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:- भाराकान्तो नमाति = पिमहः = बोझ के कारण से वह नमती है, अथवा मुकता है । कभा कभी इसी अर्थ में 'नम':का 'ण' ऐस प्राकृत-रूपान्तर भी कर लिया जाता है । जैसे:-नमति = णवद ॥४-१५८ ॥ .. . Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८८ ] • * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * morermentotrarterrowrotremesternmentertwroteoroore......... विश्रमे णिव्या ॥४-१५६॥ विश्राम्यते शिव्या इत्यादेशो वा भवति ॥ णिवाइ । वीसमइ ।। अर्थ:-'विश्राम करना, थकने पर आराम करना' अर्थक मंस्कृत धातु वि + श्रम -विश्राम्य के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णिया' (धातु) रूप को प्रादेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्षहोने से 'बीसम' भी होता है। जैसे:-विश्राम्यात = णिवाइ अथवा वीसमद वह विश्राम करता है।। १-६५६ ।। आक्रमेरोहा वोत्थार च्छुन्दाः ॥४-१६० ॥ भाभतेरत त्रय श्रादेशा वा भवन्ति ।। ओहावइ । उत्थारइ । छुन्दइ · अकमह ।। अर्थ:--'आक्रमण करना, हमला करना अर्थक संस्कृत धातु 'श्रा + क्रम' के स्थान पर प्राकृत भाग विकम्प से तीन (धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो क्रम से इस प्रकार हैं:-१) मोबाव, (२) उत्थार, और (३) छन्द । वैकल्पिक पक्ष होने से 'कम' भो होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- आकमते - (१) ओहाषद, (२) उत्थारइ, (७) चुनड़ पक्षान्तर में अक्कमह= वह आमण करता है वह हमला करता हे ॥ ४-१६० ।। भ्रमेष्टिरिटिल्ल-दुल्ल-ढंढल्ल-चक्कम्म-भम्मड-भमड-भमाड-तलअंट-झट झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी-पराः ।।४-१६१॥ भ्रमेरेतेष्टादशादेशा वा भवन्ति ।। टिरिटिन्नइ ! दुन्दुल्लइ । दंडन्लइ । चकम्मइ । मम्मडइ । भमडइ । भमाउइ । तलअंटइ । झंटइ । मंगइ । शुमइ । गुमाइ । फुमइ । फुसः । दुमइ । दुसइ । परीइ । परइ । भमइ ॥ अर्थ-'घूमना, फिरना' अर्थक संस्कृत धातु 'भ्रम' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से अठारह (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है :- (१) टिरिटि ले. (२) दुन्दुल्ल, (३) ढंढरल, (४) चकम्म, (५) भम्मड, (६) भमड, (७) मभाउ (6) तलअंट, (E) अंत (१०) झप, (११) भुम, (१२) गुम, (१३) फुम, (१४) फुल, (१५) ढुम, (१६) दुस, (१७) परी और (१८) पर । वैकल्पिक पक्ष होने से 'भम' भी होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- माति = (१)दिरीिटिल्लइ, (२) छैदल्लइ, (३) इंदल्लइ, (४)चम्मइ, (५) भामडइ, 15) भमडइ, (७) भमाडइ, (4) तल अंटइ, (९) झटइ, (१०) झण्ड, (११) भुमद, (१२) गुमा, (१३) फुमइ, (१४) फुसइ, [१५] दुमड़, [१६] दुसह [१७] परी, [१८] परद, पक्षान्तर में भमइवह घूमती है, वह फिरता है। ॥४-१६१॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * पाकृत व्याकरण * [३८६ ] गमेरइ-अइच्छाणुवज्जावज्जसोककुसा कुस-पच्चड्ड-पच्छन्द णिम्मह-णी-गौणणोलुक-पदअ रम्भ-परिमल्ल-बोल परिअल णिरिणास णिवहावसेहावहरा ॥ ४-१६२ ॥ गमेरेते एकविंशतिदेगा या गान्ति : पाई। अच्छा : अणुवज्जइ । अवज्जसइ । उसइ । अमइ । पचहा । पच्छन्दइ । खिम्महई । णोइ । णोणाइ । णीलुक्कई । पदबइ। रम्मइ । परिअल्लह । बोलइ । परिअलइ । णिरिणासइ । णिवहा । अत्रसेहह । अपहरइ । पक्षे । गच्छइ | हम्मइ । णिहम्मद । णीहम्मइ। प्राहम्मइ । पहम्मद । इत्येते तु हम्म गसाबित्यस्यैव भविष्यन्ति ।। अर्थ:--'गमन करना, जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'गम-गच्छ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में इक्कीस (धातु) रूपों की प्रादेश प्राप्ति विकल्प से होती है। जो कि कम से इस प्रकार है:- (१) अई, (२) अइच्छ, (३) अणुबमा (४) अवज्ञाम. (५) उस्कुप. (६) अक्कुस, (७) १चडू, (८) पच्छन्द, (६) णिम्मह, (१०) णो. (११) णीण, (१०) णीलुक्क, (१३) पदअ, (१४) रम्भ, (१५) परिमल्ल, (१६) वोल, (१७) परिमल, (१८) रिपरिणाप्त, (१६) शिवह, (२०) अवसह, और (२१) अवहर । वैकल्पिक पक्ष होने से 'गच्छ' भी होता है । उक्त बायोप्स प्रकार के धातु-रूपों के उदाहरण कम से इस प्रकार है : गच्छति = (१) अईई. (२) भइमलाइ, (३) अणुवउजइ, (४) अवजमद, (५) अक्कुपद, (७) अकुमइ, (७) पवइ, (८) पच्छन्दइ, (ह) जिम्महई, (१०) पीइ, (११) णोणड, (१०) णीलुकाइ, (१३) पदश्रइ, (१४) रम्भद, (१५) परिश्राना, (१६) वालइ, (१५) परिअलइ, (१८) णिरिणामइ, {१६) रिणवहर, (२०) अषसेहइ. (२१) अवहरई, और (२२) गच्छद = वह गमन करता है अथवा वह गमन करती है। संस्कृत-भाषा में 'गमन करना, जाना' अर्थक 'हम्म' ऐपी एक और धातु है इसके आधार से प्राकृत-भाषा में भी जाना' अर्थ में 'हम्म' धातु रूप का प्रयोग देखा जाता है:-हम्मति = हम्मद-वह जाता है अथवा वह गमन करती है। उपरोक्त 'हम्म' धातु के पूर्व में कम से णि, णो, आ, और प. उपसर्गों की संयोजना कर के इसी 'जाना-अर्थ में चार (धातु) रूमों का और भी निर्माण कर लिया जाता है, जो कि क्रम से इस प्रकार है :- (१) हिम्म, (२) गीहम्म, (३) श्राहम्म, और (४) पहम्म । इनके उदाहरण इस प्रकार है : Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६० ] * प्रियोंदय हिन्दी व्याख्या सहित * 666666666844444 [?] हिम्मति हिम्म= जाती है अथवा वह गमन करता है । [२] निईम्मति= पीहम्मद वह निकलती है अथवा वह बाहर जाता है । [३] आहम्मति = आहम्मद = वह आता है अथवा वह श्रागमन करता है। प्रहम्मति = पहम्मद = वह तेज गति से जाता है, वह शीघ्रतापूर्वक गवन करता है। इस प्रकार से 'जाना अर्थ हम्म धातु के विभिन्न प्रयोगों को समझ लेना चाहिये ।। ४-१६२ ।। आङा अहिपच्चुत्रः ॥ ४-१६३ ॥ आङा सहितस्य गमेः अहिश्च त्र इत्यादेशो वा भवति ॥ श्रहिपच अह । पक्षे । यामध्छ । अर्थ:--' ' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'गम्छ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पिच्चु (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आगच्छ' भी होता है। जैसे:आगच्छति = अपिच्चुअड़ अथवा आगच्छड़ = वह आता है ॥ ४-१६० ।। समा भिडः ॥ ४-१६४ ॥ समायुक्तस्य गमेः अभिड इत्यादेशो वा भवति ।। अभिडइ । संगच्छ ॥ = अर्थः--'सं' उपसर्गं सहित संस्कृत धातु 'गम गच्छ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'मिड' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संगच्छ' भी होता है । जैसे :संगच्छति = अमिड अथवा संगच्छ वह संगति करता है अथवा वह मिलती है ।। ४-१६४ ।। : श्रभ्याङोम्मत्थः ॥ ४–१६५ ॥ स्याङ भ्यां युक्तस्य गमेः उम्मत्थः इत्यादेशो वा भवति ।। उम्मत्थइ । अन्भागच्छ । श्रभिमुखमागच्छतीत्यर्थः ॥ ५ ' के स्थान पर अर्थ:- 'अभि' उपसर्ग तथा 'आ' उपसर्गसहित संस्कृत धातु 'गम् = गच्छ' प्राकृत भाषा में विकल्प से उम्मथ (धातु) रूप की आदेशा प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अब्भागच्छ' भी होता है। जैसे :- अभ्यागच्छति = उम्पत्थ अथवा अच्भागच्छइ = वह सामने आता है, यह अभिमुख आती है ।। ४-१६५ ।। प्रत्याङा पलोट्टः ॥ ४-१६६ ॥ प्रत्याख भ्यां युक्तस्य गमेः पलोड इत्यादेशो वा भवति || पलोट्टई । पञ्चागच्छा ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण 2 [ ३६१ ] 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ:-'प्रनि' उपसर्ग और 'आ' उपसर्ग सहिन संस्कृत-घातु 'गम् = गच्छ' के स्थान पर प्राकृत. भाषा में विकल्प से पलोह' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है । पक्षान्तर में संस्कृत-धातु-रूप 'प्रति + श्रा + गम् - प्रत्यागमछ' का प्राकृत-रूपान्तर पच्चागच्छ' भी होता है। जैसे:-अत्यागच्छति = पलोद्दा अथवा पच्चागच्छड़ - वह लौटता है अथवा वह वापिस आती है ॥४-१६६ ।। शमेः पडिसा-परिसामौ ॥ ४-१६७ ॥ शमेरेतावादेशी वा भवतः ॥ पडिसाइ । परिसामइ । समइ ।। अर्थः-शान्त होना, लुब्ध नहीं होना' अर्थक संस्कृत धातु 'शम् = शाम्य' के स्थान पर प्राकृतभाषा में विकल्प से 'पडिमा और परिसाम' की श्रादेश प्राप्ति होती है ।'सम'भी होता है। तीनों धातु-रूपों के नदाहरण कम से इस प्रकार है: शाम्यति = पाडेसाइ, परिसामइ और समइ = वह शान्त होता है श्रश्रवा वह क्षुब्ध नहीं होता है ॥४-१६७ ॥ रमेः संखुड्ड-खेड्डोभाव-किलिकिञ्च-कोट्टुम भोट्राय-शीसर-बेलनाः ॥४-१६८ ।। रमतेरेतेष्टादेशा था भान्ति ॥ संखुडइ । खेड्इ । उम्भावइ । किलिकिश्चइ । कोट्ठमा । मोट्टायइ । णीसरह । वनइ । रमइ । अर्थ:-'क्रीड़ा करना खेलना' अर्थक संस्कृत धातु 'रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पाठ धातु रूपों की श्रादेश प्रानि होती है। जो कि कम से इस प्रकार हैं:-(१) संखुड, (२) खेड़, (३) मात्र, (४) किलिकिञ्च, (५) कोटुम, (६) मोट्टाय. (७) पीसर और (८) वेल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'रम' भी होता है। उक्त 'खेलना' अर्थक नव ही धातु रूपों के उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:रमते = (१) संखुट्टइ, (२) खेद (३) उडभावइ, १४) किलिकिश्चद, (५) कोट्टुमद, (६) मोट्टायइ, (७) णीसाइ (८) वेल्जाइ और १६) रमइ बह खेलता है अथवा वह क्रीड़ा करता है ।। ४-१६० ।। पूरेरग्घाडाग्यवोध्दुमाङ गुमाहिरेमाः ॥४-१६६ ॥ पूररतेपश्चादेशा या भवन्ति ॥ अग्घाडइ । अग्धषइ । उद्धु माइ । अंगुमइ । अहिरेमइ । पूरह ॥ ___अर्थ:- पूर्ति करना, पूरा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'पूर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातु रूपों की भावेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार हैं:-(१) अग्यास, (२) अग्धव, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mroommonworrormersorrowomewwwmorrowroornstarsworrmwesons.poor (३) पद्धमा, (४) अंगुम और (५) अहिरेम । वैकल्पिक पक्ष होने से पूर' मो नाता है। उक्त छ है ही मातुओं के उदाहरण का लो इस प्रकार हैं:--परयति = (अरबाडइ, (२) अग्यवाह, (३) उपधुमाइ (४) अंगुमइ, (५) अहिरेमड़ और (6) पूर= वह पूर्ति करता है अथवा वह पूग करता है ॥४-१६६ ॥ वरस्तुवर-जअडौ ।। ४-१७० ॥ त्वरतरेताचादेशी भवतः ॥ तुवरइ । जअडइ । तुवरन्तो । जडन्ती । अर्थ:-स्वरा करना, साधना करना श्रर्थक संस्कृत-धातु 'वर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सुबर और जअह' ऐसे दो धातु-रूपों को आदेश प्राप्ति होता है । इन दोनों धातु-रूपों के बाहरण कम से इस प्रकार है:--(परयति अथवा) त्वरते-तुवरइ अथवा जडइ = वह शीघ्रना करता है, वह जल्दा करता है। इसी धातु का वर्तमान कान्त का उदाहरण इस प्रकार है:--स्वरन् = तुचरन्तो अथवा जअडन्ती-शीघ्रता करता हुआ, उतावल करता था ।। ४-१५० ।। __ त्यादिशत्रोस्तूरः ॥४-१७१ ॥ घरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति ॥ तूरइ । तुरन्तो ।। अर्थ:-'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्वर' के आगे काल बोधक प्रत्यय 'ति =इ' श्रादि होने पर अथवा वर्तमान कृदन्त बोधक प्रत्यय 'शत - अत:न्त अथवा मागा' होने पर 'स्वर' का प्राकृत रूपान्तर आदेश रूप से 'तूर' होता है । जैसः- स्वरति अथवा त्वरते-तरमवह जल्दी करता है. वह शीघ्रता करता है। परन् - नुरन्तो (अथवा तूरमाणी) जल्दी करता हुआ। यो 'तूर' के अन्य रूपों की भी स्वयमेव साधना कर लेना चाहिये ॥४-१७१ ॥ तुरो त्यादौ ॥ ४-१७२ ॥ त्वरो त्यादौ तुर आदेशो भवति ।। तुरिओ । तुरन्ती ।। अर्थ:-'शीघ्रता करना' थर्थक संस्कृत धातु 'वर' के स्थान पर प्राकृत-भषा में 'ति-इ' आदि काल बोवक प्रत्यय तथा कृदन्त श्रादि बोधक प्रत्यय आगे रहने पर 'तुर' श्रादेश की प्राप्ति होती है । जैसे:-वरितः= तुरिओ = शोव्रता किय! हुआ । त्वरन्नुरन्तोशीघ्रता करता हु मा । यो अन्य रूपों की भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये ॥४-१७२।। क्षरः खिर-झर-पझ्झर-पच्चड-णिच्चल-णिटुआः ॥ ४-१७३ ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * の なかできなかなかいいかわからなのかわからないのですが..... क्षरेते पड आदेशा भवन्ति ॥ खिरइ । करइ । पज्झरह। पचड | णिचलइ । गिटुअइ ॥ अर्थ:-गिरना, गिर पड़ना, टपकना, झरना थर्थक संस्कृत-धातु 'तर' के स्थान पर प्राकृतभाषा में छह धातु रूपों की आदेश प्रामि हातो है । जा कि क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) खिर, (२) झर, (३) पझर, (४) एचड, (५) णिचल और (६) रिण टुश्र । इनके उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:क्षरति=(१) खिरइ. (२) झरइ. (३) पज्झरह, (४) पच्चडइ, (५)णिवलइ और (5) पिदुदाइ = वह गिर पड़ता है, वह टपकता है अथवा वह झरता है ॥४-१७३ ।। उच्छल उत्थल्लः॥४-१७४॥ उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति ॥ उत्थलइ ॥ अर्थ:-'पछलना, कूदना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत् + शल-वच्छन्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'उन्धन' धातु-रूप की आदेश प्रानि होती है । जैसे:-उच्छलति-उत्थलइ-बह उछलता है अथवा वह कूदता है ।। ४-१५४ ।। विगलेस्थिप्प-णिटुही ॥४-१७५ ।। विगलतेरेतावादेशी वा भवतः थिष्पक्ष । विवहह । विगलई ।। अर्थः-'गल जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि , गल के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'थिप और गिट्टु ऐसे दो धासु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'विगल' भी होता है। तीनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-विगलति(१) थिप्पह, (३)णिटुहा. और (३) पिंगलइवह गल जाता है, वह जार्ण-शर्ण हो जाता है ॥४-१७५ ॥ दलि-बल्यो त्रिसट्ट-वस्फौ ॥ ४-१७६ ॥ दले क्लेश्च यथासंख्यं विस वम्फ इत्यादेशों वा भवतः ।। विसह । वम्फइ । पर्छ । दलइ । बसाइ ।। अर्थः-'फटना, टूटना, टुकड़े-टुकड़े होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दल' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विसट्ट' धातु-रूप को प्रावेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'दल' भी होता है। दोनो धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से यों है :- दलात = पिता अथवा दलइ =4 फटता है, वह टूट है अथवा वह टुकई हुकड़े होता है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 'लौटना, वापिस श्राना, अथवा मुड़ना टेढ़ा होना' अर्थक संस्कृत धातु 'बल' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वम्फ' धातु रूप को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'वल' भी होता है। दोनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है : - वलति = बम्फर अथवा वलर = वह लौटता है अथवा वह टेढ़ा होता है । ४-१९७६ ॥ भ्रंशे: फिड - फिट्ट फुड-फुट्ट चुक्क भुल्लाः ॥ ४--१७७ ॥ अशा या भगति । फिडर । फिट्टह । फुडइ । फुट्ट । चुक्कर | भुल्लर | पक्षे । सह । अर्थ :- फूटना, फटना, टूटना अथवा नष्ट होना' अर्थक संस्कृत धातु ''श' के स्थान पर प्राकृत भाषा में त्रिकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: -- (१) फिड, (५) फिट्ट. (३) फुड, (४) कुट्ट, (५) चुक्क, और (६) भुल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत धातु रूप' अंश' का प्राकृत रूपान्तर 'म' भी होता है। उक्त सातों प्रकार के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है । अपते (अथवा अंश्यति) = [१] फिडड़, [P] फिट्टर, [३] फुड, [४] फुट्टड, [५] rees, [f] as और [७] सइ - वह फूटता है, वह फटता है टूटता है अथवा वह नष्ट-भ्रष्ट होता है ॥ ४- १७७ ॥ नशेरिस - विहाब सेह - पडिसा सेहावहाः ॥ ४--१७७ ॥ ◆$75406GO नशेरते षडादेशा वा भवन्ति ॥ गिरणा सह । विहद्द । श्रवसेहद्द | पडिमा | सेहइ । श्रवद्दरइ | पक्षे | नस्सइ || अर्थ :- 'पलायन करना भागना' अर्थक संस्कृत धातु 'नश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की यादेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है । :- (१) हिरणास (२) शिवह, (३) अव सेह, (४) पडिसा, (५) सेह और (६) श्रवहर | कल्पिक पक्ष होने से 'नरस' भी होता है। यों उक्त एकार्थक सातों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है : नश्यति = [१] णिरणासह, [7] वि. [३] अवहइ, [४] पडिसाइ [1] सेहइ, [६] भषहरा और [७] नएसइ वह पलायन करता है अथवा वह भागता है ।। ४-१०२ ॥ आवाकाशोवासः ॥ ४--१७६ ॥ भवात् परस्य काशी वास इत्यादेशो भवति || श्रवास || Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६५ 56*******०००० अर्थ:-'अव उपमर्ग के साथ रही हुई संस्कृत 'वन पर प्राकृत भाषा में 'अव + फ्राशु' का 'ग्रोवास' रूपान्तर होता है । जैसे:- अबकाशति - ओषासह वह शोभा है अभ्या वह विराजित होता है ।। ४-१७६ ॥ = 4460460 * प्राकृत व्याकरण * संदिशेरपाहः ।। ४- १८० ॥ संदिशतेराह इत्यादेशो वा भवति || अप्नाइ | संदिसइ || अर्थ:- संदेश देना, खबर पहुँचाना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं + दिश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'अप्पा' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संदित' भी होता हूँ। जैसे:- संदिशति - अप्पाहइ अथवा संदिस यह संदेश देता है अथवा वह खबर पहुँचाता है । ।। ४- १५० ॥ दृशो निच्छा पेच्छा वयच्छाव यज्झ वज्ज- सव्वदेक्खौ अक्खावखाव च्यवख- पुलोम- पुलन - निव आस-पासाः ॥ ४- १८१ ॥ | शेरेते पञ्चदशादेशा भवन्ति । निखच्छ । पेच्छइ । श्रवयन्छ । अव चज्जइ । सव्ववs | देख star | वक्खर । अव अक्वइ । पुलोएइ । पुलए६ | इति तु निध्यायः स्वरादत्यन्ते भविष्यति ।। निच । अव श्रास | पासइ ।। निजका = अर्थ:-'देखनां' अर्थ संस्कृत धातु 'दृश् पश्य के स्थान पर प्राकृत भाषा में पह धातु रूपों की आदेश प्रति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: - (१) निश्रद्ध, (२) पेच्छ, (३) श्रवयच्छ, (४) अ, (५) वग्न, (६) सम्भव, (७) देख, (८) श्री अक्ख, (+) अवक्ख, (१०) अवकल (११) पुर, (१२) पुलय, (१३) विश्व, (१४) अवल, और (१५) पास ॥ प्राकृत धातु 'निज्का' की प्राप्ति तो संस्कृत बातु 'नि + ब्ये' के आधार से होती है। उक्त रूप से प्राप्त प्राकृत धातु 'निज्झा' आकारान्त होने से स्वरान्त है और इसलिये सूत्र संख्या ४- २४० से इसमें काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने के पूर्व विकल्प से 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति होती हैं। इस धातु का फाल बोधक प्रत्यय सहित उदाहरण इस प्रकार है: - निध्यायति-निज्झाअह (अथवा निज्झाइ 1- वह देखता है अथवा वह निरिक्षण करता है । 'दृश्= पश्य' के स्थान पर आदेश प्राप्त पन्द्रह धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:पश्यति = (२) निअच्छर, (7) पेच्छा (3) अवयच्छा, (४) अवयज्झइ, (५) वज्जइ, (६) सवय, (७) देक्खड, (८) भक्खर, (९) अवक्खर, (१०) अवअक्खड़, (११) पुठोएड. (११) पुलह, (१३] निमद, (१४) अवआसइ, और (१५) पासइ = वह देखता है ॥ ४-६८ ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .0000.me.ne.morrorenorroretiretroversiretomorrorsmootoroom स्पृशः फास-स-फरिस-छिव-छिहालु खालिहाः ॥ ४-१८२ ॥ स्पृशतेरेते सप्त आदेशा भवन्ति ।। फासइ । फंसह । फरिसइ । छिवह । छिदइ । आलुखइ । आलिहह ।। अर्थः-'स्पर्श करना, छूना' अर्थक संस्कृत-धातु पश' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सात धातुओं की आदेश प्राप्ति होती है। ये क्रम में इस प्रकार है:-१) फास, (२)फैम, (३) फरिस (४)चिव, (५) छिए. (६) भालुख और (७) श्रालिह । उक्त सातों एकाथै धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-स्पृशति-(१) फासइ, (२) फसइ, (३) फरिसइ, (४) छिवई, (५) छिहइ, (६) भालुखाइ, और (७) आलिहइ = वह छूता है अथवा वह स्पर्श करता है ।। ४-१८२ ॥ प्रविशे रिश्रः ॥४-१८३ ।। प्रविशेः रिम इत्यादेशो वा भवति ।। रिश्रइ । पषिसइ ।। अर्थ:--'प्रवेश करना, पैठना, धुसना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र + विश' के स्थान पर प्राकृतभाषा में विकल्प से 'रिमा धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होनी है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पविस' भी होता है। जैसे:-अविशति -रिअर अथवा पपिसह वह प्रवेश करता हैं, वह घुसता है, वह अंदर जाता है ।। ४-१८३ । प्रान्मृश-मुषोम्हु सः ॥४-१८४ ॥ प्रात्परयो मंशति मुष्णात्यो स इत्यादेशो भवति ॥ पम्हुसइ । प्रभृशति । प्रमुष्णाति वा ।। ___ अर्थ:-' उपसर्ग सहित 'पशं करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र + मश' के स्थान पर तथा 'प्र' अपसर्ग सहित 'चोरना, चोरी करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+मुष' के स्थान पर यों दोनो धातुओं के स्थान पर प्राकृत भाषा में फेवल एक ही धातु-रूप 'पम्हुस' को आदेश प्राप्ति होती है । द्वि अर्थक प्राकृत-धातु 'पम्हुम' का प्राप्तीगक अर्थ संदर्भ के अनुसार कर लिया जाना चाहिये । उसहरण इस प्रकार है:--मृशति-पम्बुसइवह स्पर्श करता हैं अथवा वह छूना है । प्रमुष्णाति = पम्हसइवह चोरता है अथवा वह चोरी करता है । यो मसंगानुमार अधं का समझ लेना चाहिये ।। ४-१८४ ।। पिषे णिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोश्च-चड्डा ॥४-१८५ ॥ पिपेरते पञ्चादेशा भवन्ति वा ॥ णिवहा । णिरिणासह । पिरिणज्जइ । रोचा । चहइ । पचे। पीसह ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [३६७ ] ___ अर्थ:-'पीसना, चूर्ग करन।' अर्थक संस्कृत-धातु 'पिष' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातु रूपों की मादेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है:-- (१) णिवह, (२) गिरिणास, (३) णिरिणज्ज, (५) रो छ और (५) चह। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पीस' भो होता है। उक्त छह धातुओं के उदाहरण इस प्रकार है :-पिनष्टिं [१] णियहइ, [P] णिरिणासह [2] णिरिणज्जा, [४] रोचड़, [५] चह और [] पीसह = वह पोसता है अथवा वह चूर्ण करता है। ॥४-१८५।। भषे भुक्कः ॥ ४-१८६ ॥ भषे झुक इत्यादेशी वा भवति ॥ भुक्कइ । भसइ । अर्थ:--'भूकना, कुत्ते का बोलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'भुक' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'भस' भी होता है जैसेः- भपति मुक्कइ अथवा मसइ = वह (कुत्ता) भूकता है । ४-१८६ ।। कृषः कड्ढ-साअड्ढाञ्चारण च्छायञ्छाइञ्छाः ॥४-१८७॥ कृषरेते पडादेशा वा भवन्ति ॥ कडूइ । साअड्इ । अञ्चइ । अणच्छह । अयञ्छ। । आइञ्छइ । पक्षे । करिसइ । अर्थः-खेती करना, अथवा खींचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'कृष' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार है (१) कट्ट, (२) माअड्ड (३) अञ्च, (४) अणच्छ, (५) अयञ्च और (६) पाइन्छ। वैकल्पिक पक्ष होने से 'करिस' भा होता है । उक्त एकार्थक सातों धातु मों के उदाहरण कम से इस प्रकार है:-कर्षति = [१]कड्डइ. [PJ साअडुइ, [३] अञ्चइ, [४] अणच्छर, [५] अयञ्छइ, [F] आइञ्छइ और [७] करिसा - बइ बींचता है अथवा वह खेती करता है ।। ४-१५७॥ असावखोडः ॥४-१८८ ॥ असि विषयस्य कृषेरक्खोड इत्यादेशो भवति ॥ अक्खोडेइ। असि कोशात् कर्षतीत्यर्थः ।। अर्थ:-'तलवार को म्यान में से खींचना' इस अर्थक संस्कृत-धातु 'कृष' के स्थान पर प्राकृतभाषा में 'अक्लो' धातु-रूप को आदेश प्राप्ति होती हैं। जैसे:-- कर्षति = अक्खोडेइ = वह तलवार को म्यान में से ) खींचता है ।।४-१५८ ।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * गवेषेढुंढुल्ल-ढरढोल-गमेस-घत्ताः ॥ ४-१८६ ॥ गयेपेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ।। हुंदुलइ । ढंढोलइ । गमेसइ । घत्तइ । गवेसइ ।। अर्थ:-'हूँदना, खोजना, अन्वेषण करमा' अर्थक संस्कृत-धातु 'गवेष = गधेषय' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है । जो कि कम से इस प्रकार है:(१) दुदुल्ला, (२) ढंढोल, (३) गमेष और (४) प्रत्त । वकालेपक पक्ष होने से 'गवेम' भी होता है। जैसे:-- गवेषयति = (१) हुँदुल्लड़, (२) दढोलइ, (३) गमेसइ, (४) बत्तइ, और (५) गवेसई = वह वढना है, वह खोजता है अथवा वह अन्वेषण करता है ॥ ४-१८९ ।। श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ।। ४-१६० ।। श्लिष्यतेरेते त्रय आदेशाचा भवन्ति ॥ सामग्ाह । अवयासइ । परिअन्तइ । सिलेसइ ॥ जी...'चालिंग करना, गले लगाना अर्थक संस्कृत-धातु श्लिप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है । जो कि कम से इस प्रकार है:-(१)मामांग, (२)अत्रयास और (३)परिअन्त । वैकल्पिक पक्ष होने से सिलेस' भी होता है। उक्त चारों एकार्थक धातुओं के उदाहरण यों है:-मिलष्यति- (१) सामग्गइ, (२) अवयासह, (३)परिअन्तर और (४)सिलेसइ - वह आलिंगन करता है अथवा वह गले लगता है ॥ ४-१६० . म्रा थोप्पडः ॥४-१६१॥ प्रदोश्वाप्पड इत्यादेशो वा भवति ॥ चोप्पडइ । मक्खइ । अर्थ:-स्निग्ध करना श्रथवा घी तेल आदि लगाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'म्रक्ष के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'चोपद्ध' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। य िपक पक्ष होने से मनख' भी होता है जैसे:-प्रक्षति - घोप्पडइ अथवा मक्खा - वह स्निाय करता है अथवा वह घ) तेल श्रादि लगाता है || ४-१६१ ॥ कांक्षराहाहिलंघाहिलंख-बच्च-वम्फ-मह--सिह-विलुम्पाः ॥ ४.-१६२ ॥ कांक्षतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति ॥ आहइ । अहिलंघः । अहिलंखइ। बच्चइ । वम्फइ । महइ । सिहइ । विलुपड़ । कंखइ ॥ अर्थः-'चाहना, अभिलाषा करना' अर्थक संस्कृत-धातु कांच के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पाठ धातु रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: (१)माह, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * सन [ ३६६ ] 1000000000 (२)अहिलय, (३) अहिलं, ( ४ ) वध ( 2 ) अम्फ, (६) मह, (७) सिंह और (८) विलुम्प । वैकल्पिक पक्ष होने से 'के' भी होता है । यो उक्त एकार्थक नव धातु रूपों के कम से उदाहरण इस प्रकार :- कांक्षति = (1) इ. (+) अहिलेवर, (३) अहिलंखड़ (1) खच्चर, (५) बम्फर (६) महइ, (७) सिह, (e) विलुम्प और (६) कंखर = वह इच्छा करता है, वह चाहना करता है अथवा वह अभिलाषा करता है ।।४ - १२२॥ प्रतीक्षेः सामय-विहीर - विरमालाः ॥ ४--१६३ ॥ प्रतीक्षते वय आदेशा वा भवन्ति । सामयइ | विहीर | चिरमालइ । पडिक्ख || अर्थः-'वह देखना, बाट ओहना अथवा प्रतीक्षा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'प्रति + ईन्' श्लोक्ष' के स्थान पर प्राकृत भाषा में त्रिकल्प से तोन धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) सामय, (२) विहीर, और (३) बरमाल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'पक्खि' भी होता है। चारों धातु रूपों के उदाहरण कम से यों है:- प्रतीक्षते = (१) सामयइ. (२) विहीर, (३)विरमाल, और (४) पक्खि इ = वह राह देखता है, वह बाट जोहता है अथवा वह प्रतीक्षा करता ६ ।। ४-९६६ ।। = ... तचे स्तच्छ--चच्छ--रम्प-रक्काः ॥ ४-१६४ ॥ तक्ष रेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तच्छइ । चच्छद । रम्प | रम्फइ | तक्खड़ ॥ अर्थः--'छालना, काटना' अर्थक संस्कृत धातु 'तक्ष' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: - (१), (२) छ (३) र (४) रक्फ | वैकल्पिक पक्ष होने से 'तषख भी होता है। पत्रो धातु रूपों के उदाहरण इस से इस प्रकार है: - तक्ष्णोति (१) तच्छइ, (१) चच्छ, (2) रम्पइ, (४) रम्फइ, और (५) तक्खड़ = वह छीलना है अथवा वह काटता है । ४-१६५ ॥ विकसे : कोवास वोसो ॥ ४ - १६५ ॥ विक्रेतावादेशी वा भवतः ॥ कांसह । बोसह | विश्रसह || अर्थ--' विकसित होना, खिन्नार्थक संस्कृत धातु 'त्रि+कस' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'कोचस और बस ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'विस' भी होता है। तीनों धातु रूप के उदाहरण यों है: - विकसति = (१) को आसइ, (2) siness और fares = वह विकसित होता है अथवा वह खिलता है ॥ ४ - १६५ ।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * +++++++++++++++++++o666%28%9999999999999999999494499666444444 हसे गुज ॥४-१९६ ॥ हसेगुज इत्यादेशो वा भवति ।। गुञ्जइ । हसइ । अर्थ:-हँसता, हास्य करना' अर्थक संस्कृन-धातु 'हस' के स्थान पर प्राकृत-मषा में विकल्प से 'गुज' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हस' भी होता है। जै:हसति-गुंजइ, अथवा इमद = वह हमता ई साथवा वह हास्य करता है॥४-१६६ ॥ स्रसेहँस-डिम्भो ॥४-१६७ ॥ स्र सेरेताबादेशौ वा भवतः ॥ ल्हसइ । परिन्हसइ सलिल-बसणं । डिम्मइ । संसइ ।। अर्थ:-खिसकना, सरकना, गिर पड़ना' अथक संस्कृत धातु 'स्रस' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'महस और डिम्भ' ऐसे दो धातु रूपों को विकल्प से श्रादेश प्राप्ति होती है । देकल्पिक पक्ष होने से 'संस' भी होता है। तीनों के उदाहरण इस प्रकार है:-संसते = (१ एहसइ, (२. डिम्भर और (३) संसह = वह खिसकता है, वह सरकता है अथवा वह गिर पड़ता है। 'परि' उपसर्ग के साथ 'नम्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'बहप्त' धातु का रूप परिहप्त' भी बनता है । इसका उदाहरण इस प्रकार है:- सलिल-वसनं परिवंसते - सलिल वसणं परिल्हसई = पानी वाला ( अथवा पानों में रहा हुआ) कपड़ा खिसकता है अयवा सरकता है ।। ४-१६७ ॥ जोर्डर बोज्ज वजाः ॥४-१६८॥ असेरेते त्रय प्रादेशा वा भवन्ति ।। डरइ । बोज्जइ | वज्जइ । तसह । अर्थ:-'रना, भय सपना' अर्थक संस्कृत-धातु 'त्रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'बर, बोज्ज्ञ, और वज्ज' ऐसे तीन धातु-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। वैश्विक पक्ष होने से 'तप्स' भी होता है। उक्त चारों धातु-रूपों के उदाहरण इस प्रकार है:-त्रस्यति डरइ, (२) बोजड़, (३) वज्जइ, और (४) तसङ्ग-वह उरता है अथवा भय खाता है ।। ४-१६.८ ।। न्यसोणिम-णुमौ ॥ ४-१६६ ।। न्यस्थतेरतावादेशी भवतः ॥ णिमइ । णुमह ॥ अर्थ:--स्थापना करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नि+अम् के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'णिम' और गुम' ऐसे वो धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। दोनो के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-- न्यस्यति = णिमइ तथा णमइ = वह स्थापना करता है, वह रखता है अथवा वह धरता है ।। ४-१६ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण $*$8006606062066666666660$. पर्यस: पलोट्ट - पल्ल - पल्हत्था: ।। ४-२०० ।। पर्यस्यतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ पलोड़ | पट्ट | पन्हत्थ || अर्थ:- 'फेंकना, मार गिराना' अथवा 'पलटना विपरीत होना' अर्थक संस्कृत धातु 'परिं+ स्पर्यस्य के स्थान पर प्राकृत भाषा में तीन धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है: - ( १ ) लाड, (२) पल्लट्ट, और (३) पहत्य तीनों के उदाहरण यो :- पर्यस्यति = (१) पो, (7) पलट, और (३) पहहत्थइ = वह पलटता है अथवा वह विपरीत होता है || ४-२०० ॥ निःश्वसे यः || ४-२०१ ॥ खइ । नीससइ । 1 *400*4 [ ४०१ 1 60480064464 निःश्वसेङ्ख इत्यादेशी वा भवति ॥ अर्थः--निःश्वास लेना' अथवा 'नीसासा दालना' अर्थक संस्कृत धातु 'निर् + श्वस्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'कब' धातु रूप की प्रदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'नीम' भी होता है। जैसे:- निःश्वसिति खइ अथवा मीससइ वह निःश्वास लेता है अथवा वह नोमासा डालता हूँ | ४-२०१ ॥ S उल्लसे रूस लोसुम्भ - पिल्लस- पुलमा - गुञ्जोल्लारोत्राः ॥ ४-२०२ उन्लसेर पडा देशा वा भवन्ति ॥ ऊसलह । अनुम्भ | लिइ । पुल श्राग्रह | गुजोलह । ह्रस्वत्वे तु गुज्जुल्लइ । श्रयइ | उल्लसह ॥ I अर्थ:-' उामित होना, आनंदित होना, खुश होना, तेज-युक्त होना' अर्थक संस्कृत धातु 'उत् + लम्=उल्लस्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्रानि होती हूँ | जो कि क्रम से इस प्रकार हैं: - (१ ) ऊसल, (२) ऊम्भ, (३) जिल्लव, (४) पुलआश्र, (५) गुञ्जीरज मौर (६) श्राम | सूत्र - संख्या १-८४ से गुजोल्ले' धातु-रूप में बछे हुए दीर्घ स्वर 'थो' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'हल' होने के कारण से 'उ' की प्राप्ति त्रिकल्प से हो जाती है, तदनुसार 'गुजोल्स' के स्थान पर 'गु'जुल्ल' रूप की अवस्थिति भी विकल्प से पाई जाती है। यों उपरोक्त आदेश प्राप्त छह धातुओं के स्थान पर सात धातु-रूप समझे जाने चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से 'अक्स' भी होता है। आठों ही धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं: उल्लसति - (१) अलइ (२) ऊसुम्बई, (३) पिल्लमद्द, (४) पुल, (५) गु' जोल्लई, (६) गु ंजुल्लाह (७) श्ररोह और (८) उल्लइ वह उल्लसित होता हैं, अथवा वह आनंदित होता है, वह तेज-युक्त होता हूँ ।। ४-२०२ ।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासेभिर, [ ४०२ ] * नियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भासेभिसः ॥४-२०३ ॥ भासेर्भिस इत्यादेशो वा भवति ॥ भिसइ । भासइ ।। अर्थ:--'प्रकाशमान होना, चमकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भास' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'भिस' धातु-रूप की प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत-धातु 'भास' का प्राकृत रूपान्तर 'भस' भी होता है। जैसेः-भासते-मिसइ अथवा भाइबह प्रकाशमान होता है अथवा चमकता है ।। ४-२०३ ।। ग्रसेघिसः॥ ४-२०४॥ ग्रसेधिस इत्यादेशो वा भवति ॥ घिसइ । गसइ ।। अर्थ:--'प्रसना, निगलना, भक्षण करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मप्स' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से घिस' धातु-रूप की श्रादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गत भी होता है। जैसे प्रसात = घिसड़ अथवा गसइवह मसता है, वह निगलता है अथवा वह भक्षण करता है ।। ४-२०४।। अवादगाहेर्वाहः ॥ ४-२०५ ॥ अवान् परस्य गाहे हि इत्यादेशो वा भवति । प्रोवाइइ । श्रोगाहह ॥ अर्थ:-'अव' उपसर्ग के साथ में रही हुई संस्कृत-धातु 'गाह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वाह' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गाह भी होता है। .. उपरोक्त संस्कृत-उपसर्ग 'अव' का प्राफूत-रूपान्तर क्षनों धातु रूपों में 'ओ' हो जाता है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिये । दानों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से हम प्रकार है:-अवगाहयतिओवाहइ अथवा ओगाहइन्वह सम्यक प्रकार से ग्रहण करता है, वह अच्छी तरह से हृदयंगम करता है।॥४-२०५॥ आहहेश्वड-बलग्गी ।। ४-२०६॥ . पारुहेरेताबादेशी वा भवतः । चडइ । बलग्गइ । आरुहह ।। अर्थ:-'पारोहण करना,चढ़ना' अर्थक संस्कृत-धातु 'श्रा सह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'चच और बला' में से दो धातु-रूपों को आदेश प्रानि होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत-धातु 'आरूह' का प्राकृत-रुपान्तर 'पारुह' भी होना है । जैसे:-आरोहति-(१) चड:, () घलग्गड़ और (३) आरुहर = वह पारोहण करता है अथवा वह चढ़ता है ।। ४-२०६ ।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण # 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000. [४०३ ] मुहे गुम्म-गुम्मडौ ॥ ४-२०७ ।। मुहेरेतावादेशी वा भवतः ।। गुम्मइ । गुम्मडइ । मुझइ ।। अर्थः-'मुग्ध होना अथवा मोहित होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मुह ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में में विकल्प से 'चड और गुम्मड' ऐसे दो धातु रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'मुज्झ' भी होता है। तीनों धातु-रूपों के उदाहरण इस प्रकार है:-मुह्यति= (१) गुम्मइ, (२) गुम्मडइ, और (३) मुन्झई-वह मुग्ध होता है अथवा वह मोहित होता है । हेरशिजला जौ -१८८ दहेरेताबादेशी वा भवतः ।। अहिऊलइ । आलुखइ । डहइ ॥ अर्थ:-'जलाना, दहन करना' सार्थक संस्कृत-धातु 'दह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से अहिऊल' और पालुख' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती हैं । वैकल्पिक पक्ष होने से 'ह' भी होता है। उक्त तीनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:दहात-(१) अहिऊलइ (3) आलुखइ, और (F) डहड़ - बह जलाता है अथवा वह वहन करता है ।।४-२.८ ।। ग्रहो वल--गेयह--हर--पंग--निरुवाराहिपच्चुत्राः ॥ १-२०८ ।। ग्रहेोते षडादेशो या भवन्ति ॥वलइ । गेण्हइ । हरइ । पंगइ । निरुवारइ । अहिपच्चुअइ । अर्थः-'प्रहण करना, लेना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में छह धातुरूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि ऋम से इस प्रकार है:- (१) बल, (२) गेएह, (३) हर, (४) पंग, (५) निरुवार और (६) अहिपचुप । इनके उदाहरण यों है:- गृहणाति = (१) वलइ, 10 मेण्हह, हरइ, (४) गइ, (१) निवारइ, और (1) अहिपच्चुअइ = वह ग्रहण करता है अथवा वह लेता है।।४-२०४ मत्वा-तुम्-तव्येषु-घेत् ॥ ४-२१० ॥ ग्रहः क्त्या-तुम्-तव्येषु घेत् इत्यादेशो वा भवति ॥ क्त्वा । घेसूण ! घेत्तुप्राण । क्वचिन्न भवति । मेरिअ । तुम् । घेत्तु । तव्य । घेत्तव्यं ।। अर्थः-दो क्रियाओं के पूर्वापर संबंध को बताने वाले 'करके अर्थ वाले संबंधार्थ कृदन्त के मत्यय लगाने पर, तया के लिये' अर्भ वाले इत्वर्थ कान्त के प्रत्यय लगाने पर और 'चाहिये' अर्थ वाले Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०४ ] 1490400 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * *********0464600 'तथ्य' आदि प्रत्यय लगाने पर संस्कृत धातु 'मह' के स्थान पर प्राकृत भाषा 'घेनू' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। संस्कृत-प्रत्यय 'क्वा' वाले संबंधार्थ कृदन्त का उदाहरण यों है:- गृहीत्वा = तू और वेत्तुआण आदि ग्रहण करके । कभी कभी 'मह' धातु के स्थान पर उक्त संबंधार्थ कृदन्त के प्रत्यय लगने पर 'घेत्' धातु रूप की आदेश प्राप्ति नहीं भी होती हैं। जैसे:- गृहीत्वा गेव्हिअ = ग्रहण करके । *******44464 = देवर्थ कृदन्त के प्रत्यय 'तुम्' सम्बन्धी उदाहरण 'प्रह घेन' का इस प्रकार है। - ग्रहीतुम् = प्रहण करने के लिये 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय का उदाहरण यों हैं: - श्रतिय्यम् = चेत्तव्यं महण करना हारने के यो 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में उक्त श्रयों में आदेश प्राप्त 'घेत' धातु रूप की स्थिति को जानना चाहिये ।। ४-११० ।। I वो वोत् ॥ ४-२११ ॥ वक्त वत् इत्यादेशो भवति क्वा-तुम् तध्येषु ।। वी । वोतुं । वोत्तमं । अर्थ्ः–'करके' अर्थ वाले सम्बन्धार्थ कृदन्त के प्रत्यय जगने पर तथा 'के लिये' अर्थ वाले इत्यर्थ कृदन्त के प्रत्यय लगने पर और 'चाहिये' अर्थ वाले 'तथ्य' प्रत्यय लगने पर संस्कृत धातु 'वदु' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वोत् धातु रूप की आदेश प्रामि होता है। उक्त तीनों प्रकार के क्रियापदों के उदाहरण कम से इस प्रकार हैं: - (t) 'ऋत्वा' प्रत्यय का उदाहरण:-उक्वा वतृण कह करके अथवा बाल करके (२) 'तुम' प्रत्यय का उदाहरण: - वक्तुम् - पोतुं बोलने के लिये श्रव कहने के लिये । (३) 'तय' प्रत्यय का उदाहरणः--वक्तव्यम् = वोत्तव्यं-बोलना चाहिये अथवा कहना चाहिये, बोलने के योग्य है अथवा कहने के योग्य है ।। १-२११ ।। 7 द- भुज-मुच तोन्त्यस्य ॥ ४-२१२ ॥ एषामन्त्यस्य क्त्वा तुम्-तयेषु तो भत्रति ॥ रोग | रोतु | रोत | भोलू । मोसु | भोत्तव्यं || मोण | मोत्तू | मोचनं ॥ अर्थः---संस्कृत-धातु 'रुद्= रोना भुन्= खाना और मुच = घोड़ना' के प्राकृत रूपान्तर में संबंधार्थ कदन्त, त्यभं कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगाने पर धातुओं के अन्त में रहे हुए 'द' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'ल' व्यजनावर की प्राप्ति होती है। जैसे:- रुद्र भुज भुल और मुच = मुत। उपरोक परिवर्तन के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रहे कि सूत्र संख्या ४-२३७ के संविधान से उपरोक्त धातुओं में आदि अक्षरों में रहे हुए ''हद की गुण-अवस्था पात होकर 'ओ' स्वर की प्राप्ति Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * 1900000 हो जाती है । यो प्राकृत रूपान्तर में 'रुद्र' का रोत भुत्र का मोत्' और 'मुच् का मातृ' हो जाता है। इनके उदाहरण क्रम से इन प्रकार है: - (१) रुवि =रोत्तूण = से करके, रुदन करके, (२) रोदितुम् = सेतु सेने के 'लये, रुदन करने के लिये और (P) रुदितव्यम् रात-रोना चाहिये अथवा ने के योग्य है । (४) वा=भोगखा करके अथवा भोजन करके, [५] भोक्तुम - भोनुं खाने के लिये अथवा भोजन करने के लिये और (६) भोक्तव्यम् मांतव्वं = खाना चाहिये अथवा खाना के योग्य हैं । (७) मुषा - भोत्तू अथवा त्याग करने के लिये और (९) मोक्तव्यम् = मोत्तव्वं के योग्य है ।। ४ - २१२ ।। = छोड़ करके त्याग करके, = (2) मोक्तुम = [ 804 ] छोड़ना चाहिये मोतुं छाड़ने के लिये = श्रयवा छोड़ने *** दृशस्तेन ः || ४-२१३ । शोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुकष्टकारी भवति || दया । दङ्कं । द || " अर्थ :- संबंधार्थ कृदन्न, हेश्वर्थ कृदम्स और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृत धातु दृश्' के प्राकृत रूपान्तर में 'त' सहित अन्त्यव्य जन के स्थान पर द्विश्व 'ट्ठ' की प्राप्त होती है । जैसे:-ष्ट्र देखकर हम देखने के लिये और दृष्टव्यम् = H = देखना चाहिये अथवा देखने के योग्य ।। ४-९६ ।। या कृगो भूत-भविष्यतोश्च ॥ ४-२१४ ॥ गोन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति ॥ भूत-भविष्यत् कालयोश्व कारात् क्त्वा तुम्--. तव्येषु च | काही | अकापत | अकरोत् । चकार वा ॥ काहिह । करिष्यति । कर्ता का || क्त्वा | काउण । तुम्, काउं ॥ तव्य । कार्यव्वं ॥ अर्थ :-- संबंधाथे कृदन्त हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगने पर तथा भूत कालीन तथा भविष्यत् कालीन प्रध्यय लगने पर संस्कृत धातु 'ऋग' = 'कृ' के अन्त्यस्वर 'ऋ' के स्थान पर 'या' स्वर की प्राप्ति होता है। क्लोति से प्राकृत भाषा में रूपान्तरित 'का' धातु के पांचो क्रियापदीय रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है: - [?] कृत्वा = काऊन = करके, [२] कर्तुम् = फाई करने के लिये, कर्तव्यं काय करना चाहिये अथवा करने के योग्य, अकार्यत् - ( अकरोत अथवा चकार) = काहीअ = उसने किया, करिष्यति ( अथवा कर्ता ) = काहड़ वह करेगा, ( अथवा वह करने वाला है ) | यो 'करने अर्थक प्राकृत धातु 'का' का स्वरू। जानना चाहिये ।। ४-२१४ ।। गमिष्यमासां छः ४-२१५ ।। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .rrentraterroreoneerodernoon एषामन्त्यस्य छो भवति । गच्छइ । इच्छइ । जच्छर । अच्छइ ॥ अर्थः-प्राकृत भाषा में संस्कृत-धातु 'गम् . इषु , यम और श्रास' में स्थित अन्त्य व्यज । के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है । यो 'गम् का गच्छ. इष का इच्छु, यम् का जच्छ और 'श्राम का अच्छ' हो जाता हैं। इनके उदाहरण यों है:-[१] गच्छति - गच्छद-वह जाता है, [२] इच्छात = इच्छड़ वह इन्छा करता है, वह चाहना करता है, [२] यच्छति = अच्छड़ - वह विराम करता है, वह ठहरता है अथवा दह देता है, आस्ते = अच्छइवह उपस्थित होता है अथवा वह बैठना है। ||४-२१५॥ छिदि-भिदोन्दः ॥ ४-२१६ ॥ अनयोरन्त्यस्य नकाराक्रान्तो दकारी भवति ॥ छिन्दह । भिन्दइ॥ अर्थ.--संस्कृत-धातु 'छिद्' और 'भिद्' के प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य 'द' के स्थान पर हलन्त 'नकार' पूर्वक 'द' अथात 'न्द' की प्राप्ति होती है । जैस:-छिनति-छिन्नड़ = वह छेदता है; भिमति भिन्नई-वह भेदता है अथवा वह काटता है ।। ४-२५६ । युध-बुध-गृध-ऋध-सिध--मुहां झः ॥ ४-२१७ ॥ एपामन्त्यस्य द्विरुक्तो झो भवति ॥ जुझइ । बुज्झइ । गिज्झइ । कुज्झइ । सिझइ । मुज्मई। अर्थ:--संस्कृन-धातु 'युध , बुध् 'गृध , ऋध , सिध और मुह ' के अन्त्य व्यजन के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'झ' व्यजन की प्राप्ति हो जाती है । इन धातुओं में अन्य वनों संबंधी परिवर्तन पूर्वोक्त प्रथम पाद तथा द्वितीय पाद में वर्णित संविधान के अनुसार स्वयमेव समझ लेना चाहिये, तदनुसार युद्ध करने अर्थक संस्कृत धातु 'युध्' का 'जुन्म हो जाता हैं, 'समझने' अर्थक संस्कृत-धातु 'बुध्' का 'बुमा' बन जाता है । 'पासक्त होने' अर्थक संस्कृत-धातु 'गृव के स्थान पर 'गिज्म' की प्राप्ति हो जाती है । 'क्रोध करने' अर्थक धातु कथ्' 'कुम्भ के रूप में परिवर्तित होता है। 'सिद्ध होना सफल होना अर्थक सस्कृत-धातु सिध' सिझ' में बदल जाता है। यों 'मोहित होना' अर्थक धातु 'मुह.' का 'मुज्झ' बन जाता है । इसके क्रिया पदीय उदाहरण इस प्रकार है:-१) युध्यते = जुज्झइन्वह युद्ध करता है, (२) बुध्यते-बुज्झाइवह समझता है, (३) गृध्यति-गिझरबह श्रासक्त होता है, (४) अध्याति-कुज्वाइवह क्रोध करता है, (५) सिध्यत्ति-सिज्झाइ - वह सिर होता है अथवा वह मफल होता है और (6) मुहृयति-मुज्झाइ = वह मोहित होता है ।। ४-२१७ ।। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ४०७ ] रुधो न्ध-म्भौ च ॥ ४-२१८ ॥ रुधोन्त्यस्य न्ध भ इत्येतो चकारा जश्व भवति ॥ सन्धइ । सम्भ६ । रुज्झइ ।। अर्थ:-'रोकना' अर्थक संस्कृत धातु सध' के अन्त्य व्यञ्चन 'ध' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'न्ध' की, अथवा 'म' की प्राप्ति हो जाती है । मूल-सूत्र में 'चकार दिया हुआ है, नवनुमार 'ध्' के स्थान पर 'उम' की प्राप्ति भी सूत्र संख्या ४-२१७ से हो जाती है। यों 'रुध' के प्राकृत में 'गन्ध, रुम्भ और रुझ' तीन हप पाथ जाते हैं। इनका उदाहर। इस प्रकार है:-रुणद्धि = [१] रुन्धइ. [२] रुम्भइ, P] सझा = वह रोकता है ।। ४-२१८ ।। सद-पतो ईः ।। ४-२१६ ॥ अनयोरन्त्यस्य डो भवति ।। सडइ । पडई ॥ अर्थ:-गल जाना अथवा सूख जाना, शक्तिहीन हो जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सद' और "गिरना, भ्रष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पत' में स्थित अन्त्य व्यन्जन 'द् और न' के स्थान पर प्राकृतभाषा में 'ड' व्यकतान को प्राप्ति हो जाती है । जैसे: -सीदति = सडइ-वह गल जाता है, वह सूख जाता है अथवा वह शक्तीन हो जाता है । पतति-पडइ-वह गिरता है अथवा वह भ्रष्ट होता है ।। ४-२१६ ॥ क्यथ-वर्धा ढः ॥४-२२० ॥ अनयोरन्त्यस्य हो भवति ॥ कडइ । वडइ पत्रय-कलयलो ॥ परिअडइ लायगी । पहुवचनात् वृधेः कृत गुणस्य वर्धेश्चाविशेषेण ग्रहमाम् ।। अर्थ:-'क्याथ करना, उबालना, तपाना, गरम करना' अर्थक संस्कृत धातु 'क्वथ' के अन्त्य अक्षर 'थ्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'ढ' अक्षर को आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'बदना, उमति करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वध वर्ष' के अन्त्य अक्षर 'घ' के स्थान पर भी प्राकृत भाषा में '' अक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। प्राकृत भाषा में रूपान्तरित 'कट और बढ़ की अन्य साधनिकाऐं स्वयमेव साथ लेनी चाहियं । रूपान्तरित धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं:-क्वभ्यते =(अथवा क्यथति) कहा वह क्वाथ करता है अथवा वह नबालता है। वर्धते लवक-कल कलावा पश्य-कलयलो उथल पाथल जैसा प्रचंड कोलाहल बढ़ता है। दुपरा उदाहरण इस प्रकार है:-परिवत लावण्य-परिअडवलायण = सौन्दर्य बढ़ता है। प्रमः---मूल-सूत्र में 'क्वथ-वर्ध' ऐसे दो शब्दों की स्थिति होते हुए भी 'वर्धा' जैसा बहुरचनात्मक क्रियापदीय रूप क्यों दिया गया है ? Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * -0000000000000000000rnsrorosrrorrherotestosterosers dreamokerosroom उत्तर:- संस्कृत धातु 'वृध' में स्थित ऋ' का क्रियापदाय रूप में गुण यिकार हाका मूल-धातु 'वर्ध' रूप में रूपान्तरित हो जाती है और ऐसा होने से उक्त दो धातुओं के अतिरिक्त इस तीसरा धातु कीन नाति हो समीर में सामान्य रुप से तोनों धातुओं को ध्यान में रख कर हो मूल-सूत्र में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। यही बहुवचन-ग्रहण का तात्पर्य है। ऐसा स्पष्टीकरण वृत्ति में भी किया गया है ।। ४-२२० ॥ वेष्टः ॥४-२२१ ॥ वेध वेष्टने इत्यस्य धातोः क गट ड इत्यादिना (२-७७ ) प लोपे न्त्यस्य ढो भवति ।। वेढइ । बेढिज्जइ ॥ अर्थ:-लपेटना' अर्थक संस्कृत धातु 'वे' में स्थित हत्तन्त षकार' व्यस्खन का सूत्र संख्या २.७७ से लोप हो जाने के (श्वात शेष रहे हुए धातु-रूप 'घट्' के 'टकार' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'कार' व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-श्ते = वेढइ = वह लपेटता है अथवा वह घेरता है । दूसरा उदाहरण यों है:-वेष्टश्यते = वेदिजइ% से लपेटा जाता है ।।४-२२१|| समोल्लः ॥४-२२२ ॥ संपूर्वस्य चेष्टतेरन्त्यस्य द्विरुक्तो सो मवति ॥ संवेन्नइ ।। अर्थ.-'स' सपसर्ग साय मे होने पर वेष्ट धातु में 'पकार' को लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हुए मन्त्य पण 'टकार' के स्थान पर द्वित्व रुप से 'स्त' को प्राप्त प्राकृत भाषा में आदेश रुप से होती है। जेसे:-संवेष्टते = संघेल - वह (अच्छी तरह से) लपेटता है ।। ४-२२२ ।। वोदः ॥५-२२३ ॥ उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ब्रो वा भवति ॥ उच्चेलइ । उब्वेढइ ॥ अर्थ:--'उम्' उपसर्ग साथ में होने पर वेष्ट धातु में स्थित 'पकार' का लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हा अन्त्य वर्ण 'टकार के स्थान पर विकल्प से द्वित्व रूप से 'ल्ल' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से होती है। जैसे:--उद्वेष्टते - उध्येढइ अथवा उज्वेलइ = यह बन्धन मुक्त करता है, अपना वह पूयक करता है ।। ४-२२३ ॥ स्विदां ज्जः ||४-२२४ ।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में राकृत व्याकरण ** [ ४०६ ] स्त्रिदि प्रकाराणामन्त्यस्य द्विरुक्तो जो भवति ॥ सन्मङ्ग-मिज्जिरीए । संपज्जइ । खिज्जा ।। बहुवचनं प्रयोगानुपरणार्थम् ।। अर्थः--'पसीना होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्विद्' तथा 'संपन्न होना, सिद्ध होना, मिलना' अर्थक संस्कृत धातु संपद्' और 'खेद् करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिदु' इत्यादि ऐसी धातुओं के अन्त्य व्यञ्जन 'द' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'ज' व्यजन की आदेश प्राति होती है। जैसे:- सर्वाङ्ग स्वेदनशीलायाः - समस्य-सिजिए-सभी अंगो में पसीने वाली का । संपद्यते-संपज्जइ = वह संपन्न होता है अथवा वह मिलता है । खिद्यति = खिजइ-वह खेद करता है अथवा वह अफसोस करता है। मूल सूत्र में स्विदा' ऐसे बहुवचनान्त पद के प्रयोग करने का कारण यही है कि इस प्रकार की द्वित्व 'न्ज' वालो धातुएँ प्राकृत-भाषा में अनेक हैं, जो कि 'दकारान्त' संस्कृत-धातुओं से संविधानानुसार प्राप्त हुई हैं ॥ ४-२२४ ।। ब्रज-नृत-मदांच्चः ॥४-२२५॥ एषामन्तमस्य द्विरुक्तची भवति ।। वनइ । नचइ । मच्चाई । अर्थ:-'जाना, गमन करना अर्थक संस्कृत-घातु 'ब्रज' 'नाचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नृत' और 'गर्व करमा' अर्थक संस्कृत धातु मद्' के अन्त्य हलन्त व्याजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्विस्व रूप से 'ध' का आदेश प्राप्ति होती है । जैसः-प्रजाति -पच्चइ = वह जाताहै, वह गमन करता है । नृत्यति नच्चइ = वह नाचता है । माद्यति = मच्वइ = पह गर्व करता है, अथवा वह थकता है वह प्रमाद करता है।॥४- २५ ॥ रुद-नमो वः ॥ ४-२२६ ॥ अनयोरन्त्यस्य बो भवति ॥ रुवइ । रोवइ । नवइ । अर्थ:-रोना' अर्थक संस्कृत धातु 'रुद्' और 'नमना, नमस्कार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के अन्त्य ग्यजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यजनाक्षर की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-रोदिति - रुवइ अथवा रोवर = वह रोता है, वह सदन करता है । नमति = नबड़वह नमता है अथवा वह नमस्कार करता है ।। ४-२.६ ।। उद्विजः ॥ ४-२२७ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moreatemenerotiireorrorrowroteoroortoosorrorerarmsottomonam उद्विजतेरन्त्यस्य वो भवति ॥ उविवइ । उव्वेवो । अर्थ:-'उद्वेग करना, खिन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उद् + विज = अद्विज' के अन्त्य व्यजनाक्षर 'ज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'च' व्यन्जनातर की प्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-उहिजति (अथवा उदिजते) उठिवचइ == वह उद्वेग करता है, यह खिन्न होता है । उद्वेगः = उधेवा = शोक, रंज ॥४-२२७॥ खाद--धावो लुक् ॥ ४-२२८ ॥ अनयोरन्त्यस्य लुग भवति ॥ खाइ। खाइ। खाहिइ । खाउ । धाइ धाथिइ । धाउ ।। बहुलाधिकारात् वतमाना भविष्यविधि-श्रादि-एकवचन एव मत्रांते ।। तेनेह न भवति ॥ खादन्ति । धावन्ति । कचिन भवति । धावइ पुरी ।। अर्थ:--'भोजन करना, खाना' अर्थक संस्कृत धातु 'सा' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का और 'दौड़ना' अर्थक संस्कृत धानु 'धाव' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व' का प्राकृत भाषा में लोप होकर केवल 'खा' और 'धा' ऐसे धातु रूप की ही प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ४-२४० से उपरोक्त रोति से प्राप्त धातु खा' और 'धा' श्राकारान्त हो जाने से इनमें काल बोधक प्रत्यय लगने के पहिले विकरण रूप से 'थ' प्रत्यय की वैकलिक रूप से प्राति होती है। उदाहरण यों है:-12) खादति-खाइ अथवा खाअ-यह खाता है । (२) खादिष्यति = खाहिइ-वह खावेगा । (३) खादतु = खाउ- बह खावे । (४) धावति =चाई और घाइ = वह दौड़ता है । (५) धाषिष्यति धाहिइ = वह दोड़ेगा। (३) धातु = चाउ - वह दौड़े। __ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार-सामर्थ्य से 'खाद्' का 'खा' और 'धाव' का 'धा' वर्तमानकाल भविष्यतकाल और विधिलिङ प्रादि लकारों के एकवचन में ही होना है। इस कारण से बहुवचन म 'ख' और 'धा' ऐसा धातु रूप नहीं. हो कर 'खाद्' तथा 'धाव' ऐमा धातु रूप ही होगा । जैसे:-खादन्ति = खादन्ति =वं खाते हैं और धारान्ति -धावन्ति = व दौड़ते हैं। कहीं कहीं पर संस्कृत-धातु 'धाव' के स्थान पर 'पा' रूप का प्राप्ति एक वचन में नहीं होकर 'धाव' रूप को प्राप्ति भी देखी जाती है। जैपेः -चावति पुरतः = धावह पुरओ = बह आंगे दौड़ता है। ||५- ८॥ स्मृजो रः ॥ ४-२२६ ॥ सृजो धातोरन्त्यस्य रो भवति ॥ निसिइ । वासिरह । बोसिरामि ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण - [४११ । m...00000000000000000000000* ******00000000000000000000000000000000 अर्थ:-संस्कृत-धातु 'सृज' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यजन 'ज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'र' ग्यजनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-[१] निसृजति = निांसेरइवह बाहिर निकालता है अथवा वह त्याग करता हैं। [२] व्युत्सुजात = वोसिरह वह परित्याग करता है अथवा वह छोड़ता है। [२] युतुजाभि = घोसिरामि - मैं परित्याग करता हूँ अथवा मैं छोड़ता हूँ ।। ४-२२६ ।। शकादीनां द्वित्वम् ॥ ४-२३० ।। शकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति ।। शक । सकइ ॥ जिम् । जिम्मइ ।। लग । लग्गइ । मम् । भग्गइ । कृप । कुप्पइ ।। नश् । नस्सइ ॥ अट् । परिमट्टइ ॥ लुट् । पलोदृ ।। तुट् । तुइ ॥ नट् । नट्टइ ॥ सिव । सिव्वइ ।। इत्यादि ।। र्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'शक' आदि कुछ एक धातुओं के अन्त्य ग्यजन के स्थान पर प्राकृत भाषा में उसी व्यजन को द्वित्व रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-[१] शक्नोति सकारवह समर्थ होता है। [7] जेमति (अथवा जेमते)-जिम्मइवह खाता है अथवा वह भक्षण करता है। [D] लगात-लग्गइ = संयोग होता है, मिलाप होता है । [४] मगति मग्गइ = वह गमन करता है, वह चलता है। [4] कुप्यति कुप्पड़ मह क्रोध करता है। [१] नश्यति = नस्स = वह नष्ट होता है। [७] परिअदति = परिअड - वह परिभ्रमण करता है, वह चारों ओर घूमता है। [८] [4] प्रतिपलोइ = वह लोटता है।] तुटति-तुरबह झगड़ना है अथवा वह दुःख देता है। [१०] नटतिनइवह नृत्य करता है व नाचता है । सीव्यति-सिवइनह सीता है, वह सीवश करता है । इत्यादि रूप से अन्य उपलब्ध प्राकृत-धातुओं का स्वर भी इसी प्रकार से द्वित्व' रूप में समझ लेना चाहिये ।।४-२३० ।। स्फुटि-चलेः ॥ ४-२३१ ॥ अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं चा भवति ॥ फुइ । फुडह । चल्लइ । चलइ ॥ अर्थ:-विकसित होना, खिजना अयत्रा टूट ।। फूटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्फुट' के अन्य अयजन 'टकार' के स्थान पर और 'चजना, गन करना' अथक संस्कृ-वातु 'चल' के अन्त्य व्यजन 'लकार' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकला में इस व्यतन को 'विश्व' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) स्कुप्रति-कुट्टइ अथवा फुडइवह विकसित होता है, वह खिलता है अथवा वह टूटता है-३ह फूटता है । (२) च इति = बल्लइ अथवा चलइ-वह चलता है अथवा वह गारन करता है । ४-१३१ प्रादे मर्मीले ।। -२३२ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → [ ४१९२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित प्रादेः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं पा भवति । पमिइ । पमीलः । निमिल्लड़ । निमीलह | संमिल्ल | संमीलइ | उम्मिन्ल उम्पील | प्रादेरिति किम् । मीलइ ॥ 1 4444444 अर्थः- 'मूदना, बन्द करना' अर्थक संस्कृत धातु 'मोल' के पूर्व में यदि 'प्र, नि, सं, उत' आदि उपसर्ग जुड़े हुए हो तो 'मील' धातु के अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर 'लकार' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से हिन्द 'ल्ज़' की माधि हो। जैसे-नीति-प्रमिलाइ अथवा पलड़= वह संकोच करता है, वह सकुचाता है । (१) निमीलति = निमिल्लइ अथवा निर्मालइ = वह घाँख मूँदता है अथवा वह आँख मोषता है | (p) संगीति-संमिलइ अथवा संमल = वह सकुचाता है अथवा यह संकोच करता है । (४) उन्मीलति = उम्मिल्लर अथवा उम्मीड़ वह विकसित होता है, वह खुलता है । अथवा वह प्रकाशमान होता है । यों अन्य उपसर्गों के साथ में भी 'मिल और मील' की स्थिति को समझ लेना चाहिये । प्रश्नः - 'प्र' यादि उपसर्गों के साथ ही विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'मील्' धातु के पूर्व में 'प्र' यादि उपसर्ग नहीं जुड़े हुए होंगे तो इस 'मी' धातु में स्थित हलन्त अन्त्य व्यञ्जवाक्षर 'लकार' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं होगी। जेसे:-मीलति = मीas: वह मूँदता है, वह, बन्द करता हैं। यों एक ही रूप 'मील' ही बनता है। इसके साथ 'मिल्ल रूप नहीं बनेगा || ४-२३२ ॥ उवर्णस्यावः ॥ ४- २३३ ॥ धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति ॥ न्हुङ । निइवइ || हु | निहवद्द | च्युङ । चव || रु | रवइ ॥ कु । कथइ || सू । सब पसवइ ॥ अर्थः---संस्कृत धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'ब' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'श्रव' को आदेश प्राप्ति होती हैं । जैसे:-निन्दुते - निषद वह अपलाप करता है, वह निंदा करता है । निन्दुते= निहवः = वह अपलाप करता है। व्यवति = चवइ = वह मरता है, वह जन्मान्तर जाता है । रौति = खइ = वह बोलता है, वह शब्द करता है अथवा वह रोता है। कवति कवइ = वह शब्द करता है, वह आवाज करता है। सुते-सव वह उत्पन्न करता है, वह जन्म देता है। प्रसूते = पसवइ = यह जन्म देता अथवा उत्पन्न करता है । = = उपरोक्त उदाहरण में 'निन्दुनिएर नि + = निश्व, च्यु = चा रु= रत्र, कु = कब, और सूम' धातुओं को देखने से विदित हो जाता है कि इनमें 'उ' अथवा 'ऊ' स्वर के स्थान पर 'अ' अक्षरांश की प्राप्ति हुई है ।। ४-२३३ ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * mootoworrorosorrowroorkshorrorer.weetworrierotomorrorm वर्णस्यारः ॥४-२३४॥ धातोरन्त्यस्य वर्णस्य भारादेशो भवति ॥ करइ । धरह । मरइ । वरह । सरह । हरद । तरइ ! जरह ॥ अर्थः-संस्कृत-धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत-र.पान्तर में 'घर' अक्षरांश की प्रामि होती हैं । जैसे-कृ= फर, । धृ= धर | म मर । वृ= पर । स-सर । हु = हर । तृ- तर । और ज= जर | क्रियापदीय उहाहरण इस प्रकार हैं:-[१]करोति = फरइ - यह करता है। धरति =धर = वह धारण करता है। [घियते = मरइ = वह मरता है अथवा वह देह त्याग करता है। घृणोति = वरइ = वह पसंद करता है वह सगाइ-संबंध करता है अथवा वह सेवा करता है। [५] सरति-सरह वह जाता है, वह सरकता है। [5] हरति-हरदवह चुराता है, वह ले जाता है। [७] राति =तरह वह पार जाता है अथवा वह तैरता है । [८] जरति जरइ = बह अल्प होता है, वह छोटा होता है ।। ४-२३४ ।। वृपादीनामरिः ॥४-२३५ ॥ रूप इत्येवं प्रकाराणां धातूनाम् ऋचर्णस्य अरिः इत्यादेशो भवति ॥ धृष् । बरिसइ ।। रुप । करिसह ।। मृष । मरिसइ ॥ हप् । हरिसइ ॥ येषामरिरादेशो दृश्यते ते वृषादयः ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'पृथ्' आदि ऐमी कुछ धातुऐं हैं, जिनका प्राकृत-रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित्त 'ऋ' घर के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'अरि' अक्षांश की श्रादेश प्रामि हो जाती है। जैसे:-वृष: वरिस। कष = कारस । मष - मरिस । द्वषहरिस। इस श्रादेश-संविधान अनुमार जहाँ जहाँ पर अथवा जिस जिन धातु में '' स्वर के स्थान पर 'थार' आदेश रूप भक्षरांश दृष्टिगोचर होता हो तो उन उन धातुओं को 'वृषालय' धातु-श्रोण में प्रथवा धातु-गण के रूप में समझना चाहिये । वृत्ति में आये हुए धातुओं के क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-[१] वर्षति = परिसइ - बरसता है, धृष्टि करता है। फर्षतिन्करिसइ = वह खींचता है। [३] मर्पति = मरिसद- वह सहन करता है अथवा वह क्षमा करता है। [४]ष्यति = हरिसड़ - वह खुश होता है, वह प्रसन्न होता है ॥४-२३५ ।। रुषादीनां दीर्घः ॥ ४-२३६ ॥ क्ष इत्येव प्रकरायां धातूनां स्वरस्य दी| भवति ।। रूसह । तूमइ । सूसइ । दूसइ । पुसइ । सीसह । इत्यादि । - - - - - - - .. - .. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ____ अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध हस्व स्वर वाली 'रूप' आदि ऐसी कुछ धातुएँ हैं, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'हम्ब स्वर' । स्थान पर प्राकृत भाषा में 'दीर्घ स्वर' की आदेश प्राप्ति हो जाती है । जैसे:-रुष = रूम | तुष = तूम । शुष् = सूस । दुष = दूम । पुष् = पूम । और शिष् =ीम आदि आदि । इन के क्रियापदाय उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-(१) हव्यात - सइ% वह क्रोध करता है । [२] तुष्यति तूमड़ -- वह खुश होता है। [२] शुष्यति =मूसइ - वह सूखता है। [४] दुष्यति =दूसइ = वह दोष देता है अथवा वह दूषण लगाता है। (५) युष्यात पूसइ % वह पुष्ट होता है अथवा वह पोषण करता है और (8) शेषति = (अथवा शेषयति)-सीसइ = वह शेष रखता है, बचा रखता है। (अथवा यह वध करता है, हिंसा करता है)॥ ४-२३६ ।। युवर्णस्य गुणः ॥४-२३७ ॥ धातोरिवर्णस्य च विङत्यपि गुणो भवति । जेऊण । नेऊण । नेइ । नेन्ति । उड्डु । उहन्ति । मोत्तूण । सोऊण । क्वचिन्न भवति । नीश्री । उड्डीणो ।। अर्थः- - संस्कृत-धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में कल अथवा खित' अर्थात कृदन्त वचक और काल बोधक प्रत्ययों की संयोजना होने पर भी प्राकृत भाषा में धातुओं में रहे हुए 'इ वणं' का और 'उ धर्ण' का गुण हो जाता है। जैसे:-जित्या =जेउण -जीत करके । नीता ने उण = ले जा करके । नयति = नेइ =वह ले जाता है । नयनि नन्ति = वे लं जाते हैं । 'हो' धातु का उदाहरणः-उतु + व्यते = उड्डयते - उइ-वह आकाश में उड़ता है। उन +डयन्ते = उड्यन्त - उदग्नि = थे अकाश में उड़ जाते हैं। इन उदाहरणों में 'जि' का 'जे'; 'नी' का 'न' तथा 'डी' का 'डे' स्वरूप प्रदर्शित करके यह बतलाया गया है कि इनमें 'इ वण' के स्थान पर 'ए वर्ण' की गुण रूप से प्राप्ति हुई है। अब श्रागे 'उ' वर्ण' के स्थान पर 'श्रो वर्ण' की गुण रूप से प्राप्ति प्रदर्शित की जाती है। जैसे:-मुक्त्वा = मोत्तूण = छोड़ कर के। श्रत्वा-सोऊण =सुन कर के। यों 'इ' वर्ण का गुण 'ए' और 'उ' वर्ण का गुण 'ओ' होता है। इस स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। कभी कभी ऐमा भी देखा जाता है जब कि इ' वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की और 3 वर्ण' के स्थान पर 'ओ वर्ण की गुण-प्राप्ति नहीं होता है । जैसे:-नीतः = नो प्रो-ले जाया हुश्रा । बडोन: नहीणो - उड़ा हुआ। यहा पर 'नी' में स्थित और 'हो' में स्थित 'इवणं' को 'ए वर्ण' के रूप में गुणप्राप्ति नहीं हुई है। मूल सूत्र में उल्लिखित 'यु वर्ण' के श्राधार से 'इ वण' तथा 'उ वर्ण' की प्रतिध्वनि समझी जानी चाहिये और इसी प्रकार से वृत्ति में प्रदर्शित 'इ वर्ण' के आगे 'व वर्ण के आधार से मूत्र संख्या ४-२३६ की शृङ्खलानुसार उ वर्ण' की सं प्रान्ति समझी जानी चाहिये ॥४-२३७ ।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [४१५ ] स्वराणां स्वराः ॥४-२३८ ॥ धातुपु स्वराणां स्थाने बस बहुलं भवन्ति ॥ हवइ । हिवइ ।। चिणा । चुणह ॥ सदहणं । मइहाणं ।। धावई । धुबह ॥ रुवइ । रोवइ ।। क्वचिनित्यम् । देह ॥ लेइ । बिहेह । नासइ ।। आर्षे । बेमि ॥ अर्थ:-सम्यत-भाषा की धातुओं में रहे दुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में अन्य स्वरों की आदेश-प्राप्ति बहुतायत रूप से हुआ करती है । जैसे:-- (१) भवति हवद और हिवड-वह होता है: (२) चयति चिणइ और चुणइ = वह इकट्ठा करता है । (२) श्रद्धानं - सइहणं और सदहाणं = श्रद्धा अथवा विश्वास । (४) धारतिम्धापद और धुषद - वह दौड़ता है। (५) रोमिति - रुबह और रोषइ = वह रोता है, वह रुदन करता है। इन उदाहरणों को देखने से विदित होता है कि संस्कृतोय धातुओं में अवस्थित स्वरों के स्थान पर प्राकृत भाषा में विभिन्न स्वरों को आदेश प्राप्ति हुई है। यों अन्य धातुओं के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये । कभी कभी ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृतीय धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में नित्य रूप से अन्य स्वर की उपलब्धि श्रादेश रूप से हो जाती है। जैसे:-दवाति (अथवा दत्ते ) - वह देता है, वह सौंपता है। लाति = लेड्= वह लेता है अथवा प्रहण करता है। विभतिबिहेइ = वह उरता है, वह भय खाता है । नत्यति - नासेइ-वह नाश पाता है अथवा वह नष्ट होता आर्ष प्राकृत में भी स्वरों के स्थान पर अन्य स्वरों की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे-जपीमि चोम = मैं कहता हूं अथवा प्रतिपादन करता हूं ।। ४-२३८ ।। व्यञ्जनाददन्ते ॥ ४-२३६ ॥ घ्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥ ममइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ । भणइ । उघसमइ । पावइ । सिञ्चइ रुन्धइ । मुसह । हरइ । करइ ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥ अर्थ:-जिन संस्कृत धातुओं के अन्त में हलन्त व्यञ्जन रहा हुआ है, ऐसी हलन्त व्यञ्जनान्त धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन में विकरण प्रत्यय के रूप से 'अकार' वर की आगम प्राप्ति हुआ करती है; यो व्यजनान्त धातु प्राकृत भाषा में अकारान्त धातु बन जाती हैं तथा तत्पश्चात इसी रात से बनी हुई अकाराम्त प्राकृत धातुओं में काल-बोधक प्रत्ययों को संयोजना की जाती है । जैसे:-भम् = भम । हस - हम । कुम् = कुण और घुम्ब-चुम्ब इत्यादि । क्रियापदीय उदाहरया क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) अमातभम - वह घूमता है, बद परिभ्रमण करता है । (२) हसति = हसायह Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ++++++++++++=+++++++++++++++++++++&++++++++ ++ộ%++++++++++oote हँसता है । (३) कराति-कणाई-बह करता है। (४) चुम्वति = = वह चुम्बन करता है । (५) भणति भणइ % वह पढ़ता है । वह कहता है : उपशाम्यति समइ % वह शांत होता है. वह क्रोध रहित होता है। (७) प्राप्नोति = पाव = 4 पाता है । (८) सिञ्चति =सिंच पर सींचता है। . (6) रुणदि = रुन्धड़ = वह रोकता है। (१०) मुगाति - मुसइ - वह चोरी करता है। (११) रातहर वह हरण करता है । (१०) करोति- करबह करता है। इन व्यञ्जनान्त धातुओं के अन्त में 'प्रकार' स्वर का आगम हुआ है । यो अन्यत्र व्यञ्जनान्त धातुओं के सम्बन्ध में भी 'अकार' आगम की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। 'शप' आदि अन्य विकरण प्रत्ययों का पागम प्रायः प्राकृत भाषा की धातुओं में नहीं हुआ करता है ।। ४-२३६ ।। स्वरादनतो वा ॥४-२४० ॥ अकारान्तवर्जितात् स्वरान्ताद्धातोरन्ते अकासगमो वा भवति ॥ पाइ पाइ । धाइ थाइ । जाइ जाइ । भाइ भाइ । जम्भाइ जम्भाअई। उधाइ उचाइ । मिलाई मिलाअइ । विकइ विक्के अइ । होउण होऊण । अनत इति किम् । चिइन्छ । दुगुच्छइ ।। ___ अर्थः-प्राकृत-भाषा में अकारान्त धातुओं को छोड़ कर किमी भी अन्य स्वरान्त-धातु के अन्त में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व विकल्प से विकरण प्रत्यय के म.प में 'अकार' स्वर की भागम-रूप से प्राग्नि हुआ करती है। यों अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातु और कालबोधक प्रत्यय के बीच में 'श्रकार स्वर को ग्रामि विकल्प प से हो जाया करता है । जैसे-पाति % पाइ अथवा पाअइ%D वह रक्षण करता है। धावति - धाइ 'अयवा धाअड्= वह दौड़ता है। याति - जाइ अथवा जाअइ-वह जाता है । ध्यायति = झाइ अथवा झाअई-वह ध्यान करता है। जृम्भाति = जम्भाइ अथवा जम्माअइवह जम्हाई (जभाई। लेना है। उदवाति-जवाइ अथवा उषाअ-यह सूखता है, वह शुष्क होता है। ग्लायतिमिलाइ अयना मिळाअइबह म्लान होता है, यह निस्तेज होता है । विक्रीणाति - विक्के अथवा विकेगा: वह बेचता है । भूत्वा-हाऊण अथवा होअऊण-हो कर के ! यों उपरोक्त उदाहरणों में अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं का प्रयोग करके 'धातु नया प्रत्यय के बीच में 'अकार' स्वर का आगा विला से प्रस्तुन किया गया है कि इस प्रागम रूप से प्राप्त 'कार' स्वर के प्राजाने से भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं श्राता है । इस प्रकार की स्थिति को अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। प्रम:-प्रकारान्त थातुओं में' उक्त रीति से प्राप्तव्य भागम-रूप 'कार' स्वर की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है? Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ४१७ ] mooooooooooかかかかかかり00かかかかかかり000000004000000:00:00:00000000000000000000 उत्तरः-प्राकृत-भाषा का रचना-प्रवाह हो ऐमा है कि अकारान्त धातु और काल-बाधक प्रत्ययों के बीच में कभी कभी आगम रूप से 'अकार' स्वर को प्राप्ति नहीं होती है और इस लिये अकारान्त धातुओं को छोड़ कर अन्ना मान्न भातुओं को मिले ही विकल्प से 'अकार' रूप स्वर की आगम-प्राप्ति का विधान किया गया है। जेसे:-चिकित्सति का 'चिच्छर' ही प्राकृत-रूपान्तर होगा; न कि 'चिइन्ह' होगा। इसी प्रकार से जुगुप्मति का प्राकृत रूपान्तर 'दुगुच्छई' ही होगा, न कि 'दुगुच्छअइ' होगा। दोनों उदाहरणों का हिन्दी अर्थ क्रम से इस प्रकार है:- (१) वह दवा करना है और (२) वह घृणा करता है, वह निंदा करता है । ४-२४० ॥ चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो हृस्वश्च ।। ४-२४१ ॥ च्यादीनां धातूनामन्ते ण कारागमो भवति, एषां स्वरस्य च हृस्वी भवति ॥ चि । चिणइ | जि । जिणइ । शु | सुरणइ । हु । हुणइ । स्तु । थुगाइ । लू । लुणइ । पू । पुणइ । धुम् । धुणइ ॥ बहुलाधिकारात् कालत् विकन्यः। उच्चि गइ । उच्चे। जेऊण । जिणिऊण । जयइ । जिणइ ॥ सोऊण । सुणिऊण ।। अर्थः-(१) चि =(चय )=इकट्ठा करना, (१) जि= (जय ) = जीतना, (९) U = सुनना, (४) हु- हवन करना, (५) स्तु =स्तुति करना, (६) लू लगना, छेदना, (७) पू= पवित्र करना, और (८)धू-धुनना-कंपना 'इन संस्कृनीय धातुओं के प्राकृत-करान्तर में काल-बोचक प्रत्ययों को जोड़ने के पूर्व 'णकार' यमनाक्षर को भागम-प्रानि होती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की स्थिति से इनका प्राकृत- रूपान्तर यो हो जाता है:-(१) चिण, (२) जिण, (३) सुण, (४) हुण, (५) थुप, (६) लुण, (७) पुण, और (८) धुण, क्रियापदीय उदाहरण क्रम से यों है:-(१) चिनीति = विण-वह इकट्ठा करना है, (२) जयतिजिण = वह जीतता है, (३) हा जाति = सण-वह सुनता है, (४) जुहोतिहणइ - वह हवन करता है, (५) स्तोति-युगइ = वह स्तुति करता है, {) लुनाति लुगइ = वह लगता है, वह काटना है, (७) पुनातिन्युपाई - वह पवित्र करता है और (८) धुनाति भुगइ = वह धुनता है, यह कंपता है। _ 'बहुलम' सूत्र के अधिकार से कहीं कहीं पर प्राकृत रूपान्तर में उक्त धातुओं में प्रामव्य ‘णकार' ध्यानाक्षर को पागम प्रानि विकल्प से भी होती है । जैसे:-उच्चिनोति उचिणइ अथवा उच्च = यह (फूल आदि को तोड़कर) इकट्टा करता है । जित्वा = जेऊण अथवा जिणिऊण = जित करके, विजय प्राप्त करके । श्रुषासोऊग अथवा मुणिऊग = सुन करके, अत्रया करके । इन उपरोक्त उदाहरणों में 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की भागम-प्रानि विकल्प से हुई है । यो अन्यत्र भी जान लेचा चाहिये। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१८ ] 6000 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित **0.666660060000 न वा कर्म - भावे व्व क्यस्य च लुक् ॥ ४- २४२ ॥ ०००००० कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् ॥ चित्र चिणिज्जइ । जिवह जिगिज्जइ ! सुबह सुगिज्जइ । हुव्वह हुणिज्जइ । म्वइ बुणिज्जइ । लग्न लुखज्जइ । पुम्बइ पुणिज्जइ । धुम्बड़ घुणिज्जइ ॥ एवं भविष्यति । चिव्विदिड् । इत्यादि ॥ अर्थः- संस्कृत भाषा में कर्म वाथ्य तथा भाव वाच्य बनाने के लिये धातुओं में आत्मनेपदीय कात बांधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व जैसे 'यक' = य' प्रत्यय जोड़ा जाता है, वैसे ही प्राकृत भाषा में भी कर्मवाच्य तथा भाव- वाच्य बनने के लिये धातुओं में काल बोधक-प्रत्यय जोड़ने के पूर्व 'ई' अथवा 'इज्ज' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, यह एक सर्व-सामान्य नियम हैं, परन्तु 'चि, जि, सु, हु, थु, लु, पु, और धु' इन आठ धातुओं में उपरोक्त कर्मणि भावे प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इन अथव' इज्ज' के स्थान पर द्विरुक्त अर्थात द्वित्र 'o' की प्राप्ति भी विकल्प से होती है और तत्पश्चात् वर्तमानकाल, भविष्यकाल यादि के काल बधिक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यों 'ईस अथवा इजन' का लोप होकर इनके स्थान पर कंवल 'व्' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति हो जाती है । वृत्ति में 'च क्यस्य लुक' ऐसे जो शब्द लिखे गये हैं, इनमें 'च' अव्यय से यह तात्पर्य बनाया गया है कि इन धातुओं में 'क' प्रत्यय जुड़ने पर सूत्र संख्या ४- २४१ से प्राप्त होने वाले 'कार' व्यञ्जनाक्षर की आगमप्राप्ति मी नहीं होगी। 'क्याय' पद से यह विधार किया गया है कि 'ईश्र और इज्ज' प्रत्ययों का भी लोप हो जायगा। ऐसा अर्थ बोध 'लुक' विधान से जानना । उपरोक्त आठों ही धातुओं के उमय स्थिति वाचक उदाहरण यतमान-काल में कम से इस प्रकार है: – (१) चीयते = चिव्वइ अथवा चिणिजइ = उससे इकट्ठा किया जाता है । (२) जीयते = जिव्ह अथवा जिंणिज्जइ = उस से जीता जाता है । (३) श्रूयते - सुम्वइ श्रथवा सुणिज्जइ - उससे सुना जाता है । ( ४ ) स्तूयते = व अथवा थुणिज्जइ = उससे स्तुति की जाती हैं । (५) हृह्यते = वह अथवा हुणिज्जइ = उससे हवन किया जाता है । (६) मते- लुव्वइ श्रथवा लणिजइ = उससे लूगा जाता हैउससे काटा जाता है । (७) पूयते -पुव्वह अथवा पुर्णिज्जइ= उससे पवित्र किया जाता है और (८) धूयते = धुम्बइ अथवा घुणिज्जइ = उससे धुना जोता है अथवा उससे कंपा जाता है। इन उदाहरणों को ध्यान पूर्वक देखने से विदित होता है कि 'जहां पर व्य प्रत्यय का श्रागम हैं, बहार और इज्ज का लोप हैं तथा जहां पर ए और इज्ज प्रत्यय हैं यहां पर व् प्रत्यय नहीं है। भविष्यत् काल में भी ऐसे ही उदाहरण स्वयमेव कल्पित कर लेना चाहिये । विस्तार मय से केवल नमूना रूप एक उदाहरण वृत्ति में दिया गया है, जो कि इस प्रकरा हैः- चीयिष्यते = चिविहिर Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण [४१६ ] .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000. (अथवा चिपिाजाही) - उससे इकट्ठा किया जायगा । अन्य ऐसे ही उदाहरणों के संबंध में वृत्ति में 'इत्यादि' शब्द से यह भलामणा दी गई है की बाकि के उदाहरणों को रषयम् ही सोच लें ॥४-२४२ ॥ म्मश्चः ॥४-२४३ ॥ चगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो भो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ॥ चिम्मइ । चिच्चइ । चिणिज्जइ : भविष्यति । चिम्मिहिइ । चिन्विहिइ । चिणिज्जिहि ॥ ___ अर्थ:-'इकट्ठा करना' अर्थक धातु 'चि' के कर्मणिभावे प्रयोग में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने कं पूर्व विकरूप से संयुक्त अर्थात्त द्वित्य 'म्म' की भागम-शान्ति विकल्प से होती है और ऐसा होने पर कणि भावे-प्रयोग-बोधक प्रत्यय 'व' अथवा 'ई' अथवा 'इज्ज' का लोप हो जाता है। यों 'चि' धातु में 'म्म, च्व, ईश्न, इज्ज' इन चारों प्रत्ययों में से किसी भी एक का प्रयोग कमणि-मावे अर्थ में किया जा सकता है। परन्तु यह ध्यान में रहे कि 'म्म अथवा व्व' प्रत्यय का सद् भाव होने पर सूत्र-संख्या ४-२४१ से प्राप्त होने वाले णकार' व्यञ्जनाक्षर को प्राप्ति नहीं होगी । ऐसा बोध वृत्ति में दिये गये 'च' अवय से जानना (उदाहरण इस प्रकार है:-धीयते-चिम्मइ, चिवड, चिणिज्जइ अथवा चिणीअइ- उस से इकट्ठा किया जाता है । भविष्यत काल संबंधी उदाहरण इस प्रकार है:-चीयिष्यते चिम्मिाहा, विविदिइ, चिणिनिहिड़, (अथवा चिणीमहिंइ) = उससे इकट्ठा किया जायगा । बाकी के उदाहरण खुद ही जान लेना ॥ ४-२४३ ।। हन्खनोन्त्यस्य ॥ ४-२४४ ॥ अनयोः कर्म भावे न्त्यस्य द्विरुक्तो मो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ॥ हम्मइ, हणिज्जइ । खम्मइ, खुणिज्नइ । भविष्यति । हम्मिहिइ, हणिहिइ । खम्मिहिइ । खणिहिइ ।। बहुलाधिकारात् हन्तः कर्तर्यपि ।। हम्मइ । हन्तीत्यर्थः ।। क्वचिन्न भवति ।। हन्तव्यं । हन्तूण | इश्रो॥ अर्थ:-संस्कृत धातु "हन और खन्" के प्राक्त-रूपान्तर में कर्मणि-भावे प्रयोग में अन्त्य हलन्त "नकार'' व्यजनाक्षर के स्थान पर द्विरुक्त अर्थात वित्व "म्म" को विकल्पसे आदेश प्राप्ति होती है और इस प्रकार द्वित्व "म" की आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे बोध प्राकृत प्रत्यय "ईन और इज" का लोप हो जाता है। जहाँ पर द्विस्व "म" की प्राप्ति नहीं होगी वर्षों पर कर्मणि-भाषे-बोधक प्रत्यय "श्र अथवा इन्न' का सदभाव रहेगा। जैसे:-हन्यते-हम्मड अथवा हणिज्जह =ष! • जाता है । खन्यते = रखम्मड अथवा खणिनाइ छह खोदा जाता है । भविष्यत्-कालीन उदाहरण यों हैं: हनिष्यते- हम्मिहित-घह मारा मायगा | हनिष्यति । हनिष्यते-हणिहिइ-वह मारेगा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 00000000000000rrrrrrrrrrrrr100000%rssorrorerrorestros00000+strolom अथवा वह मारा जायगा | खनिष्यते - खम्मिहि वह खोदा जावेगा । खनिष्यात; खरिष्यते - खणिहिर = वह खोदेगा; अथवा वह खोदा जावेगा। "बहुतम्" सूत्र के अधिकार से "हन्' धातु के करि-प्रयोग में अन्त्य "नकार" व्यातनाक्षर के स्थान पर द्वित्व "म" को प्राप्ति विकल्प से हो जाता है। जैसे:-हन्ति-हम्मद अथवा (हणड़ ) वह मारता है । कहीं कहीं पर उन् । रोते से प्रदर्शित "कार" के स्थान पर द्विय "म" का नाप्ति नहीं भी होती है। जैसे. हन्तव्यम् = हन्तवे = मारने योग्य है, अथवा मारा जाना चाहिये । हत्वा = हुन्नण मार करके । हता-हओं = मारा हुआ; इत्यादि । में 'हन और खन्' धातुओं के प्राकृत-पान्तर में प्रयोग-विशेषों में प्राव्य द्वित्व "म्म" का वैकल्पिक स्थिति को जानना चाहिये । ॥४-२४४ ।। भो दुह-लिह-बह-रुधामुच्चतः ॥ ४-२४५ ।। दुहादीनामन्त्यस्य कर्म-भावे-द्विरुक्तो 'भो' वा भवति ।। तत्-संनियोगे क्यस्य च लुक् । वहे रकारस्य च उकारः ॥ दुब्म दुहिज्जइ । लिब्भह लिहिज्जा । चुन्मइ यहिज्जा । रुरूभइ रुन्धिज्जइ । भविष्पति । दुब्भिहिइ दुहिहिइ इत्यादि । अर्थः-प्राकृत-भाषा में 'दुह, लिह, वह, और रुध = (सूत्र संख्या ४-२१८ से) सन्ध धातुओं के अन्स्य व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर कम-भाव प्रयोग में द्विरुक्त अथवा द्वित्त्र 'म = (सूत्र संख्या २-६० से} भ' की विकल्प से श्रादेश प्राप्त होती है और इस प्रकार से आदेश प्राप्त होने पर कर्मःण-भावं. प्रयोग संबंधी प्राकृत-प्रत्यय ईअ और इज्ज' का लोप हो जाता है । कणि-भावे अथ में यों इन उपरोक्त घातुओं में की तो 'म' होता है और कभो 'ई अ अथवा इज्ज' होता है। यह भी ध्यान में रहे कि उपरोक्त वह धातु में 3' की प्राप्ति होन पर 'व' में स्थित 'अकार' को 'उकार' की प्राप्ति होकर 'बु' स्वरू। का सदुभाव हो जाता है। इन धातुओं के दोनों प्रकार कार से इस प्रकार है:(१) दुइयते = दुभड़ अथवा वाहजड़ = वह दूहा ( दूध निकाला ) जाता है । (२) लियत लिभइ अथवा लिहि जइ = वह चाटा जाता है । (३) उन्नयने - स्मद अथवा पहिजइ = वह उठाया जाता है अथवा बह ले जाया जाता है। (४) रुध्यते - रुभइ अथवा सन्धि जाई = वह रोका जाता है। इन उदाहरणों को भ्यान पूर्वक देखने से विदित होता है कि 'दुह, लिड, वह और ध" के अन्त्य अक्षर "ह तथा ध" के स्थान पर कमणि-भावे प्रयोगार्थ में "SH'' की आदेश प्राप्ति विकल्प में हुई है । जहाँ "म" नहीं है वहाँ पर "इज" प्रत्यय भागया है । म वयन काल संबंधी उदाहरण इस प्रकार हैं:धोक्ष्यते - दुमिहिइ अथवा दुहिहिइवह दूहा जायगा । इत्यादि ।। ४-२५५ ।। दहो उमः ॥४-२४६ ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण " [ ४२१ ] -10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दहोन्त्यस्य कर्म भावे द्विरुक्तो को बा भवति ।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ।। डझइ । डहिज्ज । भविष्यति । डज्झिहिह । डहिहिह ।। अर्थ:-- जलाना' अथक सस्कृत-धातु दह' का प्राकृत-रूपान्तर 'सह' होता है। इस प्रकार के प्राप्त 'डह' धातु के कणि-भावे प्रयोग में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने : पूर्व 'दह' धातु के अन्त्य पज्जनाक्षर 'हकार' के स्थान पर द्विभक्त अथवा द्वित्व 'म = (सूत्र संख्या २-१०) से 'झ' को आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है तथा ऐना होने पर कर्मणि-भाव अर्थक प्राकृत-प्रत्यय 'ईप अथवा इज' का लोप हो जाता है। यदि कार' के स्थान पर नहीं किया जाय तो ऐसी स्थिति में 'ईश्र अथवा इम' प्रत्यय का अभाव अवश्य रहेगा । जैसे:-नह्यते-डज्झाइ अथवा डहिज्जइ = जलाया जाता है। भविष्यत-कालीन दृष्टान्त यो है:-दहिष्यते-डज्झिहिड़, उहिाहड़ - जलाया जायगा ॥ ४-२४६ ।। वन्धो न्धः ॥४-२४७ ॥ बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्म भावे जो वा भवति ॥ सत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ।। बज्झइ । बन्धिज्जाई । भविष्यति । पझिाहिइ । पन्धिहिइ ॥ अर्थ:-बांधना' अर्थक घातु 'बन्ध' के अन्य अक्षर अवयव 'ध' के स्थान पर कर्मणिभावे-अर्थ में काल-बोधक प्रत्यय जुड़ने के पूर्व 'झ' अक्षरावयव की विकल्प से प्रति होती है। तथा ऐसा होने पर कर्मणि-भावे अर्थक प्राकृा-प्रत्यय 'ईअ अथवा इज' का लोप हो जाता है । यदि 'ध' के स्थान पर 'झ' नही किया जायगा सो ऐपो स्थिति में 'ईअ अथवा इज' प्रत्यय का सद्भाय अवश्य रहेगा । जैसे-बध्यते= . साइ अथवा बन्धिजइ = चाँधी जाता है । भविष्यत कालीन उदाहरण यों है:-बन्धिष्यते-बज्ािहिइ अथवा चन्धिाइ - बांधा जायगा। 'बन्धिहिइ क्रियापद कर्मणि-भावे प्रयोग में प्रदर्शित करते हुए भविष्यत् काल में लिखा पत्र है और ऐसा करते हुए कर्मणि भावे अर्थ वाले प्रत्यय 'ईम अथवा ज्ञज्ज' का जो लोप किया गया है, इस संबंध में मूत्र सख्या ३-१६० की वृत्ति का संविधान ध्यान में रखना चाहिये । इसमें यह स्पष्ट रूप से बतलाया है कि 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं वहीं पर 'ईन अथवा इज' प्रत्ययों का विकल्प से कोप हो जाता है और ऐसा होने पर भी कमरिण-भावे अर्थ को उपस्थिति हो सकती है। सूत्र-संख्या ४-४३ से ४-२४६ तक में प्रदर्शित भविष्यत-कालीन उदाहरणों के संबंध में भी यही बाब ध्यान में रखना चाहिये कि इनमें विकल्प से 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप करके भी कर्मणि-भावे अर्थ में भविष्यत-काल प्रदर्शित किया गया है, तदनुसार इसका कारण उक्त सूत्र संख्या ३-१८० की वृक्ति ही है ॥४-२४७ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Mooreerotocorrove.ooooorronsorroresonsoriorrowesosorrrrrrroren समनूपाद्र धेः ॥४-२४८ ॥ समनूपेभ्यः परस्य रुधेरन्त्यस्य कम-भावे झो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ संरुज्झइ । अणुरूज्झइ । उवरुज्झइ । पदे । संरुन्धि नइ ।। अणुरुन्धिज्जह । स्वरुन्धिज्जह । भविष्यति । संरुज्झिहिइ । संरुन्धिहिइ । इत्यादि ॥ अर्थ:--'सं, अनु, और उप' उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग साथ में हो तो 'रुधरुन्ध' धातु के अन्त्य अवयव रूपन्ध' के स्थान पर फर्माण-भावे प्रयोगार्थ में विकल्प से 'उझ' अवयव रूप अक्षरों को आदेश प्राति होती है। तथा इस प्रकार के जम' की आदेश प्राप्त होने पर कर्मणि-भाव-अर्थ-बोधय प्रत्यय 'ईअ अथवा इज' का लोप हो जाता है। यों 'न्ध' के स्थान पर 'झ' की यादेश प्राप्ति नहीं है वहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्यमेव रहेगा । जैसे:-संरुध्यत = संरुज्झइ अथवा संसाधिज्जन = रोका जाता है, अटकाया जाता है । अनुरुध्यत्ते अणुरुज्झाइ अथवा अगुसन्धिजइ = अनुरोध किया जाता है, प्रार्थना की जाती है अथवा अधीन हुआ जाता है, सुप्रसन्नता की जाती है। उपरुध्यते - उवरुज्झाइ अथवा उपसन्धिज्जइ = रोका जाता है, अड़चने डाली जाती है अथवा प्रतिबन्ध किया जाता है । भविष्यत कालीन दृष्टान्त यों है:-सरुन्धिभ्यते-संरुज्झिाहिइ अथवा संसन्धिहरोका जायगा, अटकाया जायगा। इत्यादि रूप से शेष प्रयोगों को स्वयमेव समझ लेना चाहिये । 'सरुन्धिाहइ क्रियापद भविष्यत् कालीन होकर कमणि-भावे अर्थ में बतलाया जाने पर भी ईत्र अथवा इज' प्रत्ययों का लोप विधान सूत्र-संख्या ३-१३० की वृत्ति से किया गया है, इसको नहीं भूलना चाहिये ॥४-२४८॥ गमादीनां द्वित्वम् ॥ ४-२४६ ।। गमादीनामन्त्यस्य कर्म-भावे द्वित्वं वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ गम् । गम्मइ । गमिज्जइ ॥ हस् । हस्सइ । हसिज्जह ॥ भण् । भएण्इ । मणिज्जइ ॥ छुप । छुप्पइ । छुविज्जइ । रुद-नमो वः (४-२२६) इति कृतवकासदेशो रुदिरत्र पठ्यते । रुन् । रुवइ । रुविज्जइ ॥ लम् । लगभइ । लहिज्जा ॥ कथ् कत्थई । कहिज्जइ । भुज् । भुज्जइ भूञ्जिज्जइ ।। भविष्यति । गम्मिदिइ ! गमिहिइ । इत्यादि । अर्थः--गम, हस, भरण, छुव' श्रादि कुछ एक पाकन धातुओं के कर्मणि-भावे-अर्थक प्रयोगों में इन धातुओं के अन्त्य अक्षर को द्वित्व अक्षर का प्रामि विकल्प से हो जाती है । यो द्वित्व-रूपता की प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज' का लोप हो जाता है । जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्ययों का सदभाव रहेगा वहाँ पर उक्त द्वित्व-रूपता की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यों दोनों में से या Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [४२३ ] 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 तो द्वित्व-अक्षरत्व रहेगा अथवा 'ईन या इन्न' प्रत्यय ही रहेगा। जैसे:-गम्यते-गम्मइ अथवा गमिजद-जाया जाता है। (२) हस्यते-हस्सा अथवा हसिजइहंसा जाता है। (३) मण्यतेभण्णइ अथवा भणिज-कहा जाता है, बोला जाता है। (४) छुप्यतेलुष्पड़ अथवा झुविजइस्पश किया जाता है। सूत्र-संख्या ४-२२६ में विधान किया गया है कि 'रुद् और नम्' धातुओं के अन्त्य अक्षर को 'वकार' अक्षर की आदेश प्राप्ति हो जाती है। तदनुसार यहां पर संस्कृतीय धातु 'रुद्' को 'रुव' रूप प्रदान कर के इसका उदाहरण दिया जा रहा है। (५) रुद्यते - सध्या अथवा साविजाइ - रोया जाता है-रुदन किया जाता है। (5) लभ्यते = लभइ अथवा लहिज्जइ = प्राप्त किया जाता है। (७) कथ्यते-कथइ अथवा काहज्जइ-कहा जाता है। इन 'लभ और कथ' धातुओं में इसी सूत्र से प्रथम बार तो द्वित्व, भ और थ्थ' की प्राप्ति हुई है और पुनः सूत्र-संख्या २-10 से 'भ तथा स्थ' की प्रानि होने से उपरोक्त उदाहरणो में 'लम्म तथा कस्थ' ऐसा स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। 1८) भुज्यतेभुजाइ अथवा भुजिज्जा-खाया जाता है, भोगा जाता है। यहाँ पर 'भुज्' को 'भुज्' की प्राप्ति सूत्र संख्या ४-११० से हुई है। यह ध्यान में रखना चाहिये। भविष्यत काल का दृष्टान्त इस प्रकार से है:- गमिष्यते गम्मिाहइ अथवा गमिहिइ= जाया जायगा; इत्यादि रूप से समझ लेना चाहिये ।। ४-२४६ ।। हृ-कृ-तृ-जामीरः ॥४-२५० ।। एपामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो चा भवति ॥ तस्संनियोगे च क्य-लुक ।। हीरह । हरिज्जइ ॥ कीरइ । करिज्जइ । तीरइ । तरिज्जह । जीरइ । जरिज्जइ ।। अर्थः-प्राकृत-भाषा में (१) हरना, चोरना' अर्थक धातु 'स' के, (२) 'करना' अर्थक धातु 'कृ' के, (३) 'तरना, पार पाना' 'अर्थक धातु 'तृ' के, और (४) 'जोण होना' अर्थक धातु 'ज' के कर्मणि भावे-प्रयोग में अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ई' अक्षरावयव की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है अर्थात 'द का हीर, कृ का कीर, तु को तीर, और ज़ का जोर हो जाता है और ऐसा होने पर कर्मणिभावे-प्रयोगाथक प्रत्यय 'ईश्र अथवा इन' का लोप हो जाता है। यो जहाँ पर इन धातुओं में ईम अथवा इज' का सद्भाव है वहाँ पर इन धातुओं के अन्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ईर' प्रादेश की प्राप्ति नहीं होती है। ईर' आदेश की प्राप्ति होने पर ही ईश्र अथवा इज' का लोप होता है यह स्थिति वैकल्पिक है उक्त चारों प्रकार की धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-वियते-हीरड़ अथवा हारज्जा - हरण किया जाता है अथवा चुराया जाता है। [२] कियते = कीरज अथवा कारज्जइ = किया जाता है। [2] तीर्यते - तरिड अथवा तारज्जद तरा जाता है, पार पाया Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] *पियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * जाता है, और [४] जीर्यते = जीरड़ अथवा जरिज्जद-जीर्ण हुश्रा जाता है । कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में उक्त चारों धातुओं की यों अभय स्थिति को सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिये ।। ४-२५० ।। अर्जे विढप्पः ॥ ४-२५१ ॥ अन्त्यस्येति निवृत्तम् । अर्जेविंदप्प इत्यादेशो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ विढप्पइ । पक्षे । विढविजइ । अजिज्जइ ।। अर्थ:-उपरोक्त सूम्र-संख्या १-२४० तक अनेक धातुओं के अत्याक्षर को श्रादेश प्राप्ति होती रही है। परन्तु अब इस सूत्र से आगे के सूत्रों म चातुश्री के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अन्य धालुओं की भाशा मंविधान दिया जाने वाला है, इस लिये अब यहाँ से अथात इम सूत्र से 'अन्स्य' अक्षर को आदेश-प्राप्ति का संविधान समान हुआ जानना। एसा इश्लेख इसा सूत्र की वृत्ति के आदि शब्द से समझना चाहिये । ___उपार्जन करना, पैदा करना अर्थक संस्कृत-धातु 'बर्ज' का प्राकृत रुपान्तर 'अज' होता है; परन्तु इस प्राकृत-धातु 'माज' के स्थान पर फर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में प्राकृत भाषा में विकल्प से 'विढाप अथवा विढव' धातु रूप को अावेश-प्राप्ति होती है और ऐसी आदेश प्राति विकल। से होने पर कमणि-भाव-बोधक प्रत्यय 'ईश्र अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों इन 'ईअ अथवा ईज्ज' प्रत्ययों का लोप होने पर ही 'विढप्प अथवा विढा' घातु-रूप की विकल्प से आदेश-प्राप्ति जानना । तत्पश्चात-काल बोधक-प्रत्ययों की इस आदेश-प्राप्त धातु रूप में संयोजना की जाती है। जहाँ पर 'अर्ज' का प्राकृत-रूपान्तर 'अज्ज' हा यदि रहेगा ता कर्मणि भावे प्रयोगार्थ में इस 'अन्ज' धातु में 'ईश्र अथवा इज' प्रत्यय की संयोबना कर के तत्पश्चात ही काल-बोधक-प्रत्ययों की संयोजना की जा सकेगी। जैसे:-अज्यते - पिढप्पड़ (अथवा विवइ) अथवा अज्जिमई - उपार्जन किया जाता है, पैदा किया जाता है । यो 'विढप्प अथवा विढव' में 'ईश्र. ' प्रत्यय का लोप है, जब कि 'अज्ज' में 'इज्ज' प्रत्यय का सदुभाव है। ___ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं कहीं पर 'विक आदेश प्राप्त धातु में भी इन अथवा इम' प्रत्यय का सद्भाव :देखा जाता है। जैसा कि वृत्ति में उदाहरण दिया गया है कि:-अय॑ते = विटापिज्जा = पैदा किया जाता है, उपार्जन किया जाता है ॥ ४-२५१ ।। ज्ञो णव-णज्जी ॥ ४-२५२ ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारा व्याकरण 2 [१२५ ] momomemiummermometritiirerometeoretootweetm.in... __जानातः कर्म-भावे गुच्च रणज्ज इत्यादेशो वा भवतः । तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ।। रणव्यह, णज्जइ । पक्षे । जाणिज्जइ । मुगिज्जइ ।। प्रज्ञो णः ॥ (२-४२) इति मादेशे तु । गाइज्जइ । नपूर्वकस्य । अणाइज्जइ ।। अर्थः -'जानना' अर्थक संस्कृत-धातु 'ज्ञा' के प्राकृत रूपान्तर में कर्मणि भावे प्रयोग में ज्ञा' के स्थान पर 'णग्य और जा ऐ मे दो धातु-पो को विकल्प से प्रादेश प्राप्ति होती है । यो आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे अर्थ बोधक प्रत्यय ईटा अथवा इज' का लोप हो जाता है और केवल '७४व अथवा णजे' में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने मात्र से ही कर्मणि-भाव-बोधक-अर्थ की उत्पत्ति हो जाती है। दोनों के क्रम मे उदाहरण यों हैं:-बायत = वह अथवा एज्जइ - जाना जाता है । सूत्र संख्या ४-२४२ से प्रारम्भ करके सूत्र संख्या ४-२५७ तक कुछ एक धातुओं के कर्मणि-भावेअर्थ में नियमों का संविधान किया जा रहा है और इस सिलसिले में 'क्यस्य च लुक्त' ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया जा रहा है, तदनुसार 'झ्य-य' प्रत्ययं संस्कृत-भाषा में कर्मणि-भावे-अर्थ में धातुओं के मूल स्वरूप में हो जोड़ा जाता है और इसी 'क्य = य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या ३-१६० से 'ईअ अथवा इज' प्रत्यय-को प्राकृत धातु में संयोजना करके कमणि-भाव-अर्थक प्रयोग का निर्माण किया जाता है, परन्तु कुछ एक धातुओं में इस 'य' प्रत्यय बोधक 'ईन अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाने पर भी कममि-भावे अर्थ प्रकट हो जाता है; ऐसा 'क्य च तुक्' शब्दों से समझना चाहिये। ऊपर 'ज्ञा' धातु के 'एश्व और णज्ज' रूपों की श्रादेश-प्राप्ति वैकल्पिक बनलाई गई है। अतः पदान्तर में 'ज्ञा धातु के सूत्र संख्या ४-७ से 'जाण और मुग' प्राकृत धातु-रूप होने से इन के कर्मणि भावे-अर्थ में क्रियापदीय रूप यो होंगेः-ज्ञायते = जाणिज्जइ अथवा मुणिआइ = जाना जाता है। 'णय तथा णज्जइ' में 'इज्ज़' प्रत्यय का लोप है, जब कि 'जाणिज्जा और मुणिज्जइ' में 'इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव है; इस अन्तर को ध्यान में रखना चाहिये। किन्तु इन चारों क्रियापों का अर्थ तो 'जाना जाता है ऐमा एक हो है। सूत्र संख्या २-४ से 'ज्ञा' के स्थान पर 'णा' रूप को भी श्रादेश प्राप्ति होती है और ऐप्ता होने पर 'ज्ञायते' का एक प्राकृत-रूपान्तर 'गाइजाइ' ऐसा भी होता है। 'गाइजई' का अर्थ भी 'जाना जाता है। ऐसा ही होगा। यदि 'नहीं' अथक प्रत्यय 'न अथवा अ' 'शा' धातु में जुड़ा हुआ होगा तो इसके क्रियापदाय रूप यों होंगे:-न ज्ञायते अज्ञायते अणायजाड़ = नहीं जाना जाता है। यो 'शा' धातु के प्राकृत-भाषा में कमणि-भाव-अर्थ में क्रियापदीय-स्वरूप जानना चाहिये ॥ ४-२५२ ।। व्याहगे हिप्पः ॥ ४-२५३ ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .0000000000000000000000000000000000000000000000000000 ध्याहरतेः कर्म-भावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ वाहिप्प३ । बाहरिज्जइ । अर्थः–बोलना, कहना अथवा अाझान करना' अथक संस्कृत धातु 'ज्या + हू' का प्राकृतरूपान्तर 'बाहर' होता है; परन्तु कर्मणि-भाव-प्रयोग में उक्त धातु 'न्याहू' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'वाहिप्प' ऐसे धातु रूप की विकला से आदेश प्राप्ति होती है तथा ऐमो वैकल्पिक श्रादेश प्रानि होने पर प्राकृत-भाषा में कमणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअथवा इज' का लोप हो जाता है। यो जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्ययों का लोप हा जायगा वहाँ पर 'ग्याह' के स्थान पर 'वाहिप' का प्रयोग होगा और जहाँ पर ईअ अधया इज' का लोप नहीं होगा वहाँ पर 'घ्या. के स्थान पर 'वाइर' गायोगः -याविरते-वाहिप्पड़ अथवा पाहरिजड़ - बोला जाता है, अथवा कहा जाता है अथवा आह्वान किया जाता है ॥ ४-५५ ॥ प्रारमेराढप्पः ॥४-२५४ ॥ श्राउ पूर्वस्य रमेः कर्म-भावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति । क्यस्य च लक ॥ बाढप्पइ । पक्षे । आढवीश्रइ ॥ अर्थ:-श्रा' उपसर्ग सहित 'रम्' धातु संस्कृत भाषा में उपलब्ध है, इसका अर्थ 'प्रारम्भ करना, शुरू करना ऐसा होता है । इस 'श्रारंम्भ' धातु को प्राकृत-रूपान्तर 'श्राव होता है परन्तु कर्मणि-मावे-प्रयोग में संस्कृत-धातु 'पारम' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'प्रादप्प' ऐसे धातु रूप की श्रादेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है तथा ऐमी वैकल्पिक श्रादेश पारित होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग अथक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईन अथवा इज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'श्रा + रम' के स्थान पर 'आदाप' का प्रयोग होगा और जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहाँ पर 'श्राग्भ' के स्थान पर 'बाढव' धातु रूप का उपयोग किया जायगा । जैसेः-आरभ्यते आठप्पड़ अथवा आढषीअइ = प्रारंभ किया जाता है, शुरु किया जाता है ॥४-५४ ॥ स्निह-सिचोः सिप्पः ॥ ४-२५५ ॥ अनयोः कर्म-भावे सिप्प इत्यादेशो भवति, क्यस्य च लुक् ।। सिप्पइ । स्नियते । सिच्यते बा ॥ अर्थ:-'प्रीति करना, स्नेह करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्निह' के और 'सींचना, छिटकना' अथक संस्कृत-धातु 'सिच्' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में प्राकृत रूपान्तर में 'सिम्प' धातु रूप Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२७ की आदेश प्राप्ति होती है; और ऐसी आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे प्रयोग-वाचक प्राकृत प्रत्यय "ई अथवा इज्ज" का लीप हो जाता है । उदाहरण यों है: --- (१) स्तियते = सिप्पद=प्रोति की जाती है. स्नेह किया जाता है । (२) सिच्यते = सिप्पड़-सींचा जाता है, छिटका जाता है। यों "स्निह" और "सच्" दोनों धातुओं के स्थान पर "सिप्प" इम एक हो धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है परन्तु दोनों प्रसंगानुसार समझ लिये जाते हैं | ४-२५५ ॥ ग्रहे ॥४-२५६ ॥ हे कर्म भावे घे इत्यादेशी वा भवति क्यस्य च लुक् || घेप्पह | गिहिज्ज || ? ********* * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-"प्रहण कर ग, लेना" अर्थक संस्कृ धातु " मह" का प्राकृत रूपान्तर "गिरह" होता है; परन्तु कमणि-मात्र-प्रयोग में इस "प्रह" धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में "घेप" ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि भावे - अर्थ-बोधक प्रत्यय "ईथ अथवा इज्ज" का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यों जहाँ पर "ई अथवा इज्ज" प्रत्यय का लोप हो जायगा वहाँ पर "ग्रह" के स्थान पर "घेप" का प्रयोग होगा और जहाँ पर "ईश्व अथवा इज्ज" प्रत्ययों का लोप नहीं होगा यहाँ पर "प्रह" के स्थान पर "गिरह" घातु रूप का उपयोग किया जायगा । जैसे:- गृहयते - वेप्पर अथवा गिव्हिज्जर (अथवा गिण्डीअइ) महण किया जाता है, लिया जाता है ॥। ४-२५६ ।। 31 स्पृशे शिवप्पः || ४-२५७ ॥ स्पृशतेः कर्म-भावे छिपादेशो वा भवति कयलुक् च ॥ छिप्पर । विविज्जर || अर्थ :- "छूना, स्पर्श करना" अर्थक संस्कृत धातु "स्पश" का प्राकृत रूपान्तर "चिव" होता है; परन्तु कर्मणि भावे -प्रयोग में इस "खुश्" धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में "विप्प" ऐसे धातु रूप की ध्यादेश प्राप्ति विकल्प से होती है तथा ऐसी वैकल्पिक श्रादेश प्राप्ति होने पर कर्मणि भावे अर्थ बोधक प्रत्यय "ईश्व अथवा इज्ज" का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यो जहाँ पर "ई अथवा इज्ज प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'स्पृश' के स्थान पर 'द्विप्प' धातु रूप का प्रयोग होगा और जहां पर 'ई अथवा इजज़' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहां पर 'खुश' के स्थान पर 'शिव' धातु-रूप का उपयोग किया जायगा । दोनों प्रकार के दृष्टान्त यों हैः-स्पृश्यते-छिप्पर अथवा छिषिज्जइ (अथवा ) छिर्षा = आ जाता है, स्पर्श किया जाता है | ४-२५७ ॥ क्र्तेना फुराणादयः ॥ ४-२५८ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mariantertoo.motoriorrorrorosterorisertiorenewsorrormorever अप्फुरणादयः शब्दा आक्रमि प्रभृतीनां धातुनाम् स्थाने तेन सह वा निपात्यन्ते ।। अप्फुरणो । आक्रान्तः ॥ उक्कोस । उत्कृष्टम् ॥ फुडं । स्पणम् ।। बोलीणो। अतिक्रांतः । वोसट्टी: विकसितः ॥ निराहो । निपातितः ॥ लुग्गो। रुम्मणः ॥ रिहको । नष्टः ।। पम्हुड्डो । प्रमृष्टः प्रमुपितो वा ।। विद्वत्तं । अर्जितम् ॥ छित्तं । स्पृष्टम् ॥ निमिअं : स्थापितम् । चक्खियं । प्रास्वादितम् ॥ लुझं। लूनम् ।। जई । पक्तम् ।। झोसिग्नं । क्षिप्तम ॥ निच्छुढे । उबृत्तम् ।। पल्हत्थं पलोट्टं च ॥ पर्यस्तम् । हीसमर्थ ।। हेषितम् । इत्यादि ।। अर्थः-संस्कृत-भाषा में धातुओं के अन्त में 'तकार'='क्त' प्रत्यय के जोड़ने में कर्माण भूत कुन्त के रूप बनजाते हैं और तत्पश्चात ये बने बनाये शब्द विशेषण' जैसी स्थिति को प्रात कर लेते है तथा मझा शब्नों के समान हो इनके रूप भी विभिन्न विमतियों में नथा वचनों में चलाये जा सकते हैं। जैसे-गम् संगत = गया हपा । मन् ने मत = माना हुआ । इत्यादि। प्राकृत-भाषा में भी इसी तरह से कर्मणि-भून-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा के समान ही धातुओं में 'त-त' के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की संयोजन को जाती है। जैसे:-गत: ओगया हुआ। तामो-माना हुआ। अनेक धातुषों में 'त = श्र' प्रत्यय जोड़ने के पूर्व इन धातु बों के अन्त्यस्वर 'अकार' को 'कार' की प्रापि हो जाती है, जैसे:--पाठतम्-पाह = पढ़ा हुश्रा। श्रुतम् -सुणिना हुआ। या रूप बन जाने पर इनके अन्य रूपभी विभिन्न विभ क्तयों में बनाये जा सकते हैं। उपरोक्त सविधान का प्रयोग किये बिना भी प्राकृत-भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं जो कि बिना प्रत्ययों के ही कमीण-भूत-दन्त के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे शब्दों की यह स्थिति वैकल्पिक होती है और ये 'निपात से सब हुए' माने जाते हैं विभिन्न विभक्तियों में तथा दानों वचनों में इन शब्दों के रूप चलाये जा सकते हैं। ऐसे शब्द 'विशेषण की कोटि' को प्राम कर लेते हैं, इस लिय ये तीनों लिंगों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं। एक प्रकार से ये शब्द 'श्राष' जैसे ही हैं। _ 'पात्रम्' श्रादि संस्कृत धातुओं के स्थान पर -तअ' प्रत्यय सहित प्राकृत में विकल्प से जिन धातुओं में श्रादेश-स्थिति को निपात रूप से ग्रहण की है, उन धातुओं में से कुछ एक धातु ग्रां के रूप (बने बनाये रूप में Ready made रूप में नीचे दिये जा रहे हैं। यही इस सूत्र का तात्पर्य है। (१)माकान्त: अप्फुरणाचकाया हुमा । (२) उत्कृष्टम् = उनोसं उत्कृष्ट, अधिक से अधिक । (३) स्पष्टम्-फुकपष्ट अथवा व्यक्त, साफ। (४) श्रोतकान्तः = वोलोणी- व्यतीत हुया, बीता हुभा। (५) विकसित:- दोसट्टो = विकास पाया हुश्रा, खिला हुश्रा । (६) निपातितः= निसुट्टो गिराया हुआ। (७) रुग्णः = लुग्गो भरन, भांगा हुश्रा अथवा रोगी, वोमार । (८) नदः = लिहका = नाश पाया हुआ। (1) प्रमृष्टः- पम्हट्ठो = चोरी किया हुआ । {१०) प्रमुषिसः = पम्हट्टो = चुराया हुआ। (११) अर्जितम् Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ४२६ ] mootootoro000rosaroot0+000totosorrorentrolors00000000000000000000. विद्वत्तं इकट्ठा किया हुअा अथवा कमाया हुआ. पैदा किया हुश्रा (१२) स्पष्टम्-छित = छुपा हुश्रा, स्पर्श किया हुआ । (१६) स्थापितम् नि म अं स्थापित किया हुआ, रखा हुआ। (१४) श्रास्वादितम् - चक्खिरं = स्वाद लिया हुआ, चखा हुअा। (१५) लूनम् = तुअं - लुगा गुमा, काटा हुआ। (१५) त्यसम्जद छोड़ा हुअा, स्यागा हुआ। (१७) क्षिप्रम = मासि- फका हुआ, छोड़ा हुमा सेषित, श्राराति । (१८) उद्धृत्तम् = निफ्छूद्ध = पीछा मुड़ा हुआ, निकला हुा । (१६) पर्थस्तम्पलहत्थं और पलोई दूर रखा हुअा, फका हुआ। (२०) हे पतम् = हातमण = खंडारा हुआ, घोड़े के शब्द जैसा शब्द किया हुश्श्रा। कर्मणि-भून कृदन्त में यों कुछ एक धातुओं को अनियमित स्थिति 'यादश-रूप' से जाननी चाहिये । यह स्थिति वैकल्पिक है। इस स्थिति में कर्मणि-भून कृदन्त-बांधक-प्रत्यय 'त= अ' धातुओं में पहिले से ही (मह जात रूप से) जुड़ा हुआ है। अतएव 'त = अ' प्रत्यय को पुनः जोड़ने की श्रावश्यकता नहीं है। यों ये विशेषणात्मक है. इस लिये संज्ञायों के समान ही इन क रूपमा विभिन्न विभक्तियों में तथा वचनों में बनाये जा सकते हैं ।। ४-२५८ ।। धातवोर्थान्तरेपि ॥ ४-२५६ ॥ उक्तादर्थादर्थान्तरपि धातवी वर्तन्ते ॥ बलिः प्राणने पडितः खादने पि वर्तते । पलह । खादति, प्राणनं करोति वा ।। एवं कलिः संख्याने संज्ञाने पि । कलह । जानाति, संख्यानं करोति वा ॥ रिगि गती प्रवेशे पि ॥ रिगइ । प्रविशति गच्छति का ॥ कक्षित बफ आदेशः प्राकृते । बम्फइ। अस्यार्थः । इच्छति खादति वा 11 फकतः थक आदेशः । थकह। नीचां गतिं करोति, विलम्बयति या ॥ विलयुपालम्म्यो झन्ख प्रादेशः । झंखइ । विलपति, उपालमते भापते बा ॥ एवं पडिवालेइ । प्रतीचते रक्षति वा ॥ केचित् कथिदुप सग नित्यम् । पहरइ । युध्यते ।। संहरइ । संवृणीति ॥ अणुइइ । सदृशी भवति ।। नीहरइ । पुरीपोत्सर्ग करोति ।। पिहरइ । क्रीडति ॥ आहरइ । खादति ॥ पडिहरइ । पुनः पूरयति । परिहरइ । त्यजति ॥ उवहरइ । पूजयति ॥ बाहरह । आह्वयति ।। पत्रसइ । देशान्तरं गच्छनि ।। उच्चुपह चटति ॥ उल्लुहइ । निः परति ।। अर्थ:-प्राकृत भाषा में कुछ एक पातु ऐसी हैं, जो कि निश्चित अर्थ वाली होती हुई भी कभी कभी अन्य अर्थ में भी प्रयुक्त की जाती हुई देखो जाती है। यों ऐसी धातुएँ दो अर्थ काली हो जाती हैं। एक तो निश्चित अर्थ वाली और दूमग वैकल्पिक अर्थ वाली। इन धातुओं को द्वि-अर्थक धातुओं की कोदि में गिलना चाहिये । कुछ एक उदाहरमा यौ है:-१) बलइ-प्राणनं करोति अथवा खादति = Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३० ] * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * *******60000000466666666se वह प्राण धारण करता है अथवा वह खाता है। यहाँ पर 'बल' धातु प्राण धारण करने के अथ में निश्चितार्थं वालो होती हुई मां 'खान' के अर्थ में मां प्रयुक्त हुई हैं । (२) कलह =संख्यानं करोति अथवा जानाति = वह आवाज करता है अथवा वह जानता हूँ। यहां पर कल बातु आवाज करना श्रथवा गणना करना श्रथ में सुनिश्चित होता हुई भी जानना अर्थ को भी प्रकट कर रही है । (३) रिगइ = प्रविशति अथवा गच्छति = वह प्रवेश करता है अथवा वह जाता है। यहाँ पर 'रिंग' घातु प्रवेश करने के अर्थ में विख्यात होती हुई भी जाना अर्थ को प्रदर्शित कर रही है ( ४ ) संस्कृत धातु 'कांक्षू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वम्क' धातु रूप की श्रादेश प्राप्ति होती हैं । यो 'बम्फ' धातु के दो अर्थ पाये जाते हैं: - एक तो 'रुद्रा करना' और दूसरा खाना भोजन करना | | जैसे:-- वम्फड़ - इच्छति अथवा खाइति = वह इच्छा करता है अथवा वह खाता है (५) संस्कृत धातु 'फक्त' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'क' वातु रूप का आदेश प्राप्त होकर इसके भी दो अर्थ देखे जाते हैं (अ) नाचे जाना और (ब) विलम्ब करना, दील करना। इसका क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार है: - थकाइ नीचां गतिं ajita श्रथवा लिम्बयति - बहनांचे जाता है अथवा वह विलम्ब करता है वह ढोल करता है (६) प्राकृत धातु 'कब' के तीन अथ देखे जाते हैं: - ( अ ) विज्ञाप करना, (ब) उलइना देना, और (स) कहनां-बोलना। जैसे:-झंखाड़ = ( अ ) विलपति, (ब) उपालभते, (H) भाषते यह विलाप करता है, वह उलहना देता है अथवा वह बोलना है- कहता है । यो संस्कृत धातु 'बिलप और उपालम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'ख' वा रूप को आदेश प्राप्ति विकल्प से होता है। (७) 'पडिवाल' धातु का अर्थ 'प्रतीक्षा करना' है, परन्तु फिर भी 'रक्षा करना' अथ में भा प्रयुक्त होती है । जैसे:-- पाडवालेइ = प्रतक्षिते अथवा रक्षति = वह प्रतक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है । यों प्राकृत भाषा में ऐसी श्रनेक धातुएं हैं जो कि वैकल्पिक रूप से दो दो अर्थों को धारण करती है। प्राकृत भाषा में ऐसी भी कुछ धातु हैं जो कि उपसर्ग-युक्त होने पर अपने निश्चित अर्थ से भित्र अर्थ को ही प्रकट करती है और ऐसी स्थिति वैकल्पिक नहीं हो कर 'नित्य स्वरूप वाली हैं। इस संबंध में कुछ एक धातु श्रों के उदाहरण यों हैं:- ( १ ) यहरइ - युध्यते = वह युद्ध करता है । यहाँ पर 'हर' धातु में 'प' उपवर्ग जुड़ा हुआ है और निश्चित अर्थ 'युद्ध करता' प्रकट करता है । (?) संहरइ = संघृणोति = वह संवरण करता है- वह अच्छा चुनाव करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'सं' उपसर्ग है और इससे अर्थ में परिवर्तन आगया है । अहर = सदृशी भवति = वह उसके समान होता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'अणु' उपसर्ग है, जिससे अर्थ-भिन्नता उत्पन्न हो गई है । (४) नीहरड़ = पुरवोत्सर्ग करोति = वह मल त्याग करता है वह टट्टी फिरता है । यहाँ पर भी 'हर' धातु में 'नी' उपसर्ग को प्राप्ति होने से अर्थान्तर दृष्टि गोचर हो रहा है । (५) विहरह = कीडति = वह स्पेलता है वह क्रीड़ा करता है । यहाँ पर 'हर' धातु में 'त्रि' उपसर्ग की संयोजना होने से 'विचरना' अर्थ के स्थान पर 'खेलना' अर्थ उत्पन्न हुआ है । आहरण = खादति खाता है अथवा वह भोजन करता है । यहाँ पर चा उपसरां होने से 'हरण करना' अर्थ नहीं होकर 'भोजन करना' अर्थ उद्भूत हुआ है। (७) पार्डहरह = पुन: I Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [४३१ ] +++000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पूरयति = फिर से भरता है, फिर से परिपूर्ण करता है । यहाँ पर 'पछि' उपसर्ग होने से खींचना' अर्ध नहीं निकल कर 'परि पूर्ण करना' अर्थ निकल रहा है। (८) परिहरइ = त्यजति = वह छोड़ता है-वह त्याग करता है । यहाँ पर 'हरण करना-छोनना' अर्थ के स्थान पर 'त्याग करना' अर्थ बसलाया गया है । (९) उबहरइ = रजयति = वह पूजता है-दह आदर सम्मान करता है ।यहाँ पर 'अर्पण करना' अथ नहीं किया जा कर पूजा करना' अर्थ किया गया है । (१०) शहरइ = आइधयति = वह बुलाता है अथवा वह पुकारना है। यहाँ पर 'वा' उपसर्ग को जोड़ करके 'हर' धातु के 'हरण करना' अर्थ को हटा दिया गया है। (११) वसई = देशान्तरं गच्छतिवह अन्य देश को-परदेश को जाता है। यहाँ पर 'प' उपसर्ग पाने से 'वस' धातु के रहना अर्थ का निषेध कर दिया गया है। (१०) उच्चपड़ = चटाति = वह चढ़ता है. यह आरुद होता है, वह उपर बैठता है। यहाँ पर भी 'उत्मच' उपसर्ग पान स अथ -भिन्नता पंदा ही गई है।।१२) उल्लुहा=निःसरति = वह निकलता है। यहाँ पर 'उत - उल' उपमग कामदुभावहान से 'लुहे' धात. 'पोंछना साफ करना' अर्थ के स्थान पर 'निकजना' अर्थ बतलाया है। यों उम्पर्गों के साथ में धातुओं के अर्थ में बड़ा अन्तर पड़ जाता है तथा अर्थातर को प्राति हो जाता है; यही तात्पर्य व्याकरण कार का यहाँ पर सन्निहित है । तदनुसार इस संविधान का सदा ध्यान में रखना चाहिये ।। ४-२५६ ।। इति प्राकृत-भाषा-व्याकरण-विचार-समाप्त Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * wroorderrorerterrorrordrostatestrandoverroristomorr00000000000rom अथ शौरसेनी-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ तो दोनादौ शोरो-शामयुगातरम ॥ ४-२६० ॥ शौरसेन्या भाषायामनादावपदादौ वर्तमानस्य तकारस्य दकारो भवति, न चेदमौ वर्णान्तरण संयुक्तो भवति ॥ तदो पूरिद-पदिप मारुदिण! मन्निदो ।। एतस्मात् । एदाहि । एदाओं । अनादाविति किम् । तथा काध जया तम्स राइणो अणु कम्पणीया भौमि ॥ अयुक्त स्पति किम् । मत्ती । अग्य उचो प्रप्तंभाकिद.सकारं । हला सउन्तले ॥ अर्थ:--अब इस सूत्र-संख्या-४-२० से प्रारम्भ करके सूत्र-मनपा-१-२.६ तक अर्थात मत्तावोस सूत्रों में शौरसेनी भाषा के व्याकरण का विचार किया जायगा । इस में मून श? संस्कृत भाषा का हो होगा और उसो शब्द को शौरसेनोन्मापा में रूपान्तर करने का संविधान प्रदर्शित किया जायगा । शौरसेनी-भाषा में और प्राकृत-भाषा में सामान्यतः एक रूपता ही है, जहाँ जहाँ अन्तर है, उसी अन्तर को इन सत्तावीस-सूत्रों में प्रदर्शित कर दिया जायगा। शेष सभा सावधान तथा रूपान्तर प्रानभाषा के समान ही जानना चाहिये। शौरसेनी भाषा एक प्रकार से प्राकृत हो है अथवा प्राकृत भाषा का अंग ही है। इन दोनों में प्रव प्रकार से समानता होने पर भी जो अनि अल्प अन्तर है, वह इन सत्तावीस सूत्रों में प्रदर्शित किया जारहा है। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत-यांश शौरसेनी-भाषा में ही मुख्यतः लिखा गया है। प्राचीन काल में यह भाषा मुख्यतः मथुरा-प्रदेश के आस पास मे हो बोली जाना था। संस्कृत-भाषा में रहे हुए 'सकार' व्यन्जनाक्षर के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'द व्यञ्जनाक्षर की प्राति उन समय में हो जाती है जब कि- (१) 'तकार' ४ जनाक्षर वाक्य के आदि में हो रहा हुआ हो, (२) जब कि वह 'तकार' किनी पद में आदि में भी न हो और (३) जब कि वह 'नकार' किमी अन्य हलन्त यजनाक्षर के साथ संयुक्त रूप सं-( मिले हुए रूप से-संधि-रूप से ) भी नहीं रहा हुमा हो तो उस 'तकार' व्यरुजनाक्षर के स्थान पर 'दकार' की प्रापि हो जाय।।। उदाहरण इस प्रकार है:ततः परित-प्रतिज्ञने मारुतिना मन्त्रितः सदी परिद-पदिनेश भासविणा मन्तिदो = इसके पश्चात पूर्ण की हुई प्रतिज्ञा वाले हनुमान से गुम मंत्रणा की गई । इस उदाहरण में 'ततः' मं 'त- का 'द' किया गया है । इसी तरह से 'पूरित, प्रतिज्ञन, मारुतिना, मन्त्रितः' शब्दों में भी रहे हुए 'तकार व्यजनाक्षर के स्थान पर 'वकार' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति हो गई है। [1] एतस्मात - एदाहि और एदाभो हमसे । इस उदाहरण में भी 'तमार' के स्थान पर 'दकार' को आदेश-प्राप्ति की गई है। यों अन्यत्र भी ऐसे स्थानों पर कार' की स्थिति को समझ लेना चाहिये। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण . [ ४३३ ] ........moronto+000000000+orostrartoorserreterrestrinterroorker.... प्रश्नः-वाक्य के आदि में अर्थात प्रारभ में रहें हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' को आदेशप्राति नहीं होती है। ऐमा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-चूकि शौर सनी-भाषा में ऐसा रचना-प्रवाह पाया जाता है कि संस्कृत भाषा को रचना को शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करते हुए वाक्य के आदि में यदि 'तकार व्यञ्जन रहा हुआ हो तो जसके स्थान पर 'दकार' व्यञ्जन की प्रादेश प्राति नहीं होती है । जैसः–तथा कुरुथ यथा तस्य राज्ञः अनुकम्पीया भवामि ( अथवा भवेयम् ) = तथा करेध जया तस्स राइणी अणुकम्पणीमा भोमि = पाप वमा प्रयत्न) करते हैं, जिससे मैं उम राजा की अनुकम्पा के योग्य दिया को पात्राणो) होतो हूं (अथवा हाऊ)। इस उदाहरण में 'तथा' शब्द में स्थित 'तकार' वाक्य के यादि में आया हुश्रा है और इसो कारण से इस 'तकार' के स्थान पर 'कार' म्न्यानादर को आदेश प्रानि नहीं हुई है। यों सभी स्थानों पर वाक्य के श्रादि में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाभर के सम्बन्ध में इस संविधान को ध्यान में रखना चाहिये। प्रश्न:--'एद यथना के यादि में रहे हुए 'तकार' को भी 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः- -शौरसेनी-भाषा में ऐसा 'अनुबन्ध अथवा संविधान भी पाया जाता है, जब कि पर के आदि में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'कार' को श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है जैसे:--तस्य-सस्स उमका । ततःतहो । इत्यादि। इन पदों के आदि में रहे हुए 'तकार' अक्षरों को 'दकार' अक्षर की प्रादेश प्राति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। प्रश्न:-'संयुक्त रूप से रहे हुए' तकार को भी दकार की प्रानि नहीं होती है, ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर:-शौरसेनी भाषा में उसी 'सकार' को 'दकार' का आदेश प्राप्ति होता है, जो कि हलन्त न हो; तथा किसा अन्य व्यकजनाक्षर के साथ में मिला हुआ न हो; यो 'पूण स्वतन्त्र अथवा अयुक्त नकार के स्थान पर हं! 'दकार' की श्रादेश-प्राप्ति होतों हैं। ऐसा ही संविधान शौरसेनो भाषा का समझना चाहिये । जैसः-मत्तःम मचो - मद वाला अर्थान मतवाला। आयपुत्रः = अध्यउत्तो- पति, भ्रता, अथवा खामो का पुत्र । हे सखि शकुन्तले-हला सउन्तले! = हे सहि शकुन्तल ; इत्यादि । इन उदाहरमों में अर्थात 'मत्त, प्रार्य पुत्र, और शकुन्तला' शब्दों में 'तकार' सयुक्त रूप से-( मिलावट से)रहा हुआ है और इसी लिये इन सयुक्त 'तकारों' के स्थान कर 'दकार' व्यन्जनाक्षर को श्रादेरा-प्राप्ति नहीं हो सकती है । यही स्थिति सर्वत्र ज्ञातव्य है। त्ति में 'असम्माविद-सकार' ऐसा उदाहरण दिया हुआ है। इसका संस्कृत रूपान्तर 'असम्भावित सत्कार' ऐसा शेता । इस उदाहरण द्वारा बताया गया है कि 'प्रथम सकार' के स्थान पर ती Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * aroserorosterrorosotroteoremorrorrore..treeroetrotketro000000 'दकार' की प्राप्ति हो गई है, क्योंकि यह 'तकार' न तो वाक्य के आदि में है और न पद के हो आदि में है तथा न यह हलन्त अथवा संयुक्त ही है और इन्हीं कारणों से इस प्रथम तकार के स्थान पर 'कार' की आदेश प्राप्ति हो गई है। जब कि द्वितीय तकार हलन्त है और इसीलिये मूत्र संख्या ६-७७ से उम हलन्त 'तकार' का लोप हा गया है । यो सयुक्त 'लकार' की अथवा हलन्त तकार की स्थिति शौरसनीभाषा में होती है। इस बात को प्रदर्शित करने के लिये हो यह 'असम्भाविद सकार' उदाहरण वृत्ति में दिया गया है जो कि खास तौर पर ध्यान देने के योग्य है । इस प्रकार मंस्कृतीय तकार की स्थिति शौरसेनी-भाषा में 'दकार' की स्थिति में बदल जाती है; यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है ।। ४-२६ ॥ अधः चित् ॥४-२६१ ॥ वर्णान्तरस्याधो वर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति । क्वचिल्लल्यानुसारेण ॥ महन्दो । निच्चिन्दो । अन्देउ । अर्थ:-यह सूत्र अपर वाले सूत्र-संख्या ४-२६० का अपवाद रूप सूत्र है, क्यों कि बस सूत्र में यह बतलाया गया है कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' को प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु इस सूत्र में यह कहा जा रहा है कि कहीं कहीं ऐसा भी देखा जाता है जब कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर भी 'दकार' की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु इसमें एक शर्त है वह यह है कि संयुक्त सकार हलन्त व्यजन के पश्चात रहा हुधा हो । यहाँ पर 'पश्चात' स्थिति का व-बोधक शब्द 'अधम्' लिखा गया है । वृत्ति का संक्षिप्त स्पष्टीकरण यों है कि-'किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात अर्थात प्रथमरूप से रहे हुए तकार के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में 'दकार' की आदेश-प्राप्ति हो जाया करती है। 'यह स्थिति कभी कभी और कहीं कहीं पर ही देखो जाती है इसी तात्पर्य का वृत्ति में 'लक्ष्यानुसारेण पद से समझाया गया है वहाहरण इस प्रकार है [१, महान्तः महन्दो सबसे बड़ा परम जयेष्ठ । [२] निश्चिन्ता मिच्चिन्द्रो निश्चिन्त । [2] अन्तः पुरै अन्ने उर-रानियों का निवास स्थान। इन तीनों पदाहरणों में 'न्त' अवयव में 'सकार' हलन्त ग्यजन 'नकार' के साथ में परवर्ती होकर संयुक्त रूप से रहा हुआ है और इसी लिये इप्त सूत्र के आधार से उक्त 'तकार' शौरसेनी-भाषा में 'दकार' के रूप में परिणत हो गया है। यह स्पष्ट रूप से ध्यान में रहे कि सूत्र संख्या ४-२६० में ऐसे 'तकार' को 'दकारस्थिति' का प्राप्ति का निषेध किया गया है । अतः अधिकृत-सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है। ॥५-२६१॥ वादेस्तावति ॥ ४-२६२ ॥ शौरसेन्याम् तावच्छन्ने आदेस्तकारस्य दो वा भवति ॥ दाव । ताव ॥ . Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [४३५ ] 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ:-संस्कृत-भाषा के तावत' शब्द के आदि 'तकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में विकल्प से 'दकार' की प्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे:-ताच दाप अथवा तार-तब तक ॥४-१६२ ।। आ श्रामध्ये सौ वेनो नः ॥४-२६३ ॥ शौरसेन्यामिनो नकारस्य आमन्त्र्ये सौ परे आकारो वा भवति ॥ भो कञ्चुइमा । सुहिश्रा । पर्छ । भो तवस्सि । भो भणस्ति ।। अर्थ–'इन्' अन्त वाले शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में संबोधन-वाचक प्रत्यय 'सु' परे रहने पर 'आकार' को प्रातेश-प्रानि विकल्प से हो जाती है। जैसे:[१] हैं ककिन ! = भी कञ्चुढा अथवा भो कंचुइ-अरे अंतःपुर के चपरासी । [PJहे मुखिन् - भी सुहिआ अथवा भी मुहि!- हे सुख वाले । [3] हे तपविन = भो तपस्सिआ अथवा भो तपस्तिहे तपश्चर्या करने वाले । हे मनस्विन् = भी मणस्सिमा अथवा भो मणास्स! हे विचारवान् ।। यों 'नकार' के स्थान पर मंबोधन के एक वचन में विकल्प से श्राकार को श्रादेश-प्राप्ति हो जाती है। पक्षान्तर में 'पा' का लोप हो जायगा ।। ४-२६४ ।। मो वा ॥४-२६४॥ शौरसेन्यामामध्ये सौ परे नकारस्थ मो यो भवति ॥ भो रायं । भो विषय वम्भ । सुकम्म । भयवं कुसुमाउह । भय ! तित्थं पबचेह । पक्षे । सयल-लोश्र-अन्ते पारि भयव हुदवह ॥ अर्थः---संबोधन के एक वचन में 'सु' प्रत्यय परे रहने पर शौरसेनी भाषा में संस्कृतीय नकारान्स शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' का लोप हो जाता है; संबोधन वाचक-प्रत्यय का भी लोप हो जाता है और लोप होनेवाले नकार के स्थान पर विकल्प से हलन्त मकार की प्रारंभ हो जाती है। यों शौरसेनी भाषा में नकारान्त शरद के संबोधन के एक वचन में दो रूप हो जाते हैं। एक तो मकारान्त रूप वाला पद और दूसरा मकारान्त रूप रहित पद । जैसे:-हे राजन्! -भी रायं अथवा भी राय-ई राजा। हे विजय-वर्मन् != भी विअय वम्म! अथवा भो विभय पम्म! हे विजय-वर्मा । हे सुकर्मन् = भी सुकम्मा अथवा भो मुकम्म! = हे अच्छे कमों वाले। हे भगवान कुसभायुध-भो भयवं अथवा भो भयव) कुमुमाउह! हे भगवान कामदेव । हे भगवन। तीर्थ प्रतिस्प हे भयर्थ! (अथवा है भयष) सिस्थ पत्तेह-हे भगवान! (श्राप) तीर्थ की प्रवृत्ति करो । हे सफल-लोक-अंतश्चारिन्! भगवन् । इतषह! =भो सयल-लोअ-अन्ते आणि भयका हुइवह! हे सम्पूर्ण लोक में विचरण करने वाले भगवान अग्निदेव । इन उदाहरणों में यह मत मक्त किया गया है कि संबोधन के एक वचन में नकारान्त शब्दों में अन्त्य नकार के स्थान पर मकार की प्राप्ति ( तद्नुसार सूत्र-संख्या १-२३ से अनुस्वार को प्राप्ति) विकल्प से होती है ।। ४-२६४ ।। unname Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ) mernorsetorrtooterestoratoonservanswevartamoortoot**okmom भवभगवतोः ॥४-२६५ ॥ आमन्व्य इति निवृत्तम् । शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति ॥ कि एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि । एदु भई । समग्णे भगवं महबीर ।। पज्जलिदा भय हुदामणो । क्वचिदून्यत्रापि मघवं पागलासणे । संपाइअवं सीसी । कय । करमि काहं च ।। अर्थ:-'संबोधन संबंधी विचारणा को तो समाप्ति हो गई है; ऐमा तात्पर्य वृत्ति में दिये गये 'निवृत्तम्' पद से जानना चाहिये। 'भक्त' तथा भगवत' शब्द के प्रथमा विभक्ति के एक वचन पाचक प्रत्यय 'सु = मि' परे रहने पर तैयार हुए 'भवान तथा भगवान' पदों के अन्त्य नकार के स्थान पर हनन्न 'मकार' को अर्थात् अमुस्वार की प्राप्ति होतो है श्रीर प्रथमा विभक्तिवाचक एक वचन के प्रत्यय का लाप हा जाना है। ऐपा शौरसेनी भाषा में जानना चाहिय; तदनुसार भवान् पद का 'भव' रूप हाता है और भगवान् पद का रूपान्तर 'भयवं' अथवा 'भगवं' हाता है विशेष उदाहरण इस प्रकार है:--'१) किं अत्र भवान् हृदयेन चिन्तयति कि एत्थ भवं हिदा चिन्तदि-क्या इस विषय में पाप हदय मे चिन्तन करते है। (२) एतु भवान् = एदु भवं-आप जायें। (२) श्रमण: भगवान् महावारसमण भगवं महबीरेश्रमण-महासाधु भगवान महावार ने । (४) प्रचलितः भगवान हुताशनः = परजालदा. भयत्र हुदासणी उज्ज्वल रूप से जलता हुआ भगवान् अग्निदेव । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'मन्नत' और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमान्त एक वचन में बने हुए संस्कृतीय पद 'भवान् तथा 'भगवान' का शौरसेनी भाषा म क्रम से 'भवं और भगव' (अथवा भयवं) हो जाता है। कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है जब कि अन्य पदों में भी प्रथमा विभक्त के एक वचन में अस्य हसन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'अनुस्वार का प्रामि हा जाता है तथा प्रथमा-विभक्त के एक वचन के प्रत्यय 'सु-सि' का लोप हो जाता है । जेसे:-मघवान् पाक शासनः = मघवं पाग सासणे-देवराज इन्द्र ने । यहाँ पर प्रथमा विभक्त के एक वचन में मघवान का कमान्तर 'घ' बतलाया है । दूसरा उदाहरण यों है:--संपादितवान् शिष्या संपाइयं मीसी-बढ़ाय हुए शिष्य ने यहाँ पर भी प्रथमा विभक्ति के एक वचन पद 'संपादितवान' का रूपान्तर शौरसेनी भाषा में 'संपाइअवं' किया गया है । (३) कृतवान् = काययं = मैं करने वाला हूँ अथवा मैं करूँगा यो हलन्त. 'नकार' कं स्थान पर प्रथमा-विभक्ति एक वचन में अनुस्वार को प्राप्ति का स्वरूप जानना ।। ४-२६४ ।। नवा यौँ य्यः ॥४-२६६ ॥ शौरसेन्यां यस्य स्थाने व्यो वा भवति ॥ श्रययउत्त पथ्याकुलीकम्हि । यसो । पक्षे । अज्जो । पज्जाउलो । कज्ज-परवसो । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ४३७ ] mero+00000000000ro+0000000000+kordinatosotorboroork000000000000000000000 अर्थ:-शौरसेनी भाषा में संयुक्त म्यजन' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व (अथवा द्विरुक्त) 'व्य' को प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संयुक्त 'य' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-२४ से तथा ~CE से द्विस्व 'अ' की प्राप्ति भी होती है । ११) हे आर्यपुत्र !-पर्याकुलोकतास्मिहे अग्य उत्त! (अथवा हे अजपत्त!) पय्याकुलीकदम्हि (अथवा पज्जाकु कदम्हि) = हे आर्य पुत्र! मैं दुःन्त्री करदी गई हूँ। (२) सूर्यः-सुग्यो अथवा सुज्जो = सूरज । (३) प्रायः = अथ्यो अथवा अज्जो = आर्य, श्रेष्ट । (४) पर्याकुलः = पय्याजलो भथवा पाउलो=बड़ाबमा हुश्रा, दुःखी किया हुआ । (५) कार्य-परवशः% कज्ज-परवा अश्वत्रा कय्य-परवसो = कार्य करने में दूसरों के वश में रहा हुआ । यो शौर सेनी भाषा में 'य' के स्थान पर व्य' अथवा 'ज' की प्राप्ति विकल्प से होतो है ।। ४-२६६ ।। थो धः ॥४-२६७ ॥ शोर सेन्यां थस्य धो वा भवति ॥ कटि, कहदि ।। णाधी पाही। कथं कई। राजपधी, राजाहो ॥ अपदादावित्येव । थाम । थे श्री ।। अर्थः-संस्कृत-भाषा ले शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करने पर संस्कृत शमा में रहे स्कार' ध्यजन के स्थान पर विकल्प से 'धकार' व्यङ्गन को प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पदान्तर में सूत्र-संख्या १-१८७ 6 कार के स्थान पर हकार' की भी प्राप्ति हो सकती हैं। जैसे:-(१) कथयति = कोदि अथवा कहेदिमवह कहता ई-वह कथन करता है। इस उदाहरण में ति' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ५-२७३ से जानना । (२) नाथः = णाधो अथवा णाही-नाथ, स्वाम', इश्वर । (३) कथम् कथं अथवा कई = कैस, किम तरह से । (४) राज-पथः-राज-पधो अथवा राज-रही- मुख्य माग, धोरी मार्ग, मुख्य मड़ । इन उदाहरणों में 'थकार' के स्थान पर 'धकार' की अथवा 'हकार' का प्रारित प्रदर्शित की गई है। - - - सूत्र संख्या ४-२६० से यह अधिकृत-सिद्धान्त जानना चाहये कि नक्त 'थकार' के स्थान पर "धकार' की अयवा 'हकार' की प्राप्ति पद के आदि में रहे हाग. 'यकार' के स्थान पर नहीं होती है और इसी लिय इसी सूत्र की वृत्ति में श्रपदादी' अर्थात पद के आदि में नहीं ऐसा उल्लेख किया गया है। त्ति में इम विषयक दो नदाहरण भी कम में इस प्रकार दिये गये हैं:- (१) स्थाम = थाम - बल, वा य, पराक्रम । 'रथामन" शब्द नपुसक लिंगी है ,इसलिये प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "स्थामन' का रू, "क्याम" बनता है। (२, स्थैयः = येओ - रहने योग्य अथवा जो रह सकता क्षे. अथवा फैमला करने वाला न्यायाधीश । इन जनाहरणों मे पदों के आदि में रहने वाले "कार" के स्थान पर रही 'धकार" को पति ही होती है और न "कार" की प्राप्ति हो । यो "कार" के स्थान पर 'धकार" की अथवा 'इकार" की प्राप्ति को जानना चाहिये ।।४-२६७॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * इह-हचोईस्य ॥४-२६८॥ इह शब्द संबंधिनो मध्यमस्येत्था-हची (३-१४३) इति विहितस्य इचश्च हकारस्य शौरसेन्यो यो वा भवति ॥ इध । होध । परित्तायध ॥ पक्षे । इह । होह । परित्तायह ।। अर्थ-सस्कृत-शब्द "इह" में रहे हुए "हकार" के स्थान पर शौर सेनी-भाषा में विकल्प से "धकार" को आदेश-प्राप्ति होती है । जैसे:-इह - इध अथवा इह = यहां पर सूत्र-सख्या ३-१४३ में वर्तमान-काल-बोधक मध्यम-पुरुष-वाचक बहु वचनो प्रत्यय 'इस्या और ह' कहे गये हैं, तदनुसार उक्त "कार" प्रत्यय के स्थान पर मां शोर सेना-भाषा में विलय से "कार" रूप प्रत्यय की यादेश प्राप्त होती है। यो "हकार" के स्थान पर विकल्प सं "धकार" को आदेश-प्राप्ति जानना चाहिये । जैसे: (१) भषय होध अथवा होह- तुम होते हो । (२) परित्रायवे-परित्तायध अथवा पारतीयह = तुम संरक्षण करते हो अथवा सुम पोषण करते हो ॥ ४-.६८ ।। भुवो भः ॥४-२६६ ॥ भवते हंकारस्य शौरसेन्यां भो वा भवति ।। भोदि होदि भुषदि, हुवदि ।। भवदि, हदि ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में होना' अर्थक भू-भव' धातु है; इस 'भज्' धातु के स्थान पर प्राकृतभाषा में सूत्र संख्या ४-६० से विकल्प में 'हव' 'हो' और 'हुर' धातु रूपों की प्रादेश-प्राप्ति होती है। तदनुसार इन आदेश प्राप्त 'हष, हो और हुव' धातु रूपों में स्थित हकार' के स्थान पर शोर से नी-भाषा में विकल्प से 'भकार' को प्राप्ति होती है और ऐसा होने पर हत्र का भव, मो का भी नया हुव का भुव' विकल्प से हो जाता है। जैसे:-भवति = (१) भोदि, (२) होदि. (३) भुषदि, (हुवादि (५) भवदि और (६) हवाद = वह होता है । सूत्र-संख्या ४-२४३ सं वर्तमानकाल-वाचक तृतीय पुरुष बोधक एक बचनीय प्रत्यय fत' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति होती है; जैसा कि ऊपर के उदाहरणों में बतलाया गया है । प्रताव क्रियापकों में यह ध्यान में रखना चाहिये ॥ ४-२६६ ।। पूर्वस्य पुरवः ॥ ४-२७० ॥ शौरसेन्या पूर्व शब्दस्य पुरव इत्यादेशो या भवति ॥ अपुरत्रं नाडयं । अपुरवागर्द। पक्षे । अपुर्व पदं । अपुन्वागदं ।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'पूर्व' का प्राकृत-रूपान्तर 'पुटव होता है. परन्तु शौरसेनी भाषा में 'पूर्व' शरद के स्थान पर विकल्प से 'पुरव' शब्द की प्रादेश-प्राप्ति होती है। यों शौरसेनी भाषा में 'पूर्व' के Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकाण* [४३६ ] minsorrrrror.000000000000000000000000000000000000000000000000000000 स्थान पर 'पुरव' और 'पुष्य' एसे दोनों शव-रूपा का प्रयोग देखा जाता है । प्राकृत भाषा में सूत्र-संख्या २-१३५ में 'पूर्व' के स्थान पर 'पुग्मि' ऐसा रूप भी विकल्प से उपलब्ध है। शौरसेनी भाषा संबंधो 'पुरव' और 'पुग्ध' शब्दों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) अयूमम नाटकम् = अपुरवं नाडयं अथवा अपुवं नाइयं = अनोखा नाटक, अद्भुत खेल । (२) अपूर्वम् अगवम् अपुरघागंद अथवा अपुल्यागद = अनोखी औधि अथवा अद्भुत दवा। (३) अपूर्षम् पदम = अपुर्व पद अथवा अपुरवं पदं - अनोखा पढ़, अदभुत शब्द । इत्यादि ।। ४.२७० ।। . __ क्त्व इय-दृणौ ॥ ४-२७१ ॥ शौरसेन्या क्त्वा प्रत्गय स्य इय दण इत्यादेशौ वा भवतः ।। भविय, भोदूण | हृविय, होण । पढिय, पदिदग । रमिय, रन्दण । पक्षे । भोत्ता । होता ! पढित्ता । रन्ता ॥ अथः-अध्ययी रूप सम्बन्ध भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत-भाषा में धातुओं में 'क्वाखा ' प्रत्यय का योग होता है। ऐसा होने पर धातु का अर्थ 'करके' अर्थ वाला हो जाता है। जैसे:-- खाकरके पी करके, इत्यादि । शौरसेनो भाषा में इसी संबंध-भूत-कृदन्त के अर्थ में संस्कृतीय-प्रत्यय 'स्वा' के स्थान पर विकल्प से 'इय अथवा दूण' ऐसे दो प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृतीय प्रत्यय 'स्वा' के स्थान पर सूत्र-संख्या २.७६ से तथा २-६ से 'व' का लोप होकर द्वित्व 'ता' की प्राप्ति होने से इस 'त्ता' प्रत्यय को ही संबध भत-कृदन्त के अर्थ में संयोजित कर दिया जाता है। जैसे:-मत्वाभाविय, भोण, हर्दिय और होदूण अथवा होता - होकर के । पहिवापढ़िय, पाणि, अथवा पादत्ता पढ़ कर के अध्ययन करके । रन्या-रमिय, रन्दूण अथवा रन्तारमन करकः खेल करक ।। ४-१॥ कृ-गमो डडुः ॥ ४-२७२ ॥ श्राभ्यां परस्य क्त्या प्रत्ययस्य डित् अडुअ इत्यादेशो वा भवति ।। कडुन । गडुस । पक्षे । करिय । करिदृण । गच्छिय गच्छिद्रण ॥ अर्थ:--सस्कृत-धातु - करना' और 'गम् = गच्छ जाना' के संबंध भत कृदन्त के रूप शौरमनी भाषा में बनाना होनी सूत्र माया ४.२७१ में वर्णित प्रत्यय 'इय, दूण और त्ता' के अतिरिक्त विकल्प से 'तुडुश्र-श्रदुष' प्रत्यय की भी आदेश प्राप्ति होता है। 'ड डु अ' प्रत्यय में श्रादि "ड्' इत्त संज्ञा वाला होने मे 'कृ' धातु के श्रन्स्य स्वर 'ऋ' का और 'गम्' धातु के अन्त्य वर्ण 'अम' का लोप हो जाता है, एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए धातु-अंश 'क' और 'ग' में क्त्वा त्वा अर्थक 'अडुअ' प्रत्यय को भी विकल्प से संयोजना की जाती है। जैसे:-कृत्याकडुअ-करके | वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * more .torrorrononerotonormour stratevv.krinatomemainstroom 'कारण, कारण अथवा कारत्ता' रूप भी बनेंगे। गम् गच्छ का उदाहरण:-गया-गदुम जाकर फे । वैकल्पिक पक्ष होने से पतान्तर में 'गछिय, मच्छिण' रूप भी बनेंगे ॥ ४-२७२ ॥ दि रि चे चोः ॥ ४-२७३ ॥ त्यादिनामाद्य त्रयस्यायस्येचेचो ( ३-१३६ ) इति विहितयोरिचेचोः स्थान दिर्भवति ।। वेति निवृत्तम् । नेदि । देदि । भोदि । होदि ।। अर्थः-वर्तमानकाल बोधक, तृतीय-पुरुष वाचक एक पचनीय प्रत्यय 'तिअथवा 'त' के स्थान पर प्राकृत भाषा में सूत्र-संख्या ३-१३६ से 'इ अथवा ए' प्रत्यय की प्राप्ति कहो गई है, तदनुसार प्राकृतभाषा में प्राप्त इन 'इ अथवा ए' प्रत्ययों के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दि' प्रत्यय की नित्यमेव श्रादेशप्राप्ति होती है। वृत्ति में 'वा इति निवृत्तम' शब्दों का तात्पर्य यही है कि वैकल्पिक स्थिति' का यहां पर अभाव है और इसलिये 'दि' प्रत्यय की प्रामि नित्यमव सर्वत्र जानना । जैमनयति मेदिबह लं जाता है। यातिवोदि-वह देता है। भवति - मोदि अथवा होदि - वह होता है ॥ ४-२५३ ।। अतो देश्च ॥४-२७४ ॥ अकारात् परयोरिचेचोः स्थाने देश्चकाराद् दिश्च भवति । अच्छदे । अच्छदि । गच्छदे । गच्छदि । रमदे । रमदि । किज्जदे । ज्जिादि ।। अत इति किम् । वसुभादि । नेदि । भोदि। __ अर्थ:-अकारान्त धातुओं में प्राकृत भाषा में वर्तमान-काल के तृतीय पुरुष के अर्थ में लगने वाले एक वचनीय प्रत्यय 'इ अश्रवा ' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दे' प्रत्यय का प्रयोग होता है। मूल-सूत्र में उल्लिखित 'चकार से यह अर्थ समझना कि- 'उक्त 'दे' प्रत्यय के अतिरिक्त 'दि' प्रत्यय का मो प्रयोग होता है। इस षियक उदाहरण कम से यों है: --(१) आस्ते = अच्छदे अथवा अच्छदि = वह बैठता है। (२) गच्छति = गच्छदि अथवा गच्छड़े - बह जाता है। (३) रमते = रमड़े अथवा । रमदि वह क्रीड़ा करता है -बह खेलता है। (४) करोति = किज्जदे अथवा किज्जदि - वह करता है; इत्यादि । प्रश्नः---प्रकारात धातुओं में ही प्रत्यय 'इ अथवा ए' के स्थान पर 'दे' अथवा दि होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-जो धातु अकारान्त नहीं हैं, उनमें लगने वाले प्रत्यय 'इअधवार' के स्थान पर है' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होता है; परन्तु केवल 'दि' प्रत्यय को ही प्राप्ति होता है ऐसा जानना चाहिये और Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * [४४१ ] 000000000orroresnormorrorrowrorrowesr0000ornwrotnotesnok.000000000 इसा लिये 'अकारान्त धातु' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:-उहाति = वसुआदि = वह सूखता है--यह शुष्क होता है । नयति = नदि = वह ले जाता है । भवति : भोदि = वह होता है । इन उदाहरणों में बमुमारे और भी भातु कसो नगारा, पारान और प्राकारान्त 'है; इसलिये इन धातुओं में शौरसेनो भाषा if 'दि प्रत्यय की हो प्राप्ति हुई है तथा 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति इनमें नहीं होगी। थों अकारान्त के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में मा '' प्रत्यय की हो प्राप्ति होगी, न कि 'दें' प्रस्थय को प्राप्ति होगी। ४.२७४ ।। भविष्यति स्तिः ४-२७५. शौरसेन्यां भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये पर रिस भवति । हिस्साहामपवादः ॥ भबिस्सिदि । करिस्सिदि । मच्चिस्सिदि ॥ अर्थ:--प्राकृत भाषा में सूत्र संख्या ३.१६६ में तथा ३-१६५ में ऐमा विधान कया गया है कि भविष्यत-काल-वाचक विधि में धातुओं में वर्तमानकाल-पाचक प्रत्ययों के पूर्व हि, अथवा सा अथवा हा प्रत्ययों को जोड़ने से वह क्रियापद भविष्यत काल-बाधक बन जाता हैं। इस सूत्र में शौरसे नो भाषा के लिये उक्त विधान का अपवाद किया गया है और यह निर्णय दिया गया है कि शौरसेनी भाषा में भविष्यत काल वाचक अर्थ में वर्तमान काल बोधक प्रत्ययों के पहिले केवल 'रिस' प्रत्यय का ही प्राप्ति होकर वह कियापद भविष्यत् काल अर्थ बोधक बन जाता। तदनुसार शौरसेनी भाषा में भविष्यत्काल बोधक अर्ध के लिये धातुओं में वर्तमान-काल-वाच रत्ययों के पूर्व 'हि, अथवा मा अथवा हा' विकरण प्रत्ययों की प्राति नहीं होगो । उदाहरण यों हैं:-(१) अविष्यतिम्भपिस्सिदि = वह होगा अथवा वह होगी। (२) करिष्यति = करिस्सिदि = वह करंगा अथवा वह करेगी। (३) गमिष्यति = गच्छिस्सिदि = वह जावेगा अथवा वह जायेंगी ।। ४२७४ ।। अतो उसे डॉ दो-डा द् ॥ ४-२७६ ॥ अतः परस्य ङसे: शौरसेन्यां आदो बाहु इत्पादेशौद्धिती भवतः ॥ दूरादो ययेव । दूरादु ॥ अर्थः- अकारान्त संज्ञा शब्दों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इमि' के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में 'यादो और प्रादुऐसे दो प्रत्ययों की प्रादेश प्राप्ति होती है । यह आदेशप्रामि 'डिन' स्वरूप वाली होने में उक्त 'प्रादो और आदु' प्रत्ययों की संयोजना हाने के पूर्व उन अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है और तदनुसार शेष रहे हुए व्यजन्त शब्दों में इन 'श्रादो तथा प्रादु' प्रत्ययों की संयोजना को जाती है। जैसेः-दूरात् एव = इरादीच्यव = दूर से ही - Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .00000000000000*astrator0000000000000000000000000ttskotk0000000000000 दूरात - दूरादु = दूर सं । प्राकृत भाषा में पंचमी विमति के एकवचन में सूत्र संख्या ३-८ से 'चो, दो, दु, हि, हिन्तो और लुक' ऐसे छह प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति होती है। किन्तु शौरसेनी भाषा मे तो 'पादो और श्रादु' ऐसे दो प्रत्ययों को ही श्रादेश प्रामि जानना चाहिये । ४-२७६ ।। इदानीमो दाणि ॥ ४-२७७ ॥ शौरसेन्यामिदानीमः स्थाने हागि इत्यादेशो भवति ॥ अनन्तर करणीयं दाणि आणवेदु अथ्यो । व्यत्ययात् प्राकृते ऽपि । अन्नं दाणि बोहिं ॥ अर्थ:--मुस्कृतीय अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में कंवल दाणि' ऐसे शब्द रूप की आदेश प्रानि होती है। जैसे:-अनन्तर करणाय इदानाम, आज्ञापयतु हे आर्य ! अनन्तर-करणाय द्वाणि आण अय्यो - हे महाराज ! अब श्राप इसके बाद में करने योग्य ( कार्य का ) आदेश फरमा' । प्राकृत-भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर तीन शब्द रूप पाये जाते हैं:-[१) एपिह, (२) एत्ताहे और (३) आणि । किन्तु शौरसेनी-भाषा में तो केवल दाणि' रूप की ही उपलब्धि है । कहीं-कहीं पर 'दाणि और दाणी' रूप भी देखे जाते हैं । प्राकृत-भाषा में ऐसा संविधान पाया जाता है कि संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए स्वरों का अथवा व्यजनों का परस्पर में 'व्यत्यय' अर्थात आगे का पोछे और पीछे का श्रागे होकर संस्कृतीयशब्द प्राकृतीय बन जाते हैं । जैसे:--अन्य इदानीम् बोधिम = अन्नं दाणि षादि = अब दूसरे को शुद्ध धर्मशान को (बोधिको ) ( समझायो ) ।। ४.२७७ ।। तस्मात्ताः ॥४-२७८ ।। शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति ॥ ता जाब पविसामि । ता अलएदिणा माणेण ॥ अर्थ:--'उम कारगण से' अथवा 'उपसे' अर्थक संस्कृत-पद 'तरमात्' के स्थान पर शौरसेनीभाषा में 'ता' शब्द रूप को आदेश-प्रानि होनी है । जैसे:--नस्मात् यावत प्रविशाम = ता जाप पविसामिय जस कारण से तब तक मैं प्रवेश करता हूँ। तस्मान अलम एतेन मानेन = ता अलं पणा माणेण-उम कारण से इस मान से (अभिमान में]--अब बम करी अर्थास अब अमिमान का त्याग कर दी यो 'ता' शब्द का अर्थ ध्यान में रखना चाहिये ।। ४.२७ ।। मोन्त्याएणो वेदे तोः ॥४-२७६ ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४३ ] शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात् पर इदेतोः परयोर्गकारागमो वा भवति ।। हकारे 1 जुसंमिं, जुत्त मिणं । सरिसं मिं, सरिसमिखं । एकारं । किदं किमेदं । एवं शेदं एत्रमेदं ॥ 144446460060060686466644 * प्राकृत व्याकरा * B अर्थ :-- शौरसेनी भाषा में यदि शब्दान्त्य हलन्त 'मकार' हो और उस हलन्त मकार के आगे यादे 'इकार अथवा एकार' हो तो ऐसे 'इकार अथवा एकार' के साथ से विकल्प से हलन्त 'कार' की श्रागम-प्राप्ति होती हैं । इकार और एकार सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार क्रम से हैं: - (१) युक्तम् इदम् 'जुत्तं णमं श्रथवा जुत्ता=यह (बाल) सही है । (२) सदृशं इस सॉरेस णिमं अथवा सारसामर्ण = यह समान – (एक जैसा है। इन दोनों उदाहरणों में 'इम' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति हुई हैं; 'यो 'इकार' में 'पुकार' को आगमनाप्ति को समझ लेना चाहिये। यह आगम प्राप्ति वैकल्पिक है, अतः द्वितीय 'इ' के स्थान पर विणं की प्राप्ति नहीं हुई है। 'एका' संबंधी उदाहरण यों हैं - (१) किं एतत् = किं पढ़ें अथवा किमे = यह क्या है ? ( १ ) एवं एतत् एवं पादं अथवा एक्मे यह ऐसा है। इन उदा हरणों में 'एदं' के स्थान पर विकल्प से 'द' रूप की प्राप्ति हुई हैं; या एकार' में 'णकार' की आगमप्राप्ति को विकल्प से जान लेना चाहिये ।। ४-२७६ ।। = एसो ॥ एवार्थे य्येव ॥ ४- २८० ॥ एवार्थे व इति निपातः शौरसेन्यां प्रयोक्तव्यः || मम य्येव बम्भणस्स | सोम्येव अर्थः — 'निश्चय वाचक' संस्कृत-अव्यय 'एव' के स्थान पर अथवा 'एय' के अर्थ में शौरसेनी'भाषा में 'व्येव' अध्यय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिये। जैसे – (१) मम एव ब्राह्मणस्य ममय्यष बम्भणम=मुझ ब्राह्मण का ही। (२) स एव एव: सोयेष एसो वह ही यह है। यों इन दोनों उदाहरणों में 'एच' के स्थान पर यंशेव की प्राप्ति हुई है ।। ४- ५० ।। हज्जे वाहवाने || ४-२८१ ॥ शौरसेन्याम् चेट्याह्वाने हजे इति निपातः प्रयोक्तव्यः ।। हज्जे चदृरिके ॥ अर्थ:- दासो को संबोधन कांसे समय में अथवा बुलाने के समय में शौरसेनी भाषा में 'हजे' श्रध्यम का प्रयोग किया जाता है। जैसे- अरे ! चतुरिके । जे चतुरिके = अरे चतुर दासी ! बुद्धिमान दासो || ४-२८९ ॥ हमारा विस्मय - निर्वेदे ॥ ४-२८२ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .00000000rowser.orrottornemorroreterotonormeram.ornmore........om शौरसेन्या हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदे च प्रयोक्तव्यः ॥ विस्मये । हीमाणहे जीवन्त-बच्छा में जमणी ।। निदे। हीमाण हे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधियां दुव्यवसिदण ॥ अर्थ:-'शाश्चर्य' प्रकट करना हो अथवा 'खेद प्रकट करना हो तो शौर सेनी भाषा में 'होमाणहे' से इस अव्यय का प्रयोग किया जाता है। श्राश्चर्य-प्रकट करने अथक उदाहरण थों है:अहो !! जीवन्त-वत्ता मम जनगी - हीमाणहे जीवन्त -बच्छा में जणणी = आश्चर्य है कि मेरी माता जीवन-पर्यत्न वात्सल्य भावना रखने वाली है । 'खेद' प्रश्द करने अथक उदाहरण इस प्रकार से है:-हा ! हा!! परिश्रान्ता अहम् एतेन निज-विधेः दुर्यपासिसम - हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एड्स निय-विधिको दुध्वसिदेण-अरे ! श्ररे !! खेद है कि-(बड़े दुःख की बात है कि-) मैं अपन इम भाग्य के विपरीत चले जाने से तिकवीर के फेर में बहुत ही दुःखी हूँ ।। यों हीमाणहे' अव्यय शौरसेनी भाषा में 'आश्चर्य तथा खेद दोनों अर्थ में प्रयुक्त किया जा सका हे || ४-१६ ॥ रणं नन्वर्थे ॥४-२८३ ।। शौरसेन्यां नन्वर्थे रणमिति निपातः प्रयोक्तव्यः ।। णं अफलोदया । अथ्य मिस्सेहिं पुमं य्येव आणत्रं । णं भवं मे अग्गा चलदि ।। आर्षे बाक्यालंकारपि दृश्यते । नमोत्थु णं । जया णं । तया णं ।। अर्थ:-संस्कृत-अव्यय "मनु" के स्थान पर शौरसनी-भाषा में "" अव्यय की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । इस "" अध्यय के चार अथं कम से इप्त मकार होते हैं:-(१) अवधारण अथवा निश्चय, (०) श्राशंका, (३) वितर्क और (४) प्रश्न । इन चारों अर्थों में से प्रसंगानुसार उचित अर्थ की कल्पना कर लेना चाहिये । जदाहरण इस प्रकार से हैं:---(१) ननु अफलोदया =णं अफलोदया (मुझे) शंका (है कि यह। फलादया वाला नहीं है । (२) ननु आर्य मित्रैः प्रथममेव आक्षप्तम् =णं अध्य मिस्सेहिं पुढभे रयेव आणत्त = निश्चय ही पूज्य पुरुषों द्वारा (यह बात) पहिले हो फरमादी गई है। (३) ननु भवान् मम (अथवा म) अग्रतः चलति = णं भव मे अग्गदी चलर्दि-निश्चय ही आप मे से आगे चलत हैं। "णं' अव्यय आप प्राकृत में "वाक्यालंकार" रूप में भी प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति में यह "' अव्यय अर्थ रहित ही होता है और केवल शोभा-रूप में हो इ की उपस्थिति रहता है। जैसे:-नमोऽस्तु-ममोत्शु णं = नमस्कार प्रणाम होवे । इसी उदाहरण में 'ण" अर्थ शून्य है और केवल शोभा रूप ही है । (२) यदा तदा - जयाणं, तयाणं = जब तब । यहाँ पर भी 'ण' अध्यय कंवल शोभा के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। यों अन्यत्र भी इस 'एं" अव्यय की स्थिति को स्वयमेव समझ लेना चाहिये ॥ १-२८३ ।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अम्महे हर्षे ॥ ४--२८४ ॥ शौरसेन्याम् अस्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः ॥ अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलि 1444440000 गो भवं ॥ [ ४४५ ] .. अर्थ:- हर्ष व्यक्त करना हो तब शौरसेनी भाषा में 'अम्मदे' ऐसे अव्यय शब्द का प्रयोग किया जाता है । 'अम्मड़े' ऐसा शब्द बोलने पर सुनने वाला समझना है कि बा प्रसन्नता प्रकट कर रहा है - खुशी जाहिर कर रहा है। जैसे:- आहा ! ओहो ) एतयामूर्भिलया सुपरिगृहतिः भवान् = अम्हे एआए मुस्मिला सुपलिंगी प्रसन्नता की बात है कि इस सूर्मिला (स्त्री विशेष) भली प्रकार से प्रण किये गये हैं। यों यह हर्ष घोतक एव रूढ अर्थ अव्यय है ।। ४-२८४ ॥ आप ही ही विदूषकस्य || ४-२८५ ॥ शौरसेन्याम् ही ही इति निपातो विदूषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोक्तव्यः मे ही ही संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स || अर्थ:- विदूषक जन अर्थात् राजा के साथ रहने वाला 'मसरा व्यक्ति विशेष ) जब हर्ष प्रकट करता है तो वह ही ही' ऐ शब्द बोलता है। विदूषक द्वारा 'ही ही' ऐसा बोलने पर सुनने वाले समझ जाते हैं कि यह अपना हर्ष प्रकट कर रहा है। जैसे अहो ! अरे । अरे ! संपन्ना मनोरथाः प्रियस्यस्य = ही हो सो संपन्ना भणोरधापिय वयस्सस्स आहा ! आहा ! प्रिय मित्र के मनोरथ ( मन की भावनाएँ) परिपूर्ण हो गये (अथवा हो गई हैं । श्रीं 'हो ही' अव्यय का हर्ष योतक रूढ अर्थ है। यह अव्यय केवल विदूषक-जनो द्वारा ही प्रयुक्त किया जाता है ।। ४-२६५ ।। शेषं प्राकृत ऋतू ।। ४-२८६ ॥ शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्त वतोन्यच्छौर सेन्यां प्राकृतषदेव भवति ॥ दीर्घहस्त्रों मिथा वृत्तौं ( १-४ ) इत्यारभ्य तो दोनाद शौरसेन्यामयुक्तस्य ( ४-२६० ) एतस्मात् सूत्रात् प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्यां भवन्ति, अमूनि पुनरेवंविधानि भवन्तोति विभागः प्रति सूत्र' स्वयमभ्यू दर्शनीयः ॥ यथा । अन्दावेदी । जुरदि जगो । मणसिला । इत्यादि || अर्थ: : - यह सूत्र सर्व-सामान्य रूप से यह बतलाना है कि शौरसेनो भाषा के लगभग सभी नियम प्राकृत भाषा के समान ही होते हैं। जो कुछ भी अन्तर परस्पर में है वह अन्तर सूत्र संख्या ४-२६० सं Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४६ ] * प्राकृत व्याकरण romot.000000000mtorrorrentert+00000000000000000000000000000000000000 भारम्भ करके सूत्र संख्या ४.२८५ क अन्तगत प्रदर्शित कर दिया गया है और शेष सभी नियम प्राकृत्तभाषा के समान ही जानना; तदनुसार सूत्र-संख्या १-४ से प्रारम्म करके सूत्र-संख्या ४-२५६ तक के विधि-विधानों को शौरसेनी भाषा के लिये भी कल्पित कर लेना । यो प्रत्येक सूत्र में प्रदर्शित परिवर्तन जैसा प्राकृत-भाषा के लिये है वैसा ही शौरसेनी भाषा के लिय मो स्वयमेव समझ लेना चाहिये । शौरसेनी भाषा का मूल आधार प्राकृत भाषा ही है और इसीलिये संस्कृत भाषा से प्राकृत भाषा की तुलना करने में जिन नियमों का तथा जिन विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन किया जाता है उन्हीं नियमों का तथा उन्हीं विधि विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन भी शौरसनी भाषा के लिये किया जा सकता है । सूत्र-संख्या ४-२६० से ४-२८५ तक में वर्णित भिन्नता का स्वरूप स्वयमेव ध्यान में रखना चाहिये । कुछ एक उदाहरगा यों हैं:संस्कृत प्राकृत शौरसेनी हिन्दी अन्तर्वेदिः = अन्तावेई - अन्ताबेदी मध्य की वेदिका। अवति-जनः = जुवइ-अणो - जुबदि -जणों - जवान स्त्री-पुरुष । मनः शिलामणमिला मणसिला = मन शोल एक उपधातु यो प्राकृत-भाषा के और शौरसेनी भाषा के एक हो जैसे शब्दों में पूर्ण साम्य होते हुए भी जो यम-किञ्चित् अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उसका माधा । सूत्र संख्या ४-२६० से लगाकर सूत्र संख्या ४.८५ तक में वर्णित विधि-विधानों से कर लेना चाहिये । शेष मब कार्य प्राकृत के समान हो जानना ।। ४-२८६ ।। इति शौरसेनी-भाषा-विवरण समाप्त TAP Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४७ ] अथ मागधी-भाषा व्याकरण प्रारम्भ अत एत् सौ पुसि मागध्याम् ॥ ४-२८७ ॥ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पुसि पुल्लिगे ।। एप मेषः । एसे मेशे । एशे पुलिशे || करोमि भदन्त । करेमि भन्ते ।। अत इति किम् । णिहो । कली। गिली ॥ पुसीति किम् । जलं ।। यदपि "पोराण मद्ध-मागह-भासा-निययं हबह सुत्त" इत्यादिनार्षस्य अर्धमागध भापा नियतत्वमाम्नायि वृद्ध स्तदपि प्रायोस्यय विधान वक्ष्यमाण लक्षणस्य ।। कयरे आगच्छइ ।। से तारिसे दुक्खसह जिइन्दिए । इत्यादि । . अर्थ:-मागधी भाषा में अकारान्त पुलिंग में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "सु" प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य "अकार" को "एकार" की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:-एष मेषः = एशे मेशे यह भेड़ । पुरुषः - एशे पुलिशे = यह आदमो। करोमि भदन्त = करोम भन्ते-हे पूज्य ! मैं करता हूँ। इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में और संशोधन के एक वचन में "एकार" की स्थिति स्पष्टतः प्रदर्शित की गई है। प्रश्न:--'धकारान्त' में ही प्रथमा विभक्त के एक वचन में 'एकार' की स्थिति क्यों कही गई है ? उत्तर:-जो शब्द पुल्लिग होते हुए भी मकारान्त नहीं है, उनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर 'एकार को प्राप्ति नहीं पाई जाती है इसलिये अकारान्त के लिये हो ऐसा विधान किया गया है। उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं:-(१) निधिः = णिही-खजाना (1) करिः - कली = हाथी (३) गिरि: गिली-पहाड इत्यादि । इन उदाहरणों से झात होता है कि ये इकारान्त है इसलिये इनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सु" के स्थान पर "एकार" की प्राप्ति नहीं हुई है। यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । प्रश्नः-पुल्लिंग में हो "एकार' की प्राप्ति होती है। ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः-जो शब्द अकारान्त होते हुए भी यदि पुल्लिग नहीं है तो उन शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति के एक वचन में मानव्य प्रत्यय "सु" के स्थान पर "ए कार" की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:जलम्-जल यानी । इस उदाहरण में "जल'' शब्द अकारान्त होते हुए भी पुल्लिग नहीं होकर नपुंसक लिंग पाला है. इसलिये इस शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "जले" नहीं होकर "जलं" रूप ही बना है। यों अन्य अकारान्त नपुसक लिंग वाले शब्दों के संबंध में भी यह बात ध्यान में रखी जानी पाहिये। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४८ ] * प्राकृत व्याकरणा* • •••••••••••••+++++++++++ +++++++++o vvvvvệex 99%++++++++++ आर्ष वादी वृद्ध पुरुषों की ऐसी मान्यता है कि "अर्ध मागधी" भाषा सुनिश्चित है, अत्यंत पुगनी है और इसलिये इसके नियमों का विधान करने को आवश्यकता नहीं हैं। यह बात अपेक्षा विशेष से भले ही ठीक हो परन्तु इस विषय में हमारा इतना ही निवेदन है कि हम भी प्रायः उन्ही रूपों का विधान करते हैं और उन्हीं के अनुकूल नियमों का निवारण करते हैं. जो कि अध मागधी भाषा के साहित्य में उपलब्ध है; अतः पुराण वादियों के मत से प्रतिकूल बात का विधान नहीं किया जा रहा है। जैसे:-फतरः आगच्छति = कयरे आगच्छइ = दो में से कौन अाता है ? २) स तादृशः दुःखसहः जितेन्द्रियः = से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए-यह जैमा इन्द्रियों को जोतने वाला है वैसा हो दुःखों की भी महन करने वाला है। इन उदाहरशों में यह प्रदर्शिन किया गया है कि जो पद अकारान्त पुल्जिग वाले हैं उन सब में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सु' प्रत्यय के स्थान पर एकार' को ही प्रानि प्रदर्शित की गई है; यो 'अर्धमागधी' भाषा में उपलब्ध स्वरूप का हो समर्थन किया गया है और इसी की पुष्टि के लिय ही इस सूत्र का निर्माण किया गया है। यों प्राचीन मान्यता को हो संरक्षण प्रदान किया गया है। अतः इसमे विरोध का प्रश्न ही नहीं है ।। ४-५८७ ॥ र-सोल-शौ ।। ४-२८८ ।। मागध्यां रेफस्य दन्त्य सकारस्य च स्थाने यथा संख्यं लकार: तालव्य शकारश्च भवति ॥र नले । कले ॥ स । हंशे । शुदं । शोभणं । उभयोः । शालशे । पुलिशे ॥ लहश-वश-मिल शुल-शिल-विअलिद-मन्दाल-लाविदंहियुगे ।। वील-थिणे पक्वालदु मम शयलम वय्य-यम्बालं ॥१॥ अर्थ:--मागधी भाषा में रेफरूप 'रकार' के स्थान पर और दस्य 'सकार' के स्थान पर क्रम से 'लकार' और तालव्य 'शकार' की प्राप्ति हो जाती है । उझहरण इस प्रकार हैं:---'रकार' से 'लकार' की प्रामि का उदाहरणः-नर: =नले मनुष्य । करः = कले = हाथ ! 'मकार' से 'शकार' की प्राप्तिका उदाहरण:-हंसः = इंशे-हंस पक्षी । सुतम् = शुदं = लड़के को। सोभनम् = शोभण - सुन्दर । यदि एक हो पद में सकार' पा जाय तो भी उन दोनों सकारों' के स्थान पर 'शकारों' को प्रामि हो जाती है। जैसेः-सारसः शालशे = सारस जाति का पक्षा विशेष । पुरुषः =पुलिशे ॥ मनुष्य । 'पुरुष' उदाहरण से यह भी ज्ञात होता है कि मागधी-भाषा में मूर्धन्य 'धकार' के स्थान पर भो तालव्य शकार की प्रामि हो जाया करती है। ____ऊपर सत्र की वृत्ति में जो गाथा सद्धृत की गई है उसमें यह बतलाया गया है कि मायधी-भाषा में 'रकार' के स्थान पर 'लकार' को, 'सकार' के स्थान पर 'शकार' को, 'तकार' के स्थान पर 'वकार' की, 'जकार' के स्थान पर 'य.कार' को और य' प्रयुक्त व्यस्नान के स्थान पर द्वित्व रब' को क्रम से प्राप्ति हो जाती है तथा प्रथमा विभक्ति में अकारान्त के स्थान पर एकारान्त' का प्रादेश प्राप्ति हो जाती है। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित $$$$$$$$00. वृत्ति में मागवी गाथा का संस्कृत अनुवाद प्रकार है. - रभस-वश नम्र सुर-शिरो विगलित मन्दार-राजित जैधियुगः ॥ वीर-जितः प्रक्षालयतु मम सकल मद्य जम्वालम् ॥ १ ॥ $46546000.0 [ ४४६ ] $64000000OODSE अर्थः- भांत के कारण मेरा पूर्वक झुकतं हुए देवताओं के मस्तकों से गिरते हुए मन्दार जाति के श्रेष्ठ फुर्ती से जिनके दोनों चरण शोभायमान हो रहे हैं, ऐसे भगवान महावीर जिनेश्वर मेरे सम्पूर्ण पापरूपी मैलको अथवा कीचड़ को प्रचालन कर दे श्रथवा दूर करदे । से बतला दिया गया है, जो के प्यान उपरोक्त वर्ण-परिवर्तन अथवा वर्ग आदेश का स्वरूप देने याग्य है ।। ४-२८५ ॥ स- पोः संयोगे सोऽग्रीष्मे ॥ मागध्यां सकार षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सी ऊलोपाद्यववादः ॥ स पक्खजदि हस्ती । बुदस्पदी | बालु | कटं । विस्तु । शस करलें | उस्मा । निस्फलं । गिम्हवाशले || ४-२८६ ॥ भवति, ग्रीष्मशब्दे तु न भवति । मस्कली । विस्मये ।। ष । शुरुकधनुस्खण्डं ॥ श्रग्रीष्म इति किम् । I अर्थः--- मागवी भाषा में संयुक्त रूप से रहे हुए हलन्त 'सकार' और हलन्त 'षकार' के स्थानपर हलन्त 'सकार' का प्राप्ति हो जाती हैं। परन्तु यद् नियमांम' शब्द में रहे हुए हलन्त 'पकार' के लिये लागू नहीं पड़ता है । यों यह प्राप्त इलन्त 'सकार' ऊपर कहे हुए 'लोप आदि विधियों की दृष्टि से अपबाद रूप ही समझा जाना चाहिये । जन्त्र 'कार' का उदाहरण इस प्रकार है: - (१) प्रस्खलति हस्तिः = यक्वलदि हस्ती = हाथी गिरता है। (२) बहस्पतिः = बुहस्पदी देवताओं का गुरु । (३) मस्करी = मस्कली= उपहास । (४) विस्मयः = विस्मये = आश्चर्यं । इन उदाहरणों में इलन्त 'सकार' की की स्थिति हलन्त रूप में ही रही हैं। अब इलन्त बिकार' के उदाहरण यो हैं: - (१) शुष्कतालुम = शुष्कवा-सूखा तालु । (२) कष्टम् कस्कोफ पोड़ा । (३) विष्णुम् = वस्तु =विष्णु का । (४) शब् कवलः = शस्य कवले घास का नाम । (५) उष्मा = उस्मा गरमी (६) निष्फलं निस्फल = फर रहित, ब्यर्थ । (७) धनुष खंडम् धनुखंड = धनुष का टुकड़ा। इन उदाहरणों में हलन्त 'पकार' की हलन्त 'सकार' की प्राप्ति हुई है । यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । प्रश्नः - प्रोष्म' शब्द में रहे हुए जन्त 'पकार' की हजन्त 'सकार' की प्राप्ति क्यों नहीं हुई है ? देखा जाता है; इसलिये मन्थकर्ता को भी 'मोष्म' शब्द में रहें के प्रतिकूल विवान करना पड़ा है। इसका उदाहरण इस ऋतु का दिन यों 'प्रोम' का रूपान्तर 'गिन्ह' हो उत्तरः- चूंकि संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'ग्राम' शब्द का रूपान्तर भागधी भाषा में गिन्ह' हो हुए हलन्त 'धकार' के लिये उपरोक्त नियम प्रकार है: - ग्राम वासरः = वाशले = जानना ॥ ४-२८६ ॥ 1 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५० ] 199009 * प्राकृत व्याकरण * 404006 600000 ट्ट-ष्ठयोस्ट: ।। ४-२६० ॥ द्विरुक्तस्य टस्य षकाराक्रान्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाशक्रान्तः टकारो भवति ।। ट्ट | स्टे । मस्टालिका | भस्टिगी || ष्ठ | शुद्ध कदं । कोस्टागालं || अर्थः - संस्कृत भाषा के शब्दों में उपज द्विव 'ह' के स्थान पर और हलन्त 'बहार' सहित 'ठकार' के स्थान पर मागी भाषा में इलन्त 'सकार' सहित 'टकार' की प्राप्ति होती है। द्वित्व 'टकार' के उदाहरण यों हैं: - (१ पट्टा पडे पदार्थ विशेष (२) भट्टारिका भस्टालिका=महार को स्त्री । भट्टिनी-मस्टिणी = भट्ट की स्त्री'' क उदाहरण इस प्रकार हैं. - (१) सुष्उकृतम् = शुस्तुक = अच्छा किया हुआ । (२) कोष्ठागारम् = कोस्टागाल= धान्य आदि रखने का स्थान विशेष ॥ ४-२६० ॥ स्थ-र्थयोस्तः ॥ ४-२६१ ॥ स्थ, र्क्ष, इत्येतयोः स्थाने मागध्य सकाराकान्तः तो भवति स्य । उचस्तिदे | शुस्तिदे || थे | अस्त चदी | शस्तवाहे ॥ अर्थः - संस्कृत भाषा के शब्दों में उपलब्ध स्थ' और 'थ' के स्थान पर मागधी भाषा में हलन्स 'सकार' पूर्वक 'तकार' की प्राप्ति होती है । 'स्थ' के उदाहरः- (१, उपस्थितः = उवस्तिदे = मौजूद - हाजिर । (२) सुस्थितः =ास्ति = अच्छी तरह से रद्दा हुआ। 'थ' के उदाहरणः - (१) अर्थतिः = अस्त-बढ़ी धन का मालिक । (२) सार्थवाहः शस्तवाह सद्-गृहस्थ अथवा बड़ा व्यापारी ।। ४-२६१ ।। ज- द्य-यां-यः ।। ४-२६२ ॥ मागच्यां जद्ययां स्थाने यो भवति । ज । याखदि । यशवदे । अध्युणे | दुय्यणे । यदि । गुण-दे || छ । मध्यं । अय्य किल विध्याले आगदे ।। य । यादि । यधाशलू | याण धत्तं । यदि ॥ यस्य यत्व - विधानम् श्रादेर्योजः (१ - २४५ ) इति बाधनार्थम् ॥ I अर्थः - संस्कृत भाषा के शब्दों में उपलब्ध 'ज', 'द्य' और 'य' के स्थान पर मागधी भाषा में 'य' की प्राप्ति हो जाती हैं। 'ज' के उदाहरण: - (१) जानाति = यादि = वह जानता है । (२) जनपदः = are प्रान्त का कुछ भाग विशेष परगना, तहसील) (३) अर्जुनः = अय्युणे = पाण्डु पुत्र, महाभारत का नायक (४) दुर्जन: दुय्यणे=दुष्ट पुरुष । (५) गर्जति = गय्यादि = गर्जता है । (६) गुणवर्जितः= गुण-वरियदे = गुणों से रहित || '' के उदाहरण: - ( १ ) मद्यं = मद्यं = शराब । (२) अद्य किल = अय्य 1 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५१] 0000000000000000000000orons.orrowersoor00000000000000000000000000000m फिल = निश्चय ही आज । (३) विधाघरः =आगत::विय्याहले आगढ़े = विधाघर (देवता विशेष) आगया है।। 'य' के उदाहरण:-(१) यातिन्यादि जाता है। (0) यथासरूपम् यथा शलू वं-समान रूप त्राला । (३) यानवर्तम् =याणवत्तं = वाहन त्रिशेप का होना। (४) यति = यदि = मन्याप्ती ।। इसी व्याकरण के प्रथम पाद में सूत्र-संख्या २४५ में श्रादेयों जः' के विधानानुसार यह बतलाया गया है कि संस्कृत भाषा के शब्दों में यदि आदि में यकार' हो तो उसके स्थान पर 'जकार' की प्राप्ति हो आती है; इस विधान के प्रतिकूल मागधो-भाषा में यकार' के स्थान पर 'यकार' ही होता है, 'जकार' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिय हो इस सत्र में 'ज' और 'वा' के साथ-साथ 'य' भी लिखा गया है। जो कि ध्यान में रखने के योग्य है। यों यह सूत्र उक्त सूत्र-पख्या १.२४५ के प्रतिकूल है अथवा अपवाद स्वरूप है, यह भी कहा जा सकता है । जैसेः-यतिः- यदी = माधु अथवा संन्यासी ॥ ४.२६२।। न्य-गय-ज्ञ-जां यः ॥४-२६३ ॥ मागध्यां न्य एय-ज्ञज इत्येतेषां द्विरुक्तो जो भवति ।। न्य । अहिमञ्ज कुमाले । अचदिशं । शामज-गुणे । कञका-बलणं ।। ण्य । पुत्रवन्ते । अत्रम्हों । पुजाहं । पुञ्ज । ज्ञ। पाविशाले । शबने । अवदा ।। च । अञ्जली धणझए । पझले ॥ अर्थ:--संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'न्य, एय, ज़, ज' के स्थान पर मागधी भाषा में द्वित्व 'म' को प्राप्ति होती है । जैसे--'न्य' के उदाहरण:--(१) अभिमन्यु कुमारः = अहिमकुमालेअजुन नामक पाडव का पुत्र । (१) अन्य दिशम् = अन दिशं = दूसरी दिशाको । (३) सामान्यगुण शामन गुणे -माधारण गुण । (४) कन्यका वरण-कञका वलण - पुत्री को सगाई करने सम्बन्धी पाक्य विशेष || 'एय' के उदाहरणः---(१) पुण्यवन्तः = पुरुषन्त = पुण्यवाले, अच्छे कर्मों वाले । (२) अब्रहमण्यम् अवाहक-ब्राह्मण के प्राचगण करने के योग्य नहीं । (३) पुण्याहस - पुञ्आह-आशीवाद और (४) पुण्यम् = पुरुन = पवित्र काम, शुभ कार्य । 'ज्ञ' के उदाहरणः-(१) प्रज्ञाविशालः - पाविशाल - विशाल बुद्धि वाला । () सर्वज्ञः = शव्याने - सब कुछ जानने वाला। (३) अवज्ञा = अकत्रातिरकार, अनादर । 'ज' के नदाहरण:-अजलि अली -हथेली से निर्मित पुट विशेष (२) धनाजयः धणजय = अजुन पांडु-पुत्र । (३) पजरः = पबले - शस्त्र विशेष बजो जः ।। ४-२६४ ॥ मागध्यां बजे जंकारस्य ओ भवति ।। पापवादः ॥ वझदि । अर्थ:--संस्कृत भाषा में रही हुई धातु 'ब्रज' के 'ज' व्यसन के स्थान पर मागधी-भाषा में द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होती है । यो यह नियम उपरोक्त सूत्र संख्या ४-२६२ के लिये अपवाद स्वरूप समझा जाना चाहिये । उदाहरण यों है:-वजाति = वदि वह जाता है ।। ४-२६४ ॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] * पाकृत व्याकरण 2 ____ छस्य श्चोनादौ॥ ४-२६५ ।। मागध्यामनादी वर्तमानस्य छस्य तालव्य शकाराक्रान्तः चो भवति ॥ गश्च गश्च ।। उश्चलादि । पिश्चिले । पुश्नदि ॥ लाक्षणिकस्यापि । आपन्न -वत्सलः । श्रावन्न-वश्चले ।। तिर्थक् प्रेचते । तिरिच्छि पेच्छइ । तिरिश्चि पेस्कदि । अनादाविति किम् । छाले ॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा में यदि किसी भी पद में छकार आदि अक्षर के रूप में नहीं रहा हुश्रा हो और हलन्त अवस्था में भी नहीं हो तो उम 'छकार के स्थान पर मागधी भापा में 'हलन्त तालव्य शकार' के साथ साथ 'चकार' की प्राप्ति हो जाती है । यो अनादि 'छकार' के स्थान पर 'श्व की प्राप्ति मागधीभाषा में जाननी चाहिये । जैसे:- (१) गच्छ, गच्छ - गश्च, गश्च = शाश्री, जाओ। (0) उच्छलति = उपचलदि- वह उछलता है। (३) पिच्छिलः = पिश्चिले = पख वाल।। (४) पृच्छति - पुरचदि = वह पूछता है। व्याकरण के नियमानुसार संस्कृत-भापः सं प्राकृत भाषा में भो यदि किसी व्यम्जन के स्थान पर 'छकार' की प्राप्ति हुई हो तो उस स्थानापन्न 'छकार' के स्थान पर भा मामधी-भाषा में 'हलन्त तालव्य शकार सहित चकार' को-प्रर्थात् 'श्च' की प्रामि हो जाया करती है । जैस:- (१) आपन्न -वत्सलः = आषण-पच्छली = श्रावन-वश्चले = जिम को प्रेम-भावना को प्रासि हुई ही वह । (२) तिर्यक प्रेक्षते - तिरिच्छ पेच्छा = तिरिर्वच पस्कदि - वह टेढ़ा देखता है। प्रश्न:--'अनादि' में रहे हुए 'छकार' के स्थान पर ही 'श्च' की प्रालि होती है; ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तरः-जयोंकि यदि 'छकार' क्यजन 'शब्द के आदि में' रहा हुआ होगा तो इस छकार के स्थान पर 'श्च' को प्राप्ति नहीं होगी । जैसे:-भार:- छारों-छाल - अखेने के पश्चात बचा हुआ हार अथवा खार पदार्थ विशेष । यो आदि 'छकार' को 'श्च' की प्राप्ति नहीं है ।। ४.२६५ ।। क्षस्य कः ॥४-२६६ ॥ मागध्यामनादी वर्तमानस्य सस्य को जिह्वामूलीयो भवति ॥ य के लकिशो ॥ अनादावित्येव । खय-यल-हला । क्षय जलधरा इत्यथः ।। ___ अर्थः-संस्कृत-भाषा में अनादि रूप से रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर मागधी-भाषा में 'जिम्हामूलोय ४क' को प्राग्नि हो जाती है। जैसेः-११) यक्ष-यक- यज्ञ जाति का देवता विशेष । (२) राक्षसः । = कशे = राक्षस, बाण-व्यन्तर जाति का देव विशेष । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५३ ] ........monsoredoot00000rnorrorroreore...00000rsonantoshootino.000m प्रश्न:-अनादि रूप से रह हुए 'क्ष' के स्थान पर ही मागधी-भाषा में 'जिव्हामुलीयक' की प्राप्ति कानी है। ऐसा को कहा गया है ? उत्तरः-यदि 'क्षकार' अनादि में नहीं कर 'आदि में रहा हुआ होगा तो उसके स्थान पर मागधी-भाषा में जिला मूलीय! क' की प्रानि नहीं होगी। जैसे:-क्षय-जलधरा: = खय-पलहला = नष्ट हुए बादल । यहां पर आदि कार को खकार की प्राप्ति हुई है ॥ ४.२६६। स्कः प्रेक्षाचक्षोः ॥ ४-२६७ ।। मागध्या प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः को भवति ॥ जिव्हामूलीयापवादः ।। पस्कदि । आचस्क्रदि ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा के प्रेक्ष' और 'पाचक्ष' में स्थित 'कार' के स्थान पह मागधों माषा में 'हलन्त मकार' माहत कार' की प्राप्ति होती है । यह सूत्र उपरोक्त सूत्र संख्या ४-२६६ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है । उदाहरणों यां हैं:---(१) प्रेक्षते - पेस्कदि = वह देरनता है । (२)आचक्षते = आचस्कवि = वह कहता है ।। ४-rs || तिष्ठ श्चिष्ठः॥ ४-२६८ ॥ मागच्या स्थाधातीय स्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्यचिष्ठ इत्यादेशो भवति ॥ चिष्ठदि ।। अर्थः-संस्कृत-धातु स्था' के स्थान पर निष्ठ' का आदेश होता है और उमी आदेश प्राप्त 'तिष्ठ' धातु-रूप के स्थान पर भागधी भाषा में 'चिष्ठ' धातु रूप को आदेश प्राप्त हो जाती है। जैसेतिष्ठति -चिठदि = वह बैठता है ।। ४.२१८ ।। अवर्णाद्वा ङसो डाहः ।। ४-२६६॥ मामध्यामवर्णात् परस्यङ सोडित् प्राह इत्यादेशो या भवति ॥ हगे न एलिशाह कम्माइ काली । भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे । पक्षे । भीमशेणस्स पश्चादी हिराही अदि। हिडिम्बाए घडुकयशोकण उपशमदि। अर्थ:-मागधी भाषा में पष्ठी विक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में अथवा नपुंसक लिंग में प्राप्तव्य प्रत्यय 'कुस =स के स्थान पर विकलम से 'डाह - श्राह' प्रत्यय को आदेश-प्राप्ति होती है । सूत्र में उल्लिखित 'डाह' प्रत्यय में स्थित कार से संज्ञा शब्दों में स्थित अन्त्य 'अकार' को इत संज्ञा अर्थात लोप स्थिति प्राप्त होता है; ऐसा तात्पर्य प्रार्शित है । उदाहरण यों है-(१) अहम न ईदृशः Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५४ । प्राकृत व्याकरण * mootronderstarreratorrearresretarwesorewersoot00000000000orrersosorn कर्मणःकारी-हंग म एलिशाह कम्मा' काली- मैं इस प्रकार के कर्म का करने वाला नहीं हूँ। (२) भगदत्तशोणितस्य कुम्भः= भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे = भगदत्त नामक व्यक्ति विशेष के रक्त का (यह) घड़ा है। इन उदाहरणों में एलिशाह, कम्साह और शागिदाह षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्स' के स्थान पर 'आह' लिखा गया है । वैकल्पिक स्थिति होने से पकान्तर में 'स' प्रत्यय भी होता है। जैसः- (१) भीमसेनस्य पर बात हिण्डयते -भीमशंणस्त पश्चादी हिण्डीभीमसेनके पीछे पीछे धूमता है। (२) हिडिम्बायाः घटोत्कचशोकः न उपशाम्यतिहिडिम्बाए धडकयोके ण उपशमदि= हिडिम्बा राक्षसिरणा का (पसके पुत्र) घटोर सच-(के मृत्यु का) शोक शान्त नही होता है। इन उदाहरणों में सं प्रथम उदाहरण में 'भोमशेणा' नहीं बतला कर 'भीमशेगम्म ऐमा रूप प्रदर्शित किया गया है । द्वितीय शाहरण में 'हिडिम्बाह' नहीं लिखकर 'हिडिम्बार लिखा गया है, जो यह मूचित करता है कि स्त्रीलिंग शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'आह' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है । यो आह और स्म' प्रत्ययों को वैकल्पिक स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। ४.२६६ ॥ आमो डाह बा।।४-३०० ॥ मागध्यामवर्णात परस्य आमोनुनासिकान्तोडित् आहादेशी वा भवति ॥ शय्यणाहँ सुहं । पदे 1 नालन्दाणं ।। पत्थयात् प्राकृतविता । तुम्हाहैं। अम्हाहँ। सरियाई । कम्माह। अर्थ:-मागधी भाषा में अकारान्त पुल्लिग अथवा नपु मकस्लिा बाल शब्दों के षष्ठी विभक्तक बहुवचन में प्राप्रव्य प्रत्यय एवं अथवा ' के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक सहित 'डा = आहे की प्राप्ति होती है। सूत्र में उल्लिखित 'डाहँ' में निधन डकार' इत्संज्ञावाचक होने से 'आहे' प्रत्यय लगने के पहिले अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है। तदनु पार कंबल 'श्राई' प्रत्यय को ही प्राप्ति होती है। उदाहरण यों है:-सजनानाम् सुखम् = शय्यणाहँ सुई - सजन पुरुषों का सुख ! वैकल्पिक पक्ष होने से षष्ठी-विभक्ति बोधक प्रत्यय 'णं अथवा ' का पदाहरण भी यो है:-नरेन्द्राणाम: नलिन्दाणं = राजाओं का ॥ मागधी-भाषा में प्राप्त उक्त प्रत्यय 'आई' कभी-कभी प्राकृत भाषा में भी देखा जाता है। ऐसी स्थिति को व्यत्यय' स्थिति कही जाती है। प्राकृत भाषा के उदाहरण इस प्रकार हैं:(१) तेषाम् - ताहूँ - उनका अथवा उनके । (२) युष्माकम् तुम्हा-तुम्हारा, तुम्हारे पापका आपके । (३) अस्माकम् = अम्हा है = हमारा, हमारे । (४) सरिताम् = सरिभाहुँ-नदियां का। (५) कर्मणाम् = कम्माह = कर्मों का-कार्या का । यो मागधा का प्रभाव प्राकृत भाषा में भी देखा जाता है ।। ४.२० ॥ अहं वयमोहंगे ॥४-३१॥ मागध्यामहं वयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति ।। हगे शकावदालतिस्त-णिवाशी घीनले । हगे शंपत्ता॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५५ ] nomerometerstoornstormerometersroreonorarirdesssorroworrisonm अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध उत्तम पुरुष वाचक सर्वनाम रूप 'अहम और वयम' के स्थान पर मागधो भाषा में केवल एक ही रूप हगे' की प्रादेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-अहम् शकावतार तीर्थ निवासी धीषरः = (१) हगे शाक्कावदालनिस्त-णिवाशी धीवले-शक्रावतार नामक तीर्थ का रहने वाला मैं मच्छीमार हूँ । (२) वयम् संप्राप्ताः = हगे शंपत्ता - हम (मब) श्रानन्द पूर्वक पहुंच गये हैं। यो इन दोनों दृष्टानों में 'अहम् और वयम्' के स्थान पर 'हगे' रूप की आदेश-प्राप्ति हुई है ।। ४-३०१ ।। शेषं शौरसेनीवत् ॥ ४-३०२ ॥ मागध्यां यदुक्त ततोन्यच्चौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् ।। तत्र तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य-(४-२६०) ।। पविशदु आवुत्तेशामि-पशादाय ॥ अधः क्वचित् -(४-२६१) ।। अले किं एशे महन्दे कलयले ।। वादेस्तावति (४-२६२) ॥ मालेध वा धलेध वा । अयं दाव शे आगमे ॥ श्रा आमन्त्र्ये सौ के नोनः ।४.२६३) भी कञ्चुइया ।। मी वा (४-२६४) भो रायं ।। भवद्भगवतोः (४.२६५) एद भवं शमणे भय महावीले । भयब कदन्ते ये अपणो पy कं उज्झिय पलस्स पकं माणी कलेशि ॥ न वा योग्यः (४-२६६) ।। अयय एशे सु कुमाले मलयकैदू ॥ थो ध: (४-२६७) ।। श्रले कुम्भिला कधेहि ।। इह इचो हस्य (४-२६८) ओ शल ध अश्या ओशल ध ।। भुवो भः (४-२६६) । भोदि ।। पुचस्य पुरवः (४-२७० ॥ अपुरवे ॥ त्व-इय दृणी (४-२७१) । किं खु शोभणे ब्रह्मणे शित्ति कलिय लापलिग्गहे दिएणे ॥ कृ-गमो डडुः (४-२७२) कडुअ | गडुअ ॥ दिरिचे चोः (४-२७३) ।। अमञ्च लपू कशं पिक्खिदु इदोय्येव आगश्चदि ।। अतादश्च (४.२७४) ।। अले किं एशे महन्दे कलयले शुणी प्रदे ॥ भविष्यति स्सिः (४.२७५) || ता कहिं नुगदे लुहिलप्पिए भघिस्सिदि ॥अतोङसेर्डा दोडा (४-२७६) । श्रहं पि भागुलायणादो मुद्द' पावेमि । इदानीमो दाणि (४-२७७) ।। शुषध दाणि हगे शक्कावयालतिस्त-णिवाशी धीवले ।। तस्मात्ताः (४-२७८) || ता याव पविशामि || मोन्त्याएणो देतोः (४.२७)। युत्तं णिमं । शलिशं णिमं ।। एवार्थे व्येव (४-२८०) || मम य्येव ॥ हने चट्याहाने (४-२८१) |हजे चदुलिके। हीमाणहे विस्मय-निवेदे (४-२८२ ।।. विस्मये । यथा उदात्त राधरे। राक्षसा ही माणहें जीवन्त-वश्चा में जणणी ।। निर्वेदे । यथा विक्रान्त भीमे । राक्षसः हीमाणहे पलिस्सन्दा हगे पदेण निय-विधिणो दुव्यवशिदण ।। णं नन्वर्थ (४.२८३) ॥ गं अवशलीपशप्पणीया लायाणी ।। अम्म हे हर्षे .४.२८४) || अम्महे एश्राए शुम्मिलाए शुपलिगदिदे भव ॥ ही ही विषकस्य ४.२८५) ॥ ही ही संपन्ना में मणोलधा शिवयस्सस्स ।। शेष प्राकृतवत् (४-२८६) ॥ मागध्यामपि दीर्घ हस्थी मिथो वृत्तौ (१-४) इत्यारभ्य तो दोनादी शौरसेन्यामयुक्तस्य (४-२६०) इत्यस्मात भाग यानि सूत्राणि तेपु यानि उदाहरणानि सन्ति तेगु मध्ये अमृनि तद वस्थान्येव मागध्याममूनि पुनरेवं विधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूद्ध दर्शनीयः ।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५६ ] * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-मागधी-भाषा में प्राकृत और शोर सेना के अतिरिक्त जो कुछ परिवर्तन अथवा रूपान्तर होता है वह ऊपर सूत्र संख्या-११-२८७) से (४-३०) में व्यक्त कर दिया गया है। शेष परिवर्तन के संबंध में इस सूत्र में और इसकी वृत्ति में कह दिया गया है कि-'अन्य सभी प्रकार का परिवर्तन संस्कृत से मागधी में रूपान्तर करने की दशा में 'प्राकृत-भाषा में तथा शौरसेनी-भाषा में वर्णित परिवर्तन सम्बन्धो नियमों के अनुसार जाननी चाहिये । इस प्रकार के संकेत के माथ-साथ 'प्राकृन तथा शौरसेनी' में वर्णित कुछ मूल मूत्रों के साथ उदाहरण भी वृत्ति म दिये गये हैं। जिन्हें में हिन्दी-अथ-पूर्वक निम्न प्रकारसे लिख देता हूं:(१) सुत्र-संख्या ४.६० में बतलाया है कि 'तकार' का 'दकार' होता है तदनुसार 'भागधी-भाषा' का उदाहरण इस प्रकार है:-प्राविशतु आयुक्तः स्वामि-प्रसावाय = पविश आवृत्ति शाभिपशादाय = स्वामी की प्रसन्नता के लिये मचष्ट प्रवेश करी । (१) सूत्र-संख्या ४-२६१ में कहा गया है कि इलन्त व्याजन के पश्चात रहने वाले 'तकार' का भी 'दकार' हो जाता है । जैसे:- अरे ! किम् एय महान्तः करतल: = अले ! कि एश महन्दे कलयले = क्या यह महान हथेलो है ? 13) सूत्र-संख्या १-२६२ में लिखा गया है कि 'तावत' अव्यय के आदि 'नकार' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'दकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:-अयम् तावत् तस्य भागमः, (अधुना) मारयत वा धारयत वा अयं दाव शे आगमे, (अहुणा मालेध या घालेध वा-यह उसका श्रागमन हो गया है; (ब) मारो अथवा रक्षा करो । यो 'तावत' के स्थान पर 'दाव' रूप को प्राप्ति हुई है। (४) सूत्र संख्या ४-२६३ में संकेत किया है कि 'इन' अन्न वाले शब्मों के संबोधन के एकवचन में 'म्' प्रत्यय परे रहने पर अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर फिल्म से आकार की प्राप्ति होती है। जैसे:-- भो कञ्चुकिन् ! = भो ! कञ्चइआ-अरे कन्चुको ।। (4) सूत्र संख्या ४-२६४ में यह उल्लेख किया गया है कि 'नकारात' शब्दों के एकवचन में 'स' प्रत्ययपरे रहने पर अन्त्य 'नकार' के स्थान पर विकल्प मे 'मकार' को प्राप्ति होती है। जैसे:-भोराजन् ! = भो राय = है राजा (६) सूत्र-संख्या ४-२६५ में यह प्रदर्शित किया गया है कि-'भवत्' और 'भगवन' शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'स' प्रत्यय प्राप्त होने पर निर्मित पर 'भवान् और भगवान के अन्त्य 'नकार' के स्थान पर 'मकार' को प्राप्ति होता है। जैसे:-(१) एतु भवान् श्रमणः भगवान महावीरः = एदुभव शमणे भयव महापीले-श्राप महा प्रभु श्रमण महावीर पधारे हैं। (२) भगवन् कृतान्त ! य. आत्मनः पक्ष या परस्य पक्ष पमाणी करोषि-हे भय कदन्ते ! ये अपणो पर उझिय पलस्त पत्र के पमाणी कलारी = हे भगवान् यमराज ! श्राप ऐसे हैं, जो कि थाने पक्ष को छोड़ करके दूसरे पक्ष को प्रमास्वरूप करते हो। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । I * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # [ ४५७ ] 000009 (७) सूत्र संख्या ४०:६६ में यह कथन किया गया है कि शौरसेनो में 'ये' के स्थान पर द्वित्व यप की विकल्प से प्राप्ति होती है। जैसे:-आर्य ! एषः खु कुमार: मलय केतुः = अध्य! एड़ी खु कुमाले मलय केंद्र = हे श्रायें ! ये निश्चय ही कुमार मलय केतु हैं । (८) सूत्र संख्या ४-२६७ में यह विधान प्रविष्ट किया गया हूँ क शौरसेनो में विकल्प से 'थ' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- अरे कुम्भिरा कथय असे कुम्भिला कधेहि अरे कुम्मिरा ! कहो || (९) सूत्र संख्या - २६८ में यह उल्लेख किया गया है कि:- 'इ' अव्यय के 'हकार' के स्थान पर और वर्तमान कालीन मध्यम पुरुष के बहुवचन के प्रत्यय 'ह' के स्थान पर शौरसेनी में विकल्प से होता है । जैसे:-- अपसरत आर्याः ! अपसरत = अधि अय्या आंशलध = हूं आर्यो ! श्राप हटे श्राप हटे ।। (१०) सूत्र संख्या ४२६६ में विधान किया गया है कि शौरसेनी भाषा में भू = मत्र' धातु के 'कार' को विकल्प से हकार की प्राप्ति होती हैं। अथवा प्राप्त हकार को पुनः विकल्प से मकार की प्राप्ति हजारी है। जैसे- (शिन्ह होता है । (११) सूत्र संख्या ४-: ७० में कहा गया है कि-शौरसेनो में 'पूर्व' शब्द के स्थान पर 'पुर' ऐसी आदेश-प्राप्ति विकल्प मे होती है जैसे:- अपूर्वः = अपुरष अनोखा, विलक्षण || = = (१२) सूत्र संख्या ४-२७१ में सूचित किया गया है कि शौरसेनी भाषा में सम्बन्ध-कल सूच प्रत्यय 'कत्वा' के स्थान पर 'इय और दूण' ऐसे दो प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। जैमःकिन खलु शोभनः ब्राहमणो से इति कृत्वा राज्ञा परिग्रहो दसः किं शोभणे मणे शिि कलियaser विष्णे-क्या निश्चय ही तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण हो, ऐसा मान करके राजा द्वारा सम्मानित किये गये हो यहां पर 'कलिय' पद में 'क्वा' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की आदेश प्राप्त हुई है। 1 (१३) सूत्र-संख्या-४-२७२ में यह उल्लेख है कि 'कृ' धातु और 'गम' धातु में 'क्वा' प्रत्यय के स्थान पर डिस' पूर्वक (अन्स्य अक्षर के लोप पूर्वक) 'अध' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति विकल्प से होनो हूँ। जैसे:-- कृत्वा कडुभ=करके || गत्वा गजुअ = जाकर कं ॥ यों 'अ' की प्राप्ति समझ लेना चाहिये । (१४) सूत्र संख्या ४:७२ में कहा गया है कि वर्तमानकाल के अन्य पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्था पर 'दि' प्रत्यय रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:- अमात्य राक्षसं प्रेक्षितुम् इतः एष आगच्छति = अमरा-ल दहाय्य आगश्रदि गक्षम नामक मंत्री को देखने के लिये इधर ही वह आता है अथवा आ रहा है। यहां पर 'आगश्चदि में 'इ; ए' के स्थान पर 'दि' का प्रयोग हुआ है । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] * प्राकृत व्याकरण .000000000000000000000000+torrotrovercornvertorrotoroorno.00000000 (१५) सूत्र संख्या ४-२७४ में यह सम माया गया है कि-अकागन्त धातुओं में वर्तमानकाज के अन्य पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ और ए' के स्थान पर दे की भी प्राईम होनी है। जैसेःअरे ! किम् एष महान्तः कलकल. श्रूयते = अले किं एसी महन्द कलयले शुणीअंतबर ! यह बढ़ा कोलाहल क्यों सुनाई दे रहा है ? इस उदाहरण में 'शुणोदे' में है' का प्रयोग हुअा है। (१६) सूत्र-सख्या ४.२७५ में यह सूचना की गई है कि-शोर सनी भाषः म भविष्यत काल-अर्थक प्रत्ययों में हि, स्सा और हा' के स्थान पर रिस' रूप की प्राप्ति होती है । जै:--तदा कुन नु गतः रूधिर प्रियः भविष्यात = ता कहि न गढ़े लुहिलाप्पए भावम्मिाद = वम समय में कहा गया हुआ हो त का प्रमी होगा। (१७) सूत्र संख्या ४-५७६ में यह बतलाया गया है कि-अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'श्रादो और श्राटु' एस दो प्रत्ययों की अादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अहमपि भागुगयणात भवाम प्राप्नोमि-अपि भागुलायणादो मई पावेनि = में भी भागुरायण से मुद्रा को प्राप्त करना हूं। यहां पर 'भागुलायण दो' का रूप दिखलाया गया है। (१८) सूत्र संख्या ४-२७७ में कहा गया है कि-शौरसेनी भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर दाणिम' ऐसे रूप की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-श्रणत इदानीम् अहम् शकायतार-तीर्थ-निवासी धीवरःशुणध नाणं हगे शक्कावयाल तिस्त-णिवाशी धीवले = मुना. इस । मय म मै शकावतार नामक तार्थ का रहने वाला धीवर है ॥ (१६) सूत्र-संख्या ४-२७८ में समझाया गया है कि- शोर सनी भाषा में 'तस्मात्' शब्द के स्थान पर 'ता' शब्द रूप का आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- सस्मात यावत् प्रविंशामि = ता या पषिशामि = 38 कारण से जब तक में प्रवेश करता हूँ। (10) सूत्र-मंख्या ४-२७६ में लिखा गया है कि-शोर मनी भाषा में पदान्त्य 'म्' के धागे यदि 'कार' अथवा 'एकार' हो तो इन 'इकार' अश्वका 'उकार' के पूर्व में विकल्प से हलन्त 'ण' की भागम प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) युक्तम् इमम = युक्त णि = यह युक्त है-यह ठोक है। (२) सदृशं इमं = शारिश णिमें यह समान है। इन उदाहरणों में 'इम' में पूर्व में 'ण कार' की अागम प्राप्ति हुई है। (१) सूत्र संख्या ४-२८२ में सूचित किया गया है कि-शोर मनी भाषा में 'एच' अर्थक अभ्यय के स्थान पर 'प्येव अव्यय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिय । जैसे:-मम एव-मम व्येव = मेश ही है। 7) मूत्र-मख्या ४.८१ में यह संविधान किया गया है कि शौरसेनी भाषा में 'दामी' को पुकार ने पर संबोधन के रूप में हजे' शब्द रूप अन्यत्र का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-- अरे ! चनुलिक =कने चालक - अरे ! आ चतुरिका (दामी) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५६ ] ....0000000oo.orrearraoorrorrorko++0000000000000000000r.roorm (१३) सूत्र-संख्या ४२८२ में यह कथन किया गया है कि-'पाश्चर्य और खेद प्रकट करने के अर्थ में शौरसेनी भाषा में 'हीपणहें ऐसे शब्द रूप अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-- अहो ! जीवन्त घस्सा मम जममी = हामाणहे जीवन्त पश्चा में जणणी= आश्चर्य है कि मेरी माता मेरे पर जीवन पर्यत के लिये प्रेम-भावना रखने वाली है। यह कथन 'राक्षस' नामक एक पात्र उदात्तराघव नामक नाटक में व्यक्त करता है। यों होमागाई' अव्यय विस्मय-अर्थ में कहा गया है। निर्वेद-खेद अर्थक अव्यय के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले 'ही माण हे' अव्यय का उदाहरण 'विक्रान्त. भीम नामक नाटक से श्रागे नद्धृत किया जा रहा है। -हा! हा !! परिवान्ताः वयम् एतेन निजविवेः दुर्व्यवसितन - हामाया पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिको दुवपार्शवण- अरे ! अरे ! बड़े दुःन्न की बात है कि हम इम हमारे भाग्य के दुर्व्यवहार से- ( खोटे नकदीर के कारण से) अत्यन्त परेशान हो गये हैं ।। यह उस एक 'राक्षस' पात्र के मुंह से कहलाई गई है। (२४) सूत्र-संख्या ४.६८३ में यह वर्णन किया गया है ।क-शोर सनी में निश्चय-मर्थक मस्कृतअव्यय 'मनु' के स्थान पर 'णं अव्ययकी प्रामि होती है । जैसे:-ननु अक्सर-उपसरणायाः राजान:णं अयशलापशप्पणीया लायाणो - निश्चय ही राजाओं । की संवा में ) समयानुसार ही (अवसरों की अनुकूलता पर ही ) जाना चाहिये ।। (४) सूत्र-संख्या ४-२८४ में यह उल्लेख किया गया है कि-शोर सनी में हर्ष-व्यक्त करने के अर्थ में 'अम्माई' ऐसे शल: रूप अध्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-अहो !! एतस्यै मूर्मिलायै सुपरिगठितः भषान् अम्महे !! एआए शुमिमलाए पलिगहिदे भर्ष - आपने इस सर्मिला के लिये ( इस श्राभूषण विशेष का) अच्छा गठन किया है; यह परम हवं की बात है। (२५) सूत्र-संख्या ४-२८५ में यह व्यक्त किया गया है कि-शौरसेनी-भाषा में जब कोई विदूषक (भांड आदि मसखरं ) अपना हर्ष व्यक्त करते हैं, तब वे 'ही हो' ऐसा शब्द बोलते हैं और यह शब्द अव्यय के अन्तर्गत माना जाता है। जैसे:-आ हा हा ! संपन्नाः मम मनोरथाः प्रियवयस्याय-हीही !! संपन्ना में मणोलधा पियषयस्सस्स = अहाहा!! ( बड़े ही हर्ष की बात है कि) प्रिय मित्र के लिये मेगे जो मन की कल्पनाएं थीं, वे सब को मय (सानंद) मम्पन्न हुई हैं। (PF) मूत्र-मस्या ४.८६ में मव-मामान्य-सूचना के रूप में यह संविधान किया गया है कि शेष भी विधान 'शौरसेनी भाषा के लिये प्राकृत-भाषा के संविधान अनुसार ही जानना । यों यह फलि. सार्थ हुआ कि-मागध-भाषा के लिये भी वे सभी नियमोपनियम लागू पड़ते हैं, जो कि प्राकृत-भाषा के लिये तथा शौरसेनी भाषा के लिये लिखे गये हैं। इस बात की संपुष्टि के लिये इसी सूत्र को वृत्ति में ऊपर शौरसेनी भाषा के लिये लिखित सूत्र-संग्ख्या ४-२६० से लगाकर ४.२८६ तक के सूत्रों को उदाहरण पूर्वक उदधृत किये हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६. *प्राकृत व्याकरण * wrotoror.000000000000radition00000000000000000000tratortootossot.in उपरोक्त सूचना के अतिरिक्त ग्रंथ कर्ता प्राचार्य श्री ने 'वृत्ति में सूत्र संख्या १-४ से प्रारम्भ कर के चारों पादों के सूत्रों को सम्मिलित करते हुए सूत्र संख्या ४-२५६ तक के सूत्रों में वर्णित सभी प्रकार के विधि-विधानों का 'अधिकार' इस मागधी भाषा के लिये भी निश्चय-पूर्वक जानना' ऐसा स्पष्टतः निर्देश किया है । इन सूत्रों में जो जो उदाहरण है, जो जो परिवर्तन, लोप, पागम, श्रादेश, प्रत्यय, अथवा वणविकार श्रादि व्याकरण-सम्बन्धी व्यवस्थाएं हैं। वे सब की सब मागधी-भाषा के लिये भी हैं: ऐसा जानना चाहियं । पाठकों को चाहिये कि ये ऐमी परिकल्पना कर लें और तर्क पूर्वक इन्हें सम्यक प्रकार से स्वयमेव समझ लें ॥४-३०२।। इति मागधी-भाषा-व्याकरण-समाप्त Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६१ ] अथ पैशाची-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ ज्ञो नः पैशाच्याम् ॥ ४-३०३ ॥ पैशाच्या भाषायां शस्य स्थाने जो भवति ।। पआ। सम्आ। सध्वनो। आनं। विज्ञान ।। अर्थ:-पैशाची भाषा में संस्कृत शब्द-रूपों का रूपान्तर करने पर 'ज्ञ' के स्थान पर का' की । जन-. .. काय .. बुद्धि । (.) संज्ञा = सना नाम, भावना (३) सवज्ञ = मनमो = सब जानने वाला । (४) बानका ज्ञान और (५)विज्ञान-विज्ञान-विज्ञान । ॥४-३०३॥ राज्ञो वा चिञ् ॥ ४-३०४॥ पैशाच्या गज्ञ इति शब्द यो ज्ञकारस्तस्य चित्र आदेशो वा भवति ॥राचित्रा लपितं । रञा लषितं । राचिनो धनं । रञी धनं । ज्ञ इत्येव । राजा ॥ अर्थ:-संस्कृत-पद 'राज्ञ' में रह हुए 'ज्ञके स्थान पर पैशाची भाषा में विकल्प से 'चिय' वर्णो को आदेश-प्राप्ति होता है । जैसे:-राज्ञा लक्ति - राषिञा लमित-वैकल्पिक पक्ष होने से रुका लापित - राजा से कहा गया है। (२ राक्षः धनं - रावित्री धने-बकल्पिक पक्ष होने से रो धनराजा का धन' । प्रश्न:--' का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:-जहाँ पर 'राज' से संबोधन 'ज्ञ' का अभाव होगा वहां पर चित्र' की प्रामि नहीं होगी। जैसे:--'राज' शब्द से मृत्तीया विक्ति के एकवचन में 'गजा' रूप बनने पर भी इस 'राजा' पद का रूपां. तर पैशाची-भाषा में 'राजा' ही होगा। यो 'ज्ञ' की विशेष ग्थिात को जानना चाहिये ।। ४.३०४ ।। न्य-गयो नः॥ ४-३०५ ॥ पैशाच्या न्यायोः स्थान ओ भवति ॥ कञका । अभिमञ्च । पुज-कम्मो ! पुञआहे । ___अर्थ:--सस्कृत-भाषा के पदों में रहे हुए वर्ण न्यौं घोर 'एय' के स्थान पर पैशाची भाषा में 'य' की प्राप्ति होती है । जैसे:-(१, कन्यकाकनका = पुत्री। (२) भाभमन्यु अभिम - अर्जुन पाउन Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६२ ] * प्राकृत व्याकरण # •omeoneawwwesexstrorecorrtoonsernamroseworreekrrowroooooransar का पुत्र । (३) पुण्य कर्मा = पुश-कम्मो - पवित्र कर्म करने वाला । (४) पुण्याई - पुआहे - मैं पवित्र हूँ।४३०५॥ गो नः॥ ४-३८६ ॥ पैंशाच्या कारस्य नो भवति ।। गुन-गन-युत्ती । गुनेन ।। अर्थः-संस्कृत भाषा के शटरों में रहे हुए 'यार' के स्थान पर पैशा बो-भाषा में 'नकार' की प्राप्ति होती है । जैसे:-(१) गुण गण-युक्तः =गुन-गन युती = गुणों के समूह से युक्त । (२) गुणेन = सुनेन - गुण द्वारा-गुरु से ॥४-३०६ ।। तदोस्तः ॥४-३०७ ।। पैशाच्यां तकार-दकारयोस्तो भवति ।। तस्य । भगवती । पध्वती : मतं ॥ दस्य । मतन परवसो । सतनं । तामोतरी ! पतेतो , अतनक । होतु । रमतु !! तकारस्यापि तकार विधानमादेशान्तरबाधनार्थम् । तेन पताका बेतिसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति ।। अर्थः-संस्कृत-भाषा के शटदों में रहे हुए 'नकार कर्ण और दकार वर्ण के स्थान पर पैशाचीभाषा में 'तकार' की प्राप्ति होती है। यहां पर सकार' के स्थान पर पुनः 'नकार' का हो आदेश-शामि बतलाने का मुख्य कारण यह है कि पाठक सूत्र संख्या ४-२६० के विधान के अनुमार तकार' के स्थान पर 'दकार' को अनुपाति न कर । इस निर्देश के अनुमार 'पताका' के स्थान पर पताका ही होगा और 'वतिमा के स्थान पर 'स्सिा ही होगा। मूत्र-सम्बन्धित अन्य जदार इस प्रकार हैं:(१) भगवती भगवत्ती = देवना विशेष; ऐश्वयं शालिनी । (२) पार्वती = पध्वती - महादेवजी का पत्नी; पर्वत-पुत्री। (३) शंत - सतं = सौ का संख्या ।। द' से सम्बन्धित उदाहरण यों हैं:- (१) मदनपरवशः = मतन यरवसी कामदेव क वश में पड़ा हुआ । ( सदनम् = साननं = मकान, घर । (३) दामोदरः - तामोतरी = श्री कृष्ण वासुदेव का एक नाम ! १४ प्रदेशः = पतेसो-देश का एक भाग, प्रान्त-विशेष । (५) वदनकम् = वतन - मुख । ६) भवन = ( होदु ) = होतु - होवे । (७) रमताम् = (रमन) = रमनु = वह खेले ।। ४.३०७ ।। लो ळ: ॥४-३०८ ॥ पैशाच्या लकार स्य सकारी भवति ॥ सी । कुलं जळ . सांज । कम ॐ ॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'लकाः' वर्ण के स्थान पर पैशाची भाषा में 'ळ कोर' वर्ण की आदेश प्राति होती है. जैसे:- (१) शीलम = सीळ = शील धर्म, मर्याध । (२) कुलम = कृळे Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६३ ] Geomoooooooooooooooooootowwwworsensorrrrrrrromoswokrrowroseron -कुल अथवा कुटुंब । (३) जलम् =जळ = पानी। (४। सलिलम - सळिळं = जल अथवा कोड़ापूर्वक । (५) कमलम् = कमळ = कमल पद्म ॥ ४-३०० ।। श-षोः सः॥४-३०६ ।। पैशाच्या शषोः सो भवति ।। श । सोभति । सोभनं । स सी | सक्को। संखो ।प। विसमो। विसानो ॥ नकगचजादिपट्-शम्यन्त सूत्रोक्तम् (४-३२४) इत्यस्य बाधकस्य बाधनार्थोयं योगः॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'शकार' वर्ण और 'पकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची. भाषा में 'सकार' वर्ण की श्रादेश प्राप्ति होती है । 'श' के नाहर 43:-१) शोभति (अथवा शोभते) भितिवह शोभा पता है, वह प्रकाशित होता हैं। शोभनं = सोभमंन्शोभा स्वरूप ||18) शाशिः = ससी: चन्द्रमा । (४) शकः = सको = इन्द्र । (५) शेवः संखो-शंख || 'प' के उदाहरणः(१) विषमः = पिसमो - जो बराबर नहीं हो; जो अव्यवस्थिन हा । () विषाणः = विसानो = मींग ॥ इस अन्तिम उदाहरण में-'विषाण' में स्थित 'णकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची भाषा में 'नकार' वण को आदेश-प्रासि को जाकर ‘ण कार' की अभाव-सूचक जो स्थिति प्रदर्शित की गई है; उसका रहस्य बृत्त में सूत्र-संख्या ४.३२४ को उद्धृत कर के समझाया गया है । जिप्तका तापर्य यह है कि सूत्र-सख्या-१-१७७ में प्रारम्भ करके सूत्र संख्या १-२६५ तक का संविधान पैशाची भाषा में लागू नहीं पड़ता है । इस विशेष स्पष्टीकरण मागे सूत्र-संख्या-४-३२४ में किया जाने वाला है। तदनुसार 'ए कार के स्थान पर 'नकार' को स्थिति का जानना चाहिये । यो यह सूत्र चाधक स्वरूप है और इस प्रकार यह इस बाधा को उपस्थित करता है ।। ५.३०६ ।। हृदये यस्य पः ।। ४-३१० ॥ पैशाच्या हृदय-शब्दे यस्य पो भवति ॥ हितपक। किपिकिं वि हितपके अत्थं चिन्तयमानी ।। अर्थ:--संस्कृत भाषा के शब्द 'हृदय' में अवस्थित 'य कार' वर्ण के स्थान पर पैशाची भाषा में 'पहार'वछ को आदेश प्राप्ति हो जाता है । जैसे:-हृदयकम् =हितपकं - हृदय; दिन । किमपि किमपि के अर्थम् चिन्तयमाणी-कि पिकि पि हितपके अत्थं चिन्तयमानी-हदय में कुछ भी कुछ मा(भपष्ट छा)मर्थ को सोचती हुई । यो 'य' का 'प' हपा है ।। ४-३० ।। टोस्तु ॥ ४-३११ ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६४ ] * प्राकृत व्याकरण * ++otho+00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000+m पैशाच्या टो: स्थाने तुर्वा भवति ॥ कुतुम्बकं । कुटुम्बकं ।। __ अर्थ:---संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'दकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची भाषा में 'तु' वर्ण को विकल्प से प्रादेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-कुटुम्बकम् - कुतुम्बकं अथवा कुटुम्बकं = कुटुम्ब वाला क्व स्तूनः ॥ ४-३१२ ॥ पैशाच्या क्त्वा प्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशो भवति || गन्तून । रन्तून । हसितून । पठितून । कधितून ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में संबंध-अवेक कृदन्त बनाने के लिय धातुओं में जैसे 'क्या' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। वैसे ही पैशाचा-भाषा में उन कत्रा' प्रत्यय के स्थान पर 'तून' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) गत्वा गन्तून - जाकर के। (२) रवा-रन्तुन = रमण करके । (३) हासत्ता हसितन - हँस कर के । (४) कथयिषा कथितन-कह कर के; (५ पठित्वा = पठिनून = पढ़ कर के; इत्यादि ।। ४.१२ ।। धून-त्थू नौ ष्ट्वः ॥ ४-३१३ ।। पैशाच्या ष्ट् वा इत्यस्य स्थाने धून त्थून इत्यादेशौ भवतः । पूर्वस्यापत्रादः । न टून । नत्थून । तदून । तत्धून ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में 'वस्वा प्रत्यय के स्थान पर प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'ष्ट्वा' के स्थान पर पैशाचा-भाषा में 'दून और न्यून' ऐसे दो प्रत्यप-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। यह सूत्र पूर्वोक्त सूत्रसंख्या ४-३१२ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है। उदाहरण यों है:-(१) नष्ट्वा - नटुन अथवा नत्थून नाश कर के । (२) सष्टया = तन अथवा तत्थून = तात्र करके । ॥ ४-३ ॥ र्य-स्न-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित् ॥४-३१४ ॥ पैशाच्या यं स्नष्टां स्थाने यथा-संख्यं रिय सिन सट इत्यादेशाः क्वचिद् भवन्ति ।। भार्या । मारिया । स्नातम् । सिनातं । कष्टम् । कसट ।। क्वचिदिति किम् । सुनो । सुनुसा। तिट्ठी ॥ __ अर्थ -संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'यं' 'स्न' और 'ट' के स्थान पर पैशाची-भाषा में इसी कम से 'रिय', 'सिन' और 'सट' का प्राप्ति कहीं-कहीं पर देखो जाती है । जैसे:-(१) भार्या भारया Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६५ ] +00000000+torrosecorrrorroneestoresrookerosorrorisetorersorr.0000000m पत्नी । (२) स्नातम् = सिनातम्मान किया हुआ । धुलाया हुश्रा और (३) कष्टम् = कसदं = पोड़ा, वेदना ।। प्रश्न:-'कहीं-कहीं पर हो होते हैं; ' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-क्यांकि अनेक शब्न में 'य' 'मन' और ट' होने पर भी 'रिय', 'सिन' और 'मद की प्राप्ति होती हुई नहीं देखा जाता है। जैसः--(१) सूर्यः = मुज्जी-सूरज । (२) स्नुषा= मुनुस्सा - पुत्रवधू । ३) तुष्टः = निठी प्रसन्न हुश्रा, संतुष्ट हुआ ॥ ४-३१५ ।। क्यस्येय्यः ॥ ४-३१५ ॥ शाच्यां क्य प्रत्ययस्य इग्य इत्यादेशो भवति ॥ गिम्यते । दिग्यते । रमिय्यते । पठिय्यते ॥ अर्थः-सस्कृत भाषा में कमी-प्रयोग-भावे प्रयोग के अर्थ में 'क्य -- य' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; नदनुमार उक्त 'य' प्रत्यय के स्थान पर पैशाचा-भापा में 'इश्य' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:(१) गीयते -गिय्यते = गाया जाता है। दीयत दिव्यते = दिया जाता है। (३) रम्यते = रभिश्यते = खेला जाता है और (४) पठयत = पठियपते = पढ़ा जाता है; इत्यादि ।। ४-३१५ ।। कृगो डीरः ॥ ४-३१६ ॥ पैशाच्या कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डोर इत्यादेशो भवति ॥ पृधुमतंसने सन्बम्सव्यव संमानं कोरते ।। अर्थः -पैशाची भाषा में कर्माण प्रयोग, भावे प्रयोग के अर्थ में कृ धातु में 'क्य = य' प्रत्यय के स्थान पर 'डार = ईर प्रत्यय का आदेश-प्राप्ति होता है । प्रात प्रत्यय 'टोर में स्थित 'डकार' इन्संज्ञक होने सं 'कृ' धातु में अवस्थित अन्त्य र 'ऋ' का लोप हो जाता है और यो अवशेष हलन्त धातु 'क' में उक्त 'इंस' प्रत्यय की प्रात होगी। उदाहरण यों है:--प्रथम-दर्शने सर्वस्य एवं सम्मान कियते = पुष मतंसने सच्चस्स य्येव समान कीरते = प्रथम दर्शन में सभी का सम्मान किया जाता है। ४.३१६॥ . यादृशादे दुस्तिः ॥ ४-३१७ ॥ पैशाच्या यादृश इत्येवमादीनां है' इत्यस्य स्थाने तिः इत्यादेशो भवति ।। यातिसी। तातिसो । केतिलो । एतिसो । भवातिसो । अमातिसो । युम्हातिमी अम्हातिमो ॥ अर्थ:--संस्कृत-भाषा में 'यादृश, तादृश' आदि ऐसे जो शब्द हैं; इन शों में अवस्थित 'ह' के स्थान पर पैशाची-भाषा में सि' वर्ण को आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) याता: = यातिसी= Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = [ ४६६ ] * प्राकृत व्याकरण * जिसके समान । जैसा । (२) तादृशः = तानिसके समान वैमा। (३) कीदृशः = केतिस्रो = किसके समान | कैमा । (४) इदृशः = एतिसी = इसके समान, ऐसा । (५) भवादृशः =भवातिसी = आप के समान आप जैसा। (६) अन्यादृशः = अनातिसन्य के समान दूसरे के जैना । (७) युष्मादृशः = युम्हार्तिसो = तुम्हारे समान तुम्हारे जैसा । (5) अस्मादृशः = अम्हातिसो = हमारे समान - हमारे जैम्मा । इत्यादि ।। ४-३१७ ।। इ चेवः ॥ ४-३१८ ॥ पैशाच्या मिचेचोः स्थाने तिरादेशो भवति । वसुनाति । मोति । नेति । तेति ॥ अर्थः- प्राकृत भाषा में वर्तमानकाल के अन्य पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्थान पर पैशाची भाषा में 'ति' प्रत्यय का आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- वाति = वमुआइ = वसुआति वह सूखता है । भवड़ = भवति = भांति = वह होता है। इनयति नंति वह ले जाता है । दाइ ददाति = तेति = वह देता है ।। ४-३२८ ॥ आ -ते श्र ॥। ४-३१६ ॥ " पैंशाच्यामकारात् परयोः इ चे चोः स्थाने ते व कारात् तिश्वादेशो भवति ॥ लपते । लपति | अच्छते । अच्छति । गच्छते । गच्छति । रमते रमति ॥ आदिति किम् । होति । नेति ॥ अर्थ:- प्राकृत भाषा में वर्तमानकाल के अन्य पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और '' के स्थान पर अकारान्त-धातुओं में पैशाची भाषा में 'ते' प्रत्यय को और 'ति' प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति होती है। दोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की अकारान्त धातुओं में संयोजना की जा मकती है । अकारान्त के सिवाय अन्य स्वपन्त धातुओं में केवल 'ति' प्रत्यय की ही प्राप्ति होगी। लैमा कि सूत्रसंख्या ४-३१८ में समझाया गया है। उदाहरण यों है: - ( १ ) पति पते अथवा लपति = वह स्पष्ट रूप से बोलता है | ( ) आस्ते = अच्छइ -अच्छते अथवा अच्छति = वह बैठता है अथवा हाजिर होता है । (३) गच्छति गच्छइ = गच्छते अथवा गच्छति = वह जाता है। (४) रमते = रमइ - रमते अथवा रमति = वह खेलता है-वह क्रीड़ा करता है ।। प्रश्नः—' अकारान्त-धातुश्रीं' में हो ते' और 'ति' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों लिखा गया हूँ ? उत्तरः —अकारान्त धातुओं के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में ते' प्रत्यय की प्राप्ति कदापि नहीं होती है; उनमें ता केवल 'ति' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है; इसलिये 'अकारान्त-वातुओं का नाम Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४६७ ] निर्देश किया गया है। जैसे:- भवति = होइ होति - वह होता है। यहां पर 'हो' धातु श्रकारान्त होने से 'होते' रूप की प्राप्ति नहीं होगी। दूसरा उदाहरणः - नयति यो नेति = वह ले जाता है । यहाँ पर माँ 'ने' धातु एकारान्त होने से इसका रूप 'नेते' नहीं बनेगा | यो सर्वत्र प्रकारान्त वातुओं की और अन्य स्वरान्त धातुओं की स्थिति को पल' अथवा 'ते' प्रत्यय के संबंध में स्वयमेव समझ लेनी चाहिये ।। ५-२१६ ॥ *********** - भविष्यत्येय्य एव ।। ४-३२० ॥ पैशाच्या मिचेचो : स्थाने भविष्यति एय्य एव भवति न तु स्मिः ॥ तं तदून चिन्तितंत्र का ऐसा हुवेश्य || अर्थ. - संस्कृत भाषा में भविष्यत्काल के अन्य पुरुष के एकवचन में 'ध्यति' प्रत्यय होता है, इसो 'ष्यति' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'हिइ और हिर' हो जाता है; परन्तु पेशाची भाषा में इन 'हिइ और हिए' प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'एय्य ऐसे एक ही प्रत्यय की प्राप्ति होती है। यों ''यति' प्रत्यय से नियमानुसार प्राप्त होने वाले 'हिंस' अक्षरात्मक प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति नहीं होगी। जबकि शौरसेनी भाषा में सूत्र संख्या ४-२७५ से भविष्यत् काल के अर्थ में ( वत्र्तमान-कालीन प्रत्ययों के पूर्व ) 'रिस' प्रत्ययांश की प्राप्ति होती है। वास्तव में यह 'य' प्रत्यय रूप नहीं होकर प्रत्यय के अर्थ में 'माकेतिक अक्षर पमूह 'मात्र हो हूँ । यो प्राप्तव्य प्रत्यय-रून 'एयय' को धातुओं में जोड़ने के समय में धातुओं में रहे हुए अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है । यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये। जैसेवाचिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यात = तं तन चिन्तितं रा का एसा दुय्य=पस चित्र को देख कर के राजा से सोचा गया (की) ऐसी स्त्री कौन होगी ? यहाँ पर 'भविष्यति' पद के स्थान पर 'दुवेय' ऐसे पद-रूप की प्राप्ति हुई है ।। ४-३२० ॥ तो इसे र्डातोडातु ॥ ४-३२१ ॥ पैशाच्यामकारात् परस्य ङसेडितो तूरा तो ययेव तिड्डो | तूरातु । तुमाती । तुमातु । ममातो | ममातु || तो ऋतु इत्यादेशौ भवतः ॥ वाच च तीए अर्थ:- पैशाची भाषा में पंचमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में 'डातो - श्रतो' और 'हा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती हैं। 'डातो और डातु' प्रत्ययों में 'डकार' इत्संज्ञक होने से अकारान्त-शब्दों में रहे हुए अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है । तत्पश्चात् हलन्त रूप से रहे हुए शब्दों में 'wal और आतृ प्रत्ययों की संयोजना की जाती हैं। जैसे:- (१) तावत च तथा दूरात् एव हृष्टः = तावच तीए नूराती प्येव तिठो और तब तक दूर से ही बस (श्री) से देखा गया (२) = Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६८ ] * प्राकृत व्याकरण * 00000000000000rstrarat00000rrentrorstv.0000000pcorsonsorseonto001 दूरात - तुरातु = दूर से । (३) त्वत् = तुमातो, तुमातु = तेरे मे-तुझ से। (४) मत-ममाती, ममान = मेरे से-मुझ से ।।। ४.३२१ ॥ त दिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए ॥ ४-३२२ ॥ पैशाच्यां तदिदमोः स्थाने टा प्रत्ययेन सह नेन इत्यादेशो भवति ॥ स्त्री लिंगे तु नाए इत्यादशो भवनि ।। तत्थ च नेन कत-सिनानन ॥ स्त्रियाम् । पूजिता च नाए पातग्गकुसुमपत्तानेन । टेति किम् । एवं चिन्तयन्ती गतो सो ताए समीपं ।। अर्थ:-पैशाची भाषा में 'सत्' सर्वनाम और 'इदम' सर्वनाम के पुल्लिग रूप में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय सहित अर्थात 'अंग + एयश नं. प्रधान से मादेश-नानी है। जैसेः- (१) तद् + टाम्ते न - नेन = उस (पुरुष) स । (२) इदम् +21 - अमेन - नेन-इम (पुरुष) सं। इसी प्रकार से उक्त 'तद् और इदम्' नामों के स्त्री जिंग रूप मा तृगया-विभक्त के पकवचन में 'टा' प्रत्यय सहत (अर्थात अंग और प्रत्यय दोनों के स्थान पर) 'नार का श्रादेश-प्राःम होती है जैसे:-(१) तद् + टा= तया - नाए = उम (स्त्री) स । (२) इदम् + टा = अनया-नाए = इस (स्त्री) सं ॥ अन्य समाहरण इस प्रकार से हैं;-(१) तत्र घ तेन कृतस्नाने तत्थ च नेन कत-नान और वहाँ पर स्नान किए हुए उस (पुरुष) से । (२) पूजित तया पादाय (प्रत्यग्र)-कुसम-प्रदानेन-पूजिती च नाए पातरम कुसुम प्यतामेन - और वह पैरों के अग्र भाग में फूलों के समर्पण द्वारा उस (स्त्री) से पूजा गया । प्रश्न:-मूल सूत्र में 'टा ऐसे तृतीया-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय को क्या संग्रहित किया गया है? उत्तर:-'तद' और 'इदम' भवनामों की अन्य विभक्तियों में इस प्रकार 'अंग और प्रत्यय' के स्थान पर उक्त रीति से बने बनाये 'रूपों की प्राप्ति नहीं होता है; इसलिये जिस विभक्ति में बनती हो, उप्ता विभक्ति का उल्लेख किया जाना चाहिये; तदनुसार ततीया-विभक्ति में ऐसा होने से मूल सूत्र में यों तृतीया-विभक्ति के एकवचन के सूचक 'टा' प्रत्यय का संग्रह किया गया है। उदाहरण यों है:एवं चिन्तयतो गतो सः तस्याः समीप एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीप-इम प्रकार से विचार करता हुश्रा वह उस (स्त्रो) के दाम में गया। यहाँ पर 'ताए' में षष्ठी विभक्त है अत: 'नाए' रूप की प्रानि यहाँ पर नहीं हुई है। यों 'नाए' रूप की प्राप्ति कंवल 'टा' प्रत्यय के साथ में ही जानना चाहिये । ॥४-३२२।। शेषं शौरसेनीवत् ॥ ४-३२३ ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६६ ] ownedroornvrrrrrrrr...... पैशाच्या यदुक्तं ततोन्यच्छेषं पैशाच्या शौरसेनी बद् भवति ॥ अध ससरीरो भगवं मकर-धजो एत्थ परिम्भमन्तो हुबेष्य । एवं विधाए भावनीर कधं तापस-वेस-गहन कतं ॥ एतिसं अतिह-पुरवं महा धनं तध्दन । भगवं यति मं वरं पयच्छमि राजं च दार लोक । ताव चतीए तूरातो गयेव तिट्टो सो आगच्छमानो राजा ॥ अर्थः-पैशाची-भाषा में अन्य भाषाओं की अपेक्षा से जो कुछ विशेषताएँ हैं; वे सूत्र-संख्या ४-३०३ से ४.३५२ तक के सूत्रों में बतला दी गई है। शेष सभी विधि विधान शौरसेनी-भाषा के समान हो जानना चाहिये । शौरसेनी-भाषा में भी जिन अन्य भाषाओं के विधि विधानों के अनुपार जो कार्य होता है; उस कार्य को अनुवृत्ति भी इस पैशाची-भाषा में विवेक-पूर्वक कर लेनी चाहिये । जो विधि पैशाची-भाषा में लाग नहीं पडने वाला है: चमका कथन भागे श्रानेवाले सुत्र-संख्या ४-३२४ में किया जाने वाला है ! वृत्त में पैशाची मामा और शोरोनी भाषा की तुलना करने के लिये कुछ उदाहरण दिये गये हैं। उन्हीं को यहाँ पर पुन: उद्धृत किया जा रहा है, जिनसे तुलनात्मक स्थिति का कुछ आभास हो सकेगा। (१। अथ सशरीरो भगवान मकरध्वजः अत्र परिभ्रमन्तो भविशति अव सस. रीरी भगवं मार-धजो एत्य परिकम मन्ती हुवेश्य = अब इसके बाद मूर्तिमन्त होकर भगवान कामदेव यहाँ पर परिभ्रमण करते हुए होंगे। (२) एवं विधवा भगवत्या कथं तापस-वेश-ग्रहणं कृतम् = एवं विधाए भगवतीए कधं तापस-वेस गहनं कतं = इस प्रकार की ( श्रायु और वैभव पाली) भगवती से ( राज कुमारो धादि रूप विशेष श्री से ) कैसे तापस वेश (सात्रीपना) प्रहण किया गया है। (३) ईदृशं अष्टपूर्ण महाधनं दृष्ट्वा एतिस तिट्ट-युर व महा धन सधन = जिप्तको पहिले कभी मी नहीं देखा है, ऐसे महाधन को ( विपुल मात्रा वाले और बहु मूल्य वाले धन को ) देख कर के। भगवन! यदि माम् परं प्रयच्छसि राज्यं च तावत् लोकम् = भगवयात में घरं ययच्चसि राजंचताष लोकहे भगवान् ! यदि आप मुझे वरदान प्रदान करते है तो मुमे लोकान्त तक का राज्य प्राप्त होवे । (५) तावत् च तया दूपत् एव दृष्टः सः आगच्छमामो राजा-ताष च तीए तूरातो प्येष तिठ्ठो सो आगच्छमानो राजा-तब तक श्राता हुआ वह राजा उसपे दूर से ही देख लिया गया। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पैशाची भाषा में शेष सभी प्रकार का विधि-विधान शौरसेना के समान ही होता है ।। ४-३२३ ।। न क-ग-च-जादि-पट्-शम्यन्तसूत्रोक्तम् । पैशाच्या क-ग-च ज-त-द-प-य-वां ॥४-३२४ ।। प्रायो लुक (१-१७७) इत्यारभ्य षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपर्णेष्वादेश्छः (१-२६५) इति यावद्यानि सूत्राणि तैयदुक्तम् कार्य तम भवति ।। मकरकेतू । सगर-पुत्त-वचनं । विजय सेनेन लपितं । मतनं । पापं । आयुध । तेवरो ।। एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि दृष्टव्यानि ।। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७. ] * प्राकृत व्याकरण * Commro000000000000000rsortamoortoors..000000000000000000000000 अर्थ:-प्राकृत भाषा में सूत्र संख्या १-१७७ से प्रारम्भ कर के सूत्र-सखया १-२६५ तक जो विधिविधान एवं लोप पागम श्रादि की प्रवृत्ति होती है, वैसी प्रवृत्ति तथा घसा लोप-पागम श्रादि सम्बन्धी विधि-विधान पैशाची भाषा में नहीं होता है । इसका बराबर ध्यान रखना चाहिये । उदाहरण यों हैं:(१) मकर-केतः = मकरकेतू । इम उदाहरण में प्राकृत भाषा के समान क' षण के स्थान पर 'ग' वण की प्राप्ति नहीं हुई है । (मार-पुत्र-तन - सार-उस-नम:- पगर राजा के पुत्र के वचन । यहाँ पर भी 'ग' कार तथा 'च' कार वर्ण को लोप नहीं हुआ है। (३) विजयसेन लपितं -विजयसेनेन लपित = विजयसेन से कहा गया है। इस में 'जकार' वण का लोप नहीं हुआ है । (४) मदन-मननमदन काम देव को । यहां पर 'दकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है, परन्तु सूत्र-संख्या ४-३०७ से दवणे के स्थान पर 'त' वर्ण की प्रामि हुई है। (५) पाप-पाप-पाप। यहाँ पर भी 'प' कार वर्ण के स्थान पर 'वकार' वर्ण की प्राप्ति नहीं हुई है। आयुध-आयुध =शस्त्र विशेष । यहाँ पर 'यार' प्रण के स्थान पर 'यकार' वर्ण ही कायम रहा है (७) देवर:= तेवरी पति का छोटा भाई । यहां पर भी 'कार' के स्थान पर सूत्र संख्या ४-३०७ से 'त' कार वण की प्राप्ति हुई है। यों अन्यान्य उदाहरणो की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये । इस प्रकार से सूत्र-संख्या ९-१७७ से सूत्र-संख्या १.२६५ तक में वर्णित विधि-विधानों का पैशाची भाषा में निषेध कर दिया गया है ।। ४-३.४॥ इति पैशाची-भाषा-व्याकरण-समाप्त Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७१] .0000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000अथ चूलिका-पैशाची-भाषा-व्याकरण प्रारम्भ चूलिका पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ ॥ ४-३२५ ॥ चूलिका पैशाचिके वर्गाणां तृतीय-तुर्ययोः स्थाने यथासंख्यमाद्यद्वितीयौ भवतः ।। नगरं । नकरं ॥ मार्गणः। मक्कनो । गिरितटम् । किरि-तट ।। मेघः । मेखो ॥ व्याघ्रः । वक्खो ॥ धर्मः । खम्मो ।। राजा । राचा ॥ जर्जरम् । चच्चरं । जीमूतः । चीमृतो ॥ निरः । निच्छरो ।। झझरः । छच्छरो ।। तडागम् । तटाकं ॥ मंडलम् । मंटलं ॥ डमरुकः । टमरुको ।। गाढम् । काठं ॥ पकः । संठो । ढक्का | टका ! मदनः । मतनो ॥ कन्दर्पः । कन्तप्पो ॥ दामोदरः । तामोतरो ॥ मधुरम् । मधुरं ॥ बान्धवः । पन्थयो ॥ धूली । धूली ॥ बालकः । पालको । रमसः । रफमो || रम्भा । रम्फा ॥ भगवती । फायती ॥ नियोजितम् । नियोचितं ।। कचिलाक्षणिकस्यापि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा | दादा इत्यस्य स्थाने ताठा ॥ अर्थ:-चूलिका-पैशाचिक भाषा में क धरा से प्रारम्भ करके प वर्ग तक के अक्षरों में से वर्गीय सृतीय अक्षर के स्थान पर अपने ही वर्ग का प्रथम अक्षर हो जाता है और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर अपने ही वर्ग का द्वितीय अक्षर हो जाता है। क्रम से इस सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार हैं:-{१) 'ग' कार के उदाहरण-(अ) नगरम्-नकर शहर । (ब) मार्गणः =मक्कनो-याचक-मरंगनेवाला । (स) गिरि-तटम्-किरि-तदं- पहाड़ का किनारा ।। ('च' कार के उदाहरणः-(अ) मेघः मेखोन्बादल । (ब) व्याघ्रः = पक खो-शेर-चित्ता (स) धर्मः खम्मो-धूप ।। (३) 'ज' कार के उदाहरण:--(अ) राजा-राषा-राजा-नपति (ब) जर्जरम = चच्चरं = कमजोर, पीड़ित । (स) जीमूतः - चीमूतो = मेघ बादल । (४) 'झ' के पदाहरणः-शाहरः - छच्छरो झांझ-बाजा विशेष । निर्झरः = निच्छरोझरना-नीत ॥ (५) 'डकार' के उदाहरणः-(अ) तडागम् = तटाकै = तालाब। (ब) मंडलम् - मंटलं =समूह, अथवा गोल । (स) उमरूकः = दमरूको-याजा विशेष ।। (६) 'ढकार' के उदाहरणः(अ) माढम् = काठं = कठिन-मजबूत । (घ) पण्डः =सण्ठी - नपुसक । (स) ढक्का = ठक्का = बाजा विशेष (9) 'कार' के उदाहरण:-(अमदनः मतनोकामदेव । (ब) कन्दर्पः = कन्तप्पो = कामदेव । (स) दामोदरः = तामातरो= श्रीकृष्ण-वासुदेव ॥ (८) 'धकार' के उदाहरण:-(अ) मधुरम् = मथुरं-मोठा । (घ) बान्धवः - पन्थवो =भाइ बन्धु । (स) धूली-थूली =धूल-रज (E) 'स' का उदाहरण:- बालकः =पालको बच्चा । (१०) 'भकार' के उदाहरणः-(ब) रभसः - रफसा सहसा, एकदम । (ब) रम्भा = रम्फा = अप्सरा विशेष । (स) भगवती = फायती देवी, श्रीमती (११) 'जकार' का उदाहरण:-नियोजितम् =नियोचित = कार्य में लगाया हुआ । - - "- ""-' . - . - . ...- - - M A LED Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७२ ] * प्राकृत व्याकरण * कहीं कहीं पर व्याकरण से सिद्ध हुप प्राकृत-शब्दों में भी तृतीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर की प्राप्ति हो जाती है और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर द्वितीय-अक्षर हो जाता है। जैसे:-प्रतिमा = पडिमा=पटिमा - मूर्ति अथवा श्रावक साधु का धर्म विशेष । (२) दंष्ट्रा-डाढा ताठा = बड़ा दांत अथवा दांत विशेष ॥ ४-३२५ ।। रस्य लो वा ॥ ४-३२६ ॥ चूलिका-पैशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति । पनमथ पनय-पकप्पित-गोली-चलनग्ग-लम्ग-पति-विबं ।। तससु नखतप्पनेसु एकोतस-तनु-थलं लुर्द । नवन्तस्य य लीला-पातुक्खेवेन कपिता वसुथा । उच्छल्लन्ति समुदा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ अर्थ:-चूलिका-पैशाचिक-भाषा में 'रकार' वर्ण के स्थान पर 'लकार वर्ण को विकल्प से श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसाकि उपरोक्त गाथा में '(३) गौरागगोलो, (२) चरण - चलन, (३) तनु-धुर-तनुभलं, (8) रुद्रम् = लुई और हरं = हल' पदों में देखा जा सकता है। इन पांच पदों में 'रकार' वर्ण की स्थान पर 'लकार' वर्ग की श्रादेश प्राप्ति की गई है। उपरोक्त गाथाओं की संस्कृतछाया इस प्रकार से है: प्रणमत प्रणय-प्रकुपित-गोरी-चरणान-लग्न-प्रतिबिम्बम् । दशसु नख-दर्पणेषु एकादश तनुधरं रुद्रम् ॥ १ ॥ नृत्यतश्च लीलापादोत्क्षेपेण कविता वमुधा । उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमन ।। २ ।। अर्थ:-उस 'हर-महादेव' को तुम नमस्कार करो, जो कि प्रेम क्रियाओं से कोधित हुई पार्वती के चरणों में ( उसको प्रसन्न करने के लिये ) झुका हुआ है और ऐसा करने से पार्वती के पैरों के दश ही नख-रूपी दश-दर्पणों में जिस ( महादेव } का प्रतिबिम्म पड़ रहा है और यों हो (महादेव) इस नखों में दश शरोर वाला प्रतीत हो रहा है और ग्यारहवां जिस (महादेव । का खुद का (मूल) शरीर है, इस प्रकार जिस (महादेव) ने अपने ग्यारह (एकादश) शरीर बना रखे हैं। ऐसे रु-शिव को तुम प्रणाम करो॥१॥ "विलक्षण' नृत्य करते हुए और कीड़ा-वशात पैरों को अचिंत्य ढंग से फेंकने के कारण से जिमने पृथ्यो को भी कंपायमान कर दिया है और 'नत्य तथा क्रीड़ा' के कारण से समुद्र भी उछल रहे हैं, एवं पर्वत भी टूट पड़ने की स्थिति में हैं। ऐसे महादेव को तुम नमम्कार करो ।। २॥ ४-१२६ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी च्याख्या सहित * [ ४७३ ] 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नादि-युज्योरन्येषाम् ॥ ४-३२७ ।। चूलिका-पैशाचिके पि अन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीय तुर्यथोरादौ वर्तमानयो युजि धातौ च श्राध-द्वितीयौ न भवतः ॥ गतिः । गती ॥ धर्मः धम्मो ॥ जीमूतः जीमूतो ।। झझरः । मच्छरो ॥ डमरूकः डमरूको ।। ढक्का । ढक्का ।। दामोदरः । दामोतरी ॥ बालकः । चालको ॥ भगवती । भकवती ॥ नियोजितम् । नियोजितं ।। ___ अर्थ:-अनेक प्राकृत-गाकररग के बनाने नाले आचार्यों का मन है कि चूल हा-पैशाचिक-मापा मे कवर्ग से प्रारम्भ करकं पवगे तक के तृतीय अक्षर अथवा चतुर्थ अक्षर यदि शरद के आदि में रहे हुए हो तो इनके स्थान पर सूत्र-संख्या ४-३२५ से क्रम से प्रामध्य प्रथम अक्षर के तथा द्वितीय द्यर की प्राप्ति नहीं होता है । अर्थात सृतीय पक्षर के स्थान पर तत्तीय ही रहेगा और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर चतुर्थ अहार ही रहेगा । इसी प्रकार से जोड़ना-मिलाना' अर्थक धातु 'छु ।' में रहे हुए 'जकार' वर्षों के स्थान पर भो 'चकार' वर्ण की प्राप्ति नहीं होगी । यो इन श्राचार्यों का मत है शिन में अनादि रूप से और असंयुक्त रूप से' रहे हुए वावि ततोय तथा चतुर्थ अक्षरों का स्थान पर कम से अपने हो वर्ग के प्रथम तथा द्वितीय साक्षर की प्रालि होती है । उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:--1) गतिः =गती-चाल । (२) 'च' का: वर्भ:- घम्मो - धूप। ।३) 'ज' का:-जीमूतः - जीमूतो= मेघ-बाल। (४) 'झ' काः - अधरः = मच्छरो-माझ बाजा विशेष । (५) 'ड' का'-डमरूकः = डगरूको शिवजो का बाजा विशेष । ६) 'ढ' का-ढक्का-ढक्का - बाजा विरंपा (8) 'द' का:--- दामोदरः =दामोतरो- श्रीकृष्ण वासुदेव । (८) च' का:-बालकः = बालको = नया । (६) 'भ' का:भगवती भवती देवी, श्रीमती । और (१०) 'युज्' धातु काः-नियोजिप्सम-नियोजितं = जोड़ा हुआ॥४-२७॥ शेष प्राग्वत् ॥४-३२८ ।। चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्थयोरित्यादि यदुक्तं ततोन्यच्छेष प्राक्तन पैशाचिक वत् भवति ॥ नकर । मकनो ॥ अनयोनों णत्वं न भवति । णस्य च नत्वं स्यात् ॥ एवमन्यदपि ॥ अर्थः-चूलिका-पैशाचिक-भाषा में ऊपर कहे हुए सूत्र संख्या ४-३२५ से ४ ३.७ तक के मूलों में चर्णित विधि-विधानों के अतिरिक्त शेष सभी विधि-विधान पैशाचिक भाषा के अनुसार ही जानना चाहिये । 'नकर' ( = नगर-शहर ) में रहे हुए 'नकार' के स्थान पर और 'भस्कनी'( मार्गणः = याचक-भिखारी) में रहे हुए 'नकार' के स्थान पर चूलिका पैशाचिक-भाषा में कार की प्राप्ति नहीं होती है। इस भाषा में 'णकार' के स्थान पर 'नकार' की प्राप्ति होती है। यों पैशाचिक पापा में शोर Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७४ ] चूलिका-पैशाचिक भाषा में परस्पर में अन्य विधि-विधानों द्वारा होने वाले परिवर्तनों की संप्राप्ति की कल्पना भी स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐमी विशेष सूचना प्रन्थकार वृत्ति में 'एत्रमन्यदपि शब्दों द्वारा दे रहे हैं ।। ४-३२६ ॥ * प्राकृत व्याकरण * 0804868444 इति चूलिका - पैशाची - भाषा-व्याकरण- समाप्त Y Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७५ ]] अथ अपभ्रंश-भाषा-व्याकरण-प्रारंभः स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रशे ॥ ४-३२६ ॥ अपभ्रशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः भवन्ति ।। कच्चु । काच्च ।। वेण । वीण ॥ बाह : बाहा बाहु ।। पछि । पिटि । पुद्धि ॥ तणु। तिणु । तृणु । सुकिदु । सुकिओ । सुकृत् ॥ किनो । किलिनमो || लिह 1 लीह । लेह ॥ गरि । गोरि ॥ प्रायोग्रहणावस्यापनशे विशेषो बन्यते, तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनी वच्च कार्य भवति ॥ __ अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में संस्कृत-भाषा के शब्दों का स्पान्तर करने पर एक ही शरद में एक ही म्वर के स्थान पर प्रायः विभिन्न विभिन्न स्वरों की प्राप्ति हुआ करती है और यो विभिन्न स्वर-प्राप्ति से एक ही शब्द के अनेक रूप हो जाया करते हैं । क्रम से उदाहरण इस प्रकार से हैं:संस्कृत-शब्द = अपभ्रंश-रूपान्तर हिन्दी (१) कृत्य - कच्चु और काद - काम। (२) वचन = वेण और वीण = वचन। (३) राहु = बाह, बाहा और बाहु सुजा। (४) पष्ठ - पट्टि, पिट्टि और पुट्टि - पाठ (५) तृण = तणु, तिगु और मृणु = तिनका। (६) सुकृत= सुकिदु और मुकिमो तथा सुकूदु, - अच्छा काम । (७) क्ल = किन्नश्रो तथा क्रिलिन्नो =गोल, भीगा हुआ। (८) लेखा= लिइ, लीह और लेह = लकीर चिन्ह । (१) गौरी: गरि और गोरि - सुन्दरी अथवा पार्वती ।। इन उदाहरणों से विदित होता है कि अपभ्रंश-भापा में एक ही स्वा के स्थान पर अनेक प्रकार के स्वसें की प्राप्ति हुई है । मूल सूत्र में जो 'प्रायः' 'अन्यय ग्रहण किया गया है, उप्त का तात्पर्य यही है कि अपभ्रंश-भाषा में स्वर-सम्बन्धी जो अनेक विशेषताऐं रही हुई हैं, उनका प्रदर्शन आगे श्राने वाले सूत्रों में किया जायगा । तदनुसार अपभ्रंश-भाषा में शब्द-रचना-प्रवृत्ति कहीं कहीं पर प्राकृत्त-भाषा के अनुसार होती है और कहीं कहीं पर शौरसेनी भाषा के समान भी हो जाया करती है । यह सब मागे यथा स्थान पर दशोया जावेगा; इस तात्पर्य को 'प्रायः' अव्यय से मूल-सूत्र में समझाया गया है ॥ ४-३२६ ।। स्यादौ दीर्घ-हृस्वौ ॥ ४-३३० ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७६ ] * प्राकृत व्याकरण * .0000000000000000+etreamsootrotrartooto00000000000000000 अप-भ्रशे नाम्नोन्त्यस्वरस्य दीर्व-हस्यौ स्यादौ प्रायो भवतः ॥ सौ ॥ ढोला सामला धण चम्पा-चपणी ॥ गाइ सुवण्णा रेह कस-बदा दिपणी ॥१॥ श्रामन्त्र्ये ।। बोल्ला मई तु हुँ बारिया, माकुरू दीहा माणु ॥ निदए गमिही रत्तडी, दडवड होइ विहाणु ॥ २ ॥ स्त्रियाम् ।। बिट्टीए ! मइ भणिय तु हुँ, माकूरू बंको दिहि। पुत्ति ! सकएणी भलि जिग मारइ हिइ पइहि ॥ ३६ जमि ॥ एइ ति छोडा, एह थलि, एह ति निसिया खम्म ।। एल्थु मुणी सिम जाणिअइ जो न वि वालइ वग्ग ॥ ४ ।। एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहायम् ।। अर्थ:--अपभ्रंश भाषा में संज्ञा शब्दों में विभक्त वाचक प्रत्यय "स जम्, शस' श्रादि जोड़ने के पूर्व प्रान शब्दों में अन्त्य स्वरों के स्थान पर प्रायः हस्त्र की जगह पर दोघ स्वर की प्राप्ति हो जाती है और दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व इयर हो जाया करता है। जैसा कि उदाहरण-रूप में उपरोक्त गाथाओं में प्रदर्शित किया गया है। इनकी ऋभक विवंचना इस प्रकार है: (१) प्रथम गाथा में पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के वचन में 'लुक' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ढोल्ल' और सामल' यो अकारान्त होना चाहिये था; जबकि इन्हें 'ढारुला और सामला' के रूप में लिखकर अकारान्त को प्राकारान्त कर दिया गया है । इसी प्रकार संघणा और सुबष्णरेह।' स्त्री लिंग वाचक शब्दों में भी 'लुक' प्रत्यय की प्रधमा विभिक्ति के एकवचन में श्राप्ति होने पर भी इन पदों को अकारान्ल कर दिया गया है और यो 'धण' तथा 'सुवगण-रह लिख दिया गया है. : गाथा का संस्कृतश्रानुवाद और हिन्दी-माथान्तर निम्न प्रकार से हैं:संस्कृत:-पिटः श्यामलः धन्या चम्पक-वर्णा ।। इस सुवर्ण-रेखा कष-पट्टके दत्ता ॥ १ ॥ अर्थ:-नायक तो श्याम वर्ण ( काले रंग) वाला है और नायिका चम्पक वर्ण ( स्वर जैसे रंग ) वाले चम्पक फूल के समान है। याँ इन दोनों की जोड़ी ऐप्तो मालूम होती है कि मानी सोना परखने के लिये घर्षण के काम में ली जाने वाली कालं कसोटी पर 'माने की रेखा खींचदो गई है॥१॥ (२) दूसरी गाथा में 'ढोल्ल' के स्थान पर 'ढोल्ला'; 'वारियों के स्थान पर कारिया' ; 'दोहु' की जगह पर दोहा' और निदाए' नहीं लिख कर 'निदप' लिखा गया है। इस गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी रूपांसर निम्न प्रकार से है:-- Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७७ ] 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000... संस्कृतः-विट ! मया त्वं पारितः, मा फुरू दीर्घ मानम् ।। निक्रया गमिष्यति रात्रिः, शीघ्रं भवति पिभातम् ॥१॥ अर्थ:-हे मायक ! (तू मूर्ख है ), मैंने तुझे रोक दिया था कि लंबे समय तक अभिमान मत कर; ( नायिका से शीघ्र प्रसन्न हो जा) (क्यों कि ) निद्रा ही निद्रा में रात्रि व्यतीत हो जायगी और शीन हो सूर्योदय हो जायगा । ( पीछे तुझे पछताना पड़ेगा)॥२॥ (३) तीसरी गाथा में समझाया गया है कि श्री लिंग शब्दों में भी विभक्ति-वाचक प्रत्ययों के पहिले अन्त्य स्वरों में परिवर्तन हो जाता है । जैसाकि-'मणिय. दिदि, भल्लि और पइट्ठि' में देखा जा सकता है । इसका संस्कृत-पूर्वक हिन्दी अनुवाद इस प्रकार से हैं:संस्कृतःएनि ! मया भणिताका कुरू वा नाटिए । पुत्रि ! सफा भलिल यथा, मारयति हृदये प्रविष्टा ॥३॥ हिन्दी:-हे बेटी ! मैं ने तुझ से कहा था कि-'तू टेढ़ी नजर से { कटाक्ष पूर्वक दृष्टि से ) मत देख । क्योंकि हे पुत्री ! तेरी यह वक्र दृष्टि हृदय में प्रविष्ट होकर इस प्रकार आघात करती है जिस प्रकार कि तेज धार वाला और तेज नोक वाला भाला हृदय में प्रवेश करके श्राघात करता है। (४) चौथी गाथा में कहा गया है कि प्रथमा के यहुवचन में भी पुल्लिंग में दीघ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है । जैसा कि 'स्वम्गा' के स्थान पर 'स्वग्ग' ही लिख दिया गया हो । गाथा का संस्कृत अनुवाद निम्न प्रकार से है:संस्कृतः-एते ते अश्वाः, एषा स्थली, एते ते निशिताः खगाः । अत्र मनुष्यत्व ज्ञायते, या नापि वल्गा बालयति ।। अर्थ:-ये दे ही घोड़े हैं. यह वही रणभूमि है और ये वे ही तेज धार वाली तलवारें हैं और यहां पर ही मनुष्यत्व विदित हो रहा है; क्योंकि ये (योद्धा) (यहां पर) मय खाकर अपने छोड़ों की लगामें नहीं फेरा करते हैं, अर्थात पीठ दिखाकर रस भूमि से भाग जाना ये स्पष्ट रूप से कायरता समझते हैं । अतएव वास्तव में ये ही वीर हैं। वृत्ति में प्रन्धकार कहते है कि यों अन्य उदाहरणों की कल्पमाऐं अन्य विभक्तियों में पाठक स्वयमेव कर लें ॥ ४-३१० ॥ स्यमोरस्योत् ॥ ४-३३१ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति ।। दह मुह भुवण-भयंकर तोसिअसंकर णिग्गउ रह-वरि चडिअउ । चउमुहु छमूह झाइ वि एकहि लाइ विणावइ दइवें घडिअउ ॥१॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७८ ] * प्राकृत व्याकरण * 00000000000000000000000***00000000000000000000000000000000000000000000 अर्थः-अपभ्रश-भाषा में अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के एक वचन में "सि तथा अम्' प्रत्ययों के स्थान पर '' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। यह विधान अकारान्त पुल्लिंग और अकारान्त नपुंसक लिंग वाले सभी शब्दों के लिये जानना । उदाहरण के लिये पृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है इसमें 'दहमुहु, भयंकरु, संकरु, णिग्गउ, चडिप्रय और घडिअउ' शब्दों में प्रथमा-विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'उ' प्रत्यय की श्रादेश-प्राति की गई है। इसी प्रकार 'चउमुह और छमुहु' पदों में द्वितीया विभक्ति के एक वचन में पुहिलग में 'उ' प्रत्यय की धादेश प्राप्ति का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है । यो अन्यत्र भी प्रथमा-द्वितीया के एक वचन में समझ लेना चाहिये । उक्त गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर यो जानना चाहिये - संस्कृतः-दशमुखः भुवन-भयंकरः तोषित शंफरः, निर्गतः रथवरे आरूढः ।। चतुर्मुख षण्मुखंध्यात्वा एकस्मिन् लगिस्ता इदैवम घटितः। अर्थ:-संसार को भयंकर पर्गत होने वाला. और जिसने महादेव शंकर को (अपनी तपस्या से) संतुष्ट किया था, ऐसा दशमुख वाला रावण श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुओ निकला था। चार मुह वाले ब्रह्माजी का और छह मुख वाले कार्तिक यजी का ध्यान करके (मानो उनकी कृपा से उन दोनों से दश मुखों की प्राप्ति को हो, इस रीति से) देव ने-(भाग्य ने एक ही व्यक्ति के दश मुखों का) निर्माण कर दिया है, यों यह प्रतीत हो रहा था ।। ४-३३१ ।। सौ पुस्योद्वा ॥ ४-३३२॥ अपभ्रंशे पुल्लिंगे वर्तमानस्य नाम्नोकारस्य सौ परे प्रोकारो वा भवति । अगलिश्र-नेह-निवट्टाह, जोपण-लक्खु वि जाउ ।। परिस-सएण वि जो मिलइ सहि ! सोक्खहँ सो ठाउ ॥ १ ॥ पुसीति किं ? अंगहि अंगु न मिलिउ, हलि ! अहरे अहरु न पत्तु ।। पिन जो अन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु ॥ २ ॥ अर्थः-शपभ्रश भाषा में अकारान्त पुल्लिग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर विकल्प से 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । जैमा कि उपरोक्त गाथा में जो' और 'सो' सर्वनाम-रूपों में देखा जा सकता है। यों अपभ्रंश भाषा में अकागन्त पुल्लिग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में तीन प्रत्यय होते हैं, जो कि इस प्रकार है:-(१) 'उ' (४-३३१), (२) 'ओ' (५) (४-३३२) और (३) "लुक्-" (४ ३४४) !! उपरोक्त गाथा का संस्कृत में और हिन्दी में रूपान्तर निम्न प्रकार से है:-- Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७६ ] संस्कृत:-अगलितस्नेह-निर्धत्तानां, योजनलचमपि जायताम् । वर्षशतेनापि यः मिलति, सखि ! सौख्याना स स्थानम् ॥११॥ अर्थ:-जिनका परसर में प्रेम नहीं टूटा है और यदि वह अस्त्रंड है तो चाहे वे (प्रेमी) लाख योजना भी दूर चले जाय; (तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है, क्योंकि जब कभी चाहे सौ वर्षों में भी उनका मिलना होता है; तो भी हे सखि ! वह (मिलना) सुखों का ही स्थान होता है। प्रश्न.-मूल सूत्र में "पुल्लिंग में ही ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:-अकारान्त में नपुसकलिंग वाले भी शब्द होते हैं और उनमें प्रथमो विमक्ति के एक वचन में "" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है इसलिये “अकारान्त पुल्लिग" शब्द का उल्लेख किया गया है। अकारान्त नपुसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में केवल दो प्रत्यय ही होते हैं; जो कि इस प्रकार है:-(१) "3" और (२) "लुक-0" । यो "ओ" प्रत्यय का निषेध करने के लिये "पुसि" ऐसे पद का मूल सूत्र में प्रदर्शन किया गया । उदाहरण के रूप में जो दूसरी गाथा उद्धत की गई है, उसमें "अंगु, मिलिउ, सुरड और समन्तु "आदि शब्द प्रथमा विभक्ति के एक वचन में होने पर भी ये शय्द 'अकारान्त नपुसकलिग वाले हैं और इसीलिय इनमें "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होकर "3" प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये ! गाथा का संस्कृत-अनुवाद हिन्दी सहिन इस प्रकार है:संस्कृतः - अंगः अंमं न मिलितं, सखि ! अधरण श्रधरः न प्राप्तः ।। प्रियस्य पश्यन्त्याः मुख-कमलं, एवं सुरतं समाप्तम् ॥२॥ हिन्दी:- हे सखि! अंगों से अंग भी नहीं मिल पाये थे, और होट से होठ भी नहीं मिला था; तथा प्रियतम के मुख-कमल को (बराबर) देख भी नहीं पाई थी कि (इतने में ही) हमारा रति कोड़ा नामक खेल समाप्त हो गया ।। ४-३३२ ॥ ॥ एट्टि ४-३३३ ।। अपभ्रशे अकारस्य टायामेकारो भवति ॥ जे महु दिएणा दिअहड़ा दइए पवसन्तेण ॥ ताण गणन्तिएँ अंगुलिउ जज्जरिवाउ नहेण ॥१॥ अर्थ:-अपभ्रश भाषा में अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य "टा" के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) "." प्रत्यय की भावेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए . .. . Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८० | पद "दइएँ" से विदित होता है | दयितेन =दइएँ = पति से || मूल गाथा का संस्कृत अनुवाद पूर्वक हिन्दी अर्थ इस प्रकार से है: * प्राकृत व्याकरण * संस्कृतः ये मम दत्ताः दिवसाः दयितेन प्रचसता 11 (मम) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन ॥ तान् गणयन्त्याः हिन्दा:- विदेश जाते हुए प्रियतम पत्तिदेव ने (पुनः लौट आने के लिये। मुझे जितने दिनों की बात कही थी; उन दिनों की नख से गिनते हुए (मेरी) अंगुलियाँ ही घिस गई है; ( परन्तु पतिदेव विदेश से नहीं लौटे हैं ।) १४-३३३॥ डि नेच्च ॥ ४-३३४ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य ङिना सह इकार एकारथ भवतः ॥ सावरू उपरि तखु घरइ, तलि धन्लइ स्थाई ॥ साम सुभिच्चु विपरिहर, संमाइ खलाई ॥१॥ तले धन्लाइ । अर्थः- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तभ्य प्रत्यय "डि" के स्थान पर "इकार" और "एकार" प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर अकारान्त शब्दों के अन्त में रहे हुए 'थ' स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् शेष व्यञ्जनान्त शब्द में "इकार" की संयोजना की जाती है। जैसा कि गाथा में दिये गये पत्र "तलि" - 'तले" से जाना जा सकता है। इस "ताल" में सप्तमी बोधक प्रत्यय "इकार" की प्राप्ति हुई है | गाथा का संस्कृत और हिन्दी भाषान्तर कम से इस प्रकार है: संस्कुतः - सागरः उपरि तृणानि धरति तले क्षिपति रत्नानि ॥ स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति, संमानयति खलान् 11 हिन्दी:- समुद्र घास आदि तिनकों को तो ऊपर सतह पर धारण करता है और बहुमूल्य रत्नों को ठेठ नीचे वैद में रखता है। (तदनुसार यह सत्य ही है कि) स्वामी अच्छे सेवकों को तो त्याग देता है. और दुष्ट ( सेवकों) का सन्मान करता है । यहाँ पर 'तले' पद के स्थान पर अपभ्रंश में 'तलि' पद का प्रयोग किया गया है। 'ए' कार पक्ष में 'तले' भी होता है ।। ४-३३४ ।। भिस्येद्वा ॥ ४- - ३३५ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य मिसि परे एकाशे वा भवति ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८१ ] oremose.0000000rotoro1000000000rnorstoorsoNormstro.0000000mmanim गुणहि न संपइ कित्ति पर फल लिहिया भुञ्जन्ति ।। केसरि न लहइ बोडिन, वि गय लक्खेहि घेप्पन्ति ॥१॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्दों में तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय 'मिसह हि हि' के परे रहने पर उन चक्कारान्त शब्दों में अन्त्य वर्ण 'अ' कार के स्थान पर बिकल्प से 'ए' कार की प्राप्ति होती है। जैसाकि गाथा में आये हुए पद 'लक्खेहि' से जाना जा सकता है। द्वितीय पर 'गुण' में अन्त्य प्रकार को 'रकार' को प्राप्ति नहीं हुई है। यों दोनों प्रकार की स्थिति की जान लेना चाहिये । उक्त गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृतः-गुणः न संपत, कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुजन्ति । केसरी कपर्दिकामपि न लभते, गजाः लक्षैः गृह्यन्ते ॥ हिन्दो:-गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, न कि धन-संपत्ति । मनुष्य उन्हीं फलों को भोगते हैं, जो कि भाग्य द्वारा लिखे हुए इंते है । केशरीसिंह गुण-सम्पन्न होते हुए भी उसको कोई भी एक कोड़ी से भो खरीदने को तैयार नहीं होता है। जबकि हाथियों को लाख रुपये देकर भी लोग खरीद लिया करते ङसे हैं-हू ॥ ४-३३६ ॥ अस्येति पञ्चम्यन्त विपरिणम्यते । अपभ्रंशे अकारात् परस्य इसे हे-हू इत्यादेशौ भवतः ।। वच्छहे गृहइ फलइँ, जणु कडु-पल्लब रज्जेई ॥ तो वि महद् म सुश्रणु जिग ते उच्छंगि घरेइ ॥ १ ॥ वच्छ हु गृहइ ॥ अर्थ:-प्राकृत-भाषा में जेसे पचमी विक्ति के एकवचन में 'चो, जाओ, पाल, पाहि पाहिन्तो और 'लुक' प्रत्यय होते हैं। वैसे प्रत्यय अपभ्रश भाषा में अकारान्त शब्दों के लिये उक्त विभक्ति में नहीं हुआ करते है। इसी अर्थ को व्यक्त करने के लिये ग्रंथकार ने वृत्ति में विपारणम्यते पदका निर्माण किया है। अपभ्रंश भाषा में प्रकारान्त शब्दों में पचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर हे और हूं' ऐसे वो प्रत्ययों की श्रादेश-प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में 'वच्छहे' पद से ज्ञात होता है। तदनुसार 'वृक्षात्' पद का अनुवाद अपभ्रंश भाषा में 'वच्छ और वच्छहू' दोनों होगा । इप्तालिये 'वच्छ गृहइ' पदों का समावेश गाया के बाद भी कर दिया गया है। यहाँ पर 'वच्छहु' पद में 'हू' प्रत्यय को ह्रस्व लिखने का कारण यह है कि आगे पद 'गृहइ' में प्रादि अक्षर संयुक्त होता हुधा 'हू' के आगे आया हुआ है, इसलिये सूत्र-संख्या १४ से 'हू के वीर्घ स्वर 'अ' को ह्रस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति हुई है। गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं: Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८२ ] ..........sireesorror * प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संस्कृतः--वृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः, कड पल्लवान् वर्जयति ।। तथापि महाद्रुमः सुजन इब तान् उत्संगे धरति ॥ १ ॥ अर्थः-मनुष्य वृक्ष से (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु उसी वृक्ष के कडुवे पत्तों को छोड़ देता है । तो भी वह महा वृक्ष उन पत्तों को मज्जन पुरुषों के समान अपनी गोद में ही धारण किये रहता है। जैसे सजन पुरुष कटु अथवा मीठो सभी बातों को सहन करते हैं; वैसे ही वृक्ष भी सभी परिस्थितियों को सहर्ष सहन करता है ।। ४-३३६ ।। भ्यसो हु॥४-३३७ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य भ्यसः पंचमी बहुवचनस्य हुँ इत्यादेशो भवति ॥ दूरुडाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ ॥ जिह गिरि-सिंग हुं पडिल सिल अन्नु वि चूरू करेइ ।।१॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'गिरि-सिंगहुँ - गिरि - गेभ्यः = पहाड़ की चोटियों से जाना जा सकता है । उक्त गाथा का संस्कृतहिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-- दूरोडाणेन पतितः खलः भात्मानं जनं (च) मारयति । यथा गिरि-शृंगेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णी करोति ॥ ___ अर्थ:-एक दुष्ट श्रादमी जब दूर से ऊंचाई से छलांग लगाता है तो खुद भी मरता है और दूसरों को भी मारता है; जैसे कि पहाड़ की चोटियों से गिरी हुई बड़ी शिला अपने भी टुकड़े टुकड़े कर डालती है और ( उसकी चोट में श्राथ हुए) अन्य का मी विनाश कर देती है ।। ४-३३७ ।। ङसः सु-हो-स्सवः ॥ ४-३३८ ।। अपभ्रंशे अकाराव परस्य छ सः स्थाने सु, हो, स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति । जो गुण गोवइ अध्पणा, पयडा करइ परस्सु ॥ तसु हऊँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्ज सुअणस्सु ॥ १॥ अर्थ:-अपभ्रश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के पकषचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर 'सु, हो और 'स्सु' ऐसे तीन प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८३ ] ++++++++++++++++++++++++++++++++oooooooov•••••••••••••••• • इसो विभक्ति में 'लोप' रूप अवस्था की प्राप्ति भी हो सकती है। इनके उदाहरण गाथानुसार कम से इस प्रकार हैं:-(१) परस्सु = परस्य = दूसरों के; (२) तमु - तस्य = उसके; (३) दुल्लहहोम दुर्लभस्य = दुलभ के और (४) मुअणस्मु-सुजनस्य- सज्जन पुरुष के ।। इन तदाहरणों में 'मु, हो और रसु' प्रत्यय वाले पदों का सद्भाव देखा जा सकता है । 'लु' प्रत्यय होने पर 'जण अथवा जणा मनुष्य का' ऐसा रूप होगा। उपरोक्त गाथा का संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी अनुवाद कम से इस प्रकार है:संस्कृता-य: गुणान् गोषयति अात्मीयान् प्रकटान करोति परस्य ॥ तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य पलिं करोमि सुजनस्य ॥१॥ हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि रूप सद्भावना इस कलियुग में दुर्लभ उस सजन और भद्र पुरुष के लिये प्रस्तुत करता हूँ जो कि अपने स्वयं के गुणों को ढाकता है। अपने गुणों की कीर्ति नहीं करता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है ।। ४-६३८ ॥ श्रामो हं ॥४-३३६ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्यामोहमित्यादेशो भवति ॥ सणहं सइज्जी भंगि न वि ते अवड-डि वसन्ति ।। अब जणु लम्गि बि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति ॥१॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर 'ह' प्रत्यय को आवेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ४-३४५ से 'लुक् = ' रूप से भी षष्ठी विभक्ति में प्राप्ति हो सकती है। उदाहरण हैंप से गाया में संग्रहित पद इस प्रकार हैं:(१) तणह = तृणानाम् = तिनकों के | गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-तृणानाम् तृतीया भङ गी नापि,( = नैव ), तानि अवट तटे वसन्ति ।। अथ जनः लगित्या उतरति अथ सह स्वयं मज्जन्ति ।। हिन्दी:-जी पास नदी-नाला यादि के किनारे पर उगता है; उसकी दो ही अवस्थाएं होती है; तीसरी अवस्था का अभाव है, या तो लोग उनको पकड़ करकं उतरते हैं, अथवा उनके साथ स्वयं हूब जाता है॥४-३३६ ।। हुचेदुद्वयाम् ॥ ४-३४० ॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुँ है चादेशौ भवतः ॥ दइचु घडावइ वणि तरूई सउणिई पक्क फलाई ।। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८४ ] * प्राकृत व्याकरण * onsotrostron+00000000000000000 सो वरि सुक्खु पइट ण वि करण हिं खल-बयणाई ॥१॥ प्रायोधिकारात् कचित् सुपीपि हुँ। धवलु विसरह सामि अहो, गरुमा मरू पिक्खे वि॥ हउ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहि खंडई दोषिण करे यि ॥२॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर पहुं और है' ऐसे दो प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसा कि प्रथम गाथा में आये हुए निम्नीक्त पदों से जाना जा सकता हैं। (१) तनहुँ - तरूणां-वक्षों के; (२) सउणि ईशकु= नीना - पक्षियों के ( लिये ) प्राकृत-अपभ्रंश यादि भाषाओं में 'चतुर्थी और षष्ठीविभक्तियों एक जैसी ही होती है इसलिये हमरा पर मिह पटरी में होता हुमा मी चतुर्थीविभक्ति-वोधक है । गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर निम्न प्रकार से हैं:संस्कृतः-देवः घटयति बने तरूणां शकुनीनां ( कृते ) पक्व-फलानि ।। तद् परं सोख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खल-बचनानि ।। अर्थ:-भाम्य ने वन में पक्षियों के लिये वृक्षों पर पके हुए फलों का निर्माण किया हैं। ऐसा होना पक्षियों के लिये बहुत सुखकारी ही है, क्योंकि इससे (पेट पूर्ति के लिये ) पक्षियों को दुष्ट-पुरुषों के वचन तो कानों द्वारा नहीं सुनने पड़ते हैं; अर्थात् खल-वचन कानों में अधेश तो नहीं करते हैं ।। १ ।। प्रायः' अधिकार से हु' प्रत्यय इकारान्त-उकारान्त' शब्दों के लिये सप्तमी-विभक्ति के बहुवचन में भी प्रयुक्त होता हुछा देखा जाता है । सप्तमी के बहुवचन में हिं. प्रत्यय की प्रापि आगे भाने वाले सूत्र संख्या ४-३४७ से जानना चाहिये । यहाँ पर 'हुँ' प्रत्यय की सिद्धि के लिये द्वितीय गाथा में 'दुहुँ= द्वयोः = दो में ऐसा पद दिया गया है । द्वितीय गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद कम से इस प्रकार हैं:-- संस्कृतः-धवलः खिद्यति ( विसरइ) स्वामिनः गुरू भारं प्रेत्य ।। अहं किं न युक्तः द्वयोर्दिशोः खंडे द्वे कृत्वा ॥२॥ अर्थ:--( कवि कल्पना है कि एक विवेको ) सफेद बैल अपने ( एक और जुते हुए ) स्वामी को भारी बोम से ( लदा हुधा) देख करके अत्यन्यत दुःख का अनुभव करता है और (अपने आप के लिये कल्पना करता है कि )-मैं दो विभागों में क्यों नहीं विभाजित कर दिया गया, जिससे कि मैं जुए की दोनों दिशाओं में दोनों ओर जीत दिया जाता ॥४.३४ ॥ ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हु-हयः ॥ ४-३४१ ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८५ ] moroorarimaandaartoorrrrowrimotoreswwwskritrineetaminoo.mm अपभ्रशे इदुद्-भ्यां परेषां ढ सि-भ्यस्-डि इत्येतेपो यथासंख्यं हे, हुं, हि इत्येते त्रय आदेशाः भवन्ति ।। उसे हैं । गिरिहे सिलायलु, तरुहे फलु घेप्यइ नीसावन्नु । घरु मेन्लेप्पिणु, माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु ॥ १ ॥ श्यसो हुँ ! तरुहुँ वि बक्कलु फल मुणि वि परिहणु असणु लहन्ति ।। सामिहुँ एत्तिउ अग्गलउं, आयरू मिच्चु गृहन्ति ॥२॥ ढे हि । अह विरल-पहाउ जि कलि हि धम् ॥ ३॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त शब्शे के और षकारान्त शब्दों के पंचमी विमक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय एसि के स्थान पर 'हे' प्रत्यय की आदेश-प्रालिसी है। इन्हीं शब्दों के पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्रामव्य संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर 'हुँ' प्रत्यय की प्रादेश प्राप्ति होती है और सातमी विभक्ति के एकवचन में मानव्य संस्कृत-प्रत्यय 'डि' के स्थान पर हि' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति जानना चाहिये । इन तीनों प्रकार के प्रत्ययों के उदाहरण क्रम से उपरोक्त तीनों गाथाओं में दिये गये हैं। जिन्हें मैं क्रम से संस्कृत-हिन्दी अनुवाद सहित नीचे जद्धत कर रहा हूँ। 'सि-हे' के उदाहरण:-१) गिरिहे-गिरेः -पहाड़ से। (२) तरूद्दे-तरोः = वृक्ष से। गाथा का संपूर्ण अनुवाद यों हैं:-- संस्कृतः-गिरः शिलातलं, तरोः फलं गृह्यते निः सामान्यम् ॥ गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचते अरण्यम् ।। अर्थ:-इस विश्व में सोने के लिये सुख पूर्वक विस्तृत शिला तल पहाड़ से प्राप्त हो सकता है और खाने के लिये बिना किसी कठिनाई के वृक्ष से फल प्राप्त हो सकते हैं। फिर भी आश्चर्य है कि अनेक कटिनाइयों से मरे हुए गृहस्थाश्रम को छोड़ करके मनुष्यों को बन-बास रुचि-कर नहीं होता हैं। अरण्यनिवास अच्छा नहीं मालूम होता है । 'भ्यत् = हुँ' के दृष्टान्त यों हैं:-१) तरुई - तरुभ्यः = वक्षों से और (6) सामि स्वामिभ्यः =मालिकों से । यो कोनों पदों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में 'भ्यस प्रत्यय के स्थान पर 'हुँ' प्रत्यय का आदेश-प्राप्ति हुई हैं । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-तरुभ्यः अपि वल्कलं फलं मुनयः अपि परिधान अशनं लभन्ते ।। स्वामिभ्यः इयत अधिकं ( अग्गलउ' ) श्रादरं भृत्याः गृह्णन्ति ॥ २॥ हिन्दी:-जिम तरह से मुनिगण वृक्षों से छाल तो पहिनने के लिये प्राप्त करते हैं और फल खाने के लिये प्राप्त करते हैं; उसी तरह से नौकर भी ( अपनी गुलामी के एवज में ) अपने स्वामी से भी खाने Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८६ ] पीने और पहिनने की सामग्री के अलावा केवल ( नकली रूप से ) थोड़ा सा चादर ( मात्र हो ) अधिक प्राप्त करते हैं । (फिर भी चाश्चर्य हैं कि उन्हें वैराग्य नहीं भाता है ) || २ || 'कि=हि' का दृष्टान्त यों है: -फलिहि-कलौ= कलियुग में पूरी काव्य-पंक्ति का संस्कृत-पूर्वक हिन्दी अनुवाद यों हैं: संस्कृतः - श्रथ विरल - प्रभावः एव कलौ धर्मः ॥ ३ ॥ हिन्दी:- कलियुग में निश्चय हो धर्म अति स्वल्प प्रभाव वाला हो गया है । ।। ३ ।। ४-३४१ ।। आट्टो खानुस्वारौ ॥ ४-३४२ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य टा वचनस्य णानुस्वारावादेशौ भवतः ॥ दएं पक्षसन्ते ॥ * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:ई:- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रसव्य संस्कृतप्रत्यय 'टा' के स्थान पर (१) '' और ( २ ) 'अनुस्वार' यों दो प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होती हैं। इन आदेश प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व मूल रूप अकारान्त शब्दों के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४ से 'ए' को प्राप्ति हो जायगी । यों प्राप्त प्रत्यय का रूप (१) पण और (२) 'एं' हो जायगा । सूत्रसंख्या १-२७ से 'एण' के स्थान पर 'ए' रूप की भी विकल्प से प्राप्ति होगी। इस प्रकार से तृतीयाविभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में तीन प्रत्यय हो जायगे । जैसे:- (१) जिपेण, (२) जिणं (३) जिणें । वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार से हैं: -- दृहये पवसन्तेण - दयितेन प्रवसता = प्रवास करते हुए ( विदेश जाते हुए ) पतिदेव से || इस वाक्य में 'फ' और 'अनुस्वार' दोनों प्रत्ययों का उपयोग प्रदर्शित कर दिया गया हैं। शब्दान्त्य 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति भी हुई हैं । ।। ४-३४२ ।। अपभ्रंशे भवन्ति ॥ एं ॥ एं चेदुतः ॥ ४- २४३ ॥ इकारोंकाराभ्यां परस्य टावचनस्य एं चकारात् खानुस्वारौ च अम्मिए उन्हउ होइ जगु वाएं सीलु जो पुणु अग्गिं सीला तसु उराह खानुस्वारों । तणु विप्पिय - आरउ जवि पिउ तो वि तं श्रग्गिय दड्ढा जइ वि घरू तो तें एवमुकारादप्युदाहार्याः ॥ ते ॥ केनें ॥ १ ॥ श्राहि अज्जु || श्ररिंग कज्जु ॥ २ ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८७ ] amrom00000000000000000000000toesroomorro00000000000000000000000mmer अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में, पुझिंग और नपुसकलिंगों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होती हैं। इसके सिवाय मूल-सूत्र में और वृत्ति में प्रदर्शित 'चकार' से सूत्र-संख्या ४.३४२ में वर्णित प्रत्यय 'अनुस्वार तथा ण' को अनुभूति भी फर लेनी चाहिये । यो इकारान्त ठकाराप्त शब्दों में सृतीया विभकि के एकवचन में 'एं, अनुस्वार और ण' इन तीन प्रत्ययों का समाव हो जाता है। इन के अतिरिक्त सूत्र संख्या १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर विकल्प से अनुम्वार की प्राप्ति भी हो जाती है। 'ए' प्रत्यय के उदाहरण उपरोक्त प्रथम गाथा में इस प्रकार दिये गये हैं:-(१) अग्निना = अग्गिएं - अग्नि से; (२) पातेन = वाएं = हवा से । अनुस्वार का पदाहरण:-(१) अग्निना = अगिअग्नि से । द्वितीय गाथा में 'ण' प्रत्यय और 'अनुस्गर' प्रत्यय का एक एक उदाहरण दिया गया हैं। जो कि इस प्रकार हैं:(१) अग्गिण = अग्निना = अग्नि से और (२)ततेन = उससे तथा (३) अग्गि- अग्निना अग्नि से । ये उदाहरण इकारान्त पुल्लिग शब्द के दिये गये हैं और अकारान्त पुल्लिंग शब्द के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी सूचना पन्थकार वृत्ति में देते हैं । उपरोक्त दोनों गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दो अनुवाद कम से इस प्रकार है:संस्कृतः-अग्निना उष्णं भवति जगत्; बातेन शीतलं तथा । यः पुनः अग्निना शीतलः , तस्य उष्णत्वं कथम् ॥ १ ॥ हिन्दी:-यह सारा संसार अग्नि से उष्णता का अनुभव करता है और हवा से शीतलता का अनुभव करता है। परन्तु जो ( सन्त-महात्मा ) अग्नि से शीतलता का अनभव कर सकते हैं, उनको सध्यता जनित पीड़ा कैसे प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् त्याग शील महात्मा को विषय कषाय रूप अग्नि कुछ भा पीड़ा नहीं पहुँचा सकती हैं। संस्कृत:-विनिय कारकः यद्यपि प्रियः तदपि ते आनय अध । अग्निना दग्थं यद्यपि गृह, तदपि तेन अग्निना कार्यम् ॥ २॥ हिन्दी:-मेरा पति मुझे दुःख देने वाला है, फिर भी उसको माज (हो ) यहाँ पर लाओ। ( क्योंकि अन्त तो गवा वह मेरा स्वामी ही हैं ) जैसे कि अग्नि से यद्यपि सारा घर जल गया है, फिर मी क्या अग्नि का त्याग किया जा सकता है? अर्थात क्या दैनिक कार्यों में अग्नि को आवश्यकता पड़ने पर अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता हैं । ॥ २ ॥ ४-३४३ ।। स्यम्-जस-शसां लुक् ॥ ४-३४४ ॥ अपनशे सि, श्रम्, जस्, शस्, इत्येतेषां लोपो भवति ॥ एइ ति घोडा, एह थलि ॥ (४-३३०) इत्यादि । अत्र स्यम् जसो लोपः ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८८ ] * प्राकृत व्याकरण * ०००००० जिन जिन किम लोअहं, सिरु सामलि सिक्खे | तिवाँ तियाँ वम्म निश्रय- सर खर- पत्थरि तिक्खे || १ || अत्र स्यम् शर्मा लोपः ।। / अर्थः- पश माषा में इकारान्त पुल्लिंग और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के दोनों बचनों में तथा द्वितीया विभक्ति के दोनों वचनों में क्रम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि, जस् और अम् श का लोप हो जाता है। लोप होने के पश्चात उक्त दोनों विभक्तियों के दोनों वचनों में दो दो रूप क्रम से स्वरान्त और दीर्घ स्वरान्त के रूप में बन जायेंगे । अर्थात् ह्रस्व इकार दीर्घ ईकार के रूप में और स्व उकार दीर्घ ऊकार के रूप में विकल्प से स्थान ग्रहण कर लेता हैं। जैसा कि सूत्र संख्या४-३३० में लिखित गाया में अंकित 'थलि' पद से ज्ञात होता है। स्थलो=थजि = पृथ्वी भाग । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' का लोप हुआ है । उपरोक्त सूत्र- रचना से भी ज्ञात होता है कि अकारान्त पुलिंग शब्दों में भी प्रथमा के दोनों वचनों में तथा द्वितीया के दोनों वचनों में भी विकल्प से इन प्राप्तस्य प्रत्यय 'सि, जस्, अम् शन का लोप हो जाता है। खोप प्राप्ति के पश्चात अन्त्य ह्रस्वस्वर अकार के स्थान पर विकल्प से दोर्घ स्वर 'आकार' को भी प्राप्ति होती हैं। उदाहरण के रूप में सूत्र संख्या ४-३३० में दी गई गाथाओं के पदों में ये रूप देखें जा सकते हैं। कुछ उदाहरण इस सूत्र के सन्दर्भ में दी गई गाथा में भी दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) श्यामला = सामाल = श्याम वर्ण वाली नायिका (प्रथमान्त पर ) | (२) निजक- शरान-निश्रय-पर अपने बाणों की ( द्वितीयाबहुवचनान्त पद ) (३) वकिमाण = किम = नेत्रों को टेढ़ा करने की वृत्ति को ( द्वितीया एक वचनान्त पद ) इन उदाहरणों द्वारा उक्त विभक्तियों में प्राप्तव्य प्रत्ययों को लोप प्रदर्शित किया गया हैं। पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार हैं: संस्कृतः यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला शिक्षते ॥ तथा तथा मन्मथः निजकशरान् खर- प्रस्तरं तीक्ष्णयति ॥ - हिन्दी:- यह श्याम वर्णीय नत्र युक्ती ज्यों ज्यों दोनों घाँखों द्वारा कटाक्ष-पूर्वक वक्र देखने की वृत्ति को सोखती हैं; त्यों त्यों कामदेव अपने बाण को तीक्ष्ण-पत्थर पर अधिकाधिक तीक्ष्ण-तेज करता जा रहा है ।। ४-३४४ ॥ पढ्याः ॥ ४-३४५ ।। अपभ्रंशेपट्या विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति ॥ संगर-सए हिँ जुणिअड़ देक्खु अम्हारा कन्तु ॥ श्रमसहं चत्तङ्क सहं गयकुम्भ दारन्तु ॥ १ ॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसाराधेः ॥ Y Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८६ ) ww4444444444444499%8A++++++++++++++++++++++++++++++++++++ अर्थ:--अपनश भाषण में अकारान्त शब्दों में षष्ठो विभक्ति के एकवचन तथा यहुवचन में प्रापध्य प्रत्ययों का विकल्प से अथवा प्रायः लोप होता है; इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों में भी षष्ठी एकवचन के प्रत्ययों का सर्वथा लोप हो जाना है, ऐमा होने पर मूल अङ्ग के अन्य स्वर को हो विकल्प से दीर्घत्व की प्राप्ति होती हैं। जैसे:-इास अथवा इसी = ऋषि का। गुरु अथवा गुरू = गुरुजी का । स्त्री लिंग शब्दों में भो षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में प्राप्तब्य प्रत्यय का विकल्प से लोप होता हैं । वृत्ति में उद्धत गाथा में षष्ठो विभक्ति वाले तीन पर आये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-१) अइमत्तहमतिमत्तानां - बहुत ही मदोन्मत्त हुओं को; (२) चत्त कुसहं त्यक्तांकुशानाम् = जिन्होंने अंकुश ( हाथो को संभालने का छोटा सा हथियार विशेष ) को चुभाकर दिये जाने वाले आदेश को मानने से इन्कार कर दिया है. ऐ.ले ( हाथियों ) को; (३) गय = गजाना हापियों को। इन बदा. हरणों में से प्रथम दो उदाहरणों में तो षष्ठी-बहुवचन-बोधक-प्रत्यय 'ह' का अस्तित्व हैं; जबकि तीसरे पद में उक्त प्रत्यय का लोप हो गया ; यो पो बिमाक में प्राय प्रत्यय की 'प्रायः' स्थिति कही गई हैं। गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:संस्कृतः-संगरशतेपु यो मण्यते पश्य अस्माकं कान्तम् ।। अतिमत्तानां त्यक्ताड कुशानां गबानां कुम्भान् दारयन्तम् ॥ १॥ अर्थः-अति मदोन्मत्त और अंकुश को भी नहीं मानने वाले ऐसे हाथियों को गर्दनों का विदारण करने वाले और ऐसा पराक्रम होने के कारण से जिसके यश का वर्णन सैकड़ों युद्धों में किया जाता हैं; ऐसे हमारे पति को देखो ॥ १॥ 'गय कुम्भई' पर का निर्माण समाप्त रूप में भी हो सकता हैं और ऐप्ता होने पर 'गया' पद में रहे हुए प्रत्यय 'हं' का व्याकरणानुसार लोप हो जाता है; परन्तु यहाँ पर प्राप्तव्य प्रत्यय 'हं' का लोप 'समास नहीं करके ही बतलाने का ध्येय हैं। इसलिये इस गय' पद को 'कुम्भइ ' पद से पृथक हो समझना चाहिये । इप्त मन्तव्य को समझाने के लिये ही वृत्तिकार ने वृत्ति में 'पृथक-योगी' अर्थात् दोनों को अलग अलग समझा' ऐसी सूचना उक्त पदों से दी हैं। 'लक्ष्यानुसारार्थः' का तात्पर्य यह है कि:व्याकरण के नियम का अनुसरण करने के लिये ही उक पद 'गय' को षष्ठी-विभक्ति वाला ही समझो । । ४.३४५ ॥ अामन्ये जसो होः ।। ४-३४६ ॥ अपभ्रंशे आमन्त्र येर्थे वर्तमानानाम्नः परस्य जसो हों इत्यादेशो भवति । लोपापवादः ॥ तरूणहो तरूणिही मुणिउ मई करहु म अप्पहो घाउ ॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६० } * प्राकृत व्याकरण000000000000000000minat0000 0 .000000000000000000000000000000000 ___ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संबोधन के बहुवचन में संज्ञाओं में प्राप्तम्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर (विकल्प से ) हो' प्रत्यय रूप को प्रादेश-प्राप्ति होती हैं। इस सूत्र को सूत्र-संख्या ४-३४४ के स्थान पर छापवाद रुप समझना चाहिये । उदाहरण इस प्रकार हैं:-हे तरूणाः! हे तरूण्यः (च) झातं मया, आत्मनः घातं मा कुरुत तरूणहो ! तरूणहो । मुणिउ मई, करह, म अप्पहो घाउ = अरे नवयुवकों और अरे नवयुवतियाँ ! मैंने ( सत्य ) ज्ञान प्राप्त किया हैं। इसलिये तुम अपने पापको विषय-अग्नि में हाल कर के ) आत्म-घात मत करो। यहाँ पर 'तरुणहो और तहणिहो' पद संबोधन-बहुवचन के रूप में प्राप्त होकर 'हो' प्रत्ययान्त हैं ॥ ४-३४६ ।। भिस्सुपोर्हि ॥ ४-३४७ ।। अपभ्रंशे भिस्मुपोः स्याने हि इत्यादेशो भवति ॥ गुणहिं न संपइ कित्ति पर । (४-३३५ ) ॥ सुप् ।। भाईरहि जि मारह मन्गेहि तिहिं वि पयट्टइ ।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में तृतीया के बहुवचन में भाग्य प्रत्यय "मिस' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती हैं। इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप्' के स्थान पर भी अपभ्रंश भाषा में 'हि' प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति होती है। दोनों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं: (१) गुणः म संपव कार्तिः परं = गुणर्हि न संपइ कित्ति पर - गुणों से संपत्ति नहीं प्राप्त को जा सकती है; परन्तु ( गुणों से ) कीर्ति प्राप्त की जा सकती हैं।। पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३५ में देखो) (२) भागीरथी यथा भारते त्रिषु मार्गेषु प्रवर्तते = भाईराह जि भारद मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ - जैसे गंगा नदी भारतवर्ष में तान मार्गों में बहता है । यहां पर 'मग्गेहिं और तिहिं' पदों में सप्तमी-बहुवचन-बोधक-अर्थ में 'सुप्' प्रत्यय के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय को प्रादेश-प्राप्ति देस्त्री जाती है। ॥४-३४७ ॥ स्त्रियां जस-शसोरुदोत् ॥ ४-३३८ ॥ अपभ्रंशे खियां वर्तमानाभाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशी भवतः । लोपापवादो ॥ जसः । अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण ॥ (४-३३३) शसः । सुन्दर-सव्वङ्गाउ विलालिणीमो पेच्छन्ताण ॥१॥ वचन-मेदान्न यथा-संख्यम् ।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६१] अर्थ:--अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में माप्तव्य प्रत्यय जस' के स्थान पर '' और 'ओ' ऐसे को प्रत्यों की भादेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार में इन्ही स्त्रीलिंग शब्दों के द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तम्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर उक्त '' और 'अ' ऐसे दो प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति जानना चाहिये । यो प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में उक्त प्रत्ययों की संयोजना करने के पहिले प्रत्येक स्त्रीलिंग शब्द के अन्त्य स्वर को विकल्प से हस्व के स्थान पर दीपस्वी कर दी गोलन सास्त्र की प्राप्ति भी कम से हो जाती है। ऐसा होने से दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्रत्येक शब्द के लिये चार चार रूपों को प्राप्ति हो जाया करती है। यह सूत्र सूत्र संख्या ४-३४१ के प्रति अपवाद रूप सूत्र है। दोनों ही विभक्तियों के बहुवचनों में समान रूप सं प्रत्ययों का समाव होने से 'यथा संख्यम्' अर्थात् 'कम से' ऐसा कहने को पावश्यकतो नहीं रही है। दोनों विमाकयों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार है (१) अंगुल्यः जर्जरिता नखेन = अंगुलिउ जमरियाउ नहेण = (गणना करने के कारण से नख से अंगुलियाँ जर्जस्ति हो गई हैं। पीड़ित हो गई हैं। यहाँ पर प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में '' प्रत्यय' की प्राप्ति हुई है। पूरी गाथा सूत्र संख्या ४-३३३ में देखना चाहिये । (1) सुन्दर-सर्वागीः विलासिनी: प्रेक्षमाणामाम् = सुन्दर-सवंगाउ पिलालिपीओ (विलासिणीओ) पेच्छन्ताण सभी अंगों से सुन्दर मानन्द मम्न स्त्रियों को देखते हुए (पुरुषों) के लिये (अथवा पुरुषों के हृदय में) । यहाँ पर मी द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में कम से 'ज' और 'भो' प्रस्थयों को प्रदर्शित किया गया है ।। ४-३४८ ।। टए॥४-३४६ ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशो भवति ॥ निप्र-मुह-करहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्षइ ।। ससि-मंडल-चंदिमए पुणु काई न दरे देक्खा ॥१॥ जहि मरगय-कन्तिए संवलियं ।। भर्थ:-अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के बीलिंग शब्दों में पूतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तध्य प्रत्यारा' के स्थान पर '' ऐसे एक ही प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। पादेश प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संयोजना करने के पहिले शब्द के अन्त में रहे हुए हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की और दीर्घ स्वर को हस्व स्वर की प्राप्ति विकल्प से हो जाती हैं। यों सीलिंग शब्दों में वतीचा विभक्ति के एकवचन में कम से तथा वैकल्पिक रूप से दो दो रूपों की प्राप्ति होती है। जैसे-पत्रिफया - चंदिमए =चांदनी से | यहाँ पर 'ए' प्रत्यय के पूर्व मंदिमा' से 'दिम' हो गया है । (२) कात्या = कन्तिए-कांति से आमासे ।। वृत्ति में दी गई गापामों का अनुपाद कम से इस प्रकार हैं: Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३२] * प्राकृत व्याकरण * 4000000 संस्कृत:---निज मुख करेंः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिपेक्षते ॥ शशि- मंडल - चन्द्रिका पुनः किं न दूरे पश्यति { 11 हिन्दी:- ( विषयों में आसक्त हुई ) मुग्धा (श्री) अपने मुख को किरणों से भी अकार में अपने हाथ को देख लेती हैं, तो फिर पूर्ण चन्द्र मंडल की चांदनी से दूर दूर तक क्या नहीं देख सकत्तो हैं ? अथवा किन किन को नहीं देखती हैं ॥ १ ॥ 40444...... (२) संस्कृतः - यत्र मरकत कान्त्या संवलितम् = जहिं मरगय- फन्तिए संवालिअं जहाँ पर मरकतमणि की कान्ति से आमाले घेराये हुए को आच्छादित को । (गाथा रूपों की कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये ।। ४- ५४६ ।। है ) । २ ॥ शेष डस् - स्योहें ॥ ४३५० ।। अपभ्रंशे स्त्रियाम् वर्तमानानाम्नः परयोङस् ङसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशो भवति ॥ रसः । तुच्छ मन्महे तुच्छ जपिरहे । तुच्छच्छ - रोमावलिहे तुच्छ - राय तुच्छर हामई । पिय-बय अहन्ति आहे तुच्छकाय वम्मह निवासदे । अन्जु तुच्छ तहे धणहे तं अक्खणह न जाइ । करि तरूद्ध जें मणु विच्चि य माइ ॥ १ ॥ इसेः | फोडेन्ति जे हिउँ अपण ताई पराई कवणवण । 1 रक्खेज्जहु लोहो अपणा बालहे जाया विसम थण ॥ २ ॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'है' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हो जाया करती है। सूत्र संख्या ४- २४५ से पष्ठी विभक्ति के एकवचन में वक्त रीति से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'हे' का लोप भी प्रायः हो जाया करता है। इसके अति रिक्त प्राप्तव्य प्रत्यय 'हे' की संयोजना करने के पूर्व अथवा 'है' प्रत्यय के लोप होने के पूर्व जीलिंग शब्दों में अन्त्य रूप से रहे हुए स्वर की 'हस्त्र से दीर्घत्व और दीर्घ से स्वत्व' की प्राप्ति भो वैकल्पिक रूप से हो जाया करती हैं; यों पंचमी विभक्ति के एकवचन में दो रूपों की प्राप्ति होती हैं और पष्ठी विभक्ति के एकवचन में धार रूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये । वृत्ति में पंचमी और षष्ठी विभक्तयों के रूपों को प्रदर्शित करने के लिये जो गात्रायें उधृत की गई हैं; उनमें श्राये हुए पदों में 'हे' प्रत्यय को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद से इस प्रकार हैं: 1 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६३ ] +++++++++++++o++++++++++++++4e9496949%e2%94%++++++++++++++++++ संस्कृता-तुच्छ-मध्यायाः तुच्छ जल्पन-शीलायाः । तुच्छाच्छ रोमावल्याः तुच्छ रागायाः तुच्छतरहासायाः ॥ प्रियवचनमलभमानायो: तुच्छकायमन्मथनिवासायाः । अन्यद् यत्तच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुन याति ॥ थावर्य स्तानान्तरं मुग्धायाः येन मनो वमंनि न माति ।। अर्थः-सूक्ष्म अर्थात पतली कमरयाली, अल्प शेलने के स्वमायवाली, पतले और सुन्दर केशोंवाली, अल्प कोपवाली हाथवा अल्प रागवाली, बहुत थोड़ा हँसनेवाली, प्रिय पति के वचनों को नहीं प्राप्त करने से दुबले शरीर वाली, जिसके पतले और सुन्दर शरीर में, कामदेव ने निवास कर रखा है ऐसी; इतनी विशेषताओं वाली उस धन्य अर्थात् अहो भाग्यवाली मुग्धा नायिका का जो दूसरा भाग सूक्ष्म है-अर्थात पतला हैं उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। अपनी चंचलता के कारण से परिभ्रमण करता हुआ जो सूक्ष्म प्राकृतिवाला मम विस्तृत मार्ग में भी नहीं समाता हैं। पार्य हैं कि येता वहो मन (क्त नायिका के) स्थूल स्तनों के मध्य में अवकाश नहीं होने पर भी यहाँ पर समा गया है। उपरोक्त अपपा पदों में पड़ी विभकि-बोधक प्रत्यय 'टुस ३ का सद्भाव स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया हैं ! अब पंचमी बोधक प्रत्यय 'हे' वाली गाथा का अनुवाद यों हैं: संस्कृता-स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं, तयोः परकीया का घृणा ॥ रक्षतः लोकाः प्रात्मानं बालायाः जाती विषमी स्तनौ ॥३॥ हिन्दी:-जो (स्तन ) खुद के हृदय को हो विस्फोटित करके उत्पन्न हुए हैं। उनमें दूसरों के लिये दया कैसे हो सकती हैं ? इसलिये हे लोगों ! इस घाला से अपनी रक्षा करो; इसके ये दोनों स्तन अत्यन्त विषम प्रकृति के-(घातक स्वभाव के ) हो गये हैं॥३॥ इस गाथा में 'बालहे' पद पंचमी विभक्ति के एकवचन के रूप में कहा गया हैं ॥ ४-३५० ॥ भ्यसामो हु॥४-३५१ ॥ अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानामाम्नः परस्य भ्यस पामश्च हु इत्यादेशो भवति ।। भला हुआ जु मारिश्रा बहिणि महारा कन्तु ।। लज्जेज्जन्तु वयंसिमहु जब भग्गा घरू एन्तु ॥ १ ॥ वयस्याम्यो वयस्यानाम् वेत्यर्थः ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६४ ] ********4 अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'हु' को आदेश प्राप्ति ( विकल्प से ) जानना चाहिये । सूत्र- संख्या ४- ३४५ से इस प्राप्त प्रत्यय 'हु' का प्रायः लोप हो जाया करता है। इस संविधान के अतिरिक्त यह भी विशेषता है कि इस प्राप्त प्रत्यय 'हु' में अथवा 'लोप विधान' के पूर्व स्त्रीलिंग शब्दों में रहे हुए अन्त्य स्वर को विकल्प से ह्रस्व से दीर्घश्व की और दीर्घं से ह्रस्वत्व की प्राप्ति भी होती है । यों पंचमी विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग शब्दों में दो रूप होते हैं और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में चार चार रूप हो जाते हैं । उदाहरण के रूप में गाथा में जो पद 'वयंसि बहु' दिया गया है; उसको पंचमी और षष्ठी के बहुवचन में दोनों में गिना जा सकता है। जैसे कि:- वयस्याभ्यः अथवा वयस्थानाम् = वयंसिअह = मित्रों से अथवा मित्रों के बीच में । पूरी गाथा का संस्कृत हिन्दी रूपान्तर यों है:--- * प्राकृत व्याकरण * संस्कृतः - भव्यं भूतं यन्मारितः भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः । अलज्जियत् वयस्याभ्य: यदि भग्नः गृहं ऐष्यत् ॥ अर्थ :- हे बहिन ! यह बड़ा अच्छा हुआ; कि मेरे पति (युद्ध में युद्ध करते करते) मारे गये । यदि वे हार कर ( अथवा कायर बन कर ) घर पर आ जाते तो मित्रों से ( अथवा मित्रों के बीच में ) लज्जित किये जाते । (उनकी हँसी उड़ाई जाती ) ॥ ४- ३५१ ॥ ङे हिं ॥ ४- ३५२ ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य ङोः सप्तम्येकवचनस्य हि इत्यादेशो भवति ॥ वायसु उड्डावन्तिभए पिउ दिट्टिउ सहमति ॥ श्रद्धा वलया महि हि गय श्रद्धा फुट्ट तड चि ॥ १ ॥ अर्थः- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में सभी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'द्वि' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय रूप को आदेश प्राप्ति होती है । प्राप्त प्रत्यय 'हि' की संयोजना करने के पूर्व स्त्रीलिंग शब्दों के अन्य स्वर की विकल्प से 'हृस्वत्व से दीर्घत्व' की और 'दीर्घव से हस्वत्व' की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार से अपभ्रंश भाषा में सभी स्त्रीलिंग वाचक शब्दों के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में दो दो रूप हो जाते हैं। जैसे :- महिहि महीहि = पृथ्वी पर वेणुहि गाय में । मालविचाहिं, मालडि श्रहि = माला में माला पर | गाथा का अनुवाद यों हैं: गाय पर संस्कृतः - बायसं उड्डापयन्त्या प्रियो दृष्टः सहसेति ॥ अनि वलयानि मद्यां गतानि, अर्थानि स्फुटितानि तटिति ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६५ ] www+++++++ +++++++ +++++++++++++++++++++v+++++++++++++++++++ हिन्दी:-शकुन शास्त्र में मकान के मुडेर पर बैठकर कौए द्वारा 'काँव काँव' किये जाने वाले शब्द से किसी के भी पागमन की सूचना मानी जाती हैं तदनुसार किसी एक स्त्री द्वारा कौए की कॉव. काँव वाचक ध्वनि को सुनकर उसको बढ़ाने के लिये ज्यों ही प्रयत्न किया गया तो अचानक ही उसको अपने प्रिय पति विदेश से घर पाते हुए दिखलाई पड़े । इमसे उस स्त्री को हर्ष मिश्रित रोमान्च हो आया और ऐसा होने पर भसके हाथ में पहिनी हुई चूड़ियों में से आधी तो धरती पर गिर पड़ी और आधी 'तडाक' ऐसे शब्द करते ही बड़क गई ।। ४-३५२ ।। क्लीवे जस-शसोरि ॥ ४-३५३ ॥ अपभ्रशे क्लीबे वर्तमानानाम्नः परयो जैस्-शसोः ई इत्यादेशो भवति ॥ कमलई मेल्लवि अलि उलई करि-गंडाई महन्ति ॥ असुलह मच्छण जाह भाल ते ण वि दूर गणन्ति ॥१॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में नपुसकलिा वाले शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्विनीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस् और राम्' के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'इ' की आदेश प्राप्ति होती है। अादेश प्राप्त प्रत्यय 'ई' को संयाजना करने के पूर्ण नपुंसकलिंग वाले शब्दों क अन्त्य स्वर को विकल्प से 'हस्वत्व से दोघज' और दोघ-ब से इस्वत्व' की प्राप्ति क्रम से हो जाती है। यों इन विभक्तियों में दो दो रूप हो जाया करते हैं। जैसे:-त्तई, नेत्ताई-आँखों ने अथवा आँखों को । धणुइं, धणूझ-धनुष्यों ने और धनुष्यों को। अच्छिई, अच्छीईन्नेत्रों ने और नेत्रों को। वृत्ति में दी हुई गाथा में (१) अलि-उलई अलि-कुलानि = मैंबरों का समूह प्रथमा-बहुवचनान्त पर है। (२) कमलाई-कमलानि = कमलों को तथा (३) करि-गंडाई = करिगंडान् = हाथियों के गह-स्थलों को ये दो पद द्वितीया बहुवचनान्त है । पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:संस्कृतः–कमलानि मुक्त्वा अलि कुलानि करिगंडान् कांवन्ति ।। __ असुलभं एष्ठु येषां निधः (भलि), ते नायि (= नेव) दूरं गणयन्ति ॥१॥ हिन्दी:--मेवरों का ममूह कमलों को छोड़ करो हाथियों के गंड स्थलों को इच्छा करते हैं। इस में यही रहस्य है कि जिनका श्राग्रह (अथवा लक्ष्य) कठिन वस्तुओं को प्राप्त करने का होता है, वे दूरी की गणना कदापि नहीं किया करते हैं ॥१॥४-३५३|| कान्तस्यात उ स्यमोः ॥४-३५४॥ अपभ्रंशे क्लीवे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नाम्नो योकारस्तस्य स्यमोः परयोः उं इत्यादेशो भवति ॥ अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६६ ] * प्राकृत व्याकरण .000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भग्ग देखिचि निप्रय-बलु बलु पसरिअउ परस्सु ॥ उम्मिलइ समि-रेह निय करि करवालु पियस्सु ॥१॥ अर्थः-अपभ्रश भाषा में नपुसकलिंग वाले शब्दों के अन्त में 'ककार' वर्ण हो और उस 'ककार' वर्ण का सूत्र संख्या १-१७७ से लोप हो जाने पर शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'भकार' में प्रथम विभक्ति के एकवचन में और द्वितीया विभक्ति के एकत्रचन में प्राप्तव्य प्रत्यय '' और 'लोप रूप शून्य' के स्थान पर केवल '' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होती है । अन्य वर्ण 'क' को लोप हो जाने पर शेष रहे हुए 'अ' वर्ण को 'उदृच' स्वर की संज्ञा प्रान हो जाती है। ऐसे शब्दों में ही उक्त दोनों विभक्तियों के एकवचन में केवल '' प्रत्यय की यादेश प्राप्ति जानना चाहिये । जैसे:-क्षेत्रका नेतन्याँख ने अथग आँख को । अक्षिकम् अच्छिउ-आँख ने अथवा ऑन को । गाथा में आये हुए प्रथमा द्वितीया विभक्तियों के एकवचन वाले पद इस प्रकार से हैं: (१) भग्नक - भग्गङ = टूटती हुई को-मागतो हुई को। (२) प्रसूतक-यसरि अ = फैलती हुई को । (३) तुच्छ कम् = तुच्छ = तुच्छ को ॥ पूर्ग गाथा का अनुवाद यों है:-- संस्कृतः-भग्नकं दृष्ट्वा निजकं बल, बलं प्रसूतकं परस्य । उन्मीलति शशिलेखा यथा करे, करवालः प्रियस्य ॥१॥ हिन्दी-अपनी फौज को भागते हुए अथवा बिखरते हुए देख करके और शत्रु की फौज को जीतते हुए एवं फैलते हुए देख करके मेरे प्रियतम के हाथ में तलवार यो घम मतो हुई-शत्रुओं के गर्दनों को काटती हुई दिखाई देने लगी कि जिस प्रकार आकाश में उगते हुए बाल-चन्द्रमा की 'रेखा अथवा लेखा' सुन्दर दिखाई पड़ती है ॥ ४ ३५४ ।। सादे सेही ॥ ४-३५५ ॥ अपभ्रंशे सर्वोदे रकारान्तात् परस्य कसेही इत्यादेशो भवति ॥ जहाँ होन्तउ आगदो। तहाँ होन्त उ अगदो। कहां होन्तउ श्रागदो। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'सव = सव' आदि अकारान्त सर्वनामों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हां' प्रत्यय रूप को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:यस्मात् भवान् आगतः = जहां होन्त उ आगो जहाँ से आप आये हैं। (२) तस्मात भवान्भागता = तहां होन्तत आगदी वहाँ से आप पाये हैं। (३) कस्मात भवान् आगतः = कहाँ होन्तउ आगदो = कहाँ से प्राप पाये हैं ।। ४-३५५ ।। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14040046 * प्रिर्योदय हिन्दी व्याख्या सहित 00400000 किमो डिहे वा ॥ ४-३५६ ॥ पशे किमो कारान्तात् परस्य उसे डिहे इत्यादेशो वा भवति || जड़ तो तुट्टर नेहडा मई सुहुं न वि तिल-तार || तं किहे वकेडिं लोअहिं जोइज्जउं सयवार ॥ १ ॥ अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में 'किम' सर्वनाम के श्रङ्ग रूप 'क' शब्द में पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डि = इहें प्रत्यय रूप को आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। डिहे' प्रत्यय में 'हकार' इत्-संज्ञक होने के अङ्ग रूप 'क' के अन्य 'म' का लोप होकर शेष अंग रूप हलन्त 'क' में 'इहे' प्रत्यय की संयोजना की जानी चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से पचान्तर में 'काहां और कहां' रूपों की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण के रूप में गाथा में 'कि' पद दिया गया है। जिसका अर्थ है:--- किस कारण से | पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं: [ ४६७ ] 000000004444 संस्कृत: - यदि तस्याः त्रुट्यतु स्नेहः मया सह नापि तिलवार : (१) तत् कस्मात् वक्राभ्याम् लोचनाभ्याम् दृश्ये (अहं) शतवारम् || हिन्दी:- यदि उसका प्रेम मेरे प्रति टूट गया है और प्रेमका अंश मात्र भी मेरे प्रति नहीं रह गया है तो फिर मैं किस कारण से उसके टेढ़े टेढ़े नेत्रों से सैकड़ों बार देखा जाता हूँ ? अर्थात तो फिर मुझे वह बार बार क्यों देखना चाहती है ? || ४-३५६ ।। ङो हिं ॥ ४-३५७ ॥ अपभ्रंशे सर्वादेरकारानात् परस्य ङ े: सप्तम्येक वचनस्य हिं इत्यादेशो भवति ॥ जहिं कपिज्ज सरिय सरू छिज्जर खग्गिया खरगु ॥ भद्दवउ || माहउ सरउ || तहिं तेइ भड-बड निर्वाहि कन्तु पयासह मम् ॥ १ ॥ एकदि ख सावणु श्रहिं महिल- सत्यरि गण्डे-त्थले अंगिहिं गिम्ह सुहच्छी - तिल-वणि मम्ग तहे मुद्धहे मुह-पंकड़ भावासिउ सिमिरू || २ || हिचडा फुट्टि तडत्ति करि कालक्खेवें काई ॥ देवख ं हय - विहि कहिं ठवर पई विणु दुक्ख-सयाई ॥ ३ ॥ सिरु ॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६ ] * प्राकृत व्याकरण 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में सर्व = सम्छ' अदि अकारान्त सर्वनाम वाचक शब्दों के सामी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जि' के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति होती है । पृचि में दो गई' गाथाओं में आये हुए निम्नोक्त पद सप्तमो विभक्ति के एकवचन में 'हि' प्रत्यय के साथ क्रम से इप्स प्रकार है: (१) जहिं = यस्मिन् (अथवा यत्र ) = जिसमें ( अथवा जहाँ पर ); (३) तहि = स्मि ( अथवा तत्र ) = उसमें ( अथवा वहाँ पर); (३) एक्काहिं = एकस्मिन् = एक में; (४) अन्नहिं - छान्यस्मिन् = दुमरे में; (५) कर्हिकस्मिन् = कहाँ पर । तीनों गाथाओं का संस्कृत और हिन्दो अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः—यस्मिन् कल्प्यते 'शरेण शरः, छिद्यते खड्गेन खड्गः ॥ तस्मिन तादृशे पेट घटा निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥ १॥ हिन्दी-जहाँ पर अर्थात जिस युद्ध में बाण से बाण काटा जाता है अथवा काटा जा रहा है और जहाँ पर तलवार से तलवार काटो जा रही है। ऐसे भयकर युद्ध में रणवीर रूपी बादलों के समूह में (मेरा बहादुर) पति (अन्च वोरों को) (युद्ध कला का प्रादर्श) मागे बतलाता है (अथवा बतला रहा है)॥१॥ संस्कृत:-एकस्मिन् अक्षिण श्रावणः, अन्यस्मिन् भाद्रपदः । माधवः (अथवा माध:) महीतलत्रस्तर गण्ड स्थले शरत् ।। अंगेषु ग्रीष्मः सुखासिका तिलवने मार्गशीर्षः । तस्याः मुग्धायाः मुख पंकजे श्राचासित: शिशरः ।। २ ॥ हिन्दी:- काव्य रूप श्लोक में ऐसी नायिका की स्थिति का वर्णन किया गया है; जो कि अपने पति से दूर स्थल पर अवस्थित है। पत्ति-वियोग से इस नायिका के आँखों में अश्रु प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, इससे ऐसा मालूम होता है कि मानों इसकी एक श्रॉब में श्रावण मास का निवास स्थान है और दूसरी में भाद्रपद मास है । ( पत्र और पुष्पों से निर्मित ) उसका भूमि तल पर बिछाया हुआ बिस्तरा बसंत ऋतु के समान अथवा माघ मास के समान प्रतीत होता है। उसके गालों पर शरत् ऋतु को थाभा दिखाई देती है और अङ्ग-बङ्ग पर ( वियोग-जनित-उष्णता के कारण से) ग्रीष्म ऋतु का श्राभोस प्रतीत हो रहा है । ( जब वह शांति के लिये ) तिल उगे हुए खेतों में बैठती है तो ऐसा मालूम होता है कि मानों यहाँ पर मार्गशीर्ष मास का समय चल रहा है। ऐसी उस मुग्धा नायिका के मुख. कमल का स्थिति है कि मानों अमक मुख-कमल पर शिशिर ऋतु का निवास स्थान है ।। २॥ संस्कृत:-हृदय ! स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा काल क्षेपेण किम् ॥ पश्यामि हत विधिः क स्थापयति त्वया विना दु:ख शतानि ।। ३ ।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित $66044060664684666. ४६६ ] हिन्दीः――हे हृदय ! ‘तड़ाक ऐसा शब्द करके अथवा करते हुए फटजा- विदीर्ण होजा; ऐसा करने में विलम्ब करने से क्या (लाभ) है ? क्योंकि मैं देखता हूँ कि यह दुर्भाग्य तेरे सिवाय अन्यत्र इन सैंकड़ों दुःखों को कहाँ पर स्थापित करेगा ? अर्थात् इन श्रापति सैंकड़ों दुःखों को झेलने की अपेक्षा से तो मृत्यु का वरण करना ही श्रेष्ठ है ।। ४-३५७ ।। यत्तत्किभ्यो हो ढासु र्न वा ।। ४-३५८ ॥ अपभ्रंशे यत्तत् किम् इत्येतेभ्यो कारान्तेभ्यः परस्य उसी डासु इत्यादेशो वा भवति ॥ कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छइ रूसह जासु ॥ सिथिहित्थिहि वि ठाउ वि फेडइ तासु ॥१॥ जीव कासु न वलहजं धरणु पुणु कासु न हट्टु ॥ दो विश्रवसर - निवडियाई' तिरा-सम गगह विसि ॥२॥ संस्कृत: अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यजल और किए' के अकारान्त पुल्लिंग श्रवस्था में षष्ठी विभक्त के एक वचन में संस्कृताय प्रत्यय "इस " के स्थान पर 'डासु = श्रासु'' प्रत्यय की विकल्प से प्रदेश प्राप्ति होती है। 'डासु" रूप लिखने का तात्पर्य यह है कि "यतु =ज", "तसूत" और "किम् = क" में स्थित अन्त्य स्वर "कार" का "डासु = आसु' प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है । यो "डासु" में स्थित "डकार" इत्संज्ञक है। गाथाओं में इन सर्वनामों के जो उदाहरण दिये गये हैं; वे कम से इस प्रकार है: -- (१) जालु यस्य = जिसका; (२) नासु तस्य उसका और (३, कासु = कस्य = किसका || गाथाओं का अनुवाद निम्न प्रकार से है: :- कान्तः श्रस्मदीयः इला सखिके 1 वियेन रुष्यति यस्य || अस्त्र शस्त्रः हस्तैरषि स्थान मपि स्फोटयति तस्य ॥१॥ हिन्दी :- सखि ! हमारा कान्त - प्रियपति - जिस पर निश्चय से रूठ जाता है - श्रथवा क्रोध करता है; तो उसके स्थान को मी निश्चय ही अस्त्रों से, शस्त्रों से और ( यहाँ तक कि ) हाथों से भी नष्ट कर देता है ॥१॥ संकृस्तः — जीवितं कस्य न वल्लभकं वनं पुनः कस्य नेष्टम् ॥ अपि अवसर निपतिते, तृणसमे गणयति विशिष्टः | २|| हिन्दी : - किसको (अपना) जीवन प्यारा नहीं हैं ? और कौन ऐसा है जिसको कि धन (प्राप्ति) आकांक्षा नहीं है ? अथवा धन प्यारा नहीं है ? किन्तु महापुरुष कठिनाइयों के क्षणों में भी अथवा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०० ] 5099466 समय पड़ने पर भी दोनों को ही (जीवन तथा धन को भी) तृण घास तिनके के समान ही गिनता है । अर्थात दोनों का परित्याग करने के लिये विशिष्ट पुरुष तत्पर रहते हैं ||२||४-३५८|| स्त्रिय डहे ॥ ४- ३५६ ॥ अपभ्रंशे स्त्रीलिंगे वर्तमानेभ्यो यत्तत्- किंम्यः परस्य इसी उहे इत्यादेशो वा भवति || जहे केरल | तहे करउ | कहे केरउ || * प्राकृत व्याकरण * 0000000 अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाचक सर्वनाम 'या = जा', सा' और 'का' के पनी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस' के स्थान पर 'उहे आहे' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'बहे' रूप लिखने का यह रहस्य है कि 'जा, मी अथवा ता और का' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्री' का 'डद्दे - अहे' प्रत्यय जोड़ने पर लाप हो जाता है। यों 'हे' प्रत्यय में अवस्थित 'डकार' इत्संज्ञक है। इस प्रकार हैं:--- १) रत्याः कृते = जहे रउ = जिसके लिये । (२) तस्याः कृते = त केरउ = उसके लिये और (३) कस्याः कृते कहे फेरउ = किसके लिये ।।४-३५६ ॥ उदाहरण कम = तदः स्यमो अपभ्रंशे यत्तदोः स्थानं स्यमोः परयोर्यथासंख्यं धुं श्रं इत्यादेश वा मतः ॥ गणि चिट्ठदि नाहु रणि करदि न भ्रन्ति ॥१॥ पचे । तं बोल्लिइ जु निव्वहड़ || I ७ श्रं ॥ ४-३६० ॥ अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यत' सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में से प्रत्यय प्राप्त होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'यत' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में ' रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तत' सर्वनाम में भी प्रथमा विभति के एकवचन में सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम' प्रत्यय जुड़ने पर मूल शब्द 'तत्' और विभक्ति-प्रत्यय क्षेत्रों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में '' रूप को विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार से है:(१) प्रांगण तिष्ठति नाथः यत् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम्-प्रगणि विवि नाडु त्र राण करदि न अन्ति = (क्योंकि) मेरे पति यांगन में विद्यमान है; इस लिये रण-क्षेत्र में संदेह को (अथवा भ्रमण को ) नहीं करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पचान्तर में 'यत्' के स्थान पर 'जु' रूप को और 'तत्' के स्थान 'तं' रूप को भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है: - तं बलम जु निव्वन्तत् जल्प्यते यत् निर्वहति (उससे) वही बोला जाता है, जिसकी वह निबाहता है ।।४-३६० ॥ I Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * इदम दमुः क्लीवे ॥४-३६१ ॥ अपभ्रंशे नपुसक लिंगे वर्तमानस्येदमः स्यमोः परयोः इमु इत्यादेशो भवति । इमुकुलु तुह तणउं । इस कुलु देवखु || अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इदम् सर्वनाम के नपुसकलिंग बाचक रूप में प्रथमा विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' को संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति में 'काम' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'इदम्' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों के एक वचन में 'इमु' रूप की आदेश प्राप्ति होतो है। जैसेः-1१) इदम् कुलम् = इमु कुल = यह कुल = या वंश । (२). तष तृणम् मह तण = तुम्हारा घास अथवा त्वत तणयं = तुह तणउं:- तुम से सम्बन्ध रखने वाला, ( यह, कुल ई ) (३) इदं कुलं पश्य = इभ कुल देवख = इस कुल को देख्न । ४.३६१ ॥ एतदः स्त्री-पु-क्लीबे एह-एहो-एहुं ॥ ४-३६२ ॥ अपभ्रशे स्त्रियां पुसि नपुसके वर्तमानस्येतदः स्थाने स्यमोः परयोर्यथा-संख्यम् एह पहो एहु इत्यादेशा भवन्ति ॥ एह कुमारी एहो नरू एहु मगोरह-ठाणु ॥ एहउँ वह चिन्तन्ताहं पच्छइ हाइ विहाणु ।। १ ।। अर्थः-अपनश भाषा में 'एतत' सर्वनाम के पुल्लिा में प्रथमा विभक्ति के एकत्रचन में मि' प्रत्यय प्राप्त होने पर सथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम् प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'एतत' और 'प्रत्या' दोनों के स्थान पर 'हो' पद रूप की आदेश प्राप्त होती है । इसी प्रकार से 'पतत' सर्वनाम के स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में तथा द्वितीया के एकवचन में मूल २.ब्द और प्रत्यय के स्थान पर 'ए.' पद रूप को आदेश प्राप्ति होती है । नपुसकलिंग में भी एतत' सर्वनाम की प्रथमा के एकवचन में और द्वितीया के एकवचन में मूल शब्द तथा प्रत्यय दोनों के स्थान पर पहु' पर रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । सदाहरण क्रम से यों है:-(१) एषो मरः- एही नरू-यह नर पुरुष । (२) एषा कुमारी= एहतुमारी = यह कन्या । (३) एतन्म नोरथ स्थानम् एलु मणारह- ठाणु = यह मनोरथ स्थान ।। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत:--- एषा कुमारी एष (अहं) नरः एतन्मनौरथ-स्थानम् ॥ एतत् मूखोणां चिन्तमानानां पश्चात् भवति चिभातम् ॥ १ ॥ हिन्दी:--यह कन्या है और मैं पुरुष हूँ; यह (मे) मन-कल्पना यों का स्थान है; यो सोचते हुए मूत्र पुरुषों के लिये शीघ्र ही प्रातः काल हो जाता है । और उनकी मनो-कामनाऐं ज्यों की त्यों ही रह जाती है। ) ॥१॥ ४-३६२ ।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०२ ] * प्रांकृत व्याकरण * एइर्जस्-शसोः ॥ ४-३६३ ॥ अपभ्रंशे एतदो जस्-शसोः परयोः एद्द इत्यादेशो भवति । एइ ति घोडा एह थलि ॥ ( ३३०-४ ) एह पेच्छ || अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'एततु ' सर्वनाम में प्रथमा विभक्ति बहुवचन वाचक प्रत्यय 'जस्' की प्राप्ति होने पर तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन वाचक प्रत्यय 'शस्' की संयोजना होने पर मूल शब्द 'एतत्' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में 'पद्द' पदरूप की आदेश गति होती है । जैसे:—पतं ते म्याः =एइ ति घोडा- ये वे (हो) घोड़े । (२) एवा स्थली= एह धाल = यह भूमि || एतान् पचय = एह पेच्छ = इनको देखो ॥ ४-३६३ ।। दस ओइ ॥ ४-३६४ ॥ अपत्र 'शे अदसः स्थाने जस शसोः परयोः श्रोह इत्यादेशो भवति ॥ जर पुच्छह पर बडाई तो चड्डा घर भइ || विहलिश्च - जण - प्रभुद्धरगु कन्तु कुडीरह जोड़ || १ || श्रमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा । 4444444444 संस्कृत:- यदि पृच्छण विह्वलित अर्थः-- श्रपभ्रंश भाषा में 'ऋदस्' सर्वनाम में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की योजना होने पर मूल शब्द 'अदस्' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों हो त्रिभक्तियों में 'ओई' पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:अमो = श्रइ = वे ( अथवा ये) और श्रमून् = ओइ उनको (अथवा इनको ) ॥ नपुंसकलिंग वाचक उदाहरण यों है: – (१) अमूनि वर्तन्ते - ओइ वन्ते वे होते हैं अथवा बरतते हैं । (२) असूनि पृच्छ = ओह पुच्छ = उनको पूछो । (३) घर ओइ = गृहाणि अमूनि = वे घर; इत्यादि ॥ गाथा का अनुवाद यों है: - महान्ति गृहाणि तद् महान्ति गृहाणि अमूनि || अनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके पश्य ॥ १ ॥ हिन्दीः यदि तुम बड़े घरों के सम्बन्ध में पूछना चाहते हो तो बड़े घर वे हैं। दुख से व्याकुल हुए पुरुषों का उद्धार करने वाले (मेरे) त्रियतम को कुटीर में (झोंपड़े में ) देखो ॥१॥४-३६५४।। इदम आयः ॥ ४-३६५ ॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * m omorroenormomorrorwwwserrore00000000000000000000minera.mmm अपभ्रशे इदम् शब्दस्य स्यादौ आय इत्यादेशो भवति ॥ प्रायई लोअहो लोअणई जाई सरई न भन्ति । अप्पिए दिट्ठइ मउलिअहिं पिए दिइ विइसन्ति ॥ १ ॥ सोसउ म सोसउ चिन उग्रही बड़वानलस्स कि तेण ॥ जं जलइ जले जलणो श्रापण वि किं न पज्जतं ॥ २ ॥ आयहो दड-कलेवरहों जं बाहिउ त सारू ।। जइ उहभइ तो कहइ अह डज्झइ तो छारू ॥ ३॥ अर्थ:- अपभ्रंश भाषा में 'इइम्' सर्वनाम के स्थान पर विमक्ति बोधक प्रत्यय से, जस्' आदि की संयोजना होने पर 'श्राय' अङ्ग रूप को श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) आयई-इमानि-ये। (२) आएण-एतेन इससे । (३) आयहो-अस्य = इसका; इत्यादि ॥ गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दो अनुवाद कम से यों है:संस्कृतः-इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति, न भ्रान्तिः ।। अप्रिये दृष्टे मुकुलन्ति, प्रिये दृष्टे विकसन्ति ।। १ ।। हिन्दी:-इसमें संदेह नहीं है कि-जनता की ये आँखें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण करती हैं। जब इन्हें अप्रिय (पाते) दिखलाई पड़ती है तब ये बंद हो जाता है और जब इन्हें प्रिय (बातें) दिखलाई पढ़ती हैं, तब ये खिल उठती है अथवा ये खुल जाती हैं ॥ १ ॥ संस्कृतः-शुष्यतु मा शुष्यतु एच (= वा) उदधिः वडवानलस्य किं तेन ॥ यद् ज्वलति जले, ज्वलनः एतेनापि किं न पर्यासम् ।। २ । हिन्दी:-समुद्र परि पूर्ण रूप से सूखे अथवा नहीं सूखे, इससे बढ़वानल नामक समुद्री अग्नि को क्या ( तात्पर्य है ? क्योंकि यदि वह वड़वानल नामक प्रचंड अग्नि जल में जलती रहती है तो क्या इतना हो पर्याप्त नहीं है ? अर्थात् जल में अग्नि का जलते रहना हो क्या विशिष्ट शक्ति-शोलता का योतक नहीं है ? ॥२॥ संस्कृत:-अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं ( लब्धम् ) तत्सारम् ।। यदि पाच्छाद्यते तस्कुथ्यति यदि दह्यते तत्तारः ॥ ३ ॥ हिन्दी:-इस नश्वर ( और निकम्मे ) शरीर से जो कुछ भी ( पर-सेवा आदि रूप ) कार्य की प्राप्ति कर ली जाय तो वही (बात)सार रूप होगी, क्योंकि ( मत्यु प्राप्त होने पर ) यदि इसको ढांक कर Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०४ ] * प्राकृत व्याकरण * रखा जाता है तो यह सड़ जाता है और यदि इसको जला दिया जाता है तो केवल राख ही प्राप्त होती ६ ॥ ४- ३६५ ।। सर्वस्य साहो का || ४-३६६ ॥ अपभ्रंशे सर्व - शब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ॥ साहू वि लोड़ तडप्फडड़ वह्नत्तणही तणेण ॥ चप्पर परिपावित्र्य हथि मोक लडेग ॥ १ ॥ पक्षे | सव्यु वि ॥ "I T अर्थ:- अपभ्रंश भाषा में 'सर्व' सर्वनाम के स्थान पर 'मन्त्र' अङ्गरूप की प्राप्ति होती है और विकल्प से 'सर्व' के स्थान पर 'साह' श्रङ्गरूप की प्राप्ति भी देखी जाती है । जैसे:- सर्वः ==सम्बु और साहु सच | यो अन्य विभक्तियों में भो 'शाहू' के रूप समझ लेना चाहिये | गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृतः --- पुर्वोऽपि लोकःप्रस्पन्दते ( तडफडइ) महत्त्वस्य कृते || पुनः प्राप्यते हस्तेन मु ंन ॥ १ ॥ --- मह हिन्दी:- ( विश्व में रहे हुए मभो मनुष्य बड़प्पन प्राप्त करने के लिये तड़फड़ाते रहते हैव्याकुलता मय भावनाएँ रखते हैं। परन्तु बड़ तभी प्राप्त किया जा सकता है; जबकि मुक्त-हस्त होकर दान दिया जाता है । अर्थात त्याग से ही दान से ही बड़प्पन की भारित की जा सकती है ।। ४-३६६ ।। किम: काई - कारण वा ॥ ४-३६७ ॥ अपभ्रंशे किमः स्थाने काई कवण इत्यादेशो वा भवतः ॥ जह न सु वह दूइ घरू काई अहो मुहुं तुज्झु " यजु खंडड़ तर सहिए सो पिउ होइ न मज्भु ॥ १ ॥ काइ न दूरे देवख ॥ (३४६ - १) । पक्षे । फोडेन्ति जे हितं अाउं ताई पराई कब घण || रक्खेज्जद्दु लोहो अपण बालहे जाया विसमं थय ॥२॥ - सुपुरिस कंतुहे अरहरहिं भण" कज्जें कवणे ॥ जिव जिव बहुत्त लहईि तिवँ तिव नवद्दि सिरेण ॥ ३ ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५०५ ] moor.000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 जा ससणहो तो मुइभ अह जीवइ निम्नेह ।। बिहिं वि पयारेहिं गहन धण किं गज्जहि खल मेह ||४|| अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'कि' सर्वनाम के स्थान पर मूल अंग रूप से 'काई' और 'कवण' ऐसे अंग रूपों की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। पक्षान्तर में 'कि' अंग रूप का सदुभाव भी होता है। 'काई' के विभक्ति वाचक रूपों का निर्माण 'बुद्धि' आदि अथवा 'इसी' आदि इकारान्त शब्दों के समान जानना चाहिये । कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-(१)किमू-काई -क्यों अथवा किस कारण से । (२) का-कषण = कैप्सी ? (३) केन = करणेण-किस कारणं से । (४) किम कि क्यों: इत्यादि ।। वृत्ति में दी गई गाथाओं का अनुवाद कम से इस प्रकार है:-- संस्कृतः-यदि न म प्रायाति, दति ! गृहं किं अधो मुखं तव ।। वचनं यः खंडयति तब, सखिके ! सप्रियो भवति न मम ||१|| हिन्दी:-नायिका अपनी दूती से पूछती है कि:-हे दूते यदि वह (नाय) मेरे घर पर नहीं आता है, तो (तू) अपने मुख को नोचा क्यों ( करती है ) ? हे सखि ! जो तेरे वचनों को नहीं मानता है अथवा तेरे वचनों का उल्लङ्घन करता है; वह मेरा प्रियतम नहीं हो सकता है' ॥१॥ ... संस्कृतः-स्फोटयतः यो हृदयं प्रात्मीयं, तयोः परकीया का घृणा? . रचत लोकाः पारमानं चालायाः, जाती विपमी स्तनी ॥२॥ हिन्दी:- जो स्वयं के हृदय को चोर करके अथवा फोड़ करके उत्पन्न होते हैं। उनमें दूसरों के लिये दया के माष कैसे अथवा क्यों कर हो सकते हैं ? हे लोगों ! अपना बचाव कर्ग; इस चाली के दो (निर्दयी और) कठोर स्तन उत्पन्न हो गये हैं ॥ २॥ संस्कृतः -सुपुरुषाः कंगोः अनुहरन्ति भण कार्येण केन ? यथा यथा महत्तं लभन्ते तथा तथा नमन्ति शिरसा ॥३॥ हिन्दी:-कंगु नामक एक पौधा होता है, जिसके ज्यों ज्यों फज़ आते हैं त्यों त्यों वह नोचे को ओर झुकता जाता है; उसो का आधार लेकर कवि कहता है कि:-कृपा करके मुझे कहो कि किस कारण से अथवा किस कार्य से सज्जन पुरुष कंगु नामक पौधे का अनुकरण करते हैं ? सजन पुरुष जैसे जैसे महानता को प्राप्त करते जाते है, वैसे वैसे वे सिर से मुकते जाते है अथवा अपने सिर को झुकाते जाते हैं । नम्र होते रहते हैं ॥ ३ ॥ . संस्कृत:- यदि सस्नेहा तन्मृता, अथ जीवति.निःस्नेहा ।। द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां गतिका, धन्या, कि गजेसि १ खल मेष ॥ ४ ॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०६ ] हिन्दी :- अपनी नायिका से दूर ( विदेश में ) रहते हुए एक नायक उमड़ते हुए मेघ को संकेत करता हुआ अपनी मनोभावनाएं यों व्यक्त करता है कि - "यदि वह मेरी प्रियतमा मुझ से प्रेम करती है तो मेरे वियोग में वह अवश्य ही मर गई होगी और यदि वह जीवित है तो निश्चय हो समझो कि वह मुझसे प्रेम नहीं करती है, कारण कि वियोग-जनित दुःख का उसमें अमाव है। दोनों हो प्रकार की गतिर्वा मेरे लिये अच्छो हैं, इसलिये हे दुष्ट बादल ! ( व्यर्थ में हो ) क्यों गर्जना करता है ! तेरी गर्जना से न तो मुझे खेद उत्पन्न होता है, और न सुख ही उत्पन्न होता है ।। ४ । ४-३६७ ।। सौतुहु ।। ४-३६८ ॥ * प्राकृत व्याकरण * युष्मदः अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुहुं इत्यादेशो भवति || भमर मरुण कुणि राडर सा दिसि जोड़ म रोइ ॥ सा मालइ सन्तरि जसु तुहुँ मरहि विओोइ ॥ १. | अर्थः- अपभ्रंश भाषा में "सू-तुम" वाचक सर्वनाम " शुष्मद्" में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "श्रुघ्नद्" और प्रत्यय दोनों के स्थान पर "तुहुँ' पर रूप को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-म् = = तू | गाथा का अनुवाद य है: -- संस्कृतः — अमर 1 मा रुम झुणु शब्द कुरु, तो दिर्श विलोकय मा रुदिहि || सा मालती देशान्तरिता, यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे ।" 小 हिन्दी: – ६ भवरा ! ' रुण झुण-रुण झुण" शब्द मन कर; उस दिशा को देख और रुदन मत कर । वह मालती का फूल तो बहुत ही दूर है, जिसके वियोग में तू मर रहा है ।। १ ।। ४-३६६ ।। जस् - शसोस्तुम्हे तुम्हइ ॥ ४-३६६ ॥ अपभ्रंशे युष्मदी जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हई इत्यादेशौ भवतः ॥ तुम्हे तुम्हई जाह || तुम्हें तुम्हई पेच्छइ । वचन भेदो यथासंख्य निवृत्यर्थः ॥ अर्थ:- अपभ्रंश भाषा में "तू तुम" वाचक सर्वनाम "युधम" शब्द में प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में ''जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर मूल शब्द युष्मद्" और "जस्-प्रत्यय'' दोनों के स्थान पर "तुम्हे और तुम्हइ" ऐसे दो पद-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इस "युष्मद" शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में "शसू" प्रत्यय की संयोजना करने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "प्रत्ययशस्" दोनों के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के समान ही "तुम्हे और तुम्हइ" ऐसे हो दो पद-रूपों की प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- यूयम् जानीय तुम्हे जाणह अथवा तुम्हई जाणह = तुम जानते " Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५०७ ] omimeo000000000000000000000000wwwrecoroorwooooooooooooooterrorani हो । युष्मान् पश्यति = तुम्हे पेच्छद अथवा तुम्हइं पेच्छन - तुमको यह देखता है आपको वह देखता है। इन भादेश प्राप्त पदों को पृथक पृथक रूप से लिखने का तात्पर्य यह है कि "दोनों ही पद" प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से होते हैं; क्रम से नहीं होते हैं । यो "यथासंख्य" रूप का अर्थात "कम-रूप" का निषेध करने के लिये ही "वचन-भेद' शब्द का वृत्ति में उल्लेख किया गया है ॥४-३६६ ॥ ट-उयमा पई तई ॥ ४-३७० ॥ अपभ्रशे युष्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह पई तई इत्यादेशौ भवतः ॥ टा। मुई मुकाहं वि वर-तरु फिट्टई पत्रचणं न पत्ताणं ॥ तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहवि ता तेहिं पत्तेहिं ।।१॥ मधु हिअ तई ताए तुहं सवि अन्ने विनडिज्जइ ।। पिका दाई कर छाई हु को चिनिज्जइ ॥२॥ ङिना। पई' मई बेहिं वि रण-गहिं का जयसिरि तक ई॥ केसाई लेपिणु जम-परिणि भण सुहु को थक्के इ ॥३॥ एवं तई। श्रमा पई मेलन्तिहे महू भरणु मई मेल्लन्तहो तुझ ।। सारस जसु जो वेग्गला सो कि कृदन्तही समु ॥४॥ एवं तहं॥ अर्थः-अपभ्रश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम में तृतीया विभक्ति के पकवचन में 'टा' प्रत्यय का योग होने पर मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर पई और तई ऐसे दो पदों को नित्य श्रादेश प्राप्ति होती है । इसी प्रकार से इसी 'युष्मद्' सर्वनाम में सामी विभक्ति वाचक 'सि' प्रत्यय की संप्राप्ति होने पर मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के हो स्थान पर 'पई और तई ऐसे दो पदों की नित्य आदेश भाप्ति जानना चाहिये । यही संयोग द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'श्रम्' के मिलने पर भी मूल शब्द "युष्मद्' और प्रत्यय 'मम्' दोनों का लोप होकर दोनों के स्थान पर भी 'पई और तई पदों को श्रादेश प्राप्ति नित्यमेव हो जासो है। मूल सूत्र में "टा, कि अम्' का क्रम व्यवस्थित नहीं होकर जो अव्यवस्थित कम चतताया गया है अर्थात् पहिले 'द्वितीया, तृतीया और सप्तमी' का क्रम बतलाना चाहिये था वहाँ पर 'तृतीया, सप्तमी और द्वितीया' का क्रम बतलाया है, इसमें 'सूत्र रचना' से सम्बन्धित सिद्धांत कारण रूप Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०८ ] # प्राकृत व्याकरण * से रहो हुआ है। वह कारण यों है कि सूम-रचना में मर्व प्रथम 'अपातिचाप' अक्षरों वाला पद लिया जाता है और बाद में क्रमिक रूप से अधिक अक्षरों वाज्ञ पद को स्थान दिया जाता है अतएव उक्त सूत्र-रचना सिद्धान्ततः सही है और इसमें कोई भी व्यतिकम नहीं किया गया है। 'पई और तई पदों के उदाहरण क्रम से तीनों विभकियों में यों हैं:(१) स्वाम् = पई अथवा तई - तुझ को.। (२) या पई अथवा तई - तुझ से। (३) त्वार्य -पई अथवा तई - तुझ में; तुझ पर । वृत्ति में आई हुई गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृतः त्वया मुक्तानामपि घरतरो विनश्यति (फिट्टइ) न पत्रत्वं पत्राणाम् ॥ तब पुनः छाया यदि भवेत् कथमपि तदा तैः पत्रः ( एव ) ॥१॥ हिन्दी:-हे श्रेष्ठ घृक्ष ! तुझ से अलग हुए भी पत्तों का पत्तापना नष्ट नहीं होता है फिर भी यदि किसी तरह से तेरे उन पचों से उस समय भी छाया होती हो ।। 1. इस गाथा के आदि में स्वया' के स्थान पर 'पई पद का उपयोग किया गया है। संस्कृता-मम हृदयं त्वया. तया त्वं, सापि अन्येन बिनाट्यते ।। प्रिय ! किं करोम्यहं ? कि त्वं ? मत्स्येन मत्स्यः गिन्यते ॥२॥ हिन्दी:-कोई एक नायिका अपने नायक से कहती है कि हे प्रियतम ! मेरा हृदय तुम से अधिकृत कर लिया गया है और तुम उस (स्त्री विशेष ) से अधिकृत कर लिये गये थे और वह (खी) भी अन्य किसी (पुरुष विशेष) मे अधिकृत कर ली गई है। अब हे स्वामीनाथ ! (तुम ही बतलायो कि) मैं क्या करूँ ? और तुम भी क्या करो ? (इस विश्व में तो) बड़ी मछली से छोटी मछला निगल ली जाती है । (यहाँ पर तो यही न्याय है कि सबल निर्बल को सताता रहता है ।।२।। संस्कृत:-त्वयि मपि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कपति ।। केशाहीत्वा यमगृहिणी, भण, सुखं कस्तिष्ठति ॥३॥ हिन्दी:-तुम्हारे और मेरे दोनों हरे के रण-क्षेत्र में उपस्थित होते हुए कौन विजय लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इच्छा करता है ? आशा करता है अथवा अपेक्षा रखता है ? यमराज की धर्म-पत्नी को (अर्थात मृत्यु को) फेशों द्वारा ग्रहण करके (याने मृत्यु के मुख में चले जाने पर) कहो बोलो ! कौन सुख पूर्वक रह सकता है ? ॥२॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4000000 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 00200 0004000000000 " संस्कृतः त्वां मुञ्चन्त्याः मम मरणं, मां मुञ्चतस्तत्र सारस: (यथा) यस्य दूरे (वेग्गला), स कृतान्तस्य साध्यः || ४ || हिन्दी:- यदि मैं तुम को छोड़ दूं तो मेरी मृत्यु हो जायगी और यदि तुम मुझको छोड़ देते ही तो तुम मर जाओगे । ( दोनों ही प्रियतम और प्रियलमा परस्पर में एक दूसरे के वियोग में मृत्यु प्राप्त कर लेंगे — जैसेकि - ) नर सारस और मादा सारस यदि एक दूसरे से अलग हो जाते हैं, तो वे यमराज के अधिकार में चले जाते हैं - अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं || ४ || [ ५६ ] वृति में कहा गया है कि जैसे 'पई' का प्रयोग गाथाओं में किया गया है; जैसे ही 'ताई' का प्रयोग भी स्वयमेव समझ लेना चाहिये ||४॥ भिसा तुम्हेहिं ॥ ४-३७१ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो भिसा सह तुम्हेंहिं इत्यादेशो भवति || तुम्हहिं अम्देहिं जं कि अजं दिट्ठउं बहुश्रजखेण ॥ तं तेवहुउं समर - भरू निज्जिउ एक-खणेण ॥ अर्थः- अपनश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'मिस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'भिस' दोनों के स्थान पर 'तुम्हेंहिं' ऐसे एक पद की ही नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है । जैसे: युष्माभिः = तुम्हेहि = तुम (सब) से अथवा आप (सब) से गाथा का अनुवाद यों है: युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतं दृष्टं बहुक- जनेन ॥ तद् ( =तदा ) तावन्मात्रः समर भरः निर्जितः एक क्षणेन ॥ १ ॥ हिन्दी:- जो कुछ थाप (सब) से और हम सब ) से किया गया है, वह सब अनेकों पुरुष द्वारा देखा गया है। क्योंकि ( हमने ) एक क्षण मात्र में ही इतनी बड़ी लड़ाई जीत ली है-शत्रु को पलक मारत ही धराशायी कर दिया है ।। १ ।। ४-३७१ ।। ङसिङम्भ्यां तर तुज्झ तु ४-३७२ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो ङसि - कस्यां सह त तुज्झ तुत्र इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ होन्त श्रामदो । तुज्झ होन्तउ भागदो । तुध होन्तउ आगदी ङसा । तउगुमा - संप तुज्झ मदि तु अणुचर खन्ति ॥ जइ उपपत्तिं अन जब महि-मंडल सिक्खन्ति || ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१. * प्राकृत व्याकरण * -0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद' सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'ति' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'तउ अथवा तुझ अथवा तु, ऐसे तीन पर-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-त्वत् = तउ अथश तुजा अथवा तुध-तुझसे तेरेसे ।। इसी प्रकार से 'युष्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में षष्टी विभरिक के एकवचन के प्रत्यय 'स' का संयोग होने पर इसी प्रकार से मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'स' दोनों हो के स्थान पर वैसे ही 'तर, अथवा तुम अथवा तुध्र' ऐसे समान रूप से ही इन तीनों पद-रूपों की नित्यमेव आदेश प्राग्नि हो जाती है । जैसे:-तब अथवा ते = तउ अथवा तुझ अथवा तुध्र-तेरा, तेरो, तेरे ( एकवचन के अर्थ में तुम्हारा, सुम्हारो, तुम्हारे )। वृत्ति में दिये गये सदाहरणों का अनुवाद इम प्रकार से है:-- स्वत भवतु अथवा भवेस पागतः =(१) तउ होन्ताउ पागदो- (0) तुन्झ होन्तत प्रागदो(३) तुध्र होन्तउ धागदा - तेरे से अथवा तुझसे आया हुमा (अथवा प्राप्त हुआ ) होवे ॥ 'इस्' प्रत्यय से सम्बन्धित दिश-पात १५-रूपों के दाहरण गाया में दिये गये हैं; तदनुसार गाथा का अनुवाद संस्कृत:--तब गुण -संपदं तव मतिं तव अनुत्तरी क्षान्तिम् ।। यदि उत्पद्य अन्य-जनाः मही-मंडले शिक्षन्ते ॥१॥ हिन्दी:-( मेरी यह कितनी सत्कट भावना है कि ) इस पृथ्वी महल पर उत्पन्न होकर अन्य पुरुष यदि तुम्हारी गुण-संपचि को, तुम्हारी बुद्धि को और तुम्हारी असाधारण अत्युत्तम चमा को सीखते हैं-इनका अनुकरण करते हैं। तो यह कितनी अच्छी बात होगो १ ) ॥ यो गाथा में 'लव' पदरूप के स्थान पर क्रम से तउ तुझ और सुध्र' श्रादेश-प्राप्त पद-रूपों का प्रयोग किया गया है। ॥४-३७२॥ भ्यसाम्भ्यां तुम्हह ॥ ४-३७३ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो घस अाम् इत्येताभ्याम् सह तुम्हह इत्यादेशो भवति ।। तुम्हह होन्तउ पागदो | तुम्हई केरउं धणु ।। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद् मर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी-विभक्ति बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय यस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हह' ऐसे पद-रूप की निस्थमेव आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-युम्मत तुम्हहं -तुम से-आपसे । इसी प्रकार से इसो सर्वनाम शब्द 'युष्मत' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यत' का और पटो विभक्ति के Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५११] varswaosmarrowroto10000000000000000000000000000000000 बावधन का बोधक प्रत्यय "श्राम्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय दोनों के स्थान पर भी उसी प्रकार से 'तुम्हह' पद रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । जैसे (१) युष्मभ्यम् = तुम्हह-तुम्हारे लिये अथषा आपके लिये। (१) युष्माकम् = तुम्हह-तुम्हाग, तुम्हारी, तुम्हारे 'और पापका, आपकी, आपके, इत्यादि । सूत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी-विभक्ति' का उल्लेख नहीं किया गया है परन्तु सूत्र-संख्या ३.१३१ के विधान से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की अनुमति दी गई है। इसलिये यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का उल्लेख नहीं होने पर भी शब्द-व्युत्पत्ति को समझाने के लिये चतुर्थी विभक्ति की आदेश-प्राप्ति भी समझा दी गई है। वृत्ति में दिये गये उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं: (१) युध्मत भवतु आगतः =तुम्हहं होन्तउ आगदो-तुम्हारे से-( आपसे ) आया हुश्रा( प्राप्त हुआ ) होवे । (२) युष्मभ्यम् करोमि धनुः = तुम्हह केरस धणु =मैं तुम्हारे लिये धनुष्य करता हूँ। (३) युष्माकम् करोमि धनुः - तुम्हहं केरलं धणु = मैं तुम्हारे-आपके-धनुष्य को करता हूँ। ॥४-३४२ ॥ तुम्हासु सुपा ॥ ४-३७४ ॥ अपभ्रंशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हासु ठिअं ॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द में सप्तमी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सुप' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'सुप' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'तुम्हासु' ऐसे पद रूप की पादेश प्राप्ति है। जैसे:--युमासु स्थितम्-तुम्हासु ठितुम्हारे पर अथवा तुम्हारे में रहा हुमा है। पाप पर अथवा पाप में स्थित है ।। ४-३७४ ।। सावस्मदो हउँ ॥ ४-३७५ ॥ अपभ्रंशे अस्मदः सौ परे हउं इत्यादेशो भवति ॥ तसु हउं कलिजुगि दुलहहो ।। अर्थः-अपभ्रश भाषा में 'मैं-हम' वाचक 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक पचन बोधक प्रत्यय 'सि' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'हो' पद रूप को आदेश प्राप्ति होतो है। जैसे:-तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य = तमु हर्ड कलिजुगि दुल्लहहो = उस दुर्लम का मैं कलियुग में। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३८ में दी गई है)। यो 'मैं' अर्थ में 'इ' का प्रयोग होता है ।। ४-३७५ ।। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१२ । * प्राकृत व्याकरण जस-शसोरम्हे अम्हई ॥ ४-३७६ ॥ अपभ्रंशे श्रस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येकम् अम्हे म्हई इत्यादेशौ भवतः ॥ अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्व भगन्ति ॥ मुद्धि ! निहालहि गया- यलु कइ जण जोह करन्ति ॥ १॥ अम्बणु लाइव जे गया पहिच पराया के वि ॥ अवसन सुश्रहिं सुद्दच्छिश्रह्नि जिवँ श्रम्ह तिबँ ते॥२॥ अम्हे देख । श्रई देक्खड़ । वचन भेदो यथासंख्य नियुच्यर्थः । अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद' सर्वनाम शब्द के साथ में प्रथमा विभक्ति के बहुचबाक प्रत्यय 'जस्' की संगप्ति होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'जम्' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'लम्हे' और 'अम्हइं' ऐसे दो पद रूपों की प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- वयम् = भ्रम्हे अथवा अम्हई = हम इसी प्रकार से दप्ती "अस्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन को बतलाने वाले प्रत्यय 'शस्' का संयोग होने पर इस 'असद' शब्द और 'शस्' प्रत्यय दोनों के स्थान पर सदा हो 'लम्हे' और 'अहं' ऐसे प्रथमा बहुवचन के समान ही दो पदरूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये । जैसे:-अस्मान् = (अथवा नः) = अहे चौर अम्ह= हमको अथवा हमें । गाथाओं का अनुवाद यों हैं: संस्कृत: - वयं स्तोकाः, रिपवः बहवः कातराः एवं भणन्ति || मृधे 1 निभालय गगन तलं, कतिजनाः ज्योत्स्नां कुर्वन्ति ॥ 10000 हिन्दी:- योद्धा युद्ध में जाते हुए अपनी प्रियतमा को कहता है कि: 'फायर लोग ऐसा कहते हैं कि हम थोड़े हैं और शत्रु बहुत है; (परन्तु ) हे मुग्धे हे प्रियतमे ! आकाश को देखो - श्राकाश की घोर दृष्टि करो, कि कितने ऐसे हैं जो कि चन्द्रज्योत्स्ना को बॉदनी को किया करते हैं ? ॥ १ ॥ अर्थात् चन्द्रमा अकेला ही चांदनी करता है । संस्कृतः — अम्लरवं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि ॥ sari न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ॥ २ ॥ अर्थः- जो कोई भी पर स्त्रियों पर प्रेम करने वाले पथिक प्रयात् याश्री प्रेम लगा करके (परदेश) चले गये हैं; वे अवश्य हो सुख की शैय्या पर नहीं सोते होंगे; जैसे हम ( नायिका विशेष ) सुख- शैय्या पर नहीं सोती हैं; जैसे हो वे म होंगे ||२|| Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ऊपर की गाथाओं में 'अम्हे = हम' और 'अम्हई = हम' ऐसा ममझाया गया है । 'हन का के उदाहरण यों हैं। अस्मान (अथवा)मः पश्यति = अम्हे देखाइ अथवा अम्हई देखद वह हमको अथवा हमें देखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पृथक् पृथक् कप से लिखने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही पद' अथान 'श्रम्हे और अम्हई प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचम में समान रूप से होते हैं। क्रम रूप से नहीं होते हैं । यों 'यथा-संख्य' रूप का अर्थात 'कम-रु.१' का निषेध करने के लिये ही 'वचन-भेद' शब्द का प्रांत के अन्त में उल्लेख किया गया है।४-३७६।। टा-डम्यमा मई ॥४-३७७ ॥ अपभ्रंशे अस्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति ।। टा। मई जाणि पिथ विरविग्रह कवि घर होह विश्रालि || णवर मिअड कुवि तिह तब निह दिणयह स्वय-गालि ।। ङिना । पई भई बेहिं वि रण-गयहिं ।। अमा। मई मेल्लन्तहो तुज्झ ।। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद् सर्वनाम शब्द में तृतीया विभक्ति के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'टा' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'टो' बोनों के स्थान पर 'मई ऐसे एक हो पद. रूप को नित्यमेव श्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे:-मया-मई-मुझसे, मेरे से । इसा प्रकार से इसो सर्व. नाम शब्द 'अस्मद् के साथ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय f' का सम्बन्ध होने पर मी भूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'कि दोनों हो के स्थान पर वही 'मई ऐसे पद-रूप को सा ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- मयि भई मुझ पर, मुझ में, मेरे पर, मेरे में,। वितीया विक्ति के संबंध में भी यही नियम है कि जिस समय में इस 'अस्मद्' सर्वनाम के शब्द के साथ में द्विनीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'अम्' को संप्राप्ति होती है, तबी मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'श्रम' दोनों ही के स्थान पर 'मई' ऐसे इस एक छो पद को हमेशा हा श्रादेश प्राप्ति हो जानी है। जैसे:माम् = मई मुझको, मेरे को, मुझे ।। 'टा' अर्थ को समझाने केलिये वृत्ति में जो गाथा दो गई है। उसका अनुवाद कम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-मया ज्ञात प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले । ___ केवलं ( =परं ) मृगाकोपि तथा तपति यथा दिनकरः पयकाले ॥ अर्थ:-हे प्रियतम ! मेरे से ऐसो समझा गया था कि प्रियतम के वियोग से दुखित व्यक्तियों के लिये संभ्या-काल में शायद कुछ मी सानवना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नहीं है। देखो ! चन्द्रमा मी संध्याकाल में उसी प्रकार से उम्साता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है। जैसा कि सूर्य Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१४ ] * प्राकत व्याकरण * उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है || इस गाथा में 'मया' के स्थान पर 'मई' पद रूप का प्रयोग किया गया है। _ छि' का सदाहरण यों है:-त्वयि मार्य द्वयोरपि रण गत्तयों:- पई माई बेहि पि रण-गयहि = युद्ध-क्षेत्र में गये हुए तुझ पर और मुझ पर दोनों ही पर।(पुरी गाथा सूत्र संख्या ४-३७० में देखो)। यहाँ पर 'माय' के स्थान पर 'मह' का प्रयोग है। 'अम्' का दृष्टान्त इस प्रकार है:-माम मुञ्चतस्तव-मई मेल्लन्तहो तुज्म-मुझ को छोड़ते हुए तेरी। ( पूरी गाथा सूत्र संख्या ४-३६० में दी गई है)गाया के इस चरण में 'माम्' पद के स्थान पर 'माई' पद प्रदर्शित किया गया है ।। ४-३७७ ।। अम्हेईि भिसा ॥ ४-३७८ ।। अपभ्रशे अस्मदो भिसा सह अम्हहि इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हेहिं अम्हेहि बं किउं ।। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' मर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'मिस' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'मिस' दोनों के स्थान पर 'अम्हेटिं' ऐसे एक ही पद की नित्यमेव आदेश प्राग्नि हाती है। जैसेः--युष्माभिः अस्माभिः यह कृतम् = तुम्हेहि अम्हेहिं अंकिआउँ-तुम्हारे से, हमारे से जो किया गया है ॥ ४-३०८ ॥ महु मझु सि-इस-भ्याम् ॥ ४-३७६ ॥ अपभ्रंशे अस्मदो उसिना सा च सह प्रत्येक महु मज्मु इत्यादेशी भवतः ॥ मडू होन्तउ गदो । मझु होन्तउ गदो ॥ उसा। महु कन्तहों के दोसडा, हेनि । म झसहि आलु । देन्तहों हउ पर. उव्वरिन जुज्झन्तहो कर यालु ॥ जा भग्गा पारकडा तो सहि ! मझु पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण ॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं-हम' वाचक मर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'इमि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'सि' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'महु' और 'मामु' ऐसे दो पद-रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-मत- महु और मझु = मुझसे अथवा मेरे से । इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शान "अस्म" के साथ में षष्ठी विभक्ति के एफ वचन के प्रत्यय "स्" का संबंध होने पर उसी प्रकार से मूल शब्द "मस्म" और प्रत्यय "" Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५१५ ] दोनों ही के स्थान पर वैसे ही 'महु' और 'मज्म' ऐसे समान रूप से ही इन दोनों पद रूपों की सदा हो आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । जैसे:-मम अथवा मे = मह अथवा मज्झु = मेरा, मेरी, मेरे । पृत्ति में आया हुश्रा १चमी अर्थक उदाहरण या है:-मत् भषनु गतः महु होन्तड गढ़ो अथवा मज्डा होन्तउ गवो = मेरे से (अथवा मेरे पास से ) गया हुआ होघे ॥ षष्ठी-अर्थक उदाहरण गाथाओं में दिया गया है। जिनका अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत:-मम कान्तस्य द्वौ दोषौ, सखि ! मा पिधेहि अलीकम् ॥ ददतः गरं काई उर्वरिता, त्यागल्य करपालः ॥ हिन्दो:-हे सखि ! मेरे प्रियतम पति में केवल दो ही दोष है। इन्हें तू म्यर्थ हो मत छिपा । जब वे दान देना प्रारम्भ करते हैं, तब केवल मैं ही बच रह जाती हूँ अर्थात मेरे सिवाय सब कुछ दान में दे देते हैं और जब वे युद्ध क्षेत्र में युद्ध करते हैं तब केवल सलधार हो बची रह जाती है और सभी शत्रु नाम-शेष रह जाते हैं । इस गाथा में 'मम = मेरे अर्थ में 'महु' आदेश प्राप्त पद-रूप का प्रयोग किया गया संस्कृतः—यदि भग्नाः परकीयाः, तत् सखि ! मम प्रियेण ।। श्रथ भग्नाः अस्मदीयाः, तत् तेन मारितेन ॥ २ ॥ हिन्दी:-हे सखि ! यदि शत्रु-गण मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं अथवा ( रण-क्षेत्र को छोड़कर के ) भाग गये हैं; तो ( यह सब विजय ) मेरे प्रियतम के कारण से (ही है ) अथवा यदि अपने पक्ष के वीर पुरुष रण-क्षेत्र को छोड़ कर भाग खड़े हुए है तो ( समझो कि ) मेरे प्रियतम के वीर गति प्राप्त करने फ कारण से ( ही वे निराश होकर रख-क्षेत्र को छोड़ पाये हैं)॥२॥ इस गाथा में 'मम= मेरे' अर्थ में 'म' ऐसे आदेश प्राप्त पद-रूप का प्रयोग अपर्शित किया गया है॥ ४-३७६ ॥ अम्हह भ्यसाम्-भ्याम् ॥ ४-३८०॥ अपनशे अस्मदो न्यसा आमा च सह श्रम्हह इत्यादेशो भवति ।। अम्हह होन्तत भागदो ॥ प्रामा । अह मम्मा अम्हह तथा । (४-३७६) ।। अर्थ:-अपभ्रश भाषा में 'मैं-हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'भ्यस्' दोनों ही के स्थान पर 'बन्द' ऐसे १३-रूप को नित्यमेव मादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अस्मत्-प्रम्हहंइमारे से अथवा इमसे ॥ इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द 'मस्मद्' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] * प्राकृत व्याकरण . प्रत्यय 'भ्भस' का तथा षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के घोतक प्रत्यय 'आम्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद' और इन प्रत्ययों के स्थान पर हमेशा ही 'धम्हह ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति का संविधान है जैसे:-अस्मभ्यम् - अम्हास हमारे लिये और अस्माकम (अथवा न:): अम्हह हमारा, हमारी, हमारे॥ सूत्र में और [न्ति में 'चतुर्थी-विभक्ति का संरलेख नहीं होने पर भी सूत्र संख्या ३-१३१ के संविधानानुसार यहाँ पर चतुर्थी-विभक्ति का भी उल्लेख कर दिया गया है मो ध्यान में रहे । वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का भाषान्तर यों है:-(1) अस्मत् भवतु थागतः= अम्हहं होन्तन प्रागदो = हमारे से आया हुआ हो । (२) अथ भग्नाः अस्मदीयाः तत् = अह मांगा अम्हह तणा= यदि हमारे पक्षीय (वीर-गण) भाग खड़े हुए हों तो वह".""( पूरी गाथा ४-३५६ में दी गई है)। यो पचमी बहुवचन में और षष्ठी बहुवचन में 'अम्हह' पद रूप की स्थिति को जानना चाहिये । ४-३६० ।। । सुपा अम्हासु ॥४-३८१ ॥ पासपशे मराः सुपा सह आम्हासु इत्यादेशो भवति ॥ अम्हासु ठिा । अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'मैं-इम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मदू' के साथ में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के द्योतक प्रत्यय 'सुप' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'सुप' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'अम्हासु' ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अस्मासु स्थितम् = अम्हासु ठिभ-हमारे पर अथवा हमारे में रहा हुआ है ।। ४-३२१ ॥ त्यादेराद्य त्रयस्य संवन्धिनो हिं न वा ॥ ४-३८२ ॥ त्यादीनामाद्य त्रयस्य संबन्धिनो बहुवर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्यापभ्रंशे हिं इत्यादेशो वो भवति । मुह-कारि-बन्ध तहे सोह धरहिं । नं मल्ल-जुझ ससि--राहु-करहिं ।। तहे सहहिं कुरल ममर-उल-तुलिम। नं तिमिर-डिम्भ खेलन्ति मिलिग ॥१॥ अर्थ:-सत्र-संख्या ४-३८९ से ४.३८८ तक में मिानों में जुड़ने वाले काल-बोधक प्रत्ययों का वर्णन किया गया है। यों सर्व सामान्य रूप से तो जो प्रत्यय प्राकृत भाषा के लिये कहे गये हैं, लगभग वे सब प्रत्यय अपभ्रंश भाषा में भी प्रयुक्त होते हैं। केवल वर्तमानकाल में, प्राज्ञार्थ में और भविष्यता काल में ही थोडासा अन्तर है; जैसा कि इन सूत्रों में बतलाया गया है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५१७ ] morrowermonestorerrernmroorketorrotterworror000000000000000000000 वर्तमानकाल में 'वह-वे' वाचक अन्य पुरुष के बहुवचन में अपनश भाषा में प्राकृत भाषा में वर्जिन प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय हिं की प्राप्ति विशेष रूप से और विकल्प रूप से अधिक होती है। जैसे:-कुर्वन्ति = करहिं = वे करते हैं। धरतः =भरहि-वे दो धारण करते हैं। शामन्ते = सहहि-वे शोभा पाते हैं। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की प्राप्ति भी शेगी। जैसे:-कीडन्ति-खेल्लन्ति, खेन्तन्ते और खेलिरे वे खेलते हैं अथवा वे कोड़ा करते हैं। वृत्ति में प्रदत्त छन्द का अनुवाद यों है:-- संस्कृतः-मुख-कचरी-बन्धौं तस्याः शोमा धरतः । ननु मन्त्र-युद्धं शशिराह कुरुतः ।। तस्याः शोभन्ते करलाः भ्रमर-कुल-तुलिताः । ननु भ्रमर-डिम्भाः क्रान्ति मिलिताः ॥ १॥ हिन्दी:-उस नायका के मुख और केश-पाशों से बंधी हुई वेणी अथात थोटी इस प्रकार की शोमा को धारण कर रही है कि मानों 'चन्द्रमा और राहू' मिल कर के मल्ल-युद्ध कर रहे हों। उसके बालों के गुच्छे इस प्रकार से शोभा का धारण कर रहे है कि मानों मैंवरों के समूह हो संयोजित कर दिय हो । अथवा मानों छोटे छोटे बाल-भ्रमर-समूह ही मिल करके खेल कर रहे हो ॥ ४-३२॥ मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः ॥४-३८३ ।। त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाचं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति । बप्पीहा पिउ पिउ भणवि किसिउ रुमहि हयास ।। तुह जलि महु पुणु वजहइ पिहुं वि न पूरिन पास ॥१॥ मात्मने पदे। बप्पीहा कई वोल्लिनेण निग्षिण वार इ बार ॥ सायरि मरिह विमल-जलि लहहि न एका धार ॥२॥ सप्तम्याम् । आयहिं जम्महिं अन्नहिं वि गोरि सुदिज्जहि कन्तु ।। गय-मत्तई पसंकुसहं जो अभिडइ हसन्तु ॥३॥ पते । रुनसि । इत्यादि। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१८ ] * प्राकृत व्याकरण 4096044 अर्थ :- वर्तमानकाल में मध्यम पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त अपभ्रंश भाषा में एक प्रत्यय 'हि' को प्राप्ति अधिक रूप से और वैकल्पिक रूप से होती है । जैसे:—रोदिषि = रूअहि-तू रोता है। पक्षान्तर में 'रूमसि' = तू रोता है; ऐसा रूप भी होगा। आत्मनेपदोय दृष्टान्त य है :- लभसे - लहाहि तू प्राप्त करता है। पक्षान्तर में लहसि=तू प्राप्त करता है; ऐसा भी अशक प्रसन्य वतमानकाल में भी मध्यम पुरुष के एकवचन के अर्थ में विकल्प से 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति अधिक रूप से होती हुई देखी जाती है। जैसे कि:-- दद्वया: = दिवजहिं = तू देना अर्थात देने की कृपा करना || गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों हैं: संस्कृत: - चातक ! 'पिउ, पिउ' (पिवामि पिवामि अथवा प्रिय ! feat कियद्रोदिषि हताश || तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥ १ ॥ हिन्दी:- नायिका विशेष अपने प्रियतम के नहीं आने पर 'चातक पक्षी को लक्ष्य करके कहती है कि - हे चातक ! पानी पीने की तुम्हारो इच्छा जब पूरी नहीं हो रही है तो फिर तुम 'मैं पीऊंगा मैं पोऊंगा' ऐसा बोलकर क्यों बार बार रोते हो? मैं भी 'प्रियतम, प्रियतम' ऐसा बोलकर निराश हो गई हूं । इसलिये तुम्हें तो जल प्राप्ति में और मुझे प्रियतम प्राप्ति में, दोनों के लिये आशा पूर्ण होनेवाली नहीं है ॥ १ ॥ प्रिय ! इति ) संस्कृत: - चातक ! किं कथनेन निर्घुण वारं वारम् ॥ सागर भृते त्रिमल - जलेन, लमसे न एकामपि धाराम् || २ || हिन्दी: -- अरे निर्दयी घातक ! ( अथवा हे निर्लज्ज चातक) बार बार एक ही बातको कहने से क्या लाभ है ? जबकि समुद्र के स्वच्छ जल से परिपूर्ण होने पर भी, उससे तू एक बूंद भी नहीं प्राप्त कर सकता है; अथव! नहीं पाता है ॥ २ ॥ संस्कृत: - अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गरि ! तं दद्याः कांतम् ॥ गजानां मसानां त्यक्तांकुशानां य संगच्छते हसन् ॥ ३ ॥ हिन्दी:- कोई एक नायिका विशेष अपने प्रियतम की र-कुशलता पर मुग्ध होकर पार्वती से प्रार्थना करती है कि:- 'ई गौरि ! इस जन्म में भी और पर जन्म में भी उसी पुरुषको मेरा पति बनाना; जो कि ऐसे मदोन्मत्त हाथियों के समूह में भी हँसता हुआ चला जाता है; जिन्होंने कि - ( जिन हाथियों ने कि ) अंकुश के दबाव का भी परित्याग कर दिया है || ३ | ४.३८३ ॥ . Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [५१8 ] बहुत्वे हुः ॥ ४-३८४ ॥ त्यादीनां मध्यमत्रयस्य संबन्धि बहुध्धर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्यापभ्रंशे हु इत्यादेशो वा भवति ॥ बलि अन्भत्थणि महु-महणु लहुई हुआ सोइ ।। जइ इच्छहु बहुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ ॥१॥ पक्षे । इच्छह । इत्यादि । अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के मध्यम पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत-भाषा में प्रामभ्य प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हु की विकल्प से और विशेष रूप से आदेश प्राप्ति होती है। प्राकृत-भाषा में इसी अर्थ में प्राप्रव्य प्रत्यय 'इत्था' और 'ह' प्रत्ययों की प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में भी नियमानुसार होती है। जैसे:-इष्टछथइच्छड = तुम इच्छा करते हो । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षासर में 'इच्छिमा और इचाह' बों को शालिक होगी : सभी - देव - तुम बेते हो। पक्षान्तर में 'देह' और 'देइत्या' रूप भी बनते हैं। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं।संस्कृतः–बले. अभ्यर्थने मधुमथनों लघुकीभूतः सोऽपि ॥ यदि इच्छथ महत्त्व (बत्तण) दन, मा मार्गयत कमपि ॥१॥ हिन्दी:-मधु नामक राक्षस को मथने वाले भगवान विष्णु को भी बति राजा से भीख मांगने की दशा में छोटा अर्थात् 'वामन' होना पका था, इसलिये यदि तुम महानता चाहते हो तो देभो; परन्तु किसी से भी मांगो मत ॥ १॥ ४-३८४ ।। अन्त्य-त्रयस्याद्यस्य उं॥४-३८५॥ त्यादीनामन्त्यत्रयस्य यदाव्यं धनं तस्यापभ्रंशे उं इत्यादेशों का भवति ॥ विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि बिसाउ । संपर कडउं वेस जिव छुड अग्षइ वरसाउ ॥१॥ बलि किज्जउं सुश्रणस्सु ।। पक्षे ॥ कडामि इत्यादि । अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'मैं' वाचक उत्तम पुरुष के एकवचन में प्राकृत भाषा में प्राप्तव्य प्रत्यय के अतिरिक्त एक प्रस्थय 'च' की भादेश प्राप्ति विकल्प रूप से और विशेष रूप से होती है । कल्पिक पक्ष होने से पशान्तर में 'मि' प्रत्यय की मी प्राप्ति होगी । जैसे:- मि-कइडर्ड Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२० ] मैं खींचता हूँ ! पक्षान्तर में 'कडा' रूप भी होगा । बलिं करोमि सुजनस्य बक्षि किज्जलं सुमणस्सु = सज्जन पुरुष के लिये मैं (अपना) बलिदान करता हूं। पक्षान्तर में 'किन' के स्थान पर 'किजामि' रूप भी होगा। गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है: * प्राकृत व्याकरण * भवति ॥ संस्कृतः - विधि विनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये ! कुरू विषादम् । संपर्क कर्षामि वेषमिव, यदि अति (स्यात्) व्यवसायः || १ || हिन्दी:- मेरा भाग्य भले ही प्रतिकूल होवे, और यह भी भले ही मुझे पीड़ा प्रदान करें; परन्तु हे मुग्धे ! हे धन्य ! तू खेद मत कर। जैसे मैं अपने कपड़ों को - ( ड्रेस को वेष को ) आसानी से पहिन लेता हूँ, वैसे ही धन-संपत्ति को भी आसानी से आकर्षित कर सकता हूँ- खींच सकता हूँ। यदि मेरा व्यवसाय अच्छा है – यदि मेरा धंधा फलप्रद है तो सब कुछ शीघ्र ही अच्छा हो हांगा ॥ ४-३८५ ।। बहुत्वे हु* ॥ ४-३८६ ॥ यादीनामन्त्यस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यदुवचनं तस्य हुं इत्यादेशो वा खग्ग- बिसाहिउ जर्हि लड्छु' पिय तर्हि देसहिँ जाहु ॥ र - दृष्भिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न बलाहुं ॥१. पक्षे । लहि । इत्यादि ॥ अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'हम' वाचक उत्तम पुरुष के बहुवचनार्थ में प्राकृत भाषा में उपलब्ध प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हुं' की आवेश प्राप्ति विकल्प से और विशेष रूप से होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मो, मु, म' प्रत्ययों की भी प्राप्ति होगी। जैसे:--- (९) लभामहे लहुँ हम प्राप्त करते हैं । पचान्तर में 'लहमो, लहमु, लहम, सहिस' इत्यादि रूपों की प्राप्ति होगी । (२) ग्राम-जाई हम जाते हैं; ज्ञान्तर में जामो = हम जाते हैं । (३) बलामहेषलाहुं = हम रह सकते हैं | पक्षान्तर में बलामी - हम रह सकते हैं। पूरी गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृत: -- खड्ग विसाधितं यत्र लभामहे, तत्र देशे यामः ॥ र-दुर्भिक्षेण भग्नाः युद्धेन न चलामहे ॥ १ ॥ विना हिन्दी:- हम उस देश को जायेंगे अथवा जाते हैं; जहां पर कि तलवार से सिद्ध होने वाले कार्य को प्राप्त कर सकते हों । युद्ध के दुर्भिक्ष से अर्थात् युद्ध के अभाव से निराश हुए हम बिना युद्ध के (सुम पूर्वक) नहीं रह सकते हैं ।। ४-३६६ ॥ I Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५२१ ] 00000000000000000+ron000000000000rrotkarrotakoo000000000000 हि-स्वयोरिदुदेत् ॥ ४-३८७ ।। पञ्चम्यां हि-स्वयोरयभ्रंशे इ, उ, ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। इत् । . कुञ्जर ! सुमरि म सलउ सरला मास म मेलि ॥ काल जि पाविय विहि-त्रसिण तं चरि भाणु म मेलि । १॥ उत्। ___ भमरा एस्थु वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु ।। घण-पत्तलु छाया बहुलु फुल्लइ जाम कयम्यु ॥ २ ॥ एत् । प्रिय एम्बहिं करे संन्लु करि बाहि तुहुं करवालु ॥ जं कावालिय पप्पुडा लंहिं अभागु कयालु ॥३॥ पक्षे । सुमरहि । इत्यादि। अर्थ:-अपनश भाषा में आशाथं वाचक लकार के मध्यम पुरुष के एकच घन में प्राकून-भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तध्य प्रत्यय 'हि और सु' की अपेक्षा से तीन प्रत्यय 'इ, उ, ए' को प्रानि विशेष रूप से और आदेश रूप से होती है। यह स्थिति वैकल्पिक है। इसलिये इन तीन पादेश प्राप्त प्रत्ययों 'इ. छ, ए, के अतिरिक्त हि और सु' प्रत्ययों की प्राप्ति भी होता है। जैसे:--स्मर मुमरियाद कर । (२) मुश्चमेरिल = छोड़ दे। (३) घरपरि - । पक्षान्तर में 'सुमरसु और सुमरहि, मेरुतसु, मेल्लाह, घरसु चरहि' इत्यादि रूपों को प्राप्ति भी होगी; ये उदहरण 'इ' प्रत्यय से सम्बन्धित है । '' का उदाहरण यों हे:--विलम्बस्व = विलम्बु-प्रतीक्षा कर । पक्षान्तर में 'घिलम्बसु और विलम्बहि' रूपों की प्राति मा होगी। 'ए' का सदाहरण:-गुरू = करे - तू कर । पक्षान्तर में 'करसु और करहि रूप भी होंगे। तीनों गाथाओं का अनुवाद क्रमशः यों है:संस्कृत:-कुजर ! स्मर मा सल्लकीः, सरलान् श्वासान मा मुश्च ।। कवला: ये प्राप्ताः विधिवशेन, तश्चिर, मान मा मुञ्च ॥ १ ॥ हिन्दी:-हे गजराज ! हे हस्ति-रस्न !'सरुल की' नामक स्वादिष्ट पौधों को मत याद कर और (उनके लिये ) गहरे श्वास मत छोड़ । भाग्य के कारण से जो पौधे (खाय रूप से ) TR हुए हैं. उन्हीं को खा और अपने सन्मान को-प्रारम-गौरव को-मत छोड़ ।। १ ।। संस्कृत:-भ्रमर ! अत्रापि निम्बके कति ( चित् ) दिवसान् विलम्बस्त्र ।। धनपत्रवान् छाया बहुतो फुनति यावत् कदम्बः ॥ २ ॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२२ ] * प्राकृत व्याकरण हिन्दी:- हे भँवर ! अभी कुछ दिनों तक प्रतीक्षा कर और इसो निम्न वृक्ष ( के फूलों ) पर ( आश्रित रह ) जब तक कि सघन पत्तों वाला और विस्तृत छाया वाला कदम्ब नामक वृक्ष नहीं फूलता है; (तब तक इसी निम्ब वृक्ष पर आत्रित होकर रह ) ॥ २ ॥ संस्कृतः - प्रिय ! एवमेव कुरू भल्लं, करे त्यज त्वं करवालम् ॥ येन कापालिका बराका लान्ति श्रभग्नं कपालम् || ३ || हिन्दी:- कोई नायिका विशेष अपने प्रियतम को वीरता पर मुग्ध होकर कहती है कि- 'हे प्रियतम ! तुम थाले को अपने हाथ में इस प्रकार थामकर शत्रुओं पर बार करो कि जिससे वे मृत्यु को तो प्राप्त हो जाय परन्तु उनका सिर अखंड हो रहे, जिससे बेचारे कापालिक ( खोपड़ी में घाटा मांगकर खाने वाले ) खंड खोपड़ी को प्राप्त कर सकें। तुम तलवार को छोड़ दो तलवार से वार मत करो । ।। ४-३६७ ।। वर्त्स्यति - स्वस्य सः ॥ ४-३८८ ॥ अपभ्रंशे भविष्यदर्थ - विषयस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति ॥ दिया जन्ति झडपडहिं पडहिं मणोरह पछि || श्रच्छ तं माइि होसह करतु म श्रद्धि ।। १ ।। पक्षे | होहि ॥ अर्थः- प्राकृत भाषा में जैसे भविष्यत्काल के अर्थ में वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'ह' की आगम-प्राप्ति होतो हैं; वैसे हो अपभ्रंश भाषा में भी भविष्यकाल के अर्थ में उक्त 'हि' के स्थान पर defeos रूप से वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'स' की uae प्राप्ति होती है। जैसे:भविष्यत्ति = होस अथवा होहि = वह होगा | गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृत: - दिवसा यान्ति वेगैः पतन्ति मनोरथाः पश्चात् ॥ यदस्ति तन्मान्यते मविष्यति ( इति ) कुर्वन् मा आस्स्व ।। १ । हिन्दोः - दिन प्रतिदिन अति वेग से प्रतोस हो रहे हैं और मन भावनाऐं पीछे पड़ती जा रही हैं अर्थात ढोलो पड़ती जा रही हैं अथवा लुम होतो जा रही है। 'जो होना होगा अथवा जो है सो हो जायगा' ऐसी मान्यता मानता हुआ आलसी होकर मत बैठ जा ॥ ४०३८८ ॥ क्रियेः कीसु ॥ ४-३८६ ॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ↑ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्थापनशे कीसु इत्यादेशो वा भवति ।। सन्ता भोग जु परिहरह, वसु कन्तहो बलि कीसु । तसु दवे विमुण्डियउं, जसु खल्लि हडउं सीसु ॥ १ ॥ पते । साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृत शब्दादेष प्रयोगः । बलि किन्न सुभमस्तु ॥ अर्थ:- संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'क्रिये' क्रियापद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'किंतु ऐसे कियत को अहोती है।कल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'फिट' ऐसे पद रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- क्रिये कीसु अथवा किन उंमैं करता हूँ मैं करती हूँ । साभ्यमान भवस्था में 'क्रिय' का रूप 'किडज' होगा | जिसकी सिद्धि इस प्रकार से की जायगी: - 'क्रिय' में स्थित 'र्' का सूत्र सख्या २०७१ से लो और १-२४८ से 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होकर 'क्रिय' के स्थान पर 'किज्ज' रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। 'कोसु' क्रियापद को समझने के लिये जो गाथा दी गई है, उसका अनुवाद य है संस्कृत: - सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये || तस्य देवेनैव मुण्डितं यस्य खच्वाटं शीर्षम् ॥ १ ॥ ナ [ ५३ ] हिन्दी: मैं अपनी श्रद्धांजलि उस प्रिय व्यक्ति के लिये समर्पित करता हूँ; जो कि भोग-सामग्री कं उपस्थित होने पर - विद्यमान होने पर उसका त्याग करता है। किन्तु जिसके पास भोग सामग्री है ही नहीं, फिर भी जो कहता है कि 'मैं भोर्गा को छोड़ता हूँ ।' ऐसा व्यक्ति तो उस व्यक्ति के समान है, जिसका सिर गञ्जा है और भाग्य ने जिसको पहिले से ही 'केश बिहन' कर दिया है अर्थात जिसका मुण्डन पहिले ही कर दिया गया है ॥ १ ॥ 'की' के वैकल्पिक रूप फिउज' का उदाहरण यो है: - बलिं करोमि सुजनस्य = बलि किन सुष्मणस्सु-मैं सज्जन पुरुष के लिये बलिदान करता हूँ । ( सूत्र संख्या ४-३३८ में यह गाथा पूरी दी गई ३ ) ॥ ४-३८६ ।। भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ॥ ४-३६० ॥ अपभ्रंशे वो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति ॥ सुगत्तषु जं थगई सोच्छेयउ नहु लाहु ॥ सहि ! जह के तुखि-बसेण, अहरि पहुच्चर, नाहु ॥ १ ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण । अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संस्कृत की धातु 'भु-भष' के स्थान पर 'समर्थ हो सकने के अर्थ में अर्थात् 'पहुँच सकने' के अर्थ में 'हुच्च' रूप की मादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-प्रभवति = पहुरुवद - वह समर्थ होता है-वह पहुँच सकता है । (२) प्रभवन्ति-पहुचहि समर्थ होते हैं--वे पहुंच सकते हैं। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृता-अतितुङ्गत्वं यत्स्तनयोः सच्छेदकः न खलु लामाः । सखि ! यदि कथमपि त्रुटि वशेन अधरे प्रभवति नाथः ।। १ ।। हिन्दी:-हे सखि ! दोनों स्तनों की अति ऊँचाई हानि रूप ही है न कि लाभ रूप है। क्योंकि मेरे प्रियतम अधरों तक (होठों का अमृत-पान करने के लिये ) कठिनाई के साथ और देरी के साथ ही पहुँच सकने में समर्थ होते हैं। ४-३६० ॥ बगो ब्रशे वा ॥ ४-३६१॥ अपभ्रंशे भूगो धातो ब्रूव इत्यादेशों वा भवति ।। वह सुहासिउ कि पि ।। पक्षे । इत्तउं नोप्पिणु मणि, हिउ पुणु दूमासणु नोप्पि ।। तोहउं जाणउं पहो हरि जङ् महु अग्गइ ब्रोप्पि ।। १ ।। अर्थ:--संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'बोलना' अर्थक धातु ' के स्थान पर अपभ्रश भाषा में विकल्प से 'बेव' ऐसे धातु रूप की भावेश प्राप्ति होती है वैकल्मिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'बू रूप को भी प्राप्ति होगी । (१)जैसे:-ते- अबइ और भूइ-बह बोलता है। (२) घृत सुभाषितं किंचित-बह सुहासिन किंपि= कुछ भी सुन्दर अथवा अच्छा भाषण बोलो । गाथाका अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत:-इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितः, पुन शासन उक्त्वा ॥ तदा अहं जानामि, एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा ॥ १॥ हिनी:-दुर्योधन कहता है कि:-शकुनि इतना कहकर रूक गया है, ठहर गया है। पुनः दुशासन (भी) बोल करके ( रूक गया है। तब मैंने समझा अथवा समझता हूँ कि यह श्रीकृष्ण है। जोकि मेरे सामने बोल फरके खड़े हैं । यो इस गाथा में 'ब्र' धातु के अपभ्रश में तीन विभिन्न क्रियापद-रूप बतलाये गये हैं ॥ ४-३६१ ।। ब्रजे वुः ॥४-३६९ ॥ अपभ्रंशे ब्रजते (तो वुम इत्यादेशी भवति ॥ घुइ । नेप्पि ! प्पिणु । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५२५ । अर्थ:--'घूमना, जाना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'ऋ' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'धुन' ऐसे धातु-रूप की आदेश-प्रामि होती है। जैसे:-व्रजति = वुबइवह जाता है-बद्द घूमता है मथवा वह गमन करता है । जित्वा-बुरे प्पि और वुन पिणु =जाकर के, घूम करके प्रथा गमन करके॥४-३६२॥ दृशेः प्रस्सः ॥ ४-३६३ ।। अपभ्रंशे दृशे र्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति ॥ प्रस्सदि । अर्थ:---संस्कृत-भाषा में देखना' अर्थ में उपलब्ध पातु श - पश्य' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'प्रस्स' ऐसे धातु-रूप को नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जेसे:-पश्यति = प्रसिदि वह देखता है। ॥ ४-३६३ ।। ___ ग्रहे गुण्हः ॥ ४-३६४ ॥ अपभ्रंशे ग्रहे र्धातो गुण्ह इत्यादेशो भवति ॥ पद गृण्हेप्पिणु वतु ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में 'ग्रहण करना-लेना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'ग्रह.' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'गृण्ड' ऐसे धातु-रूप की पादेश प्राप्ति होती है। जैसे:--(१) गृहाति = गृहइ-वह ग्रहण करता है-वह क्षेता है । (२) पट गृहीत्वा व्रतम्-पढ गृण्हेपिणु ऋतु व्रत-नियम को ग्रहम करक-गीकार करकेन्पढ़ो-अध्ययन करो ॥ ४-३६४ ।। तयादीनां छोल्लादयः ॥४-३६५ ॥ अपभ्रंशे तक्षि-प्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय प्रादेशा भवन्ति ॥ जिव तिव॑ तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोलिज्जन्तु ॥ तो जह गोरिहे मुइ-कमलि सरि सिम काबि लहन्तु ।। १ ॥ श्रादि ग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलम्यन्ते ते उदाहार्याः ।। चूहनउ चुण्णी होइ सइ मुद्धि ! कबोलि निहित्तउ ।। सासानल-जाल-झलकिपर, वाह-सलिल-संसित्तउ ॥ २॥ अभड चिउ बे पपई पेम्मु निश्चइ जाये ॥ सन्यासण-रिउ-संमत्रहो, कर परिअत्ता तायें ॥ ३ ॥ हिमा खुडुका गोरडी गयणि घुडुकइ मेहु ।। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण rrrrrrrr.noop000000000000000000000wokterestion000000000moremorror.in वासा-रत्ति-पासुअहं विसमा संकडु एहु ॥ ४ ॥ अम्मि ! पोहर बज्जमा निच्चु जे संमुह थन्ति ।। महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भज्जिउ जन्ति ॥५॥ पुत्ते जाएं कवणु गुण, अवगुणु कवणु मुएण ॥ जा बप्पीकी मुंहडी चम्पिजइ अवरेण ॥ ६ ॥ तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेबडु वित्थारु ॥ तिसहे निवारणु पलवि नवि पर धुइ असार ।।७।। अर्थ:--- संस्कृत भाषा में 'छोलना-छिलके उतारना' अर्थक उपलब्ध धातु 'तक्ष' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'छोल्ल' ऐसे धातु रूप की श्रादेश प्राप्ति होती है। यों अन्य अनेक धातु अपभ्र श भाषा में आदेश रूप से प्राम होती हुई देखी जाती हैं। उनकी आदेश प्राप्ति का विधान स्वयमेव समझ लेना चाहिये । वृत्ति में श्राई हुई गाथाओं का भाषान्तर कम से इस प्रकार है: संस्कृता-~यथा तथा तीक्ष्णान् करान् लात्वा यदि शशी अतक्षिष्यत ॥ तदा जगति गौर्या मुख-कमलेन सदृशता कामपि अलप्स्यत ॥१॥ हिन्दी:---(बिना विचार किये) जैसी तैसो तीक्ष्ण-कठोर किरणों को लेकर के चन्द्रमा (कमलमुखियों के मुख की शोभा को) छोलता रहेगा तो इस संसार में (अमुक नायिका विशेष के) गौरी के मात्र कमल की समानता को कहीं पर भी (किसी के साथ भी) नहीं प्राप्त कर सकेगा ॥१॥ सस्कृतः-कणं चूर्णी-भवति स्वयं मुग्धे । कपोले निहितम् ।। श्वासानल ज्वाला-संतप्तं बाष्प-जल-संसिक्तम् ॥२॥ हिन्दी:-हे (सुन्दर गालों वाली) मुग्ध-नायिका ! श्वास-निश्वास लेने से उत्पन्न गर्मी अथवा अग्नि की ज्वालाओं से (माल से) गरम हुआ और बाप अर्थात भाप के (अथवा नेत्रों के आँसु रूप) जल से भीगा हुश्रा एवम् गाल पर रखा हुश्रा (तुम्हारा यह) कंकड़-चूड़ी चूर्ण चूर्ण हो जायगी-टूट जायगी । गरम होकर भागा हुआ होने से अपने आप ही तड़क कर कंकण टुकड़े टुकड़े हो जायगा। इस गाथा में 'तापय्' धातु के स्थान पर 'झलक' धातु का प्रयोग किया गया है। जो कि देशज है ॥६॥ संस्कृतः-अनुगम्य द्वे पदे प्रेम निवर्तते यावत ॥ सर्वाशन-रिपु-संभवस्य करोः परिवृत्ताः तावत् ॥३॥ . Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५२७ ] 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हिन्दी:-प्रेमी के दो कदमों का अनुकरण करने मात्र से ही परिपूर्ण प्रेम निष्पन्न हो जाता हैप्रेम-भावना जागृत हो जाती हैं और ऐसा होने पर जो जल उष्ण प्रतीत हो रहा था और जिस चन्द्रमा की किरणे उष्णता उत्पन्न कर रही थी; थे तत्काल ही निवृत्त हो गई अर्थात् प्रेमी के मिलते ही परम शीतलता का अनुभव होने लग गया। इस गाथा में 'अनुगभ्य' क्रियापद के स्थान पर देशज भाषा में उपलब्ध 'अभड वंचिउ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।॥ ३॥ संस्कृत:--हृदये शन्यायते गौरी, गगने गर्जति मेघः ।। ___ वर्षों-रात्रे प्रवासिकानां विपर्म संकटमेतत् ॥ ४॥ हिन्दी:- प्रियतमा पत्नी को छोड़ करके विदेश की यात्रा करने वाले ) प्रवासी यात्रियों को वर्षा-कालोन रात्रि के ममय में इस भयंकर संकट का अनुभव होता है जबकि हृदय में तो गौरी ( का वियोग-दुःख ) कांटे के ममान कसकता है-दुःख देता है और आकाश में ( उस दुःख को दुगुना करने वाला ) मेघ अर्थात बादल गर्जना है। इस गाथा में 'शल्यायते' संस्कृत-क्रियापद के स्थान पर देशज क्रियापद 'खुडुक्का' का प्रयोग किया गया है और इसी प्रकार से 'गर्जति' संस्कृत धातु-रूप के बदले में देशज-धातु-रूप 'घुडुक्काइ' लिखा हैजोकि ध्यान देने के योग्य हैं ।। ४ ॥ संस्कृत:-अम्ब ! पयोधरी वज्रमयी नित्यं यो सम्मुखी विष्ठतः॥ मम कान्तस्य समराङ्गणके गज-घटा: भक्तु यातः॥ ५ ॥ हिनी:-हे माता ! रण-क्षेत्र में हाथियों के समूह को विदारण करने के लिये जावे हुए-गमन करते हुए-मेरे प्रियतम के सम्मुख सदा ही जिन वनमम कठार दोनों स्तनों को (स्मृति ) सम्मुख रहती है; (इस कारण से उसको कठोर वस्तु का भजन करने का सदा ही अभ्यास है और ऐसा होने से हाथियों के समूह को विदारण करने में उन्हें कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती है ॥ ५॥ संस्कृतः-पुत्रेण जातेन को गुणः, अवगुणः कः मृतेन ॥ यत् पैतृकी ( बप्पीकी) भूमिः आक्रम्यते ऽपरेण ॥ ६॥ हिन्दी: यदि ( पुत्र के रहते हुए भी ) बाप-दादाओं को अर्जित भूमि शत्रु द्वारा दगली जाती है-अधिकृत कर लो जाती है तो ऐसे पुत्र के उत्पन्न होने से अथवा जीवित रहने से क्या लाभ है। और (ऐसे निकम्मे पुत्र के) मर जाने से भी कौन सी हानि है ? (निकम्मे पुत्र का तो मरना अथवा जीवित रहना दोनों हो एक समान ही है। इस गाथा में 'बप्पीकी और धम्पिजह' ऐसे दो पदों की प्राप्ति देशज भाषा से हुई है जो कि भ्यान में रखने योग्य है ।।६।। संस्कृता-तत तावत् जलं सागरस्य, स तावन् विस्वारः ।। तृषो निवारणं पलमपि नैव, पर शब्दायते असारः ॥७॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२८ ] % 2प्राकृत व्याकरण * Commumorous+000000000000000000000000000orrotso..roserorror00000 हिन्दी:-समुद्र का जल अति मात्रा वाला होता है और उसका विस्तार भी अत्यधिक होता है; किन्तु थोड़ी देर के लिये भी थोड़ी सो प्यास मी मिटाने के लिये वह समर्थ नहीं होता है। फिर भी निरर्थक गर्जना करता रहता है; (अपनी महानता का हराना रनाहै) इस गाभा में 'धु तुपट' गेमा जो क्रियापद पाया है, वह देशज है । यों अपनश भाषा में अनेकानेक देशज पदों का प्रयोग किया गया है, जिन्हें स्वयमेव समझ लेना चाहिये ॥४-३६५ ।। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-न-त-थ-प-फा, ग-घ द-ध-ब-भाः॥ ४-३६६ ॥ अपभ्रशेऽपदादौ धर्तमानानां स्वरात परेषामसंयुक्तानां क ख त थ प फां स्थाने यथा संख्यं म पदप भाः प्रायो भवन्ति ॥ कस्य मा । जं दिडउं सोम-गहणु असइहिं हसिउ निसंक ॥ पिन-माणुस-विच्छोह-गरु गिलिगिलि राहु मयंकु ॥१॥ खस्य घः। अम्मीए सत्यावस्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु ।। पिए दिढे हलाहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २ ॥ तथपफानां दधषभाः। सयधु करेपिणु कधिदु मई तसु पर सभलउँ जम्मु ॥ जासु न चाउ न चारहडि, न य पम्हट्ठउ धम्मु ।। ३ ।। अनादाविति किम् । समधु करेपिपणु । अत्र कस्य गत्वं न मवति ।। स्वरादिति किम्। गिलिगिलि राहु मयङ्क ।। असंयुक्तानामिति किम् । एकहि अक्सिहिं सावणु ॥ प्रायो धिकारात् क्वचिन्न भवति । बइ केइ पावीसु पिउ अकिया कुछ करीसु ॥ पाणीउ नबइ सरावि जिवे सव्वङ्ग पइ सीसु ॥ ४ ॥ उभ कणिमारु पफुलिउ कश्चरण-कन्ति पयासु ॥ गौरी-अयय-विणिज्जनउ नं सेवह वण-मासु ॥५॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५२६ ] mmoor0000000000000000000rrorroromanowrimoo0000000000000000000000m. अर्थ:-संस्कृत भाषा में 'क, ख, त, थ, प और फ' इतने अक्षरों में से कोई भी अक्षर यदि पद के प्रारंभ में नहीं रहा हुअा हा और संयुक्त भी अर्थात् किमी अन्य अक्षर के साथ में मो मिला हुआ नहीं हो एवं किसी भी म्बर के पश्चात रहा हुश्रा होता अपभ्रंश म 'क' के स्थान पर 'ग'; 'ख' के स्थान पर 'घ'; 'त' के स्थान पर द'; ' के स्थान पर 'ध'; 'प' के स्थान पर 'ब' और 'फ' के स्थान पर 'म' की प्रामि हो जाती है । ऐसी आदेश-प्राप्ति नित्यमेव नहीं होती है, परन्तु प्रायः करके हो जाती है। जैसे:-'क' क स्थान पर 'ग' प्राप्ति का उदाहरण:-शुद्धि-करः = सुद्धि-गरो-पवित्रता को करने वाला । 'ख' से 'घ' :-सुखेन - सुघे = सुख से । 'a' का द' :-अपिवितं जीविदु' - जीवन जिंदगी । 'थ' का धःकथितम्क-धदु' कहा हुआ । 'क' का 'ब' :-गुरु-पदम् गुरू-बयु-गुरु के चरण को । 'फ' का 'भ' :सफ म्-सभलु = सफल || वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर कम से यों हैं:संस्कृतः-यद् दृष्ट सोम-प्रदमा मसतीभिः हसितं निःशङ्गम् ।। प्रिय-मनुष्य-विक्षोभकर, गिल मिल, राहो ! मृगाङ्कम् ॥१॥ हिन्दी:--'राहु' द्वारा चन्द्रमा को ग्रहण किया जाता हुआ जब असती अर्थात काम भावनाओं से युक्त स्त्रियों द्वारा देखा गया, तब उन्होंने निडर होकर हंसते हुए कहा कि-'हे राहु ! प्रिय जनों में 'विक्षोम-घबराहट' पैदा करने वाले इस चन्द्रमा को तू निगल जा-निगल जा । इस गाथा में 'विक्षोभकर' के स्थान पर 'विच्छोह-गरू' पद का रूपान्तर करते हुए 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है॥१॥ संस्कृतः-अम्ब ! स्वस्थावस्थः सुखेन चिन्त्यत्ते मानः॥ प्रिये दृष्टे व्याकुलत्वेन ( हल्लीहल ) कश्च तयति आत्मानम् ॥ २ ।। हिन्दी:-हे माता! शान्त अवाथा में रहे हुए व्यक्तियों द्वारा ही सुख पूर्वक प्रात्म-मन्मान का विचार किया जाता है। किन्तु अब प्रियतम दिखाई पड़ता है अथवा उसका मिलन होता है तब भावनाओं के उमड़ पड़ने के कारण से उत्पन्न हुइ व्याकुलता की स्थिति में कौन अपने ( सन्मान) का सोचता है-विचारता है ? ऐसी स्थिति में लो हमलने की उतावलता-हल्लोइलपना रहता है । इस गाथा में 'सुख्थेम' के स्थान पर 'सुधि' का रूपान्तर करते हुए 'ख' अक्षर के स्थान पर 'घ' अक्षर की शाम का बोध कराया गया है ॥२॥ संस्कृतः-शपथं कृत्वा कथितं मया, तस्य परं सफल जन्म 11 यस्य न त्यागः, नच आग्भटी, नच प्रमृष्टः धर्मः ।। ३ ॥ हिन्दी:-जिसने न सी त्याग-वृत्ति छोड़ी है, न सैनिक-वृत्ति का हो परित्याग किया है और न विशुद्ध धर्म को ही छोड़ा है; उसी का जन्म विशिष्ट रूप से सफल है; ऐम। बात मुझसे शपथ पूर्वक कही Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३० } * प्राकृत व्याकरण, गई है। इस गाथा में 'शपथ के स्थान पर 'सवधु'; 'कश्चित' के स्थान पर 'कषिदु' और 'सफलं' के स्थान पर 'समल' लिख कर यह सिद्ध किया है कि 'प' के स्थान पर 'ब'; 'थ' के स्थान पर 'ध' और 'त' के स्थान पर 'द' तथा 'फ' के स्थान पर 'म' की प्राति अपभ्रंश भाषा में होती है ।। ३ ॥ प्रश्नः-'क-ख-त-य-प-फ' अक्षर पद के प्रादि में नहीं होने चाहिये; ऐसा विधान क्यों किया गया है? उत्तरः-यदि उक्त अक्षरों में से कोई भी अक्षार ५६ के आदि में 41 सुभा होगा हो पनके स्थान पर भादेश रूप से प्राप्तव्य अक्षर 'ग-ध-द-ध-ब-म' को आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:-कृत्याकप्पिगुन्करके; यहाँ पर 'क' वर्ण पद के बाद में है, अतः इसके स्थान पर 'ग अक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। यों आदि में स्थित अन्य शेष वक्त अक्षरों की स्थिति को भी ममझ लेना चाहिये। प्रश्न:-यदि 'क-ख-त-थ-प-फ' अचार स्वर के पश्चात रहे हुए होंगे, तभी इनके स्थान पर क्रम से ग-घ द-ब-ब-म' अक्षरों की कम से प्राप्ति होगी; ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि ये स्वर के पश्चात नहीं रहे हुए होंगे तो इनके स्थान पर आदेश-रूप से प्राप्तव्य अक्षरों को आदेश प्राप्ति भी नहीं होगी, ऐसी अपभ्रंश-भाषा में परंपरा है; इस लिये स्वर से परे होने पर ही इनके स्थान पर उक्त अक्षरों को प्रादेश-प्राप्ति होगी; ऐसा समझना चाहिये । जैसे:-मगाक्कम -- मयकु = चन्द्रमा को । इस उदाहरण में हलन्त व्यखम '' के पश्चात 'क' वर्ग प्राया हुया है जोकि 'स्वर' के पर वर्ती नहीं होकर 'व्यसन' के पर वर्ती है इसलिये क' के स्थान पर 'ग' वर्ण की श्रादेश-प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उक्त शेष अक्षरों के सम्बन्ध में मो 'स्वर-परवर्तिख' के सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिये। प्रश्न:--संयुक्त अर्थात हलन्त रूप से नहीं होने पर ही 'क-य-त-2-1-फ' के स्थान पर 'ग-ध-द. ध-ब-म' व्यञ्जनों की क्रम से आदेश प्राप्ति होती है; ऐमा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि 'क-ख-त-थ-५-फ' व्यन्जन पूर्ण नहीं है अर्थात बर से रहत होकर अन्य किसी दूसरे व्यजन के साथ में ये अक्षर रहे हुए होंगे तो इनक स्थान पर 'ग-घ-द-ध-ब-म' व्यन्जनों को कम से प्रामध्य बादेश प्राप्ति नहीं होगी; ऐसो अपभ्रंश भाषा में परंपरा है इसलिये 'असंयुक्त स्थिति' का उल्लेख और मद्भाव किया गया है। जैसे:-ए करिमन श्रष्णि श्रावण: = एकहि अक्षिहि सावणुएफ आँख में श्रावण ( अर्थात्त आँसुओं की झड़ी है। इस उदाहरण में 'क' के स्थान पर 'ग' वण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों शेष अन्य उक्त ध्यजनों के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये । पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३५७ में प्रदान की गई है। वृत्ति में अन्य कार ने 'प्रायः' अध्यय का प्रयोग करके यह भावना प्रदर्शित की है कि इन उक्त ध्यञ्जनों के स्थान पर प्राप्तव्य व्यञ्जनों को पादेश-प्राप्ति कभी कभी नहीं भी होती है। जैसे कि: Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * श्रकृत-अकिसा=नहीं किया हुश्रा । नव-नवइ नये में । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'क' पण स्वर के पश्शान रहा हुआ है, अनादि में स्थित है और संयुक्त भो है, फिर भी इसके स्थान पर श्रादेश रूप से प्राप्तव्य 'ग' वर्ण को आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य रक्त शेष व्यञ्जनों के संबंध में भी प्रायः' अव्यय का ध्यान रखते हुए जान लेना चाहिये कि सभी स्थानों पर प्रादेश-प्राप्ति का होना जरूरी नहीं है । वत्ति में उल्लिखित चौथी एवं पाँचची गाश का भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृनः- यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं प्रकृतं कौतुकं करिष्यामि ॥ पानीयं नवके शराये यथा सर्वाङ्गण प्रवेक्ष्यामि ॥ ४ ॥ हिन्दी-यदि किसी प्रकार से संयोग वशात् मेरो अपने प्रियतम से भेंट हो जाजगी तो मैं कुछ ऐमी आश्चर्य जनक स्थिति उत्पन्न कर दूंगी; जैसोकि पहिले कभी भी नहीं हुई होगी । मैं अपने संपूर्ण शरीर को अपने प्रियतम के शरीर के साथ में इस प्रकार से प्रारम-सात ( एकाकार ) कर दूंगा; जिस प्रकार कि नये बने हुए मिट्टी के शरावले में पानी अपने श्रापको प्रात्म-सात् कर देता है। ॥४॥ संस्कृता-पश्य ! कर्णिकार: प्रफुल्लितक: काचन कांति प्रकाशः ।। गौरी नदन्न-मिनिर्जिवला वन सेशे ननधासम् ।। ५ ॥ हिन्दी:-इस कर्णिकार नामक वृक्ष को देखो ! जो कि ताजे फूलों से लदा हुआ होकर परम शामा को धारण कर रहा है। सोने के समान सुन्दर कांति से देदीप्यमान हो रहा है। गौरी के (नायिका विशेष के) प्राभापूण सौम्य मुख-कमल की शोभा से भी अधिक शोभायमान हो रहा है। फिर भी आश्चर्य है कि यह वन-वास ही सेवन कर रहा है; वन में रहता हुभा ही अपना काल क्षेप कर रहा है। इस गाथा में 'कर्णिकारः और प्रकाशः' पदों में 'क' वर्ग के स्थान पर 'ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। 'प्रफुल्लितकः और विनिर्जितक:' पदों में भी कम से प्राप्त 'फ' वर्ण तथा 'त' वर्ण के स्थान पर भी कम से प्राणम्य 'भ' वर्ण की और 'द' वर्ण की श्रादेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अनेक स्थानों पर 'प्रायः' अध्यय से सूचित स्थिति को हृदयंगम करना चाहिये ॥ ५॥ ४-३६६ ।। मोनुनासिको वो वा ॥ ४-३६७ ॥ अपभ्रंशेऽनादी वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिको वकारो वा भवति ।। कवलु कमलु । भरु भमरु । लाक्षणिकस्यापि । जित | तिव | जेवें । ते ॥ अनादावित्येव । मयणु ।। असंयुक्तस्येत्येव । तसु पर समलउ जम्मु ।। ___ अर्थ:-संस्कृत भाषा के पद में रहे हुए मकार के स्थान पर अपभ्रश भाषा में रूपान्तर करने पर अनुनासिक सहित 'वकार' की अर्थात '३' को भादेश प्राप्ति विकल्प से उस दशा में हो जाती है जबकि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३२ १ 644466644 वह 'मकार' पद के आदि में भी नहीं रहा हुआ हो तथा संयुक्त रूप से भी नहीं रहा हुआ हो। जैसे:कमलम् = कवलु अथवा कमलु-कमल-फूल । भ्रमरः = भरु अथवा =बरा । इन उदाहरणों में 'मकार' पद के आदि में भी नहीं है तथा संयुक्त रूप से भी नहीं रहा हुआ है | व्याकरण सम्बन्धी नियमों से उत्पन हुए 'मकार' के स्थान पर मी अनुनासिक सहित 'वें' की उत्पत्ति भी विकल्प से देखी जानी है। जैसे:-- यथा = जिम अथवा मिव-जिस प्रकार, जिस तरह से । तथा-तिम अथवा तियँ = उस प्रकार से अथवा उस तरह से । यथा = जेम अथवा जेव= जिस प्रकार अथवा जिस तरह से । तथा = तेम अथवा तेच = उस प्रकार अथवा उस तरह से । - * प्राकृत व्याकरण * 44000 प्रश्नः -- ' अनादि' में स्थित 'मकार' के स्थान पर ही वें' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'मकार' पद के आदि में रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर 'बँकार' की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:-मदन- मय मदन- कामदेव । यहाँ पर 'मकार' के स्थान पर 'बॅंकार नहीं होगा | क्योंकि यह मकार आदि में स्थित है। गया है ? प्रश्नः - 'संयुक्त रूप से रहे हुए 'मकार' के स्थान पर ही 'बँकार' होगा; ऐसा भी क्यों कहा उत्तर:- 'संयुक्त' रूप से रहे हुए 'मकार' के स्थान पर 'बॅंकार' की श्रदेश प्राप्ति नहीं होती है; ऐसी अपभ्रंश भाषा में परंपरा है; इसलिये 'संयुक्त' मकार के लिये 'बॅंकार' की प्राप्ति का निषेध किया गया है । जैसे::- जन्म - जम्मु - जन्म होना- उत्पत्ति होना । यहाँ पर 'मकार' संयुक्त रूप से रहा हुआ है इसलिये 'बँकार' की यहाँ पर आदेश प्राप्ति नहीं हो सकती है । तस्य परं सफलं जन्म तसु पर सभतउ जम्मु = उसका जन्म बड़ा ही सफल है। पूरी गाथा सूत्र संख्या ४-३६६ में दी गई है | ४ ३६७ ।। बाधो रो लुक् ॥ ४-३६८ ॥ अपभ्रंशे संयोगादधो वर्तमानी रेको लुग् वा भवति ॥ जइ केवइ पाचीसु पिउ ( देखो - ४-३६६ ) पक्षे । जह भग्गा पारकडा तो सहि । मज्भु प्रियेण ॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा के किसी भी पद में यदि रेफ-रूप 'रकार' संयुक्त रूप से और वर्ण में परवर्ती रूप से अर्थात् अधी रूप से रहा हुआ हो तो उस रेफ् रूप 'रकार' का अपभ्रंश भाषा में विकल्प से लोप हो जाता है । जैसेः- यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं = जइ केवह पात्रीसु पिउयदि किसी भी तरह से प्रियतम पत्ति को प्राप्त कर लूँगी। इस बदाहरण में 'प्रिय' के स्थान पर 'पिंड' पद को लिख करके 'प्रियं' में स्थित रेफ रूप 'रकार' का लोप प्रदर्शित किया गया है। पचान्सर में जहाँ रेफ रूप 'रकार को लोप नहीं होगा, उसका उदाहरण इस प्रकार से है:- यदि भग्नाः परकीयाः तत् सखि ! सम प्रियेण=जइ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५३३ ] भगा पारकडा तो सहि ! मज्भु प्रियंग हे सखि ! यदि शत्रु पक्ष के लवैये ( रण-क्षेत्र को छोड़कर ) भाग खड़े हुए हैं तो मेरे पति की वीरता के कारण ) में ( ही ) ऐसा हुआ है। इस दृष्टान्त में 'प्रिये ' के स्थान पर 'त्रिवेण' पद का ही उल्लेख कर के यह समझाया है कि रेफ रूप 'रकार' का लोप कहीं पर होता है और कहीं पर नहीं भी होता है। यों यह स्थिति उभय-पक्षीय होकर वैकल्पिक हैं ।। ४-३६८ ॥ $4000 भूतोपि क्वचित् ॥ ४-३६६ ॥ अपभ्रंशे कचिदविद्यमानो पि रेफो भवति ॥ वासु महारिसि ऍउ भगइ जइ सुह-मत्थु पमाणु ॥ माय चलनवन्ताहं दिवि दिवि गङ्गा व्हा ॥ १ ॥ कचिदितिकिम् । वासेण वि भारत - खम्भि बद्ध || अर्थः कृतकेयाद रेफ रूप 'रकार' नहीं है तो मा अपभ्रंश भाषा में उस पद का रूपान्तर करने पर उस पद में रेफ-रूप 'रकार' की श्रागम प्राप्ति कभी कमो जैसे:- व्यासः प्रासु - व्यास नामक ऋषि-विशेष। पूरी गाथा का रूपान्तर यों है: - जाया करती हैं। संस्कृतः — व्यास-- महर्षिः एतद् भगति यदि श्रुति शास्त्रं प्रमाणम् ॥ 7 मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गङ्गा स्नानम् ॥ १ ॥ हिन्दी ः— महाभारत के निर्माता व्यास नामक बड़े ऋषि फरमाते हैं कि यदि वेद और शास्त्र सच्चे हैं याते प्रमाण रूप है तो यह बात सच हैं जो विनीत आत्माएं प्रतिदिन प्रात:काल में अपनी पूजनीय माताओं के चरणों में श्रद्धा पूर्वक नमस्कार प्रणाम करते हैं तो उन विनीत महापुरुषों को बिना गंगा स्नान किये भो 'गङ्गा में स्नान करने से उत्पन्न होने वाले पुण्य' जितने पुण्य की प्राप्ति होती है ।। १ । प्रश्नः --- क्वचित् श्रर्थात् कभी कभी ही रेफ रूप रकार' की श्रागम राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- अनेक पड़ों में कभी तो रेफ रूप 'रकार' की श्रागम-प्राप्ति हो जाती है और कभी नहीं भी होती है इमलिये कचित् श्रभ्यय का उपयोग किया गया है। जैसे:- म्यासेनापि भारत स्तम्भे बद्धम् =वासेण त्रि भारह खम्भ बढन्यास के द्वारा भी भारत रूपी स्तम्भ में बांधा गया है - कहा गया है । इस उदाहरण में 'वासेा' पद में रेफ-रूप 'रकार' का आगम नहीं हुआ है । (२) व्याकरणम् = बागरण और बागरण = व्याकरण शास्त्र । इस तरह से रेफ-रूप 'रकार' को श्रागम स्थिति को जानना चाहिये ।। ४-३६६ ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३४ ] * प्राकृत व्याकरण * mo000000000000000000000000000000rrrrrorise+0000000000000000000000000. अापद्विपत्-संपदां द इः ॥४-४०० ॥ अपभ्रंशे श्रापद्-विपद् -( संपद् )-इत्येतेषां दकारस्य इकारो भवति ॥ अणउ करन्तहो पुरिसहो श्रावइ प्राव। चिवइ । संपइ ।। प्रायोधिकारात् । गुणहि न संपय किसि पर ।। अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'श्रापद, विपद-संपद' शब्दों में उपस्थित अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'इकार' स्वर को आदेश प्राप्ति (कमो कभी) हो जाती है। जैसे:(१) आपद् = भाषा-आपत्ति-दुख । (२) विपद-विवड़ = विपास-संकट ! (३) संपन् - संप - संपतिसुख !| गाथा के चरण का रूपान्तर यों है: अनयं कुर्वत: पुरुषस्य प्रापद आयाति -अणइ फरन्तहो पुरिसहो प्रावइ आवई - अनीति को करने वाले पुरुष के { लिये ) आपत्ति आती है । 'प्रायः' अव्यय के साथ उक्त विधान का उल्लेख होने से कभी कमी 'आपद्-विपद्-मपद' में रहे हुए अन्त्य व्यजन 'दकार' के स्थान पर 'इकार' रूप की श्रादेश-प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:आपद्-यावय अथवा प्रावया । (२) विपद् = विवय अथवा विषया और (३) संपद् =संपय अथवा संपया । गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:-गुणः न संपत् कीर्तिः परंगुणहिं न संपय किसि पर - गुणों से संपत्ति ( धन द्रव्य ) नहीं (प्राप्त होती है-होता है। परन्तु कीर्ति (हो प्राप्त होती है ) इम दृष्टान्त में 'मंषद्' के स्थान पर 'संपइ' पद का प्रयोग नहीं किया जाकर 'संपय' पद का प्रयोग किया गया है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये ॥ ४-४०० ॥ कथं यथा-तथा थादेरेमेमेहेधा डितः ॥ ४-४०१ ॥ अपम्रशे कथं यथा तथा इत्येतेषां थादेवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ केम समप्पउ दुइ दिणु किध रयणी छुद्ध होइ॥ नय-बहु-दमण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ॥१॥ ओ गोरी-मुह-निजिअउ बदलि लुक्क मियक ।। अन्नु विजो परिहविय-तणु सो किवं भह निसङ्कः ॥२॥ बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द ॥ निरूवम-रसु पिए पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द॥३॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी वाला सहित * [ ५३५ ] aorrorosotoros0000000000000000000000000000000oretomom भण सहि ! निहुअउं तेवं मई जइ पिउ दिड सदोसु ॥ जे न जाणइ मझु मणु पक्खावडिअं तासु ॥ ४ ॥ जि जिवँ वकिम लोअणहं । तिब तिवं यम्मा निश्रय-सर । मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कविधर होइ विश्राली ।। नवर मिश्रङ्क बितिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि ॥ ५ ॥ एवं तिध-जिधायुदाहायो । अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कर्थ, यथा और तथा' अध्ययों में स्थित '' और 'था' रूप शरात्मक अवयवों के स्थान पर अपभ्रश भाषा में 'एम, इम, इइ और इध' अक्षरामक आदेशप्राप्ति कम से होती है। यह आदेश-प्राप्ति 'डिन्' पूर्वक होती है। इससे यह समझा जाता है कि उक्त तीनों अव्ययों में 'थं' और 'था' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'क', 'य' और 'त' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'अ' का भी 'एम, इम, इह और इध' आदेश-प्राप्ति के पूर्व लोप हो जाता है और तदनुसार 'कर्थ' के स्थान पर 'केम, किम, किह और किध' रूपों की प्राप्ति होती है । 'यथा' के स्थान पर 'जेम, जिम, लिध और जिह' रूप होंगे और इसी प्रकार से 'तथा' को जगह पर 'तिम, तेम, तिध और तिह' रूप जानना चाहिये। सूत्र संख्या ४-३६७ के संविधानानुसार 'केम, किम, जेम, जिम, वेम, तिम' में स्थित 'मकार' के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक महित 'व' की प्रापेश-प्राप्ति भी हो जाने से इनके स्थान पर क्रम से 'केव, किर्वे, जेव, जिवे, तेव, तिव, रूपों की श्रादेश-प्रामि भी विकल्प से होगी। यो 'कथं, यथा और तथा' अध्ययों के क्रम से छह छह रूप मपभ्र'श-भाषा में हो जायगे। वृत्ति में दी गई गाथाओं में इन अव्यय-रूपों का प्रयोग किया गया है; तदनुसार इनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृतः कथं समाप्यतां दृष्टं दिन, कथं रात्रिः शीघ्र ( झुडु ) भवति ॥ नव-वधू-दर्शन-लालसक: वहति मनोरथात् सोऽपि ॥१॥ हिन्दी:-किस प्रकार से ( कब शीघ्रता पूर्वक ) यह दुष्ट ( अर्थात् कष्ट-दायक) दिन समाप्त होगा और कब रात्रि जल्दी होगी। इस प्रकार की मनो-भावनाओं को 'नई ब्याही हुई पत्नी को देखने की तीव्र लालसात्राला' वह ( नायक विशेष ) अपने मन में रखता है अथवा मनोरथों को धारण करता है। इस गाथा में 'कथं' अव्यय के स्थान पर प्रादेश-प्रात 'केम और किध' अध्यय रूपों का प्रयोग किया गया है ॥ १ ॥ संस्कृत:--प्रो गौरी-मुख-निर्जितका, वाईले निलीनः मृगाकः ॥ अन्योऽपि यः परिभूततनुः, स कथं भ्रमति निःशवम् ॥ २ ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३६ ] हिन्दी:- ओह ! ! सूचना अाश्रयथ ) गौरी (गायिका विशेष ) मल की शोमा से हार खाया हुआ यह चन्द्रमा बादलों में छिप गया है। दूसरे से हारा हुआ अन्य कोई भी हो, वह रिता पूर्वक ( सन्मान पूर्वक ) कैसे परिभ्रमण कर सकता है ? इम गाथा में कथं' के स्थान पर 'कि' आदेश प्राप्त रूप का प्रयोग किया गया है ।। २ ॥ * प्राकृत व्याकरण संस्कृत: --- बिम्बाधरे तन्त्र्याः रदन - त्रणः कथं स्थितः श्री आनंद ॥ निरूपम र प्रियेश पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा ॥ ३ ॥ हिन्दी:- हे श्री आनन्द ! सुन्दर शरीर वाली ( पतले शरार वालों ) नायिका के लाल लाल होठों पर दांतों द्वारा अंकित चिह्न किस प्रकार शोभा को धारण कर रहा है ? मानों प्रियतम पति देव से द्वितोय अमृत रस का पान किया जाकर के होठों में ) अवशिष्ट रस के लिये सील-मोहर लगा दी गई है; (जिससे कि इस अमृत रस का अन्य कोई भो पान नहीं कर सके ) इस गाया में कथ' य स्थान पर 'कि' आदेश श्रप्ति रूप का प्रयोग किया गया है || ३ ॥ संस्कृत::-भग सखि ! निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः सदोषः ॥ यथा न जानाति मम मनः पक्षापतितं तस्य ॥ ४ ॥ हिन्दी:- हे सखि ! यदि मेरे विषय में मेरा प्रियतम तुझ से सदोष देखा गया है तो तू निस्संकोच होकर (प्राइवेट रूप में ) मुझे कहड़े। मुझे इस तरीके से कह कि जिससे वह यह नहीं जाम सके कि मेरा मन उसके प्रति अब पक्षपात पूर्ण हो गया है । इम गाथा में 'तथा' के स्थान पर 'तेखेँ' लिखा गया है और 'यथा' के स्थान पर 'जेव' का प्रयोग किया गया है ॥ ४ ॥ संस्कृत: - यथा यथा वक्रिमाां लोचनयोः ॥ अपभ्रंशः - जिवँ जिवँ वहिम लोमराई | हिन्दी:- जैसे जैसे दोनों जेनों की वकता को । यहाँ पर 'यथा यथा' के स्थान पर 'जिवें, जिवँ' का प्रयोग किया गया है। संस्कृतः तथा तथा मन्मथः निजक- शरान् ॥ अपभ्रंशः - तिवँ तिबँ वम्महु निमय- सर || हिन्दी: - वैसे वैसे कामदेव अपने बाणों को । इस चरण में 'तथा तथा' की जगह पर 'तियँ, ति' ऐसे आदेश प्राप्त रूप लिखे गये हैं । संस्कृत: :---मया ज्ञातं प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले || केप ( = परं) मृगाङ्कोष तथा तपति यथा दिवकरः क्षयकाले ॥ ५ ॥ ८. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५३७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हिन्दी:-हे प्रियतम ! मुझम ऐमा जाना गया था कि प्रियतम के वियोग से दुःखित व्यक्तियों के लिये संध्या-काल में शायद कुछ भी सान्तना का श्राधार पास होना होगा; किन्तु ऐपा नहीं है। 'देखा चन्द्रमा भी संध्याकाज में सभी प्रकार से उष्णता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है; जैसाकि सूर्य उभानामय ताप प्रदान करता रहता है। इस गाथा में 'तथा' अव्यय के स्थान पर तिह' रूप की श्रादेश प्राति हुई है और 'यथा' को जगह पर 'जिह' आदेश प्रात अव्यय रूप लिखा गया है ।। ५ ।। इसी प्रकार से 'कथं, यथा और तथा' अव्यय पदों के स्थान पर आदेश-भाप्ति के रूप में प्राप्त होने वाले अन्य रूपों के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये, ऐमी प्रन्थकार की सूचना है। यादृक्तादृक्कीगीदृा दादे डेहः ॥ ४-४०२ ॥ अपभ्रंशे याहगादीनां दादेवयवस्य डित् एह इत्यादेशो भवति ॥ __ मई भणिअउ बलिराय ! तुई केहउ मग्गय एहु॥ जेहु तेहु न वि होइ, वह ! सई नारायणु एहु ॥१॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'याक. तारक, कोहक और ईडक' शब्दों में अवस्थित अन्त्य भाग 'हक्क' के स्थान पर अपभ्रश भाषा में हिन्-पूर्वक' 'पह' अंश-रूप की श्रादेश-प्राप्ति होती है। 'डित' पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'रक्' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुप. 'या, ता, की और ई' के अन्त्य स्वर 'बा, और ई' का भो लोप हो जाता है और तत पश्चात ही 'एइ' अंश रूप की आदेश प्राप्ति होकर एवं संधि अवस्था प्राप्त होकर कम से यो आदेश प्राम रूपों की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:-यारक-जेह = जिसके ममान; तारक = तेह = उसके ममान; कोडक्= केह = किस के समान और ईटक- एह - इसके ममान | आदेश प्राम रूप विशेषण हाने से विशेष्य के समान ही विभकियों में मां इनके विभिन्न रूप बन जाते हैं। गाथा का भाषान्तर यों है: संस्कृतः-मया भणितः बलिराज ! त्वं कोटग् मार्गणः एपः ॥ याकू-तादृक् नापि भवति मूर्ख ! स्वयं नारायणः ईटक् ॥ १॥ हिन्दोः-हे राजा बलि ! मैंने तुम्हें कहा था कि यह मांगने वाला किस प्रकार का भिखारी है ? हे मूर्ख ! यह ऐसा पैसा भिस्वारी नहीं हो सकता है। किन्तु इस प्रकार 'भिखारी' के रूप में स्वयं भगवान् नारायण-विष्णु है ॥ १॥ यों इस गाथा में 'यादृङ्, तारक, कोग और ईह' के स्थान पर कम से 'जेहु, तेहु, केइउ और एहु' रूपों का प्रयोग किया गया है । ४-४०२ ।। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३८ ] * प्राकृत व्याकरण * अतां डइसः ॥४-४०३ ॥ अपभ्रंशे पाहगादीनामदन्तानां यादृश-तादृश-कीदृशेदशानां दादेवयवस्य उित् अइम इत्यादेशो भवति ॥ जइसो । तइसो । कइसो । अइसी ।। अर्थ:--संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'याहक. तारक, कीदृक् और ईहक' शब्दों में यदि 'अ ' प्र यय की प्रामि होकर जब ये शठन कम से यादृश, ताश, कीडश और ईदृश' रूप में परिणत हो जाते हैं, तब अपभ्रंश-भाषान्तर में इन शब्दों के अन्त्य श्रदयव रूप दृश' के स्थान पर खिन' पूर्वक 'अइस' अवयव की अादेश प्रामि हो जाती है। डिल-पुर्व क' कहने का तात्पर्य यह है कि इन शब्दों के अन्य अवयव 'दश' के लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हुए शब्दांश 'या, ता. की और इ' भाग में अवस्थित अन्त्य करना को लेकर आता है और पश्चान् हलन्त रूप से रहे शब्दाश में ही 'आइस' आदेश प्राप्ति की संधि हो जाती है। जैसेः-न्यारशः = जइसो - जिसके समान । तादृशः= तइस उप्तके समान । कीदृशः - कइमो= किसके समान और ईशः- अइसा-इसके समान | ये विशेषण सारूप वाले हैं, इसलिये संज्ञाओं के समान हो इनके विभक्ति-वाचक रूप भी बनते हैं ॥ ४-४०३ ॥ यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेवत्त ॥ ४-४०४ ॥ अपभ्रंशे यत्र-तत्र-शब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतो डिती भवतः ।। जइ सो धडदि प्रयावदी केत्थु थि लेपिणु सिक्खु ।। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो ताहि सारिकबु ॥ १ ॥ जत्तु ठिदो। तत्तु ठिदो॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'यत्र और तत्र' अव्यय रूप शब्दों का अपभ्रंश भाषा में रूपांतर करने पर इनके अंत में अवस्थित 'त्र' माग के स्थान पर "डित' पूर्वक 'एत्थु और अस' ऐसे दो 'प्रादेश-रूप अंश-भाग' की प्राप्ति होती है । 'डित' पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'यत्र और तत्र' में अवस्थित '' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेषांश 'य' और 'त' में स्थित अन्य 'अ' का भी लोप होकर आदेश रूप से प्राप्त होनेवाले 'पत्थु अथवा अत्त' को उनमें संधि हो जाती है। जैसे:-यत्र = जत्थु और जत्तु-जहाँ पर । तत्र-तेस्थु और तत्त-वहाँ पर । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः--यदि स घटयति प्रजापतिः, कुत्रापि लावा शिक्षाम् ।। यत्रापि तत्रापि अत्र जगति, भण, तदा तस्याः सदृक्षीम् ॥ १॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # [ ५३६ ]. .000000000000000000000000000000000+or+or+++0000000000000000000000m हिन्दी:- यदि विश्व-निर्माता ब्रह्मा इस विश्व में यहाँ पर, वहाँ पर अथवा कहीं पर भी ( निर्माणकला का । शिक्षा को पढ़ करके अध्ययन करके-( पुरुषों का अथवा स्त्रियों का ) निर्माण करता; तमी उस सुन्दर स्त्री के समान अन्य (पुरुष का अथवा श्री ) का निर्माण करने में समर्थ होता। अर्थात वह ( नायिका) सुन्दरता में बेजोड़ है। माया पत्र के स्थान ५६ जेथु' का प्रयोग किया गया है और 'तत्र' के स्थान पर 'तेथु' श्रश्यय रूप लिखा गया है। शेष रूपों के क्रम से उदाहरण यों हैं: (१) यत्र स्थितः = जत्तु टिदी जहाँ पर ठहरा हुआ है। (1) तत्र स्थितः = तत्तु ठिो-वहाँ पर ठहरा हुआ है। यों कम से पादेश-प्राप्त चारों अध्ययरूषों की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। ५-५०४॥ एत्थु कुत्रात्रे ॥ ४-४०५॥ अपभ्रंशे कुत्र अत्र इत्येतयोस्त्रशब्दस्य डित् एत्थु एत्यादेशो भवति ॥ केत्थु वि लेप्पिणु सिक्सु ॥ जेत्यु वि तेत्थु चि एत्थु जगि ।। अर्थ:--संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कुत्र और अत्र अध्ययों में अवस्थित अनस्य अक्षर 'त्र' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'हित' पूर्वक 'एन्थु' अवयव की प्रादेश प्राप्ति होती है । 'डित' पूर्वक कहने का अर्थ यह है कि 'कुत्र और अत्र' अध्यय शब्दों के अन्त्य अक्षर 'त्र' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'कु और अ' में अवस्थित धन्त्य स्वर 'अ' और 'अ' का भी लोप होकर तत्पश्चात् आदेश-रूप से प्राप्त होने वाले अवयव रूप 'एत्थु' को उन शेषांश अक्षरों के साथ संधि हो जाती है। जैसे:-कुत्र-केत्थु-कहाँ पर-कहीं पर ? और अत्र-पत्थु-यहाँ पर अथवा इसमें | अन्य उदाहरण इप्स प्रकार : (१) कुत्रापि लात्वा शिक्षाम-केयु वि लेफ्णुि सिक्खु - कहीं पर भी शिक्षा को ग्रहण करके। यहाँ पर 'कुत्र' के स्थान पर 'केहथु' का प्रयोग है। () यत्रापि तत्रापि अत्र जगतिन्जेत्थु वि सेत्थु वि पत्थु जगि - जहाँ पर-वहाँ पर यहाँ पर इस जगत् में || इस चरण में 'अन्न' के स्थान पर एत्थु' अव्यय-रूप का प्रयोग प्रदर्शित है ॥ ४.४.५ ।। यावत्तावतोर्वादेर्मउमहि ॥४-४०६ ॥ अपभ्रशे यावचावदित्यव्यययो कारादेवयवस्य म 5 महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w [५४० ] * प्राकृत व्याकरण * w eeeeeeeve bee8899 $$$$$$$$$$$Ạ+++++++++++++++ जाम न निवडइ कुम्भ-यांडे -सीह-चबेड-चडक्क ।। ताम समत्तहं मयगलहं पह-पह वज्जइ हक्क ।। १ ॥ तिलहं तिलतणु ताउं पर जाउं न नेह गलन्ति ।। नेहि पणवह तेज्जि तिल तिल फिट्ट वि खल होन्ति ॥ २ ॥ जामहि विसमी कज्ज-गई जीवह मज्झे एइ ।। तामहि अच्छउ इयरू जणु सु-अणुवि अन्तरू. देई ।। ३ ।। अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'यावत और तावत' प्रत्ययों में अवस्थित अन्त्य अवयव 'वत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'म, ई और महि' ऐसे तोन तीन प्रादेश कम में होते हैं। जैसे:यावत-जाम अथवा जाचं अथवा जामहि = जब तक, जितना । तावत - ताम अथवा ताजं अथवा तामहिं - तब तक, सतना ।। सूत्र-संख्या ४-३६७ से 'जाम और ताप' में अवस्थित 'मकार' के स्थान पर अनुनासिक सहित 'वकार' अर्थात् '' को आदेश प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होने से 'जा और तावं' रूपों की प्राप्ति भी होगी । उक्त अध्यय रूपों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिये जो गाथाऐं दी गई है। उनका मनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृतः-यावत् न निपतति कुम्मतटे, सिंह-चपेटो-चटात्कारः॥ तावत् समस्ताना मद कलानां (गजाना) पदे पदे वाद्यते ढका ॥१॥ हिन्दी:-जन तक सिंह के फजे की चपेटों का चदात्कार याने थाप (हाथियों के) गण्ड-स्थल पर अर्थात् गर्दन-तट पर नहीं पड़ती है, तभी तक मदोन्मत्त समी हाथियों के डग हग पर (पद पद पर ऐसी ध्वनि उठती है कि मानों) इमरू बाजा बज रहा हो। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जाम' का प्रयोग किया गया है और सावत' के स्थान पर 'ताम' अध्यय पदों को स्थान दिया गया है ॥ १।। संस्कृत:-तिलानां तिलत्वं तावत् परं, यावत् न स्नेहा: गलन्ति ॥ स्नेहे प्रनष्ट ते एव तिला तिलाः भ्रष्ट्वा खलाः भवन्ति ॥ २ ॥ हिन्दी:-तिलों का तिलपना तभी तक है, जब तक कि तेल नहीं निकलता है। तेल के निकल जाने पर वही तिल तिलपने से भ्रष्ट होकर ( पतित होकर खल रूप कहलाने लग जाते हैं । इस गाथा में यावत् और तावत्' क स्थान पर क्रम से 'जाउं और ताउ' रू.पो का प्रयोग समझाया गया है ।। २ ।। संस्कृतः-यावद् विषमा कार्यगतिः, जोवानां मध्ये आयाति ।। तावद् प्रास्तामितरः जनः मुजनोऽप्यन्तरं ददाति ॥ ३ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 106609486696660950666666096 [ ५४१ ] 000056 हिन्दी:- जब मानव जीवों के सामने कठोर अथवा विपरीत कार्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है; तब साधारण आदमी की तो बात ही क्या है ? सज्जन पुरुष भी बाधा देने लग जाता है। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जामहिं' लिखा है और 'तावत्' की जगह पर 'तामहि' बतलाया है । यो क्रम से 'नाम, जाउं धीर जामहिं' तथा 'ताम, ताडं और तामहिं अव्यय पदों की स्थिति समझाई है ।। ४-४०६ ।। वा यत्तदोतोंडे' वड: अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयो यवत्तावतो वकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति ॥ जेडु अन्तरू रावण - रामहं, तेबहु अन्तरू पट्टण - गाई || पदे । जेतुलो । तेतुलो ॥ · अर्थः- सम्कृत भाषा में उपलब्ध यद् और 'तद्' सर्वनामों में जब परिमाणवाचक प्रत्यय 'अतु=श्रत्' की प्राप्ति होकर 'जितना' अर्थ में 'यावत्' शब्द बनता है तथा 'इतना' अर्थ में 'तावत्' शब्द बनता है तब इन 'यात्रत्' और 'तावत्' शब्दों में रहे हुए अन्त्य अवयत्र 'व' के स्थान पर अप भ्रंश भाषा में 'डिल' पूर्वक 'एवढ' अवयव रूप की विकल्प से श्रादेश प्राप्ति होती है। 'डिल पूर्वक' ऐसा कहने का ताल यह है कि 'यावत् और तावत्' शब्दों में 'वत्' अत्रयत्र के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्द भाग 'या' और 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' का भी लोग होकर इन हलन्त भाग 'य तथा त' में आदेश प्राप्त 'एवड' भाग की संधि होकर क्रम से इनका रूप 'जेवड और तेत्र' बन जाता है । जैसेः-- यात्रत् = जेवड- जितना । तावत्-तेवड उतना || वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र संख्या ४४३५ से 'यावत् और तावत्' में खेल = एतुल प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसी अर्थ में द्वितीय रूप 'जेल और तल' भो सिद्ध हो जाते हैं। जैसे: - यावत् जेतुलो जितना और तावत्-तेतली = उतना ॥ वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार में हैं:- यावद् अन्तरं रावण रामयोः नावद् श्रन्तरं पट्टण प्रामया: = जेवडु अन्तरू रावण-रामह, तेबहु अन्तक पट्टा- गामहं जितना अन्तर रावण और राम में है उतना 'अन्तर माम और नगर में है ।। ४-४०७ ।। ।। ४-४०७ ।। ב' वेद - किमोर्यादेः ४ ।। ४-४०८ ॥ अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरियत् कियतो यकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति || एवड्डु अन्तरू । केवड्डु अन्तरू ॥ पक्षे । एत्तुलो । केतुलो !! Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४२] * प्राकृत व्याकरण 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'इदम् और किम्' सर्वनामों में परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु= अत्' की प्राप्ति होकर 'इतना और कितना' अर्थ में कम से 'इयत और कियत' पदों का निर्माण होता है; इन बने हुए 'इयत और कियत' पदों के अन्त्य अवयत्र रुप 'यत' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकला से वित' पूर्वक 'एबद्ध' अवयव रूप की आदेश माप्ति हाता है। 'हित् पूर्वक' कहने का रहस्य यह है कि इयत और कियत पदों में से अन्त्य अवयव रूप 'यत्' का लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हुए शब्दांश 'इ और कि' में स्थित 'इ' स्वर का भो लोप होकर आदेश प्राप्त एवढ' शब्दांश का संधि होकर कम से ('इयत्' के स्थान पर) 'एबल' की और ( कियत्' के स्थान पर 'केवढ' को आदेशप्राप्ति हो जाती है। जैसे:- इयत अन्तर-एबडु अन्तरू - इतना फर्क = इतना भेद । कियत अन्तरं 3 केज अन्तर:-किताना ? कितना भेट ? लैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४-४३५ से "इयत्' के स्थान पर तिल' की प्राप्ति होगी और 'कियत' के स्थान पर 'केत्तल' रूप भी होगा। इयत कियत सुरू = एत्तुलु कत्तल सुई इतना कितना सुख ॥ ४-४०८ ।। परस्परस्यादिरः ॥ ४-४०६ ॥ अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । ते मुग्गडा हराविना जे परिविट्ठा ताहं ।। अवरोप्यरू जोअन्ताह सामिउ गन्जिउ जाहं ।। १ ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले विशेषण रूप 'परस्पर' में स्थित प्रादि 'पकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अकार' को आदेश प्राप्ति हो जाता है । जैसे:-परस्परस्य = अवरापरहु - आपस का || गाथा का रूपान्तर संस्कृत भाषा में और हिन्दी भाषा में क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत:-ते मोगलाः दारिताः, ये परिविष्टाः तेषाम् ।। परस्परं युध्यमानानां स्वामी पोडितः येषाम् ॥१॥ हिन्दी:-परस्पर में युद्ध करने वाले जिन मुगलों का स्वामी पीड़िन या-दुःखी था; और इसलिये उनमें से जो बच गये थे, वे मुगल (म्लेच्छ जाति के सैनिक) हरा दिय गये उन्हें पराजित कर दिया गया । इस गाथा में परस्पर' के स्थान पर 'अवरोप्पम पद का उपयोग करते हुए श्रादि पकार के स्थान पर प्रकार की प्राप्रि प्रदर्शित की गई है. ।। ४.४०६ ॥ कादि-स्थैदोतोरुच्चार-लाघवम् ॥४-४१०॥ अपभ्रशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोः ए ओ हत्येलयोरुच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ।। सुघे चिन्तिज्जड माणु ॥ (४-३६६)तसु दउँ कलि-जुगि दुल्लह हो (४-३३८) ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! * प्रयोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अर्थः- अपभ्रंश भाषा के पदों में 'क-ल-ग' आदि सभी व्यञ्जनों में अवस्थित 'एकार' स्वर के स्थान पर और 'ओकार स्वर के स्थान पर ह्रस्व 'एकार' के रूप में और ह्रस्व 'खोकार' के रूप में प्रायः उच्चारण किया जाता है । जेः सुखेन चिन्त्यते मानः सुघें चिन्तिजद मागु-सुख से सन्मान विचारा जाता है। इस उदाहरण में 'सु' पद के रूप में अवस्थित एकार' स्वर की स्थिति हस्व रूप से प्रदर्शित की गई हैं। 'ओ' का उदाहरण यों है:-- = = नस्य ग्रहं कलियुगे दुलभस्थत हउँ कलि-जुगि दुल्लह हो कलियुग में उस दुर्लभ का मैं । यहाँ पर 'दुल्लाह हो' पर में रहे हुए 'ओकार' स्वर की स्थिति ह्रस्व रूप से समझाई गई है । (२) गुरुजनाथ = गुरु जहाँ गुरूजन के लिये || ४-४१० ।। [ ५४३ ] = पदान्ते उंहु - हिं-हंकाराणाम् ॥४-४११॥ अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां उं हुं हिं हं इत्येतेषां उच्चारणश्य लाघवं प्रायो भवति ॥ अन्नु जु तुच्छउँ तहें हें || बलि किज्जउँ सुऋणस्सु || दइउ घडावर व ितहहुं ॥ तरुहुँ विकलु || खम्म - त्रिसाहिउ जहिं लहहुं । तहँ तइज्जी भङ्गि नवि ॥ B 00000001 अर्थः- अपभ्रंश भाषा के पदों के अन्त में यदि 'उ. हुँ, हिं, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण प्रायः हस्त्र रूप से होता है । उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-- (१) अन्यद् यच्छं तस्याः धन्यायाः = धन्नु जु तुन्द्रउँ तहे धरण = उस सौभाग्यशालिनी नायिका के दूसरे भी जो (अङ्ग) छोटे हैं। इस चरण में 'तुच्छ' को 'तुच्छ' लिख कर इस '' को स्व रूप से 'अँ' ऐसा प्रदर्शित किया है। - (३) देवः घटयति बने तरूणां=दइ घडावर वणि तरुहुं बनाता है | इस गाथा भाग में 'तरुहुँ' पद में 'हुं' को स्थिति को रूप से प्रदर्शित नहीं की गई है। (५) बलिं करोमि सुजनस्य नलि किज्जउँ सुअणस्सु सज्जन पुरुष के लिये मैं बलिदान करता हूँ । इम गाथांश में किज्ज' के स्थान पर 'किज्जदें' लिख कर 'लें' को स्थिति ह्रस्व रूप से समझाई हैं । a विधाता - (ब्रह्मा) जंगल में वृक्षों पर प्राय:' इस उल्लेख के अनुसार ह्रस्व के (४) तरुभ्यः श्रपि वल्कलं तरुहुँ वि वक्तु = वृक्षों से भी छाल (रूप वस्त्र ) इन पदों में रहे हुए 'तरुहुँ' में 'हुँ' को 'हुँ' लिख कर उच्चारण की लघुता दिखलाई है। (५) खड्ग-विसाधितं यत्र लभामहे खग्ग-विमाहिउं जहिं लहहुं तलवार (के बल) से प्राप्त होने वाला (लाभ) जहाँ पर हम प्राप्त करें। गाया के इस भाग में 'लहहुं' क्रियापद में अन्त्य अक्षर 'हु' को 'हूँ' नहीं लिख कर लघु उधारण की वैकल्पिक स्थिति को सिद्ध की है। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४४ ] * प्राकृत व्याकरण * (६) तृणानां तृतीया भङ्गो नापि-तरह तइज्जी भङ्गि नवि-तिनकों की तोसरी स्थिति नहीं मी (होती है)। गाथा के इस चरण में 'तणह' के स्थान पर 'तणहँ लिख कर यह सिद्वान्त प्रतिपादित किया है कि पदान्त 'ह' का उच्चारण लघु रूप से होने पर हैं' ऐसा होता है। इन सब उदाहरणों से और इम सूत्र से यही संविधान किया गया है कि पदान्त में रहे हुए ', हुं. हि और है के स्थान पर उच्चारणलघुता की दृष्टि से 'उ, हुँ, हिँ और हैं' ऐसा स्वरूप भी होगा ॥ ४-४११ ।। म्हो म्भो वा ॥४-४१२॥ अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराकान्तो भकारो वा भवति ।। म्ह इति पक्षम-श्म-ग. सम-या दः (२.03) इति गाहह जन विहितोऽत्र गृह्यते । संस्कृते तदसंभवात् । गिम्भो। सिम्भो ।। बम्भ से विरला के वि नर जे सव्यङ्ग-छाइन्छ । जे पक्का वे वञ्चयर. जे उज्जुन ते बइल्ल । १।। अर्थः-सूत्र-संख्या २-७४ में ऐसा विधान पाया है कि:-'पदम' में स्थित 'आम' के स्थान पर और 'श्म, म, स्म तथा टे' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'मह' की श्रादेश प्रालि होतो है; तदनुसार आदेश प्राप्त 'मह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में हलन्त मकार संलग्न भकार की अर्थात 'मम' की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। 'इ' का प्राप्ति प्राकृत-माषा में ही होती है। संस्कृत-भाषा में इसका प्रभाव है, इसलिये इस सूत्र में जो मह' के स्थान पर 'म्भ' प्राप्ति का संविधान किया गया है, उसका मूल स्थान प्राकृत-भाषा में रहा हुआ है ऐसा जानना चाहिये । जैसे:--प्रोमः = गिम्हों और गिम्भोषणता की ऋतु । यों अपभ्रंश भाषा में प्रीष्मः' शब्द के अर्थ में 'गिम्हो और गिम्भी' दानों प्रकार के पदों का अस्तित्व है। (२) श्लेश्मा = सिम्हां और सिम्भो-कफ-खेंखार । इस उदाहरण में भी श्लेश्मा' के दो पद 'सिम्हो और सिम्भो' इस सूत्र के अनुमार बतलाये गये हैं। गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृत:-ब्रह्मन् ! ते विरलाः केऽपि नराः, ये सर्वाङ्गच्छेकाः ॥ ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः, ये ऋजवः ते बलीवर्दाः ।। हिन्दी:-श्रो ब्राह्मण ! ऐसे पुरुष अत्यन्त हो कम है विरल है; जोकि सभी प्रसंगों में अच्छे और चतुर प्रमाणित हों। जो वक्र (टेढ़ी) प्रकृति वाले हैं, वे ठग हैं और जो सीधे अर्थात धतुरई रहित और विवेक रहित होते हुए स्पष्ट वक्ता हैं वे बैल के समान है। इस गाथा में 'ब्रझन्' के स्थान पर 'बम्भ' का प्रयोग करके यह प्रमाणित किचा है कि अपनश भाषा में 'मह' के स्थान पर विकरूप से '' की प्राने देखी जाती है ॥ ४-४१२॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अन्याशोन्नाइस वराइसों ॥ ४-४१३ ॥ अपभ्रंशे अन्य (दश शब्दस्य अन्नाइस अराइस इत्यादेशौ भवतः ॥ अन्नाइयो । राइसो || अर्थ :- संस्कृतभाष में उपलब्ध विशेषण शब्द 'अन्धाहरा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में ‘श्रन्नाइस और अवराइस' ऐसे दो रूपों को आदेश प्राप्ति होती हैं। जैसे::- अन्याहस = अन्नाइये और 'अत्र गइमो = अन्य के समान दूसरे के जैसा ।। ४-४१३ ।। प्रायसः प्राउ - प्राइव - प्राइम्त्र - परिगम्याः ॥ ४-४१४॥ अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य भाउ, प्राइव, प्राइम्य, परिगम् इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ अन्ने ते दीडर लोषण, अन्नु तं भुअ-जुअलु ॥ अन्तु सुघण थण-हारू, तं अन्नु जि मुह- कमलु ॥ अन्तु जि कम कलाघु सु अन्नु जि प्राउ विह्नि || जेण शिम्बिणि षडिय, स गुण-लायएग - गिहि ॥ १ ॥ प्राइव मुहिं भिन्तडी, तें मणिश्रद्धा गणन्ति || छाड़ निराम परमपइ अज्ज विलउ न लहन्ति ॥ २॥ सुजलें प्राइव गोरि हे सहि ! उच्चता नया सर ।। से समूह संपेसिया देन्ति, तिरिच्छी बस पर । ३ ।। एसी पिउ रूसेसु हउं रूट्ठी मई परिगम्ब ९३ मणोरहई दुकरु दहउ [४] अपुणेड़ ॥ करेइ ||४|| अर्थ :- संस्कृत भाषा मे पाये जाने वाले अव्यय रूप 'प्रायम्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में चार रूपों की आदेश प्राप्ति होती है; जो कि कम से इस प्रकार है: - (१) माउ, (२) प्राइव, (३) प्राइव और (४) गम् || आदेश मात्र चारों ही रूपों का अर्थ है- बद्दल करके । इन एकार्थक चारों ही रूपों का प्रयोग अपरोक्त गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:-- Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४६ ] * प्राकृत व्याकरण +00000000000000000000000000006sotrimmorroresmrorest+000000000000 संस्कृत:-अन्ये ते दीर्धे लोचने, अन्यद् तद् भुज युगलम् ।। भन्यः सघन स्तन भारः, तदन्यदेव मुख कमलम् ।। अन्य एव केश कलापः, सः अन्य एवं प्रायो विधिः ॥ येन नितम्बिनी घटिता, सा गुण लावण्य निधिः । १॥ हिन्दी:-( नायिका विशेष का एक कवि वर्णन करता है कि ):--उमकी दोनों बड़ी बड़ी पोखें कुछ और ही प्रकार का है-याने तुलना में अनिर्वचनीय है । उसकी दोनों भुजाणे. (भो) असाधारण है। उसका सघन और कठोर एवं उन्नत स्तन-भार है। उसके मुख-कमल की शोभा भी अद्वितीय है। उसके केशों के समूह की तुलना अन्य में नहीं की जा सकती है। वह विधानाही (ब्रह्मा ही) प्रायः कोई दूसरा हो मालूम पड़ता ; जिसने कि ऐपो विशाल नितम्बों वाली तथा गुण एवं सोन्दर्य के भंडार रूप रमणोन का निर्माण किया है । इस छ में 'प्रायः' के श्रादेश-प्राप्त रूप 'भाई' का उपयोग किया गया है।शा संस्कृतः--प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ने मणीन् गणयन्ति । अक्षये निरामये परम पदे अद्यापि लयं न लमन्ते ॥२॥ हिन्दी:-अक्सर करके-बहुत करके मुनियों में भी (ज्ञान-दर्शन चारित्र के प्रति , भ्रांति है विपरीतता है; ( इस विपरीतता के कारण से माला फेरते हुए भी केवल ) ये मणकों को ही गिनते हैं और इसी कारण से अभी तक 'अक्षय-शाश्वत और दुःख रहित-निरामय मोक्ष पद को नहीं प्राप्त कर सके हैं। इस गाथा में प्रायः' की जगह पर 'प्राइवरूप का स्थान दिया गया है ।।२।। संस्कृत:-अश्र जलेन प्रायः गौर्याः सखि ! उवृत्ते नयन सरसी । ते सम्मुखे संप्रेषित दत्तः तियंग घात परम् ॥६॥ हिन्दीः-हे सरिन ! उस गौरा ( नायिका विशेष ) के दोनों आँखों रूपी तालाब आँसु रूपी जज सं प्रायः लबालब भरे हुए हैं। वे ( आँख : जब किसी का देबन क लिय इधर बध' घुपाई जाती है तो वे ( आँख ) बड़ा तेज आघात पहुँचाती है । इस छद में 'प्रायः' के स्थान पर 'प्राइम्व' आदेश प्राप्त अध्यय का प्रयाग किया गया है ॥३। संस्कृतः-६ष्यति प्रिया, रोपिध्यामि अहं, रुष्टां मामनु यति ।। प्रायः एतान् मनोरथान् दुष्करः दयितः कारयति ।।४।। हिन्दी:-( कोई एक नायिका अपनी सखी से कहती है कि ) मेरा प्रियतम पति आवेगा; मैं ( उसके प्रति कृत्रिम ) रोष करूंगी और जर मुझे क्रोधित हुई देखेगा तो मुझे मनायेगा-खुश करने का Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५४७] ++++++++++++++++++++++++++++++++++0x +++++++++++++ +++++++++ प्रयत्न करेगा । यो मेरे इन मनोरथों को यह कठिनाई म वश में मानवाला प्रेमी पनि प्रायः पूर्ण करेगा अथवा करता है। इस गाथा में 'प्रायः' के स्थान पर आदेश-पाप्ति के रूप में होने वाले चौथे शब्द 'पगिाब' को प्रदर्शित किया गया ६४४-४१४१ वान्यथोनुः ॥४-४१५ ॥ अपभ्रंशे अन्यथा शब्दस्य अन इत्यादेशो वा भवति ।। पन्ने । अनह ॥ बिगहाणल-जाल-करालिअउ, पहिउ कोवि बुद्धि वि ठिप्रयो॥ अनु सिसिर-कालि सीअल-जलहु धूम कहन्ति हू उद्विप्रा ॥१॥ , अर्थ:-'अन्य प्रकार में दूसरी तरह से इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत अव्यय शब्द 'अन्यथा' के स्थान पर अपनश भाषा में विकल्प सं 'अनु' शब्द रूप की प्रादेश प्राप्ति होती है। परिपक पक्ष होने से पनान्तर म 'अन्नह' रूप का भी प्रानि होगी। जैसे:-अन्यथा-अनु अथवा अन्नह= अन्य प्रकार से अथवा दूसरी तरह से । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-विरहानल ज्वाला करालितः पथिकः कोऽपि मङ क्त्वा स्थितः ।। अन्यथा शिशिर-काले शीतल जलात् धूमः कुतः उत्थितः ॥१॥ हिन्दी-अपनी प्रियतमा पत्नी के वियोग ही अम्ति की ज्वालाओं से पीड़ित होता हुआ कोई यात्रो-पथिक विशेष जल में डूबको लगाकर ठहा हुआ है। यदि वह ( अग्नि ज्वाला से ज्वलित ) नहीं होता तो ठंड को ऋतु में ठंडे जाल में में धूपा वाष्प रूप ) कहाँ से उठता ? इस सुन्दर कल्पनामयी गाथा में 'अन्यथा' के स्थान पर 'अनु अध्यय रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है । १३.५।। कुतसः कउ कहन्तिहु ॥ ४-४१६ ।। भयनशे कुतस् शब्दस्य कउ, कहन्तिहु इत्यादेशी भवतः ।। महु कन्तहो गुट्ट-दृग्रहो कर झुम्पड़ा वरून्ति ।। अह रिउ-रुहिरें उन्दवइ अह अप्पणे न भन्ति ॥१॥ धूमु कहन्तिहु उद्विअउ :: अर्थः- 'कहाँ से' इप अथ में प्रयुक्त किये जाने वाले संस्कृत अध्यय शब्द 'कुतः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कर और कहन्ति' ऐस दो श्रभ्यय शब्द रूपों को आदेश प्राप्त होती है। जैसेफुलः = कब और कहनि हुकहाँ से ? गाथा में क्रम में इन दोनों का प्रयोग किया गया है। इसका अनुशार यां है: Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४८] * प्राकृत व्याकरणा संस्कृत-मम कान्तस्य गोष्ठ स्थितस्थ, कृतः कुटीरकाणि ज्वलन्ति ॥ श्रथ रिपुरुधिरंण भाद्रगति अथ आत्मना, न भ्रान्तिः ॥१॥ हिन्दी:--'अपने भवन में रहते हुए मेरे प्रियतम पति देव की उपस्थिति में झोंपड़ियों कैसे-कहाँ से-किम कारण से। अग्नि द्वारा जल मकना है ? क्योंकि ऐसा होने पर) उन मोलियों की यातो वह (पति देव) शत्रुनों के रक्त में उनको बुझा देगा अथा अपने खुद के (लड़ते हुए शहर में से निकल हुए) खून से उन्हें बुझा देगा, इमें मोह करन जैनो काई बात नहीं है। इस गाथा में 'अतः' के स्थान पर आदेश प्राप्त रूप '5' का प्रयोग किया गया है।।१। (२) धूमः कुनः उस्थिन:- धूमु कहन्तिह उदि अउ -धूओं कहाँ म-(किम कारण से उठा हुआ है ? इम गाथा चरण में 'कुन:' के स्थान पर प्रदेश प्राव द्वि-य ५ 'कहन्ति का उपयोग किया गया ततस्तदोस्तोः ॥ ४-४१७ ।। अपभ्रंशे ततम् तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति । जइ भग्गा पारकडा, तो सहि ! मज्झ पिएण ॥ अह भग्गा अम्हह, तहातो तें मारिअडेण ॥१॥ अर्थ:-'यदि यमा है तो अथवा उस कारण से है तो' इम अर्थ में संस्कृत भाषा में 'ततः' अध्यय का प्रयोग किया जाता है। इपी 'तत:' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा मे 'तो' अव्यय रूप को आदेश प्राप्ति होती है । इसी प्रकार मे तबतो' प्रर्थ में संस्कृत भाषा में तहा' अश्यय प्रयुक्त किया जाता है। इस तदा' अव्यय के स्थान पर भी पन श भ षा में 'नो' अश्यय रूप की ही आदेश प्राप्ति समझनी चाहिय । यो 'तनः' और 'तना दानों को अध्ययों का स्थान पर एक जैसे हा 'तो' रूप की आदेश प्राप्ति होता हुई देखी जाती है । जैस:- ततस्तदा वा जिनागमान द्योतय तो जिण-बागम जोइ = यदि वैसा है तो अथवा तबता जैन-शास्त्रों को देख । इम उदाहरण में 'ततः और सदा के स्थान पर एक ही अध्यय रूप 'तो' को प्रापणा की गई है । गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है:संस्कृत:-यदि भग्नाः परकीयाः, ततः सखि ! मम प्रियेण ॥ श्रथ भग्नाः अस्मदीयाः, तदा तेन मारितेन ॥१॥ हिन्दी:-ई माख ! यति शत्रु-गण मत्यु को प्राप्त हो गये हैं। अथका (रण-क्षेत्र को छोड़कर के) भाग गये हैं तr (यह सब विजय) मेरे प्रियतम के कारण से (हो है)। अथवा यी अपने पक्ष के वीर पुरुष रण क्षेत्र को छोड़ करके भाग ख हुए है सा (भी समझो कि) मेरे प्रियतम के वीर गति प्राप्त करने Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५४६ ] ++++++++++ +++++++++++++++++++ ++++ +++++++++++++++++ के कारण से (ही वे निराश होकर रण-क्षेत्र को छोड़ आये हैं) । इप्त गाथा में 'ततः और तदा' अव्ययों के स्थान पर एक जैसे हो रूप वाले 'तो' अव्यय रूप का प्रयोग किया गया है ॥ ४-४१७ ॥ एवं-पर-सम-व-मा-मनाक-एम्ब पर समाणु ध्र वु मं मणाउँ ॥४-४१८॥ अपभ्रशे एचमादीनाम् एम्वादय आदेशा भवन्ति । एवम् एम्ब। पिय-संगमि कउ निद्दडी, पिग्रहो परोक्खद्दो कैम्ब ? मई बिभि वि विनासिया, निद न एम्ब न तेम्य ॥१॥ परमः परः। गुणहि न संपइ, कित्ति पर । सममः समाणुः ।। कन्तुजु सीहडो उपमिअइ, तं महु खण्डि माणु ।। सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु ॥२।। ध्रु वमो ध्रुवुः। चचलु जीविउ, ध्रुवु मरणु पिम रूसिज्जइ काई ।। होसहि दिनहा, रूसणा दिव्य( बरिस-सयाई ॥३॥ मो मं । मं धणि करहि विसाउ ।। प्रायां ग्रहणात् ।। माणि पणइ जइ न ता तो देसडा चइज्ज ॥ मा दुज्जण -कर-पनवेहि देसिज्जन्तु भमिजज ॥४॥ लोणु बिलिज्जइ पाणिपण, अरिखल मेह ! म गज्जु ।। बालिउ गलइ सुझुपडा, गोरी तिम्मइ अज्जु ॥२॥ मनाको मखाउँ । विहवि पणदुई वडउ रिद्धिहि जण-सामन्न । किं पि मणाउं महु पिअहो ससि अणुहरइ न अनु ॥६॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अभ्ययों का अपभ्रंश भाषा में भाषान्तर करने पर उनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है उसी परिवर्तन का संविधान इस सूत्र में दिया गया है । इस परिवर्तन को पहां पर 'श्रादेश-प्राप्ति' के नाम से लिखा गया है। अध्ययों की क्रम से सूची इस प्रकार हैं: Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५० ] * प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000. (१) एवंएम्बइस प्रकार से अथवा इस तरह से । (२) परंपर-छिन्तु-परन्तु । (३) समसमाणु-साथ । (४) ध्र वंध्र -निश्चय ही । (५) मा=मंमत, नहीं । (६) मनाफ-मणाउं = थोड़ा सा भी-अल्प मी। इन्हीं अन्ययों का प्रयोग कम से गाथाओं में समझाया गया है। तदनुसार इन गाथाओं का संस्कृत में तथा हिन्दी में भाषान्तर कम से इस प्रकार से है:संस्कृतः-प्रिय संगमे कथं निद्रा ? प्रियस्य परोक्षे कथम् ? ___ मया द्वे अपि विनाशिते. निद्रा नैवं न तथा ।। हिन्दी:-प्रियतम पतिदेव के सम्मेलन होने पर ( सुख के कारण से ) निद्रा कैसे आ सकती है ? और प्रियतम पति वेव के वियोग में भी ( वियोग-जमित-दुःख होने के कारण से भी ) निद्रा कैसे पा सकती है ? मेरो निद्रा दोनों ही प्रकार से नष्ट हो गई है। न इस प्रकार से और न उस प्रकार से। इस गाथा में संस्कृत अव्यय एवं' के स्थान पर 'एम्ब' का प्रयोग समझाया गया है । 'कथं के स्थान पर 'केम्व' और 'तथा' के स्थान पर तेम्ब' की स्थिति की भी कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिए ॥१॥ (२) गुणैः न संपत्त कोतिः परं गुणहि न संपइ कित्ति पर गुणों से लक्ष्मी नहीं (प्रास होती है) किन्तु कीर्ति ( ही प्राप्त होती है)। इस चरण में 'परं' अध्यय के स्थान पर प्रादेश प्राप्त अम्बय रूप 'पर' का उपयोग किया गया है। संस्कृतः-कान्तः यत् सिंहेन उपमीयते, तन्मम खण्डित: मानः ।। सिंह: नीरक्षकान् गजान इन्ति प्रिय: पदरक्ष: समम् ।। हिन्दी:-यदि मेरे पति की तुलना सिंह से की जाती है तो इससे मेरा मान-मेरा गौरव-खण्डित हो जाता है। क्योंकि सिंह तो ऐसे हाथियों को मारता है; जिनका कि कोई रक्षक नहीं है; (अर्थात् रक्षकहीन को मारने में कोई वीरता नहीं है); जबकि मेरा प्रियतम पतिदेव तो रक्षा करने वाले सैनिकों के साथ शत्रु-राजा को मारता है । यों तुलना में मेरा पति सिंह से भी बढ़ चढ़ कर है । इस गाथा में 'समं' अव्यय के स्थान पर समाणु' भव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है | संस्कृतः-~-चञ्चलं जीवितं, ध्रुवं मरणं, प्रिय ! रुष्यते कथं १ भविष्यन्ति दिवसा रोषयुक्ताः (रूसणा) दिव्यानि वर्ष-शतानि ॥३॥ हिन्दी:-जीवन चंचल है अर्थात् किमी मी क्षण में नष्ट हो सकता है और मृत्यु ध्रव याने निश्चित है तो ऐसी स्थिति में है प्रियतम पतिदेव ! रोष याने क्रोध क्यों किया जाय ? यदि रोष युक्त दिन व्यतीत होंगे तो हमारा प्रत्येक दिन 'देवलोक में गिने जाने वाले सौ सौ वर्षों के समान लभ्यो और नहीं काटा जा सकने जैसा प्रतीत होगा । इस गाथा में 'ध्रुव' के स्थान पर आदेश प्राप्त रूप 'भ्र वु' का प्रयोग किया गया है ॥३॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .reumororanorosmooveestorrorismrow00000000000000000000mmeroin 'मत-नहीं' अथक 'मा' अव्यय के स्थान पर 'म' के प्रयोग का उदाहरण यों है:-मा धन्ये ! कुरू विषादम-म धणि ! करहि विना हे धन्यशील नायिके ! तू खेद को मत कर-खिन्न मत हो । 'प्रायः के साथ आवेश-प्राप्ति का विधान होने से अनेक स्थानों पर 'मा' के स्थान पर 'मा' का ही और 'म' का भी प्रयोग देखा जाना है । 'मा' और 'म' के उदाहरण गाथा संख्या चार में और पाँचमें कम से बतलाये गये हैं; उनका अनुवाद यों है:संस्कृत:--माने प्रनष्टे यदि न तनुः तत् देशं त्यजेः ।। ___ मा दुजन-कर-पन्लवः दयमानः भ्रमे ॥४॥ हिन्दी:-यदि आपका मान-सन्मान नष्ट हो जाय तो शरीर का ही परित्याग कर देना चाहिये और यदि शरीर नहीं छोड़ा जा सके तो उस देशको ही (अपने निवास स्थान का ही) परित्याग कर देना चाहिय; जिसमे कि दुष्ट पुरुषों के हाथ की अंगुलो अपनी ओर नहीं उठ सके अर्थात वे हाथ द्वारा अपनी और इशारा नहीं कर सकें और यों हम उनके आगे नहीं घूम सकेप४|| संस्कृतः-लवणं विलीयते पानीयेन, अरे खल मेघ ! मा गर्ज ॥ ज्वालितं गलति तत्कुटीर, गोरी तिम्यति अद्य ॥शा हिन्दी:-नमक (अथवा लावण्य-सौन्दर्य) पानी से गल जाता है-याने पिगल जाता है। अरे दुष्ट बादल ! तू गर्जना मत कर । जली हुई वह झोंपड़ी गल जायगी और उसमें (बैठी हुई) गौरी(नायिका-विशेष) आज गीली हो जायगी-भीग जायगी ॥५॥ चौथी गाथा में 'मा' के स्थान पर 'मा' ही लिखा है और पाँचवीं में 'मा' की जगह पर केवल 'म' ही लिख दिया है। संस्कृतः-विभवे प्रनष्टे वक्रः ऋद्धी जन-सामान्यः ॥ किमपि मनाक मम प्रियस्य शशी अनुहरति, नान्यः ॥६॥ हिन्दी-संपत्ति के नष्ट होने पर मेरा प्रियतम पतिदेव टेढ़ा हो जाता है अर्थात अपने मानसन्मान-गौरव को नष्ट नहीं होने देता है और ऋद्धि की प्राप्ति में याने संपन्नता प्राप्त होने पर सरल-तीया हो जाता है। मुझे चन्द्रमा की प्रवृत्ति भी ऐसी हो प्रतीत होती हैयह भी कलाओं के घटने पर देदावक्राकार हो जाता है और कलाओं को संपूर्णता में सरल याने पूर्ण दिखाई देता है। यों कुछ अनिर्वचनीय रूप में चन्द्रमा मेरे पतिदेव को थोड़ी सी नकल करता है। अन्य कोई भी ऐसा नहीं करता है। इस गाया में 'मनाक्' अव्यय के स्थान पर 'भगाउं' रूप का प्रयोग किया गया है ।।।। ४-४१८ ।। किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवेसहु नाहिं ॥४-४१६ ॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५२ 1 प्राकृत व्याकरण * wim m or000000.00000erestrore.ornstrrsoner... अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति || किलस्य किरः। किर खाइ न पिअइन विधइ धम्मि न वेचइ रूपडउ ।। इह किवणु न जाणइ, जइ जमहो खणेण पहुचइ दूअडः ॥१॥ अथवो हवइ ।। अह वइ न सुचंसह एह खोडि ।। प्रायाधिकारात् ।। जाइज्जइ तर्हि देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु । जह श्रावह तो आणिइ अह्वा तं जि निवाणु ॥२।। दिवो दिवे । दिवि दिघि गा-हाणु ॥ सहस्य सहुं ॥ जउ पवसन्तें सहुं न गयश्र न मुत्र विश्रोएं तम्सु ।। लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्तेहिं सुहृय-जएस्सु ॥३॥ नहे नाहिं। एसहे मेह पिबन्ति जलु, एतहे बडवानल आवट्टइ ।। पेक्यु गही रिम सायरहो एकवि कणिमनाहि श्रोहट्टा ॥४॥ अर्थ:- इस सूत्र में भी अव्ययों का हो वर्णन है। तदनुसार संस्कृत भाषा में उपलब्ध अध्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में जिस रूप में आवेश प्राप्ति होती है; वह स्थिति इस प्रकार से है:--(१) किल=किर = निश्चय ही । (२) अथवा = अहवइ= अथवा विकल्प से इसके बराबर यह । (३) दिवा = दिवे =दिन-दिवस । (४) सह =सहूं = साथ में। (५) नहि = नाहिं = नहीं । यो अपभ्रश भाषा में 'किल' आदि अध्ययों के स्थान पर 'किर" आदि रूप में आदेश प्राप्ति हाती है । इन अध्ययों का उपयोग वृति में दो गई गाथाओं में किया गया है। उनका अनुवाद कम से इस प्रकार हैं: संस्कृत:--किल न खादति, न पिवति न विद्रवति, धर्मे न व्ययति रूपकम् ।। इह कृपणो न जानाति, यथा यमस्य चणेन प्रभवति दूतः ।। हिन्दी:-निश्चय ही कंजूस न (अच्छा) खाता है और न (अच्छा) पोता है। न सदुपयोग ही करता है और न धम-कार्यों में हो अपने धन को व्यय करता है। किन्तु कृपण इस बात को नहीं जानता है कि अचानक ही यमराज का दूत आकर क्षण भर में ही उसको उठा लेगा। उस पर मत्यु का प्रभाव डाल देगा । इस गाथा में 'किल' अध्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त किर' अव्यय का उपयोग समझाया गया है॥१॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ५५३ ] ********* संस्कृत: अथवा न सुवंशानामेष दोषः - श्रह वह न सुबंसदं एह खोद्धि = अथवा श्रेष्ठ वंश वालों का-उत्तम खानवान वालों का यह अपराध नहीं है । इस गाथा चरण में 'अथवा ' के स्थान पर 'हव' रूप की देश-प्राप्ति बतलाई है। 'प्राय' रूप से विधान का अधिकार होने के कारण से ' अथवा ' के स्थान पर अपयश भाषा में अनेक स्थानों पर 'वा' रूप भी देखा जाता है। इस सम्बन्धी उदाहरण गाथा - संख्या दो में यों हैः संस्कृत: - यायते ( गम्यते ) तस्मिन् देशे, लभ्यते प्रियस्य प्रमाणाम् || यदि आगच्छति तदा आनीयते, अथवा तत्रैव निर्वाणम् ||२|| हिन्दी:- मैं उस देश में जाती हूँ; जहाँ पर कि प्रियतम पतिदेव की प्राप्ति के चिह्न पाये जाते हों । यदि वह आता है तो उसको यहाँ पर लाया जायगा अथवा नहीं आवेगा तो मैं वहीं पर ही अपने प्राण दे दूँगी । इस गाथा में 'अथवा ' की जगह पर 'ब्रह्मा' रूप लिखा हुआ है संस्कृतः - दिवसे दिवसे ( दिवा दिवा ) गङ्गा स्नानम् = दिवि-दिवि-गंगा-हाणु प्रत्येक दिन गंगा स्नान ( करने जितना पुण्य प्राप्त होता है) इस गाथा-पद में 'दिवा' के स्थान पर 'दिवे = दिवि' रूप का उल्लेख किया गया है। संस्कृत: - यत् प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य ॥ लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः (अस्माभिः) सुभग जनस्य || ३ || 1 हिन्दी:1:- जब मेरे पतिदेव विदेश यात्रा पर गये तब मैं उनके साथ में भी नहीं गई और उनके वियोग में भी विरह जनि दुख से मृत्यु को भी नहीं प्राप्त हुई मृत्यु भी नहीं आई, ऐसी स्थिति में उनको मंदेश भेजने में मुझे लज्जा आती हैं। इस गाथा में 'सह' अध्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त 'सई' श्रव्यय का प्रयाग प्रदर्शित किया गया है || ३|| संस्कृतः --- इतः मेघाः पिवन्ति जलं, इतः वडवानलः आवर्तते ॥ स्व गमीरिमाणं सागरस्य एकाषि कणिका नहि अपभ्रश्यते ॥४॥ हिन्दी: - समुद्र के जल को एक ओर तो ऊपर से मेघ बादल पीते हैं और दूसरी ओर अन्दर से समुद्राग्नि उसको अपने उदरस्य करती जाती है । यों समुद्र की गंभीरता को देखा कि इसकी एक बूंद भी व्यथ में नहीं जाती है। इस गाथा में 'नहि' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'नाहि' अव्यय रूप की रूपा की गई है || ४ ४-४१६ ।। पश्चादेवमेवै वेदानी - प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्बई जि एवहि पञ्चलिउ एतहे ॥४-४२० ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५४ ] * प्राकृत व्याकरण * अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छह इत्यादय आदेशा भवन्ति ।। पश्चातः पच्छ । पच्छइ होइ विहाणु ।। एवमेवस्य एम्बइ । एम्बइ सुरउ समतु ।। एवस्य जिः॥ जाउ म जन्तउ पल्लवह देवखळ कइ पय देइ ।। हिभइ तिरिच्छी हर जि पर पिउ डम्बरई करइ ॥१॥ इदानीम् एम्बर्हि । हरि नच्चाविउ पङ्गणइ बिम्हइ पाडिउ लो॥ एम्बहिं राह-पोहरई जं भावइ तं होउ ॥२॥ प्रत्युतस्य पञ्चलिउ॥ साव-सलोणी गोरडी नवरवी कवि विस-गण्ठि ।। भडु पञ्चलिउ सो मरह, जासु न लम्गइ कण्ठि । ३ । इतस एत्तहे ।। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु ।। अर्थ:-संस्कृत-भाषा में पाये जाने वाले प्रत्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में जैसी श्रादेशप्राप्ति होती है, उसीका वणन चालू है । तदनुमार इम सूत्र में छह अव्ययों को आदेश प्राप्ति समझाई गई है। वे छह अव्यय अर्थ पूर्वक क्रम में इस प्रकार से है: (१) पश्चात-पच्छद - पीछे-बाद में। (२) एवमेव = एम्बइ = ऐसा ही इस प्रकार का हा । (३) एव = जि= ही-निश्चय हो । (४) इदानीम - एम्बार्षि-३सी समय में अमी। (५) प्रत्युन पच्चालज-वैपरोत्य-- उल्टापना । (६) इतः = एत्तहे इस तरफ इधर एक और । यो मस्कृतीय अध्यय पश्चात' आदि के स्थान पर '१च्छइ' प्राधि रूप से आदेश-प्राप्ति होती है । उपरोक्त छह अध्ययों के उदाहरण कम से इस प्रकार है:-- (१) पवाद् भवात विभातम्पच्छइ हाइ विहाणु-पीछे ( सरकाल हो ) प्रभात-प्रातःकाल हो जाता है। () एवमेव सुरतं ममासम्एम्बई मुरत समत्त -इस प्रकार से ही-(हमारा) सुरत (रसि-काम) समान हो गया ॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * (३) संस्कृत: -- यातु, मा यान्तं पलघत, द्रक्ष्यामि काते पदानि ददाति ॥ हृदये तिरश्चीना अहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति ॥ १ ॥ हिन्दी:- यदि ( मेरा पति । जाता है तो जाने दो; जाते हुए उसको मत बुलाओ ! मैं (भी) देखती हूँ कि वह किसने डग भरता है? कितनी दूर जाता है ? क्योंकि मैं उसके हृदय में (आगे बढ़ने के लिये ) बाधा रूप ही हूँ । ( अर्थात मेरा वह परित्याग नहीं कर सकता है ) । इसलिये मेरा प्रियतम ( जाने का ) आडम्बर मात्र हो (केवल ढांग हो ) करता है। इस गाथा में 'अहमेव ' पद के स्थान पर 'हउ जि' पद का प्रयोग करके यही समझाया है कि 'एव' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'जि' श्रव्यय रूप को देश-प्राप्ति होती हूँ ( ४ ) संस्कृत: - हरिः नर्तितः प्राङ्गणे, विस्मये पासितः लोकः ॥ इदानीम् राधा - पयोधरयाः यत् ( प्रति ) भाति तद् भवतु ॥२॥ [***] हिन्दी: - हरि (कृष्ण) अांगन में नांचा अथवा नचाया गया और इससे जन-साधारण ( दर्शकवर्ग ) आश्चर्य ( सागर ) में डूब गया ( अथवा डुबाया गया ) ( सत्य है कि इस समय में राधा-रानी के दोनों स्तनों को जो कुछ भी चच्छा लगता हो, वह होवे उसके अनुसार कार्य किया जाये ) || इस गाथा में 'इदानी' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'एम्बहिं' आदेश प्राप्त अव्यय रूप का प्रयोग प्रस्तुत किया गया है ||२| (५) संस्कृत: - सर्व सलावण्या गौरी नवा कापि चिप - ग्रन्थिः ।। भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे ॥ ३॥ हिन्दी:- :- वह सर्व-जावण्य-सौन्दर्य-संपन्न रमणी कुछ नवीन दो प्रकार को (आश्चर्य जनक ) विष की ( जहर की ) गांठ है जिसके कंठ का आलिंगन यदि (अमुक) नवयुवक पुरुष नहीं करता है तो उल्टा मृत्यु को प्राप्त होता है । ( जहर के श्रस्वादन से मृत्यु प्राप्त होती है परन्तु यह जहर कुछ अनोखा ही है कि जिसका यदि आस्वादन नहीं किया जाये तो उल्टी मृत्यु प्राप्त हो जाती है) । इम अपभ्रंश छेद में 'प्रत्युत' अव्यय के स्थान पर 'पचलिङ' आदेश प्राप्त अव्यय रूप का प्रचलन प्रमाणित किया है ||३|| (६) इत: मेघाः पिबन्ति बल = एत्तहे मेह पिश्रन्ति जलु इस तरफ (इधर एक ओर तो) मेघबादल-अल को पीते हैं। इस चरण में इतः ' के स्थान पर 'एत्त रूप को आदेश प्राप्ति समझाई है ॥४-४२० ॥ विषगणोक्त-वर्त्मनो वुन्न-वुत्त- विच्चं ॥४-४२१॥ अपभ्रंशे विषादीनां वुनादय आदेशा भवन्ति ॥ विषण्णस्य चुन्नः । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i वात म्याकरण mamsteronormoooooortooterroretorrenworosorrotsorrowomerometer मई बुचउ तुई धुरु धरहिं कसरहिं विगुत्ताई ॥ पई विणु धवल न चडइ भरु एम्बइ बुबउ काई ।१।। उक्तस्य बुत्तः । मई वुसउं । वमनो विचः । जं मणु विचि न माह ॥ अर्थ:--संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले दो कूदन्त शब्दों के स्थान पर और एक संज्ञा वाचक शब्द के स्थान पर जो आदेश प्राप्ति अपभ्रश माषा में पाई जाती है, उसका संविधान इस सूत्र में किया गया है। वे इस प्रकार से है:-(१) विषण्ण-युग्न खेद पाया हुश्रा. दुखो हुा । हुा । (२) उक्त दुस-कहा हुला बोला हुमा । (३) वमन्-विक्षन्मार्ग रास्ता ॥ इन आदेश प्राप्त शब्दों के उदाहरण वृत्ति में दिये गये हैं, तदनुसार उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृता-मया उक्तं, त्वं धुरं धर, गलि वृषभः (कसर) विनाटिताः ॥ त्वया विना धवल नारोहति भरः, इदानी विषण्णः किम् ॥१॥ हिन्दी:- मुझ से कहा गया था कि-'यो श्वेत बैल ! तुम ही धुरा को धारण करो। हम इन कमजोर बैठ जाने वाले बलों से हैरान हो चुके हैं। यह मार तेरे बिना नहीं उठाया जा सकता है। अब तू दुःखी अथवा डरा हुश्रा अथवा उदास क्यों है ? इस गाथा में कृदन्त शब्द 'विषण्णः' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में भादेश प्राप्त 'बुन्नउ' शब्द का प्रयोग समझाया है ॥१|| (२) मया रकम् = मई वुत्तउं मेरे से कहा गया अथवा कहा हुश्रा । इस चरण में 'उक्तम्' के स्थान पर 'बुत्तई' की प्रादेश-प्राप्ति बतलाई है। (३) येन मनो वमन न माति = जं मगु विक्षिच न माइ=जिस (कारण) से मन मा में नहीं समासा है। इस गाथा चरण में 'वस्मनि' पद के स्थान पर 'विच्चि' पद की श्रादेश प्राप्ति हुई है। यों तीनों आदेश-प्रान शब्दों की स्थिति को समझ लेना चाहिये । ॥ ४-४२१ ।। शीघ्रादीनां वहिल्लादयः ॥४-४२२ ॥ अपभ्रंश शीघ्रादीनां पहिलादय आदेशा भवन्ति ।। एक्कू कइ ह बिन श्रावही अन्न बहिल उ जाहि ॥ मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहिं ॥१॥ झकटस्य पालः॥ जि सुपुरिस ति घञ्चालई, जिवं नइ ति क्लणाई ।। जिब डोजर तिवं कोडरई हिमा विरहि काई ॥२॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********* * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 40440606666666096*9*80000 अस्पृश्य मंसर्गस्य विद्वालः ॥ भयस्य द्रवकः ॥ जे छ विणु रयण निहि अप' तडि घनन्ति तहं सङ्ग्रहं विद्वालु परु फुकिज्जन्त भमन्ति ॥ ३ ॥ 4444444�GD9DD666646400 दिवेहिं विश्व खाहि, बढ़ संचि म एक्कत्रि द्रम् ॥ को वि द्रवकs सो पडइ, जेण समप्पड़ जम्मु ॥ ४ ॥ आत्मीयस्य श्रपण: ।। फीडन्ति जे हिडवं श्रवण || दृष्टे हि । एकमेकउं जड़ वि जोति हरि एड्डु बनायो !! ती विद्रे हि जहिं कवि राही । को सक संवर दिडूनया नहिं पलुट्टा ॥५॥ गाढस्य निच्चः ॥ विहवे कस्सु थिरतउं, जोव्वणि कम्सु मरड || सो लेखडउ पठाविह, जो लग्गह निच्चट्ड | ६ || असाधारणस्य सङ्कलः || कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहि कहि मेहु ॥ दूर-हिं वि सज्जगृहं होइ असलु नेहू ७ कौतुकस्य काडुः ।। कुञ्जरु अनहं तरु-वरहं कीहुए घल्लs इत्थु ॥ म पुणु एकहिं सल्लाहिं जइ पुच्छह परमत्थु ||८|| क्रीडायाः खेड्डः ।। खेडयं कय मम्हेहिं निच्छयं किं वयम्वद्द || असुरत्ताउ भत्ता अम् मा चय सामिश्र ॥६॥ [ ५५७ ] रम्यस्य रवण्णः सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं नवि उज्जाण - वहिं ॥ देसरवण्या दोन्ति, बढ ! निवसन्तेहिं सु-अणेहिं ॥ १० ॥ भूतस्य ढक्करिः ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५८ ] * प्रामात रूपाकरण, roomorroto0000000000+o+ko+00000000000000000000000000000000000.or.net हिसडा पई पहु बोलियो महु अग्गइ सय - वार ।। फुट्टिसु पिए पचसन्ति हउं भण्डय ढक्करि- सार ॥११॥ हे सखीत्यस्य हल्लिः ॥ हेल्लि ! म मङ्ख हि पालु ।। पृथक-पृथगित्यम्य जुनं जुः ।। एक कुडुल्ली पञ्चहि रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुनं जुस बुद्धी ॥ बहिणुर तं धरु कहि कि नन्दउ जेत्यु कुडुम्घउं अपणा-छंदउं । १ ।। मूहस्य नालिअ-बढौ ॥ जो पुणु मणि जि खस फमिहूअउ चिन्तइ देई न दम्भु न रूग्रउ ।। रइ चस-भमिरु कम्म्मुल्लालिउ घ.हिं जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ।।१३" दिवेहि विद्वत्तउ खाहि वढ ॥ नवस्य नवखः नवखी कवि विस-गण्ठि । अयस्कन्दस्य दवडः॥ चलेहि चलन्तेहिं लोनणेहि जे तई दिट्ठा बालि ॥ तहि मयर-द्धय-दडवडउ, पहइ अपूरइ कालि ॥१४॥ यदेश्छुडुः ।। छुडु अग्घइ ववसाउ ।। सम्बन्धिनः केर-तणी ॥ गयउ सु केसरि पिनहु जलु निश्चिन्तई हरिणाई ॥ जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुं परन्ति तृणाई ॥१५॥ अह भग्गा अम्हह तणा ॥ मा भैपीरित्यस्य मम्मीसेति स्त्रीलिंगम् ।। सत्थावत्थई पालवणु साहु बि लोउ करे।। आदनहं मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ ।।१६।। यद्- यद्-दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइ द्विप्रा ।।। जइ रचसि जाइटिए हिश्रडा मुद्ध- सहाय ।। लोहें फुट्टणएण जि पणा सहेपई ताब ||१७|| अर्थ:-संस्कृत-भाषा में पाये जाने वाले अनेक शब्दों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में ऐसे ऐसे शब्दों की आदेश प्राप्ति देखो जाती है जो कि मूलतः देशन भाषाओं के और प्रान्तीय बोलि0 के शब्द है । तदनुमार इस सूत्र में ऐसे इकीत शब्दों की आदेश-प्राप्ति बतलाई है जो कि मूलतः देशज होते हुए भी अपभ्रंश-भाषा में प्रयुक्त होते हुए पाये जाते हैं । हिन्दो-अर्थ बतलाते हुए संस्कृत भाषान्तर पूर्वक इनको स्थिति क्रम से इस प्रकार है:-... Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५५81 .........0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000004 (१) शीघ्रम् = हिल्ल-जल्दो, (२) झकद = धंवल- झगड़ा, कलह । (३) अस्पृश्य-पता = विट्टाल-नहीं छूने लायक वस्तु के साथ अथवा पुरुष के साथ की संगति हो जाना, अपवित्रता होना। (४) भय - द्रवक = भय, डर, भीति । (५) प्रात्मीय-अप्पण-खुद का। (३) दृष्टि = द्रहि= नजर, दृष्टि । (७) गाढ निचट्ट = गाद, मजबूत, निविड, सघन । (८) माधारण = सट्टल = साधारण, मामूली, सर्व सामान्य । (6) फौतुक-कोछु = आश्चर्य, कौतुक, कुतूहल, आश्चर्य मय खेल । (१०) कोका-खेड - खेल। (५१) रम्य =रत्रगण = सुन्दर, मन को मोहित करने वाला। (१२) अद्भुत ढहरि = अनोखा, आश्चर्य-जनक । (१३) हे सखि हे हेखि हे दारिका हे सहेलो । (१४) पृथक्-पृथक = जुनं जुन - अलग अलग (१५) मूद = नालिम तथा बढ-मूर्ख, बेत्रकूफ अज्ञानी । (१६) नव = नवख=नया ही, अनोखा ही। ११७) अवस्कन्द = दबद्ध = शीघ्र, जल्दी, शीनना पूर्वक दबाव का पड़ना । (१८) यदि = छुडु = यदि, जो, शीघ्र, तुरन्त । (१६) सम्बन्धी केर और तण = सम्बन्ध वाला, सम्बन्धी चीज़; जिसके कारण से। (२०) मा भैषोः = मभीसा- मत डर, अभय वचन । (२१) यद्-यद्-दृष्टं = जाइ द्विप्रा-जिम जिस को देखते हुए; जिस जिस को देख कर के, देखे हुए जिस जिस के साथ । वृत्ति में इन इक्कीस ही शब्दों का प्रयोग गाथाओं द्वारा तथा गाया चरणों द्वारा समझाया गया है, तदनुसार उन गाथाओं का और उन गाथा-चरणों को संस्कृत-भाषान्ता पूर्वक हिन्दी अर्थ कम से यों है:-- Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६०) * प्राकृत व्याकरण* -000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संस्कृत-(१) एक कदापि नागच्छसि, अन्यत् शीघ्र यासि ॥ ___ मया मित्र प्रमाणितः, स्वया यादृशः (न्वं यथा) खलः न हि ।।१।। हिन्दी-तुम कभी भी एक बार भो मेरे पास नहीं पाते हो और दूमी जगह पर तुम शीवना पूर्वक जाते हो; इससे हे मित्र ! मैंने समझ लिया है कि तुम्हारे समान दुष्ट कोई नहीं है। इस गाथा में " शोनं " के स्थान पर " हिल्लर" पद का प्रयोग समझाया है ।।१।। संस्कृत- (२) यथा सत्पुरुषाः तथा कलहाः, यथा नद्यः तथा वलनानि ।। यथा पर्वता: तथा कोटरागि, हृदय । खिद्यसे किम् ? ।। २ ।। हिन्दी--जितने सज्जन पुरुष होते हैं. उनने ही मााड़े भी होते हैं। जितनो नदियां होनी है, उतनेही प्रवाह भी होते हैं। जिसने पहाड़ होते हैं उतना हा गुफाएँ भा छाता है: इमलिये ई हाय !: तू खिन्न क्यों होता है ? इस विश्व में अनुकूलता और प्रतिकूनत्ताएँ तो अनादि-अनन्त काल में उत्पन्न होतो ही आई है। इस छंद में " कलह " के स्थान पर “ घयल ' पद प्रयुक्त हुआ है ।। २ ।। संस्कृत –(३) ये मुक्त्वा रत्न-निधि, आत्मानं तटे क्षियन्ति ।। तेषां शंखानां संसर्गः केवल फूक्रियमाणा: भ्रमन्ति ॥ ३ ॥ हिन्दी- जो शंख रत्नों के भंडार रूप ममुद्र को छोड़ करके अपने आपको समुद्र के किनारे पर फेंक देते हैं; सन शंखों की स्थिति अस्पृश्य जैसा हो जाती है और ये सिर्फ दूमरों की फंक से श्राबाज करते हुए अनिश्चित स्थानों पर भटकते रहते हैं। इस गाथा में “ अस्पृश्य संसर्ग " के स्थान पर "विट्टालु" पद का प्रयाग हुआ है ॥ ३ ॥ संस्कृत (४)---दिवस अर्जितं खाद मूख ! संचिनु मा एकमपि द्रम्मम् ।। किमपि भयं तत् पतति, येन समाप्यते जन्म ॥ ४ ॥ हिन्दी-अरे भूख ! जो कुछ भी प्रति दिन तेरे से कमाया जाता है उसका खन, उसका उपभोग कर और एक पैसे का भी संचय मत कर; क्योंकि अचानक हो कुछ भो भय ( मृत्यु आदि) पा सकनी है । इस छन्द में " भयं " पद का जगह पर श्रनिश भाषा में "द्रव ककउ " पद का प्रयोग किया गया है ।। ४ ॥ संस्कृत (५) स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं - फोडेन्ति जे हिअड अप्पणउ = जा ( दोमों स्तन ) अपने खुद के हृदय को हो ) फोड़ते हैं–विस्फोटित होकर उभर आते हैं। इस गाथा-धरण में संस्कृत-पद " अात्मीय " के बदले में "अमर" पद प्रदान किया गया है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित : [ ५६१ ] 000000000000000000000000000000000000000000000000000 (६) एकैकं यद्यपि पश्यसि हरिः सुष्ठ सयादा । तथापि दृष्टिः पत्र कापि राधा, कः शक्नोति संवरीतु नयन स्नेहन पर्यस्ते ॥५॥ हिन्दी-यद्यपि हरि ( भगवान श्री कृष्ण ) प्रत्येक को अकछी तरह से और पूग्ण श्रादा के साथ देखते हैं तो भी उनको दृष्टि ( नजर । जहाँ कहीं पर भी गधा-गनी है, वहीं पर जाकर जम जाती है। यह सत्य हा है कि प्रेम से परिपूर्ण नेत्रों को ( अपनी प्रियतमा से ) दूर करने के लिये-( इटाने के लिये ) कौन ममर्थ हो पकना है ? इस अाभ्रंश-काव्य में 'दृष्टि' के स्थान में 'द्रोहि' शब्द लिखा गया है ॥५॥ संस्कृतः-(७) विमवे कस्य स्थिरत्वं ? योरने काग्र गर्वः । स लेखः प्रस्थाप्यते, यः लगति गाढम् ।६।। हिन्दी:-धन-संपत्ति के होने पर भी किपका ( प्रेभाकर्षण ) स्थिर रहा है ? और यौवन के होने पर भी प्रेमाकर्षण का गर्म किसका स्थाई रहा है ? इसलिये वैसा प्रेम-पत्र भेजा जाय, जो कि तत्काल ही प्रगाढ़ रूप से निश्चित रूप से-हृदय को हिला सके हस्य को श्राकर्षिन कर सक; ( ऐसा होने पर वह प्रियतम शीव ही लोट पायेगा)। यहाँ पर " गाड" के अर्थ में " निरूचट्ट, " शब्द लिखा गया है॥६॥ संस्कृत(८)-कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः ? कुत्र बहीं कुत्र मेषः ! दर स्थितानामपि सज्जनानां भवति असाधारण : स्नेहः । ७१ हिन्दी:--कहाँ पर (कितनी दूरी पर) चन्द्रमा रहा हुआ है और समुद्र कहाँ पर अवस्थित है ! ( तो भी समुद्र चन्द्रमा के प्रति ज्वार-भाटा के रूप में अपना प्रेम प्रदर्शित करता रहता है। इसी प्रकार से मयूर पक्षी धरती पर रहता हुधा मी मेष को ( बादल को)-देखकर के अपना मधुर वाणा अलापने लगता है। इन घटनाओं को देख करके यह कहा जा सकता है कि भति दूर रहते हुए भी सजन पुरुषों का प्रेम परसर में असाधारण अर्थात अलौकिक होता है। इस माथा में " असाधारण " शब्द के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अम्लु " शब्द को व्यक्त किया गया है ।। ॥ संस्कृत (६)-कुञ्जरः अन्येषु तरुवरषु कौतुकैन वर्षति हस्तम् ।। मन: पुनः एकस्यां सन्लक्या यदि पृच्छथ परमार्थम् ।। ८ । हिन्दीः-हाथी अपनी सू को केवल क्रीड़ा वश हादर ही अन्य वृक्षों पर पड़ता है। यदि तुम सत्य बात ही पूछते हो तो यही है कि उस हाथी का मन ता वास्तव में सिर्फ एक 'पल्ल की' नामक चुक्ष पर ही श्राकर्षित होता है। इस छन में संस्कृत -पर कौतुके।' के स्थान पर अपभ्रश भाषा में कोहण' लिखा गया है। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण - rrior.rom+000000000000000000000000000000000000000000000000000000m (१०) क्रीडा कृता अस्माभिः निश्चयं कि प्रजन्पत ॥ अनुरक्राः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन् ।।६।। हिन्दी:- हे नाथ ! हमने ता सिर्फ खेल किया था, इसलिये श्राप ऐसा क्यों कहते हैं ? हे स्वामिन् ! हम आप से अनुराग रखते हैं और आप के भक्त हैं; इसलिये हे दीन दयाल ! हमाग परित्याग नहीं करें । यहाँ पर क्रीडा' के स्थान पर 'घे= खेड्यं' शब्द व्यक्त किया गया है। संस्कृतः- (११) मरिद्धिः न सरोभिः, न सरोवरः, नापि उद्यानधनैः ।। देशा: रम्याः भवन्ति, मूर्ख । निवसद्भिः सुजनः ॥१०॥ हिन्दी:- अरे बेवकूफ ! न तो नदियों से, न झीलों से, न तालागे से और न सुन्दर सुन्दर वनों से अथवा बगीचों से ही देश मणीय होते हैं। वे (देश) तो केवल सज्जन पुरुषों के निवास करने से हो सुन्दर और रमणीय होते हैं । इस गाथा में 'रम्य' शब्द के स्थान पर 'रवण्ण' शब्द को प्रस्थापित किया गया है ॥१०॥ संस्कृतः-(१२) हृदय ! त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम् ॥ स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता (सइ) अहं भएड । अमृतसार ॥११॥ हिन्दोः -हे हृदय ! तू निर्लज्ज है और आश्चर्य मय ढंग से तेरी बनावट हुई है। क्योंकि तूने मेरे आगे सैंकड़ों बार यह बात कहा है कि जब प्रियतम विदेश में जाने लगेंगे तब मैं अपने आपको विदोर्ण कर दूंगा अथांस फट जाऊंगा। (प्रियतम के वियोग में हृदय टुकड़े-टुकड़े के रूप में फट जायगा। ऐसो कल्पनाएं सैकड़ो वा नायिका के हृदय में उत्पन्न हुई है; परन्तु फिर भा समय पाने पर हृदय विदीर्ण नहीं हुआ है; इम प हृदय को 'भएड और अद्भुतमार विशेषणों से अलंकृत किया गया है ।। इस गाथा में 'अद्भुत' की जगह पर 'ढकार' शरद को तद्-अर्थ के स्थान दिया गया है ॥१|| (१३) संस्कृतः-हे पख ! मा पिधेहि अलीकम् = हे हेलि! म मनुहि भालु = हे सहला ! तु झूठ मत बोल = अथवा अपराध को मत ढोक । यहाँ पर 'सखी' अर्थ में 'हेमि' शब्द का प्रयोग किया गया है। (१५) संस्कृत:-एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा, तेषां पश्चानामपि पृथक-पृथक-धुद्धिः॥ भगिनि ! तद् गृह कथय, कथं नन्दतु यत्र कुटुम्ब प्रात्मच्छन्दकम् ॥१२॥ हिन्दी:-एक छोटो मी झोपड़ी हो और जिसमें पाँच ( प्राणी ) रहते हों तथा घन पाँचों को ही बुद्धि मलग अलग ढंग से विचरती हो तो हे बहिन ! बो ता; वह घर आनन्नमय कैसे हो सकता है, जब कि सम्पूर्ण कुटुम्ब ही ( जहाँ पर ) स्वछन्द सेति से विचरण करता हो । (यह कथानक शरीर और Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५६३ ] ••••••••ee9e02ee9++++ +++++++++++++++++++++++++ + शरार से मम्बन्धित पाँचों इन्द्रियों पर भी घटाया जा सकता है।। इस गाथा में 'पृथक्-पृथक' अव्यय के स्थान पर अपभ्रश भाषा की दृष्टि से 'जुनं जुन' अन्यय का प्रस्थापना की गई है ।।१२।। (१५) संस्कृत:-यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम् ।। रति वश भ्रमण शील! कराग्रोलालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मृहः । १३॥ हिन्दी:-वह महा मूर्ख है, जो कि मन में हो घबराता हुआ मोचना रस्ता है और न दमदी देता है, और न रुपया हो । दूसरे प्रकार का महा मूर्ख वह है जो कि पग अश्रग मोह के वश में होकर घूमता रहता है और घर में हो माले को लेकर हाथ के अग्र भाग में ही घूमाना हा केवल गणना करता रहता है (कि मैंने इतनी वार भाला चलाया है गौर इसलिये मैं वोर हूँ तथा कंजूस मोचता है कि मैं इतना. इतना दन कर दूं परन्तु करता कुछ भी नहीं है ) इम विशिष्ट गाथा में 'मूढ' शब्द के स्थान पर अपभ्रश भाषा में 'नालि प्र- नालिउ' शब्द का प्रयोग किया गया है। संभ विनानैः सनित बाद पूर्व ! = शिवहिं विद्वत्तउं खादि वद्ध ! हे मूर्ख ! प्रति दिन कमाये हुए ( खाद्य-पदार्थो' ) को रखा । ( कंजूमी मत कर ) । इस चरण में 'मूर्ख' शब्द वाचक द्वितीय शब्द 'वढ' का अनुयोग है। संरत (१६) नवा कापि विष-प्रन्थिः = नवखी क वि विसगरिठ( यह नायिका ) कुछ नई हो (अनोखी ही ) विषमय गांठ है : इस गाथा-पाद में नूतनता वाचक पद " नवा " के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "नवस्त्री " पद का व्यवहार किया गया है। पुलिंजग में “ नवन" होता है और श्रीलिंग में " नवखी" लिखा है। संस्कृत (१७)- चलाभ्यां बलमानाभ्यां लोचनाम्या ये स्वया दृष्टाः वाले । तेषु मकर-ध्वजावस्कन्दः पतति अपूर्णे काले ॥१४॥ हिन्यो:-श्रो यौवन संपन्न मद मान। बालिका ! तेरे द्वारा चंचल और फिरते हुए ( बल खाते हए ) दोनों नेत्रों से जो । पुरुष ) देखे गये है; उन पर उनको ) यौवन-अवस्था नहीं प्राप्त होने पर भी (यौवन-काल नही पकने पर भी। । काम का वेग (काम-भावना) हठात् शीघ्र ही ( बल-पूर्वक) प्राक्रपाण करता है । यहाँ पर " शोधता-वाचक - हठात्-वाचक " संस्कृत-शरद " अवस्कन्द " के स्थान पर आदेश प्राप्र शब्द " दडवड" का प्रयुक्त किया गया है। संस्कृत(१८):-यदि अर्घति व्यवसायः = छुडु अग्षा बवसाउ = यदि व्यौपार सफल हो जाता है। इस गाथा-चरण में “ यदि" अव्यय के स्थान पर " छुडु' अध्यय को स्थान दिया गया है। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६४ ] * प्राकृत व्याकरण 2 morrowo.00000000000000000000Poemorosorrorrormeroinor.mom mon संस्कृत (१३)-गतःस कसरी, पिवत जलं निश्चिन्त हरिणाः ! ॥ यस्य संबन्धिना हुंकारेण, मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि ॥१शा हिन्दी:-अरे हिरणों ! वह मिंड ( तो अब ) चला गया है। ( इसलिये ) तुम निश्चिन्त हाकर जल को पीओ । जिम (मिह से ) सम्बन्ध रखने वाली ( भयंकर ) गना से-हुँकार से-( खाने के लिय मह में ग्रहण किये हुए ) घास के तिनक (मी) मुनों से गिर जाते हैं; ( ऐसी हुंकार वाला सिंह को अब चला गया है ) । इस गाथा में " मम्बन्धिना " पद के स्थान पर अपभ्रश भाषा में "केर - करर" पद की अनुरूपता समझाई है ।। ५५ || संस्कृत:-अथ भग्ना अस्मदोया = अह भग्गा अम्दं तणा = यदि हमारे से सम्बन्ध रखने वाले भाग गये हैं अथवा मर गये हैं । इस गाथा-पाद में " संबंध " वाचक अर्थ में "नणा" प३ का प्रयोग किया गया है। यों अनभ्रंश भाषा में " संबंध-वाचक" अथ में " कर और तण " दोनों प्रकार के शब्दों का पवहार देखा जाता है। संस्कृत (२०)-स्वस्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोक : करोति || आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति ॥१६॥ हिन्दी:-आनन्द पूर्वक स्वरध अवस्था में रहे इए मनुष्यों के माथ तो प्रत्येक आदमो बातचीत करता हो है (और ऐसी ही रोति इस स्वार्थमय संमार को है ); परन्तु दुखियों को जो ऐसी बात कहता है कि “ तुम मत डरो !; वही सज्जन है। " अभय वचन " कहने वाला पुरुष ही इस लोक में सम्जन कहलाता है । इस गाथा में “ मा भैषोः" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में " ममीसडी" को आदेशप्राप्ति का विधान समझाया गया है ॥ १६ ॥ संस्कृत (२१): यदि रज्यसे यद् यत्-दृष्टं तस्मिन् हृदय ! मुग्ध स्वभाव ! लोहेन स्फुटता यथा धनः ( = तापः ) सहिष्यत तावत् ।। १७ ॥ हिन्दी-अरे मूर्ख-स्वभाव वाले हृदय ! यदि तू जिस जिस को देवता है, उम उममें आपत्ति अथवा मोह करने लग जाता है तो तुझे उसी प्रकार का और चाट महन करनी पड़ेगी, जिस प्रकार कि वरार पढे हुए-लोहे की " अग्नि का तार और घन को चोटें " सहन करनी पनुनी हैं। इन गाथा में संस्कृत-वाक्यांश-- " यद्यद्-दष्टं, तत्-तन्" के स्थान पर अपभ्रश-भाषा में "जाइट्रिश्रा =जाइट्टिए" ऐसे पद--रूप की श्रावेश प्राप्ति का उल्लेख किया गया है ।। १ ।। इस सूत्र में इक्कीस देशज शब्दों का प्रयोग समझाया गया है। इनमें पतरह शादों का उल्लेख तो गाथाओं द्वारा किया गया है और शेष चार शब्दों का सा -पों द्वाग प्रापित है। ॥४-४२ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुहरु घुरघादय शब्द- चेष्टानुकरणयोः ॥ ४-४२३ ॥ आदि ग्रहणात् । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * इत्यादि || 0644246040066660000 अपभ्रंशे दुदुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्वादयश्चेष्टानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः ॥ महं जाणितं बुड्डोस हउं पेम्न द्रहि हुहुहति ॥ नवरि चिन्ति संपडिय विधिय नाव झति ॥ १ ॥ - लनड नज कसरकहिं पिज्जइ नउ घुटेहिं || एम्वइ होइ सुद्द च्छडी पिएं दिट्ठे नयणेहिं ॥२॥ भादि ग्रहणात् ॥ अज्जवि नाहु महुत्रि घरि सिद्धत्था वन्दे ॥ वाजि विरहु गवकहिं मकडु - घुग्धिउ देइ ॥ ३॥ सिरि जर खण्डी लोधडी गलि मणियडा न दीस || तो वि गोड्डा कराविया मुदर उदु-बईस | ४ || [ ५६५ ] WOOL संस्कृत::- मया ज्ञातं मंदयामि श्रहं प्रेम-हुरे हुहरु शब्दं कृत्वा ॥ केवलं अचिन्तिता संपतिता विप्रिय-नौः झटिति ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ अर्थः- अपभ्रंश भाषा में शब्दों के अनुकरण करने में अर्थात् ध्यति अथवा आवाज की नकल करने में '' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष बोले जाते हैं और चेष्टा के अनुकरण करने में अर्थात् प्रवृत्ति अथवा कार्य की नकल करने में 'घुग्ध' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष का उच्चारण किया जाता है। उदाहरण के रूप में दो गई गाथाओं का अनुवाद क्रत से यों है: हिन्दी:- मैंने सोचा था अथवा मैंने समझा था कि 'हुरु-हु' शब्द करके मैं प्रेम रूपी (प्रियतम - संयोग रूपी ) तालाब में खूब गइरो डूबकी लगाऊगी; परन्तु ( दुर्भाग्य से ) बिना बिचारे ही अचानक ही ( पति के ) वियोग रूपी नौका झट से ( जल्दी से ) आ समुपस्थित हुई। 'वृत्ति में आदि' शब्द ग्रहण किया गया है। इससे अन्य शब्दों की अनुकरण करने रूप अनुवृति की परिपाटी भी समझ लेना चाहिये, जैसे कि गाथा-संख्या द्वितीय में 'कसरक' शब्द एवं 'घुट्' शब्द को प्रण करके इस बात की पुष्टि की गई है। उक्त गाथा का अनुवाद यों हैः Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६६ ] * प्राकृत व्याकरण * संस्कृत: - खाद्यते न कसरत्क शब्दं कृत्वा, पीयते न घुट् शब्दं कृत्वा ॥ एवमपि भवति सुखामिका, प्रिये दृष्टे नयनाभ्याम् ||२|| हिन्दी:- प्रियतम को दोनों आँखों से देखने पर भी ( पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं होता है क्योंकि वह तृप्ति प्राप्त करने के लिये अन्य खाद्य पदार्थों के समान ) न तो 'कसरक - कसरक' शब्द करके खाया हा जा सकता है और न 'घुट-घुट' शब्द करके पीना हीं जा सकता है। फिर भी परम आनन्द और अत्यधिक सुख का अनुभव किया जा सकता है ग 'वेष्टानुकरण के उदाहरण गाथा-संख्या तृतीय और चतुर्थ में दिये गये हैं जिनका संस्कृत-अनु वाद सहित हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है: संस्कृत:- श्रद्यापि नाथ: ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते ॥ तावदेव विर: गवाक्षेषु मर्कट- चेष्टां ददाति ॥ ३ ॥ हिन्दी: - 1 मेरे प्राण नाथ त्रियनम विदेश जाने को तैयारी कर रहे हैं और अभी वे स्वामीनाथ- मेरे घर में ही (मंगलार्थ ) सिद्ध-प्रभु का वंदना कर रहे हैं फिर भी विरह ( जनित दुःख की हुँकार ) ( मन रूपी ) खिड़कियों में बन्दर - चेष्टाओं को (घुश्व घुग्य जैसी पोड़ा-सूचक ध्वनियों को ) प्रदर्शित कर रही है || ३ || 'आदि' शब्द के पहण करने से अन्य चेष्टा-सूचक शब्दोंका संग्रहण भी समझ लेना चाहिये जैसा कि गाथा-संख्या चतुर्थ में ' उद-वईम' शब्द का संग्रह किया हुआ है । उह गाथा का अनुवाद यों है. संस्कृत: - शिरसि जरा खण्डिता लोम पुटी; गले मणयः न विंशतिः || तथापि गोष्ठस्थाः कारिताः सुग्धया उत्थानोपवेशनम् ॥ ४ ॥ हिन्दी: - इ + सुन्दरी के सिर पर जोर्ण-शीर्ण- ( फटो-टूटी ) कंबली मात्र पड़ी हुई है और गले में मुश्किल से बीस कौंच की मणिया वाली कंठो होगी; फिर भी (देखो ! इसके आकर्षक सौन्दर्य के कारण से ) इस मुग्धा द्वारा ( आकर्षित होकर ) कमरे में ठहरे हुए इन पुरुषों ने ( कितनी बार ) उठ-बैठ ( इस मुरबा को देखने के लिये ) को हैं ? इस गाथा में चेष्टा- अनुकरण' के अर्थ में ' उट्ठ-बईस ' जैसे देशज शब्द का प्रयोग किया गया है । यो अपाश-भाषा में 'ध्वनि के अनुकरण करने में और चेष्टा | करने में ' अनेक देशज शब्दों का व्यवहार किया जाता हुआ देखा जाता है ।। ४-४२३ ।। अनुकरण घइमादयो ऽनर्थकाः ॥ ४-४२४ ॥ अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५६७] अम्माडि पच्छायावडा पिउ कलहिउ विपालि ॥ चई वित्ररी बुद्धडी होइ विणासहो कालि ॥१॥ श्रादि-ग्रहणात् खाई इत्यादयः ॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में ऐसे अनेक अध्यय प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं होना है। ऐसे अर्थ-होन को श्रव्यय यहाँ पर लिखे गये हैं; जो कि इस प्रकार से हैं:-(१) पई और (२. वाई । यों अर्थ तीन अन्य अन्यों की स्थिति को भी समझ लेना चाहिये । उदाहरण के रूप में ' बई' अव्यय का प्रयोग वृत्ति में दी गई गोथामें किया गया है। जिसका अनुवार इस प्रकार से है:संस्कृत:----अम्ब ! पश्चातापः प्रियः कलदायितः विकाले ॥ (नून) विपरीता बुद्धिः भवति विनाशस्य काले ॥१॥ हिन्दी:-हे माता ! मुझे अत्यन्त पश्चात्ताप है कि मैंने समय और प्रसंग का बिना विचार किये हो ( पति-समय का खयाल किये बिना ही) अपने पति से झगड़ा कर डाला | सप है कि विनाश के समय में (विपत्ति 'माने के मौके पर ) बुद्धिमी विवीत हो जाती है, उल्टी हो जाती है ॥१२इस गाया में श्रथ-हान अव्यय-शब्द 'घई' का प्रयोग किया गया है ! 'दादि' शब्द के कथन से अन्य अर्थ होन अव्यय शब्द 'खाई' इत्यादि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये । ऐसे शब्दों का प्रयोग पाद-पूर्षि के रूप में भी देखा जा सकता है ।।४-४२२|| तादर्थे वे हिं-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः ॥ ४-४२५॥ अपनशे तादयें धोत्ये केहि तेहि सि सि तसेण इत्यते पञ्च निपाताः प्रयोक्तध्या: ।। ढोला एंह परिहासडी अइ भण कवहिं देसि || हउँ झिज्जाउँ त उ केहिं पिन ! तुहुँ पुणु अत्राहि रेसि ॥ एवं तेहि रेसि मावुदाहायों । चहत्तणहो तणेख ॥ अर्थ:-'तार्थ' अर्थात् ' के लिये' इस अर्थ को प्रकट करने के लिये अपनश-भाषा में निम्नोक्त पांच अध्यय-शब्बों में से किसी भी एक अव्यय शब्द का प्रयोग किया जाता है । (१) केहि के लिये, (२) तेहिं के लिये, (३) रेसि के लिये, (४) रेसि = के लिये, और (५) तरणेण के लिये । उदाहरण क्रम से इस प्रकार है: १ स्वर्गस्वार्थे स्वं जीव दयां कुरु = सम्हो केहि करि जीव-दय = देवलोक के लये औकएया को करो। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६८ ] *प्राकृत व्याकरण . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (२) कस्थार्थ परिग्रहः = फसु तेहिं परिगहु - किसके लिये परिग्रह ( किया जाता है)। (३) मोक्षस्याथै दमम् कुरु = मोखही रेसि दमु करि = मोक्ष के लिये इन्द्रियों का दमन करो। (४) कस्यार्थे त्वं अपरान् कौरम्मान् करोषिकसु रसिं तु हुँ अवर कम्मा (म्भ करेसि = किसके लिये तू दूसरे कार्यारंम करता है ? (५) कस्यार्थे अलोक = कासु तरणेण अलिउ-किसके लिये झूठ ( बोखता है । वृत्ति में आई हुई गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-विट ! एष परिहासः अपि ! भण, कस्मिन् देशे ? अहं क्षीणा तव कृत, प्रिय ! त्वं पुनः श्रन्यस्याः कृते ॥१॥ हिन्दी:-हे नायक ! (हे प्रियतम !) इस प्रकार का मजाक (परिहात = विनोद ) किस देश में किया जाता है। यह मुझे कहो । मैं तो तुम्हारे लिये क्षीण (दुःखी) होती जा रही हूँ और तुम पुनः किसी अन्य (बी) के लिये (दुःस्त्री होने जा रहे हो) । इस गाथा में के लिये ऐसे अर्थ में कम से 'केहि' और 'रेसि' ऐसे दो अव्यय शब्दों का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। (२) महस्वस्य कूते - बहुतणहो तरणे - बड़पन महानता ) के लिये । यो शेष दो अव्यय शब्द 'तेहिं और रेसि' के उदाहरणों की कल्पना भी स्वयमेव कर लेना चाहिये । ये अध्यय हैं, इसलिये इनमें विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संयोजना नहीं की जाती है ॥ ४-४५५ ॥ पुनर्विनः स्वार्थे डुः ॥ ४-४२६॥ अपभ्रंशे पुनर्विना इत्येताम्यां पर: स्वार्थे दुः प्रत्ययो भवति ॥ सुमरिज्जइ तं बल्लई जं धीसरह मणा ॥ जहिं पुणु सुमरणु जाउं गतहो नेहहीं कई नाउं ॥१॥ विणु जुज्में न वलाई ॥ अर्थ:-सूत्र-संख्या ४-४२६ से प्रारम्भ करके सूत्र संख्या ४-४३० तक में स्वार्थिक प्रत्ययां का वर्णन किया गया है। शब्द में नियमानुसार स्वार्थिक प्रत्यय को संयोजना होने पर भी मूल अर्थ में किया भी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं हुआ करती है। मूल अर्थ व्यों का यों ही रहता है । इम सूत्र में यह बनलाया गया है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'पुनर् और विना' अध्यय शब्दों में अपनश भाषा के रूप में रूपान्तर होने पर 'न्हु' प्रत्यय की स्वार्थिक प्रश्यय के रूप में अनुप्राप्ति हुआ करती है, । स्वार्थिक प्रत्यय Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 6442666660606900 [ ५६६ ] 'डु' में स्थित 'क' वर्ण इत-संज्ञक है; तदनुसार 'पुनर = पुण' में स्थित अन्त्य 'धकार' का लोप होने पर तत्पश्चात् स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'उकार' व को प्राप्ति होकर 'पुगु' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'विना' अव्यय शब्द में भी अन्त्य वर्ण 'आकार' का लाप होकर तथा म्यार्थिक प्रत्यय रूप 'कार' वर्ण को संयोजना होने पर इसका रूप 'विरंणु' बन जाता है। बाहरण क्रम से यों हैं: (१) यं विना पुनः अवश्यं मुक्तिः न भवति जसु विणु पुराण मिवु असें न होइ - जिसके बिना फिर से अवश्य ही मुक्ति नहीं होती है। इस उदाहरण में 'पुनः' के स्थान पर 'पुगु' लिखा हुआ है और 'बिना ' स्थान पर विणु' को जगह दी गई हैं। यों स्वार्थिक प्रत्यय 'हुन्छ' की प्रामि होने पर भी इनके अर्थ में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है । यो सर्वत्र समझ लेना चाहिये । गाया का अनुवाद हैं: (१) संस्कृतः स्मर्यते तद् वल्लभं यद् विस्मर्यते मनाक् ॥ यस्य पुनः स्मरणं जातं, गतं, तस्य स्नेहस्य किं नाम १ । १ । । -~ हिन्दी:- जिसका थोड़ा मा बिस्तर हो जाने पर भी पुनः स्मरण कर लिया जाता है; तो ऐसा स्नेह भी प्रिय होता है; परन्तु जिसका पुनः स्मरण करने पर भी यदि उसे भूला दिया जाय तो वह 'स्नेह' नाम से कैसे पुकारा जा सकता है ? इस गाथा में 'पुनः' के स्थान पर स्वाधिक प्रत्यय के साथ 'पुरणु' अव्यय का प्रयोग समझाया है । (२) बिना युद्धेन न चलामद्दे - विणु जुज्झें न चलाहु-इम बिना युद्ध के ( सुख पूर्वक ) नहीं रह सकते हैं । इस गाथा चरण में 'बिना' की जगह पर 'त्रिरणु' अध्ययरूप का प्रयोग किया गया है। ।। ४-४२६ ।। अवश्यमो र्डे - डौ ॥ ४-४२७ ॥ अपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे डेंड इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । जिम्मिन्दिउ नायगु बसि करहु जसु अधिन्नई श्रन्नई | मूलि चिट्ट तुहेिं अवसे सुक्कई पराई १११ ॥ ॥ अवस न सुग्रहि सुहच्छि अर्थ:-- संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'अवश्यम् अव्यय का अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर इसमें 'स्वार्थिक' प्रत्यय के रूप में 'दें और उ' ऐसे दो प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'हें और द' में स्थित 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से 'अवश्यम् अषस' में स्थित अन्त्य 'अकार' वर्ण का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् अवस्थित हलन्त 'अवम्' अव्यय में 'ऐं और अ' की क्रम से त्राप्ति होती Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७० * प्राकृत व्याकाण* 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000+woonहै। जैसे:-अवश्यम् = अवसें और अवस = अवश्य-जरुर-निश्चय । उदाहरण के रूप में प्रदत्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत:--जिहवेन्द्रियं नायकं वशे कुरुत, यस्य भधीनानि अन्यानि ॥ मूले विनष्टे तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ॥१॥ हिन्दी:-जिसके अधीन अन्य सभी इन्द्रियों रही हुई हैं ऐसी नायक-नेता-रूप-जिला-इन्द्रिय को अपने वश में करी; (क्योंकि इस को वश में करने पर अन्य सभी इन्द्रियाँ निश्चय ही वश में हो जाती है। जैसे कि 'तुम्बिनी' नामक वनस्पति रूप पौधे की जड़ नष्ट हो जाने पर उसके पत्ते तो अवश्य ही.सूख जाते हैं-ट हो जाते हैं । इस गाथा में 'अवश्य अव्यय के स्थान पर 'अठसें' रूप का प्रयोग फरके इसमें 'डे - ऐं अव्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में सिद्धि की गई है। 'श्रवस' का उदाहरण यों हैं:-- संस्कृतः-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां = श्रवस न सुअर्हि सुहच्छियहि जरूर ही (निश्चय हो ) वे सुख-शैय्या पर नहीं सोते है । इस गाथा-चरण में 'अवश्यम्' के स्थान पर 'अवम' रूप का प्रयोग करते हुए यह प्रमाणित किया है कि 'अवश्यम्' अव्यय के रूपान्तर में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की संयोजना होती है ।। ४-५२७ ।। एकशसो डि ॥ ४-४२८ ॥ अपभ्रशे एकशशब्दात् स्वार्थे डि भवति । एकसि सील-कलंकि छाई देहि पच्छित्ताई ।। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु, तसु पच्छित्ते काई ॥१॥ अर्थ:--'एक बार इस अर्थ में कहा जाने वाला संस्कृत-अव्यय 'एश: है। इसका रूपान्तर अपभ्रश-भाषा में करने पर इसमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'हि' प्रत्यय को प्राप्त होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डि' में 'डकार' इत्संजक होने से 'एकशः = एकम अथवा इक' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' का लाप हा जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप 'एकस् अथवा इक्कस' में 'डि= इ' प्रत्यय की प्राप्ति होक व्यवहार योग्य रूप 'एकमि श्रथवा इस' की सिद्धि हो जाती है । जैसे--एकशः = एकामि और इकसि = एक बार | गाथा का अनुवाद यों हैं:--- संस्कृतः-एकशः शीलकलहितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि ॥ यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं, तस्य प्रायश्चित्तेन किम् ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * हिन्दी: -- जिन व्यक्तियों द्वारा एक बार शील-श्रत का खंडन किया गया है, उनके लिये प्रायश्वित रूप दंड का दिया जाना ओक है; परन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन शील-व्रत का खण्डन करता है; उनके लिये प्रायश्चित रूप दंड का विधान करने से क्या लाभ है ? वह तो पूर्ण पापो ही है। यहाँ पर 'एकशः' के स्थान पर 'एकसि' शब्द रूप का प्रयोग किया गया है ।। ४-४२८ । अ- डड - डुल्लाः स्त्राधिक- क - लुक्च ॥ ४-४२६ ॥ अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे थ, डड डुल्ल, इत्येते त्रयः प्रत्ययाः भवन्तिः तत्सनियोगे स्वार्थी के प्रत्ययस्य लोपश्च ।। विरहानल - जाल - करालि उ पहिउ पन्थि जं दिउ || तं मे सपथअहिंसां जि किअउ अग्निडउ || उड | महु कन्तदो वे दोसडा || डुल्ल । एक कुडुल्ली पवहिं रुद्धी ॥ [ ५७१ ] ********* अर्थः - संस्त भाषा में लब्धसंज्ञा शब्दों का रूगन्तर अपभ्रंश भाषा में करने पर उनमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में तीन प्रत्यवों की प्राप्ति हुआ करती है। जोकि कम से इस प्रकार हैं:(1) अ, (२) डड और (३) डुल्ल । इन प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर संस्कृत शब्दों में रहे हुए स्वार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही इन 'श्र अथवा डढ अथवा डुल्ल' प्रत्ययों को [सं-प्राप्ति संज्ञा शब्दों में हो सकती हैं। 'बढ और बुल्ल प्रत्ययों में अवस्थित आदि 'ढकार' इत्संज्ञक है, तदनुवार संज्ञा शब्दों में इनकी संयोजना करने के पूर्व संज्ञा शब्दों में अवस्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और बाद में रहे हुए हलन्त संज्ञा शब्दों में इन 'हब' और 'जुल्ल= उल्ल' प्रत्यय का संयोग किया जाता है । यों स्त्रार्थिक प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को जोड़ देने के अनन्तर प्राप्त संज्ञा शब्द के रूप में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संघटना की जाती है। जैसे: = (१) भव दोषी भव-दोसड़ा = जन्म-मरण रूप संसार-दोषों को । यहाँ पर 'दोष' शब्द में अड' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। = (२) जीवित्त कं = जोवियत्र जिन्दा रहना प्राण धारण करना। यहाँ पर संस्कृतीय स्थार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप होकर अपभ्रंश भाषा में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। (३) काय- कुटी = काय- कुडुली = शरीर रूपी झोंपडी। इसमें 'डुल्ल = उल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है । यह 'कुटी' शब्द श्रीलिंग वाचक होने से प्राप्त प्रस्थय 'डुल्ल = उल्ज़ में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति सूत्र संख्या ४-४३९ से हुई है। वृत्ति में दिये गये उदाहरणों का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है: Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७२ ] प्राकृत व्याकरण श्र oroor.amroomorrooteoroorrars+o+0000000000000rsorrowroorrearroriser (१) संस्कृता-विग्हानल-ज्याला-करालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः । तद् मिलित्वा सर्वेः पथिकः स एव कृतः अग्निष्ठः १ , हिन्दो:-जम किसी एक यात्री को मार्ग में विरह रूपी अग्नि की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता हुधा अन्य यात्रियों ने देखा तो सभी यात्रियों ने मिलकर उसको भूम पस्था को प्राप्त हुआ जान कर के ) अग्नि के समर्पण कर दिया। (२) मम कान्तस्य द्वौ दाषौ - गहु फन्तही बे दोसड़ा = मेरे पियतम के हो दोष (त्रुटियाँ हैं। इस गाथा-चरण में 'दासडा' पद में 'डड = अह' इस स्वार्थिक प्रत्यय को प्रामि हुई है। (३) एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा - एक कुडुल्ली परचेहिं सद्धी - एक ( छोटी सो ) झोंपड़ी पाँच से रुध । रोको ) गई है। इस माथा-पाद में कुडुल्ली पद में 'डुल्त = उल्न' ऐसे स्त्रार्थिक प्रत्यय की संयोजना हुई है ।। ४-४२६ ।। योग जाश्चैषाम् ॥ ४-४३० ॥ अपभ्रंशे अडडडुलानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते उडअ इत्यादयः प्रत्ययाः ते पि स्वार्थे प्रायो भवन्ति ॥ डडन । फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पाउं । अत्र 'किसलय' (१-२६६ ) इत्यादिना. यलुक् ।। डुलभ । चूडलाउ चुनी होइ सई ॥ डल्लडड । सामि-पसाउ सलज्जु पिउ सीमा-संघिहिं बासु ॥ पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु ॥१॥ अत्राभि । "स्यादौ दीर्घ -हस्यों" (४-४३०) इति दीर्घः । एवं बाहुबलुम्लङउ । अत्र त्रयाणां योगः ॥ अर्थ:-सूत्र-सख्या ४-४२६ में 'श्र, डड, डुल्ल' ऐसे तीन स्वार्थिक प्रत्यय कहे गये हैं। तदनुसार अपभ्रश भाषा में संज्ञाओं में कमो कभी इन प्रस्थयों में से काई भो दो अथवा कभी कभी तीनों भी एक साथ संज्ञाओं में जुड़े हुए पाये जाते हैं । यों किन्हीं दो के अथवा तीनों के एक साथ जुड़ने पर भी संज्ञाओं के अर्थ में कोई भा अन्तर नहीं पड़ता है । इस प्रकार से तीनों स्वार्थिक प्रत्ययों के योग से, समस्त रूप से तथा व्यस्त रूप से विचार करने पर कुल स्वार्थिक पत्ययों की संख्या सात हो जाती है; जोकि क्रम से इस प्रकार लिखे जा सकते हैं:--- (१) अ, (२) दृष्ट, (३) डुल्ल, (४) उखम, (५) सुल्ल, (६) हुल्लडड, (७) डुल्लउडा । इनके उदाहरण इस प्रकार से है: Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७३ ] (१) ते का धन्याः ते धन्ना कन्नुल्लडावे कान धन्य हैं। इस उदाहरण में 'हुल्लडड' प्रत्ययों को संप्राप्ति हैं । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ****$6400666666660�04 (२) तानि हृदयकानि कृतार्थानि = हिउल्ला ति कयत्थ = वे हृदय कृतार्थ ( सफल ) हैं । इसमें 'अदुल्ल' प्रत्यय है । (1) नवान् श्रुतार्थान् घरन्ति नघुल्लड सुझत्थ धरहिं नूतन श्रत अर्थ ( शास्त्र - तात्पर्य ) को धारण करते हैं। इस में तीनों स्वार्थिक प्रत्यय आये हैं। जोकि इस प्रकार से है:- बुल्लडडर = उल्ल४ ॥ वृत्ति में श्राये हुए उदाहरणों का स्वरूप क्रम से इस प्रकार हैं:-- -- - (१) स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं = फोडेन्सि जे श्रिवं अपएवं = जो ( दोनों स्तन ) अपने खुद के हृदय को दी विदारण करते हैं। इस चरण में 'हिड' पढ़ में 'ड' ऐसे दो स्वार्थिक प्रत्ययों की एक साथ प्राप्ति हुई हैं। 'हृदय' शब्द में अवस्थित 'यकार' का सूत्र संख्या १-२६६ से लोप हुआ है । (२) कङ्कणं चूर्णी भवति स्वयं = चूहल्लउ चुन्नी होइ सद= ( हाथ में पहिना हुआ ) कंकण अपने आप ही टुकड़े टुकड़े होकर चूर्ण रूप हुआ जाता है। इस गाथा-पाद में 'घुकुल्लट' पद में 'डुल्लन = उल्ाच' ऐसे दो प्रत्ययों की प्राप्ति स्वार्थिक-प्रत्ययों के रूप में एक साथ हुई है । (३) संस्कृतः - स्वामि-प्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासंधी वासम् ॥ भेदय बाहुबलं धन्या मुश्चति निश्वासम् ॥ १ ॥ हिन्दी: - कोई एक नायिका विशेष अपने प्राण पति की इस प्रकार की स्थिति को देख करके अपने आपको धन्य स्वरूप समझती हुई परम शांति के गम्भीर विश्वास लेती है कि उसके पति के प्रति सेनापति को कृपा-दृष्टि है, उसका पति लज्जावान है, वह (रक्षेत्र के मोर्चे पर ) देश के सीमान्त भाग पर रहा हुआ है और अपने प्रचंड बाहु बल का प्रदर्शन कर रहा है। इस गाथा में 'बाहुबलुल्लडा' पद में 'डुल्लडड = उल्लड' ऐसे दो स्वार्थिक-प्रत्ययों की संप्राप्ति एक साथ प्रदर्शित की गई हैं। 'दुल्ल + उड'- इन दोनों प्रत्ययों में आदि में अवस्थित प्रत्येक 'डकार' वर्ण इक है इसलिये इनका लोप हो जाता है और शेष रूप में उल्ल + अ' रहता है; तत्पश्चात् पुनः सूत्रसंख्या १५० से 'ल्ल' में स्थित अन्त्य 'अकार' का भी लोप होकर तथा दोनों की संधि होकर 'उल्ल' प्रत्यय के रूप में इनकी स्थिति बनी रह जाती है। 'बाहु-बलुल्लडा' पद में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की प्राप्ति सूत्र संख्या ४-३३० के कारण से हुई है । जैसा कि उसमें उल्लेख है कि अपभ्रंश भाषा में सखाओं में विभक्ति वाचक प्रत्ययों की संयोजना होने पर प्रत्ययान्त-स्थित स्वर कभी इसे दीर्घ हो जाते हैं और कमी दीर्घ से हस्व भी हो जाते हैं। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७४ । प्राकृत व्याकरण 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (४) बाहु चल = बाहु-बलुजडउ = भुजा के बल को। इस पद में 'दुल्ल + युद्ध + ' - उल्ल अह+अ उल्ल उन' यों तीनों स्वार्थिक प्रत्ययों को एक साथ आगम-स्थिति स्पष्ट की गई है। अन्तिम स्वार्थिक प्रत्यय 'अ' में विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'ज' की संयोजना होने से उसका लोप हो गया है ॥४-४३०॥ स्त्रियां तदसाइटीः ॥ ३.-१३१ ।। अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानेभ्यः प्राक्तन-सूत्र- द्वयोक्त-प्रत्ययान्तेभ्यो डी; प्रत्ययो भवति । पहिना दिट्ठी गोरडी, दिट्ठी मग्गु निमन्त । अंसूपासेहि कञ्चुला तितुव्वाणं करन्त ॥ १ ॥ एक डल्लो पञ्चहि रुद्धी ।। अर्थः-उपर उल्लिखित सूत्र-संख्या -४२६ और ४-४३० में जिन प्रत्ययों की प्राप्ति का संविधान किया गया है; उन प्रत्ययों को यदि स्त्रीलिंग वाचक संज्ञाओं में जोड़ा जाय तो ऐसी स्थिति में उन प्रत्ययों के अन्त में अपभ्रश-भाषा में 'डी-ई प्रत्यय की विशेष-प्राप्ति (स्त्रीलिंग-अवस्था में ) हुआ करती है। उपक रीति से प्राप्त प्रत्यय 'डी' में दकार' वर्ण इत्संझक है, तदनुसार उन श्रीलिंग वाचक संज्ञाओं में जुड़े हुए स्वार्थिक प्रत्ययों में अवस्थित अन्तिम चर का लोप हा जाता है और तत्पश्चात हलन्त रूप से रहे हुए जन स्वार्थिक प्रत्ययों वाले संज्ञा शब्दों में इस 'ई' प्रत्यय को संधि योजना होकर वे संज्ञा-शब्द ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले हो जाते हैं। (१) जैसेः-गौरी = गोर +हड-- (अड, + ई = गोरही-पत्नी। (२) कुटी - कुडी + डुल्ल + ई = कुडुल्ली = झोंपड़ी । पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृतः-पथिक ! दृष्टा गौरी ? दृष्टा, मार्गमवलोकयन्ती ।। ___अश्रृच्छ्वासः कञ्चुक तिमितोद्वानं (श्राद्रं शुष्क) कुर्वती ।। हिन्दी-विदेश में अवस्थित कोई विही यात्री अन्य यात्री से पूछता है कि-'अरे मुसाफिर ! क्या तुमने मेरो पत्नी को देखा था ? इस पर बह उत्तर देता है कि 'हॉ; देखी थी। वह उस मारा को टकटकी लगा कर देख रही थी, जिस ( मागे ) से कि तुम्हारे आगमन की सम्भावना थी। तुम्हारे वियोग में वह अपने अनु-जल से अपनी कंचुकी को भीगा रही थी तथा पुनः वह भोगो हुई कंचुकी धमके ऊंचेऊंचे और गरम श्वासोच्छवास से सूखता मी जातो थी। ऐसो अवस्था में मैंने तुम्हारा गोरडो-पत्नी को देखा था ॥१॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mo....000000000000000000000000000000000000000000000000rorotomorn0 (२) एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा = एक कुडुल्लो पञ्चहिं रुद्धी - एक छोटी सी झोपड़ी और वह भी पाँच के द्वारा सधी हुई हैं ।। ५-४२१ ।। धान्तान्ताड्डाः ।।४-४३२ ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्यगान्त-प्रत्ययान्तात् डा प्रत्ययो भवति ॥ ध्यपवादः ।। पिउ अाइउ सुय वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ ।। तही विरहदो नासन्त श्रहो धूलडिया चि न दिड ॥१॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग में रहे हुए संज्ञा शब्दों में स्वार्थिक प्रत्यय लगने के पश्चात् (स्त्रीलिंग-बाधक प्रत्यय ) 'डा - श्रा' प्रत्यय को शप्ति (भी) होती है । 'दा' प्रत्यय में अवस्थित 'टकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से स्वार्थिक प्रत्यय से मंयोजिन श्रीलिंग शब्दों के अन्त्य स्वर का लोप होकर तत्पश्चात् हो 'श्रा' प्रत्यय जुड़ता है । यह 'डा= श्रा' प्रत्यय उपरोक्त सूत्र-सख्या ५-४५१ के प्रति अपनाद-सूचक स्थिति वाला है। जैसे:-- (१) वार्तिका वातडिया = बात । (२) धूलिः = धूलडिश्रा = धूलि-रज का । इन उदाहरणों में 'डा= श्रा' प्रत्यय की संप्राप्ति देखी जाती है। गाथा का पूग अनुवाद यों हैं:-- संस्कृत:--प्रियः आयातः, श्रुता वार्ता, ध्वनिः कर्णे प्रविष्टः ॥ तस्य विरहस्य नश्यतः, धूलिरपि न दृष्टा ॥१॥ हिन्दी:-प्रियतम प्राणपत्ति लौट आये हैं। ऐसे) समाचार मैंने सुने हैं। उनको प्रावाज भी मेरे कानों में पहुँची है । ( इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने पर) उनके विरह से उत्पन्न हुए दुख के नाश हो जाने से ( अब उस दुःख को ) धूलि भो ( अर्थात् सामान्य अंश भो ) दृष्टि-गोचर नहीं हो रहा है। (अब वह दुःख पूर्णतया शान्त हो गया है ) ॥ ४-४३२ ।। अस्येदे ।। ४-४३३ ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्ना योकारस्तस्य प्रकारे प्रत्यये परे इकारो भवति ।। धूलडिश्रा वि न दिइ ॥ स्त्रियामित्येव । झुणि कन्नडइ पइट्ठ ।। अर्थ:--अपभ्रश-भाषा में स्त्रीलिंग वाले संज्ञा शब्दों के अन्त में अवस्थित्त 'अकार' को 'श्रा' प्रत्यय की प्राप्ति होने के पूर्व 'इकार' वर्ण की प्राप्ति हो जाती है । अर्थात् अन्स्य प्रकार 'श्रा' के पहिले Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७६ ] * प्राकृत व्याकरण 23 'इकार' में बदल जाता है । जैसे:- धूलिः =धूलि+ उड-धुलड; धूल + आ = धूलहिमा । यहाँ पर 'धुलर' शब्द में अन्त्य 'भकार' को 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'इकार' वर्ण की प्राप्ति हो गई है। पूरे गाथा-चरण के लिये सूत्र-संख्या ४-४३२ देखें। प्रश्न:-वृत्ति में ऐसा क्यों लिखा गया है कि-स्त्रीलिंग वाले शब्दों में इस 'कार' को 'या' प्रत्यय को प्रानि के पूर्व 'इकार' वर्ण की प्राप्ति होती है ? उत्तर-यदि स्त्रीलिंगवाले शब्दों के अतिरिक्त पुल्लिंग अथवा नपंसकलिंग वाले शब्द होंगे तो उनमें अवस्थित अन्त्य 'श्रकार को 'इकार' की प्राप्ति नहीं होगी। . जैसे:-वनिः कर्णे प्रविष्टः मुणि कन्नहर पट्ट-पानाज कान में प्रविष्ट हुई। यहाँ पर 'कमाई' शब्द में अन्त्य 'अकार' को इकार की प्राप्ति नहीं हुई है ॥ ४-४३३ ।। युष्मदादेरीयस्य डारः॥४-४३४ ॥ अपन'शे युष्मदादिभ्यः परस्य ईय प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति ।। संदेसें काई तुहारण, जं साहो न मिलिज्जइ ।। सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पित्र ! पित्रास किं छिजइ । १॥ दिक्खि अम्हारा कन्तु । पहिणि महारा कन्तु ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में 'वाला' अर्थ में ईय' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; यह 'ईय' प्रत्यय 'हम, तुम, मैं, तू, वह और वे इन पुरुष-बोषक सर्वनामों के साथ में जुड़ा करता है और ऐसा होने पर 'हमास, तुम्हारा, मेग. तेरा, उसका और उनका' ऐमा अर्थ-बोध प्रतिध्वनित होता है। यों इस अर्थ में अपभ्रंश भाषा में इस ईय' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त पुरुष-चोचक सर्वनामों के साथ में 'द्वार' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डार' में अवस्थित श्रादि डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से उन पुरुष-योधक सर्वनामों में स्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही शेष रहे हुए उन इलन्त सर्वनामों में 'डार-धार' प्रत्यय की संयोजना हुत्रा करता है। जैसे:-अस्मदोयम्अम्हारउँ हमारा । युष्मदीयम् - तुम्हार = तुम्हारा । स्वदीयम् - तुहारउँ = तेरा। मदीयम् = अम्हारा = मेरा। गाथा का अनुदान यों है:संस्कृतः-संदेशेन किं युष्मदीयेन, यत्संगाय न मिल्यते ॥ स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन, प्रिय ! पिपासा किं लियते ॥१॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 46696660000 हिन्दी:- तुम्हारे संदेशे से क्या (लाभ) है ? जबकि ( संदेशा मात्र से तो ) तुम्हारे समागम की प्राप्ति (परसर में मिलने से होने वाले लाभ की प्राप्ति हो) नहीं होती है। जैसे कि हे प्राणपति प्रियतम ! स्वप्न में जल-पान करने से क्या प्यास मिट सकती है ? इस गाथा में 'युष्मदीयेन' पद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'तुहारेण' पद का प्रयोग करके 'डार = आर' प्रत्यय की साधना की गई है || १ || - [ ५७७ ] (२) पश्य अस्मदीयम् कान्तम् = दिक्खि अम्हारा कन्तु = हमारे पति को देखो। यहाँ पर भी 'अस्मदोयम्' के स्थान पर 'अम्हारा' पद को प्रस्थापित करके 'डार = श्रर' प्रत्यय को सिद्धि की गई है। (३) भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः = ब = बहिण ! महाश कन्तु हे बहिन ! मेरे पति । इस उदाहरण में 'मद्दारा' पद में 'अर' प्रत्यय आया हुआ है । यो सर्वत्र 'डार = श्रार' प्रत्यय की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। ४-४३४ ।। अतोर्डेत्तलः ॥ ४-४३५ ॥ अपभ्रंशे इदं - किं-यत्-तद्-एतद्भ्यः परस्य अतोः प्रत्ययस्य डेत्तुल इत्यादेशो भवति ।। एतुलो | केतुला । जेत्तुली । तेतुलो । एचुलो ॥ अर्थः - संस्कृत - पर्वनाम शब्द 'इदम् किम, यत्, तत् और एतत्' में जुड़ने वाले परिमाण वाचक प्रत्यय 'अतु = अत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'बेत्तुल' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। श्रादेश प्राप्त प्रत्यय 'देशल' में 'खकार वरण' इत्संज्ञक है; तदनुसार इस 'डेत्तुन = एसूल' प्रत्यय की प्राप्ति होने के पूर्व उक्त सर्वनामों में रहे हुए अन्त्यय इलन्त व्यञ्जन का तथा उपान्त्य स्वर का लोप हो जाता हैं और स्पधात् हो शेष रूप से रहे हुए इलन्त शब्दों में इस 'एल' प्रत्यय की संप्राप्ति होती है । जैसे कि: - ( १ ) इयत् = एत्तुलां इतना (२) कियत् केत्तुलो = कितना । (३) यात्रत् = जेत्तुजो = जितना । (४) नात्तेत्तलो उतना और (५) एतावत् पत्तलो इतना ॥ ४०४३५ ॥ = = = H त्रस्य डेत्तहे ॥ ४-४३६ ॥ 1H *** अपभ्रंशे सर्वादेः सप्तम्यन्तात् परस्य त्र प्रत्ययस्य डेत इत्यादेशो भवति || - एतहे ते वारि घरि लच्छि निसएठुल धाइ ॥ पिच-पड व गोरडी निच्चल कहिं विन ठाई ॥ १ ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७८ ] * प्राकृत व्याकरण अर्थ:-सस्कृत-भाषा में अपलब्ध सर्वनाम शब्दों में सप्तमी बोधक जो 'त्र' प्रत्यय लगता है; उम 'त्रप्' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में उत्तहे' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। प्रात प्रत्यय 'डेत्तहे' में अवस्थित 'डकारवणं' इत्संज्ञावाला है, तदनुसार इस 'उत्तहे' प्रत्यय की संप्राप्ति होने के पूर्व सर्वनाम शब्दों में स्थित अन्त्य व्यञ्जन का और उपान्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही इस 'उत्तहे = पत्तहे' प्रत्यय का संयोग होता है । जैसे:--- (१) सर्वत्र = सम्वेत्तहे = सब स्थानों पर । (२) कुत्र = फेत्तई - कहाँ पर। (३) यत्र जेत्तहे - जहाँ पर। (४) तत्र = तेत्तद्दे - यहाँ पर। (५) अन्न - एत्तहे = यहाँ पर ! गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत:- अत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठुला भवति ।। प्रिय-प्रभ्रष्टे गौरी निश्चला कापि न तिष्ठति । १॥ हिन्दी:-जैसे पति से भ्रष्ट हुई श्री कहीं पर भी स्थिर होकर निश्चल रूप से नहीं ठहरती हैं। वैसे हो अस्थिर प्रतिवाली लक्ष्मी भो घर-घर में और द्वार-द्वार पर यहाँ वहाँ घूमती रहती है। इस गाथा में 'मत्र, तत्र' शब्दों के स्थान पर 'एसई और तेत्तहे' शब्दों का प्रयोग करते हुए 'त्रप' प्रत्यय के स्थान पर मादेश प्राप्त प्रत्यय 'डेसहे = एतहे' की साधना की गई है। इस देत - एत्तहे' प्रत्यय की सर्व. नाम-शब्दों में संप्राप्ति होने के पश्चात् ये शब्द अव्यय रूप हो जाते हैं, यह बात ध्यान में रहनी चाहिये। ॥४-४३६ ॥ स्व-तलो: प्पणः ॥ १-४३७ ॥ अपभ्रशे त्व नलोः प्रत्ययोः प्पण इत्यादेशो मपति ॥ बाप्पा परि पाविआइ ॥ प्रायोधिकारात् । बहत्ताहो तोण । अर्थ:-प्रयकार ने अपने संस्कृत-व्याकरण में ( म० ७-में ) भाव-वाचक अर्थ में 'स्व और तल' प्रत्ययों को प्राप्ति का संविधान किया है। उन्हीं 'स्व और तत् प्रत्ययों के स्थान पर अपभ्रश भाषा में 'पण' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः-भद्रत्वं = भल्लप्पणु = भद्रता-उजनता । (२) महत्त्व पुनः प्राप्यते = वृप्पणु परिपावित्रा बाजन तभी प्राप्त किया जा सकता है। इन उदाहरणों में 'ख' Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५७६ ] के स्थान पर 'पण' प्रत्यय को प्रस्थापित किया है । अपभ्रश भाषा में अनेक नियम ऐसे हैं, जोकि 'प्रायः' करके लागू हुडा करते हैं; तदनुसार 'पण' प्रत्यय के स्थान पर प्रायः करके 'तण' प्रत्यय (२-१५४ के अनुसार) भी पाया करता है। जैसे:-(१) भद्रत्वम् = भलत्तणु = भद्रता-सजनता । (२) महत्त्वस्य कृते - बहत्तणहो तगेण =बड़ापन प्राप्त करने के लिये । यो 'पण' और 'तण' दोनों प्रत्ययों की प्राप्ति 'त्व तथा तल' प्रत्ययों के स्थान पर देखी जाती है ।। ४-४३७ ॥ तव्यस्य इएवढं एवढं एवा ॥ ४-४३८ ।। अपभ्रंशे तव्य प्रत्ययस्य इएन्धउं एबउं एका इत्येते अय प्रादेशा भवन्ति । एउ गृण्हेप्पिणु ६ मई जइ प्रिउ उव्वारिज्जाइ । महु करिएबउं किं पि णवि मरिएब्बउं पर देज्जइ ।।१।। देसुबाडणु सिहि-कढणु घण- ककृणु जं लोइ ॥ मंजिहुए अइरत्तिए सव्वु सहेन्चउँ होइ ॥२॥ सोएवा पर वारिश्रा, पुष्फबईहिं समाणु ।। जग्गेया पुणु को धरम, जइ सो वेउ पमाणु ॥ ३ ॥ भर्थ:-'चाहिये' इस अर्थ में संस्कृत-भाषा में 'सव्य' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तव्य' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में तीन प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति हुश्रा करती है। जोकि कम से इस प्रकार हैं: (१) इबडं, () एथ्वउं और (३) एवा । जैसे:-कर्तव्यम्-करिएव्य करेबर और करवा करना चाहिये । तीनों प्रत्ययों को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथाऐं दी गई हैं, उनका अनुवाब क्रम से यों हैं:-- (१) संस्कृतः–एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्धार्यते ॥ मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं परं दीयते ॥१॥ हिन्दी:--( कोई सिद्ध पुरुष-विशेष अपनी विद्या की सिद्धि के लिये किसी नायिका-विशेष को धन आदि देकर उसके बदले में बलिदान के लिये उसके पति को लेना चाहता है। इस पर वह नायिका कहती है कि:-) यदि यह ( धन-संपत्ति ) ग्रहण करके मैं अपने पति का परित्याग कर देती हूँ तो फिर मेरा कुछ भी कत्तंव्य शेष नहीं रह जाता है, सिवाय इसके कि मैं मृत्यु का आलिंगन कर लूँ । अथान् तत्पश्चात् मुझे मर जाना ही चाहिये । इस गाथा में 'कत्र्तव्यं और मतव्य' पदों में पाये हुए 'तव्य' प्रत्यय के स्थान Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८० ] पर अपभ्रंश-भाषा में 'इएन' आदेश प्राप्त प्रत्यय का प्रयोग किया गया है और ऐश करते हुए 'कारएवढं और मरिए पदों का निर्माण किया गया है ॥ १ ॥ * प्राकृत व्याकरण $�$6400660060665600660*60400 $444846046644546**E संस्कृत:- देशोच्चाटन, शिखि कथनं, घन- कुट्टनं यद् लोके ॥ सोढव्यं भवति ||२|| मञ्जिष्ठया अतिरक्तया, सर्व हिन्दी:- मंजिष्ठा नाम वाला एक पौधा होता है, जोकि अत्यधिक लाल वर्ण वाला होता है और इस लालिमा के कारण से हो वह जन साधारण द्वारा आकर्षित किया जाकर सर्व प्रथम तो जड़मूल से हो उखाड़ा जाता है और सत्चात् अग्नि पर #वाथ के रूप में खूब ही पकाया जाता है; एवं इसके बाद 'रंग-प्राप्ति के लिये' लाई के भारा घन से छूटा जाता है: यो पनी रक्त वर्णता के कारण से उसे सब-कुछ सहन करने योग्य स्थिति वाला बनना पड़ता है। इस गाथा में संस्कृत-पद 'सोढव्य' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'सव्य' पद का प्रयोग करते हुए यह समझाया गया है कि 'तव्य' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में द्वितीय प्रत्यय 'ए' को आदेश- प्राप्ति हुई है ॥२॥ संस्कृतः - स्वपित्तव्यं परं वारितं पुष्पवतीभिः समानम् ॥ जागरितव्यं पुनः कः धरति ? यदि स वेदः प्रमाणम् ||३|| हिन्दो: - ऋतुमती स्त्रियों के साथ 'सोना चाहिये' इसका निषेध किया गया है। तो फिर ऐसा कौन है ? जिसकी जागता हुआ रहना चाहिये । इसके लिये वेद ही प्रमाण-स्वरूप हैं। इन गाथा में 'पतयं और जागरितव्य' पदों में आये हुए 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश माषा में तृतीय प्रत्यय 'एवर' का प्रयोग करते हुए 'मोएबा और जमेवा' रूपों का निर्माण किया गया है ॥३॥ यो संस्कृत - प्रत्य 'सव्य के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में उक्त प्रकार से तीन प्रत्ययों की श्रादेशप्राप्ति की स्थिति को समझ लेना चाहिये। 'चाहिये' अर्थक इस कन्त का संस्कृत-व्याकरण में विधिकृदन्त' के नाम उल्लेख किया जाता है। अग्रेजी में इसको ( Potential Passive Participles ) कहते हैं ।। ४-४३८ ।। क्ल इ-इउ - इवि - अत्रयः ॥ ४-४३६ ॥ अपभ्रंशे वा प्रत्ययस्य इ उ इवि श्रवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ इ । हिडा जह वेरि, घणा तो किं श्रमि चढाहुं ॥ अम्हाहिं वे हत्था जह पुणु मारि मराहुं ॥ १ ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ otomorronmentrem..........२०१ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५८१ ] ww w www +++++++ +++++++++ + इउ । मय-घड भन्जिउ जन्ति ।। इवि ॥ रक्खइ सा विस-हारिणी, बे कर चुम्पित्रि जीउ ।। पडिविम्बिन-मुजालु जलु जेहि अहोडिअ पीउ । २|| अयि ।। बाह विछोडवि जाहि तुहूं, हउं तेइ को दोसु ॥ हिश्रय-द्विउ जइ नोसरहि जाणउं मुञ्ज सरोसु ॥ ३ ॥ भर्थ:-'करके' इस अर्थ में मम्बन्ध कृदन्त का विधान होता है। यह कृदन्त विश्व की ममी अर्वाचीन और प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध है । संस्कृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी नियमानुसार इसका अस्तित्व है । तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस अर्थ में स्वा' प्रत्यय का संविधान होता है और अपभ्रंश भाषा में इस 'क्रया' प्रत्यय के स्थान पर पाठ प्रत्ययों को आदेश प्राप्त होती है; इन आठ प्रत्ययों में से चार प्रत्ययों की व्यवस्था तो इसी सूत्र में की गई है और शेष चार प्रत्ययों का संविधान सूत्र-संख्या ४-५४० में पृथक्-रूप से किया गया है। इसमें यह कारण है कि ये शेष चार प्रत्यय संबंधकृदन्त में भी प्रयुक्त होते हैं और इत्यथ कदन्त में भी काम में अाते हैं। यों उनको स्थिति उभय रूप वाली है इसलिये उनका विधान पृथक सूत्र को रचना करके किया गया है। इस सूत्र में सबंध-कृदन्त के अर्थ में जिन चार प्रत्ययों की रचना की गई है; वे क्रम से इस प्रकार हैं: (१) इ. (२. इ3, ३) इवि और (४) अवि । जैसे:- कृत्वा (१) करि, () करिज, (:) करिवि श्रा' (४) करवि = करकं । (२) लध्या = (१) लहि, (२) लहिल, (३) लहिवि और (४) लहवि प्राप्त करके-पा करके । वृत्ति में चारों प्रत्ययों को समझाने के लिये चार गाथाएं उधृत की गई हैं। उनका अनुवाद क्रम में यों हैं:-- (१) संस्कृतः- हृदय ! यदि वैरिगो घनाः, तत् कि अघ्र आरोहामः || अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा नियामहे ॥१॥ हिन्दी:-हे हृदय ! यदि ये मेघ (बादल-समृद्द ) ( विरह-दुःख उत्पादक होने से ) शत्रु रूप है तो क्या इन्हें नष्ट करने के लिये श्राकास में ऊपर चढ़ें ? अर ! हमारे भी दो हाथ हैं, यदि मरना ही है ती प्रथम शत्रु को मार करके पीछे हम मरेंगे ।।१।। हम गाथा में 'मारयित्वा' पद के स्थान पर 'मारी' पद का उपयोग करते हुए 'स्त्रा' प्रत्यय के अर्थ में अपभ्रश में 'ई' प्रत्यय का प्रयोग समझाया गया है। (२) संस्कृतः-गज-घटान मित्या गच्छन्ति = गय-घड भन्जिन जन्ति हाथियों के समूह को भेद कर के जाते हैं । यहाँ पर 'भिश्वा' के स्थान पर 'भजि' लिख करके द्वितीय प्रस्थय 'इन' का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८२ ] * प्राकृत व्याकरण ••• • • • • • • •* * * *•*: 44-46 44: •• • • • tái đĩ) +++++++++++++++++++++++ + (३) संस्कृतःचति सा विषहारिणी, द्वौ करो चुम्बित्या जीवम् ॥ प्रतिविम्बित मञ्जालं जलं, याभ्यामनघमाहितं पीतम् ३॥ हिन्दी:-( जिसके प्रालिंगन करने से काम-विकार रूप विष दूर होता है ऐसी) विष को हरण करने वाली यह नायिका शेष अपने दोनों हाथों का चुम्बन करके अपने जीवन को रक्षा कर रहो है। क्योंकि इन दोनों हाथों ने जल के अन्दर इबकी लगाये बिना ही उभ जल का पान किया है। जिसमें कि मुख गजा का ( अथवा मुख नामक घास विशेष का) प्रतिबिम्ब पड़ा है । इस छंद में चुम्मिला' पद में रहे हुए संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्यय 'क्या' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'चुम्बिवि पद का निर्माण करके तदर्थक 'इवि' प्रत्यय का संयोग सूचित किया गया है ।।३।। (४) संस्कृतः-वाहू विच्छोटय याहि त्वं, भवतु तथा को दोषः १ हृदय स्थितः यदि निः सरसि, जानामि मुञ्जः सरोषः ।।४ ! हिन्दी:-अरे मुञ्ज ! यदि तुम भुजाओं का झुका के जाते हो तो इसमे कौन सा दोष है ? अथवा कौनसी हानि है ? क्योंकि तुम मेरे हृदय में बसे हुए हो और ऐसा होने पर यदि तुम मे इस्य में से निकल कर भागो तो मैं जान कि मुञ्ज मुझ से रूष्ट है। यहाँ पर संबंध कान्त अर्थ में 'विच्छोट्य पद आया हुआ है, जिसका भाषान्तर अपभ्रश भाषण में 'विछोनि' पद के रूप में किया है और ऐसा करते हुए संबंध-कृदन्त-अर्थ-वाचक-प्रत्यय 'अवि' का प्रयोग किया गया है। यों चागे प्रकार के प्रत्ययों की स्थिति को समझ लेना चाहिये || ४-४१ ॥ एप्प्येप्पिण्वव्येविणवः ॥४-४४० ॥ अपभ्रंश क्या प्रत्ययस्य एप्पि, एपिवणु, एवि, एविणु इत्येतं चत्वार प्रादेशा भवन्ति । जेपि असेसु कमाय-बलु देष्णुि अभउ जयस्सु ॥ लेवि महब्बय सिवु लहहिं झाएवणु तत्सस्सु ॥१॥ पृथग्योग उसराथः।। अर्थ:-इस सूत्र में भी संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्ययों का ही वर्णन है। ये प्रत्यय हेत्वर्थ कृदात के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं। इसलिये इन प्रत्ययों को एक साथ पूर्व-सूत्र में नहीं लिखते हुए पृथक-सूत्र के रूप में इनका विचार किया गया है। इस अर्थ को प्रदशिन करने के लिये वृत्ति में 'पृथक् योग' और उत्तरार्थः ऐसे दो पद खास तौर पर दिये गये हैं। 'पृथक-यांग' का तात्पर्य यही है कि इन प्रत्ययो का सम्बन्ध कन्य कदन्त ( अर्थात हेत्वर्थ-वृदन्त । के लिये भी है । 'चरार्थः' पद का यह अर्थ है कि इन प्रत्ययों का वर्णन और सम्बन्ध आगे के सूत्र से भी जानना । यो संबंध कुदन्त के अर्थ में (और हेत्वर्थ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दा व्याख्या सहित * [ ५८३ ] दन्त के अर्थ में भो ) जो चार प्रत्यय ( विशेष ) होते हैं, ये क्रम से इस प्रकार हैं: - (१) एधि (२) एपि (३) एत्रि और (४) एत्रि | जैसे:- कृत्वा करेपि करेविगु, करेविशु और करेवि= करके | ( हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में 'करने के लिये' ऐसा तार्थ उद्भूत होगा ) । वृत्ति में जो गाथा उदधृत की गई है, उसमें उक्त प्रत्ययों को क्रम से इस प्रकार से व्यक्त किया है: (1) जित्वा = जेपिजीत करके । (२) दादेपिशु दे करके । (३) लावा - लेवि ले करके अथवा ग्रहण करके । = (४) ध्यात्वा = झाएविणु = ध्यान करके चिंतन करके । पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं: संस्कृत: - जित्वा अशेषं कषाय- बल, दशा अभयं जगतः ॥ लावा महाव्रतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तदम् ॥१॥ हिन्दी:- भव्य प्राणी अथवा मुमुक्षु प्राणी सर्व प्रथम सम्पूर्ण कषाय-समूह को जीत कर के, तपश्चात् विश्व प्राणियों को अभयदान देकर के एवं महावतों को ग्रहण करके अन्त में वास्तविक द्रव्य रूप तवों का ध्यान करके मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेते हैं ।। ४-४४० ।। तुम एवमणाराहमपहिं च ॥ ४-४४१ ॥ , अपभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं अण, अहं, अहिं इत्येते चत्वारः चकारात् एपि एपिणु, ०वि, एविणु इत्येते, एवं चाष्टावादेशा भवन्ति ॥ पडिहार || देवं दुकरु निश्चय धणु करण न त एम्बइ सुहु भुञ्जद्द, मधु पर भुञ्जयहिं न जाइ ॥ १॥ जेपि चएप्पिणु सयल घर लेविणु तवु पालेवि ॥ विषु सन्हें तित्थेसरे, को सकइ सुवणे वि ||२|| अर्थः—'क लिये' इस अर्थ में हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग होता है और यह कृदन्त भो विश्व की सभी भाषाओं में पाया जाता है; तदनुमार संस्कृत भाषा में इस कृदन्त के निर्माण के लिये 'तुम' प्रत्यय का विधान किया गया है और इस प्राप्त प्रत्यय 'तुम' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में आठ प्रत्ययों का संविधान किया गया है। जोकि आदेश प्राप्ति के रूप में पड़े जाते हैं; वे आदेश प्राप्त आठों ही प्रत्यय क्रम Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण - +o++++++++ +++++++++++++++++++++++o++++++++++++++++++++ से इस प्रकार हैं:-(१) एवं, (२) अण, (३) आणइं. ४) अणहिं, (५ एपि, (६) एपिणु. (७) रवि और (८) एविणु । इन आठ प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को धातु में जोड़ देने पर उसका 'के लिये' ऐमा अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है । जैसे:-- १) त्यक्तुं = चएवं छोड़ने के लिये । (२) भोक्तुं= भुञ्जण = भोगने के लिये । (३) सेवितुं - सेवणहं - सेवा करने के लिये । (४) मोक्तुं मुञ्चहिन्छोड़ने के लिये। (५) कत्तम् करेवि = करने के लिये । (६) क्तं - करेविणु= करने के लिये । (७) ऋतु - करेवि और (6) करेपिणु = करने के लिये । वृत्ति में प्रदत्त गावाओं में उपरोक्त बाठों प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग कम से यों किया गया हैं: - (१) एवं' प्रत्यया दातुं = देवंग के लिये। (२) 'अण' प्रत्यय; फतु = करण = करने के लिये । (३) 'अणई' प्रत्यय; भोक्तुं मुञ्जगह - भोगने के लिये । (४) 'अहि' प्रत्यया भाक्तुं = भुञ्जणाई = भोगने के लिये । (५) एप्षि' प्रत्यय; जेतुं जेप- जोतने के लिये । (६) एपिणु' प्रत्यय; त्यक्तुं = चएप्पिणु = छोड़ने के लिये । (५) 'एवि' प्रत्ययः पालयितुम् = पालेवि = पालन करने के लिये । (८) एरिणु प्रत्यय लातुं - लेविणु = लेने के लिये । उक्त दोनों गाथाओं का पूरा अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृतः-दातु दुष्करं निजक धन, कर्तु न तपः प्रतिभाति ।। एवं सुखं भोक्तु मनः, परं भोक्तु न याति ।१।। हिन्दोः-अपने धन को दान में देने के लिये दुष्करता अनुभव होती हैं; तप करने के लिये भावनाएँ नहीं उत्पन्न होती हैं और मन सुख को भागने के लिये व्याकुल मा रहता है; परन्तु सुख्ख भीगने के लिय संयोग नहीं प्राप्त होते हैं ॥ ॥ इम गाया में हेत्वर्थ-कृदन्त के रूप में प्रयुक्त किये जान वाले चार प्राय व्यक्त किये गये हैं; जोकि धान्त रूप से ऊपर लिख दिये गये हैं ।।१।। संस्कृतः-- जेतु त्यक्तु सकलां धरी, लातु' तपः पालयितुम् ।। विना शान्तिना सीयश्वरेण, कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥२॥ ___ हिन्दी:-सर्व प्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के लिये और तत्पश्चात् पुनः उसका ( वैराग्य पूर्ण रीति से ) परित्याग करने के लिये एवं व्रतों को ग्रहण करने के लिये तथा तप को पालने के लिये ( यों Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रयोदय हिन्दा व्याख्या सहित # [ ५८५ ] क्रम से असाधारण कार्यों का करने के लिये ) भगवान् शान्तिनाथ प्रभु के शिवाय दूसरा कौन इस विश्व में समर्थ हो सकता है। इस गाया में हेत्वर्थ कृान्त के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले शेष चार प्रस्थयों को उपयोगिता बतलाई है; जो दृष्टान्त रूप से ऊपर लिखे जा चुके हैं ॥। ४-४४१ ।। गमेरेपिवेप्योरेलु वा ॥ ४-४४२ ॥ अपभ्रंशे गमेर्धातोः परयोरेपिणु एप्पि इत्यादेशयो रंकारस्य लुग् भवन्ति वा । गम्प घाणारसिहि, नर वह उज्जेणिहिं गम् ॥ मुआ परावहिं परम-पड, दिव्वन्तरई म जपि ॥ १ ॥ पचे गङ्ग गमेपि जो मुइ, जो सिव-तित्थ गमेपि ॥ कीलदि तिदसावास भउ, सो जम- लोउ जिणेवि || २ || ▾ 'ए अर्थः--अपभ्रंश भाषा में 'जाना, गमन करना' अर्थक धातु 'गम्' में संबंध - दन्त अर्थक प्रत्यय और को संत्ययों में स्थित आदि स्वर 'एकार' का विकल्प से लोग हो जाता है। जैसे:- गत्वा = गप्पगु अथवा गमेध्णुि और गम्पि अथवा गमेपि =: = आकर के । इन्हीं चारों पदों का प्रयोग वृत्ति में दी गई गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद इस प्रकार से है: संस्कृत: गत्वा वाराणसीं नराः अथ उज्जयिनीं गत्वा ॥ मृताः प्राप्नुवन्ति परमं पदं दिव्यान्तराणि मा जन्म ॥१॥ - के हिन्दी:- मनुष्य सर्व प्रथम बनारस तोर्थ को जाकर के और तलश्चात् उब्जायनी तीर्थ को जाकर मृत्यु प्राप्त करने पर सर्वोत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं; इसलिये अन्य पवित्र तीर्थो की बात मत कर । इस गाथा में एपिशु और एपि प्रत्ययों में अवस्थित आदि स्वर 'एकार' का लीप स्वरूप प्रदर्शित किया गया है ||१|| संस्कृतः — गङ्गां गत्वा यः म्रियते यः शिवतीर्थं गत्वा ॥ क्रीडति त्रिदशावासगतः, स यमलोकं जिल्ला ||२|| हिन्दी:- जो पवित्र गंगा नदी के स्थान पर जाकर मृत्यु प्राप्त करता है अथवा जो शिवतीर्थबनारस में जाकर मृत्यु प्राप्त करता है; वह यमलोक को जीनकर इन्द्रादि देवताओं के रहने के स्थान को प्राप्त करता हुआ परम सुख का अनुभव करता है। इस गाथा में 'गमेपिशु और गमेपि' पदों में रहे हुए 'एपि तथा चि' प्रत्ययों में आदि 'पुकार' स्वर का अस्तित्व ज्यों का त्यों व्यक्त किया गया है। य मैं कल्पिक स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। ४-४४२ ।। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण तृनोणमः । ४-४४३ ।। अपभ्रंश तनः प्रत्ययस्य अधम इत्यादेशा भवति ।। हस्थि मारणउ, लोउ बोल्नमाउ, पडहु वज्जणउ, सुणउ भसणउ ॥ अर्थ:-के स्वभाववाला' अथवा 'वाला' अर्थ में एवं 'कत' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'तृच् - न' प्रत्यय की प्राप्ति होती है संबनुमार इम 'तच' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'अण' ऐसे प्रत्यय की आदेश प्राप्ति का संविधान है । जैसे:-कर्त = करण प्रकरनेवाला अथवा करने के स्वभाव वाला । मायित = मारण=+रनेवाला अथवा मारने के स्वभाव वाला । अज्ञात-अजाण = नहीं जानने वाला । यह 'अण' प्रत्यय धातुओं में जुड़ता है और धातुओं में जुड़ने के पश्चात वे शब्द संझा-स्वरूप वाले बन जाते हैं; एवं उनके रूप आठों विभक्तियों में नियमानुसार चलाये जा सकते हैं । यत्ति में प्रदत्त उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं: (१) हस्ती गारयिता- इथि मारणउ = हाथी मारने के स्वभाव डाला है। (२) लोक कथयिता - लोख बोलण जनमाधारण बोलने के स्वमाय गला है। (३) पटहः वादयिता = पडडु वजाउ = ढील आवाज अथवा प्रतिध्वनि करने के स्वभाव वाला है। (४) शुनकः भपिता- सुणल भासण : कुत्ता भौंकने के स्वभाव वाला है ॥ ४-४४३ ॥ इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावह-जणि-जणवः ॥४-४४४ ॥ अपभ्रशे इव शब्दस्यार्थे नं, नउ, नाइ, नावर, जमि, जणु इत्येते षट् भवन्ति । नं॥ नं मल्ल- जुज्झ ससि राहु करहिं ।। नउ ॥ रवि-प्रत्थमणि समाउलंग कण्ठि विइएणु न छिएणु ॥ चक्क खण्डु प्रणालिबहे नउ जीबगलु दिण्णु ॥११॥ नाइ॥ बलियावाल- निवडण-मरण धण उद्धन्भुन जाइ ॥ वल्लह-विरह-महादहहो थाह गये सह नाइ ॥२॥ नावइ ।। पेक्खेविणु मुगु जिथा-वाहो दोहर-नयमा सलोणु ॥ नावा गुरु-मच्छर-मरिउ, जलणि पवीसइ लोण ।।३।। जणि ॥ चम्पय-कुसुमहो मन्झि सहि मसलु पइदउ ॥ . सोहइ इन्द नील नणि कणइ घाउ ॥ ४ ॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ५८७ ] जणु ।। निरुवम-रसु पिएं पिएवि जणु ॥ अर्थ-'के समान' अथवा 'के जैसा' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अध्यय-शरद का प्रयोग होता है; तदनुसार इस 'इव' अव्यय शब्द के स्थान पर अपभ्रामाषा में छह शब्दों की श्रादेश प्राप्ति होती है । जोकि क्रम से इस प्रकार है:--(१) नं. (२) नर, (३) नाइ, (४) नावइ, (५) जणि और (६) जणु । इनके उदाहरण यों है:-(१) पशुरिष = नं पसु = पशु के समान, पशु के जैसा । (२) निवेशितः इव = नउ नियसिउ- स्थापित किये हुए के समान । (३) विलिखितः इध- नाइ लिहित = पत्थर पर) खुदे हुए के समान । (४) प्रतिविम्बितः इस = नावइ पडिविम्बिउ =अतिछाया के समान । (५) स्वभावः इध = जणि सहजु= स्वभाव के ममान और (६) लिखितः इव = जणु लिहिउ = लिखे हुए के समान | वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का अनुवाद क्रम से यों हैं:-- (१) संस्कृतः-मल-गदै इन शशि राह कुरुतः-नं मल-जुज्झु समि-राहु करहिं -- पहलवानों की लड़ाई के समान चन्द्रमा और गहू दोनों ही युद्ध करते हैं । यहाँ पर 'इच' अर्थ में आदेश-प्राप्त शब्द 'न' का प्रयोग किया गया है। __ (२) संस्कृत:-रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिमः ॥ चक्रण खण्डः भृणालिकाया: ननु जीवार्गलः दत्तः ॥१॥ हिन्दीः- सूर्य-देव के अस्त हो जाने पर घबड़ाये हुए चल्वा नामक पक्षी के द्वारा कमलिनी का टुकड़ा ययपि मुख में ग्रहण कर लिया गया है; परन्तु उसको गले के अन्दर नहों उतारा है; मानो इम बहाने ससने अपने जीवन को रक्षा के लिये 'असला-भागल' के समान कमलिनी के टुकड़े को धारण किया हा। इस गाथा में 'इव' अर्थक द्वितीय शब्द 'ल' को प्रदर्शित किया है ।। (३) संस्कृतः वलयावलोनिपतनभयेन, पन्या ऊर्ध्व-भुजा याति ॥ वल्लभ विरह-महाहदस्य स्ताथं गवेषतीव ॥२॥ हिन्दी:-यह धन्य-स्वरूपा सुन्दर नायिका 'अपनी चूड़ियों कहीं नीचे नहीं गिर जाय' इस आशंका से अपनी भुजा को ऊपर उठाये हुए हो चलता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह अपने प्रियतम के पियोग रूपी महाकुंद्र के तलिये की स्थिनि का अनुसंधान कर रही हो । यहाँ पर 'इव' के स्थान पर प्रादेश-प्राप्त सृतीय शब्द 'नाई' को प्रयुक्त किया गया है ॥२॥ (४) संस्कृतः -प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य दीर्घ-नयनं सलावण्यम् ।। ननु गुरु मत्सर मरितं, ज्वलने प्रविशति लवणम् ॥३॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८८ ] * प्राकृत व्याकरण हिन्दी:-भगवान् जिनेन्द्रदेव के सुमीर्घ आँखों वाले सुन्दरतम मुख को देख करके मानों महान् ईया से भर हुआ लवणा-समुद्र बड़वानल नामक अग्नि में प्रवेश करता है। लवण-समुद्र अपनी सौम्यता पर एवं सुन्दरता पर अभिमान करता था, परन्तु जब उसे जिनेन्द्रदेव के मुख कमल को सुन्दरता का अनुभव हुआ तब वह मानों लज्जा-ग्रस्त होकर अग्नि-स्नान कर हा हो; यो प्रतीत होता है। इस छन्द में 'इच' अव्यय के स्थान पर प्रान चौथे शब्द 'नावई' के प्रयोग को समझाया गया है ।। (५) संस्कृत:~चम्पक-कुसुमस्य मध्ये सखि ! भ्रमः प्रविष्टः ॥ शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः ॥ ५ ॥ हिन्दो:--हे सखि ! ( देखो यह ) वरा चम्पक-पुष्प में प्रविष्ट हुमा है; यह इस प्रकार से शोभायमान हो रहा है कि मानों इन्द्रनील नामक मणि सोने में जड़ दी गई है। यहाँ पर पाँचवें शब्द 'जणि' के प्रयोग को प्रदर्शित किया गया है ।।५।। (६) संस्कृत:-निरुपम-रसं प्रियेण पीरला इव-निरुवमासु पिएं पिएवि जणु प्रियतम पति के द्वारा अद्वितीय रस का मन करके 'इसके समान । यौँ पर 'इव' अर्थ में छहा शब्द 'जणु' लिखा गया है। लिंगमतन्त्रम् ॥ ४-४४५ ॥ अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रम् व्यभिचारि प्रायो भवति ॥ गयकुम्भई दारन्तु । अत्र पुलिंगस्य नपुसकत्यम् ।। अब्भा लग्गा डुङ्गरिहि पहिउ रडन्तउ जाइ ॥ जो एहा गिरि-गिलण-मणु सो किंधणहे पणाह ॥१॥ अत्र अब्मा इति नपुसकस्य पुस्त्वम् ।। पाइ विलम्गो अन्त्रही सिरु न्हसिउं खन्धस्सु ॥ तो वि कटारइ इत्थडउ बलि किज्जउ कन्तस्सु ॥ २ ॥ भत्र अन्डी इति नपुसकस्य स्त्रीत्वम् ॥ सिरि चरिआ खन्ति, प्फलई पुणु डालई मोडन्ति । तो वि मह म सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ॥ ३ ॥ अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्थ नपुसकत्वम् ।। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 00000... [८] अर्थः- अपभ्रश भाषा में शब्दों के लिंग के सम्बन्त्र में दोषयुक्त व्यवस्था पाई जाती है। तदनुमार पुल्लिंग शब्द को कभी कभी नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया जाता है और कभी कभी नपुंसकलिंग वाले शब्द को पुल्लिंग के रूप में लिख दिया जाता है; इसी प्रकार से बीलिंगवाले शब्द को भी प्रायः नपुंसकलिंग के रूप में प्रदर्शित कर दिया जाता है और नपुंसकलिंगवाले शब्द का भी स्त्रीलिंग के रूप में प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है; पायः होने वाली इम व्यवस्था को प्रथकार ने वृति में 'व्यभिचारी' व्यवस्था के नाम से कहा है । इम दोष-युक्त परिपाटी को समझाने के लिये वृत्ति में जो उदाहरण दिये गये हैं; उनका अनुवाद क्रमशः इस प्रकार से है: (१) संस्कृतः - गजानां कुम्भान् दारयन्तम् राय-कुम दारन्तु हाथियों के गढ स्थलों को चीरते हुए को । यहाँ पर 'कु' शब्द को नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया है; जबकि वह शब्द पुलिंग है । (२) संस्कृत — अाणि लग्नानि पर्वतेषु पथिकः आरटन् याति ॥ यः एषः गिरिसनमनाः स किं धन्यायाः घृणायते ||१|| हिन्दी : - पर्वतों के शिखरों पर लगे हुए अथवा झुके हुए बादलों को ( लक्ष्य करके ) यात्री यह कहता हुआ जा रहा है कि 'यह मंत्र ( क्या ) पर्वतों को निगल जाने की कामना कर रहा है अथवा (क्या) यह उस सौभाग्य-शालिनी नायिका से घृणा करता है। क्योंकि इस वन-श्याम मेघगला फी देखने से उस नायिका के वित्त में काम वासना तीव्र रूप से पीड़ा पहुँचाने लगेगी ) इसमें मेषवाचक शब्द 'अब्भ' को पुल्लिंग के रूप में लिखा है; जबकि वह नपुंसकलिंगडाला है (३) संस्कृतः पादे विलग्नं अत्रं शिरः स्रस्तं स्कन्धात् ॥ तथापि कटारिका हस्तः बलिः क्रियते कान्तस्य ॥२॥ हिन्दी:- कोई एक नायिका अपनी सख्रि से अपने प्रियतम पति को र क्षेत्र में प्रदर्शित वीरत के सम्बन्ध में चर्चा करती हुई कहती है कि- 'देखो ! युद्ध करते करते उसके शरीर की आन्तड़ियाँ बाहिर निकल कर पैरों तक जा लटको है और शिर धड़ से लटक सा गया है; फिर भी उसका हाथ कटारी पर ( छोटी सी तलवार पर) शत्रु को मारने के लिये लगा हुआ है; ऐसे वीर पति के लिये मैं बलिदान होती हूँ ।' इस गाथा में 'अन्डो' शब्द को श्रीलिंग के रूप में बतलाया है; जबकि यह नपुंसकलिंगवाला है ||२|| (४) संस्कृत: - शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखा: मोटयति ॥ तथापि महाद्रुमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ हिन्दी:- देखो ! पक्षीगण महावृक्ष की सर्वोच्च शाखाओं पर बैठते हैं; उनके फलों को रुषिपूर्वक खाते हैं तथा उनकी डालियों को तोड़ते हैं-मरोड़ते हैं; फिर भी उन महावृक्षों को कितनी ऊंची उदारता है कि वे न तो उन पक्षियों को अपराधी ही मानते हैं और न उन पक्षियों के प्रति कुछ भी हानि Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६० ] %2 प्राकृत व्याकरण* पहुँचाने की कामना ही करते हैं । ( यही वृत्ति सज्जन-पुरुषों को भी दुर्जन पुरुषों के प्रति होतो है ) । इस गाथा में डालई' शब्द पाया है, जोकि मूल रूप से स्त्रीलिंगवाला है फिर भी उसका प्रयोग यहाँ पर नपुंसकलिंग के रूप में कर दिया गया है । यो अपभ्रश-भाषा में अनेक स्थानों पर पाई जाने वाली लिंग सम्बन्धी दुर्व्यवस्था की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये ।। ४-४४५ ॥ शौरसेनीवत् ॥४-४४६॥ अपभ्रंशे प्रायः शौर-सेनीवन कार्य भवति || सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदुः खणु कपिठ पालम्वु किदु रदिए । विहिदु खणु मुबह-मालिए' में पथए। तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो ॥१॥ अर्थ:-शौरसेनी भाषा में व्याकरण-संबंधित जो नियम-उपनियम एवं संविधान है; व सम प्रायः अपभ्रंश-भाषा में भी लागू पड़ते हैं । यो शौरसेनी-भाषा के अनुमार प्रायः अनेक कार्य अपभ्रश-भाषा में भी देखे जाते हैं। जैसे: (१) निवृति = निव्वुदि= प्रारम्भ-परिग्रह से रहित वृत्ति को। (२) विनिर्मापितम् - विणिम्मविदु-स्थापित किया हुआ है, उसको । (३) कृतम् - किदु = फिया हुमा है। (४) स्त्याः = रदिए-कामदेव को स्त्री रति के। (५) विहित - विहिदु =किया गया है। इन उदाहरणों में शौरसेनी-भाषा से संबंधित नियमों के अनुसार कार्य हुआ है। पूरी गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृतः-शीर्ष शेखरः षणं विनिमोपितम् ॥ तणं कण्ठे प्रालम्यं कृतं रस्याः ॥ विहितं पण मुण्ड-मालिकायां ॥ तनमत कुसुम-दाम-कोदण्डं कामस्य ॥१॥ हिन्दी:-कामदेखने नीलकण्ठ भगवान शंकर को अपनी तपस्या से बिगाने के लिये पुरुषों से Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ス * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * के रूप में निर्मित धनुष को उठाया । सर्व प्रथम उसने क्षण भर के लिये उसकी अपने शिर पर आभूषण प्रस्थापित किया; तत्पश्चात् रति के कण्ठ में क्षण भर के लिये उसको लटकाये रक्खा और अन्त में शंकर के गले में पड़ी हुई मुण्ड-माला पर क्षण भर के लिये उसको स्थापना की ऐसे कामदेव के पुष्पों से बने हुए धनुष को तुम नमस्कार करो ||१|| ४-४४६ ॥ [ ५६ ] → व्यत्ययश्च ॥ ४-४४७ ॥ आकुखादिमापालचणानां व्यत्ययश्च मवति । यथा मागच्यां तिष्ठश्चिष्ठ' इत्युक्तं तथा प्राकृत पैशाची - शौरसेनाध्वपि भवति । चिष्ठदि । अपभ्रंशे रंकस्यावो वा लुगुको मागध्यामपि भवति । शद माग्गुश - मंश- भालके कुम्भ राह त्र-वशाहे शंचिदे इत्याद्यन्यदपि दृष्टव्यम् । न केवलं भाषालचणानां त्याद्यादेशानामपि व्यत्ययो भवति । ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूपि भवन्ति । अह पेच्छ रहु-तयश्री || अथ प्रेक्षांचक्र े इत्यर्थः । श्राभासह रयणीयरे । श्राबभाषे रचनीचरानित्यर्थः || भूते प्रसिद्धा वर्तमानपि । सोही एस एठो | शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः ।। अर्थ:- प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं में व्याकरण सम्बन्धी जो नियम उपनियम आदि विधि-विधान हैं, उनका परस्पर में व्यत्यय अर्थात् लटपुलट पना भी पाया जाता है। जैसे मागधी भाषा में 'तिष्ठ' के स्थान पर सूत्र संख्या ४-२३८ के अनुसार 'विष्ठ' रूप की आदेश प्राप्ति होती है, उसी प्रकार ही 'प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी' भाषाओं में भी होता है। जैसे:- तिष्ठति= चिष्ठदि वह बैठता है। अपभ्रंश भाषा में सूत्र संख्या ४-३६८ में ऐसा विधान किया गया है कि अब रूप में रहे हुए रेफ रूप 'वकार व का विकल्प से लोप हो जाता है; यही नियम मागधी भाषा में भी देखा जाता है। भाषाओं से सम्बन्धित यह व्यत्यय केवल नियमोपनियमों में ही नहीं होता है किन्तु काल बोधक प्रत्यर्थो में भी यह व्यत्यय देखा जाता है; तदनुसार वर्तमानकालवाचक प्रत्ययों के सदभाव में भूतकालवाचक अर्थ सो निकाल लिया जाता है और हमी प्रकार से भूतकाल-बोधक प्रत्ययों के सद्भाव में वर्तमानकालवाचक अर्थ मोसम लिया जाता है । जैसे: (१) अथ प्रेशांचक्रे ग्घु-तनयः = श्रह पेच्छ रहुत भो= इसके बाद में ग्धु के लड़के ने देखा । (२) श्राबभाषे रचनीचरान् = श्राभासह रयशोअरे - राक्षसों को कहा। इन उदाहरणों में वर्तमानकाल-वाचक 'इ' प्रत्यय का अस्तित्व है; परन्तु 'अर्थ' भूतकालवाचक कहा गया है; यों काल वाचक व्यत्यय इन भाषाओं में देखा जाता है। भूतकाल का सद्भाव होते हुए भी अर्थ वर्तमानकाल का निकाला जाता है; इस सम्बन्धी शहर यों हैं: - णोति एष पठः सोही एस वण्ठो यह बौना (वामन) सुनता है। इस उदाहरण में 'सोडी' क्रियापद में भूतकालीन प्रत्यय 'ही' की प्राप्ति हुई है; परन्तु अर्थ वर्तमानकालीन ही लिया गया है। यो काल-बोधक प्रत्ययों में भी व्यत्यय-स्थिति इन भाषाओं में देखी जाती है || ४-५४७ || Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६२] * पाकत व्याकरण . mammi...rnerrearrrrrrrrrrrore शेष संस्कृतवत् सिद्धम् ॥ ४-४४८ ॥ शेष पदत्र प्राकृतादि भाषासु अष्टमे नोक्तं तत्सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतवदेव सिद्धम् ॥ हेतु-हिय-सूर-निवारणाय, छत्तं अहो इव वहन्ती । जयइ ससेसा वराह-सास-दुरुक्खुया पुहवी ॥१॥ अत्र चतुर्था प्रादेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि क्वचित् संस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृत उरस् शब्दम्य सप्तम्येक बचनान्तस्य उर उरम्मि इति प्रयोगी भवतस्तथा कचिदुरसीत्यपि भवति । एवं सिर । सिरम्मि सिरसि ॥ सरे । सरम्मि। सरसि । सिद्धग्रहणं ममलार्थम् । ततो घायुष्मच्छोतृकताभ्युदयश्चेति || अर्थ:-इस बाठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी आदि छह भाषाओं का व्याकरण लिखा गया है और इन भाषाओं की विशेषनाओं के साथ-साथ अनेक नियम तथा उपनियम समझाये गये हैं। इनके अतिरिक्त यदि इन भाषाओं में संस्कृत-भाषा के ममान पदों की, प्रत्ययों को, अध्ययों की आदि बातों की समानता दिखलाई पड़े तो उनकी सिद्धि संस्कृत-पाषा में उपलब्ध नियमोपनियों के अनुसार समझ लेनी चाहिये । तदनुसार मंस्कृत-भाषा सम्बन्धी सम्पूर्ण व्याकरण की रचना इस अाठवें अध्याय के पूर्व रचित सातों अध्यायों में की गई है। ऐसी भलामण अन्धकार इप्त सूत्र की वृत्ति में कर रहे हैं। सो ध्यान में रखी जानी चाहिये । प्रन्यकार कहते हैं कि 'प्राकृत आदि छ। भाषाओं से सम्बन्धित जिस विधि-विधान का बल्लेख इस आठवें अध्याय में नहीं किया गया है, उस पम्पूर्ण विधि विधान का कार्य संस्कृत व्याकरण के अनुमार ही सिद्ध हुधा जान लेना चाहिये।' जैसे:-अधः स्थित सूर्य-निवारणाय= हेट-ट्ठिय-सूरनिवारणाय-नीचे रहे हुए सूर्य की गरमी को अथवा धूप को रोकने के लिये। इस उदाहरण में 'निवारणाय' पद में संस्कृत भाषा के अनुसार चतुर्थी विभक्ति के एक वचनार्थक प्रत्यय 'पाय' की प्राप्ति हुई हैं। इस प्रार प्रत्यय 'श्राय' का संविधान प्राकृत-भाषा में कहीं पर भी नही है। फिर भी प्राकृत-भाषा में इसे अशुद्ध नहीं माना जाता है इसलिये इसकी सिद्धि संस्कृत भाषा के अनुमार कर लेनी चाहिये । प्राकृत. भाषा में छाती-अर्थक 'उर शब्द है जिसके दो रूप तो सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत भाषा के अनुहार होते हैं और एक तृताय रूप संस्कृत भाषा के अनुमार भी होता है । जैसे:-उरसि = उरे और उसम्म अथवा उरसि - छाता पर छाती में । दूमग उदाहरण यों है.-'शरस= सिरे और सिम्मि अथवा इससि = मस्तक में अथवा मस्तक पर । तीसरा उदाह या वृत्ति के अनुसार इस प्रकार से है:सर्रास = सरे और मम्मि अथवा सरसि = तालाब में अथवा तालाब पर । यो संस्कृत भाषा के अनुसार प्राकृत आदि भाषाओं में उपलब्ध पदों का सिद्धि संस्कृत के समान हो समझ कर इन्हें शुद्ध ही मानना चाहिये। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * •••••ro+m...0+00000000000000000000000000+++0000000.......... सूत्र के अन्त में 'सिद्धम् ऐसे मंगल पाचक पद को रचना 'मंगलाचरण की दृष्टि से को गई है। इससे यही प्रतिध्वनित होता है कि इस प्रन्थ के पठन-पाठन करनेवालों का जीवन दीर्घायुषाला और स्वस्थ रहनेवाला हो तथा वे अपने जोवन में अभ्युदय अर्थात् सफलता तथा यश प्रान करें। आचार्य हेमचन्द्र ऐसी पवित्र-कामना के साथ मन अत्युत्तम प्रन्थ को मामिले हैं ! वृत्ति में दी हुई गाथा का पूरा अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत:--अधा स्थित -सूर्य-निवारणाय; छत्रं अधः इव वहन्ति ।। ___ जयति सशेषा वाह-वास- दोस्विप्ता पृथिवी ॥१॥ __हिन्दी:-वराह-अवतार के तीक्ष्ण श्वास से दूर फेंकी हुई पृथ्वी शेष-नाग के फणों के साथ जय शील होती है। नीचे रहे हुए सूर्य के कारण से उत्पन्न होने वाले ताप को गेकने के लिये मानों शेष-नाग के फणों को ही छत्र रूप में परिणत करती हुई एवं इन्हें नीचे वहन करती हुई जय-विजयशील होती है। ॥४-४४८ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध इम चन्द्रामिधान-स्वोपज्ञ-शब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ इति श्री हेमचन्द्र प्राचार्य द्वारा बनाई गई "सिद्ध हेमचन्द्र नामक प्राकृत-व्याकरण समान हुई। इसमें आठवें अध्याय का चौथा पाद भी ममाप्त हुआ। इसको वृति भी मूल ग्रंथ कार द्वारा ही बनाई गई है। समाता चेयं सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासनवृतिः "प्रकाशिका" नामेति । मूल ग्रन्थकार द्वारा ही इस अष्टाध्यायी "सिद्ध हेमचन्द्र" नामक व्याकरण पर जो वृत्ति अर्थात् टीका बनाई गई हैं; उसका नाम "प्रकाशिका" टीका है; वह भी यहाँ पर समाप्त हो रही है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५६४ * प्राकृत व्याकरण * ( ग्रन्थ-कर्ता द्वारा निर्मित प्रशस्ति ) पासीविशां पतिरमुद्र चतुः समुद्र मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमयाहुदण्डः ।। श्री मूलराज इति दुर्धर वैरि कम्भि || कगठीरवः शुचि चुलुक्य कुलावतंसः ॥१॥ तस्यान्वयं समजनि प्रबल-प्रताप तिग्मद्यतिः वित्तिपति जयसिंहदेयः । येन स्व-वंश-सवितयं परं सुधांशी, श्री सिद्धराज इतिनाम निर्ज व्यलेखि ॥२॥ सम्यग निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान, जित्योपभुज्य च भूवं चतुरब्धि काञ्चीम् । विद्या चतुष्टय विनीत मति जितात्मा, काष्ठामवाप पुरुषार्थ चतुष्टये यः ॥ ३ ।। तेनातिविस्तृत दुरागम विश्कीर्ण शब्दानुशासन-समूह कदर्थितेन । अभ्यर्थितो निरवमं विधिवत व्यवत्त, शब्दानुशासनमिदं मुनि हेमचन्द्रः ।। ४ ॥ प्रशस्ति-भावार्थ:--चौलुक्य वंश में प्रधान प्रताको मूलराज नाम वाला प्रख्यात नपनि हुआ है। इमने अपने बाहुबल के आधार पर इम पृथ्वी पर राज्य शासन चलाया। इसी वश में महान तेजस्वी जयसिहदेव नामक राजा हुआ है: जाकि "सिद्धराज' उपाधि से सुशोभित था। यह अपने सूर्य-सम कांति बाले घंश में चन्द्रमा के ममान सौम्य, शान्त और विशिष्ट प्रभावबालो नर-राज हुअा है। इस चतुर मिद्धराज जयसिंह ने राजनीति सम्बन्धो चारों उपायों का-साम, दाम, दण्ड और भद' का व्यवस्थित रूप से उपयोग किया और इस धरती पर समुद्रान्त नक विजय प्राप्त करके राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया । चागें विद्याओं द्वारा अपनो शुद्ध बुद्धि को विनय-शोल बनाई और अन्त में धागें पुरुषार्थों की साधना करके यह जितात्मा देव बना। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # [ ६५ ] अति विस्तृत, दुर्बोध और विप्रकीर्ण व्याकरण- प्रन्थों के समूह से दुःखी हुए श्री सिद्धराज जयसिंह ने सर्वांग पूर्ण एक नूतन शब्दानुशासन श्रर्थात् व्याकरण की रचना करने के लिये श्राचार्य श्री हेमचन्द्र से प्रार्थना की और तदनुसार आचार्य हेमचन्द्र ने इस सिद्ध हेम शब्दानुशासन' नामक सुन्दर, सरल, प्रसाद-गुण-सम्पन्न नई व्याकरण की रचना विधि पूर्वक सम्पन्न की। [ प्राकृत व्याकरण-ग्रंथ का परिमाण २२८५ को जितना है ] हिन्दी - व्याख्याता का मंगलाचरण ( प्राकृत ) -- चत्तारि अटु - दस- दोय, वंदिया जिणवरा चडवीसा || परमदु-निट्टि - अड्डा, सिद्धा सिद्धिं सम दिसंतु ॥ १ ॥ (संस्कृत) - सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः || सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ||२|| भूयात् कल्याणं भवतु च मंगलम् - X X X X — Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIMAL VEH DHJET परिशिष्ट - भाग -: अनुक्रमणिका :फ १ - - प्रत्यय-बोध २ - संकेत - बोध ३- तृतीय- पाद- शब्द कोष रूप-सूची - ४ - चतुर्थ - पाद - शब्द - धातु कोष रूप-र -सूची • ||||||||||| 主堂 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष उत्तम मध्यम अन्य संस्कृत भाषा के संज्ञा शब्दों में तथा सर्वनाम वाचक शब्दों में एवं धातुओं में जो विभक्ति - बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं; उन विभक्ति-बोषक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत भाषा में आदेश प्राप्ति होती है। तदनुसार उन मूल प्रत्ययों की क्रमिक सूची इस प्रकार से है: (१) संज्ञा सर्वनाम - संबंधित - प्रत्यय: विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया 'चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी परस्मैपदी प्रत्यय-बोध एक वचन मि सि ति >>>O<< एक वचन सि बहु वचन मस् थ अन्ति अम् टा ( आ ) ङ (ए) इस (अस् ) स् (अस्) (इ) (२) धातु- प्रत्यय- वर्तमान-कालिक: पुरुष उत्तम मध्यम वन्य = श्रात्मनेपदी एक वचन बहुवचन जस् (अस्) शस् (अस्) (भिस्) इ से ते भ्यस् भ्यस् आम् बहु वचन महे ध्वे अन्ते नोट:- (१) प्राकृत भाषा में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का ही प्रयोग किया जाता है, अतः यहाँ पर द्विवचन संबंधी मूल संस्कृत प्रत्ययों को लिखने की आवश्यकता नहीं है; यह ध्यान में रहे। . (२) वर्तमान काल के अतिरिक्त शेष काल-बोधक तथा विभिन्न लकार-बोधक संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर जनरल रूप से और समुच्चय-रूप में प्राकृत भाषा में विशिष्ट प्रत्ययों की संप्राप्ति प्रदर्शित की गई है, अतः उन विशिष्ट और अवशिष्ट लकारों के संस्कृत प्रत्ययों की सूची भी यहाँ पर नहीं लिखी है । (३) "युष्मद् और अस्मद् " सर्वनामों के तथा अन्य सर्वनामों के सिद्ध हुए विभक्ति प्रत्यय सहित अखंड पदों के स्थान पर प्राकृत भाषा में विशिष्ट आदेश प्राप्ति होने का संविधान है, तदनुसार उन मूल संस्कृत - सर्वनाम - संबंधी पदों का स्वरूप संस्कृत-व्याकरण प्रत्थों से जान लेना चाहिये । " ᄌ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसंकेत-बोधन अक. अप. उभ. कर्म क, वकृ. अध्यय अकर्मक-पातु अप-भंश भाषा उपसा सकर्मक तथा अफर्मक धातु अथवा दो लिंग वाला कर्मणिवाच्य । कर्मणि वर्तमान-कृदन्त कृस्य-प्रत्ययान्त । कृदन्त क्रियापद क्रिया-विशेषण । धूलिका पैशाची भाषा। विलिग। देशज नपुसकलिंग। पृलिंग। पुलिंग नधुसलिंग । पुलिंग तथा स्त्रीलिंग। पैशाची भाषा। प्रेरणार्थक णिजन्त। बहुवचन । भविष्यत कुदन्त । भविष्यत-काल । भूतकाल। भूत-कृदन्त । मागधी भाषा। वर्तमान कृदन्त । विशेषण । गौरसेनी-भाषा । सर्वनाम। सबन्धक कृदन्त। सकर्मक धातु। स्त्रीलिंग स्त्रीलिंग तथा नपुसकलिग । हेत्वर्थ-कृदन्त । पृ.बी. भू.का भू. सर्व. सं.कृ. सक. स्त्री स्त्री. न. . = Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ प्राकृत-व्याकरण के तृतीय पाद में सिद्ध किये गये शब्दों की कोष -सूची (पद्धति परिचय-कोष में प्रथम शब्द प्राकृत भाषा का है, द्वितीय प्रक्षरात्मक लघु-संकेत प्राकृत शभ्य की श्याकरण गत विशेषता का सूचक है, तृतीय कोष्ठान्तर्गत शब्द मूल प्राकृत शब्ध के संस्कृत-रुपान्तर का अवबोधक है और चतुर्थ स्थानीय शी-तात्पर्य बोधक है। इसी प्रकार से प्रथम अंक पाद संस्था को तथा दूसरा अंक सूत्रों को संख्या को प्रदर्शित करते है । यो व्याकरण गत शब्दों का यह शब्द कोष ज्ञातव्य है । [ अ प्र अ ( प ) और पुन, फिर, अवधारण, निश्चय हत्यादि ३-७० । अ अ (अति), अतिशय उत्कर्ष, महत्व पूजा आदि अर्थक; ३-१७७ । अक्खराई न. ( अक्षराणि) अक्षर, वर्ण, ज्ञान, अविनश्वर; } अन्न (अन्यस्मिन् । अन्य में, अन्य पर; ३-५९ अन्तमि (अन्यस्मिन् ) अन्य में; ३-५९ । अन्नत्थ (अन्यस्थिन् अन्य में; ३-५९ । अन्नेसि (अन्येषाम् अन्यों का; ३-६१ । अन्नेमिं (अन्य साम्) अन्य (स्त्रियों का ३-६१ । ३-१३४ । पु. ( अग्नि: आग; ३-२०, १२५ 1 अप्पा पु. ( आत्मा ) वेतन तस्य जीव आत्मा, ३-५६ ॥ अंग मंगम्मि न. ( भङ्ग अंगे ) प्रत्येक अंग में; ३-१ । श्री अ. ( मासिष्ट ) बैठा, ३-१६३ । अच्छेज्ज, छज्जेज्ज, अच्छोश्रइ ( स्थीयते) बैठ जाता है; ३ १६० । ३.१४ ५७ । ३-१४ । ३-१४, ५७ । अन्ज अ. ( अद्य ) आज ३-१०५ । (हे) पं. (हे आत्मन्) हे आत्मा; ३-४९ अपणा (आत्मा) कादमा द्वारा: पण (आत्मना आत्मा द्वारा श्रवणश्रा(आत्मना आत्मा द्वारा (६) श्रज्ज ! (द्दे) अब्जो !पु. (हे मायें !) हे श्रेष्ठ ! | अप्पासो पु. ( आत्मा ) आत्मा, जीव, ३५६ ॥ हे मुनिराज ! ३-३८ । अपारण (आत्मना ) आत्मा द्वारा; ३-५७ । अमू सर्वं (अस) यह अथवा वह ३-८८ 1 अमू स्त्रीस (अस) यह (स्त्री); ३-८७ । नपुं सर्व अदः) यह; ३-८७ । अजिए स्त्री. ( है आयें ! हे साध्वीजी महा. ! ३-४१ अट्ट वि. (अष्टानाम् ) आठों का; १.१२३ अट्टराई (अष्टानाम्) आठों का; ३-१२३ । अट्ठारह वि. (अष्टादशानाम् अठारहों का; ३- १२३ । । अाइ वि. अनाचीर्णम् ) अनाचरित ३-३४ । श्रद्धा. पु. ( अध्वन्) मार्ग, रास्ता: ३-५६ ॥ अद्धाणो पु. (अध्वान्) मार्ग, रास्ता ३५१ । अन्ते वि. (अन्याः) दूसरे ३-५८ । अम्मि ( अमुमन ) इसमें इस पर; ३-५६, ८६ । अमि सर्व अहम् | मैं ३ १०५ । अम्मिस ( माम्) मुझको ३-१०७ । धम्मो . ( आश्चर्य अर्थ ) आश्चर्य -अर्थक अव्यय; ३-४१ । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्छ सर्व (वयम्। हम; ३-१०६ । असि (असीत्,आसीः,आसन्) वह तू, मैं था ३.१६४ अम्ह (माम्) मुझको; ३-१०७ । अस्स सर्व (अस्य) इसका; ३-७४ । श्रम्ह (अस्मान्) हमको; ३.१०८। अस्सि सवं (अस्मिन् : इसमें; ३-७४ । श्रम्ह (अस्माभिः) हमारे से; ३.१.० । अह सर्व (पु. अती; स्त्री असो, नपु. अदः) मह; ३-८७ । अम्दं (मम) मेरा; ३-११३ । अह सर्व अहम। मैं; ३-१.५, १४७, १४८, १६४ । अम्ई अस्माकम् ) हमारा, ३-१।४। अह (माम्। मुझको; ३-१०७ । अम्बत्तो (अस्मत्) हमारे से,३-११२ । अइयं सर्व (अहं) मैं; ३-१०५ । अहम्मि (मयि) मुझ पर; ३.११६ । अश्वा अ. (अथवा) अथवा, वा; ३-७३ । श्रम्हसु (अस्मास) हमारे पर: ३.१ ७। आहवं न. (अहितम् ) अहित; ३-८१ । अम्हाण (अस्माकम् ) हमारा, ३-११४ । अम्हाणं (अस्माकम् ) हमारा, ३-११४ । [पा] अम्हासु (अस्मासु। हमारे पर, ३-११७ । श्रागमो दि. (आगतः) आया हुआ; ३-१६, २९, ३० अम्हा सुन्तो (अस्मत्) हमारे से, ३-११२। ५०, ५२ । थम्हाहि (अस्माभिः) हमारे द्वारा, ३.११० । ] आगो वि. (आगतः । आया हुआ; ३-५५, १२४,. १२६ अमाहितो मरदा हमारे १२ : १२९ । अम्हि (अहम्) मैं; ३.१०५ । अम्हे (वयम् ) हम; ३-१०६, १४७, १४८ । अम्हे (अस्माकम् ) हमारे; ३-२६, ११४ | | सर्व (तय) तेरा; ३-९९ । श्रम्हे (अस्मान् । हमको, ३-१०८ । इसराई वि. (इतराणि) अन्य, दूसरें, हीन,जघन्म:३-१३४ । अम्हे (अस्माभिः हमारे द्वारा, ३-११० । इअरे वि. (इतराः) अन्य; ३-५८ । अम्हा (अस्माभिः) हमारे द्वारा, ३-११०।। इणमो सबै (इदम्) (एतत्) यह, इसको; 8-७९, ८५ । अम्हेसु अस्मासु। हमारे में, हमारे पर, ३-११७ । इदं सर्व (इदम् ) यह; ३-७९ । अम्हे सुन्तो (अस्मत् हमारे से, ३-११२। इमं सर्व (इदम् ) यहः ३-७२, ७७, ७८ । अम्हा (क्यम्) हम; ३-१०६, १४७ । इमो (अयम् . यह ३-७२, ७६ । अम्हा अस्मान्) हमको; ३-१०८ । इमा स्त्री. (श्यम्) यहः ३-७२, ७३ । अम्दो (अस्माकम् ) हमारा; ३.११४ । इमिश्रा स्त्री. (इयम्) पह; ३-७३ 1 अयं सर्व अयम्) यहः ३-७३ । हमे पु. (इमें, इमान्) ये, इनको; ३-७२, ७५ । । अयम्मि (अस्मिन् ) इसमें, इस पर; ३-८४, ८९ । इमिणा (अनेन) इससे, ३-६९ । अया स्त्री (अजा) बकरी; ३-३२ । इमेण (अनेन) इससे; ३-६९, ७२, ७७ । अपराण सर्व (अपरेषाम्। दूसरों का ३-६ । इमेहि (एभिः) इनसे; ३-७७ । अवरसिं सर्व (अपरेषाम्) दूसरों का ३-६१ । इमस्स अस्य) इसका; ३-७४,८! अस अक, अस) होना; ३-१४६ । इमीए, इमाए अनया) इससे (स्त्री); ३-३२ मिह (अस्मि) मैं हूँ, ३-६४६ । इमाण (आसाम्) इनकी स्त्री, ३-६१, ति (असि) तू है; ३-१४६, १८०। इमीणं, इमाणं (आसाम् } इनका स्त्री) ३-३२ । अस्थि (अस्ति) वह है ३-१४३, १४७, १४८ । । इमेति (अस्मिन्) इसमें, ३६१, ८१ । म्ही, म्ह (स्मः) हम है ३-१४७ । इमसि (अस्मिन्) इस में, ३-६०, ७४, ७५, ७६ । मासि । आसीत) वह या ३- ६४ । इमम्मि (अस्मिन्) इसमें, ३-७५, ७६ । श्रासि (आसी, आसन्) तू था; मैं घा; ३-१६४। । इह अ. (इह) यहां पर, इस जगह पर, ३-७५, ७६ । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] ५थापु तस्मा) ससे, ३-८२ । एमाहिती, एआहि, पु. एतस्मात्) इससे, ३-८२ । ईअम्मि सर्व (अस्मिन्) इसमें ३-८४ । एमाओपु. (एतस्माद) इससे, ३.८२ ८६ । एअम्मि पु(एतस्मिन्) इसमें, ३-८४ । [:] एअस्मि पु. (एतस्मिन्) इसमें, ३-६० । एक सर्व पु. (एकाः) कोई कोई एफ, ३-५८ । उच्छा पु(उक्षा) बैंस, सांड, ३-५६ । उच्छाहो पुत्साहः उत्साह. दृढ़ उद्यम, सामथ्यं एकमेक्क वि. (एककम्) प्रत्येक कोई कोई, ३-१। एकमेकेण वि. (एककेन) प्रत्येक से, ३-१ ३.८१ । सज्जोधपु. (उद्योतम्) प्रकाश को, ३-१३७ । एकेक बि. (एकैकम्) प्रत्येका, हर एक, ३.१। उज्म सर्व. (तव) तुम्हारा, ३-९९ । एत्ता अ. (इदानीम्) इस समय में, अधुना, ३ . ८२, उडम सर्व, तव तुम्हारा, ३-९९ । उम्मेहिं सर्व. (युष्माभिः) आप द्वारा ३-९५ । एत्तो अ. (अ) यहाँ पर, ३-८२,८३ । उम्छ सर्व (युष्मद् तुम, ३-२९।। एस्थ म. (अत्र। यहाँ पर, ३-८ । एनेण, एविणा सर्व. (एतेन) इससे, ३-६९ । उम्हत्तो युष्मत् । आप से. ३-९८ । मम्हहिं (युष्माभि:) आप द्वारा, ३.९५ । पलया स्त्री. (अजा मादा भेड़, ३-१२। उपह सर्व. (युष्मद्) तुम, ३-९९ । एस सर्व (एषः, यह, ३-१,८५,१४७ । सत्ता एसा सर्व स्त्री. एषा) पह, ३-२८,८५८६ । (युष्मत्) तुम से, ३-९८ । एस सर्व, पु. (एषु) इन पर, ३-७४। यदे (युष्मान् । आप को, ३-९१, ९३ । उय्हेहि युष्माभिः) आप द्वारा, ३-९५ । एमो सर्व पु. एषः) यह, ३-३,८५.८६ । एहि सर्व पु. (एभिः) इनके द्वारा, ३-७४ । सल्लिभाई वि. (आदितानि) भींजोये हुए, ३-६६ । उवकुभस्य पु. (उपकुभस्य : उपकुभ का, ३-१८ : सुधगयम्मि वि. (उपगते ; व्यतीत हो जाने पर, ३-५७ । [ओ] [3] [क] [ए] कद पु. (कवि) कविता करने बाला विद्वान् पुष, 4-१४२ । - ए सर्व (सब) तेरा, ३-९९ । कहना अ. (कदा) कब, किस समय, ३-६५ । एअं (एतद) यह, ३-८५, ८६, १३४ । काण्इं सर्व कितीनाम् ) कितनों का, ३-१२३ । एए (एते) ये, ३-४,५८,८६ । कत्ता पु. (कर्ता) कार्य का करने वाला, ३-५८। एस्स (एतस्म) इसका, ३-८१॥ कतार पु. (हे कर्तः) हे करने वाले, ३.४० । एबाप स्त्री. (एतस्याः ) इसका, ३-३२॥ कसागेपु. (कर्ता) कार्य का करने वाला, ३-४८ । एईए स्त्री. (एतस्याः ) इसका, ३-३२१ कत्थ अ. (कुत्र) कहाँ पर, ३-६५,७१ । एश्राएं स्त्री. (एतासाम) इनका, ३-३२॥ कमलस्य न. (कमलस्य) कमल का, ३-२३ । एमाण स्त्री. (एतासाम इनका, ३-६१८१। कमलामो स्त्री. (कमलायाः) लक्ष्मी का, ३-२३ । एईणं स्त्री. (एतासाम्) इनका, ३-३२ । कमजेण न. (कमलेन कमल से, ३.२४ । एपसिं पु. (एतस्मिन्) इसमें, ३-६१,८१ । कमलमुही स्त्री कमलमुखी) कमल जैसे मुख वाली, ३.८७ ॥ एआ पु. (एतस्मात्) इससे, ३-८२ । | कम्हा सर्व. (कस्मात्) किससे, ३.६६, ६८ । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] कथं कृद (कुलम् ) किया हुआ, ३-१६, २३, २४, २७, २९ | काला अ. (कदा ) किस समय में, व. ३०, ५१, ५५, ५६, ७०, ७७, १०९, ११०, ११८ काला वि. स्त्री (काला) श्याम वर्ण करने वाली, ३-३२ ॥ ११९, १२४, १२९ । कथकज्जो वि.पु. ( कृतकार्यः) जिसने कार्य संपूर्ण कर लिया काली वि. (काली) श्याम वर्ण वाली, ३-३२ । कालेयां पु. ( कालेन काल से, समय से, ३-१३७ । कासवा, कासव 9. (हे काश्यप) हे नापित, हे हजाम ३-३८ । हो ऐसा व्यक्ति, ३-७३ । कपणामी वि. (कृत-प्रणामः) नमस्कार किया हुआ, ३-१०५ । T कर - क्रिया. (कृ) करना करेमि सक. (करोमि ) मैं करता हूँ, ३-१०५ । फरसे सक, (करोषि ) तू करता है, ३-१४५ करए सक. (करोति वह करता है, ३-१४५ । काहं सक- ( करिष्यामि) मैं करूंगा, ३-१७० । काद्दिमि सक. ( करिष्यामि मैं करूंगा, २-१७० । काहिइ सक. करिष्यति) वह करेगा, ३-१६६ fear सर्व (कस्याः) किस (स्त्रि. ) का, ३-६४ | काही सक. (करिष्यति से करिष्यामः, वह करेगा से ] कीच, कीमा, कीर, कीए. सर्व. ( कस्याः ) किस (स्त्री.) प्रारंभ करके हम करेंगे, -१६२ । का, ३-६४ । कासी. सक. (कारण्यांते से करिष्यामः) वह करेगा से कोस सर्व . ( कस्य ) किसका, ३-६८ । ६-६५ । वाली, तिरस्कार का सक. ( करिष्यामि) में करूंगा. ३ ९७० । काहि सक. ( करिष्यति ) वह करेगा, ३-११६ । का अ. (ar) किस समय में, ३-६५ । किणी सर्व (कस्मात् ) किससे, ३-६८ । कित्तस्सं, कितहिमि क्रिया. ( कीर्तयिष्यामि) में स्तुति करूंगा, ३-१६९ । प्रारभ करके हम करेंगे, १६२ । कुच्छीए स्त्री. (कुक्ष्याः) कॉख से, पेट से, ३-४६ ॥ काही सक. (करिष्यति से करिष्यामः वह करेगा से कुन्ति सवं । कुर्वन्ति । वे करते हैं, ३ १३० प्रारंभ करके हम करेंगे, :- १६२ । कारे प्रेर. ( कारयति) व कराता है, ३-१४९, १५३ करव, कर], प्रेर (कारयति) वह कराता है, ३-१४९ । काराचेइ र कार+) वह कराता है. ३-१५३॥ कारावी, कराविज्जइ. का रिज्जइ र कर्मणि उससे कराया जाता है. ३.१५२, १५३ । काऊ. कृद. (कृत्या करके, : १५७ । कय वि. (कृत ) किया हुआ, ३-७३, १०५ १ कथा वि. (ऋता) की हुई, ३७ । कारि वि. कान्तिम् ) कराया हुआ, ३.१५२५० कराविश्यं वि. ( कारितम् ) कराया हुआ, ३-१५२, १५३ किया. षि अलं के साथ) | अलंकिन = अलंकृता) सुशोभित की हुई, ३-१३५ । करयल पु. ( करतल) हाथ, हथेली ३-७० । करिणी स्त्री. ( करिणी) हस्तिनी, हथिनी, ३-३२ । eo, कव्यं न. ( काव्यम्) कविता, काव्य, ३-१४२ । कह अ. (कथम्) कैसे, किस तरह, ३-५६ | कहिं अ. ( कुत्र) को पर, ३-६०, ६५ । कुमारी स्त्री. (कुमारी) अविवाहिता लड़की ३-३२ । कुरुचरा, कुरुचरो. वि. (कुधचरों) कुछदेश की रहने वाली ३-३१ । कु.लं न. ( कुलम् ) वंश, जाति, ३-८० 1 कुाि. fr. ( कुपिता) क्रुद्ध स्त्री. ३-१०५ ॥ केस मागे पु. केशभार: ) केसों का भार ३-१३४ । को सवं. (क) कौन, ३-७९ ॥ का, सर्व. (का) कौन (स्त्री.), ३-३३ । किं सर्व. (किम् ) क्या, ३-८०, १८५ ॥ के सर्व. : के) कौन ( बहु वचन पृ ) ३-५८, ७१, १४७ काम सर्व (कस्मात् ) किससे ३-६६ । काल, कीड सवं. ( कस्याः) किस (स्त्री) का ३-३३ । कं सर्व. (कम् ) किसको, ३-३३-७१ ॥ के पु. ( केन) किसके द्वारा; ३ ६९, ७१ । किरण पु. ( केन) किसके द्वारा; ३०६९ । कर सर्व. (कस्य अथवा कस्मै ) किसका किस के लिये; ३-१३ । कास स्त्री. (कस्याः अथवा कस्यै ) किसकी, किसके लिये; ३-६३ । २ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ETI . M [७] काए स्त्री (कस्या;, कस्य) किसको, किसके लिए | गज्जन्से अक. (गर्जन्ति) वे गर्थना करते हैं; ३-१४२ । किस्सा, काम, कीसे, कोश कीथा, को कीए, गपई सक.(गमिष्यामि) मैं जाऊंगा; ३-१७१, १७२ । (कस्याः, कस्बै, किसकी, किस स्त्री के लिये गय वि. (गतः) गमा हुआ, समझा हुंका; ३-१४७ । गर्य वि. (गतम्) " " - " ३-१५६ । कारण स्त्री. (कासाम) किन स्त्रियों का; ३-३३,१ आगो वि. (आगतः) आया हुआ; ३-१६, २३ फेसिप'. (केभ्यः भयवा केषाम) किन के लिये किनका २९, ३०, ५०, ५२, ५५, ९७, १११, ११८, ११९, १२४, १२६, १३६ । कुतः) कहाँ से, किस तरफ से;:.७१। स्वगम्मि बि. (उपगते) प्राप्त होने पर; ३-५७ । कत्तो, कदो अ (कुक:) कहां से, किस लरफ से; ३-७१ ॥ संगच्छ सक.(संगस्ये) मैं स्वीकार करूगाः३-१७१ । फम्हा मवं. (कस्मात्) किससे; ६-६६, ६८। संगामेई अक. (संग्रामयति) वह युद्ध कराता है; कीस, क्रिणो सवं. (कस्मात् किससे: ३-६८ । ३-१५६ । कम्मि, करिस सत्र. (कस्मिन्) किसमें, किस पर;-६५ गय वि. (गतः) गया हआ,विता हुआ; ३-१५६ । कारकीए, काहि स्त्री. (कस्याम्) किस (स्त्री) में; राशर अक(गारिवाचरति) बड़े की तरह आच रण करता है; ३-१३८ । कासु-कीसु स्त्री, (कासु) किन स्त्रियों में; ३.३३ । गरुचाइयक. (अगुरुः गुरुः भवति) बड़ा नहीं होने पर भी पड़ा जैसा बनला [ख] खमाधियं वि. (क्षमितम्) माफ किया हुआ; ३-१५२ । | गाम पु. (ग्रामः) बसति, गांव; ३-१४२ । खमासमणो पु. (क्षमाषमणः) क्षमा गुण वाला साधु; गामे पूग्रामे) ग्राम में; -१३५ । ३-३८ । गामणिपु. (हे ग्रामणी:) हे ग्राम नायक, हे गांव मुखिया खलपु चि. (हे स्खलपूः) हे खलिहान को साफ करने ३.४२ । - दाले; ३-४२, ४३ । गामणिं पु. ग्रामण्यम्) ग्राम नायक को, मुखिया खलपुरणा वि. (खलप्वा) खलिहान को साफ करमे को;३-१२४। वाले के द्वारा ३-४२, ४३ । । गामणिया (प्रामण्या) ग्राम नायक से, मुखिया खलपुण वि. (खलप्वः खलिहान को साफ से; ३-२४, १३ । __करने वाले मा; ३-४३। गामणिणो पु. (ग्रामण्य:) ग्राम-नायक का मुखिया खाणिश्रा थि. (खानिता) खुदवाई हुई; ३-५७ । का; ३-४३ । खामि वि. क्षिमितम्) खमाये हुए को;३-१५२, १५३ । गाया पु. (ग्रावा) पत्यर, पाषाण; ३-५६ । खामिज्जइ, खामीश्रइ स. कि. (क्षम्यसे) उससे गावाणो पु. (गावाः) पत्थर, पाषाण; ३-५६ । खमाया जाता है; ३-१५३ । खामेइ स. क्रिया. (क्षामयति) वह क्षमा कराता है | गिरी पु. (गिरिः) पर्वत, (रुपावलि) ३.१६, १८, १९, २२ २३, २४, १२४ । खेम. खे) आकाश में, ३-५४२ । गुण पु. न. (गुणः) गुण, पर्याय, स्वभाव, धर्म; [ग] गुणा पु. न. (गुणाः) , , , ३-६५,८१ । गई स्त्री. (गतिः) गति, गमन, बाल; ३.८५ । गुरू पु. (गुरू:) गुरू, पूज्य, बड़ा; ३-३८,१२४ । गया स्त्री. (गक्या) मादारोश, रोमड़ी, पशु विशेष "गुरू, (रूपावलि) "":"-३-३८,१२४ । गोश्रम, गोअमा, पु. (हे गौतम !) हे गौतम, ३-३८ । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोरी स्त्री. (गौरी) स्त्री, बल-सुन्दर वर्ण वाली, पार्वती ३-३२ । गोरीया, गोरीओ स्त्री ( गौर्य : अथवा गौरी: ) सुन्दर स्त्रियों को - २८ । 44 24***** ग्रह" गेरी सक. (गृह पात्) उसने ग्रहण किया; ३-०६३ । पति सक. (गृह्यन्ते, ग्रहण कर लिये जाते हैं; ३-६५ । [घ] [च] अ. (, और ३७०, ४२ । चलु ................. [ ] ******** चऊओ, उओ, वि. चतुर्भ्यः) चार से, ३-१७ चऊहि, चउहि वि. (चतुभि: चार द्वारा) ३-१७ । चऊसु, चसु वि. (चतुर्षु ) चार में चार पर ३ १७ । चिच अ. (एव) ही; ३ ८५ ८० । [ ] ३-४२३ । ३-१२२ । वि. (चतुर्णाम्) चार का; चशे वि. चत्वारः ) चार का समूह; उषीसं वि. (चतुविशतिः चौबीस, ३-३७ । चतारो, चत्तारि वि. ( चत्वारः ) चार; ३-५२२ । चष्फलया वि. (देशज) हे झूठ बोलने वाली, ३-३८ । चिक्खल्लो पु. ( देशज) कीचड़, कईम पंक, ३-१४२ । चिरस्म न. ( चिरेण ) चिरकाल से लम्बे समय से, ३-१४ चोरस पु. ( चोरस्य ) ( चोरात् चोर का, चोर से, ३ १.४ । चोरेण पुं (चोरेण) (चोरात्) चोर द्वारा, चोर से, ३-१३६ । छाड़ वि. (षण्णाम् छह का, ३ - ९२३ । छाया स्त्री. (छाया) छाया, कान्ति, प्रतिबिम्ब, परछाई, ३-३४१ 12 छाही स्त्री (छाया) ३-७,३४ । छिद्वंसक. (छेत्स्यामि ) मैं दूंगा; ३-६७१ । 28 ( ज ] जह अ. (यदि) यदि, अगर, ३- १७९,१८० । जया अ ( यदा) जिस समय, जब, ३-६५ । अणी पु. ( जनः ) मनुष्य, ३- १५० । जं, सर्व. नं. ( यत् । जो, ३-१४३, १४६ । पु. (यम् जिसको, ३-३३ । 11 जम्प वि. ( जल्पितम् ) कथित, कहा हुआ, उक्त ३-६४ । अम्हा सर्व ( यस्मात् ) जिससे ३-६६ । जय अ. ( जयति जयते) वह विजय प्राप्त करता है: ३-१५८ । " जल न. (जल) पानी ३-१६ । जलोल्लिधाई वि. (जलादितानि ) जल से भीगे हुए; ३-१६ । जहिं सर्व. ( यस्मिन् जिसमें ३-६० । जा सवं. (या) को ३-३३ । जान्ति क. ( जायन्ते उत्पन्न होते हैं। २०६५ । जाइ स्त्री (जाति) उत्पत्ति कुल ३.३८ । जाई सर्व (मान) जो, ३-२६ । जायो सर्व. ( यस्मात् ) जिससे ३-६६ । जाण सर्व . ( यासामू ) जिन स्त्रियों) का ३-३३, १३४ १ जाण्य वि. शायक ) जानने वाला; ३-९४१ । जाणं सर्वं येषाम् जिन पुरुषों) का ३-६१ । जामि, जाखामि सक. (जानामि में जानता हूँ; ३- १५४ । जामाडोg. (जामातरः जामातृन् अनेक जामाता, जामाताओं को ; ३-४४ ॥ जामाया पु. ( जामाता) जमाई, पुत्री का पति ३-४८ । जामाया पु. ( रुपावली; ३-४४, ४७, ४८, जाला . ( यदा) जिस समय में, जब : ६५ । जास. सवं. ( वस्य) जिसका ६-६ । जाहिं सर्व (यस्याम्) जिस (स्त्री) में ३-६० १ जा अ. ( यस्ति) जिस समय में, ३-६५ । जि UNIGALE .... जय किया. ( जयते) वह विजयी होता है, ३-१५८ । विश्व वि (जित जीत लिया है, ३-३८ । जिरणवराः पुं ( जिनवरा) तीर्थंकर वीतरागी ३-१३७ । जिया सर्व (येन जिससे, जिसके द्वारा, ३.६९ / Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ! ] ! ..... ! , खाजा, ३-२६ । जिससा सर्व झा-मायं वि. (ध्यातम्) व्याया हुआ, विचार किया हुआ, [८] श्रा वि. स्त्री. (स्थिता) ठहरी हुई, ३-७.। (ठ) जेम सक (जिम, जेम) भोजन करो, खाओ, ३-२६. जिला सर्व यस्याः) जिस (स्त्री)का, ३-६४। जोन सर्व यस्याः; जिस स्त्री का, ३-६४ । जोत्रा, जोइ जोउ, जाए सवं (यस्याः) जिस (स्त्री) का. ३-६४ । जीसे सर्व. (यस्या:) जिस स्त्री) का, ३-६४ । जुवा पु.(युवा) जवान, युवक, ३.५६ । जुवाण-जापु (युवा-जन:) जवान पुरुष, ३-५६ ॥ जुवाणो पु(युवा) जवान, युवक, ३-५६ । जे सर्व.(ये) जो (पुरुष), ३-५८, १४७, । जेण सर्व. (येन) जिस (पुरुष) से, ३.६९ । जेसिं सर्व. (येषाम्) जिनका, ३-६१ । जी ........................................ जो सर्व. स्त्री (या) जो (स्त्री), ३-३३ । जं सर्व. न. (यत्) जो, ३-१४६ । जं सर्व. पु. (पम् ) जिसको, ३.३३। जिणा सर्व. (येन) जिससे, जिसके द्वारा, ३-६६ ।। अस्स सर्व. (यस्य) जिसका, ३.६३ । जास सर्व यस्य) जिसका, ३-६३ । जिस्सा, जीसे, जीप, जोश्रा, जीइ, जीए सर्व (यस्या।) जिस (स्त्री)का, ३-६४ । जामो, जम्हा सर्व. (यस्मात् जिससे, ३-६६ । जहिंसर्व. (यस्मिन्) जिसमें, ३-६०। जाहि, जीए, जाए सर्व. (यस्याम्) जिस स्त्री में, | ठिध वि. (स्थितम्) ठहरा हुआ, ३.१६, २९, ३०, १०१ ११५, ११६, ११८, १९६ । ण सर्व. (तम्) उसको, ३-७७ ॥ णं सर्व. (इमम् ) इसको, ३.७७। यं सर्व. (माम्) मुझको, ३-१०७ । एगे पु. (नरः) मनुष्य, ३-३ । खाए सर्व. (अनया) इससे, .७० पाहिं सर्व. स्त्री. (ताभिः) उनसे, ३-७० । ग. सर्व. (एतान, एनान, अमून) इनको, इन्हे, ३-७७, ८७ १०७,१.८,१०१, ११०,११४ । गण, सर्व, (तेन, अनेन, अमुना) उससे, इससे, ३-७०, जे सर्व.पु. (ये) जो, ३-५८,६४७| जीओ, जीश्रो सर्व. (मरः) जो (स्त्रियाँ', ३-३३ ।। जाई सर्व. न. (यानि) जो, ३.२६ । आण सर्व. स्त्री. (यासाम्) जिनका, ३-३३ | जाण सर्व. पु.(येषाम्) जिनका, ३-६१, १३४ ।। जेसिं सर्व. पु. (येषाम् ) जिनका. ३.६१ । रोहिं सर्व. (तैः। उनसे, ३-७० । | णो सर्व. (अस्माकम) हमारा, ३-११५ । जाणमि, जाणामि सक. (जनामि) मैं जानता हूँ, । तं अ. (तत्) वाक्य-आरम्भक अध्यय विशेष, ३-८६ ॥ | तं न, सर्व. (तत्) वह, उसको, ३-८६ । जाणावेह प्रेर, (जापति) वह बतलाता है, ३-१४९ । तं स्त्री. सर्व. (ताम्) उसको, ३-३३। समणुमाणामि सक. (समनुजानामि) मैं अनुमोदन ! तेण सर्व.(तेन) उससे, ३-६९,१.५,१६० । करता हूं, ३-१७७ । तेपं स (तेन) उसस, ३-१३७ । समणुजाणेशा सक, (समनुजानामि) में अनुमोदन | तिणा सर्व (तेन) उससे, ३-६९ । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] तर सर्व पु. ( तस्य ) उसका ३-६३,८१,१८६ 1 तास सर्व पु. ( सस्य ) उसका ३ - ६३ । लाए, तिस्सा, तौसे, सर्व स्त्री. ( तस्याः ) उसका; ३-६३, ६४, ३४ । तीच तीआ, तीइ, तीए, सर्व. स्त्री. (तस्थाः ) उसका ६-६४ । तम्हा सर्व ( सस्मात् ) उससे ३-६६.६७ ताश्री सर्व ( तस्मात् ) उससे; ३-६६ तो सर्व तस्मात् उससे; ३ - ६७१ सीनता, सर्व- 1ता:) वे (स्त्रियाँ); ३ ३३० ३०१ । सं, सर्व तम् ) उसको तमि सर्व ( तस्मिन्) उसमें ३-११ । नहि सर्व ( तस्मिन्) उसमें; ३-६० । तीए, ताए, ताहि सर्व स्त्री. ( तासाम् ) उसमें ३-६० । ते, सर्व. पु. ( ते) वे ३-५८,६५,८६, १४७, ४८ ता सर्व स्त्री (लाः ) वे ३-८६ । ताण सर्व पु. ( तेषाम् ) उनका ३-६१ । ताण सर्व स्त्री ( तासाम् ) उतकी ३३३,८११ तेसि सर्व पु. ( तेषाम् उनका ३ ६१.६२,८१,१४ । नास सर्व स्त्री. (तासामु उनका; ३-६२ । तेसु सर्व पु. ( तेवु उनमें ३-० ३५ । ती सर्व स्त्री. (तागु) उनमें; ३-११८ । तय भ. ( तदा) उस समय में तब ३-६५ । लक्खा पु. ( तक्षा) लकड़ी काटने वाला बढ़ई ३-५६ । तक्खाणी पु. ( तक्षा) लकड़ी काटने वाला बढ़ई, २०५६ । तजन. (तृणम्) तिनका घास ३-३७ । सन्तोस . ( त्वत्तः) तुझसे, ३-६६ । सम्म सवं. ( तस्मिन्) उसमें २- ११ । -441 तरू ' (वलि) - ३-१६,१८,१९,२२,२३,२४ । लक्ष्य सर्व े (तस्याः उसका ३-६२ । ताला अ. ( तदा) उस समय तब, ३६५ / तास सर्व ( तस्य ) उसका ३-६२ । ताई अब. (तथा) तब, ३-६५ । तिवडा स्त्री, (त्रिजटा ) विजदा नाम की राक्षसिनी, ३-७० । तिथि संख्या वाचक त्रि. ( त्रीणि) तीन, ६-१२१ । तिह संख्या वि. ( त्रयाणाम्) तीन का, ३.१२३ । तिरहं संख्या बि. (याणाम्) तीन का, ३-११८,१२३ । I तिसु संख्या वि (त्रिषु) तीन में ३-१३५ । वीहि संख्या वि. (त्रिभिः) तीन से, ३-११८ तीतो संख्या वि. (त्रिभिः ] तीन से, ३- १८ । तिस्सा सर्व स्त्री. [तस्था: ] उसका, ३-६४, १३४ तिसु संख्या वि. [त्रिषु ] तीन में ३-३५ । ती सर्व स्त्री. तस्याः ] उसका, ३-६४ । ती संख्या [] तीन में, ३-५१८ । चतीतिरुच्या भविस्य तीन से, ३-११८। तु. सर्व. [तव, युष्माकम् ] तेरा. तुम्हारा, ३-९९, १०० । तुमं सर्व [ त्वम्, स्वाम् ] तू, तुझको ३ ९०, ९२, १४६, १४८, १६४, १७, तुमं सर्व [ त्वया ] तुझसे, : ९४ । ते सर्व [ त्वया ] [ तुभ्यम् ] [ तव] पेझसे तेरे लिये, तेरा, ३-८०, १५,६९१४ तु सर्व [त्वम्, स्वाम् त्वतु तव त्वयि ] तू, तुझको तुझसे, तेरा, तुझमें, ३ - ६०.९०, ९२,९६, ९९, १०२ । तु सर्व [तन तुभ्यम् [ तुम्हारा, तेरे लिए, ३-९९ । तुमे स [ स्वाम्, स्वया, तव त्वयि ] सुझको, तुझसे तेरा, तुझमें ३-८०, ९०, ९२९६, १९, १०२ । तुम्हे सर्व यूयम् स्वयि युष्मान् ) तुम, तेरे पर, सुम ३-९१, ९३ । ( यूयम् युष्मान् । तुम, तुमको, ३ ९१ । यूयम् युष्मान् युष्माकम् ) तुम, तुमको, ३-९, ९३ । तुम्ह सवं तुझ सर्व तुम्भ सर्व ( तुभ्यम्, तब त्वत्) तेरे लिए तेरा तुझसे ३ ९६, ९९, १०० । तुम्ह सर्वे (पूयम् तव तेरा तुम्पम् त्वत्, युष्माकम् तुम तेरे लिये तुझसे, तुम्हारा; ३-९१ । ने. (त, तु) सर्व (स्वया तुभ्यम्, तब ) सुझसे तेरे लिये तेरा, ३-८०, ९४, ९९ । तर सर्व ( तेन) उससे, ३ - ६९, १०५. १६० । तो अ. (तदा तस्मात्) तब उस समय, ३-७०-१८ः । तोसविन वि. (तोषितम् ) खुश किया हुआ. ३-१५० तोसि वि. (तोषितम् ) " " 21 ३-१५० । वर - अ. (स्वर) शीघ्रता करना, तु रामो मु-म. अक (त्वरयामः) हम बीघ्रता करते ६, ३-१४४, १७६ । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१ ] [२] तशा ............................................. तुथरए अक, (त्वरपति वह शीघ्रता करता है, ३-१४५ | दुहिश्रा स्त्री. (दुहिता) लड़की की लड़की तुवरसे अक. . खरयसि) तू शीघ्रता करता है, ३-१४५ । माहि स्त्री. (दुहिताभिः) लड़की की पूनिया तुबहसक. (त्वयत। तुम शीघका करो, ३-१७६ । द्वारा, :-३५ । तुवरन्तु बक. (परन्नु) में शीघ्रपा करें, ३-६७६ : दुहिमासु स्त्री, (दुहिताषु) लड़की की पुत्रियों तुवरेज, तुवरेजा अक्र. • त्वरयन्ति) वे शीघ्रता में ३-३५ । करते हैं, ३-१७८। दूसेइ सक, (दोषयति) वह दोष युक्त कराता है, ३-१५३ वे सर्व. (त्यया) तुमसे, 4-१४ । दे सर्व. (तब) तेरा, -९९ । देव पु. (देव) देव, परमेश्वर, ३-३८ । थाया पु. (स्तनो) दोकुष, दो पयोबर, ३-१३० । देवस्य पु. (देवस्थ) देव का, परमेश्वर का, 1-१३१ देवाय पु. (देवाय) देव के लिए, ३-१६२ । देवाण पु. (देवानाम) देवताओं का, ३-११, १३२। देवो पु. ( देवः) देवता, ३-३८ । दच्छ सक. (द्रक्ष्यामि। मैं देखूगा, ३-१७१ । देवं पु. (देवम्) देवता को, ३-११ । दमदमाह, दमदभाइ अक. (दमदायते) दम दम् देवम्मि पु (देवम्मि ) देव में, ३-१३। धाब्द करता है, ३-१३८ । देविन्दो पु. (देवेन्द्रः देवताओं का स्वामी, इन्द्र, ३-१६२ । दो संख्या वि. (द्वि) दो, ३-११९,१२० । इच्छं सक. (द्रक्ष्यामि) मैं देखूगा, ३-१७. । दोगिण वि. (a) दो, ३-३८,१२०,१३०,१४२ । दीसह सक. (दृश्यते) दिखलाई देता है, ३-१६१ । दोगष्ट वि. द्वियोः) दो का, ३-११९,१२३ । दिट्टो वि. (दृष्ट:) देखा हुआ, ३-१० । दोएह वि. (इयो:) दो का, ३.१२३ । दिट्टा वि. दृष्टाः) देते हुए, ३-१०५ ।। दोसुन्तो वि. (द्वाभ्याम् दो से, ३.१३०। शरसह सक. (दर्शयति ) यह दिखलाता है. ३-१४९ । दोसु वि. (द्वयोः) दो में, ३.११९,१३० । दमण्ड संख्या दि. (दशानाम्) दयों का. ३-१२३ । दोहितो दि. (द्वाभ्याम् । दो से, ३-११९,१६० । दहि ..."(पावलि) ३ -१६, १९, २०, २२, २३ दोहि वि. (दाभ्याम्) दो से, ३-११९ । २४, २५, २६, ३७, १२४, १२८ । दोहिं वि. (द्वाभ्याम्) दो से, ३-१३० । ना ' ............ देहि. सक. (ददस्व) तू दे; ३-१७४ । देसु. सक. (दवस्व) तू दे; ३-१७४ । धणं, न (धनम्) धन-सम्पत्ति, ३-५०,५२,५३,५५,५६,६३ दाई, दाहिमि, सक. (ददिल्ये) मैं देक गा; ३-१७० । ७९,८५,९९,१००,११३,११४,११८,१९,१२४ । दाण, पु.न, (दान) दान उत्सगं त्याग; ३-१ः। घणरस, न. (वनस्य) धन-सम्पति का, ३-१३४ । दाय, दायार, पु.(दातू) दान देने वाला; ३-३९ । घना स्त्री, (पन्या) एक स्त्री का नाम, धन्य स्त्री,३-८६ । दि सर्व. (त्वया) तुझसे; ३-९४ । चूया स्त्री. (दुहिता) लड़की की लड़की, ३-७३) दि, (तव) तेरा, ३-९९ ।। स्त्री. (धेनु) नव-प्रसूता गाय, दुधाइ-बछड़ेवाली दिघ. (विज) ब्राह्मण, ३-१६ । गाय, (रूपावलि) ३-१६,१८,१९,२०,२१,२३, विवसाणं पु. (दिवसानाम्) दिनों का। २४.२७.२९,१२४ । दुरिण वि. (४) दो, ३-१२० । [न] दुद्धं न. (दुग्धम्) दूध, खीर, ३.२९ । न अ. (न) नहीं, ३-०५,१३५,१४१.१४२,१६०,१७७, दुवे वि. (दे) दो, ३-१२०, १३० । १८०। -- . - --2inima Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] न स्त्री. (नदी), हे नइ ! हे नदि, हे नी, ३-४२ । पढि वि. (पठितम् ) पढ़ा हुआ, ३-१५६ १ नई स्त्री. (नदीम् ) नदी को, ३-३६ । नयन्दा स्त्री. ( ननान्द ) पति की बहन ३-३५ ॥ नम एक. (नम्) भार के कारण से झुकना, सक. (नम्) नमस्कार करना । लज्ज प्रे. ( वम्यते ) नमस्कार किया जाता है, ३-१६० । नविज्जे, नविज्ज, त्रे. (नस्यते) नमस्कार किया जाता है, ३-१६० ॥ वि. (नमितम् ) नमाया हुआ, ३ १५६ वि. (नतम् ) नमा हुआ, प्रणत, नम्र, जिसको नमस्कार किया गया हो वह, ३-१५६ । उन्नम वि. (देशज (?) समुन्नत, ऊंचा, ३-१०५ । मिश्रा वि. (उन्नमित) ऊंचा किया हुआ, ३-७०) नमो अ. (नमः) नमस्कार, ३-४६,१३१ । नया पु. न. (नयनानि ) आंखें ३-१०० ॥ नयरे न. ( नगरे) शहर में, ३.१३५ । न नय नवes संख्या वि. (नवानाम् ) नव (९) का, ३-१२३ । निएइ सक. ( पश्यति) वह देखता है, ३-५६ । निग्विया वि. (निर्ऋणित निर्दय, करुणा रहित, ३-३८ । निठुलो वि. (निष्ठुर ) कठोर आदमी, ३-१४६ ॥ निसन्तो सक. ( न्यवेशयिष्यः ) धारण करने वाला होता, ३-१०० । निहिं स्त्री. (निषिम् ) खजाने को, ३-१९ । नीला नीलो स्त्री. (नीला) लेश्या विशेष, नीलवणं वाली ३-५२ । [4] पहुयाई, पाणिन. दङ्कजानि ) कमलों को, ३-२६ । पज स्त्री. दे० (प्रार्थिका माता की दादी, ३-४१ । पन्चहूं संख्या वि. (पञ्चानाम् ) पाँच का ३-१२२ । पढ़ सक. (प) पढ़ना । पढाइ सक. ( पठति, वह पढ़ता है, ३-१७७ पढेज्ज, पढेज्जा, पढिदिइ सक. (पठिष्यति। यह पढ़ेगा, ३-१७७ ॥ पढाइ प्रेर. (पपते: उससे पढ़ा जाता है, ३-१६०/ पढि र पप उससे पढ़ा जाता है. ३-१६० पछि वि. ( पाठितम् ) पढ़ाया हुआ, ३-१५६ परिहाइ भक. (प्रतिभाति। मालूम होता है । ३–८० । संख्या वि. (पन्च दशानाम् ) पन्द्रही पर का, ३-१३३ । 10. AIRL WITHA पत् पाइ र (पातयति) वह गिराता है, ३-१५३ । पत्थिवाण पु. ( पार्थिवानाम् ) राजाओं का, ३-८५ । पद् *N पाए र (पादयति ) वह चलाता है, ३-१४९ । जन्ते अ. (उत्पद्यन्ते । उत्पन्न होते हैं, । पम्हुटु वि. (प्रमृष्ट) भूला हुआ, ३- १०५ । परिपु (परिभवं ) तिरस्कार को, ३.१८० । (६) पहु ! पु. ( हे प्रभो ) हे ईश्वर. ३-१८। परेि अ. ( प्रभवतः ) दो प्रभावशील होते हैं, ३-१४२ । पहू पु. ( प्रभुः) ईश्वर, ३-३८ । पावसे पु. ( प्रावृषि) वर्षा ऋतु में ३५७ पायन्तिमिल्ल न. (पदान्तेन । पाव के अन्तिम भाग द्वारा, ३-१३४ । पाया पु. (पाद) बोर, ३ १३० । पि अ. (अपि) भी, ३-१३७. (३) विश्र पु. ( हे पितः ) हे ३-३९, ४० । पिश्रो पु. वि. ( प्रियः) प्यारा, ३-८६ ॥ पिस्स वि. प्रियस्य) प्रिय का ३-१० । (हे) पिश्ररं पु' (हे पितः हे पिता, ३-३९.४० ॥ पिारं पु. ( पितरम् पिता को, ३-४४ । पिया (पितृ) रूपाव ३.३९४०, ४४, ४७. ४८ । पिच्छा स्त्री. (पितृष्वसा ) पिता की बहिन बुआ, ३-४१ । पिउरण पु. ( पितृन) पिताओं को, ३-४४ । पिट्ठीए स्त्री. ( पृष्ठे ) पीठ पर ३१३४ । पुरिसो पु. ( पुरुष ) व्यक्ति, आदमी, ३-८६८७,८८ पुरिसा पु. ( पुरुषाः ) अनेक आदमी, ३-८८ । पुहवी स्त्री. (पृथिवी) बरती, भूमि, ३-१३५ / पूरणो, पूसा पु. ( पूषा सूर्यः ३-५६ । पेच्छ पेच्छ सक. ( प्रेक्षते ) यह देखता है, ३- २० । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेच्छ, सक. ( प्रेक्ष स्व) देख, देखो, ३-४, ५.१४,१६, १८, २१, २२,२६,२८,३६,५०,५२५३, ५५,५६,७०,७९,९३,१०७, १०८, १२०, १२१,१२२, १२५,१२९ । terror. (स्व) तू देख ! ३-१७३ | पेच्छउ स ( प्रेतस्व) तू देख ! ३--१७३ । पेच्छामि सक. ( प्रेक्षे ) मैं देखता हूँ, ३-९३ । पेच्छामु सक. (प्रेक्षे ) मैं देखूं, ३-१७३ । पेम्मं न. (प्रेम) स्नेह, ३-२५ । [१३] पेम्मस्स न. प्रेम्णः ) स्नेह का ३ १०३ परणाम पु. ( प्रणामः ) नमस्कार, ३ - १०५ । [ फ] फुल्लन्ति अ. (फुन्ति) फूलते हैं, खिलते हैं, ३-२६ ॥ [] बम्हा पु. (ब्रह्मा) ब्रह्मा, विषाला ३ - ४६ ५-५६ । " बम्हाणो पु. (ब्रह्मा) बहु वि. (बहू) बहुत ३-१४१ । बालो वाला, पु. ( बालः, बालाः) बालक अनेक बालक, ३-२५ 21 विरिण संख्या वि. (aौ) दो, ३-१२० । बे संख्या वि. द्वी) दो, ३-११९,१२० । ates अ. (बिभेति) वह डरता है ३ १३४, १३६ । बीते प्रक. (विपति) वे डरते हैं, ३-१४२ बुद्धी स्त्री. (बुद्धि) बुद्धि, मति, प्रज्ञा, ३-१९, २७ (रूपावलि) ३-१६,१८,१९,२०,२३, २४, २७,२९,५८, १२४ बे संख्या. वि. (डी) दो; ३-१२० । संख्या. वि. (a) दो, अथवा दो को ३-१२० बेहि, बेहिम्तो, संख्या, वि. ( द्वाभ्याम्) दो से; ३-११९ । बेसु संख्या वि. ( द्वयोः ) दो में, ३-११९ । ये संख्या, वि. (द्वयोः ) दो का ३-११९ । अब्ववी सक. ( अब्रवीत् ) बोला, ३-१६२ । [भ] सक. (भण्) बोलना, कहना । मासिक भणामि ) मैं कहता हूँ, मैं बोलता है, ३-४१ । भामरे सक. (भणामः) हम कहते हैं, हम बोलते है, ३-०६, १५५ । भणमो, मणिमो सक. (भणामः ) हम कहते हैं, हम बोलते हैं, ३-१५५ । भणि वि. ( भणितम् ) कहा हुआ, बोला हुआ. ३-७० मणिए वि. (हे भणिते) हे कहने वाली, हे बोलने वाला, ३-४ । भक्ता पु. ( भर्त्ता पति, (रुपावली), ३.४४, ४५ । भत्तु पु. ( भर्तृन) पतियों को, (भर्तुः) पति से, पति का, ३-४४ ॥ मण भमा प्रेर. कि. ( भ्रामयति बहु घुमाता है, ६-१५१ । भरइ सक. ( स्मरति ) बहु स्मरण करता है, याद करता है, ३-१३७ । भरिमो सक. ( स्मराम:) हम स्मरण करते हैं, ३ १३४ । भवणं न ( भवनं) भवन, मकान, ३-२९ । भामे प्रेर. (भ्रामयति) वह घुमाता है, ३-१५१ । भाया पु. (भ्राता) भाई, (रुपावली) ३-४७, ४८ भार ( भावयति) वह चितन कराता है, ३-१४९ । मुत्तं वि. (भुक्तम्) भांगा हुआ, २-९५ । भो सक. भवि ( भोक्ष्ये) में भोगूंगा, ३- १७१ । भू. अक होना होसि अ. ( भवसि ) तू होता है, ३-१४५ । छोइ अ. (भवति) वह होता है, ३-१४५, १७८ । होमो क. ( भवामः) हम होते हैं, ३-१५५ होम अक ( भवामि में होता है, ३-१५४ ॥ हुन्ति अक . ( भवन्ति ) वे होते हैं, ३-२६ हासु आज्ञार्थक भव भवतात्) तू हो, ३-६७५ हांड विधि (तु) वह हो, ३-१७८ । होज्ज, होनाइ, इंज्ज, इंडो वर्त (भवति, बह होता है, ३-१७८ । होहि भवि भविष्यति ) वह होगा, ३-१७८ । होज्जड विधि ( भवतु वह होवे, ३-२७८ । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोज विधि. (भयतु) वह होवे, ३-१५९ १६५, । मइत्तो, ममत्ती, महत्तो, मज्झत्तो, सर्व. (मत) १७७, १७९। मुझसे, ३-१११ । होज्जा विधि (भवतु) वह होवे,३.१५६,१७८.१७९ ।। ममतो. ममाहितो, ममासुन्तो, मसुत्तो, सर्व'. हुम्ज विधि (भव. भवतात्) तू हो, ३.१८॥ (अस्मत्) हमारे से, ३-११२। होजइ वर्त. (भवति) बह होता है, ३.१६५ । मइ, मम, सह, मई, मझ, म , सर्व (ममा मेरा, होस,हो हिमि, होरसामि, होहामि भाव (भवि - ज्यामि) मैं होऊंगा, ३-१६६, १६७ १६९। । मझ, मज्माण, मझाणं, ममाण, ममारणं, होज्जस्सामि, होज्जासं, होज हामि, भवि (भवि- महाण महाशं सर्व(अस्माकम् ) हमारा, हमारे, व्यामि) मैं होकगा, ३-१७८ । हमारी, ३-११४ । हुवीन भूत. (अमवत) वह हुआ ३-१३। मि, मइ, ममाइ, मए, मे, स. मयि। मुझ पर, होइनइ माय, कर्म. (मूयते) उससे हुया जाता हैं, ३-११५ । (मइ, ३-१३५॥ ममम्मि, महम्मि, मज्झम्मि, सर्व (मयि) मुझ पर, होइनइ भाव, कर्म. (भूयते) उससे हुआ जाता है, ममेसु, महेसु, मन्मेष, ममसु, महसु, मासु एवं भावेइ प्रेर. (भावयति) वह चिंतन कराता है (अस्मासु) हमारे पर, हम पर, हमारे में, ३.११७ । ३-१४९ । मर-मार सक. (मारपति) वह मारताहे. ५-१५३ । होन्तो हेतु. (अभविष्यत्) होता हुआ, होता, मरं अक. क्रि. (निये) मैं मरता हूँ. ३-१४६ । ३-१८० । । मलिभाई वि. (मुदितानि । मसले हुए, ३-१३५ । होमाणो हेतु. (अभविष्यत् । होता हुआ, होता, महिला स्त्री. (महिला) स्त्री, नारी, ३-८६,८७ । पहुप्पिर अक. (प्रभवतः) दो प्रभावशील होते हैं, महिले स्त्री . हे महिलै ! ) हे नारि 1 ३-४१। ३-१४२। । महिलायो स्त्री, महिलाः) मारी गण, ३.८६ । भूमिसु स्त्री. (भूमिपु) पण्वियों में, ३-१६। | मही स्त्री. (मही) पृथ्वी, भूमि, एक नदी, छन्द विशेष, मे सवं. (यूयम, युष्मान, पया, युष्माभिः, युष्माकम् तुम, ३-८५ । तुमको, तुझसे, तुम्हारा, ३-९१.९३ ९४,९५, | महु न. मधु) शहद, :-२५ । १००,१०६ । | हे महु ! न. ( हे मधु ! ) हे शहद, ३-३७ । भेच्छ, भषि (भेत्स्यामि) मैं भेद दूंगा, :-१७१।। (रूपावलि)-३-१६,१९,२०,२.,२२,२३,२५, भमाइ, भमाडेइ, भमावइ, भमाइ, भामेह, प्रेर. २५.२६,१२४,१२८ । (धामयति) वह घुमाता है, ३-१५१ । | माश्रा स्त्री. : मातृ = माता. जननी, माना, ३-४६ । माइगणो पु. (मातृ-गणः) माताओं का समूह; २-४६ । [म] माइ-देवो पुमातृ-देव, माता रुप ईश्वर.३.४६/ माइण स्त्री. (मातृणाम्) माताओं का, की, के, ३.४६ । म्मि सर्व. (अहम्) मैं; ३-१०५। माउच्छा स्त्री., मातृष्वसा) माता की बहन,मोसी,३-४१ । मो सर्प. (वयम् । हम; ३-१०६ । माऊए स्त्री. (मात्रे माता के लिये, ३-४६।। मं, ममं, मि, झिम, मम्ह, सवं, (माम्) मुझको | मामि अ. (सखी-आम-प्रण-अर्थक) सहेली को बसाने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने वाला अम्मय विशेष. मि, मे, ममं, ममाप, ममाइ. मइ मयाइ, सर्व, ३-१.५। (मया) मुझसे, ३-१०९। मारुश्र-तणी पु. (मारुत-तनयः) मारत का पुत्र हनुमान मए, सर्व (मया) मुझसे; ३-१०९,१६० । ३-८७। ......... ... ....... ... ... Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] माला स्त्री. (माला, माला, ३-३६, ८८, १२४। । रक्खमाणं पु (राक्षसाताम्) राक्षसों का, की, के, रूपावाल "३-२७, ३०, ३६, ४१, ८८, । ३-१४२ । १२४. १२६, १२७. १२१ । रएणा पु. (राजा) राजा से, राजा द्वारा, ३-५१। मि. सर्ष. (माम् ) भुमको, ३,१०७ । रतिं स्त्री. (राविम्) रात्रि को, ३-१६७। मोल मम्मीलन्ति सक. (उन्मीलन्ति) वे खोलते है, ३.२६ । रमि सम्बन्ध कृ. (रमस्वा) रमण करके, कीड़ा मुका वि. . मुबत्ताः) मोक्ष में गये हुए छुटे हुए. ३-५३४ । करके, ३-१३६ । मुच मिवन्ति अक. (रमन्ते) क्रीड़ा करते हैं, ३-१४२ । मुन्द आशा (मुन्च) छोड़ . ३-२६ । रयणाईन. (रत्नानि) अनेक ख, मणि, ३-१४२ । मोच्छ सक. भवि. (मोक्ष्यामि, में छोगा, ६-१७ वई (रषुपतिः ) रामचन्द, ३-७० । मुगिस्स पु (मुनये) मुनि के लिये, ३-१३१ । गरणा पु. (राका) राजा द्वारा, ३-५१ । मुणीण पु.. मुनिभ्यः) मुनियों के लिये, ६-१३१ । राया पु.(राजा) राजा, नूप, ३-१३६ । मुद्धा स्त्री. (मुग्धा) मोहित हुई स्त्री, नायिका का एक रूपाल-३-५९, ५०, ५१,५२,५३५४५५,५६ । भेद, ६-२९, ८६ ॥ रायाण पु. (राजा) नृप, ३.४९, ५६,।। रूपावली-२-२१ राद पु. (राहुः) ग्रह, विशेष, ३-१८० । मुद्धा.(मूर्धा मस्तक, सिर, ३-५६ । रिद्धीनो स्त्री, ऋयः) विविध संपत्तियां, ३.५८ । मुद्धाण पु. (मूर्धा मस्तक, सिर ३-५६ । रुद-रोधछ अक. भवि, रोदिष्यामि) मैं रोगा,३-१७१। मुद्धिनाश्र, मुद्धिमाप, मुद्धिाइ स्त्री. (भुग्धिकायाः) | रुमित कृ. (रोषयितुम् क्रोध करने के लिये, ३-१४१ । मुम्बा से, मुग्धा का, ३-२९ । रेरे अ. (रे रे) अरे, अरे, तिरस्कार, सूचक अश्यप, मुह न. (मुखम्) मुह, बदन, मुख, ३-२९। ३-३८। मुहस्स न, (मुखस्य) मुख का, ३-१२४, १३४ । | रेहन्ति अक. (गजन्ते, शोभित होते हैं, ३-२२, १२४ । मुहो स्त्री. वि । मुखी) मुखघाली, ३-७० । गेइत्था सक. (रोचध्ये) तुम चाहते हो, ३-१४३ । में सर्व. (मया, मम, मथि। मुझसे, मेरा, मेरे पर.-१०९ | रोच्छ अक. भवि. (रोदिष्यामि) मैं रोऊगा,३-१७१। ११३, ११५। मेहा (मेघा.) बादल, ३.१४२ मो सर्व. (वयम्) हम, ३-१०६ । मोहो पु. (मोहः) मूलता, अज्ञान. राग, चित की व्याकुता | लभ " ३-८७ । लज्ज, लहिज्जेज सक. लिभ्यने) प्राप्त किया म्मि सर्व (अहम्) मैं ३-१०५ । जाता है,५-१६० । मह, म्हि म्हो, अक्र. कि. (अस्मि स्मः) मैं है, हम हैं, लद्धो पि. (लम्धः) प्राप्त किया हुआ, ३-१३४ । लद्धन. वि. (लन्ध प्राप्त किया हुआ, प्राप्त,३-२३ । लहपु. (लघु) छोटा, हल्का, एक मात्रा वाला अक्षर, या-जामि अक. (यामि मैं जाता है, ३.१५७ लहुआइ सक (लघुकरोति) यह छोटा करता है, ३-८७। [२] लिख ............................. रईआरईज रईहिन्तो स्त्री. (रत्या, रत्याः, गत्याम्) | लिहामि, लिमि सक. (लिहामि) मैं लिखता हूँ, रति से, रति में, ३.२९ । मैं रेखा करता हूं, ३-१५५ । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. (नम् ) काटा हुआ, छिन्न, ३-१५६ । (ज) लोए पु. ( हे जित लोक !) हे संसार- विजेता, लोहियाइ, लोहिया होता है, ३-१३८ । [व] [ १६ ] ३-१८। अक . ( लोहितायते ) वह लाल rilled वच् बोच्छु सक. भवि. ( वक्ष्यामि) मैं कहूँगा, ३-१७१ । चुश्च भावे प्रयोग वर्त. (उच्यते ) कहा जाता है, ३- १६१ । खाऊ पु. ( वायवः) विविध हवाएं. ३ २० । रूपावलि -- ३ १९, २०, १२५ १२९ । एवा प्रेरक (पातयति, वह गिराता है, २-१७७ । बाणि पु. ( वाणिज) बनिया, ब्यौपारी, ३-७३ । वाय पु. ( गायत्र) विविध हवाएँ, ३२० । बच्छो पु. ( वृक्षः) वृक्ष, तरु, ३-२, २१ । वा पु. ( वायवः विविध हवाएं ३-२० । पु. ( वृज्ञान) अनेक वृक्षों को, ३-२०,२६ । ( वृक्षाः बायावज्जा प्रेर. सक. पाठयेत) गिरावे, ३-१७७ १ वृक्ष, ३-४ । वि. अ. (आप) भी, ३-८५, १४२ । बच्चे पु. ( वृक्षात् ) अनेक वृक्षों की, ३-४, १४, १८, २६ । विष्ाडि स्त्री. ( वितदि) वेदिका, हवन-स्थान, चतरा, वच्छं पु. ( वृक्षम् ) वृक्ष को, ३-५ । बन्द पु. ( वृक्षस्य वृक्ष का ३.२९ । वच्छे पु. ( वृक्षान्) वृक्ष को, ३-४, १४, १८, २६ । वच्छाश्री पु. ( वृक्षात्) वृक्ष से, ६-८ । मच्छे, वच्छे पु. ( बुझेन) वृक्ष द्वारा, वृक्षो से, १-२७ । सु, वच्छ' पु. ( वक्षेषु) वृक्ष में ३-१५,१६ । रूपावलि - ३ २, ४, ५, ६, ७, ८, ९,१४, १२, १३, १४, १५, १६, १८, २०, २१ २२, २६, २७, २९, १४७ । वर्ण न. ( वनम् ) जंगल, ३ २५, ७, ८८ * वाई, वाणिन. (वनानि ) अनेक जंगल, ३-८८ जो वि. (वर्णनीयः ) वर्णन के योग्य, ३-१७९ । वसुधासि अक (उदास) तू सूखता है, ३-१४५ । इस बहाउ, बद्दाय न. ( वधाय) मारने के लिये, ३-१३३ । बहु स्त्री. (वधू) बहू ३-४२ बहुं स्त्री. ( वनम् ) बहु को, ३-६२४ । रूपावनि -- ३ २७.२९, ३६, ४२, १२४ । बाउणरे पु. ( वायव विविध हवाएँ (वायून) हवाओ को, ३-२० । ३-५७ । पु. ( विकारः ) विकृति प्रकृति का विपरीत परिणाम, ३- २३ । fanger अ. (विभ्यन्ते) विक्षोभ करते हैं, चंचल हो उठते है, ३-१४२ । विज्जुज्जोयं न (विद्युत् प्रोतम्) बिजली का प्रकाश, ३-१३७। विज्जेज्न प्रेर. (विद्येत ) पाया जाता है, ३-१६. विद्धा वि. (विद्धा) मैं बींची गई, ३-१०५ । विरिण, वेणि संस्था वि.द्वि.) दो ३१२० । विसुद्वेण वि (विशुन) निर्दोष से, निर्मल से ३-३८ । विहि वि. (बिहितम् ) जिसका विधान किया गया हो बह, शास्त्रोक्त ३-४६ । बिहु पुं (विधुः) चाँद वायु कपूर; ३-१९ दे संख्या वि. हि दो ३-१२०१ (नि) सन्तो क्रियासि० ( न्यवेशयिष्य: १ (निवेसन्तो धारण करनेवाला होता : १८० । वेच्छं भवि. स. (वेदिध्यामि) मैं जानूँगा, ३ ०७१। aa (कांपना) रूवलि ३-०३९ १४३, १४५. १८०,१८२ । 17 17 " मि सक. ( वन्दे ) मैं वन्दना करता हूं, ३-९२ । धन्दे क. ( वन्दे ) ३-४६, १३४ । बय न. ( वचनं ) उक्ति कथन, वचन ३ २९ । ईन. ( वचनानि) उक्तियाँ विविध कथन, ६-२६ । वयं सर्व. ( वयम् हम, ३-१०६ । - सामि अ. ( वसामि मैं वास करता हूँ, ३-१३५ । वसुधा अ. (उद्धति) वह शुष्क होता है, वह सूखता है वेबिरीए स्त्री (वेपनशीलायाः ) काँपने बालों की ३-१४५ । २-१३५ ॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेसु संख्या. वि. (दयोः) दो में; ३.१.६। सम्वे वि. (स) सब, ३-१४७ । बेहि. (हिन्तो,) संख्या वि. (द्वाभ्याम् ) दो से, दो द्वारा; पवाण वि. (सर्वेषाम्) सभी के, ३.८५ । मन्याहिं वि. (सर्वस्मिन्) सब मैं, सब पर ३-६०1 ग सर्व (मुख्माकम् तुम्हारा; ३-१००। सम्वत्थ वि (सर्वस्मिन्) सब में, सब पर, ३, ५९,६०। खांच्छ भवि. सक. वक्ष्यामि) मैं कहूँगा -१७१ । सवाण वि. (सर्वेषाम् ) सब का, सभी का; ३-६१ । सप्सहरस्त पु. शशधरस्य) चन्द्रमा का, ३-८५ । [श ] मसा स्त्री. (स्वसा) बहिन, भगिनी. ३-३५ ।। सहन्तो क्रियातिपति अक. (असहिष्यथा) सहन करने वाला शाम ........ ........... होता, -१००। उवमामेइ, उनसमावह, उवसमावेड, प्रेर, न. | सहाओ पु. (स्वभाव:) स्वभाव, प्रकृति, निसर्ग, ३-८५ । । उपशामयति)-वह शान्त कराता है; ३.१४९। सहि स्त्री. (सखी) सहेली, संगिलो, (रूपावनि) ३-२७.२९ शुष् सूसइरे अक. (शुष्यति ) सूखता है; ३-१४२ । | महिएहि वि. (सहयः) सुन्दर विचार वाले पुरुषों द्वारा सोपिअ वि. (पोषितम् सुखाया हुआ; ३-१५० । सोसवि वि. (शोषित्तम्) सुनाया हुआ; ३-१५० । | सहिप्राण वि. (सहितेभ्यः) सहितो से, साथ वालों से, सुण, सुरणेत. सुणाउ, विधि.णिोतु। वह सूने सा स्त्री. सर्व. सा) बह (स्त्री), ३, ३३,८६, १७३ । सोच्छ भवि. सक. (श्रोष्यामि, मैं सुनेगा; ३-१७ । सा पु. बबान) कुत्ता, अथवा कुतिया,,३.५६ । रूपावलि """"३. ७२ । साणो पु. पवान) कुत्ता, ३-५६ | साम्लीए स्त्री. (श्यामलया) श्यामा स्त्री से, ३-१५३ । [म] सायरे पु. (सागरे) समुद्र में, ३-१४२। साइड, साहो पु. (साधवः) अनेक साधु, ३.२१ ॥ स. सर्व. (सः) यह ३-३। साइणा, साहणो स्त्री. (सायनी) उपायवाली, हेतवाली, सकं अक. (शक्नोमि) में समर्थ होता है; ३-१४९ । सगच्छ भवि. (संगस्ये) मैं साथ-साथ जाऊँगा;:.१७१। सारसी स्त्री. (साहस्त्रीणाम्) हजारों की, ३-१२३ | सतराह दि. (सतृष्णः) दृष्यावाला; ३-1२३ । | साहू पु. (साधुः) साधु, महावतो, ३.२१ । सत्तरह. सत्तण्ड संख्या. वि. (सप्तानाम्) सात का; रुपावलि-4-२१ । ३-१२३ ।। सि अक, (असि) तू है, ३-१४६।। ममम, पु. (समये) समय में; ३-१३७ । सिं सर्व. (एतेषाम्) इनका, इनकी, ३-८ । समण पु. श्रमण) साधु, भिक्षु, ३-१२। सिरं न. (चिरस्) मस्तक, सिर, ३-८५ । समणि स्त्री. (हे श्रमणि! ) हे साच्ची! ३-४२।। सीश्रमत्तएं न. (शीतलत्वम्) ठंडकपना,३-१०। समाजाणाम, सम्णुजाणेजा, सफ (समनु बानामि) सीमापरसपु.(सीमाधराय) मर्यादा वारक के लिये मैं अच्छी तरह से जानता हूँ; :-१७७ ।। ३-१३४ । समन्नि वि. (समन्वितम् । युक्त, सहित; ३-४६ ।। मोल न. (शीलम् । प्रह्मचर्य, प्रकृति, स्वभाव, सदाचार, समिद्धि स्त्री. (समृद्धिः) समृद्धि, धन, सम्पत्ति ३.२३ ।। ३-८१। सम्म न. (शर्मन् शर्म) सुख, ३-५६ 1 | सुश्रो पु. ( सुतः) पुत्र, लड़का, ३-३५ । सव्वं वि.-रूपावलि"३-५८, ५९, ६०,६१ । 'सुकमाणे, मुकम्माणो पु. (सुकर्मणः) अच्छे कामों को, सव्वस्स वि. (सर्वस्य, सब के, ३-८५ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] सुप्पाहा, सुष्षणही स्त्री. (शूर्पणखा) एक स्त्री का नाम | ३-३२। ई. सर्व. (अहम् । मैं, ३-१०५। सुई. न. (सुखम्। सुख, आराम, चन, ३ २६, ३०। । इत्या पुं. इस्तौ) दो हाथ, ३-१३० । सूसहरे अक. (शुष्यति) सूखता है, ३-१४२ । हत्थुण्णामिश्र वि. (हस्तोन्नामित) जिसने हाथ पर झुका से सर्व. (अस्य इसका; ३-८१, १८० । रवा हो वह, ३-७० । मी सर्व. (स: बह; ३-३, ५६, ८६, १४८, १६४ । इणि पु. (हरिण) हरिण, मृग, ३-1601 सोचाइ अक. (शोचति, वह शोक करता है, ३-७० । हरिहगे, पु. ( हे हरे ! } हे हरि ! हे महादेव. २-३८ । हरिण! पु.(ह हरिणादू! हे चन्द्र. ३ १८० । सोच्छं भविः सः (शोमामि। मैं सुन गा. ३-१० , हरिशाश्वं पु. (हरिणाधिपम्) सिह को. मृगराज को. १७२ । -१८ स्था इलहा स्त्री. हरिद्रा, हल्दी. औषधि-विशेष २-१४ । चिद्रइ अक. (तिष्ठति बह टहरता है, ३-७९१ लहरो स्त्री. (हरिद्रा) हल्दी. औषधि-विशेष. :-३४ । ठासि अझ निष्ठसि) तू ठहरता है. ३-' ५। । हस-(धातु- हंसना) रूपावलि-३-२८.२ ६. ५३९. ठाइ अक. (तिष्ठति : वह ठहरता है, ३-१४५ । ठामो अक. (तिष्ठामः) हम ठहरते हैं, ३. १५५ । १५६. १५७, ५८. १५९. १६०, १६६. १६९, ७६, १७५. १७७. बिह अक. (तिष्ठषः अथवा तिष्ठत) तुम ठहरते १७८ १८१. १८ । हो तुम ठहरो, ३-९ । इसह अक. हसति) वह हंसता है; ३-८७ ।। चिट्ठन्ति अक. (तिष्ठन्ति) वे ठहरते हैं, ३-२०, हासिमा प्रेर (हाशिता) हँसाई गई है. हॅसाई हुई। २६, २८, ५०, ५२ ५५, ५६, १२२, १२४ । ठासी, ठाहा, ठाहीन, अक, (अस्थात्, अतिष्ठन् हाहाण पु. (हाहानाम्) (हाहाभ्य:) गन्धर्व जाति के तस्यौ) वह ठहरा था, वह ठहरा, वह ठहर चुका था, देवों का गन्धर्व जाति के देवों के लिये ३-१४ । २९ । हिप्रय न. (हृदय) हृदय,२-१४५ । ठाही, अक. (तिष्ठ, तिप्ठः, तिप्ल्याः ) तू टहर, एण न. (हृदयेन) हदय से, ३ ८५ । -१७५ । इन्ति अक. (भवन्ति) वे होते हैं, ३२६ । ट्रिश्रा, वि. (स्थिता) ठहरी हुई. ३-७० । हश्यं वि. (हृतम्। होमा हुआ, हवन किया हुआ, ३-१५६ । ठि वि', स्थितम् रहा हुआ. :-२२, ६०, होइ अक. (भवति) वह होता है, ३ . १४५ । १०१, ११५, ११६, १६८, १११ १२९ । होजज विधि. अक. भवतु) वह होव, ३-१५९, १६५, ठिया वि. (स्थिताः) रहे हए, ३-१२०, १२।। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-पाद की शब्द-सूची (अ) बइ उप. : अति) बहुत. ४२५ । अंकसह पु. (अकुशानाम् अकुशों का, ३४५, ३८२ । अच्छइ अक्र. (गच्छति) बह जाता है. १६२ । | ४ग-अङ्ग (अङ्ग) शरीर के अंग ३३२ । वाहतुङ्गन्तणु न, (अतितु मत्वम्) बहत ऊचापना,३९० । | अंगहि पु. (बङ्ग) शरीर के अंगों से. ३३२ । अहमत्त वि. (अतिमतानाम् । बहुस मस्स, पागल हुओं अंगे पु.(अगे. अग पर, अंग में, ६३ । का, ३५५ । ! अंगुमह सक (पूरयति) वह पूर्ति करता हैं,वह पूरता अरदिप वि. (अतिरक्तया) बहुत लाल रंग वाली हुई १६९। से; ४२८॥ अंगुलित्र स्त्री. (अगुल्यः) अंगुलियां, अइसो वि. (ईदृशः) ऐसा, ४०३ । अंगुलिश्री स्त्री. (अंगुल्म:) अगुलियाँ ३४८ । अईइ अरु. (गच्छति) वह जाता है; १६२ । अचिम्तिश्न वि. {चिन्तिता) बिना सोची हुई ४२३ । अंसुन. (अश्रु) आंसु ४१४, ४३१ । अच्छ, अच्छा अ आस्ते) बैठता हैं, २१५, ३८८ । अहि पु. (अनि) पाय, पैर; • ८८ । अच्छते, अच्छति अक । आस्ते) बंटता है, अकन्दइ अक, थाक्रन्दति) बह रोता है, यह चिल्लाता | अच्छदे,अच्छादि अक. (आस्ते) बैठता है, २७४ । है; १३१॥ अच्छउ अक. बैठे ४०। अकमइ सक. (आक्रमते) बह आक्रमण करता है, वबाला | अच्छ दि. (अच्छ) स्वच्छ, ३५० । है। १६० । ! अच्छि अक. (आस्स्य ) तू बंट, ३८८। अक्कुसइ सक. (गच्छति, वह जाता है; १६२ । । अच्छिन्दइ सक (आच्छिन्ति। वह थोड़ा छेद अक्खण ब. क. [आख्यातुम] कहने के लिये; २५०। करता है, १२५ । अक्खिवह सफ. [आक्षिपति] वह प्राक्षेप करता है:१४५ । अज्जो पु. ( आर्यः ) श्रेष्ठ पुरष, २६६ । अक्सिहिं पूस्त्री.न.[अक्षिभिः] आंखों से; ३५७,३९६ । अब्ज अ. (अध ) आज, ३४३, ४१८॥ श्रक्वाडेइ सक. [कर्षति] म्यान से तलवार को खींचता, अश्वा सक. (कर्षति) वह खींचता है, जोतता है, है, १८८॥ अखद वि. (अक्षये) नाश नहीं होने पर, ४१४। | अब्यदिशं स्त्री. । अन्य दिर्ग। दूसरी दिशा को, २९३ । श्रगान. [अन] आगे का भाग, ऊपर का भाग, ३२६। अभयली पू. स्त्री. अिजलि:) हाय का संपुर. २९३ । अगदी अ. [अनतः] आगे से सामने. २८३ । । अब्बातिसो वि. (अन्यादृशः) दुरारे के जैसा, २९३ । अगह म. (अमवः) आगे, सामने, ३९१, ४२२ । । अट्टइ-परिचट्टाइ सक. (अटति, पर्यटति) घूमता है, अग्गल पु. वि. (अग्रलक:) सामने वाला, ३४१ । २३०॥ अम्गल पु. (अर्गलः) किवार बन्द करने की लकड़ी,४४४।। अदृद्ध सक. (क्वथ्यते) वह क्वाय करता है, ११२ । अग्गिदउ वि. (अग्निष्ठः) आग में रहा हुआ, ४२९ । | अडोहित वि. (अनवगाहितम्) नहीं स्नान फिया हुआ, अम्गी पु. स्त्री. (अग्नि) आग, वह्नि. ३४३, । ४३९ । अग्घह अक. (अहति) वह योग्य होता है, ३८५। | अक्खा सफ. (क्षिपति फेंकता है, अम्बइ सफ (राजते) वह शोभता है, चमकता है, १०० । गच्छह सक, कर्षति) म्यान से तलवार को खींचता है, अग्घायइ सक (आजिघ्रति) वह सूघता है, ९३ । १८७॥ अग्घाड़ा सक. (पूरयति, यह पूर्ति करता है, पूरा करता अणन्तर वि. (अनन्तर ) व्यवधान रहित, २७७ ॥ १६९! अपाल पु. (अनल) अग्नि, ३९५, ४१५, ४२९ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [..] प्रणाइजइ कर्मणि (न ज्ञायते) नहीं जानाजाता है,२५२ । | अन्नह अ. (अन्यत्र) अन्य स्थान पर, ४९५ । अगुत्तर वि.( अनुत्तर ) श्रेष्ठ, ३७२ । अन्नाइमी वि. (अन्यादृशः। दूसरे के जैसा, ४१३ । अणुदिनहु न ( अनुदिवसम् ) प्रति दिन ४२८ । । श्रपुरष वि. (अपूर्व) अनोखा, १७ ॥ अणुरत्ताउ वि. (अनुरक्ताः ) प्रेम में लगे हुए, ४.२। अपुरष बि. (अपूर्वम्) अनोखा, २७० । अणुबच्चइ सक. (अनुमजति) वह अनुसरण करता है। अपुरवे वि. (अपूर्वम्) अनोखा, ३०२ । अपुन वि. अपूर्व, अनोखा, २७० । अगुवजह अक. ( गच्छति ) जाता है, १६२। अपुरह वि. ( अपूर्ण) अपूर्ण में, ४२२ । अण्हइ सक. ( भुनक्ति ) खाता है, ११०। अप्पय वि. (आत्मीयम्) खुद को, ३५०, ३६७, अति? वि. (अदृष्ट) नहीं देखा हुआ; ३२३ । ४२२, ४३० । अत्ता पु. (आत्मा) जीव, आत्मा; १२३ । अपच सर्व आस्मान) अपने क्रो; ४२२ । अत्थ न. (अर्थम्) बात को । ! अप्पणा सर्व. (आत्मानं) अपने फो; ३३८, ३५०, अस्थमणि न. (अस्तमने अस्त होने पर; ४४४ । ३६७। अस्थाहिं न ( अस्त्रः) अस्त्रों से; ३५८ । अप्पण पु. (आत्मना) खुद के द्वारा; ४.६ । अहमागह वि. (अर्ध मागध। अर्ध मागधवाला; २८७ । अापण पु. (आत्मीयस्य) खुद के, ४२२ । अध अ. (अथ) अब, बाद; ३२३ । [ अपणु पु. ( आत्मानं । खुद को, ३३७ । अषण वि. ( अन्य ) पुण्यहीन, ३६७ । अपणा पु. ( भात्मन: } खुद के, ३०२। अधिनाई बि. (अधीनानि) वश में रही हुई, ४२७ । अपहो पु. ( आत्मनः) खुद के, ३४६ । अनउ पु. (अनयः) बनीति, अन्याय, ४०.। अप्पाणु पु. (आस्मानम्) अपने को, २९६ । अनु अ. ( अन्यथा । नहीं तो, ४१५ । | पाहइ सक. (संदिशति) वह संदेश देता है, अन्तरु न. (अन्तरम्) मध्य, भीतर, ६५०, ४०६, ४०७. ८.1 अप्पिए वि. ( अप्रिये ) जो प्रिय नही हो, अन्तेप्रारि वि. (अन्तश्चारिन् । बीच में जाने वाला, २६५ । २६४ । | अाफुरुषो भूत. कृ. (आक्रान्तः) दबाया हुआ, २५८ । अन्त्रडो स्त्री. अन्न) आंतड़ियाँ ४४५ । अफलादया स्त्री (अफलोदया) जिसका फल उदय अन्दावेशी स्त्री. (अन्तर्वेदी) वेदी का आंतरिक भाग, में नहीं आया हो, २८३ । २८६ । | अवम अ. अब्रह्मण्यम्) पाप, २९ । श्रन्देउ न. (अन्तःपुरम्। रानियों का महल, २६१ । अभडचिउ (सम् अथवा अनु) (अनुगम्य , पीछेअन्धारइन. (अन्धकारे) अन्धकार में, ३४२ । पीछे जाकर, २९५ । अन्न, निलिंग. वि. ( अन्य ) दूसरा, ३७२ । अदमणि न (अभ्यर्थंने ) प्रार्थना में, मांगने में, अन्नु विलिग. वि. ( अन्य ) दूरा, ३३७. ३५०, ३८४ । ३५४, ४०१, ४१०, ४१४, ४१८, ४२२ ॥ अभान(अभ्राणि) मेघ, बादल, आकाश, अन्नं वि. (अन्य) दूसरे को, २७७ । अन्ने वि. (भन्ये) दूसरे में, ३७. अमिखाइ सक. (संगच्छति) साथ-साथ जाता है, अन्न सर्व. (अन्यस्याः ) दुसरी के लिये, ४२५ ।। ३८३। अन्नहि सवं, (अन्य स्मिन्!) दूसरी में, ३५७, ३८३, अभुद्धरणु न. {अम्युचरणम् ) उबार, ३६४ । ४२२॥ श्रमउ न. (अभयम् ) भय रहित, ४४०। अन्ने सर्व. (अन्ये) दूसरे ही (दो), ४१४ । । अभग्गु न. (प्रभग्नम्) नहीं टूटा हुमा, ३८७ । अन्नई सर्व अन्यानि) दूसरी, ४२७ ॥ | अभिमन्ध पु. (अभिमन्यु: अर्जुन का पुत्र, ३०५ । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] श्रमच पु. अमात्य ) मन्त्री, प्रधान, ३०२। | अले अ. (अरे) संबोधन सूधक अव्यय, ३०२ । श्रम सर्व. ( अमुम् ) उसको, ४.९ । अजत्थईसक (उत्क्षिपति) वह ऊचा फेंकता हैं, १४४ । अम्बणु न. (अम्लत्वम्। खट्टापन, ३७६ । अलिअह सक. (उपसर्पति) समीप में जाता है, १३९ । अम्मडि स्त्री. ( अम्बा माता, ४२४ । अलिवइ सक, (अर्पति) वह अर्पण करता है, ३९ । अम्म अब. (हर्ष निपातः) हर्ष व्यक्त करना, अल्लीबह सक(आलीयते) वह आता है, जोड़ता है.५४ । २८४, २०२। अजीण वि. । आलीन: : भेंटा हुआ, आगत, .५४ । अम्मि स्त्री ( अम्बा ) माता ३९५. ३९६ । अयशकइसक, । पश्यति) वह देखता है, १८१ । अम्मी स्त्री. (हे अन । हे माता ३९६ ।। अवच्छइ सक.हि लादयनि) बह खुश करता है, १२२ । अम्हई सर्व. (वयम् । हम । अवश्राम सक. [प-ति) वह देखता है, १८१ । अम्हा सर्व. (अस्माकम् ) हमारे, ३७९. १८० | श्रवक्ख सक (पश्यति) बह देखता है, ४१७.४२२, ४३९॥ अवगुणु पु. (अवगुणः । स्वराब आदत, अम्हासु सर्व. ( अमासु हमारे में, ३८१ । अवरजसइ सक. (गच्छति) जाता है ६२ । अम्हा सर्व. (अस्माकम् ) हमारे, ३००। अकया स्त्री अवज्ञा) अनादर. २९३ । अम्हे सर्ब. (वयम् अस्मान) हम, हमको. ३७६, श्रवडयाड न. (अवटतटे, कुए के किनारे पर, २३९ । ४२२ । अवस्थाई स्त्री. (अवस्थानाम् ) अवस्पानों का, ४२२ । अम्हहिं सर्व. ( अस्माभिः ) हमारे से, ३७१, ३७८, अवयच्छह सक. (पश्यति) वह देखता है, १८५ | अवयमा सक, (पश्यति) बह देखता है, १८ । अम्हातिसो वि. (अम्मादशः) हमारे जैसा. ३। | अवयास सक. दिलष्यति वह आलिंगन अम्हारी वि. (अस्मदीय) हमारा, ३४५, ४६४। करता है. अयं . ( अयम् यह, अवश्य वि. (अवद्य नहीं मारने योग्य, ८८. अयछह सक. (कर्षलि म्यान में से तलवार खींचता अवगामी वि. (अन्याद्दश:) दूसरे के जैसे. ४१३ । अबराहित वि. (अपराधितम्) अपराध किए हुए अश्य अव. ( अद्य ) आज, २९२ । को, ४४५ । अय्य वि. ( आर्य ) श्रेष्ठ, उत्तम, ३.३। अवनि प्र. (उपरि ऊपर अय्यो वि. (आर्यः) , , २७७ । | प्रवरेश वि. (अपरेण) दुनरे से, १९५ । अय्य उत्त पुं. (आयं पुत्र) पति, भर्ता, २६६ । अवपररु वि. (परस्परम्) आपस में, अय्यरत्तो पु. (आर्य पुत्रः । , २६० । अवशल अक. (अपसर) दूर हट, अय्यमिस्सेहिं वि (आर्य मिश्रः) पाप श्री से, २८३ । अवम वि. (अवश) जो काबू में न हो, ३७६, ४२७ श्रय्या स्त्री. ( आयो श्रेष्ठ. उत्तम, ३०२ ! अवसर पु. (अवसर) काल, समय, मौका, ३५८ । अय्युणे पु. ( अर्जुनः ) पांढब, अब प्र. अवश्यम्) अवश्य, जरुर, निश्चय, ४२७ । अप सक, (अप्पे ) अर्पण करे, स्व सेहइ सक. गच्छनि) बह जाता है, १६२, १५८ । अरे अ० ( अरे संबोधन सूचक अन्यय, ४.८॥ | श्रवा सक. रचयति) वह बनाता है, ९४ । अर्ज सक. (प्रज्जह) कमाता है. १०८। अवहर अक. नश्यति) वह भाग जाता है,१६२,१७८ । अग्जिमा सक. , अय॑ते) कमाया जाता है; २५२। अवहाव सक(कृपां करोति) कृपा करता है, १५१। अलं अ० (अलम्) बल, साप्त करो, २७८। | अवहेडइ सक (मुवति छोड़ता है त्याग करता है,९१ । अलहन्तिबहे स्त्री. (अलभमानाया) नहीं प्राप्त उभयबलम् आई। दोनों बल, हुई का, उभयो काल दोनों समय,१३८ अलिबलाई न. (अलिकुलानि) भम्ररों के समूह, ३५३६ | अवुझाइ सक. विज्ञापयति) सूचना करता है. ३८ । है, १८७। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ 1 श्रम २६६। बागमे पु. (आगमः शास्त्र, आना, ३०२। शि (असि) तू है. २०२।। आचस्कदि सक. : आचष्टे) कहता है, २९७ । " त्थु अस्तु। होवे, २८३ । ।आप सक. ( आरभ्यते) शुरु किया जाता है, " सन्ता वि. (सतः) होते हुब को, ३८९ । . असइहिं स्त्री (असतीभिः । खराब स्त्रियों में, २९६ । यादवह सक. ( आरमो) शुम करता है. १५५ । असाइलु वि. (असाधारण:) जो सामान्य न हो, ४२२। । श्राढवोथइ सक. (आरभ्यते) शुरु किया जाता है, असणु न. (प्रशनम्) खाद्य, खाना, २५४ । असारु वि. (असारः) सार रहित. ६९५ । : आगन्दु पु. ( आनन्दः ) खुशी, प्रसन्नता, ४०१ । असुलह वि. (असुलभः) जो कठिन हो. ३५३ । । आणहि सक्र. ( आनम) लाओ, २४३ । असेसु वि. (अोषम, निःशेष, सबा ४४.। | आदनई विशे, (व्याकुलानाम् . घबड़ाये हुओं का. अस्तबदी पु. । अर्थपति ) धन का स्वामी, २९१ । ४२२। श्रह अ. (अर्थ) अब, ब दें, ३३९, ३४, | आदाइ सक. (आद्रियते) आदर किया जाता है। ८४ । ३६५,३६७, ७९ ३८०, ३९०, श्राप ४१६, ४१७, ४२२ ४४२,४४७ । परि-ज्जत्त वि. (पर्याप्तम) काफी ३६५ । अहं सर्व. ( अहम् ) मैं, ३०२। प्र-पादेमि सक, (प्राप्नोमि)मैं प्राप्त करता हूँ। अहरू पु. ( अधरः ) होत, ३३ । अहवाइ अ. (अथवा ) या, अथना, ४.९। परवा सक. (प्राप्नोति) यह पाता है; २३९ । श्राचा अ. ( अथवा ) या, अथवा, ४१९ । पावीसु सक, (प्राप्स्यामि) प्राप्त करुगी; यहिऊलइ सक. दहति )बह जलाता है, २०८ । अहिपश्चाइ सक. (आगच्छति) वह आता है, १६३, । पाविजह सक. (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है। २०९। पत्तु वि. (प्राप्तम्) पाया हुआ हुआ; ३३२ । श्रहिमब्ज़ पु. (अभिमन्युः) अर्जुन-पुत्र, २९३ । पाविअ वि. (प्रापित) पाया हुआ; ३८७ । अहिरेमइ सक. ( पूरयति ) वह भरता है, पूरता है, स-संपत्ता वि. (संप्राप्ताः) पाये हुए; ३०१ । वि-वावेइ अक. (व्याप्नोति) वह व्याप्त होता अहिलंखई सक, (कांक्षति बह चाहता है, १९२ ॥ अहिलंघइ सक. (कांक्षति) वह चाहता है, १९२ । सं-समाबेइ सक. (समाप्नोति) वह पूरा अहो अ० (अधः ) नीचे, करता है। १४२ समप्पा सक. (समाप्नोति) वह पूरा करता [ ] है; ४२० । पाइ अक. (व्याप्रियते) वह काम में लगता है, समप्पउ सक.(समाप्यताम्) पूरा करे ४०१. ८१। समत्तु वि. (समाप्तम्) पुरा हो गया; बाइस कर्मणिभूत. (आयातः) भाया हुआ, ४३२ । ३२२, ४२०॥ श्राइग्घा सक. आजिघ्रति) यह सूधता है, ११३ । | आमसइ सक. (साभाषते) वह कहता है; ४४७ । पाइन्छइ सक, (कर्षति ) म्यान से तलवार खींचता प्रायई सर्व. (इमानि ये; है, १८७। श्रायो सब. (अस्प) इसका; आउछ अक्र. (मति । हूबता है. १.१। आएण सर्व. (एतेन) इससे; पाउत्ते भूत. कृ. (आवृत्तः) बुलाया हुआ, ३०२ । । बाहिं सर्व. (अस्मिन्) इसमें; ३८३॥ आएण सर्व. (एतेन ) इससे, ३६५ । । श्रायज्मद अक. (वेपते) कांपता है। १४७. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ । इदा भायम्बद अक. (वेरते) कांपता है; १४७। अ. (इतः) इससे, इस कारण, पायर पु. (आदरः। सन्मान. आदर; ३४१ । | इध अ. (इह) यहाँ पर २६८। ,, पायरेण पु. (आदरेण) आदर से; इन्दनील पु. (इन्द्र नीलः) नीलम, रत्न विशेष ४४४ । पायुधं न. (आयुधम् । शस्त्र को ३०४। इमु सबं. (इदम् । यह, प्रारभइ सक (आरभते) वह प्रारम्भ करता है। इष्-इच्छह सक. (इच्छति; वह इच्छा करता है २२५ । इच्छह सक. (इच्छथ ) तुम चाहते हो, ३८४ । श्रारम्भइ सक्र. (आरभते) वह प्रारम्भ करता है: इमल सक. (इच्छथ) तुम चाहते हो, ३८४1 १५५ । । एक्छण न. (एष्ठम् ) इष्ट लक्ष्य को, प्रारह सक. ,आरोहति) चढ़ना है २०६ : इट्रो वि. (इष्टः, प्रिय, प्यारा, ३५८. आरोह अक. उल्लसति) प्रसन्न होता है २०२। इह . इह) यहाँ पर, २६८, ४१९: बागेला सक. (पृचति) न्ह् हबट्टा करता है, १०२ । आलधगु न. (आलपनम) सभाषण बातचित, ४२२ । थालिहइ सक, (स्पृशति) छूना है १८२ । | ईक्ष-पदिक्खइ-सक. (प्रतीक्षते । राह देखता है १९३ । पातु न. (अलोकम् 'झूठ, आरोप, ३७९ ४२२ । | ईदिशाह वि. (ईदृशानाम् ) इन जैसों का, २९९ । पालुखाइ सफ. (स्पृशति) छूता है १८२. २०८ । [उ] श्राव स्त्री. (आपद् । आपत्ति, ४०२, ४१९। श्रावह अक. (आयाति) आता है ३६७। ! उन्म अ. (पश्य) गोता को अपनी ओर मुख करने पावट्टा अक्र. (आवर्तते लौटना है। फिरता है; ४१६ । । के लिये कहना, ३०६ । श्रावलि स्त्री. (अावलिः, पंबित, श्रेणी उही पु. (उदधिः) समुद्र, ३६५ । श्रावास न. (भावास) निवास स्थान; १४२। | उमाकरइ अक. (उत्तिष्ठति) खड़ा होता है, उठता है, आवासिउ वि. (आवासितः) बसा हुआ; ३५७ । यात स्त्री (नाशा आशा; उम्मेद; ३ । उक्कुप्तइ सक. (गच्छति) जाता है; १२ । आसंघइ सक, (संभावमति। यह संभावना करता है; ३५ । उकोसं वि. (उत्कृष्टम्) अधिक से अधिक, २५८ । बारह सक. (कक्षिति) वह इच्छा करता है; १९२। उलिवइ सक. (उत्क्षिपेति) फेंकता है, १४। बाहम्मद अक.(आगच्छति) यह आता है; उक्खु डइ सक. (तुडति) यह तोड़ता है। ११६ । बाहोड सक्र. (ताड़यति, वह पीटता है; २७ । उमाइ सक. (उद्घाटयति) वह खोलता है, ३ । उम्पहइ सक.(रचयति) बह रखता है, बनाता है९४१ [३] उग्घुसइ सक. (माष्टि) वह साफ करता है १०५ इ अ. (अपि भी; ३८३, ३८४, ३९०, ४३९ । उंबद अक. (निद्राति) वह निद्रा लेता है, १२। इ-एइ अक. (एति, आता है. आती है. (आयाति) उच्चुषइ सक. (चटति) वह चढ़ता है, २५९ । | उच्छा पु. (उत्संगे) मध्य भाग में, गोद में ३३६ । " एसी अक. (एण्यति) भावंगा, ४१४। ४१४ ।। उछल्लन्ति मक (उच्चलम्ति) उछलते हैं, २२६ । "एन्तु अक. (ऐप्यत आया हुआ होता, ३५१।। उजाण न. (उद्यान) बाग, बगीचा, उपवन, ४२२ । " श्रा-एदु अक, (एतु) जावें, २६५, ३०२। । उज्जुन वि. ऋजुक सरल, निष्कपट, सीधा ४१२ । इअरु वि. (इतर दूसरा, सजेमिति स्त्री. (उज्जयिनीम् ) उज्जयिनी को, ४४२ । इण सर्व. (इदम् यह, २७१। उझ उझिनषि (उज्झित) त्यामा हुमा, ३०२ । इत्तउं वि. (इयत्) इतना अधिक, ३९१ । । उट्ठई कति उदृह अक. (उतिष्ठति) वह खड़ा होता है । इत्थ भ. अत्र) यहां पर, ३२३। | जट्टकमाइ सक. (माच्छाचते) हक दिया जाता हैं ३६५ । पहाता १६२।। ताह Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४२३ । ३५२ उसक. (उत्तिष्ठोपविश) उठ और बैठ, उडाए वि. ( उडापयन्त्या ) उड़ाती हुई के उडण वि. ( उड्डीत:) आकाश में उड़ा हुमा, उद्द क. ( उड्डय ) आकाश में उड़ता है, २३७ । अ. (यन्ते) आकाश में उड़ते हैं, २३७ २३७॥ एड्ल वि. ( उष्णम्) गरम, तस उत्तर न. ( उप्पत्वम् ) गर्मी, उत्त सक. (रुणद्धि) वह रोकता है, उत्थंघर सक. ( उक्षिपति) कचा फेंकता है, ३६ उत्थल्लइ अक (उच्छलति) उछलता है. इत्याइ सक. ( लाक्रमते ) वह आक्रमण [ २४ ] ३४३ / १४३ । १३३ । १४४ | १७४ । करता है। १६० । उद्दालड़ सक. (उद्वालयति ) वह खींच लेता है। १२५ । उद्धभुअ यि. ( कर्ध्वभुजा) कंची भुजा किये हुई ४४४ । उमाइ सक. (उद्धमति) वह पूरक्षा है, पूरा करता है, १६९ । उन्ह ३७२ । सक. (उद्धूलमति) व्यास करता है. धूलि लगाता है, २९ । उत्पत्ति स्त्री (उत्पत्तिम् ) उत्पत्ति, प्रादुर्भाव उपर अ. ( उपरि ) ऊपर उपासक ( कथयति ) कहता है उप्पलह सक. ( उशामयति ) वह ऊंचा रख कर घुमाला है. ३६ । ३३४ । २ । उब्युकइ मक, ( उबुक्कति) बोलता है, कहता है, २ । माइ अक ( रमते) खेलता है. १६८ । ६० । १४४ । अद्द अ. (उद्भवति) उत्पन्न होता है. उत सक. ( उत्क्षिपति ) ऊचा फेंकता है; उमच्छइ सक. ( वचयति । वह उगता है, उम्मत्थद्द अक. (अभ्यागच्छति ) यह सामने आता ९३ । है, १६५ । ३५४ । ४४८ २०२ । ३६ । उम्मिलइ अक (उम्मीलयति ) चमकती है, उरे, उरम्म, नि. (रति) छाती में उल्लस a. (उल्लसति) तेजयुक्त होता है, उल्लालई सक. (उन्नामयति) ऊपर घुमाता है। उल्सालिङ वि. (उल्लालितः) ऊपर घुमाया हुआ; ४२२ । उल्लुकद्दसक. (तुति तोड़ता है। भांगता है; ११६ | सल्लुण्ड अ. (विरिणमित झरता है, टपकता है । २६ । उल्लूहइ अफ निःसरति) वह बाहिर निकलता है: २५९ । उल्लूर सके. (तुडति । वह तोड़ता है; ११६ क. (विज्ञापयते वह करता है. वह बुझाता मिश्र सक. (मीयते) उपमा वो जाती है; ४१८ उबालम्भइ सक. ( उपालनते. वह उमाहना देता है १२६ । उवेल्लइ अक . ( प्रसरति वह फैला है. उव्वरि वा उव्याह वि. ( उबरिता) छोड़ दो गई है. अक (उद्वाति) वह सूखता है. अ. (उग्रति) वह सूखता है. ११ २४० । वारिज्जइसक, (उद्वार्यते) छोड़ दिया जाता है ४ ८ । ठिबद अक . ( उद्विजति) वह उग करता है २२० । धब्बेढ सक. (उद्व ेष्टयति) वह बन्धन सुक्त करता है. २२३४ २२७ । २२५ । उव्वेषी पु. ( उद्वेगः) शोक, रज. उश्चशाद अक (उच्च उछलता है, उस्मा स्त्री. ( उष्मा) संताप, गरमी, उक्किइसक. (मुचति, उत्पिति छोड़ता है, कर फेंकता है. २१ १४४ । २८९ । ทุ้ "एइ [ ऊ 1 उसलाइ क. (उल्लसति) वह खुश होता है; २०२ । ऊसासेहि पु. ( उच्छ्वासैः ) ऊंचे श्वासों से; ऊलुम्भइ अक . ( उल्लसति) वह खुश होता है. २०२ । ४३१। [ ए ] "एआए एकातस एक ४१६ । एक मे एक्कासि ७७ । ३७९ । २४०१ सब. (एलया) इसस वि. ( एकादश) ग्यारह बि. 'एक) एक, ३७१, ३८३, ४१९, ४२२. ४२९, ४३१ । ४२२ । एक्कु बि. (एक) एक "एक्कहि वि. (एकै किन्हीं एक से, ३३१३५७, ३९६ / ४२२ । ४२२ । ४२८ । सर्व. (तत्) इसको ४३८ । स. (एलान इनको, ३३०, ३४४,३६३४१४ १ २८४, ३०२ ॥ ४२६ वि. (एकैकम् ) प्रत्येक को अ. (एकदा) एक बार, ? Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 एच्छ एतिसं एत fr. (एम) इष्ट को लक्ष्य की; बि. ( ईशम्) ऐसा (अ) यहाँ पर वि. (इयत्ता fr. (इवाद इतना हो एत्तिव एत्तलो एत्थ अ. (अ) यहाँ पर पत्थु ब. (मंत्र) यहाँ पर १३२, सर्व (एन) मह प एदेख स. (एनेन इस से, "एदिणा सर्व (एलेन) इस से "एदाहि सवं. ( एतस्मात् इम से; एम्व एम्बई एम्बई एम्वहिं एडु एहो "एड्रा पह स. (एषः) यह. स. ( एतद्) य ४१९, ४२०, ४३६ ३४१ । ४०८, ४३५ । १२३, २६५ । १८७४०४४०५ । २६९ । [ श्रो ] [ २५ ] ३५३ । । श्रोम्याइ अ. ( उद्वाति ) वह सूखता है, ३२३ २६० । ३७६, ४१६ | अ. (एवम्) इस प्रकार अ. (एवम्) इस प्रकार ही, ३२२, ४२०, ४४५० ४२५, ४२३ अ. ( इदानीम् अब, इस समय में, ३८७, ४२० अ. (एवम्) इस प्रकार ही, .! एवडु वि. ( इयत् ) इतना एवं अ. (एवम्) इस प्रकार ही ४०८ । २७९, ४२२ । एष विचार स्त्री. ( एवं विषया) इस विधि से, ३२३ । २८७, ३०२ । एशे स. (एष: यह एस ३२०, २८०, ४४७ । सर्व. (एष: यह सवं. (एषः) यह, एह ३३०, ३४४. ३६२. ३६३, ४१९, ४२५ । स. (एष) यह. ३६२, ३९५.४०२४२२ । । स. (एषः) यह ३६२, ३९ । ४४५ । ३६२ । २८२, ३०२ २७८ श्रो अ. (उ) अथवा, प्रश्नकखइ सक. (पश्यति) देखता है, ओइ मक. (व्याप्नोति) व्यास करता है, घोन्दह सक. (आच्छिनत्ति ) काटता है, sters as (अवतरति ) नीचे उतरता है, श्रो सर्व . ( अमुनि) पे, ओगाइइ अ. (अवगाहयति) नान करता है, गाल सक. (रोमन्थयति ) जुगाली करता है, ओम्बालइसक छायांकता है, ४०१ । १८१ । १४१ ॥ २६५। ८५ । 77 1 धोलुण्डइ सक. (विरेचयति ) वह झरता है. टपकता है २६ । अ. (अवकाशति) वह शोमा पाता है, १७९ । श्रचाह सक. (अवगाहयति । वह अच्छी तरह से ग्रहण करता है, २०५ । ३०२ । ३६४ । २०५ । ४३ | श्रोशलध अक . ( अपसरत । हट जा श्रमुक्कई सक. (तिजति) वह तीक्ष्ण-तेज करता है. श्रहइ अ. (अवतरति वह नीचे उतरता है। 用 दृइ श्राम ओहाइ सक. (आक्रमते वह अक्रमण करता है antra re. ( निद्राति) वह नींद लेता है, | क } " अ. (किम्) (यम्), क्यों, कैसे, ३५०, ४२२, ४४५ । कत्रि सर्व . ( कोऽपि ) कोई भी, ३७७, ४०१, ४२०, ४२२ । सर्व (फ) कौन ३७०, ३९६, ४२२, ४३८, ४१९, ४४१ । ३८४ | ४१४, ४२२ १ ३२० ३९५ । " को "P Gr LE 14 का 'काय किन कि 56 お 45 उ EL कोइ कोवि "कहूँ 16 +4 सक. (अपश्यते सक. ( तुलयति ) तोलाता है, भ्रष्ट की जाती है, २, ४१ । कह ओरसइ अक . ( अवतरति) वह नीचे उतरता है, ८५ || कमी सर्व. ( कोवि) कोई भी, सवं. ( कोऽपि ) कोई भो, सर्व . ( फा ) कौन स्त्री ? सर्व. ( कापि) कोई भी, . (किम् न) क्यों नहीं, ३४- । सर्व. (किम् ) कौन, क्या, क्यों, २६५, २७९, ३०२,३६५,२६७.४२२, ४३४, ४३९,४४५ । किंपि समं ( किमपि ) कुछ भी, ३०, ३९५, २५८, ४३८ । केवि कम्सु सर्व. ( कस्य ) किस का, कासु सबै ( कस्य ) किस का 64 狼 सर्व (कृते) के लिये, सर्व कति किसने, वि. (कीटस ) किसके समान, ०४० ८५ । ४१९ . २५ । १६० । १२ ॥ स. (किम् ) क्या स. ( कति) कितने अ. ( कतिचित्) कुछ ४२६ । ३७६ । ३८७, ४१२ । ४४२ । ३५८ । ३५९ । ४२० । ४०३ : Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. (कुतः) कहाँ से? ४५६, ४८|| कन्तप्पो पु. (कन्दर्पः) कामदेव, कंखइ सक. (कोसति। इच्छा करता है, ९२ । | कन्ति स्त्री./कान्ति) लावण्य, कान्ति, फन ली. न. (कलोः) कंगु नामक पौधे का ३६७।। " कन्तिए श्री. (कान्या) कांति से, लावण्य से, ३४९ । फच्चु सर्व. (कच्चित् । कोई ३२९1 | कन्तु वि. (कान्सः) सुन्दर, कातिवाला, ३४५, ३५११ फज्ज न. कार्य काम, " पु. कान्तः) पति, ३५७, ३५८, ६६४, ३८३, कजु न. (कार्य) काम, ३५३। कज न. (कार्यण) काम से, कन्तस्य पु. (कान्तस्य) पति के लिये, ४४५ ॥ कळचण न. (काञ्चन) सोना, स्वर्ण, " कन्तहो । कान्तस्य) पतिका, ३७६, ३८९, कचुहश्रा पु. (कमन्चुकिन्) अम्त.पुर का चपरासी, ३९५, ४१, ४२९ । २६३, ६०२।। कपिजह सक. (कलप्यते . कल्पना की जाती है. ३५७ । कञ्चमा प. (कम्यूक । चोली, स्त्री की कुर्ती, ४३१ । | कमल न. (कमलं : कमल, ३०८,३३२,३९७,४१४ । कनका स्त्री. (कन्यका) लड़की, कुमारी, २९३ ६०५। | कमलाई न, (कमलानि), कमल, कमलों को, ३४३। करि अ. (आश्चर्यम्) आश्चर्य की बात है कि, ५० कमवस अक. स्वपिति) सोता है, कटारह स्त्री. (टारिकाय म्) कटारी, शारियोग :४५ । कडु वि. (क) कडुआ, ३३६ ।। " कम्पेइ अक, (कम्पते) कांपता है. ४६ कदइ सक. (पवध्यते) क्वाथ करना, उबालना, १९, | " कम्पिता वि, (पिता) कॉपी हुई, ३६। " अगुकम्पणीया वि. (अनुकम्पनीया क्या कदइ सक. (कर्षति) म्यान में से तलवार खींचना, के योग्य, २६.1 १८७ । कम्मइ सक. (क्षुर्रकरोति) हजामत करता है, ७२। कर सक. (कर्षामि) खीच लाता हूँ ३८५। कम्मवई सक. (उपभुनक्ति) वह उपभोग करता है,१११। कण्ड न. (कनके) स्वर्ण में, ४.४। कम्मोह पु.न. (कर्मणाम्) को का, " कम्माई पु. (कर्मणाम् ) कर्मों का, ३००। कणा सक. (कणति) वह आवाज करता है, २३९ ।। करिणत्री ११०। फम्मेह . (कणिका, एक कण भी सक. (भुनक्ति) वह खाता है, कणिधारोपु. (कणिकार:) कनेर, वृक्ष विशेष, ३९६ । कयन्ते पु. (कृतान्त.) यमराज ३०२। कयम्बो पु. (कदम्र:) वृक्ष-विशेष, कण्ठि पु. (कण्ठे) गले में, ४.०,४४४, ४४६ । " क्यम्बु पु.(कवम्ब," " ३८७। कराड पु.नं. (कणे) कान में ४३.४३३ । कयरो सर्व (कतरः) कौन ? करणहि पु. म. (कर्णेषु) कानों में, करकतसिनानेन वि. (कृतस्नानेन, जिसने स्नान करोमि --- सक. (करोमि) मैं करता हूँ, कर लिया है उसके द्वारा, " कलेमि - सक्र. (करोमि) " " " २८७ । कथ " करेइ सक- (करोति) वह,करता है ३३७, " कह सक.(कथयति) कहता है, ४४,४२०, ४२२ । कवेदि-कहदि सक, (कथयति) कहता है ६७ । करह सक. करोति) वह करता है, १५, मधेहि सक. (कथयति) तू कहता है, ३०२। २३४, २३९ ३३८ । कधिदु वि. (कथितम् ) कहा गया फरदि सक. (करोति वह करता है' ३३० कषितन सं. कृ. (कथयित्वा) कहकर के, ११२ | " करन्ति सक. (कुर्वन्ति) वे करते है, ३७६, कत्था क. भा. प्र.(कथ्यते कहा जाता है, २४९ । कहिज्जह " (कथ्यते कहा जाता है, २४९ । | "काहि सफ. (कुर्वन्ति) वे करते हैं, ३८२, म.,कथम्) किस प्रकार से, २९७, ३ ३ । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] सक (कुरु। कर, कायव्वं वि. (कर्तव्यम्) करना चाहियं, २१४ । करहि सक. (कु.) कर, ३८५, ४.८. करिएब्वर्ड वि. (कर्तव्यम करने के योग्य, ४३८ । पु. (करे) हाथ में, ३८७, । " फरन्त य. कृ (कुर्वती) करसी हुई, ४३१ । करह सक. कुरुत) तुम करो, ३४६. ४.७.. करतु व, कृ. (कुत्रन) करता हुमा ३८८ । करेध सक्र. कुम्त तुम करो, २६.। " करन्तहो व.क (कुत;) करते हुए का, ४०० । करिस्मिदि सक. (करिस्यते) करेगा, । " करावित्रा वि. (कारिता:) कराये गये, ४२३ । फर्गसु सक. (करिष्यामि। मैं करूंगी, ३९६ । कर पु, (कर) हाथ, ४.८, ४२११ कोसु सक. (क्रिये। मैं की जाती है, ३८९ । । (करे) हाथ में, कड द सफ. (काम) मैं खींच लाऊंगा, ३८५ " करहिं (कर) किरणों से, काई सक करिष्यामि) मैं करूगा, २६५ । । करगा न. (करान) हाय के आगे का भाग, ४२२ । काहिंद सक, (करिष्यति। वह करेगा, २४ । | करजा सक. (भनक्ति) वह जोड़ता है, १०६ । काहा सक, (अकार्षीत , किया, २१४।। करवाल पु. (करवालः) तलवार, ३५४, ३७९, ३८७ ॥ किजदि, किग्जद सक' (करोति वह करता करालिबउ वि. (करालितः) प्रज्वलित, ४२५, ४२१ । है, २७४ । कार पु.(करि) हाथी, ३५। करिज्जइ सक. (कियते। किया जाता है, ५। | करिसइ सक. (कर्षति) म्यान में से तसवार खींचता है कोरड़ सक, (क्रियते, किया जाता है, २५० । कारते सक. (क्रियते, किया जाता है ३.६ । । कलह सक' (जानाति) वह जानता है, २,५९ । "कितई सक, (करोमि) मैं करताहं,३३८,३८५, कलकिलहवि.(कलडितानाम्) कलंक वालों के, ४२८ । ३८६, ४११, ४४५ | ! कलयलो पु. (कलकल:) कोलाहल, आबाज, २२० । काउं हे. कृ. कृ. (त्तुंम्। करने के लिये , २१४ । । " कलयले पु. (कलकल:) कोलाहल, ३०२॥ करउँ सक. (कुर्गम् । मैं करूं अथवा करतीहूं,३७० कलहिउ वि. (कलहायितः) झगड़ लिया गग, ४२४ । करि सं. कु. (कृस्वा) करके, १८७, ३५७ । | कलिज़गि न. (कलियुगे) कलियुग में, ३३८, ३७५, ४१ । करिम सं. कृ. । कृत्वा ) करके २७ कलिहि न. (कलो) कलियुग में, कडुअ सं. कृ. (कृरवा) करके, ७२, ३०२।। कली पु. (कलिः) झगड़ा, २८७ । करिदण स. कृ, (कृत्वा। करके, कले पु. (करः) हाथ, २८८। कलेवरहो न. (कलेवरस्य; मृत शरीर का, काऊण स. कु. (कृत्वा) करके, ३६५ । कलिय स कृ. कृश्वा। करके, ३०२। | वह सक. (कवति) वह शब्द करता है, आवाज " करेवि स. वृ. (कृत्वा) करके. ३४० । करता है, २३३ । करेपिणु सं कृ. (कृत्या) करके, | कवण पि, (किम्) कौन ? क्या ? ३५७, ३६७ । कयवं बि. ( कृतवान्) मैं करनेवामा हूँ, २६५ । । " कवणु, वि. (क:) कौनमा, कियउ भू. कृ. (कुतः' किया गया है; ४२९ । | " फरणेण वि. (केन) किससे, ३६७1 कय भूकृ. (कृताः) की गई, " करणारे वि. (कस्मिन्) किस में, कतं भू. क्र. (कृतम्) किया गया ३२. | करि स्त्री. (कबरी) के-पाश, चोटी. ३८२ " कई भू. क. (कुतम्। किया गया है, २९० । | कवल पु. (कवला:) कवल. ग्रास, ३८७। " किदु भू. कृतम्) किया गया, पु.(कवलान) कपलों को, ग्रासों को, २८९ । " फिभाई (भू. कृ. (कृतम्) किया गया, ३७१, ३७८ । | कबलु न. (कमलम्) कमल, ३१७ । " अकिला भू.कृ. (अकृतम्) नही किये हुए को, ३९६ । | कवोलि पु. (कपोले) गाल पर, ३९५ । " करणी वि. {करणीयम्) करने योग्यको, २७७ । | कवालु न. (कपालानि) खोपड़ियों को, ३८७ । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम किचे अ. कथम्) कैमे? किस प्रकार ? " विममा अक. (विकसति) वह खिलता है, १९५। | ४०१, ४२२ 1 " विहसन्ति मक. (जिकसन्ति' ये खिलते हैं, ३६५ । ' किवणु वि. (कृपणः) कंजूस, ४१९ । कसट न. (कष्टम् दुःन पीड़ा, ३१४ । | किह अ. (कथम) कैसे ? किस प्रकार ? ४०१ । कसरक्कहि न पु. (कसरत् शब्दं कृत्वा) खातेसमय किहे सर्व (कस्मान। विससे, होनेवाला शब्द विशेष, ४२३ । कोलदि अक. (कीडति) बह खेलना है. ४४२ । कसबइ पु. करपट्टके) सोना परखने का काला कुकर सक. (व्याहर1ि) वह बुलाता है, वह आह्वान पत्थर विशेष, कसौटी, ३३० । करता है. ७६ । कसान-यपु. (कषाय , क्रोध-मान-माया-लोभ, ४४०। कुम्मद सल. (क्रुध्यति वह कोध करता है,१३५,२१७ । करटं न. (कष्टम) तकलीफ. पीड़ा, २८९। | कुम्जर पु, कुजर) हाथी, २८७. कहवि ब. (कथमपि) किसी भी प्रकार से३७०,४३६ । | " कुम्जा पु. कुञ्जर हाथी, ४२२। कई अ.(कपम्। कैले, किस प्रकार से, २६७। कुटुम्बक न. (कुटधम्) परिजन, परिवार, कान्तिहु अ. (कुतः) कहाँ से, ४१५.४१६ । । कुट्टणु न (कुट्टनम् ) छेवत. भेदन, चूर्णन ४३८ । कहां वि. (कस्मात्) किस से, ३५५ । कुडारद न. (कुटीरके) झोपड़ी में, कुटा में, ३६४। कहिं अ. (कुत्र) कहाँ पर, ३०२, ३५७.४२२।। कुडुम्यउ न. (कुटुम्बकम् परिजन, परिवार, ४२२ । कहिं पि ब. (कुमापि) कहीं पर भी, ४२२।। कुडुल्ली स्त्री. (कुटी . कुटिया, मोपड़ी, ४२२, ४२९, काई वि. (किम् । क्या?४९, ३५७, ३६७, ३७०, ३८३, ४१८, ४६१, ४२२, ४२८, ४३४ । ! कुछ न. (कुतूहल) आश्चर्म, कौतुक, ३९६ । का वि. (कश्चित् कोई ३२९ । । कुणइ सक. (करोति) वह करता है, काठं वि. (गाढम्) मजबूत, ३२५ । कुतुम्बकं न. (कुटुम्बकम्) परिजन, परिवार, ३११ कामेह सक. (कामयते) इच्छा करता है, कुमारी स्त्री. (कुमारी) अविवाहित लड़की, ३६५ । काय पु (काय) शरीर, ३५०।। कुमाले पु.(कुमारः) अविवाहित लड़का,२९३ ३०२। कायर वि. (कातर) कायर, डरपोक, ३७६ । | कुम्भ पु. (कुम्भ) कलश, बड़ा, ४४७ । कोलक्नेवं न. (कालशेगम्) देर लगाना ३५७। ' कुम्भे पु. (कुम्भे) घड़े में, २९९ । काली वि. (कारी) करने वाली, २९९।। " कुम्भई पु. (कुम्भाद) हाथियों के गण्डस्थलों को " कालि पु.(काले) समय में ४१५, ४२२, ४२४ । कावालि वि. (कापालिक खोपड़ी में मांगकर खाने वाले | कुम्मयडि न. (कुम्भतटे) हाथियों के गर्दन पर, ४०६ । ३८७ । कुम्भिला पु. (कुम्भिल) दुर्जन, कियाइ सक. (कोणाति) खरीदता है, ५२। कुरल पु. (कुरलाः) बालों के गुच्छे, ३८२॥ कित्ति स्त्री. (कीति) यश-कीनि, ३३५, ३४७, कुलं न. (कुलं) कुल, खानदान, ३०८। ४००, ४१८। " ऋतु न. (कुलं कुल को, ३६१ । कि अ. कथम्) किस प्रकार, कैसे, ४.१. कुसुम न. (कुसुम) फूल, ३२२, ४४४ । किन्नयो वि. (क्लिनन् ) आई गीला, ३२९।। फसुयदाम न. (कुसुम-दाम) फूलों की माला, ४४६ । किर अ. (फिल) निश्चय वाचक, ३४९, ४१९ । : कुसुमाउह पु. (कुसुमायुख) कामदेव, २६४ । किरित पु.न. (गिरितटम) पहाड़ का किनारा३ ५। कहद अक. पुय्यति सहजाती है, फिल अ. (किल निश्चय वाचक, २१२ । कृवन्तहो पु (कृतान्तस्य) यमराज के, ३७० । किलिकिचहअ.इ. (रमते) क्रीडा करता है. १६८। केसि वि. ( कियत) कितना? किलिनको वि. (क्लित्रम्) आई गीला. ३२९ । | केत्तलो वि. (कियत्) कितना ? ४०८, ४३५ । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] फेत्थु प्र. (कुत्र) कहाँ पर: ४०५ । | खण्डए सक. (खण्डयति टुकड़े-टुकड़े करता है, ३६७, कम्य अ. (कयम्) किस प्रकार? ४१८ । ५२८ । केउ अ. (कृते) के लिये ३५९ । खरिद्धत वि. खंडितः) टुकड़े-टुकड़े किया हुबा, ४१८ । केर प्र. (कृते) के लिये, ३७३ । । खण्डु पु.न. (स्खण्ड टुकड़ा, ४४४। फेरए न. (सबिना) सम्बन्धी से, सम्बन्ध से, ४२२ । | खरड पु.न. (खण्डे दो टुकड़े, १४०। केलायह सफ. (समारचयति वह अच्छी तरह से रचता है, | खण्डी वि. (खण्डी) टुकड़े वाली ९५ । वन्ति स्त्री. (शान्तिः) क्षमा, ३७२। केलि स्त्री. (केलि.) कदली गौधा,केसा का माछ, १५७ । | खन्धस्सु पु. (स्कन्धात्) कंधे से. के अ. (कथम् ) कैसे? ३४३, ४०१ । | खन्धो पु. (स्कन्धः) कथा, पुट्गलपिंड, पेड़ का धड़, केइ अ. (कथंचित् किसी अपेक्षा से, २९०, ३९६, ३९८ । | नम्भि पु. (म्लम्भः) खम्भा, केय पि. (कियत्) कितना ? ४०८) खम्मद सक. (सन्यते ' खोदा जाता है, २४४। फेमकालाउ पू. (केशकलापः)केशों का समूह-गुच्छा,४१४ । खम्मिहिद सक. (स्वनिष्यते) खोदा जावेगा, २४४ । फेसरि पु (केसरी) सिंह, वनराज, ३३५, ४२१। खम्भी पु. (धर्मः) परमी धूप, ३२५ । केसहि पु. (केश:) केश, बाल, ३७० । | खय पु. (क्षय) नाश, केहर नि. (कोटुक । कमा ? for वर ?४०२मालि पु. (क्षय काले) नाश के समय में, ३७७, केहि बताय) लिये वास्ते. कामासइ अक (विकसति) खिलता है. १९५ | स्वर वि. (खा) तेज, परुष, कठोर, ३४४ । कोकाइ सक. (याहरति) वह वुलाता है. ७ । | खल न. पु. (खल) नीरम भाग, खल-भाग, ३४०, कोइरई न (कोटराणि) वृक्ष का पोला भाग. ४२२ । ३६७, ४०६, ४१८॥ कोट्टमइ अक. (रमते) वह खेलता है. १६८ । | खलाई पु. (खसान्) दुष्टों को ३३४ । कोणि न. (कौतुकेन) आश्चर्य से, ४२२। बलु पु. अ. (खल) दुष्ट, निश्चय, ३३७, ४२२ । कोदण्ड पु. (कोदण्ड) धनुष्य को, ४४६ । खलिहड़उ न. (खस्वादम्) गंजा, केवा हित, ३८९ । कोन्तु पु.(कोन्तः) भाला, हथियार विशेष; ४२२। खसफसिहप्रउ वि.(व्याकूलीभतः) घबडाया श्री. ४२२ । कोस्टागालं पु.न, (कोष्ठागारम्) भंडार, धान्य, भंडार, । खाग्रह सक. (खादति) खाता है, २२८॥ खाइ सक. (खादति) '. " २२८. ४१९ । [ख] खादन्ति सक. (खादन्सि) खाते हैं, २२८ । खन्ति सक. (खादन्ति) खाते हैं। ४४५ । खजग्इ अक. (अभ्यति डर से विचल होती है.५१, खा ४२२। सक. (खाद) तू खा. २२८। खम्म स्वादिइ सक. (म्दादिष्यति) खावेगा, पु. (खड्ग) तलवार. ३३०. ३८६, ४११, जगु पु. (खङ्गः) तलवार खजा सक. (खाद्मते) खाया जाता है, " खग्गिण पु. खङ्गन) तलवार से ३५७ । खाई (अनथको निपात.) ४२४ । खचड़ सक. खिचति) बह कसकर बांधता है, ८९ । खिज्जा अक. (खिद्यते) वह खेद करता है, १३२, २२४। खाइ सक. (मृद्राप्ति वह मन करता है. १२६ । खजिजह सक. (खन्यते) खोदा जाला है, २४४१' खिरह अक. (अरति) वह झरता है, टपकता है, १७३ । सक, खनिष्यति) वह खोदेगा, २४ । | खिवई सक. (क्षिपति) वह फेंकता है, पु. (क्षण:) अति सूक्ष्म समय, क्षण, ४४. खु अ. (खलु) निश्चय, ३०२। खणेण पु. (क्षणेन ) क्षण भर में ही, ४१९, ३७१ । । खुट्टा सक. (तुति) वह तोड़ता है, खणिडिन Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० खुडइ सक. (तुडति) वह तोड़ता है, ११६ ।। " गम्मद, गमिजाइ अक. (गम्पते। जाया जाता है, खुडुबह अक. (शल्यायते) खटकता है, २४६। खुषह अक. (मज्जति ) डूबता है, १०१।। " गम्मिहिद, गमिहिइ अ. गमिष्यते) जाया जावेगा, खुलभ प्रक. (क्षुभ्यति) खलखलता है खेड्ड अक. (रमते) क्रीड़ा करता है, १३८ । " गच्छश्र, गच्छिदूण सं कृ. (त्या) जाकर के; खेड्यं न (क्रीड़ा) खेल, ४१२ । खेल्नन्ति अक. क्रिीडति) ये खेलते हैं. ३८२।। " गलन सं.के. ( वा) जाकर के, ३१२ । खाडि पु. (दोपः। श्रुटि, अपराध, दोष, ४१।। " गय सं. कृ. गत्वा) जाकर के, २७२,२०२। " गंपि, मंखिए । स. कृ, (गस्खा) जाकर के, [ग] गमेथि, गम्पिगु । गड वि. कृ भू. (गतः) चला गया, ग्य हुआ, स्त्री. । गति) दशा, चान, ३६७ ४०६। ४४२ । गण श्री. (गङ्गा) गंगा नदो, " गई वि. वृ. भू. गतम्) गया, चला गया, ४२६ । गला " " " " " गथ बि. क. भू. (गत) गया हुआ, चली गई, गज्जइ अक, (गर्जति गर्जना करता है, २८ । गज्जहिं अक, मसि) तू गर्जना करता है, ३६७ । " गयउ वि. कृ भू. (गत:) गया हुआ, चला गया. गरजु अक. (गर्ज) गर्जना कर. ४१८ । ४२०. गब्जिय वि. (पीडित) दुखी हुए, पीड़ा पाया दृआ " गया वि... भू. (गताः) चले गये, व्यतीत होगये, ३७६ । गदुश्र सं. कृ. (गत्या) जाकर के, २७२, ३०२ " गयहि वि. ( गतयो.) गये हुए दो का, गदर सफ, (घटति) बनाता है ३७७, ३५०, गण सक, (गणयति । बह गिनता है, ३५८। " गती वि. (गतः) गया हुआ, ३२२॥ गन्ति सक. (गणयन्ति) वे गिनते हैं, ३५३ । " गदे वि. गतः) गया हुमा ३०३। गणन्तिए वि. (गणयन्त्या:) गिनती हुई के, " गदो बि. गतः) गया हुअा, ३८९, ३८० । गएठ सक. (अध्नाति) गूथता है. १२० ।। आगच्छह अक. आगच्छति) आता है, १६३, गण्डत्थलिपु.न. (गण्ठस्थले) गालों के भाग पर, ३५७ ।। २८७। गराडाइ न. (गण्डान्। हाथियों के गालों को, ३५३ ।। " आगश्चदि अक, (आगच्छति) आता है. आती है, स्त्री. (गति') दशा, चाल, ३२७।। ३०२। गन पु. (गण) समूह, समुदाय, यूथ, ३०६ । । " आगच्छमाणो व. कृ. (आगच्छमान:) आता हुआ, गम् " गन्छइ अक. (गच्छति, वह जाता है, १३२, २१५ । " श्रागदो वि, क. कृ. (आगतः) आया हुआ ३५५, " गच्छति, गच्छते अक. (गच्छति) बह जाता है. । ३७२, ३७३, । ३.९। " श्रागदे बि. क. कृ. (आगतः) आया हुआ. २९२ । " गच्छति, गच्छद अक (गच्छति) वह जाता है, ' अगदं वि. (आगतम्) आये हुए को २७० । प्रभागबइ प्रक, (अभ्यागच्छति) वह सामने " गच्छ --- अक्र. (गच्छ । जाभो २९५ । बाता है, १६५ । " पछिस्सिदि अक. (गमिष्यति) जावेगा, २७५ । " पश्चागच्छह अक. (प्रत्यागच्छति) वह लौटता है, " गमिही अक. (गमिष्यति) व्यतीत हो जायगी, ३३० । । " निग्गउ दि. क. कृ. (निर्गतः) निकला, ३३१ । गतील Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह [ ३१ । " संगच्छइ सक. (संगच्छति) वह स्वीकार करता है, | गिलिगिलिसक. (गिल मिल निगल जा, निगल जा,३९६ । ६.' कि , लिस्य) निगला जाता है. ३७० । गमेसह सक. (गवेषयति) वह बढता है, १८९ . | गिलो पु. (गिरिः) पहाड, २८७ । गय पु. (गज) हाथी, ३३५, ३४५, ३८३ । | गुरुजइ अक. (हसति) वह हँसता है ३९५, ४१८, ४३९, ४४५। गुरुजल्ला अक. (उल्लसति) वह विकसित होता है, २०२ । गयणि न. (गगने) आकाश में, ३९५ । गुब्जोङ्गइ अक. (उजमति) वह विकसित होता है, ०२। गयगायलु न. (गगनतलम) आकाश-प्रदेश ७६। पु.(गोष्ठ) गवाड़ा, पाड़ा विशेष, ४१६ । गाद अक. (गर्जति गर्जना करता है, २९२ । पु.न. (गुण) गुण, अध्छी बातें,२९२,३३८, गरुपा वि. (गुरु) बड़े, (गुरुका) बड़ी, ३४० । १७२, ४१४ । ४१८ । ' " गुणु पु.न. (गुणः) गुण, अच्छी बातें, ३९५ । " गलन्ति अक. (गलन्ति) वे अलग होते हैं, सड़ते हैं : " गुणहिं पू. न. (गुण, गुणेषु) मुणों से-में, ३३५, ३४७,४००, ४१८ । " अगलिन वि. (अगलित) समाप्त नहीं हुआ, ३३२ । | गुणइ सक. (गणपति) वह गिनता है, ४२२ । " विगलइ अक. (बिगलति) वह गल जासा है, १७५ 1 ! गुण्ठा सक. (उद्बुलयति) वह धूल बाला करता है, गलत्याइ सक. (क्षिपति) वह केंकता है, १४३ ।। गलि पु.(गले) गले में, ४२३।गुन पु. (गुण) गुण, अच्छी बातें, ३०६ । गयखेहिं पु. (गवाक्षेषु) खिड़कियों में, " गुनेन पु. (गुणेन ) गुण से, ३०६ । गवेसइ सक. (गवेषयति) बहता है, १८९, ४४४ । गत सफ. (प्रसति) गलताहे-खाता है. निगलता है. " गोवइ सफ. (गोपयति) ढांकता है, प्रकट नहीं करता गल गह पु. (ग्रहाः) सूर्य शनि आदि ग्रह, ३८५ । | " गुप्पइ अक. (गुप्यति) बह व्याकुल होता है, १५० । " गहो पु. (पहः) सूर्य शनि आदि ग्रह. ७९।" जुगुच्छइसक. (जुगुप्सते) वह घृणा करता है, ४। गहनं वि. (गहनम्) कठोर, कठिन, गंभीर, ३२३ । । " जुवकछइसक. (जुगुप्सते) वह निंदा करता है, गहिरिम . स्त्री. (गभीग्मिाणम्) गंभीरता को, महा । " विगुत्ताई वि. (विनाटिता। दुःखी हो गये हैं. ४२१। गुम्मइ अक. (मुह्यति) वह मुग्ष होता है, २०७ । गा-गा-गाइ सक, (मायति) गाता है, ६। गुम्मडइ अक. (मुह्यति) वह धबड़ाता है. मुग्ध होता है, " गिय्यते कर्मणि (गीयते) गाया जाता है, ३१५ । २०७। गार्म नं. (गानम्) गायन, गीत, वि. (गुरू) बड़ा, गामा पु. (मामानाम। गांवों का, (ग्रामयोः। दो गांवों | गलगुब्छइ सक. (उषामयति) वह ऊंचा करता है-फेंकता का ४०७। है, ३६, १४४। गिज्मा अक. (गृभ्यति) वह मासक्त होता है, २१७ । | गुललइ सक. (चाटु कोति) वह खुशामद करता है, गिम्मो पु. (ग्रीष्मः) गरमी की ऋतु ४१२। गिम्ह पु. ग्रीष्मः) गरमी की ऋतु, २८९। | गोटडा वि. (गोष्ठस्थाः ) बाड़े में बैठे हुए, ४२३ । " गिम्हु पु. (ग्रीष्मः) गरमी की ऋतु. ३५७ । । गोरडी स्त्री. (गौरी) महिला, पनि, ३९५, ४२०, गिय्यते कर्मणि (गीयते) गाया जाता है, ४३१, ४३६ । गिरी पु. (गिरिः) पहाड़, ३३७, ४४५। गोरि श्री. (गोरी) महिला, परिन, ३२९, १८३ । गिरिहे पु. (गिरे) पहाड़ से, ३३१ ।। गोरी स्त्री (गौरी) महिला, पलि; ३९६, ४०१, स्त्री (गारा) माह गिलमणु वि. (असममनाः निगल जाने की इच्छावाला, | ४१८ ४५ 1 | गोरिहे श्री. (गोर्माः) गोरी के महिला के; ३९५ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोरी अहि स्त्री. (गोथी:) गौरी के महिला के, श्री. (गौरा) गोरी महिला पनि गोली " 11 प्रह " गेर सक. (ग्रहणाति) वह ग्रहण करता है, गृues सक (प्रहणाति) वह ग्रहण करना है, 'ग्रहन्ति स ( ग्रहणन्ति ) वे लेते हैं, ३४१ । 12 'घेous कर्मणि (गृह्यते) ग्रहण किया जाता है, २५६, 가 घेप्पन्ति कर्मणि (गृह्यन्ते "गेण्डिज्जइ कर्मणि (गृह्यते गेह सं. कृ. गृहीत्वा ग्रहण करके, 28 घेत सं कृ (गृहीत्वा ) ग्रहण करके, गृहेपि सं. " घई पंघल घट् 21 19 " 'घेत्तुं वेन्द्रण, घेत ( ग्रहीतुम. गुड़ीया, ग्रहीतव्यम्) ग्रहण करने के लिये, ग्रहण करके, ग्रहण करना चाहिये, २१. । 99 " זי घड सक. (घटयति वह बनाता है; रचता है, १२ । घडदि सक. (घटयति वह बनाता है, जोडता है, ४०४ । " घडेह सक. (घटयति) वह मिलाता है निर्माण करता [ ३२ ] ४१४ ॥ पार्वती; ३२६ ॥ ST २०९ । ३३६ । ३४९ । ग्रहण किये जाते है,३३५ । ग्रहण किया जाता है. २२६ । २१० । घडि वि. (घटित) निर्माण किया हुआ, " घडि वि. (घटितः) निर्माण किया गया है. 29 घणा २१० । (गृहीत्वा ) ग्रहण करके, ३९४,४३८ । | घत्त है; ५० ॥ घडावइ सक. (घटयति ) वह निर्माण करता है, ३४० [ च ! ar (अनको निपातः) अर्थहीन अध्य. ४२४ । न. (फट ) ( फलहा ) झगड़े, ४२२ ) उates सक. (उद्घाटयति ) वह खोलता है, ३३ / ११३ १ संघes अक (संघटति वह प्रयत्न करता है, "3 घख पु. (घट) घड़ा, कुम्भ, ३५१, ३९५, ४३९ । 'घबुक्कय पु. ( घटोत्कच) भीम पांडव का पुत्र २९९ । " चरण स्त्री. (घृणा) घृणा नफरल ३५०, ३६७ । घण वि, पु. ( घन) सघन, बहुत बड़े-बड़े हथोड़ा, १८७, ४ ४, ४३८ । स्त्री. वि. (घृणा) नफरत, बहुत, ४२२, ४३९ / न. (घातम् ) चोट; आभात! ४१४ । ४११ ४१४ । ३३१ । घत्तइ 231 घम्मो घर נ 11 न. (गृहम् ) घर ३६४ वह न. ( गुम् ) घर ३४१, ३४३, ३५१, ३६७. ४२२ । ४२३,४३६ । ४२२ । घरि न. ( गुहे) घर में, घरहिं न. ( गुहे) घर में ही. घरिणी स्त्री. (गृहिणी) पनि घर की स्वामिनी २७० । घज्ञह सम. (क्षिपति ) वह फेंकता है, वह रगड़ता है, ३३४, ४२२ । ४२२ । 15 " चत घॉड घुग्धि सक. ( क्षियति) वह फेंकता है, सफ ( गवेशयति) वह ढूंढता है, पु. ( धर्मः) गरमी, धूप, चलन्ति सक. (विपत्ति) फेंकते हैं. पु. ( घातः) चोट, आघात स्त्री. ( चेष्टाम् ) बंदर की चेष्टा को, १४३ । १८९ ३२८ १ च ३९५ । घुडुक्कट अक (शत्यायते खटकती है, घुएटेहिं सं कृ ( घुट् प्रशब्दं कृत्वा) घुट् घुट् शब्द करके, ३४६ । ४२३ । ४२३ । घुम्मइ अंक. (घूर्णते ) यह घूमता है. चक्राकार फिरता है. ११७ घुसलइ सक. ( मध्नाति) वह मयता है, मर्दन करता है, १२१ । १० । घोट्टई सक. (पिवति) पीना है. घोड़ा पु. (ar) घोड़े, ३३०, ३४४. ३६३ । घालइ अक (घूर्णते) वह घूमता है. चक्राकार फिरता है, ११७ । [च] व म. (च) और, २६५, ३२१,३२२, ३२३ ॥ च अ. (एव) ही, १८६ | चत्र वि. (चतुर्) चार ३३१ । यवमुहु वि. पु. ( तुर्मुखः चार मुख वाला ब्रह्मा, चक्खि चश्वरं पु. (चक्रण) चक्रवाक पक्षी से, वि. (मास्वादिकम् ) चला हुआ, दि. (जर्जग्म्) ( चूलिका पैशाची में) जीणं हुआ, २५८ १ ३२५ । १ । चरिचक्र वि. दे. (स्वासकम् ) मंडित, विभूषित ३९ । चच्चुप्पइ सक. ( अर्पयति ) वह अर्पण करता है, सक, ( तक्ष्णोति) वह खोलता है, काटता है, च १६४ । ३३१ । ४४४१ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] पञ्चलु वि. चञ्चलन) चपल, चंचल १८ चिघडा सक. (आरोहनि । चढ़ता है, २०६, ४१० ।। चिरणा सक. (चिनोति) इकट्ठा करता है, ०३८, चडिज वि.क, भू आरूढ़। चढ़ा हुआ, ३३१ । २४।। चरित्रा वि. (आरुढ़ा:) चढ़े हुए, चुइ सक, (चिनोति) इकट्ठा करता है, २३८ । चडक पु.न. दे. (चटारकार:) चटकार:घटका,थप्पड - " चिणिज्जइ सक. {चीयते) इकट्ठा किया जाता है, का शब्द, ४०६ । २४१, २४३ ।। चष्ठाहुँ सा. (आरोहामः) हम चढ़ने हैं, ४३९ । " चिम्मद सक. (चीरते, इकट्ठा किया जाता है, सक. (भुक्त) यह खाता है। १०। सक. मृदनाति बह मर्दन करता है, ममलता " चिणिहि गक, (चिणिष्यति) इकट्ठा करेगा, २४३ । '' चिभिमहिइ मक. (वियिष्यते) इकट्ठा किया जावेगा, सक, (पिंशति) वह पीसता है, २४३. चदुरिके स्त्रो (चतुरिके) हे चतुरिके ! दासो, २८१ । . " चिबइ सक, (चीयते) इकट्टा किया जाता है, घलिके स्त्री. (चतुरिके) हे दासी) चतुरिके, ३०२।। २४२, २४३ । " चिबिहिद सक. (चीयिष्यते) इकट्ठा किया जायगा चन्दमाएँ स्त्री. (पन्द्रिकया) चाँदनी से; चमदद सक. (मुक्त) खाता है, " उक्षिणइ सक. (उच्चिनोति) वह सोड़ कर) इकट्ठा चम्पय पु. (चम्पक वृक्ष विशेष, चम्पा का पेड़,४४४। चम्पावराणी स्त्री. वि. (चम्पकवर्णी) चम्पा के फूल के रंग- | करता है, २४ । वाली; ३३०। " उच्चेइ सक. (उच्चिनोनि) वह तोड़कर इकट्टा करता है, २४३। चपिज्जई सक. (आक्रम्यते दवा ली जाती है ३९५ । | है ३९५ । | चिइच्छइ सक. (चिवित्पति) वह दवा करता है,२४० । चथइ सक. त्यजति) छोड़ता है, ५ | चिचडचिञ्चह चिकिचल सक. (मण्डयति वह " घय सक, त्यज) छोड़, त्याग, ४२२ । " घएज्ज सक (स्यजे छोड़ दे, छोड़ देना चाहिये,४१८। चिन्त विभूषित करता हैं, ११५ । " चएप्पिणु है कृ. (त्यस्तु) छोड़ने के लिये, ४४१ ।।" चिन्ता सक. (चिन्तपति) सोचता है, ४२२ । " चत्त क. भू. कृ. (त्यक्त्त छोड़ दिया है.३८३,३४५। " चिन्तेदि सक विनयति) सोचता २६५ । " चयइ सक. (शक्नोति) वह समर्थ होता है, ८६ । | " चिन्तयन्तो सक. (चिन्तयत् सोचता हुआ, ३२२ । परि शक. (चर) सा, खाजो, ३८७। " चिन्तयमाणीक. चिमतपती सोबती हुई, ३१०॥ चलइ अक. (चलति) चलता है, ३३१ । । " चिन्तन्ताहं व. कृ. (चिन्तमानानां । सोचते हुओं का, चलण न. (चरण) पर, पांव, ३६२। चलदि अक. (चललि) चलता है, २८३ । " चिन्तिनइ सम. (चिन्त्यते) सोचा जाता है, ३१६, चलन न (चरण) पांव पैर, ४१०। घलेहिं वि. (चलाभ्याम् चंचलों से. ४२२।। " चिन्तितं क. कृ (चिन्तित) सोचा हुआ, ३२० । यह अक. (चलति) चलता है २३१॥ पु. जीमूतः) मेष, वर्षा, वादन, ३२५ । चवह सक. (कथयति) वह कहता है. चुकह सक. (अश्यते भ्रष्ट हुआ जाता है चूकता है, चवह अक (च्यवति) वह मरता है, १७७. चवेड स्त्री. (चपेटा) तमात्रा, थप्पड़, ४०६ । 'चुणइ सक. (चिनोति) इकट्टा करता है, २३८ । चास पु. (त्यागः) त्याग, प्रत्याख्यान, ३९६ । | चुरापोहोइ अक. (चूर्णी भवति । वह चूर-चूर टुकड़े होता चारहडी स्त्री (च प्रारमटी) शीर्म-वृत्ति, सैनिक वृत्ति, है, ३९५, ४३० । ३६६ । 'चुम्बइ सक. (घुम्जति) वह चुम्बन करता है . २३९ । ३९९ । । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] चम्चिवि सं. कृ. (चुम्बित्वा. चुम्बन करके, ४३९ । छडु म. (यद। यदि, अगर, ३८५, ४०१, ४२२ । चलुचुलाइ अक, (स्पन्दति) बह फरफ्ता है १२७ । छुन्दइ सक. (नाक्रमते बढ़ हमला-आक्रमण करना है, चलउ न. (कङ्कणम्) चुडला. ककन, हाथ का आभूषण, I चडिया. ३९५, ४३०। झुप्पइ सक. (स्पृश्यते) या जाता है, २४३ । चूह करेइ सक. (चुर्गी करोति) वह बारीक पीसता है, | छुविज्जइ सक. (स्पश्यते) छुआ जाता है, ४९। ३३७ । छुहइ सक. (क्षिपति) यह फेंकता है, वह डालता है, चेह अक. (चेतयति) वह सावधान होता हैं.३९६ । चोपडा सक. (म्रक्षति) वह वी-सल आदि लगाता है, छेउ पु. (छेदक:) हानि, ३९० १९१ । | छोलिज्जन्तु सक. (अतक्षिष्यत) छोला होगा, ३९५ । रिश्र अ. (एव' हो, अगि जअ अक. (स्वरयते) शीघ्रता करता है. १७०। छइल्ल वि (विदाध) अपने आपको बुद्धिमान समझने | " भडन्ती व. . (स्वरन् ) शीघ्रता करता हुआ,१७० । वाला, ४१२ । | जद अ. (यदि) पदि, अगर, ३४३, ३५३, ३५६, इच्छरो पु. (झार:) झरना, 'जल-स्रोत, ३२५ । ३६४, ३६५, ३६७, छज्जा अ. (राजते) शोभा पाता है. १००। ३७०, ३७१, ३७१. छयह सक. (मुञ्चति छोडता है, ३८४, ३९०, ३९, " इहि सक. (त्यज छोड़ दे, ३९५, ३९६, ३६८, " छविर स. कृ. (मुक्त्वा छोड़कर के, ४२२ । छन्द वि. (छन्दक: मनमानी करने वाला, ४२२ । ४१८, ४१९, ४२२, छम्मुह पु. (पण्मुखः) छह मुख वाला शिव-पुत्र कार्तिकेय, ४३८, ५३९। जइसो वि. (यादृशः) जैसा, जिस तरह का, ४०३ । छायइ सक. (छादयति 'दोकता है, २१ । जश्री अ. (यत.) क्योंकि, कारण कि, ४१९ । छाया स्त्री. (छाया) छाया, ६७०, ३८७ । । जगु म. (जगत्) ससार, दुनियाँ, ३४३ । छारू पु.(क्षार) गख, क्षार, ३६५ न.(जगति) संसार में, ४०४, ४०५। छाले पु. (छागः) बकरा, २९५ । जगह अक. (जागति) जागता है, ८०। छित हि. (सृष्टम्) बनाया हुआ, जग्गेवा अक. (जागरितव्यं) जागना चाहिये, ४३८ । छिद--- जज्जरिसाउ कि. (जर्जरिताः) खोखली शक्ति-हीन, ३३३, " छिन्दह सक. (छिनत्ति) काटता है. छेदता है, १२४, | ३४८. २१६ । | चढं वि. (त्यक्तम्) छोड़ा हुआ, २५८ । " छिज्जद एक. (छिद्यते) दूर कर दी जाती है, ३५७, | जश पु. (जनः) पूर्ण, ३६४, ३७६ । ४३५। जणु पु. (जन:) पुरुष, ३३६, ३३७, ३३९,४०६, " छिराण वि. (छिनः) दूर कर दिया है, ४४४ । ४१८. " अच्छिन्दइ सक. {आस्छिन ति ) वह खींच लेता है, । " जणा पुजना: पुरुष, ३७२। १.५।। " जणेणु पु. (जनेन) पुरुष से, ३७१। छिपद सका. (स्मृशति) वह छूता है, २५७ । । " जणस्सु पु. (जनस्य) पुरुष की; ३७१। छिवह सफ. (स्पृशति) यह छूता है, १२ जणणी ली. (जननी) माता, २८२, ३०२ 1 छिपिज्जइ सक. (स्पृश्यते) छूआ जाता है, २५७ । जणि म. (इव) समान; बिहइ सक. (स्पृशति, वह छूता है, १८२।। अणु अ. इव) समान; ४०१,४४४। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्त अ. (पत्र) जहाँ पर; ४०४ । । जाइटिए सर्व. (यद् पद् दृष्ट' तद् तत् जो जो देखा जधा अ. (यथा, जैसे, जिस प्रकार, २६० । गया है. वह वह, ४२२ । जन्त व.क. (यांल) जाते हुए को, ४२० ई .सनिधी या को, अपने स्वधर्मी समु. अम पु. (यमः । यमराज, ३७०, ४४२ । | दाय को, ३६५. " जमड़ो पु. (यमस्य) यमराज के, ४५९ । ! जाउ अक. वि. (जायताम्) (यातु) जावे, (जात हुआ, जम्पइ सकः (कथयति) कहता है, २। ३३२, ४२०, ४२६ । " जम्पि सक. (जल्प) बोलो, कहो, ४४२ । , जाउँ बफ. यावत् । जब तक, ४०६ । जम्पिरहे वि. (जल्पनशीलायाः) बोलती हुई के, ३५० । | जागर अक. (जागति) जागता है, ८०। जम्मानइ, जम्भाइ अक. | जम्भति) वह जॅमाइ, उसी | जाणणं न. (ज्ञानं | जानना, शान, लेता है. २४०। जाणियह सक. (जायते) जाना जाता है. ३३० । जम्मद अक, (जायते) वह उत्पन्न होता है, १३६ । । जाम अ. (यावत् । जब तक, ३८७, ५०६ । जम्मु न.पू (जन्म) उत्पत्ति, पैदा होना, ३९६,३९७, जामहि न. अ. (यावत्) जब तक, ४२२ । जाया वि. (जाती) उत्पन्न हो गये हैं. ३५०, ३६७ । जयपु. (जय) जीत, विजय, ३७०. जाल पु. (ज्वाला) अग्नि, ४२९, ३९५, ४१५ । जयस्सु नं. (जगतः) जगत का, विश्व का, ४४० । जाव अ. (यावत्) जय तक, २७८ । जया अ. (यदा) जब २८३ | जावे अ. । यावत् ) जब तक: ३१५। जर स्त्री. (जरा) बुढ़ापा ४२३ । जावेद सक. (यापयति) बह गुजारता है, वह बरतता जरह अक. (जरति) वह पुरना होता है, बड़ा होता है, ४ ४ । , जि . (एव) हो, ३४१, ३८७, ४०६, १.१. जरिज्मइ, जीरइ अक. (जीर्यते । जीर्ण हुआ जाता है.. ४१९, ४२०, ४२२, ४२३, ४२९ । बूढ़ा हुआ जाता है, २५०। जि--- जल न. (जलं) पानी, २८७ ।। " जया सक, (जयति) जीतता है, २४१। जलं न. (जल) पानी, ३०८ ।। " जिणाइ सक. (जयति) वह जीतता है, २४१ । " जलु न. (चलं) पानी, ४२२ ३९५, ४१९, । " जिणिज्जइ कर्मणि (जीयते) उससे जीता जाता है। २४२ । " जलि न. (जले) पानी में, ३८३, ४१४ । " जिब्बाद कर्मणि. (जीयते उससे जीता जाता है.२४२ ॥ " जले न. (जले) जल में, पानी में, " जेपि सं. कृ. (जित्वा) जीत करके, ४४०, ४४१ । " जलहु न. (जलात) जल में से। " जिणेखि सं. कृ. (जिस्वा। जीत करके ४४२। जलद प्रक. (ज्वलति) जलता है, "जेऊण सं, क. (जित्वा) जोत करके, २३७, २४१ । जलणो पु. (ज्वलनः) अग्नि, ३६. | जिशिऊण सं. कृ (जित्वा) जीत करके, २४१ । " जलणि पु. (त्रलने) आग में, ४४४। " निज्जव वि. (निजितक:) जो जीत लिया गया है, जवइ सक. (याययति) गमन करवाना. भजना ,४० । । जह अ. (यथा) जैसे, जिस प्रकार, ४१६ । " विणिज्जिनउ वि (विनिजितकः) जो पूरी तरह से जहा सर्व. (यस्मात्) जिससे, जीत लिया गया है। ३९६ । जहिं अ. (यत्र ) जहां पर, ३४९, ३५७, ४२२ । जिइन्दिए वि. (जितेन्द्रियः) जिसने अपनी इन्द्रियों को लाई अक, (जायते) वह उत्पन्न होता है, १३६ । | जीत लिया है, २८७ । जाइ अक. (याति) वह जाता है, १४४, ३५०, | जिण पु.वि. (जिन) तीर्थ कर, अरिहंत, ४४४ । ४४१ । । जिटिभन्दिन न. (जिव्हेन्द्रियम्) जिह्वा इन्द्रिय को ४१७ । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] जिम्-- जेवहु वि. (यावत् ) जितना, " जिमइ, जेसह सक. (भुक्त) खाता है, ११०। जेहत वि. (पावत्) जितना, ४२२ । " जिम्मइ सक. भुते) खा.ा है, २३ । जेहु वि. (घाटक। जैसा, ४०२ । अ.(या) जिम प्रकार, ३३०, ३३६, ३४७, : जो सर्व (य:) जो, ३३०, ३३२, ३३८, ३४३, __३५४, ३७६, ३८५, ३९५, ३९६, ३९७, ३७०, ३८३, ४०१. ४२२,४२८, ४२२,३४४,३६७,४०१ । जिह अ. यथा) जिस प्रकार, ३७७, ४०१ ।। "जु सर्द (यः) जो, ४५,३५० २५.१. ३५४,३६०. जिहं अ. (यथा) जिस प्रकार, ३७॥ ३६७, ३८९, ४११,४१८ । जीउ पु. (जीवः) जीव, आरमा, ४३१।। " जा की (या) जो स्वी), ३२५, ३६५,३७१ जीमूतो पु. (जीभूतः) मेघ, बादल, ३२७। ३७८,३८८,६९०, जीव-- ३९६ ४२०, ४२६, " जीवह अक (जीवति) वह जिन्दा है, ४२१४०४,४३८, जीवन्त वि. (जीवन्त) जीवन-पर्यन्त. २८२, ३०२। " जीव पु. (जीव:) नीव, आत्मा, जेण सर्व (यन) जिससे; " जीयो पु. (जीव:) जीव, आत्मा, "जें मर्व (यत) जो; ३५०, २१। "जीच पु. (जोबानाम) जीवों का, अरमाओं का ४०६ " जासु सर्व (यस्य) जिसका, ४२७ ३५८, ३९६, जीवित्र न. (जीवितम् । जीवन, जिदगी ३५८, १८। जोहई अक. (लज्जलि) वह लज्जा पाती है, १०३ ! " जहे सर्व, (यस्मात्) जिससे, ३५६ । जुअंजुम अ. पृथक-पृथक) अलग अलग ४२२।। " जहिं अ. (यव) यहां पर, ३८६, ४११, ४२६ । जुअलु न, युगलम्) जोडा, दो का युग्म, " जेहिं सवं, (याभ्याम्। जिन दो से, ४१४।। ४३९ । " जे सर्व, (ये) जो, ३३३, ३५०, ३६७, ३७६, ३८७ जुउच्छइ सक. (जुगुप्सति घृणा करता है. ४। ३९५ ४०९, ४१२, ३२२,४:०। जुगुच्छह सक. (जुगु-पति) घृणा करता है ४ । " जाहं सर्व. (येषाम्) जिनका, सक (युज्यते) जोड़ता है. युक्त करता है १०९ ३५३, ४०९ । जुग्जद जोश्रण न. (योजन) परिमाण विशेष, चार कोष, ३३२ । जुझड अक. (युष्यते) युद्ध-जड़ाई करता है, २१७ । जुम्मन्तहो व. कृ (युध्यमानस्य लड़ाई करते हुए का ३७९ । जोपदि सक, (पश्यति! देखता है, ४२२ । जुभ न. (युद्धन) युद्ध से, ३८६, ४२६ । " जोइ सक (पश्य) देखो, ३६४, ३६८ । जुञ्जह सक. (युज्यते) जोड़ता है, " जोइज्जर मक (दृश्ये मैं देखी जाती हूँ, १०९। ३५६ । जुतो वि. (युक्तः) उचित, योग्य, सहित, ३०६ । " जोअन्तिहे व कृ(पश्यन्त्याः ) देखती हुई के, ३३२ । जुत्त वि. (युक:) जुड़ जाऊँ, " जोअन्ताछ व कृ. (युध्यमानानाम) लड़ते हुओं का; ३४०। जुचं वि. (युकम्, सहित, योग्य, उचित, २७१।। ४०९। सक. (युग्ने) वह जोड़ता है, जोगह जुप्पा १०९।। स्त्री (ज्योत्स्नाम् । घाँदनी को; जुवदिजणी पु. (युवति जनः) महिलाओं का समूह. २८६ | जि . एव) हो; जूाइ अक. (खिचते. दुःखी होता है, १३२, १३५ । | ज्ञाजराइ सक. (पञ्चमति) उगता है. ९३।। " मानाति सक. (जानाति) जानता है. ७,४०१.४१९ । अ. वि. (यावत्) जब तक, जितना, ४०७,४६५ "याणुन सक.(जानाप्ति) जानता है, २९२। जेध म. (यत्र । जहाँ पर, ४२२ ।। "जाणह सक. (जानीथ) तुम जानते हो २६९। वि. अ. (यत्रापि) जहां पर भी, ४०४, ४०५ । "राध्वइ, राजद (ज्ञायते) जाना जाता है। अ. (यथा) जिस प्रकार, ३९७, ४०१। जाणिज्जद, जाइज्जइ" २५२। जेत्यु Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णा विश. ३२७। ३८८ [ ३० ] " अगाइज सक. (न ज्ञायते। नही जाना जाता है, ' [ ] २५२ . बान नं. (ज्ञानम्) शानं, २०३। " जाण सक, (जानीयाम्) मैं जानू, ६९१, ५३१ । । "जाणि वि. ज्ञालमनामा गया, ६७७.४०१,५१२। [ट] " जाणिऊणु, णाका स. जास्वा जान करके। समरुको पु. (उमाका) बाजा विशेष, ३२५ ॥ "जाणिणार्य वि. । ज्ञातम जाना हुआ; जाना | टिदिइ सक. (भ्रमति) चूमता है, फिरता है, १६१।। या: ७। दिवडिकह सक. (मण्डयति ) बह विभूषित करता है, व " प्राणवंदु सक (आज तु . प्रज्ञा दे, श्राएत्तं विआज्ञप्तम् . आज्ञा दिया हुआ;२८३ । । ठक्का स्त्री, (रका) बाजा विशेष विष्णव सक (विज्ञायलि) दिनति करता है।८। ठबइ सक. (स्थापयति) यह स्थापित करता है, ३५७ । ठाउ न (स्थानम्) स्थान, जगह, झवह अक्र. (विलापति) विलाप करता है, १४०. | ठाउ अक. (तिष्टतु) बैठे, स्थिर होवे, ५४२ । १४८, १५६, २०१, २९, ३.९, ४२२ । ठाएं न. (स्थानम्) स्थान, जगह, १६. ३६२ । मच्छरो पु. (मर:) याय-विशेष, झांझ, १२७ । झडइ अक. (शीर्थते नष्ट होता है पता है, १३०।। डमरुको डमक बाजा विशेष, झडत्ति अ (झटिति) शोन, डम्बरई न. [आडम्बराणि) बनावटी कामों को,४२० । झडपडहिं अ. (शीघ्रम्) झटपट, ३८८। इरई अक. (वस्यति) यह भय खाता है, १९८. झण्टइ सक. (पति) घूमता है, १६१। बल्लह सक. (पिवति) पीता है। १०। झम्म सक. (भ्रमति) घूमता है, ह इहिद सक. दहिष्यने) जलाया जायगा २४६ । भरइ अक्र. (क्षरति) झरता है, टपकता है. ७४, " हुन सक. (वयते) जलाया जाता है; २४६,२६५ । "दुझिहासक. (दहिष्यते। जलाया जायगा; २४६ । मलेकिउ वि. (संतप्तम) तपा हुआ, जला हुआ ३९५ । चालई न. (शाखा:) वृक्ष के बड़े-बड़े भाग; ४४५ । झापा सक. (ध्यायति । ध्यान करता है ६, २४० । डिम्म पु. (डिम्भ) बालक, ३८२ । " माह सक ध्यायति। ध्यान करता है. ६,०४०। " भाइविंसक (ध्यात्वा) ध्यान करके, डिम्भइ अक. (मंमते) वह खिसकता है; झाएवणु सं कु. (च्यात्या) ध्यान करके, १४०। डुङ्गरिहि पु. (पर्वतेषु) पर्वतों पर; डोगर पु. (गिरि) पर्वत ४२२। • झाणं पु.न. (ध्यान) ध्यान, झिाइ अक. (क्षीयते) क्षीण होता है. क्रमशः नष्ट होता है, २० । | ढंसह अक. (विवर्तते । वह धंसता है, गिर पड़ता है, " मिजलं अक (क्षयामि ) क्षीण होती है, ४२५ । | " झुणइ मक. जुगुप्सति घणा करता है, ४। ढक स्त्री. (डक्का) बाजा विशेष; झु'ण पु. ध्वनिः) शब्द, भावाज, १३२,३३ ।ढका स्त्री. (उस्का) बाजा विशेष; ४२७ । झुम्पचा सती. (कुटी) झोंपड़ी, कुटिया, ४१६, ४१८. ढकह सक. (छादयति वह ढांकता है । अर सक. (स्मरति) याद करती है, खेदपूर्वक ढककर वि. (अद्भत) आश्चर्यजनक, ४२२॥ चितन करती है, ७४ । । एदल्लइ सक, (भ्रमति) वह धूपता है,फिरता है, १६१ । झासिनं वि. (क्षिसम्) (जुष्टम् । सेवित आराधित । ढरढोलइ सक. (गदेषयति} यह खोजता है, १८९ । २५८ । ! दिक्कइ अक. (वृषभोगचंति) सांड गरमता है। ९९ । ११८। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] दुमह सक, (भ्रमति वह घूमता है, १६१। पिरणाम अक (नश्यति नष्ट होता है, भागता है, दुखदुइ सक. गवेषयति) ढूढ़ता है, १८९ । १७८। दुसइ सक. (भ्रमति) वह भ्रमण करता है, १६१ | शिरग्घद अक. (निलीयले) छिपता हैं, ढोल्ल पु. (विट) नायक; ४२५ । बिराजद सक (पिन ष्टि) पीसता है. चूर्ण करता है. ढील्ला पु. (विट) नायक; ३६०।। १८५। मिरिणासह मक (गच्छास) जाता है, १६२ । [ ] गिरु अ (नितसम् निश्चित, नका, २४ । fणालज्जइ सक, (निलीयते) भेंटा जाता है, अ.लिंगन म. (न) नहीं; २९९ 1 किया जाता है, ५५ । एडइ अक. गुप्यते) बह व्याकुल होता है; ५०।। शिलीमई सक. (नलीयते छिना जाता है ५५ । सक. (गुप्यति बह खिन्न होता है, १५० । शिलुक्कइ सके (निलीयते) छिपा जाता है, ५५ । भ, (इय, समान, जैसा, ८ । णिलुक्कड़ सक. तुडति) तोड़ता है ११६ । अ (मन) निश्चय अर्थक शका अर्थक ३०२।। गिल्ल पद अक (उल्लसति) बह उल्लसित होता है. एव अक (भाराकान्तो नमति योज्ञ के काण २०२। से नमता है। १५८, २२६ । जिल्लुरूछ सक. (मुञ्चति)) वह छोड़ता है, पनि अ. (वैपरीत्ये) उल्टे अर्थ में कहा जाने वाला गिल्लूर इ एक । छिनत्ति) बङ्ग काटता है, १२५ । अध्यय, ३४०, ३५३, ४३८ । शिव सक्र. (गच्छति) वह जाता है, १६२ । गाए न. भानं. ज्ञान, ७। पायो पु.वि. (नायः) स्वामी, मालिक २६७ । शिवहइ अक. नश्यति ) वह नष्ट होता है, १७८ । णाही बि. (नायः) स्वामी, मालिक, .६७1 | शिवहइ सक. पिनष्टि) वह पीसता है, १८५ । शिवाशी वि. (निधासी) रहनेवाला, शियारह सक. (कारक्षित करोनि) एक अखि से देखता । ३०१ । गिनई अक. (पृथग्भवति, स्पष्टं भवति) वह अलग जिउड अक, (मज्जति) वह डूबता है, १०१ । होता है, वह स्पष्ट होता है । शिकवलइ सक, (क्षरति भरता हैं, टपकता है १७३ । सिव्वारा सक. (दुखः कथति) वह दुःख कहता है, । विच्छलइ सक. छिनत्ति) वह रेषता है, काटता है, पिंकबरइ सक. (छिनत्ति) वह काटता है. १२४ । १२४ाणिव्वलेइ सक. दुःखं मुञ्चति) वह दुख को छोड़ता. गिभर सक. (क्षयति) वह क्षीण होता है, लिवाइ अक. ( विधाम्यति) वह विश्राम करता है, ज्झिाइ सक. (ध्यायति) वह देखताहै, निरीक्षण करता है, ६ | बोलई सक. (मन्यूना ओष्ठ मासिन्यं करोति। णिमोडह सक (छिनत्ति) वह छेदता है, काटता है, वह कौध से होठ को मलिन करता है, ६९ । १४ | । शिप अक. (भागक्रान्तो नमति) भार से दबकर अक (क्षति) वह टपकता है, चूता है, १७३ । नमता है, १५८ । एट हइ अक. (विगलति) वह गल जाता है, १७५ । | सिम्मा सक. (गच्छति) बह गमन करता है. १६२ । अक. (अवष्टम्भं करोति) बह निश्चेष्ट होता लिहि सक. निभालय) देव, देखो ३७६ । है.६७ सिंडी, हि त्रि. लिंग (निधिः) खजाना,४१४, २८७ । विमद सक. (न्यस्यति) वह स्थापना करता है, १९९ । । शासक कामात संभोग की इच्छा करता है शिमं सर्व. 'नु + इदम्) यह, २७९,०२। जिम्महइ सक. गच्छति) जाता है, अक = फैलता है; | बिहोडा सक. (निवारयति, निपतति) वह गिराता है, नाश करता है, २२ । जि Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ! णोइ सक, (गच्छति) वह जाता है १६२ ।। " तीए सर्व. .तस्याः ) उससे, ३२१, ३२३ । गीण सक. (गच्छति) वह जाता है, १६२। "ता सर्व. ( तस्य ) उसका, २६०। णीरवइ सक (बुझक्षनि साने को चाहता है, ५।। " तर सर्व. (स्य ) उमका, णीरवा सक आक्षिपति) वह आक्षेप करता है, " त पवं. (तस्य (तम उसका, उसके लिये, ३३८, ३४३, ३७५, ३८९, ३९६, ३९७, ४१२, णीलुक्कइ सक. (गच्छति। बह जाता है, १६२ । ४२८ । णीलुम्छइ सक. (आच्छोइयति) आच्छोटन करता है, ७१ " तालु सर्च. (तस्य उमका, ३५८, ४०१ णोलुन्छसक, (निष्पतति) वह पतन करता है. ७१। " तहो सर्व (तस्य) उसका, ३५६. ४२६ । णासर अक. (रमते वह क्रीडा करता हैं, १६८ । " ताए सर्व. (तस्याः ) उसके, ३२२ । गीहम्मद सक (गच्छति) बह जाता है. १६२ । " हे सर्व. तस्याः उसका, ३५०, ३५४ ३५९.३८२, णीहरड़ अक. (नि:सरति) वह बाहिर निकलता है, " तहिं सर्व, (तस्मिन् । उममें, ३५७, ३८६, ४१९ । गणीहाद अक. (आक्रन्दति) वह आनन्दन करता है, । "ते सबं ( ते वे, ३५३, ३७१, ३७६, ४०६ ४०९, ४१२, ४१४॥ णुभइ सक. (छादयति) वह ढांकता है, " ति सवं. ते ) वे. ३३०, ३४४, ३६३ । रामह सक. (न्यस्यति वह स्थापित करता है, " ते सर्व ते ) के २३६, ३८७। गुमज्जइ अक. निमज्जति) वह डूबता है. १२३ । " तेहिं सर्व. ( तै:), उन से, गुल्लइ सक, (क्षिपति) फेंकता है प्रेरणा करता है, " तहिं सर्व. ( तैः ) उन से, ४२२। गुरुवइ सक. (प्रकाशमति) प्रकाशित करता है, ४५ ताई सर्व. (तयोः) उन दोनों के ३५०,३६७,४०९ । गुमइ सक (छादयति) ढांकता है, छिपाता हैं, २१। "ता, सर्व. (तेषाम् ) उनका, ३०० । रणदं सर्व. नु+इम्) यह, २७६। " तई सर्व. (तेषाम् ) उनका, ४२२। गोल्लइ सक. (क्षिति) फेंकता है, प्रेरणा करता है, तह, त सौ. (ल्वया) तुझसे, ३७०, ४२२। १४३ । नइजो वि. तृतीया तीसरी. एडाह अक. (स्माति) वह स्नान करता है तइत्ता सर्व. (त्वत्) तुझमे, रहाणु न. (स्नानम्) नहाना हनान, ३९९, ४१९ । वि. (तादृशः) उसके समान, ४०३. तलने न. (दर्शने) देखने पर, तकर सक, (तर्कगति) तर्क करना. अटकल लगाना, २९ । [त] | तक्ख सक. (तक्ष्णोति) वह छोसता है. तीखा करता __ "त सर्व. (तत् तम् ) वह उसको; ३२६, ३४३, ४२६, ३२०, ३५०, ३५६, ३६०, तच्छद क (तक्ष्णोति) यह छीलता है, तीखा करता ३६५, ३७१, ३८८. ३९५, ४१४, ४१८, ४१९, ४२०, ४२२, ४२९ तटाकं न. (तडागम्) तालाब, ३२५। ४४६ । ! तडह सक, (सनोति) वह विस्तार करता है, १३७ । " तेण सर्व, (तेन) उससे; ३६५ ।। तत्ति न. (तट् + इति) " तलाक " ऐसा करके, " तें सर्व. (तेन) उस से, उनको, ३३९, ३५३, ३७९, ३५२, ३५७ । ४१४,४१७ । | तड़फड़द अक. (स्वन्दते) तड़पना, व्याकुल होना, ३६। " तया सर्व. (तया) उससे, अध्यय, (सदा) तब, २८३ । तडि पु. न. (तटे) किनारे पर, तीर पर, ४२२ । "ताए सर्व. (तया) उससे, ३७.। | तहह सफ. (तनति) वह विस्तार करता है, १२७ । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवद सक (तनति) वह विस्तार करता है १३७ । सवस्ति पु. (तपस्थिन् हे तपस्वी ! तणुन. (तृणं) पास, ३२९ ३३४ । तव पु.न. (तपस् । तपस्पा । तरण न. (तृणानाम्) तिनकों का, ३६९, ४११ । तसह अक. स्थिति वह डरता है, १९८1 तराई सक. (तनति) वह फैलाता है, १३७ । तमसु वि. दशसु) दशों में, तपत पु. (तमयः पुत्र बेटा, सर्व . (तम्मात् जरा. उस कोरण से, ५। तणन सर्व. वि (तस्येदम् उसका यह ३६३ । सहि अ. 'तत्र) वहाँ पर, १५७। ' तणा न. (तस्मिन् काले) उस समय में, ३७६. ता ___ अ. (तदा) तब, २७८. ३०२, ३७०। ३८०, ४१७.४२२ । नाउं अं. (तावत्) तब तक, तणेण अ. (कृत) के लिये, ३६६, ४२५, १३७ । ताठा स्त्री. (दंष्ट्रा बड़ा दात, दाद, ३२५ । तानु सार, ०१,४६८। ताडेइ सक. (ताडति) वह पीटता है, ताइन करता है, तणु न. (तनु = लघु) पतला, दुर्वल, थोड़ा, ४०१ । २७। तत्तस्सु न. (तत्त्वस्य) तत्त्वका, ४४०।तालिसा वि. (तायाः) उसके जैसे। तन्तु अ. (तत्र) वहीं पर, ४०४।। तापस पु. (तापसवेष) तपस्वी का वेष, २३ । तस्थ अ. (तत्र) वहाँ पर, ३२२ । । ताम अ. सावत्। तब तक, तदो अ. (ततः उसमे, २६. नामहिं अ. (तावत्। तब तक, ४०६ । तधा अ. (तथा) उसी प्रकार से, २६०। तामांतरी पु. दामोदर:) माम विशेष ३०७, ३२५ । तनु वि. (तनु) थोड़ा, ३२६ । ' तारिसे बि (साबुनः) उसके जैसा, २८७ । तालिगण्टइ सक, भ्रमति वह भ्रमण करता है. ३०। । नाव पु. (ताप) ताप, गरमी. " तवइ अ. (तपति) वह तपता है गरम होता है, ताव अ. (तापत्) तब तक, २६२, ३२१, ३२३ ॥ ताँव अ. (तावत्। तब तक; ६९५ । " संतप्पा अ. संतपति। वह संताप करता है.५४० । तिक्खा वि. (तीक्ष्णान) सीखों को, पैनों को, ९५ । तप्पनेसुपु. (दर्पणेषु शीशों में ३२६ । तिवेइ सक. (तीक्ष्णयति। बह तीखा करता है, ३४४ । तमाडइ सघ (अमति) वह घुमाता है, ३.। तिट्ठी वि. (दृष्टः) देखा हुआ, ३१५, ३२१, ३२३ । तर, तर अक. (शक्नोति) वह समर्थ होता है. ८६ | तिण न. तृणं) बाम, तण, ३५८। | " तिणु म. तृणं) घास तृण "तीरइ, तरिज्जद मक. (नीपते) तेरा जाता है, पारनिर्षि वि. (विभिः तीन से. (त्रिषु तीन में, ३४७ । किया जाता है, २५०। तित्थं न, (तीर्थम) पवित्र स्थान, धागे संघ, " उत्तरइ सक. (उत्तरति , वह उतरता है, पार जाता है, तिदन बि (त्रिदेश) तेरह ४४२ । सरू पु. (तरु) झाड़, पेड़, वृक्ष। ७० । तिन्तुब्बाणु वि. (निमितोद्वानम्) गोला, और सूखा, "तरुहें पु. (तरोः) वृक्ष से, ३४१ " तरुई (तरुणाम्) वृक्षों का, ४११। तिमिर न. (तिमिर) अन्धकार ३८२। " तनहुं पु. (तरुभ्यः) वृक्षों से. ३४०, ३४१, ४११ । । निम्मइ अक. (आो भवति) वह गीला होता है. तरुपरहिं पु. (तरुवरैः वृक्षों मे, ४२ । ४१८। तरुणही प्र. (हे तहणा:। हे ३४६, ३५०, ३६७ । तिरिनिछ वि. (तिर्यक) तिरछा. २९५, ४२० । " तरुशिको पु. हे तरुण्यः) हे जवान पुरुषों ! ३४६ । तिरिछी वि. (तिर्यक तिरछी तेज, वक्र, ४१४ । सलथएटइ सक. (भ्रमति । वह भ्रमण करता है, १६१। तिरिश्चि वि. (तियक) तिरछा, कुटिल, २६५ । ताल तले न. (सले) तले में, के नीचे में ३३४। तिल पु. तिल) एक तिलहन, तिल-तिब्ली, ४०६ । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तिल पु (तिलानाम् ) तिलों का ४०६ ३५७ तिलवनि (तिल) तिलों के खेतों में तिलतारु पु. ( तिलतार ?) तिलों में तेल के समान ३५६ ४०६ ३७६, ३९५, ३२७, ४२२ || तिचे तिवँ प्रतिभा तथा उसी उसी प्रकार से, ३४५, ३६७, ४०४ । ३९५ । ८६ । " ار " तिलत्तणु न. ( तिलत्व दिलों का तिलपना, तिर्वै अ. (तथा) उसी प्रकार से, तिसई तीरह ور " 59 #1 13 " st 31 53 7) 2" 31 तुडु सर्व. (एवम्) तू. fr. (तृषः) प्यास के क. ( शक्नोति ) व सुच्छ " ३८७, ४००, ४२१, (वाम) (स्वयि) तुझ पर तुम सर्व ( स्वत्) तुहासे, लब) तेरा, ते सर्व (व) तेरा, तुष्ट सर्वस्वम् त्वाम् तत्र तू, तुझको तेरा, तहूँ स (स्व) 31 तुम्हई सर्व. (मात्र ) तुमको, तुम्हे हि सर्व. ( युष्माभिः ) तुझसे, तुम्ही सर्व (युष्माकम् ) तुम्हारा, तुम्हा सर्व . ( युष्माकम् ) तुम्हारा, तुम्हासु सर्व. ( युष्मासु ) तुम्हारे में, सुदृइ " तुज्भु तुहि समर्थ होता है, ३३०, ३६८, ३७० वि. ( तुच्छ तुच्छ, हलका, तुच्छ वि. ( लुच्छे हलका, नगण्य, सुट्टड तर सर्व (वत्) तुझसे, (तब ) तेरा, ३६१. ३७०, ३८३ । सर्व (स्वत्त] तुझसे, तेरा ३६७, ३७०, [ ४१ ] तेश्रणं | तेश्रवइ ४२५, ४३९ । ततइ सिओ को ३७०. ४५२ ।। तेतली ३६७, ३७२. ४.५, ४४१ । तुन सर्व (स्वत्) (तव) तुझसे, तेरा, ३७२ | तुमाती, तुमातु सर्व (ख) तुझसे, ३०७, ३२१ तुम्हे सवं. ( यूयम् ) तुम (युष्मन्) तुमको. तच्छयर वि. (तुच्छतर ) ज्यादा हलका, अ. (दुमति) वह टूटता है, अक . ( त्रुदय, (यदि ) टूटे, स्त्री (त्रुटि) सुनता, कमी, दोष, तेवँय ३७२. ३७७ । । तेषडु तेवरों नगण्य, ३७१, ३७८ ३८८ | तत्थु ४३९ तेव ते ११६, वडइ तुम्विणि तुलइ ३६९ । ३६९। तुलिय तुम्हारे वि. (तुलित तुला हुआ, सवं. (स्वदीयेन ) तुम्हारे से तूतू तूगतो न. (दुरात्) दूर से, तूमइ शृणु अ. ( तुष्यति) वह सतुष्ट होता है, न. (तृणम्) घास, तिनका, तृणाई न. ( तृणानि ) तिनके, ३५० ॥ २३०, ३५६ । ३६० ॥ तेहड़ हिं ३७३ | | तोड ३०० । ३७४ । ३५० । ३५०, ३५४, ५११ | ते ता तोमि ist ११६ । ४२७ । निश्चय २५ । १८२ । ४३४ । ३२१,३२३ । २३६ ॥ ३२९ । ४२२ । न. पु. ( तेजनम् । कान्ति को, प्रकाश को, १०४ । अक (प्रदीपयति ) वह पता है. १०४. ५३६ । ३९५ । " प्रक. ( त्रुट्यति) वह टूटता है. स्त्री. ( तुम्बिन्याः) फल विशेष के सक. (तुलयति ) तोलता है, ठीक २ करता है, 33 अ. (ता, तस्मात्) तब उस कारण से, ३३६, ३४१ ३४३, २६५, ३६७, ३७९, ३९१. ३९५, ३९८, ४०४, ४१७. ४६८, ४१६, ४०२, ४२३. ४३९, ४४५ । सक. अ. ( तुडति ) यह तोड़ता है, भांगता है, वह टूटता है. १९६ । वि (तोपित ) जिसने सतोष कराया है, ३३१ । अ. (इति) ऐसा, इस प्रकार, ४२३, ३०२, ३५२,३५७ । ३६० । सर्व. (म्ह जराको, वर्तुवरइ अ. (वरयति) वह शीघ्रता करता है; अ. (तत्र ) वहाँ पर विवाद उतना वि. (लाभ) उतना अ. ( तंत्र ) वहाँ पर अ. तथा ) उस प्रकार से, अ. (तथा) उस प्रकार से, ४०७ । ४०४, ४०५ । ४१८ । ३४३, ३९७, ४०१ 1 ३९७, ४३९ । ३९५, ४०७ । ३२४ । ३५७ । ४२५ । ४०२ । अ. (तथा) उस प्रकार से बि. (तरबानू) जलना, पु. (देवर) पति का छोटा भाई वि. (तथा) उस प्रकार से, म. ( तादय्ये स्थय उसके लिय वि. ( तादृशः) उसके जैसा; १७० । तूरइ अक स्वरति) वह शीघ्रता करता है, १७१ । वरन्तो व. कृ. (स्वर) शीघ्रता करता हुआ, १७० ॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 31 थकद " " थके थण थप श्रद्दारु थल यलि तुरन्तो व क्र. (त्वरम् ) शीघ्रता करता हुआ १७१ । तरन्तो व. कृ. (त्वरन् ) शीघ्रता करता हुआ, १७२ रवि. ( स्वरित: ) शीघ्रता किया हुआ; १७२ | थारणं थामं थुब्वाइ धूलो थश्र थोबा दछ 31 11 JP न. (स्थानम् जगह, स्थान, न. (स्थाम्) बल, वीर्य पराक्रम २६७ । श्राई पु. ( स्वाघ) थाहू. तला, गहराई का अन्तः थिइ अक (तृप्यति) वह तृस होता है, १३८, १७५ । थिरतगुडं न (स्थिरत्वम् । अचञ्चलता, स्थिरता, ४१२ सक. (रतूयते) स्तुति किया जाता है, २४२ । स्त्री. (धुली, धूल, रजकण, ३२५ । पु. ( स्थेय) न्यायाधीश, फैसला करने वाला, द दह इवें [थ ] अंक. (तिष्ठति ) वह ठहरता है, अ. (फक्त) नीचां ग दसण दडवड दडवडड दइएं वि. (दमितेन ) प से, न. (देवम्) भाग्य, न. ( देयेन ) भाग्य से, थड दम्मु दिट्ट faga १६,८५ करोति वह नीचे जाता है, २५९ । अक. (तिष्यति) वह ठहरता है, ६७० पु. (स्तन) बुच, पयोधर, स्तन, ३५० ३६७ । पु. ( स्तनानाम् ) स्तनों का १९० । पु. ( स्तनभारः) स्तनों का बोझ वि. ( धरम्) धारण करने वाले को स्त्री. ( स्थली ) जगह, स्थान, ३०, ३४४, [ MR } वि. ( स्तोकाः ) अल्प, थोड़े, [द] वि. ( दयितः) प्रिय प्रेम पात्र, पति अ. (अवकन्द ) शीघ्रता पूर्वक, अ. (शीघ्रमेव ) जल्दी ही, वि. (दग्ब) जला हुआ, पु. ( द्रम्मम्) सोने का सिक्का, वि. (हृष्टा ) देखी गई, वि. (दृष्टः ) देखा गया, २५२, ४१४ . ३२६ । पु. न. ( बेन) भाग्य से, न. पु. (दर्शन) अवलोकन निरीक्षण, ३६३ । १६ । २६७। ३७६ ॥ ३४०, ४:१, ४१४ । १३२, ३४२ । ३८९ । ३३१ ॥ ४०१ । ३३० । ४२२ ! ४२२ । ४२२ । ४३२. ४३३ । ३९६, ४२९ । 31 33 " 11 " " גי " 15 د. " " " 27 #1 " ( 21 ג' 37 वि. (दुष्टम् ) नीच को, (दुष्ट) देखा गया, ४०१। ४५१ । वि. (दुष्टम् ) देख लिया गया है, ३७१ । दिवि (दृष्टे ) देख लेने पर देखा हुआ होने पर, ४२३ । ३६५ । ३९६ । ४२२ । ३१४, ३२३ | ३२३ । २१३ । २१३ । ३१३, ३२० । ३१२, ३२३ । देखने योग्य, २१३ । दरिम क्र. ( दर्शयति ) दिखलाता है, बतलाता है, ३२ । クラ ਵਿਣੁ " दि स्त्री. ( दृष्टि: ) नजर, दहमुद्द 31 दिइ वि. (दृष्टे | देखने पर, चिट्ठ वि. (दृष्टे) देख जाने पर डिठ्ठा वि. (इष्ट) देखें गये है, तिट्ठा वि. (दृष्ट) देखा गया; श्रतट्ठ वि (अदृष्ट } नहीं देखा हुआ; १७६ । दलहू * - डहिज्जइ मक. (दह्यते) जलाया जाता है, २४६ । ३६५ ॥ 27 दड्ढ ३४३ । दड्ढा ३३१ । ४२५ । वदतु दट्टू स. कृ. (दृष्ट्या ) देख कर के, तवून स. कु. तथून स. कृ. दट्ठव अ. है. कृ. ( दृष्टुम् ) देखने के लिये, दक्खच सक. दर्शयति दिखलाता है. दुसइ सफ ( दर्शयति दिखलाता है, दपिज्जन्त ब. कृ. (दमानः ) दिखलाया A (दृष्ट्वा ) देख करके, (वा) देख करके, (दृष्टव्यम्) देखना चाहिये, दाव सक. ( दर्शयति ) बतलाता है; सक. ददाति देता है, देसि 設 बि. (दुग्ध) जलाया हुआ; वि. ( दग्धा) जलाई हुई; पु. दशमुख) रावण, पु. ( देशे ) देश में, क. ( ददाति देता है. द सक. (ददाति देता है, तेति सक. ( ददाति देता है, देम्ति सक. ( दत्तः दो देते हैं; ४१४ ३८४ । देन्तो वि. (दपतः ) देते हुए का; ३७९ । " देतिहि ( दिन्तेहि ] वि. ( ददतीभिः ) देते हुओं से ४१९ । ३२ । ३२ । जाता हुआ; ४१८ । ३२ । २३८, ४०६ ४२०, ४२२ ४२३ । २७३ । २१८ । सक. दत्त । देखो, प्रदान करो, Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम [ ४३ ] " देपितु सं. ऋ. (दस्वा : देकर के, प्रदान करके, ४४० । | दुगुच्छइ सक. (जुगुप्सति) वह निन्दा करता है, २४० । " देह स. फ. (दद्याः' देओ; प्रदान करो, ३८३ । | दुगुम्छा सक. (जुगुरपति। वह धृणा करता है, । " देजहिं स. क. (दीयन्ते । दिये जाते हैं, ४२८१ | दुजण वि. (दुर्जन) दुष्ट पुरुष, ४१८ । " वियते स. क. (टीयते) दिया जाता है, ३१५ । | दुहु वि. (दुष्टम) दुष्ट को; ४०१ । " दिज्जा स. क. (दीयते। दिया जाता है; ४३८ । । दुहिमखें .न. (भिक्षेण अकाल से, ३८६। " दिगणी वि. (दत्ता) दी गई है, ३३०, ४.१ । | दुमइ सक. धवलयति) वह सफेद करता है, २४ । " दिसणं वि. (दत्तः) दिया हुआ ३०२।। दुय्यणे पु.(दुजनः) दुष्ट आदमी, २१२। " दिएणा वि. (दत्ता:, दिये गये थे, ३३३ । दलहहो वि. / दुर्लभस्य दुर्लभ का, ३८,३७५,४१०॥ दाणि म. (इदानीम्) इस ममय में, २७७, ३०२ . व्यर्वाशदेण वि (दुर्व्यवसितेन) खराब स्वभाव । ३०२ । दासोतरा पू. दामोदरः, नाम विशेष; ३२७ । दुवयप्तिदेण वि. (दुर्व्यवसितेन वाले से, 1 २८२ । दाग्न्त वि. दारयन्। माइते हा को. ३४५ ४४५ । दुह- सक. दालु न. (दारु, लकड़ी, काष्ट, २८९ । " दुहिज्जइ, दुम्मइ, दुहिइ । दुहा जाता है, दुहा जावेगा, २४५ । दाव " दुध्मिहि । दुह्यते) अ. तावत् तब तक, २६२ ३०२ २२३ । न. दुःखम् । दुःख, पीड़ा; ३४० । दावइ सक. (दश यति)बतलाता है, दिनहडा पु. (दिवसा:) दिन, दूअडउ पु. (दुतकः) सदेश ले जाने वाला; ५१९ । ३३३, ३८७। स्त्री. दुति) संदेश लाने ले जाने वाली, ३६७ । दिनदा पु. (दिवसाः) दिन ३८८ ४१८॥ सक, (दुनोति) दु:ख देता है, २३। दिग्घा वि. दीर्घः) बड़ा, ऊषा लम्चा, दामए वि (वलितम) सफेद किया हुआ, २४ । दिद्रि स्त्री. दृष्टिम् । नजर, न. (दूरम् । दूर, ४२२ । दिट्ठी स्त्री. (दृष्टिः ) नगर; ४३१॥ दिणयह पु. दिनकरः) सूर्य; दूरु न. {दूरम्) दूर ३७७४०५। रादुन. (दुरात् । दूर से, दिनु पु. (दिन:) दिन, दिवस, १०१। दरे न. (दुरे। दूर पर, ३४९, ३६७ । दिवि दिवि पु. (दिवसे दिवसे) प्रत्येक दिन में, ३९९, दूरुडाणे वि.दूरोड्डानेन) दूर से गिरने से, ३३७ । " दिवहिं पु. (दिवस:) दिनों से, ४२२। दूम सक. (दुष्पति) वह दोष देता है, ५३६ । दिव्य वि. (दिव्यानि) दिव्य, देवता सम्बन्धी, ४१८।। दूपासणु पु. (दृश्शासनः) नाम विशेष, ३९१ । दिव्वन्तरई न. ( दिव्यान्तराणि । दूसरे देवलोकों को, देख४४२। " देवख सक. (पश्वामि) मैं देखता हूँ, ३५७ । दिप्ति स्त्री. दिशं) दिशा को, ३६८ । " दक्ख सं. कु. (दृष्ट्वा ) देख करके, दिसिहं स्त्री. (दिशो:) दोनों दिशाओं में ३४० । " देक्खु सक. (य) देख, देखो, ३४५, ३६१ । दीप- सक, (पलीबइ) जलाती है, प्रकाशित होती है, " देवि सं. कृ. (दृष्टया देश करके; ३५४ । १५२। देवं पु.(देवम्) देवता को, ४४१। दीहर नि. (दी) बड़ा, लम्बा, ४१४.४४४ । देस पु. (देशाः) देश जनपद, ४२२। दीहा वि. (दीर्घ) बड़ा, लम्बा, ३३० । | " देसहि पु. (देशे) देश में, जनपद में, ३८६ । दुभुच्छा सफ (जुगुप्सति यह निन्दा करता है, ४ । पु. (देशे) वेश में, जनपद में, दुउछह सक । जुगुप्सलि) वह घृणा करता है, ।। ' देभडा पु. (देशं) देश को, ४१८। दुशरु कि. (दुष्करः) कठिन, कठोर, ४१४, ४४१।देसन्तरित्रवि (देशान्तरिता, दूसरे देश को चली गई हैं. दक्न पू. न. दुःख) कष्ट पीड़ा; ३५७ । ३६८। दुक्खसहे बि. (दु खसहः) दुःख को सहन करने वाला, | देसुच्चाइणु न. (देशोच्चाटनम्) अपने स्थान से उखाड़ा २८७।। जाना, ४३८। १०१। दूगदो, दुराद Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [ ४४ ] दो-दोएिण वि. (द्वि) दो; ३४० ३५८ ।। " -श्रदःदोलेइ अफ. (दोलयतिहिलता है. झूलता है, ४८।" सहइ, ( सहइमाणो -सक (अधाति ) विश्वास दोसड़ा (दोषी) दोष, बुगई, ३७९, ४२२।। करता है, ९। " दोसु पु. (दोषः) " " ४३९ । धाडह प्रक. (निः परति) बाहिर निकलता है, ७९। द्रम्मु न. (म्मम्) दमड़ी को, सिक्के को; ४२२ । धार स्त्री. (धाराम) धारा को बूद को); ८०। द्रवका न. (भयम्) भय, ४२२ । धाव-धाइ अक. (धावति । दौड़ता है, २२८, ४३६ । द्रहोन्द्रहि पु. (हृदे) जलाशय में, ४२३. धावड अक (धावति) दौड़ता है, २२८, २८। द्रोहि स्त्री. (दुष्टि.) नजर, ४२.। "धुवई अक (धावति) दौड़ता है, २३८ । "धावान्त अक (बायन्ति दौड़ते हैं २२८. [ध] "घाहिइ अक (धायिष्यति) दौड़ गा; २२८॥ धंसाडइ सका. (मुञ्चति) छोड़ता है, * घाउ अक. धावतु) दोड़े; २२८। धीवले पु. (घीबरः) शिकारी, मच्छीमार; ३०', घण स्त्री. (अन्या) नायिका मिर, १३०, ४३ ३०२। ४४४।। 1" धणि स्त्री. ( हे धन्ये ! ) हे नायिका ! ३८५, ४ ८। धुद अइ अक. (शब्दं करोति शब्द को करता है:३९५ । " घण्हे स्त्री.धन्याया: नायिका का, ५०, ३५४, | धुरु स्त्री (धुराम्' धुरा को; | बू धुणइ सक. (धुनाति) वह घुनता है; ५९, २४१ । | "धु सक (धुनाति) वह पाता है. हिलाता है,५९ । घणनए पु.(धनंजयः) अर्जुन, २९३ । धुणजइ. धुब्नु मक. धूयते कंगाया जाता है. २४२। धणं-घा न (धन) धन-सम्पत्ति ३५८ ३७३ । धुम पु .धूम:धूआ; अग्नि-चन्ह ४१५,४१६ । धमाझ सक. (घृणायते) दया करता है. ४४५ । । धूलडिंया स्त्री. (धूलिका) धुलि, रज-कण ४३२ । घमुस्खएईम. (धनुषखण्डम्) धनुष का भाग २८६ । सर्व.( यत्) जो; ३६०,४३८ । धनं न. (धनम्। धन-सम्पत्ति, २०६। ' | ध्र बु अ. ध्रुवम) निश्चय ही; ४१८ । धम्मु . पु. (धर्मः) धर्म, नैतिकता, ३४,३१३ । पम्मि पु. (धर्मे) धर्म-कायों में, ४१९ । [न घर पु. (घरा--आधार:) सहारा. ७७ । अ. ( न ) नहीं; ३३, २९५ ३३२ इत्यादि। पु. (धरा = पृथ्वी) सहारा, पृथ्वो, ४१ । नई स्त्री. (नदी) नदी, जल-धारा, घाव अक. (पति) आधार रूप बनता है, २६४, ४२२ । ਜਤ अ. (नतु) समान, इव, ४२१, ४४४ । नकर न. (नगरम् । नगर पाहर, ३२५, ३२८ । सक. ! धरति) धारण करता है, ३३६ । नख पु. नख। नख, नाखून, ३२६ । धरहि मक. (धरंति) धारण करते हैं, ३८२ । । नट-नट्राइमक (नति। नानता है. २३०॥ धरहि सक. (घर) धारण कर, ४२१।' नडर अक. (नटतु नाचे २८५ । धालेघ सक. (धाग्य) धारण करो, ३०२।" नडिजइ अ. (नत्यते । नाया जाता है। धवल पु. (घवल - बलीदर्द) बैल, सत्त श्री पु. (नप्ता) पुत्री का पुत्र, १३७ । " धवलु पु. (धवल:) धोरी बैल, ३४० । | नन्द अक. (नन्दत) खुश होवे. ४२२ । धवलह सक, (धवलयात) सफद करता है, २४ । नं . (ननु। । इव) समान, २८२, ३९६.४४४१ धा-धाइ-धाश्रइ अका. धावति ) दौड़ता है, "निधिसत्र वि (निहितम् । रखा हुआ, ३९५ । । " एवइ अक. (भाराकान्तो नमति) बोझ से नमता हैं, "विहिदु कि (विहितम्) रक्खा हुआ, १५९, २२६ । घ ४२१।। २४०।नम् Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाह " नहिं सक. (नमन्ति) नमते है, ३५७ । ] नह नहेण-पु. (नखेन) नख से ३३३, ३४८ । " नमहु सक. (नमत) तुम नमस्कार करो, ४४६ । नाइ अ. (नूनम्-उत्प्रेक्षा)निश्चय ही; ३३०.४४४। " नमय सक, (नमत) तुम नमस्कार करो, ३२६ । | नाई अ. (नूनम् =" ") " " " नवन्ताई वि. (नमताम्) नमस्कार करते हुओं का, नाए सर्व. (तया) उस (स्त्री। से: ३२२ । नाड्यं न (नाटकम्) नाटक, खेल; २७० । "उन्नामइ सक. (उन्नामसि) ऊँचा उठाता है, २६ । नायगु पु. (नायकः) मुख्य पात्र, ४७। " पनमथ सक. (प्रणमत) तुम नमस्कार करो. ३२६ । नारायणु पु. (नारायणः। ईश्वर, विष्णु ४०. । समिल वि, (नमनशील) नम्रता के स्वभाव वाला, नालिउ वि. । मूठ:) मूर्ख, मोह-असित; ४२२ । २८८ नाव स्त्री. (नो:) नौका, जल, वाहन, नमो अ. (नम:) ममस्कार, २८३ । नाव अ. (उत्प्रेक्षार्थ कल्पना अर्थ में, ३३१,४४४। नयण पु, न. स्त्री (नयन । आँख, ४१४, ४४२ ।। नाहिं अ. (न) नहीं, ४१९, ४२२ । नया पु. । नयनानि) आँखे, ४२२ । पुनाथः) स्वामी, मालिक, ३६०, ३९०, यणेहि पु. (नयन: आँखों से, ४२३ । नर पु. (नर) आदमी ४१२ ४४२ । निग्रह सक. (पश्यति देखता है, १८१ । " नरु पु. (नरः) मनुष्य " मिश्रन्त व कु. (अवलोकयन्ती) देखती हुई, ४३१ । निश्चम्बिणि स्त्री. (नितम्बिनी) स्त्री, विशाल पूढवाली, ४१४ नन् - निश्रय वि. (निजक} अपना, ३४४, ३५४, ४०१, " नच्चइ भक. (मृत्यति) यह मानता है; २२५।। ४४१। " नकचन्तस्स ब. क. नृत्यतः) नाचते हुए के; ३२६ । निगत वि.(निर्गत:) निकल गया, चला गया, ३३१ । " नच्चोविड वि. (नतित:) मचाया हुआ; निग्घिण वि (निघृण) दया होन, ३८ । नलिन्दाणं पु. (नरेन्द्राणाम्। राजामों के; ३००। निकबद्ध वि. (गाउम्। प्रगाड़, मजबूत, ४२२। नले पु. (मरः) मनुष्य; २८८. निकवल बि. (निश्चल) अटल दड़, सब वि. (नव) नूतन, नई, नया; ४०१ । निश्चिन्त वि. (निश्चितम्) पक्का, ४२२॥ 11 नव अक. (नमति नमस्कार करता है; ३९६ ।निकिचन्दो वि.(निश्चिन्त:) चिन्ता रहित, नवखी बि. (नवा) नई, अनोजी; ४२०, ४२२ निच्च भ. नित्यम्। सदा, हमेशा, नवरि अ. (केवलम् सिफ; ३७७, ४०१, ४२३ । लिच्छ म.(निश्चयन निश्चय से, नवि अ.(न+अपि) नहीं भी; ३३०,३३९ अ, (निश्चयम्) परका, ५२२ ३५६, ३६५, ४०४.४१, ४२२ । निच्छरो पु. (निर्झरः) झरना, पानी का बहाव ३२५ । निच्छूट वि. (क्षिप्तम् ) फेंका हुभा, २५८। " नस्साई अक. (नश्यति) वह नष्ट होता है; १७८ । निज्जिर वि. (निर्जितः) जीता हुआ, " नत्थून, नद्धन ब. क. (नष्ट्र वा) नष्ट होकर; ३१३ । निमाश्रय सक. (पश्यत) देखता है; १८। " नासइ प्रेर. (नाशयति) बह नष्ट कराता है; ३१, निरहवाइ सफ. निन्हते) अपलाप करता है, २३३॥ २३८ । निद्द स्त्री. (निद्रा . नीद, ४८. " नासन्तअहो प. कृ. (नश्यतः) नष्ट होते हुए का; | निए स्त्री. (निंद्रया) नींव से, ४३२ । ] निद्दडी स्त्री. (निद्रा) नींद, ४१८. " नासवइ प्रेर. (नाशयति) वह नष्ट कराता है; ३१। निदाइ अक. (निद्राति) बह नींद लेता है, १२। " पणट्टा वि. (प्रनष्टे) नामा होने पर, ४१८, १०६ || निन्नेह वि. (निःस्नेहा) प्रेम रहित, ६७। " घिणट्टर वि. विनष्टे) नाश होने पर; ४२७ । | निमिअं बि. (स्थापितम् । रखा हुआ; २५८ । " विनासिधा वि. (विनाशित) नष्ट हो जाने पर;४:। निम्मबह सक. (निमिमीते) यह जमाला है, १९ । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] निम्माणइ सक. निमिमीते) बह रचना करता है, १९ । ] नीसामु पु. (निश्वासम्) निभास को, ४३० । लिय (निज । खुद, २८२, ३०२,३४९ । अ । नु) वक्रोक्ति, प्रश्न आदि अथों में,३०२। नियोचित बि नियोजितम्) योजना किया हुआ, ३२५ । । मह सक. (छावयति) यह ठकता है, छिपाता है. नियोजित वि. (निमोजितम) " " " ३.७। निरक्खय वि (नीरक्षकान्) देखने वालों को, १८ । नेन सर्व. (अनेन. तेन) उससे, इससे, ३२२ । निरामइ वि. निरामये) रोग रहित में, ४१४। | नेहपु . (स्नेह) प्रेम, राग, ३३२, ४०६ । निरुपम वि. (निरुपम अद्वितीय, ४.१ ४४४ । " नेह पु. (स्नेह) "" निबट्टाई वि. (निवृत्तानाम् । लौटे हुओं का, १३२ । । " नेहो पु. (स्नेहस्य) प्रेम का, राम का, ४२६ । निवडण न. (निपतन) गिरावट, ४४' | "नेहिं पु. (स्नेहेन। प्रेम से, राग से, निवाणु न.(निर्वाणम् मोक्ष, छुटकारा, ४१९। "नेहि पू. (स्नेहे) प्रेम में, राग में, निवारण न. (निवारणम्) रोकना, रूकावट, २९५ । "नेहडा पु. (स्नेहः) प्रेम, राग, १५६॥ निवारणाय न. (निवारणाय) रोकने के लिये, ४४८ । निवाशी वि. निवासी) रहने वाला, ३०२ [प] निवासह वि.(निवासायाः) रहती हुई का, १०॥ निवलइ अक. (निष्पद्यते। वह सिद्ध होता है. १२८ । | पइँ सर्व. (त्वया) तुझ से, ३५७, ३७०,३७७, ४२१, निसंकु वि. (निःशङ्कम् । शंका रहित, ३५६, ४०१ । ४२२॥ निमिश्रा वि. (निशिता:) शेज सीखे, २३. पड पु.न. (पदे) पद पर, स्थान में, ४१४ । निभिरइ सक. (निसृजति बाहिर निकालता है.२२९।। -पइ पु.न. (पदे पदे) पग पग पर, पद पद में, निमुट्टो वि. (निपातितः भ्रष्ट हुआ, गिरा हुआ,२५८ । निसहइ सक. (निषेधति निवारण करता है. १५४ पट्टि वि. (प्रतिष्ठिता) स्थापित की हुई, ३३०। निरफलं वि. (निष्फलं) फल रहित, २८९ पड .न. (पदम्) पद को, निहवइ सक. (कामयतेबह! मंथन की इच्छा करता है परलइ ९.। सक. (पति) पकाता है, २३३। पाहर पु. (पयोधर) स्तन, निहि .(निधिः। खजाना, " पोहरह पु. (पयोधराणाम्) स्तनों के, ४२०॥ निहु नि. (निभृतकम् ) गुप्त, प्रच्छन्न, पकुपित वि. (प्रकुपित) कोधित हुआ, नी-जेई सक.नियति) ले जाता है, २३७1 पक वि. (पक्व)-पका हुआ, कच्चा नहीं, ३४० । से दि सक.(नयति) ले जाता है; २७३, २७४ । पकं पु. (पक्षम्) पक्ष को, पार्श्व को. ३०२ । नेति सक.(नति )" " " पक्यालदु सक. (प्रक्षालवतु) धोत्रे साफ करे, २८८ । नेन्ति सक. (नयन्ति) ले जाते हैं, २७ । पक्वाडि वि (पक्षापतितम्) पक्षपात में पड़े हुए को,०४१ नेऊण, नोश्रो सं. कृ. (नीत्वा, नीतः) ले जाकर, ले जाया पकइ न. (पङ्कजे) कमल में कमल पर, ३५७ । हुआ, २३७ । पंको पु. (पच.) कीचड़, ४१४ । " अणुरोइ सक. (अनुनयति) तदनुसार ले जाता है, पगिग अ. (प्रायः) अक्सर करके, प्राय, १४। | पङ्ग सक. (गृहाति) ग्रहन करता है, २०१। " श्राहि सक. (आनम) लाओ, पच्चडह अक. (क्षरति। शरता है, गिर पड़ता है,१७३ । " आणिग्रह सक. (आनीयते) लाया जाता है, ४९। पचड़ अक. (गच्छति) जाता है, १६२ । नीरजइ सक, (मनक्ति) तोड़ता है. १०६ । । पञ्चलिउ अ. (प्रत्युत) उल्टा, विपरीत, ४२०॥ नीलद अक. (निस्सरसि) वह बाहिर निकलता है,७९ । पच्चारइ सक. (उपालभते) बह उलाहना देता,है, १५६ । नीसरहि अक. (नि:सरसि) तू चाहिर निकालता है,४३९ । पच्छह अ. (पश्चात्) पीछे, बाद में, ३६२, ४२० । नीसावन्नु थि, (नि: सामान्यम्) साधारण रूप से, ३४१।। पच्छायाघडा पु(पश्चात्तापः) पछतावा, Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] पच्छि अ. पञ्चात्) पीले. ३८८ ।। " पडि वि (पतिता) गिरी हुई, पनिछत्ताईन. (प्रायश्चित्तानि) प्रायश्चित्तों को ४२८ । | " पहिउ वि. (पतित:) गिरा हुआ पक्कि न. (प्रायश्चित्तन) प्रायश्चित्त से, ४२८."डया लि. (पतिलानि, गिरे हुओं को ३५८ । पज्जरइ सक. (कथयति) बह कहना है " पाडेह सक. (पातयति। गिराता है, २२॥ पजलिदी वि. : प्रज्वलित ) जलाया हुआ चमकने वाला, " पाडि वि. (पातितः) गिगया गया, ४२० । २६५ । | " निवडइ प्रक. (निपतति) (भ्रष्ट होता है) गिरता है, पजताउलो वि. :पर्याकुल:) विशेष आकुल, ४०६। पर अक. (क्षरति) सरता है, फिर पता है १७३ । । " निपतन्ति अक. (निपतन्ति) गिरते हैं, ३२६ । पचई वि. (पञ्चानाम्) पांच का ४२२ । " संपडिथ वि. (संपतितः) आ पड़ा, गिर गया, ४२३ । पञ्चाहि वि. (पञ्चः) पांच से, ४२२.४२९,४३१।। पताका स्त्री. (पताका। ध्वजा, पयले पू. स्वा. (प्राञ्जलि नमस्कार के लिए जोड़े | पतिविम्य न. (प्रतिबिम्बम् ) परछाई, छाया, ३२६ । हुए दोनों हाथ, २९३ । पतसा पु. (प्रदेश:) स्थान, देश का भाग, ३०७ । पत्र स्वी. (प्रज्ञा) विशिष्ट बुद्धि ३०३ । | पत्तत्तणं न. (पत्रत्व ३७." पा विशाल वि. (प्रशा विशाल) विशिष्ट विशाल | पत्न . (परैः पत्तों से, ३७०। बुद्धि वाला, ९३ । |" पत्ताणं न. (पवाणाम्) पत्तों का, पटिमा स्त्री. (प्रतिमा) मूति, प्रतिबिम्ब ३२५।।" पत्तलु वि. (पत्रवान्) पत्तों वाला, २८ । पट्टा सक, पिबति) पीता है, १०। पत्थरि पु.(प्रस्तरे) पत्थर पर, ३४४। पट्टण न. (पत्तन। नगर, ४०७। पद्पट्रया, पावसक. (प्रस्थापयति स्थापना करता है, ३७] " यावन्न वि, (ओपन) समीप में आया हुआ; २९५ । पट्टि स्त्री. (पृष्ठम्) पीठ, पीछे का भाग, १२९ । |" निरजइ अक. (निष्पद्यते) सिद्ध होता है; १२८ । पढिय्यते सक्र. (पठ्यते। पढ़ा जाता है. ३१५||" संपज्जई अक. (सपद्यते) सम्पन्न होता है; २२४ । " पदिएण, पंढत्ता सं. कृ. (पठित्वा) पढ़ करके २७१।। " संपन्ना वि. (संपन्ना) सिद्ध हुई; प्राप्त हुईं; २८५, " पढितून सं. . (पठित्वा) पढ़ करके, ३१ । ३०२। पडाट पु (पटह.) दोल, | पवई ___अक. 'गच्छति) जाता है। १६२। पाडगइ अक. (अनुन जति) पीछे पीछे जाता है, १०७ । | पदं न. (पदम् । पर, डग; २७० । पडरगण वि. (प्रतिज्ञेन) प्रतिज्ञा किये हुए से, .६०। | पनय पु. (प्रणय) प्रेम, गग; ३२६ । पडधिम्बिअपि. । पलिबिम्बित) परछाई पड़ा हुआ,४३९ । पन्थि पु. (पयि) मार्ग में; ४२९। पडिबगलइ सक. (प्रतिपालयति) रक्षा करता है, २५९। पन्धवो पु. (बान्धवः) बन्धु, सगा भाई, ३२५ । पडसाइ अक (शाम्यति) शान्त होता है, १६७।। पन्थि अहिं पु. (पथिक मुसाफिरों से; पथिकों से,४२९ । अक. (नश्यति) नष्ट होता है, भागता है, पन्नाडह सक. (मृन्दाति ममलता है, १२६ । १७८ । पप्फुलिश्रउ वि. (प्रफुल्लितः) खिला हुआ, प्रसष; ३९६ । पडिहाई अक. (प्रतिभाति) मालूम होता है, ४४१ । | पन्चालइ सक, · छादयति) ढकता है; २६ । पद सक. ( पट ) पड़ो, पाना, ३९४।।" सक. (प्लाययति) खूब भिजाता है. ४१ । पगएण पु. (प्रणयेन) प्रेम से, ४४६ 1 | पमाणु न. (प्रमाणम् )यथार्थ ज्ञान,३९५,४१९,४३८ । पणामइ सक. (अयति) अर्पण करता है, ३९ ।। पाणी कलेशि सक. (प्रमाणीकरोषि) तू प्रमाणित करता परणई न. (पर्णानि) पत्ते, पत्तों को, पत्-पडइ प्रक. (पतति) गिरता है, २६९, ४२२ । । पम्हटर वि. (प्रमृष्ट:) भूलाया है, " पद्धन्ति अक. (पतन्ति) गिरते हैं, ४२२ । ] पम्हलो वि. दे. (नष्ट: ?/ नष्ट, नाण प्राप्त, २५८ । " पडहिं अक. (पतन्ति) गिरते हैं, ३८८ । | पम्हुसइ सक, (विस्मरति) मूलता है, Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्हुइइ सक. ( स्मरति ) याद करता है. न. (पद) पदानि ) डर्गों को न. (पदानि) पदों को, (पदे) दो पय 15 पयई पयद पयवा पयं पयनइ सक. ( स्मरति ) याद करता है, ७४ पयरंद पयरका वि (पदरक्षैः) शरीर की रक्षा करने वालों के साथ, ४९८ । अ. (शैकशेति, शिथिलता करता है.७० । अ. (लम्बनं करोति ) लटकता है, क. ( प्रसरति ) फैलता है, पयारहिं पु. ( प्रकाराभ्याम् ) दोनों प्रकारों से पयासह सक. ( प्रकाशयति ) चमकाता है, पया से सफ (प्रकाशयति । चमकाता है, पयासु पु. ( प्रकाशः ) चमक, प्रकाश; पयाकुलीकर वि. (पर्याकुलीकृता) विशेष आकुल " " पर् در " "P , सक. ( पचति ) पकाता है, fr. (प्रकटान् ) खुले हुए पु. न. ( पवम्) पद को, पैर को, पूरइ पूर्व पूदि वि. (पूरित) पूर्ण की हुई, पार अपूर वि. (अपूर्ण) परिपूर्ण नहीं हुए में, अक. (शक्नोति){करने में) समर्थ होता पर- वावरेश मक. (व्याप्नोति ) काम में लगता है. वि. (पर) दूसरा, ३३५.३४७, ३७९ पर IP [ ४८ ] ७४ । | परि अ. (पुनः) फिर किन्तु, ३६६,४३७, ४३८ । पदों को, ४२० परिश्राइ अक (परिवर्धते ) बढ़ता है, डगों को, ३९५ परिषत्ता वि. दे. (परागताः) फैजा हुआ, प्रमृत, ९० | परिश्रन्तइ सक. (दिलष्यति) आलिंगन करता है, ३३८ । परिल सक (गच्छति) जाता है, ४२२ । परिइसक, (गन्छति ) जाता है, परिश्रमले सक. (वेष्टयति ) लपेटता है, परिणामी पु. ( परिणामः) फल, परित्ता यत्र सक. (परिश्रायध्वम् ) रक्षा करो, परिल्लइ प्रक. परिसंख) गिर पड़ता है; सक. ( पुरयति) पूरा करता है, वि. ( पूरिता) पूर्ण की गई है, परम परमत्थु परवसो पराई ३५०, परायो वि. (परागताः ) ( परकीयाः ) दूसरे, परावहिं सक. ( प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं, ७० । ७७ परिवाडे सक. (घटयति ) निर्माण करता है, ३५०५ (म त होता है, ३५७ || परिइसक (मृनाति) चूर चूर करता है, ४५ परि न. दे. (परिधानम् ) वस्त्र, कपड़ा. ३९६ । परिहास परिक्षण की हुई, २६६ || परोह १६९ । ३८३ । २६० ॥ ३९६ ३९७, ४४०, ४०६, इत्यादि । परस्सु वि. ( परस्य ) दूसरे का, परड़ ३३८, ३५४ । सक. ( भ्रमति ) भ्रमण करता है, घूमता है, १६१ । वि. (परम ) श्रेष्ठ, बड़ा ४१४, ४४२ । पु. न. ( परमार्थ) श्रेष्ठ कार्य, धर्मकार्य, ४२२ । वि. (परवशः) दूसरे के वश में पड़ा हुआ, २६६, ३०७ । दि. ( परकीया ) दूसरे से सम्बन्ध रखने वाली, ३६७ । ३०६ । ४४२ । ८१ । २९५, परोकखहों | पलस्त ४२२ । है,८६ । पलिग्ग पलु पलाबद्द पलुट्टा पलोडछ 35 पलोड पल्ज़गुइ पल्लव 11 २२० ॥ ३९५ ! १९० । १६२ । १६२ । ५१ । २०६ । २६८ । सरक जाता १६७ । ३४१ । पु स्त्री (परिहासः) उपहारा, हँसी, ४२५ । वि. (परिहीण ) रहित, कम, न्यून, ६०४ सक. (भ्रमति) घूमता है. १४३, १६१ । न ( परोक्षे) पीछे, आंखों के सामने नहीं होने पर, ५० । । ६७ । १२६ । ४१८ । बि. ( परस्य ) दूसरे का, ३०२ । सक. (नामापति भगाता है, नष्ट करता है, ३१ पु. ( परिग्रहः) संसार सम्बन्धीत ३०२ । अ. (पलम् ) थोड़ी देर के लिये भी, अथवा थोड़ी भी, } २९५ । वि. ( पर्यस्ते ) मरे हुए परिपूर्ण सक. (प्रत्यागच्छति ) लौटता है, वापिस आता है. १६६ / क. (पति) पलटता है, प्रवृत्ति करता है, ४२२ पु. (पल्लव) अंकुर. पल्लवाई पु. ( पल्लव:) अंकुरों से, २००१ अक ( प्रलुटति ) जमीन पर लोटता है, २३० / बि. (स्तम्) फेंका हुआ हुत, विक्षिप्त, २५८ ॥ क. (पस्पति) पलटता है, २०० । ३३६ / ४९८ । ४२० । निकालता ६ २६ । पल्लबद्द सक [ पल्लवयत ] पीछा बुलाओ. पत्थइ सक [विरेचयति ] [ मल को ] बाहिर < Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] पमहत्थई अक. (पर्यस्यति) पलटता है; २००। पातम्ग वि (प्रत्यन सामने. आप, ३२२ । पत्थं मि. (पर्यस्तम्) फैका हुआ, हत, विक्षिप्त, | पालुक्खेवेन न. (पादोत्शेपेण) पैरों के पटकने से, ३२६ । २५८ । पारइ सक. (पारयति) पार पहुंचता है ८६ । पवय पु. (प्लवग) बानर; कपि २२० । पारकरं वि. परकीयम् दूसरों से सम्बन्धित, ४४ । पवासुबाई वि. (प्रवासिनाम् विवेश में रहे दुमों का; | पारका वि. (परकीया) दूसरों की, १७९, ३९८, ३९५ । ४१७॥ पविरंलइ सक. (भन क्ति) भांगता है तोड़ता है। १०६ । | पाल को पु. (बालकः) बच्चा, शिशु. ३२५ । पवती स्त्री. (पार्वती) पर्वत की पुत्री, संज्ञा-विशेष पालम्वु पु. (मालम्बम्) अवलम्बन सहारा, ४४६ . पालेविहे कृ. (पालयितुम्) पालने के लिये, ४४१ । पव्यायई अक. म्लायति) सूखता है. १८। पार्षद सक (लावयति) खूध भिगोता है, ४१ शप्तइ ३०२ । सक. । पश्यति । देखता है, पशादाय पु (प्रसादाय) प्रसन्नता के लिये १८।। पश्चादी अ. (पश्वात् । पीछे; | नि अ. अपि) भी, पिय वि. (प्रिय) प्यारा, ३३२, ३५० इत्यादि । पसरो पु. (प्रसरः) फैलाय; १५७ । "पि . (प्रियः पति, प्यारा, ३४३. ३५२, ३८३, पसाउ पु. (प्रसादः प्रसन्नता ३९६ इत्यादि । पस्टे पु. (पट्टः। पहिनने का कपड़ा; पाट-पाटिया; २९०। पिएं . (प्रियेग) पति से, ४०१, ४२३, ४४४ । पिस्सु पु.(प्रियस्य) प्रिय के, पति के, पु. (पन्याः) मार्ग; रास्ता: ३५४ । पिमहापु' प्रियस्य) पति के, पहम्मई सक. (गच्छति . प्रकर्ष से म ते करता है;१६२ । ४१८, ४११ । पहला अक. (घूर्णति) घुमता है; काँपता है; डोलता है." पिए पु. प्रिये) पिय के होने पर, ३६५, ३९६. ४२२ । पिनयासस्न पु. (प्रियवयस्यस्य) प्रिय मित्र के, २८५, पहाड पु. (प्रभाव:) शक्ति, सामथ्र्य; ३४१ । ३०२। पहिलं पु. (पधिक:) मुसाफिर, ४१५, ४२९, ४५ | पिपास स्त्री. (पिपाना) प्यास, तृपा ४३४ । पहिला पुहे पथिक !) हे यात्री ! ३७६, ४३१ । | पिन्छह सफ, (प्रेक्षते) देखता है, २९५ । पहुचद अक. (प्रभवति) पहुंचता है, ३९०, ४१९ । पिद्रि स्त्री. (पृष्ठम् । पीड़े का, पीठ, ३२९ । पहुप्पइ भक. (प्रभवति) समर्थ होता है, ६३ । | पिश्चिले वि. (पिश्छिलः) स्नेह-युक्त, स्निग्य, २९५ । पिश्चइ सक. (पिबति) पोता है, १०, ४१९ । | पिणइ सक. (कथयति) कहता है, । " पिअन्ति सक. (पिन्ति) पीते हैं... ४१९, ४२० । सक, (पोड्यन्तु) दवायें, हैरान करें, ३८५ । 11 पिअह सक. (पिबत) तुम पीओ, ४२२ । पीसह सक (पिनष्टि) पोसता है, चूर्ण करता है १८५ " पिज्जइ सक. (पीयते) पीया जाता है, १०,४२. । | पुमड़ सक. (मार्टि) पौंछता है, " पि अधि सं. कृ. (पीत्वा) पान करक, ४०१, ४५४ । | पुच्छई सक. (पृच्छति) पूछता है. " पीउ वि. (पीतम् , पोया गया है. ४३९ । । "पुच्छह सक. (पृच्छत पूछो, पूजते हो, ३६४ । " पिएं वि. (पीतेन) पोये हुए से, ४३४ । ! " ह सक (पृच्छथ) तुम पूछते हो, ४२० । " पाइ, पाप्रद सक. (पाति) रक्षा करता है, २४० । २४० । | पुइ सक. (माEि) पोंछता है, १०५/ पाइपू (पादे। पैर में, | पुजा सक. पूजयति) इकट्ठा करता है. १०२। पागसासणे पू. (पाकशासनः) इन्द्र २६५। पाकम्मावि (पुण्यकर्मा) पवित्र कर्मों वाला, ३०५ । पाणिर्ड न. (पानीय) जल, ३९६ । पुरुष न. (पुण्यम्) पवित्र काम, २९३ । "पाणिपण न. (पानीयेन। जल से, ४३४ । पुभवन्ते वि. (पुण्यवान्। पवित्र कर्मों वाला, २९३ । ." पाणिएं न. (पानीयेन) अल से, ४१८ ।। पुश्याहं वि. (पुण्याणाम् ) पवित्रों का. २९५. ३०५ । Jan पीडन्तु Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुट्टि पुदुभं पुण ति पु पुलपद्द सक. (पदयति ) देखता है, पुलिशे पु (पुरुषः ) बादमी, सक. ( पश्यति) देखता है, लोप एसइ पुगइ 31 पुधुम पुष्पवई वि. (पुष्पवतीभिः) फूलों बालियों से, ४२८ । पुश्री अ. ( पुरतः ) बनतः, आगे. २२८ । पुरवं वि. (पूर्व) पहिले ३२३ । ४००१ परिमहो पु. ( पुरुषस्य पुरुष का, पुलाइ अक. (उल्लगति) उल्लसित होता है, २०२ । १८१ । २८७, ८८ । स्त्री. (पृष्ठम् ) प ठ पीछे, fr. (प्रथमम् ) पहिला म. (पुनः) फिर, ३४२, ३४२, ३५८, ३७०, स्त्री (पुत्रि) हे बेटी ! पु. ( पुत्रेण) लड़के से, वि ( प्रथम ) पहिला, לו मइ पेस्कदि पेस्किदु है. कृ. (प्रेक्षितुम् ) देखने के लिये, अ. (पुष्यति ) पुष्ट होता है, क. (प्रेक्षते) देखता है, 35 पेक्खु एक प्रेक्षस्य ) तू देख " [ ko j ३२९|| तान २८३ || प्फलं प्रङ्गणइ प्रङ्गणि ३८३ इत्यादि । १३० । प्रमाण ३९५ । प्रयावदी ३६ ।। प्रश्मदि पेम् ऐल्ल पोकर पोराणं पेण्डवइ सक. (प्रस्थापयति रखता है। पेम्म पु. न. (प्रेम) स्नेह, राग पु. न. (प्रेम) स्नेह, राग, क. (क्षिपति) फेंकता है. क. ( व्याहरति पुकारता है, वि. (पुराण) पुराना; i प्राउ मिश्र प्रिण ४८११ १.५ । सक. (मा) सोफ करता है, सक. (पुनाति ) पवित्र करता है, २४१ । पुणिजइ, पुबइ (पूयते) पवित्र किया जाता है २४२ । परिसइ सक. ( स्पृशति, छूता है पूजितो वि. (पूजितः) पूजा किया हुआ, फल १. न. ( फल फल, ३२२ । २६. २९९. २९७ / . न. (फल) फल, पु. न. ( फलानि ) फल. पु. न. ( फलानि ) फल, फलों को पेक्खे। वे [सं. कृ. ( क्ष्य) देख करके, पेक्खेवि सं. कृ. (प्रेक्ष्य ) देख करके, " पेक्खवि सं. कृ. (प्रेक्ष्य ) देख करके, "पडिपेक्लइ सक. (प्रतिभेक्षते) (अन्य कारणों से ) देखती ४२० । है, ३४९ । पेच्छइ सक. (प्रेक्षते देखता है १८१, ३६९, ४४७ | पेच्छ सक. ( प्रेक्षत्र ) तू देख ३:३५ | पेच्ताव. कृ. (प्रेक्षमाणानाम् देखते हुओं का, ३४८ । फंसद फकवती फन्दइ प्राइव, प्राच अ. (प्रायः) अक्सर, अ. ( प्राम: ) अक्सर, ३०० ।। फलाइ फलु फलई ४११ | फासइ ३४० २ फिटइ ४४४ फिट्ट फिडर 1 न. ( प्रदानेन ) देने से, न. ( कलानि) फलों को, न. ( भांगन में, न. ( प्राङ्गणे) आंगन में, वि. (प्रमाणितः ) सच्चा साबित, पु. (प्रजापतिः । ब्रह्मा, सक. (पश्यति) देखता है, [ ] क. (स्त) छूता है, स्त्री. ( भगवती) देवी, १२९, १८२ १ ३२५ । क. ( स्पन्दते) फरकता है, थोड़ा हिलता है, १२७१ १८२ । ३३५ । ३४१ । ३०६ । ३४० । १८२ । दि. (भ्रष्ट) विनष्ट, पतित, अ. (भ्रश्यते) नीचे गिरता है, १७७, ३७० । ४०६ १ १७७ फुकिज्जन्त व. कृ. (फुत्क्रियमाणाः) फू फू आवाज किये जाते हुए, ४२२ । अ. (भ्रश्यते नीचे गिरता है १७७ । वि. ( स्फुटम् ) स्पष्ट व्यक्त सक. ( भ्रमति, भ्रमण करता है, अ. (फुल्लति ) फूलता है समाटि पोंछता है, सक. ( अमति) भ्रमण करता है. एक. (स्फेटयति) उद्घाटन करता है, फुडइ फुड कुमइ फुल्लह फुद्द 17 ३७ । ४२३ फेडइ ३९५ । १४३ । ७६ । बछट्टुड २८७ । बदा वि ( प्रिय) प्यारा, वि. (त्रियेग) प्यारे से, ३७०, ३७७, ४०१ । ३७६ ३९८, ४१७ ॥ क. (पृशति ) छूता है, a. (अश्यते) नीचे गिरता है। [ ] ᄅ ३२२ । ४४५ । ४२० । ३६० । ४२२ । ४०४ । ३९३ । ४१४ ४१४ । वि. (उपविष्टः ) बैठा हुआ. पु. ( चली इर्द) बैल, २५८ । १६१ ३८७ । १०५। १६१ । ३५८ । ४४४ : ४१२ । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [ ५१ ] बज्जिह, बझ सक. (अध्यते) बांधा जाता है, २४७ | बुमद्द सक. (बन्धिन्यसे बांधा जायगा, २४७ || चुड्डूइ बन्धि 31 बद्ध वि. (बद्ध) बचा हुआ ३९९ बन्ध पु.बन्ध बन्धन (दे.) नौकर बप्पीकी वि. (पी) बाप दादा सम्बन्धी, बलीहा पु. ( चातक) पपीहा, चातक, पुडा दि. (दे ) बराकरः) चिचाग, दीन, पु. ( ब्रह्मन्) ब्रह्मा, विघाला. बम्भणस्म पु. ब्राह्मणस्य ब्राह्मण का, ब्रह्मणे पु. ( ब्राह्मणे) ब्राह्मण में, बरिहिणु पु. (ब) मयूर, मोर -पक्षी, सक. ( खादति खाता है, बम्भ सक. (प्राणनं करोति) वह प्राण बाइ 1" बलि पु. (बलि) बलि नामक गजा, वि. (बलि) बलवान्, बलिष्ठ, ३८९, बलु न. (बलम् स्वामर्थ्य, पराक्रम, बलुवडा न. (बल) सामर्थ्य को, बहि a. (हिस) बाहिर बहिणी स्त्री. ( भगिनी बहिन, बहिप स्त्री. ( भगिनी। बहिन, बहुअ बि. (बहू) अनेक, बहुत बहुलु वि. (बहुल: ) प्रचुर अनेक बालको पुं. (बालक) बच्चा, किशोर, बालदे स्त्री. (बालायाः) लड़की के, बालि स्त्री. (हे वाले ! ) हे यौवनसम्पन्न बाई पु. ( प ) अ. आँसू, बाह पु. ( बाहु:) हाथ, भुजा, बाहा स्त्री. (बाहुः) हाथ, भुजा, बाहु बिट्टाए स्त्री. (पुत्र) हे बेटी, विनि सं. वि. (इ) दो, बिम्बारि पुबिम्बाधरे, होठों के बिहि बिहुँ ३२८, ३८५, ४११, ४४५ ३५४, ४४० ३८५ । ३९५ || बुद्धडी ३८३ । बुद्धी ३८७ । बुहरपदी ४.२ । बुदुक्खड़ २८० । ३०२ । ४२२ । बेसि २५९ || दोउजद्द धारण करता | बोडिन है, २५९ । ८४४०२ । बोल्ल 17 ४३० | ३५७१ ३५१, ४३४ । ४२२ । । ३७१, ३७६, ३८७ ३२७ । ३५०. ३६७ बालिका, ४२२ । ३९५, ४३९ । ३२९, ४३० । मंडल पर वि. सं. ( द्वाभ्याम्) दो से, दो के लिये, वि. सं. (द्वयोः) दो का दो में, अ. (विभेति) डरता है. बोहइ बीहिअं कि ( भीत) डरा हुआ, क. (गर्जत) गर्जन करता है, चुक :: ३८३ । ५३ । ९८८ सक. (बुध्यते) समझा जाता है, अक मज्जति बता है, डांस अक (मध्यामि) डूबा हुई होऊगी, बुद्धसिं.कृ. (मा) ब करके, स्त्री. बुद्धि:) बुद्धि. 75 स्त्री. (बुद्धि) बुद्धि, ४२१ । २८९ । ३७० ३७७ । २३८ । पु. ( बृहस्पतिः) देवताओं का गुरु, सक. ( बुभुक्षति) खाने की इच्छा करता है, ५ । संवि. (द्वे) दो, ४३६, ३७९, ३९५, ४२९ । सं. वि. ( द्वाभ्याम दो से; (वा) (ब्रवीमि ) मैं कहता हूँ; अक . ( त्रस्यते) डरता है; स्त्री. (कपदकाम् ) कोड़ी को सफ. ( कथयति ) कहता है; बोल्लिइ सक. (कथ्यते ) कहा जाता है। बोल्लिउ सक. (कथय ) कहो ; ६६८ ३३५ । २ । ३६० । ३८३ । " बोल्लिए न कथनेन कहने से; बोलने से; ३८३ । पु. ( कविता ) कहने वाला; ४४३ । स्त्री. (बोध) ज्ञान को शुद्ध धर्म का लाभ, २७७ । बेदि बोल्ल बोहिं " सक. (तूप) तुम बोलो ३९१ । 2 " त्रोपि सं. कृ. 1 उक्त्वा ) बोल करके, कह करके, ३२९ । पु. स्त्री. (बाहुः हाथ, भुजा, ३२९, ४३० / ३३० ॥ ४१८ । ४०१ । भगव ३६७ । भङ्गि ३९१ । भोलि सं. कृ. (त्या बोल करके, कह करके, ३९१ ० भएछ मकवती भगदत्त भगवती भगवती २७॥ १०१ । ४२३ । ४१५ । ४२४ । [भ] न. ( भयेत डर से; स्त्री (भगवती देवी, पु. ( भगदत्त) नाम विशेष, स्त्री. ( भगवती देवी, ५३ ।। भन् भन भरगा स्त्री. ( भगवत्या ) देवी से, पु. ( भगवान्) ईश्वर, समृद्धि ( भंगी ) विकल्प, प्रकार, ४४४ । ६२७ । २९९ / ३०७ । ३२३ । ३२३ । कल्पना, भेद, ३३९, ४११ । सक. (भनक्ति) तोड़ता है, १०६ । (भग्नाः) भाग गये, बिखर गये, ३५१ वि. ३७९, ३८०, ३९८, ४१७, ४२२ । वाला, Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग्गज भग्गाई वि. ( भग्नाति ) (भग्नाः ) निराष हुए, पु. ( मट) वीर, रण-दीर, पु. ( भटः) लड़या, रणबीर, भडु भण 21 27 " 25 १७६ । ३७०, ४०४ । २८१ । भ्रमराउ स् (भ) नहट " भवि सं. कृ. ( भणित्वा) पठ करके, बोल करके, भलु " भाइ सक. ( भगति) पढ़ता है, कहता है, २३२,३६९ भन्ति सक. ( भणन्ति । पढ़ते हैं कहते हैं, भण सक. (भ्रण पढ़, कह, ४२५, ३६७, ३८३ । भरणए भणिज्जद्द - सक. ( भव्यते ) पढ़ा जाता है " भणिय वि. भू. ( भणितम्) कहा गया था, मणि 37 भू. . ( भणित) कहा गया था, भण्डय पु. ( भण्ड: ) बहुरुपिया सखा, भतं ਅਚਵ भवउ भन्तड़ो भन्ति चि. (भग्नक) भागते हुए को, बिरते हुए को, ३५४ । ३८६ । भलइ ३५७ ॥ भस्ति भला ४२० । भक्ति भयं भरु भसह भन्ते भमरु भमरा भमरउल भमरु भयंकरु भयव भयव भर [ ५२] भरु भरिज भरि २४९ ३३० / ४०२ । विदूषक, ४२२ । भारह पु. न. (भूत) (भक्तम्) आहार, भोजन, उत्सन्न, भारिया 01 भात के भावइ पु. ( भक्ताः ) सेवक, २२ । पु. ( भापदः) भाव नामक महीना ३४७ । ४१४ स्त्री. (भ्रान्तिः ) भ्रम, विपरीत समझ स्त्री. (भ्रान्तिः ) भ्रम, विपरीत समझ, वि. (भदन्त ) पूज्य, कल्याण कारक, पु. ( भ्रमर: ) भँवरा, पु. ( क्रमशः) भवरे, न. (भ्रमरकुल) भंवरों का समूह, सक. ( स्मरति ) स्मरण करता है, वि. (भरितम् ) मरा हुआ, सयुक्त, वि. ( भूते ) भरा हुआ होने पर ३६५ पु. ( अमर ) भँवरा, ४२ । वि. (भ कर:) मय उत्पन्न करने वाला ३३१ । वि. (भगवन्) हे पूज्य ! हे कल्याणकारक, २६४ । चि. ( " ) २६४ २६५. 35 29 भासइ भिचु [भृत्य ] नौकर दास, भिन्दइ ४१ ६ । २८७३ सक, [भिनत्ति ] काटता है, मेता है, भिसन् ३६८. ३९७ । अक, [भासते ] चपकता है, शोभता है, ३८७ । भोश्री वि. [भीतः ] डरा हुआ, ३८२! भीमशेश पु. [भीमसेनस्य ] भीमसेन 41, पुरुश्री [भुज हाथ, कर, अ. (पति: कुत्ता भौंकता है, १०२ । ७४ । ४४४ । ३८३ । षु न (भारम्) भार, घोझा सक. ( स्मरति ) याद करता है, पु. स्त्री. (निर्बन्धः ) ( दे ) का वि. ( भवम् भला, उत्तम श्रेष्ठ, स्त्री. (भल्ली) भाला, बरछी, भुन भुकइ भु ३४०, ३७१, ४२१ । १८६ । ४४४ ॥ वि. व भषिता] भौंकने के स्वभाव वाला, ४४३ । पु. ( मर: भँवरा; भस्टालिका स्त्री (भट्टारिका) स्त्री विशेष, स्वामिनी २९० । अ. (विभेति) करता है, | भाड़ भाइथं चि. (भी) डरा हुआ, भाईरहि स्त्री ( भागीरथी) गंगा नदी, ५३ । ५३ । ३४७ । भागुणादो पू. ( भागुरायणःत् नाम विशेष से ३०२ । भारद न. (भारत) भारत वर्ष में ३४७ । न. ( भारत ) देश विशेष, ९९ । स्त्री. ( मार्या) पत्नी ३१४ । ४४७ । न. [ भाले | मस्तक पर ललाट पर क. ( भावयति वासित करता है, सोचता है, ४२० । अ. [ भासते ] चमकता है. मालूम होता है, २०३॥ ३४१ । २१६ | २०३ । ५३ । २६९ । ४१४ । १८६ । " ३३० सवं. ( भवान् ) आप, ३०२, २६५२८३, २८४ । पु. ( भ्रमरः । भैवरा ३९७ । सक (भवति) भूता है, कुत्ता बोला है, ७४ । ३५३॥ ३५१ । भुजद्द सक. (भुनक्ति) भोजन करता है, पालन है. अनुभव करता है, " सुजन्ति सक. (भु जन्ति) भोजन करते हैं, करता ११० । भोगले हैं, २३५० भुजइ भुक्इि (भुज्यते ) भोजन किया जाता है, २४९ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R 39 " भोत्ता भोण भो भोतव्यं " נל भुमइ सुन्लाइ भुवण भुवणे मुडी " भू FE " " 33 , 93 मुजरा है. कृ. (भोवतु ) भोगने के लिये; भुजयाहिं है. कृ. (भोक्तुम्) भोगने के लिये ४४१ । स. कृ. ( भुक्त्वा ) भोग करके; २७१ । सं. कृ. (मुक्त्या ) भोग करके; २१२ । हे. कृ. ( भोक्तुम् ) खाने के लिये; २१२ । अ. ( भोक्तव्यम् । खाना चाहिये; २१२ । बहुकखइसक बुभुक्षति) खाने की इच्छा करता है; ५ । 550 १६१ । " बहु सक. (उपभुक्तहै: भोति अफ. (भवति) वह होता है; वद मक. (भवति) वह होता है। हुवइ, भवइ अ. (भवति) वह होता है: " यदि अक (भवति) वह होता है. " दहुद, क. ( भवति " ג 42 are. ( मत घूमता है; फिरता है; क. (भ्रश्यते) गिरता है। भूलता है। होता है; भोमि बक. ( भवामि ) में होता है। 货 न. (भुवन) जगत्. लोक न. ( भुवने) संसार में; लोक में: स्त्री. (भूमि:) भूमि, पृथ्वी, जमीन, जगह, क्षेत्र, ३९५ । होदि अक . (भवति) वह होता है; २६९. मोदि अक (भवति) वह होता है, होउ अ. (भवतु ) होते, " होतु अफ. ( भवतु ) होंव, sta, दो re. ( भवथ) तुम होते हो, [ ५३ ] ४४१ | होsिs re. ( भविष्यति होगा; २६०१३ अ. (भवति) बह होता है; ६०, ६१, ३३०. ३४३, ३६२,३६७; इत्यादि । भ्रष्ट १७७ । २३५ । ४४१ होति अ. (भवति) दे होते हैं. हुन्ति प्रक. (मवन्ति ) में होते हैं, हवन्ति, हुवtन्त अक (भवन्ति ) ये होते हैं, होन्ति अक . ( भवन्ति ये होते हैं, २७९ । २७३, २७४, ३०२ । ३१८३१६ । ६०, २८७ १ हुवे अक . ( भविष्यति होगा, होज्ज अक (अभूत्, अभवत् बभूव) हुआ, २६९ । वह होता है, ६० । १ २६९ । ६१, ४२२ । ६१ । ६० । ४०६ । ४२० । १०७ । २६८ । ३२३, ३२० । ३७० । " " होम हूँ भक. ( भविष्यंति होंगे "" 31 " נו 31 35 " " ונ 27 #1 " 21 21 भो हुन्तो व.कृ ( भवन्) होता हुआ, हू वि. ( भूतम् ) हुआ हुआ, हुआ वि. भू. (भूता) हुए, हुआ बि. भू. ( भूता) हुए, (भूत) हुआ भूविशः होऊण, भोगं "2 ३८८ । ४१८ । दिनक. ( भविष्यति ) होगा, होगी, २७५, ३०२ । ६१ । ६४ । ३८४ । ३५१ । ओल} (भूत्वा) = होकर, २७१ । २४० । ६४ । ऊस. कृ. (वा) होकर, वि. ( श्रनुभूतम् ) अनुभव किया हुआ, परिभवद्द सक. (परिभवति । पराजय करता है, परिविवि (परिभूत) पराजित, तिरस्कृत, ४०१ । प्रभव अ. ( प्रभवति ) समर्थ होता है, ६० । पहुंचता ६० । पहुच च ३९० । पभषे ६३ । पहू वि. ( प्रभूतं ) पहुँचा हुआ, समर्थ हुआ ६४ । ६० । संभव अ. संभवति) सभावना होती है, सनावद सक. (संभावयति ) सम्भावना करता है, ३५ । संभाविद वि. (असभावित) संभावना नहीं किया " 37 भ्रंशू - t संसइ अक . ( भ्रश्यते) भ्रष्ट होता है, नष्ट होता है, १७७ । भ्रम् "1 पत्रभट्ट वि (प्रण्ट ) नष्ट हुआ, पतित हुआ, अन्ति स्त्री. (भान्तिः) भ्रम. मिथ्या ज्ञान, अंक. (प्रभवति) पहुंचता है, अक्र. ( प्रभवति) समर्थ होता है; हुआ; ६० । म. (भोः) अरे, ओ, २६३, २६४, २८५, ३०२ । पु. न. (भोगम् ) इन्द्रियों के विषय, विषय-सुख, ३८९ । ४३६ ॥ ३६० । ममइ सक ( भ्रमति) घूमता है, भ्रमण करता है, १६१, २३९ । भह सक. ( भ्रमति ) घूमता है, भ्रमण करता है, ४०१ । भ्रमन्ति सक. ( भ्रमन्ति) बे घूमते हैं. भ्रमण करते हैं, ४५२ । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] "भसेज्ज सक. (भ्रमे भ्रमण करे, घूमे, ४१८ | मक्खन भामे प्रेर. ( भ्रमयति) भ्रमण कराता है, घूमता है, मगाइ ३० भमाइ प्रेर. (भ्रमयति ) भ्रमण कराता है, घुमाता है, ३० । " M 77 74 33 भाइ प्रेर. (भ्रमपति) घूमाता है भ्रमण कराता है ३०। भम्स सक. ( भ्रमति । घूमता है, भ्रमण करता है, १६१ । "3 म :: मम्मि सर्व. ( अहम् ) में, मं मह " 34 पु. ( मत्स्य:) मच्छ, बड़ी मछली, पु. ( मत्स्येन ) मछली से, ३७० ॥ " परिभमन्तो व.कृ (रिभ्रमत्) चारों और घूमता सज्ज्-मज्जइ अक (मज्जति) स्नान करता है, डूबता है, हुआ, ३२३ । १०१ । " मज्जन्ति अक (मज्जन्ति) स्नान करते हैं, डूबते है, ३३९ । मज्जइ अक, (निसोदति ) बंठती है, १२३ । सक. (मा) साफ करता है, १०५ । वि. ( मध्याया: मध्य भाग व ली का, ३५० 23 भमडइ सक. ( अमति) घूमता है. भ्रमण करता है १६१ । भाइ सक. ( अमति) घूमता है, भ्रमण करता है; १६१. " 21 11 मे मातु सर्व ( मत्) मुझ से, मम महु [म] अ. (मा) मल, नहीं, ३७९, स. (माम्) भुझको, सर्व (माम्, नया) मुझको म मेशे मडु मनो ३४६, ३६६३५०, ३८४, ३८७ ४१८, ४२, ४२२ ४४२ । ३-१०५० ३२३ । मुझ से, ३३०, ३४६. ३५६, इत्यादि । सम्झ सर्व ( मत्, मम ) मुझ से मेरा, मज्भु सर्व. ( मत्, मम) मुझ से मेरा ३७, ३२१ । सर्व. (मे, श्रम) मेरा, मेरी, २८२, २८३,३०२ । स. ( मे मम ) मेरा, मेरी, २८०, २८८,३०२ स. (मतु मम) मुझसे, मेरा ३३३, ३७०, ३७९, इत्यादि । २३० ३६७, ३७९, माहु मग सम्यसि मग्गू 17 सक. (क्षति) चुपड़ता है, १९१ । २३० । क. ( याचते मांगता है, क. ( याचत) मांगी. मार्गयत) मांगो, ३८४ । पु. ( मार्गणः) मांगना, अन्वेषण ४०२ । पु. ( मार्गशीर्षः) अगहन नामक महीना, ३५७ ॥ पु. ( मार्गः ) रास्ता, पथ, ३५७. ४३१ । साहि पु. ( मार्गेः, मार्गेषु) रास्तों से, रास्तों में, मघत्र मच्चइ मच्छर मच्छु मच्छं 66 मज मज्झ ॐ ज्झे मज्झि मजिए मडुई मढइ न. ( मध्ये ) बीच में, न. ( मध्ये) बीच में बी. ( मञ्जिष्ठया) मजीठ से, स मृदुनाति मर्दन करता है, सक. (मुद्दाति' मसलता है, मरण क. ( मध्यते) मानता है, जानता है, मसिला स्त्री. ( मनः शिला ) पदार्थ विशेष, ३६८, इत्यादि । ३६५ । २८७ | अ. (मुकुलन्नि) बन्द हो जाते हैं, पु. ( मेषः) भेड़, ऊन वाला जानवर मकरकेतू पु. (मकरकेतुः) कामदेव, नाम विशेष, मकरद्वजो पु. ( मकरवजः) कामदेव, नाम विशेष, ३२३ ॥ ३२४ ॥ पु. ( मर्कट) बंदर, मणोरधा ४२३ । पु. ( मार्गगः ) मांगने वाला, अन्वेषण, ३२५, मोरह ३२८ । पु. ( मघवन् इन्द्र अ. (माद्यति) गवं करता है, न (मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, म ३४७ । २६५ । २२५ । ४४५ । ३७० । पु. ( मनोरथाः) मन की इच्छाएँ, पु. ( मनोरथ) मन की इच्छा, ४०६ । ४४४ । २८६ । वि. (मन) पण्डित को ३६३ । मरारिस माउ ४१८, ४२६ । ४२२ । अ. ( मनाक् ) अल्प, थोड़ा, माण न. ( मनसि ) मन में, माडा पु. स्त्री. (मनयः) मणियों को, ( मणीन् ) मणियों ४१४, ४२३ । न. (मनः ) मन, ३५०, ४०१, ४३८ । १२६ । १२६ । १७। मैनशिल, ४२२, ४२१, ४४ । । २८५, ३०२ । ३६२,३८८, ४०१ | Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणोरहाई पु. न. (मनोरयान्) मन की इच्छाओं को, | " मुइन वि. (मृता) मर गई है, ४१९, ३६७ । ४१४।। " मुएण वि. (मृतेम) मरे हुए से, ३६५ । मएटलं न. (मण्डलम्) समूह, देश, गोल, ३२५। . " मुश्री वि. । मृताः) मरे हुए, ४४२ । मतन . (मदन) कामदेव, ३०७। " मालेध सक. {मारयत मारो, मतनी पु.मदनः) कामदेव, ३२५ । । मरगय पु.न. (मरकत। नील वर्ण बाला रख विशेष मतनं पु. (मदनम्) कामदेव को. ३२४ । पन्ना, १४९। मन्तई वि. (मत्तानाम्) पागलों का, मतवालों का, | मरदृटु पु. (दे.) (गर्वः) गर्व, अहंकार, ५२२ । ३८३, ४०६ ।। | मरणु पु.न. (मरणम्) मृत्यु, ३७०, ४१८ । मत्तो वि. (मत्तः) पागल, मतवाला, २६.! | मरिमह सक (मर्षति) सहन करता है. क्षमा करता है: मथुरं वि, (मधुरम् ) मीठा, मदि स्त्री. (मतिः) बुद्धि, मलइ सक. (मृनाति) मसलना है, १२६ । मन्-माणिश्रइ सक. ( मान्यते) माना जाता है. अच्छा । मलय पु. (मलय केतुः) नाम विशेष, समझा जाता है, ३८८। मल्लजुन्मु न. (मल्लयुद्धम्) कुश्ती, ३८२.४४४ । " संमाणेइ सक. ( संमानयति ) सम्मान देता है अच्छा मस्कली न. (मस्करी) विस्मय, आश्चर्य, २८९ । ____ समझता है, ३३४ । महइ सक. (मानयति) पूजता है, सन्मान करता है, मन्तिदो वि. मन्त्रितः) मन्त्रों द्वारा संस्कारित २६.1, १९२। मन्या सक (मध्नाति) मयता है, विलोडन करता है, | " महन्ति सक. (कान्ति) इच्छा करते हैं, ३५३ । १२१॥ | महद म पु. (हातुम बड़ा वृक्ष, ४४५। मन्दाल पु. न. (मन्दार) पुष्प विशेष, २८८ । | " महन्द्र मु पु. (महाद्रुमः । बड़ा वृक्ष, ३३६। मम्मीसडी अक. मा भैषी:) मत डरो, ४२२ । ! महन्दो वि (महान) बड़ा, २६१। म अ.(मा) मत, नहीं, ८५, ४१८।। " महन्दे वि. (महान्त । बड़ा, ३०२ । मयगलहं बि. (मदकलानाम) मद में-नशे में चूर हों | महमहइ अक. (गन्धः प्रसरति) सुगन्ध फैलती है, ७८ । का, ४०६. | महव्वय न. (महावत) बड़ा वत, ४४० मयंकु . (मृगांकम) चन्द्र को, ३९६ । । महादहही पु.महादस्य) बड़े जलाशय फा, 1 मायणु पु. (मघनः) कामदेव, १९७. महाधन म. (महाधनम्। विशाल सम्पत्ति, ३२३ । मयरद्धय पु. (मकरध्वजः) कश्मदेव, ४.२ ! महारउ वि. (मदीयः) मेरा, ३५८। मयरहरु पु. (मकरगृहः) कामदेव, ४२२ । " महाग वि. (मदीयः) मेरा, (अस्मदीयः ) हमारा, मय्य म. (मधम्) मदिरा शराब, ३५१, ४३४॥ मर-मरइ अक. (मियते) मरता है, २३४, ४२० । | महारिसि पु. (महपि) बड़ा मुनि, ३९९ । " मरहि अक, (म्रियसे। तू मरता है, ३६८ 1 | महावीरे पु. ( महावीरः) भगवान् वर्षमान स्वामी, " मराडे मक. (म्रियामहे) मरते हैं; मरेंगे, ४३९ । " मरिगव्य विधि. (मतंव्यं मरना चाहिये, ४३८ । ' महावीले पु. (महावीरः) " " "३०२। " मारह अक. (मारयति) मारता है, ३३० । महिल पु. (महीतलः) पृथ्वी का धरातल, ३५७ । " मारेइ अक. (मारयति) मारता है, ३३७ । महिमएडलि न.(महीमण्डले) पृथ्वी नामक ग्रह पर,३७२ । " मारि सं. कृ. मारयित्वा) मार करके, ४३९ ।। महिदि स्त्री.(मह्माम् ) पृथ्वी पर, ३५२ । " मारिपडेण वि. (मारितेन) मारे हुओं से, मृत से | महुमहणु (मधुमथनः) भगवान कृष्ण; ३८४ । ३७९, ४१७ । । माम.मा ) मत, " मारिया वि. (मारितः) मारा गया, अ ( मा ) मत, ४१८, ४२२। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा-माइ अक. (माति) समाता है, ३५०, ४२१ । |" सम्मिमइ-सपीजद अक. (समीलति)यह सकुचाता है, " दवमित्रह अक. (उपमीयते) उपमा दी जाती है.४१८।। २३२। विनिम्मविदु वि. (विनिर्मापितम्) निर्माण किया गया है. | मुगहा पु. (वे.) म्लेच्छ-जाति विशेष, ४.९ । र ४३९ । वेना. माणु पु.न. (मानः माप, परिमाण, ३३०, ३८७ | " मुह सक (मुञ्चति) छोड़ता है, ९१ ३९६, ४१०, ४.८। | " मोतुं हे. कृ. (मोक्तुम् छोड़ने के लिये २.२। "माणि पु.न. (माने) मान-सम्मान पर, ४१८। | " मांत्तना म.कु. मुक्रवा) छोड करके,२१२, २३७ । " माणेग पु. न. (मानेन) मान-सम्मान मे, २७८ । , " मुकाई वि. (मुक्तानाम् ) छुटे हुओं का, ३७० । माणुश (मानुष) मनुष्य, " मात्तव्यं विधि, (मोक्तपः) छोड़ना चाहिये, २१२ । मायहे स्त्री. (मातुः) माता का, जननी के, ३१९ । मुझइ अक. (मुनि) मोहित होता है, २०७, २१७ । मारगाउ वि. (मारणशील; माने के स्वभाव वाला, ४३) पु. (मुब। नाम-विशेष, मारुदिणा पु(पारुतिना) हनुमान से २६० । मुख- सक. (जा-मुण) जानना, २५ । माला स्त्री. (मालती) पुष्प वियोष वाली लता,१६८। |" मुणिज्जई सक (ज्ञायते) जाना जाता है, ३४६ । मालई स्त्री. (मालती) लता-विशेष, ७८: " मुत्र दिलात जाना है, माहट पु. (माघः) वर्ष का ग्यारहो माघ नामक मुणालिअहे स्त्री. (मृणालिकायाः) कमलिनी का, ४४५, मास. ३५७ । । मुणि पु. (मुनि) साधु, ३४१, ४१४ । मिक पु. (मृगांक:) चन्द्रमा, ३७३, ४०१ ।। मणमिम न. (मनुष्यत्त्वम्। मनुष्यपना, ३३० । मित्तडा न. (मित्राणि) मिश्र, दोस्त, ४२२ । | मराग - सक. (मु य ) गूडना, बाल उखाडना दीक्षा मिल-मिलइ अक. मिलति । मिलता है, ३१२। " मिलिज्ज भक. (मिल्यते मिला जाता है, ४३४।।" मण्डह सक. मुण्डयति) बाल उखाड़ता है, दीक्षा देता " मिलिअअक. (मिलित:) मिला, मिलाप हआ, ३८२ । " मिलिनाड नि. (मिलित) मिले, जुड़े, ३३२ । " मारोडअळ वि. (मुण्डित बाल उखाते हुए हैं, ३८५ । मिलाइ अक्र. (म्लायति) छान होता है, १८, २४० । | मुण्द्धमालिए स्त्री. (मुण्डमालिकायां) खोपड़ियों की माला " मिलाइ अक. (म्लायति)म्लान होता है, निस्तेज होता है, २४० । मह स्त्री. (मुद्रा) मोहर-छाप अकित चिह्न, ४०१ मिस्सह सक, (मिश्नपति) मिलाता है. २८ । मह स्त्री. (मुद्राम् ) मुद्रा को, माम मना को, ३०२ । स्त्री. मुग्धा) मोहित हुई नायिका, ३४९,४२२ : " मीलह अक. ( भीलति ) सकुचाता है. मीचाता है । स्त्री. (हे मुग्धे .) हे मोहित दुई नायिका ३७६, २३२ " मेलखि सं.कृ. (मिलित्वा) इकट्ठे होकर के, ४२९ । मः ___ स्त्री. मुग्धया) मोहित हुई नायिका से, ४२३ । " उम्मिलइ अक (जन्मील ते) बह विकसित होता है. मद्धहे. स्त्री. ( मुग्धायाः) मोहित हुई नायिका के, २३२, ३५४।। ३५७। " सम्मीलइ अक. (उन्मौलति) वह प्रकाशमान होता है. | मुद्धहे स्त्री । मुग्धायाः ) मोहित हुई नायिका के, ३५० । " निमिल्लइ-निमीलाइ अक. ( निमोलति) यह आंख | मुरइ प्रक : हापेन स्फुटति मुस्कराता है, १४ मींचता है, २३२ । मसइ सक. (मुपति चोरी करता है, २३९ । " पमिल्लाइ-पमोलइ अक. (प्रमोलति) वह संकोच करता | मसुमूरइ सक (भनक्ति) भोगता है, तोउता है १०६ । है. २३२ । । मुइ न (मुखं) मुंह, बदन, ३३२, ४९, इत्यादि। मील Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मुहु 33 मुद्द 'मुहहुं " मूग्द मूलि मखो मेलइ मेल्ल सक. ( मुखति ) छोड़ता है, " मेल्लि सक. (मुख) छोड, त्याग, , मेहे मेहु य यावदे यति यदि न. (मुख) मुह: वदन; न. (मुख) मुँह बदन न. ( मुखेभ्यः) मुँहों से, मुखों से; सक. ( भक्ति) भागता है, तोड़ता है, न. (मुले) जड़ में, पु. (मेघ) बादल, क. ( मिश्रयति) मिलाता है, चलना के मेल्लटि सं. कृ. ( मुक्त्वा) छोड़ करके, मेल्लेपि सं. (मुक्रवा) छोड़ करके. " मेल्लन्स वि. (मुखन्त्याः) छोड़ती हुई का, " मेल्लन्ती वि. (मुञ्चतः । छोड़ते हुए का, ३७० पु. ( मेष: ) भेड़, ऊनवाला जानवर मेशे q (b) me १३७ ४९% पु. ( मेघ: बादल, मोलडेबि. (मुक्तन) छोड़ हुए से, मोट्ठाय अक ( रमते) क्रीड़ा करता है. मोदन्ति सक. ( मोटयन्ति भोड़ते हैं, टेढ़ा करते हैं। १६८ । ४४५ [य] था 33 यादि ३६७, ४४४ । [ ४७ ] अ. (च ) और पु. ( जनपदः) प्रान्त - देश का भाग, अ. (द) अगरचे " निष्प्रयं वि. ( नियतं ) निश्चित किया हुआ, " पयच्छसि सक. (प्रच्छसि ) प्रदान करता है, न. (दे.) (जम्बालम् ) सैवाल वाल, यम्बाल ६०० । ३२६, ३९६ ॥ २९२ । ३२३ । श्र. ( यदि ) अगरचे, २९२ | | यशवं वि. ( वयास्वरूपम् ) जैसा स्वरूप वाला, ४२२ । पु. ( जलधराः) मेघ, बादल, पु. ( यक्षः) बाण - व्यन्तर जाति स्रक. (या) जाना, गमन करना सक. (याति) जाता है १९२ । यम् यच्छ सक. प्रक. ( यच्छत) वह विराम करता है, ३६५, ४२२ । ३६६ । ३४१ । ३७० ॥ ३७७ २८७ १ १०६ ॥ जाहि सक. (याहि) तू जाता है. ४२७ । अ) सक. ( यामः) हम जाते हैं, ३२५ । जाइज्जइ सक. (यायते) जाया जाता है, २८ । जावं प्रेर. (यापयति गमन कराता है, सक. ( जानाति ) जानता है, न. ( मनपात्रम्) जहाज, नाव, वि. (पाश) जैसा, ९१, ४३० | | यादि ३८७ यावत्तं ३५३ । यातिम्रो का देव, 1 २९६ । " जाई " 35 ני 31 " 93 31 31 सक. (याति) जाता है, २४०, ३५०, ४४५ । सक (यति । जाता है, जाम २४० नम्ति सक. (यान्ति में जाते हैं, ३८८, ३९५ ४३९ । ४२२, ४३९ । ३८६ । ४१९ । ४० । २९२ । २९१ । " याव युक्तं अ. (वत्) जब तक, वि. (युक्तम्) सहित युम्हालियो वि (युष्मादृशः) श्राप के जैसा, सवं. ( ये ) जो, ये रई रक्ष " प देता है, २१५ । २८७ । ३२३ || रजेइ रकस जलमल, रब्बा कत्रो २०८ । २९६ । रदन्त उ रण रशि ३१७ । ३०२ / ३०२ । ३१७ । १०२ । अ. (एव) ही, निश्वय पूर्वक, २७६, २८०, २८३, ३०२ । ३१६ ३२१, ३२३ | अ. (एव) ही. रख सक. ( रक्षति) बचाता है, रक्षा करता है. ४३९ । रक्खेज्जडसक. ( रक्षत। रक्षा करो, बचाओ, ३५०, ३६७ ॥ ४८ । खोलs a. ( दोलायते) भुलाता है, रच् " [र] स्त्री. ( रति । शम-क्रीड़ा, मैथुन - प्रवृत्ति, ४२२ । राइड् २९२ | | रत्तडी रश्रइ सक. ( रचयति रचना करता है, नारद सक. (समारचयति) अच्छी तरह अक (रज्यसे तू अनुरक्त होता है, सक. ( रज्जयति) प्रसन्न करता है, पु. ( राज्ञा) राजा से, पु. ( राज्ञः । राजा का, च. कू. (रन्) बोलता हुमा, ३७० पु. न. (रण) युख, पु. न. ( रणे) युद्ध में, ९४ । से रचला है. ९५ । ४२२ । ४९ । ३०४, ३२० ॥ २०४१ ४४५ । ३७७, ३८६ । ३६० । सक. ( शब्दं कुरु ) शब्द को कर, s. (uft:) za, ufa, ३६८ । ३३ ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए रन्नु रफसी ग्भू— " आरभइ सक. ( आरभत ) प्रारम्भ करता है, रम्- " रमइ अरु ( रमते) क्रीडा करता है; " 31 35 रमदि अकः ( रमते) रमदे . ( रमले) " रमते अक ( रमते ) 24 37 33 १६८ । ३१६ । २७४ | ३१९ । ३०७१ २७१ । । रन्तू सं. कृ. (रवा) क्रीडा करके; ३१२ । रन्दू सं. कृ. (रवा) कीड़ा करके २७१ । " रन्ता सं. कृ. (रवा) क्रीड़ा करके; २७१ । रमिय्यते अक ( रम्यते । रमण किया जाता है, ३१५ / १९४ । क. ( तक्ष्णोति) वह बोलता है, सक. ( तक्ष्णोति) वह काटता है, 27 " " स्त्री (रत्याः ) रति नामक स्त्री के न. (अरण्यम्) जंगल. g. ( रमसः ) औत्सुक्य, उत्कंठा रम्पद रम्कइ ग्यणो रवइ रवा रवि रसु १७ राजा " " राजं .. रमतु अक ( रमताम् ) वह क्रीड़ा करे; रमिश्रा स. कृ.वा) कोढ़ा करके; " ני " बम्फा रम्भइ स्थण पु. न. ( रेल ) रल, जवाहर; " रयणाई पु. न. (रत्नानि रत्न, जवाहर, मिरेपु. ( रजनीचरात्) राक्षसों की, स्त्री. (रम्भा) अप्सरा विशेष; सक. ( गच्छति ) जाता है: पु. (राजा) राजा, न. ( राज्य ) राज्य को, पतला है; रहवरि रहु पु. (राजा) राजा, राचा राचिया पु. ( राज्ञा ) राजा से, रादिमां पु. ( राज्ञः ) राजा का, राजपत्री - राजपही . ( राजपथः) राजमार्ग, [५] ४४६ | | रामहं ३४१ ॥ राय ३२५ । राय राया ४०१, १५५ | राय शर्य करता १९४ । । ३२५ । । श्री. (रजनी) रात्र सक. (रोति) बोलता है, रोता है, वि. (रया) सुन्दर, पृ. (रवि) सूर्य, ४४४ । मन का पु. न. (रस) मीठा, खट्टा आदि रस, आनन्द, ४०, ४४४ अ. ( रथोपरि) रथ के ऊपर, ३३१ । ४४७ । पु. ( रघु) नाम विशेष, १६२ । ४२२ । ३३४ । ४४७ । ४०१ २३३ । ४२२ । ३.५ । ३०४ । ३०४ | २६७ । ३०४ । ३२३ ॥ रविण वे २६४ । राणो पु. ( राशे, राज्ञः राजा के लिये, राजा का २६० । 15 राही राहु रि रिअइ ! रिड रिगड़ ड शरीरइ रुद् UP 27 रिद्धि स्त्री (ऋद्धी संपत्ति में, " 38 15 " चड़ " पु. ( रामयोः) (दो) राम का, वि. (रागायाः) प्रेम वाली का, अक । राजते) चमकता है, शोभता है, पु. (राजा) ३०४, ३२०, ३२३, पु. (राजद) हे राजा ! पु. ( राजानाम् ) राजा को, " रुज अक्र. ( रौति) आवाज करता है, ५७ । रुणिकुणि न. ( शब्दानुकरणे, शब्द विशेष बोलना, ३६८ । अ. (रौति) अवाज करता है, ५७। रुष्टइ ४०७ । ३५० । १०० । २५ । ४०२ । (राजन) हे राजा. पु. ( रावण) राक्षस का नाम विशेष नक. ( रञ्जयति) प्रसन्न करता है, रंग रोतुं रोत स्त्री. (राधा) स्त्री का नाम विशेष, स्त्री. (राधा) स्त्री विशेष का नाम, पु. ( राहु ग्रह विशेष, ३८२, ३९६, अ. (रे संबोधने) बरे, ओ, क. ( प्रविशति ) चुसता है, प्रवेश करता है, ३९० १ १८३ १ पु. ( रिपुः ) दुश्मन, शत्रु, ३७६, ३९५,४१६ अ. ( प्रविशति, गच्छति ) प्रवेश करता है, रेंगता है। २५९ । ४१८ । ११५ । १०० । पड़ता है, ३४९ । सक. (मण्डयति) अलंकृत करता है, अ. (राजते) शोभता है, चमकता है, बक. ( रोचते) अच्छा लगता है, पसद safe are. (शेदिषि तू रोता है, दहि अक . ( रोदिषि ) तू रोता है, सुख रोष रोह अक्र. (रुदिहि) रोओ, ४०७: लगाता ४९ । ४२० । ४२२ । ४४४ । अक . ( रोदिति) वह रोता है. २२६, मक. ( रोदिति ) वह रोता है, २२६, हे क्र. (गेदितुम्) रोने के लिये, सं. कु. ( रुदिवा) रो करके, विधि क्र. (व्यम्) रोना चाहिये, ३८३ । १८३ । २३८ । २३८ । ३६८ । २१२ । २१२ १ २१२ । f Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' " 31 व् ا 41 77 13 SP " גן 27 73 ל 我 FT hoas कर्म. प्रद्यते) रोया जाता है, विज कर्म. प्र. ( रुद्यते ) शेया जाता है, " [] २४९ | | रोमावलि वि. (रोमावल्याः ) केशवाली का, २४९ । रोस पु. ( रोष) गुस्सा कोष, साइ सक. ( माटि ) शुद्ध करता है, रुन्धइ सक. ( रुणसि ) रोकता है, अटकाता है. १२३ १२८, २३९ । २१८ । २१८ । २४५ । २४५ । । दम्भ सक. (रुणद्धि) रोकता है, रुक सक. ( रुणद्धि) रोकता है, भइ कम. प्र. (रुध्यते) रोका जाता है.. रुन्धिन्जइ कर्म. प्र. (रुध्यते) रोका जाता है, रुद्धो वि. (रुवा) रोकी हुई है. ४२२, ४२६,४३१ मुज्झद फर्म प. (अनुरुध्यते) अनुरोध किया जाता है. २४८ । गुरुविज्जइ कर्म. प्र. अनुरुध्यते अनुरोध किया जाता है, २४८ । जबरुम्झइ कर्म. प्र. ( उपरुध्यते रोका जाता है, २४८ । " वरुन्धन् कर्म. प्र. ( उपरुध्यते ) ' " २४६ । संदभाइ कर्म. प्र. (संरुष्यते) रोका जाता है. संरुज्भिहि कर्म. प्र. ( संदन्धिष्यते ) रोका रुट्ठी वि. ( रुष्टाम्) क्रोधित को, रुद्दिरें रूबर २४८ ० जायगा, २४८ संन्धिज्जइ कर्म. प्र. (संरुध्यते रोका जाता है, २४८ संधि कर्म. प्र. ( संरुन्धिष्यते ) रोका जायेगा, २४८ । ५७ । अ. (ति) शब्द करता है, रुवइ रुष् " रूसइ अक . ( रुष्यति) क्रोध करता है २३६, २५८ "रूसे अक (रोषिष्यामि) कोध करूंगी, ४१४ । 11 पिज्जइ कर्म. प्र. (रुष्यते) क्रोध किया जाता है, ४१८ । ४१४ । ४१६ । ४१९ । ४१८+ ९१ । ४२५ । लठ लक्खु है, १०० " 7 लग् ,, लग्ग सक. (लगति) आता है, सम्बन्ध करता है, २३०, ४२०, ४२२ । लग्गिवि सं. कृ. ( लगित्वा) लग करके, सम्बन्ध करके ३३९ । लग्ग बि. (लग्न) लगा हुया संबंध किया हुआ, ३२६ । वि. (लग्नानि ) लगे हुए संबंध किये हुए, " " खेहिं ४४५ । विलग्गी दि. (विलग्नं) लगी हुई, संबंध की हुई, ४४५ । नच्छि स्त्री. (लक्ष्मी: ) धन-संपत्ति, व्य ४३६० लज्ज् " लगा लगा लदइ [7 तपू— 37 [ल ] पु. ( लयम् ) विलोनता को, बि (लक्ष्यम्) लक्ष्य, उद्देश्य, पु. न. (क्ष) बालों (रुपयों) से, न. ( रुधिरेण ) . खून से, रक्त से, पु. नं. (रूपक) धन को रुपया, रुसणा वि. ( रोषयुक्तः ) कोष सहित सक. मुञ्चति । छोड़ता है, अब रेह लहहि सक. ( लभसे ) तू प्राप्त करता है, रेसि, रेसिं अ. (तायें निपातः) उसके लिये, अक . ( राजते) शोभा पाता है, दोषता रोच क. ( पिनष्टि) पीसता है, रोमन्थइ अ. (रोमन्मयते) वागीलता है, बाता है, वहहुं १८५ । लद्द सक. ( लभते ) वह प्राप्त करता है, सक. ( लभामहे) हम प्राप्त करते ४४ । 26 लज्जइ अ. ( लज्जते ) शरमाता है, १३० । लज्ज कर्म. प्र. सज्ज्यते) लज्जा की जाती है, ४१९ । लज्जिज्जन्तु अ. ( अलज्जिष्यत् ) लज्जित होती, ३५१० ३०२ । ७४ । लभ्- 21 ३५० । ४३९ । १०५ । पु. ( राशर) राजा से, सक. ( स्मरति ) याद करता है, ४१४ । ३२२ । ३३५ । लपत्ति सक. (लपति) बोलता है, ३१९. ११९ । लपते सक. (लपति) बोलता है, लपितं वि. (रूपितं ) बोला हुआ, ३०४, ३२४ । faras सक. ( विलपति ) विलाप करता है, १४८ । हैं, ३८३ । ३३५ ॥ ३८६, ४११ + Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] लहिमु सक. (लभामहे) हम प्राप्त करते हैं, ३८६ . लुई (द्रम् शिव को, ३२६. " लहन्ति सक. (लभन्ते) वे प्राप्त करते हैं, ३४१, ४१४। । लुभा सक लुभ्यति । लोभ करता है, १५३ । "लहहिं सक. (लभन्ते) वे प्राप्त करते हैं; ३६७, ४४०।। लुहइ सक (माष्टि) पोंछता है, लहन्तु सक. (अलप्रपत) प्राप्त किये हुए होते. ३९५लहिलप्पिए वि (रुधिरप्रियः) जिसको रक्त प्रिय है,३०२। "अलहन्तिबहे वि. (अलभमानायाः) नहीं प्राप्त किये हुए की, ३५०।। " गुग्ण सम शुतिकाटता है, नूणता है, २४१ । " लभइ कर्म. प्र. (लभ्यते : प्राप्त किया जाता है, ४१९, | " " लुणिजह सक (लूयते काटा जाता है, २४२ । " लुलन सक. (लूयते) काटा जाता है, " लहिज्जा कर्म. प्र. (लम्यते) प्रास किया जाता है, | सक. (छिननि काटता है १२५ । लेइ सक (लाति) लेता है, ग्रहण करता है, २३८ । सहशपु (भिसा) उत्सुकता, सत्कंटा, २८८ । | लेख डज पु, (लेख:) लिखावट, अकित ४२२ । लहुई पि. (लध्वी) छोटो, ३४८ । । लेपिणु सं. कृ. (लात्वा) ग्रहण करके: ३७०, ४०४, ल-कशे पु. (राक्षस:) राक्षस, लकशं पु. (राक्षसं राक्षस को, ३०२। सं. कृ. (लात्का) ग्रहण करके, ३९५, १४०। लाइव सं. कृ. (लागयित्वा) लगा करके, ३३१:३७६। लेविण स कृ. लात्वा] ग्रहण करके, ४४१ । लायरण न. (लावण्य) सौन्दर्य, शरीर-फ्रान्ति, ४ ४ । ल स्त्री. (रेसा) लकीर, ३२९ । " लायएणं न (लावण्यं सौन्दर्य, शरीर-कान्ति, २२० । । लहिं सक (लान्ति) वे ग्रहण करते हैं, ३८७ । लायं पु. (राजन् । हे राजा ! ३०२ | लोय . (लोक) संसार, २६४। लायायो पु.(राजा) राजा, नपति, ३०२। "लोज पु(लोक) संसार, बस्ती, ३६६ ४२०, लायिद वि (राजित) शोभायमान, २८८ । ४२२, ४४२, ४४३ । लालसउ वि (खालसकः) उत्कंठा वाला, ४०५ : "लोड (लोके) संसार में, ४३८ । लाहु पुलाम) प्राप्ति, फायदा, ३९० । | "लोअहो पु(लोकस्य संसार के, लिका अक (निलीयते) छिपता है, ५५ । । लोथडी स्त्री. (लोमपुटी-कवनम् ) कंबल, ४२२ । लिभा सक (लिझते) घाटा जाता है. २४५ 1 | लोअण पुन (लोचन) आँख, ४१४ । लिप्पइ सक (लिम्पति ) लीपता है, लेप करता है, "लोग्रएन (लोचनानि ) आँखें, आँखों को, लिम्बडा पु.(निम्बके) नीम के पेड़ पर, |'' लागणेहिं न पू. (लोचन:) आँखों से; ४२२ । लिसइ अक (स्वपिति) सोना है, "लोअणहिन (लोचन:) आँनों से, ३५६ । लिह स्त्री (रेखा) लकीर, ३२१।।" लोश्रण न पू. {लोचनयो:) दोनों आँखों का, ३४१, लिहिया वि. (लिखितम ) लिखा हुआ ४०१ लिहिज्जा कर्म प्र. (लिख्यत) लिखा जाता है २५५ । लोक वि. (?) जन साधारण, लीला स्त्री. (लीला) खेल, कोड़ा, २२६।। लोणु न. (लवणं नमक, (लावण्यं) सुन्दरता, ४१८, लोह स्त्री. (रेखा) लकीर, बि. (लूनम्) काटा हुआ २५८ । ' लाइ अक (स्वपिति) सोता है, लेटा है, १४६ । लुका अंक (निलीयते) छिपता है, ५५, ११६ । लाहें पु.न. (लोहेन) लोह नामक धातु से, ४२२ । लुक्कु वि. (लीन:) लगा हुआ, छिपा हुआ, ४.१।। ससह मक. (संसते) खिसकता है, सरकता है, १६७ । लुम्गो कि. (रुग्णः) बीमार; २२८ । ल्हसिई वि. (स्रस्त) खिसका हुआ, लुञ्छइ सक. (माष्टि) पोंछता है, लिहका अक. (निलीयते) छिपता है, Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिहको वि. (दे. । निलीनः नष्ट गत, २५८ । | वज्जमा वि. (वचमयों) वज्र जैसी कठोरता वाले, वज्जेई सक, (वयतित्या करता है. ३३६ । वनइ सक. (वश्वपति) उगता है. अ. (इव समान; सहा सूचक; ४३६ । वनयर वि. (वञ्चकतरा: ठगने वाले, ४०२। घकनु न. (वल्कल वृक्ष की छाल, ३४१, ४१ । याच सं.. गत्वा) जाकर के, ३९५ । बक्यो पु. (व्याघ्रः) बीता. शेर, ३२५ । घकयदि सक. (जति) जाता है, २९४। चम्ग स्त्री. (वल्गाम् घोड़े की लगाम; ३३० । उदुबइ अक (पिलपति) विलाप करता है, रोता है, वरगोलइ सक. (रोमन्थयति जुगाली करता है: चबाय १४८ । हुए को चबाता है। ५३ । वंकी वि. (वक्रां टेली बांकी; वडवाणल पु. (बरवानल) समुद्र में पैदा होने वाली, " वंका वि. (दका) " " आग, ४१६। बडवानलस्सु पु. ( वरवा लिस्य ) समुद्रीय आग का, " कहिं वि. (वक्राभ्याम् । दो टेढ़ी से; ३५६ । बंकिम न. (वक्रिम णं। टेड़ापन को, ३४४ ४०१ । वर वि (महत। बड़ा, वंकुर वि (वक्र:) टेढ़ा, बोका बइत्तणु न.. महत्वम्) बड़ापना, वच-- बड़तमा न. (महत्वम्। बड़पन को, ३८४ । " बोकछ सक. वक्ष्यामि) कहंगा; २११ । | अनुत्तणहो न.(महत्त्वम्प) बहुपन के, ३६६, ४२५. " वोत्तण सं. कृ. (उक्त्वा ) कह करके, "वोत्तव्वं विधि. कृ. (वक्तव्यं । कहना चाहिये, ११। | बड़प्पणु न. महत्त्वं बड़ापना, ३६६, ४३७ । वचनं न. (वचनम् ) वचन, व गो. वडा वि. (महान्ति बड़े, ३६४। चम्बा सक, कांक्षति । इच्छा करता है, १९२ । | बडाई वि. मह मि) बड़े, बच्चई सक. ब्रजति । जाता है, २२५ । पद वि. । उ मुर्ख. ३६२, ४०२, ४२२॥ " अगुवकचइ सक. (अनुवति) अनुसरण करता है. | वणं वग न. (वनम् । जंगल, वन, (चने) वन में, ३४०, १०७। च्छा वि. (वस्सा। प्रेम भावना रखने वाली २८२ । " वरणहि म. (वनः) जगलों से, वच्छई पु (वृक्षात्) वृक्ष से. शाड़ से. ३३६। वणवासु पु. (वनवासः) जंगल में रहना, ३१६ । वच्छहु पु (वृक्षाद) वृक्ष से, भाड़ से, ३६६ । | वणु पु.न. (वणः) पाव, प्रहार, क्षस, ४०१ । वज्जइ सक. (पश्यति । देवता है, १८१ । | यठी पु. दे.) वण्ठ: अविवाहित, ४४७ । यज्जइ अक (त्रस्पति) डरता है, १९८ । वरिअइ कर्म. प्र. (वण्यते . वर्णन किया जाता है,३४५१ बज्जद कर्म. प्र. (बाबते) बनाया जाता है, १०६ वतनक न, वदनम् ) मुख; पज्जा वि. (वाबनशील:) बसने के स्वभाव वाला, | वत्ती स्त्री. (वार्ता) बात, ४३२ । | बहली न, (दे. (वार्दलम् । बादल, मेघ, घटा,४०१ । बजरइ राक. (कथयति) कहता है, वंदेह मक. बदते। वन्दन करता है. ४२३ । "वज्जरिश्री वि. ( कथितः कहाँ हुआ, वमालइ सक. (पुञ्जयति ) इकट्ठ करता है, १०२। " बारिऊण सं. कृ. (कयित्वा) कह करके, । चंफ- सफा अक (बलति) लौटता है, १७६१ " जरन्तो व. कृ. (कथय) कहता हुआ, २। बम्म पु. वि. (वर्मन् ) हे वर्मा ! २६४। "बजरिभव्य विधि. कृ. (कथयितव्यम्) कहना चाहिये, | वम्ह पु. (मन्मथ) कामदेव, ३५० । २। वम्मदु पु. (मन्मथः) कामदेव, ३४४, ४.१ । यज्जरणं न. कथनम्) कहना, कथम, २। | वयंसिबहु स्त्री. (वयस्याभ्यः) सत्रियों से, ३५१ । कामदेव, Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] ए. वयण न. (बदन) मुख, ३९६।। बलाह अक. (आरोहति) चढ़ता है, २०६। " वयणु न बदन) मुख, ३५.. वलणं न. (वरणम्) पसद करना, वरना, २९३ । " यया न. (बचन) वचन, ३६७। वलणाई न (वलनानि ) आड़ा टेढ़ा पना, ४२.. " अयणाई न. (वचनानि) वचन शन, ३४०। बलन्ति अक, (ज्वलन्ति ) जलते हैं, ४१६॥ वर्षियदे वि. (वजितः) मना किया हुषा, २९२।। " यालिट वि. (ज्वालित) जलाई दुई, प्रज्वालिन,४१ । वर-वरह सक. (वृणोति) पसन्द करता है, २३४ | वलय पु.न (बलय) चूड़ी, कंकण, ४४४ । " बारिश्रा वि. (वारितः) रोका गया था, ३३० ४.८।। वलया पु.म. (बलयानि चूड़ियाँ "निवारेच सक. (निवारयति) निषेध करता है २२ । ! वरूनह बि. (बल्लभ। प्रिय पति, ४४४ । "संवरह सक. (संवरति) समेटता है, रोकता है, ८२। " बल्नहार्ड वि. (वल्लभक) पारा, ३५८, ४२६ । " संवरेविहे. कु, (संबरीतुम) समेटने के लिये, ४२२। " बह वि (वल्लभे) भ्यि में, प्रिय के लिये, ८३॥ " वर वि (बर) श्रेष्ठ, भावी पति, ३७० । | वताउ पु. (यवसायः) धधा, पोपार, ३८५, ४२२ । "बरं न.(वर) वरदान को, | वश पु.न. (यश) काबू में, कारणा से, २८८ । " वरही वि. {वरम्य) श्रेष्ठ के. ४४४ । ! वशाहे वि. (वसाया:) रहने वाली का; १४. " वरेहिं वि. (वरैः) श्रेष्ठों से, ४०२. वनले वि. वत्सलः) प्रिय, स्नेही; वरहाहा' अक. (निःसरति) बाहिर निकालता है, ७९। वश्चा वि. (वरसा) प्रिय; लड़की, वरि अ. (वर) श्रेष्ठ, वरित पु. न. (वर्ष, बारह महीनों का रामय, ३३२, '" वसन्ति अक. (बसन्त) रहते हैं, " निवसन्तेहिं वि (निवसदिमः) रहते हुओं से, ४२२ । बत " पवमह सक. : प्रदसति) अन्य देश को जाता है, २५९ । "निअत्तइ थक. (निवर्तते) लौटता है, पवसन्ते वि. (प्रवसन्तेन) परदेश में रहते हुए से, " निबट्टाइ वि. ( निवृत्तानाम् ) पीछे आये हुओं का, " पवसन्ति वि. (प्रवसता) प्रवास में रहने वाले के साथ, " पयः अक, (प्रवर्तते) आगे बढ़ती है, ३४७ । ४२२ । "पवत्तह सक. (प्रवर्तस्व, प्रवृति करो २६४। वस पु.न. (वश? कारण से, जल से, ४४२ । " विवह अक, (विवर्तते, यसता है, गिर पड़ता है. ! " वसिंण पू. न. (वशेष) वश से, कारण से. ३८७. ११८ |" यमि पू.न. (बशे) वश में, काबू में, नियन्त्रण में, वध" वेड्डइ (वर्धते) बढ़ता है, २२० । | वसुधाइ अक. (उद्वाति) सूबता है, ११। " परिअडइ अक. (परिवर्धते) रक्ता है, २२० । "वप्लवाति अक. (उद्वाति) सूखता है, ३१८। " वसुआदि अफ, उदाप्ति) सूखता है, " वरिसइ सक. (वर्षति) बरसता है, २३५। | घसुथा बी. (वसुधा, पृथ्वी, बलद अक. (बलति) लौटता है। १७६ ।' वह" वलाहु अक. (वलामहे । हम सुख पूर्वक रहते हैं; ३८६, , " वह स्त्री. (बहुति, वहते) धारण करता है. ढोता है, ४२६। Yot " वलन्तेहिं व. कृ. (वलन्तः सुख पूर्वक रहते हुओं से, " हिजइ कर्म. प्र. (उह्मते। धारण किया जाता है, ४२२ । ले जाया जाता है, २४५ । चलइ सक. (गृह णाति) ग्रहण करता है, २०६ । । " वुडभइ कर्म. प्र. (उह्मते} धारण किया जाता है, ले बलइ सक. (मारोपयति। ऊपर चढ़ाता है, ४७।। जाया जाता है, २४५। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " वाहिद वि (वाहित) प्राप्त हुआ है. ३६५ । | चिकिणई सक. (विकीणाति) बेचता है, १२ । " उचाई सक. ( उद्वहति) धारण करता है उठाता है, | चिकोस अक. (विकोशयति ) कोश रहित होता है; फंसता है; ४२ " निवह अक. (निर्दहति) माह करता है, पार पड़ता ' निक्केई सक. (विक्रीणाति) बेचता है, ५२, २४. । है, ३६० ।। " विश्राइ सक, (विक्रीणाति) मेचना है, २४० । वहिल्लर अ. (शाघ्रम्) जल्दा ५२२ । | विकिच म. दे) (बत्मनि) मार्ग में, ३५०, ४२१ । बहु स्त्री. अधु) बहू , पुत्र की पत्नी, ४.१ । | विच्छोलइ मक. कम्पयति) कंपाता है. ४६ पा अ.() अश्रया, ३०२। विछोहारू वि. विओभकरम्) घबराहट करने वालो वाइ अक. म्लायति। सूखता है। १८। को, ३९६ । वाएं पु. (वातेन) हवा से, २४३ विलोडवि स कु. (विच्छोट्य) छुड़ा करके, ४३९ । वाणारसिहि स्त्री. (वाराणसी) बनारस भामक नगरी को, विजयसेन न पु. विजयसेनेन) नाम विशेष; विजयसेन से; ४४२। ३२४ । वायसु पु. (वायसः) कौआ, ३५२ । | विआणं पु(विज्ञानम् ) विशिष्ट प्रकार का विशेष शान; वार अ. (वारम्) बार बार, पुनः पुनः ३८३, ! ३०३ । ४२२ । | विट्टालु पु. (दे.) (अस्पृश्य ससर्गः) अपवित्र संगति; वारि न. द्वारे) दरबाजे पर, ४२२। बासह सक. (बालयति । मोड़ता है, वापिस लौटाता है, | डिविड़ाई सक. (रचयति , बनाता है; २२० । | षिढ़त्वउ वि. (अजितम् ) कमाया हुआ; पैदा किया हुआ; पावरफइ अक. (श्रमकरोति) परिश्रम करता है, ६८ . ! ४२२ । धावरेह अक. (क्याप्रियते) काम में लगता है. ८१। वित्त वि. (अजितम कमाया हुआ; पैदा किया हुवा; पावइ सक.(व्याप्नोति) व्याप्त करता है, १४१ ! ! २५८॥ वासारत्ति स्त्री.(वर्षारात्रि वर्षा ऋतु की रात में, - ९५ । । विढापइ कर्म. प्र. (अज्यते ) पैदा किया जाता है; २५१। वासु न (वासम्) निवास, रहना ४५.। विवइ सक. (अर्जयति) उपार्जन करता है, १०८। बासेण पु.(व्यासेन) व्यास भाषि से, ३१९ । घिविखद कर्म.प्र. (अज्यंते) पैदा किया जाता है; २५१ । वाहरह सक. (ब्याहरति) बोलता है, कहता है, ७६ । | विणासह पु. (विनाशस्य) नाश का; ४२५ । वाहिप्पइ कर्म, प्र. (ध्याहृयते) बोला जाता है, २५३ । | विणु अ. (विना)रहित; ३५७, ३८६, ४२१, ४२६, ४५०, अ. (अपि) भी, ३३२, ३३४, ३३५, ३३६, ४४१॥ ३३७, ३४१, इत्यादि | विस्थारू पु. (विस्तार:) फैलाव विभइ सक. (विसंवदति ) अप्रामाणित करता है, | विद्दव ई सक, (बिद्रवति विनाश करता है; सर्च करता १२९।। विम्भह अक (विजृम्भात) विकसित होता है, १५७ । विधिणी पु. स्त्री. शौ.। (विधेः) भाग्य का; भेद का; विजयवम्म पु. (विजयवर्मन्) हे विजयवर्मन् ! २६४ । ' २८२, ३०२। विलिद वि. (विगलित) नीचे गिरे हुए, २८८ । विनासिमा वि. (विनाशिते) नष्ट हो गये, ४१८। वित्रआलि पु. (विकाले) समय से पूर्व में ही; ३७७ विष्पमालाइ प्रेर. (नाशयति) नष्ट करता है । ४०१,४२४ । विपिनारउ वि.(विप्रियकारक:)बुरा करने वाला ३४३ विइगु वि. वितीर्ण:) बिखरा हुआ; अपित, ४४४ । | विपिय वि. (विप्रिय) जो प्यारा न हो; ४२३ । विउडइ सक. (नश्यति) नष्ट करता है ३१ । विमल वि. (विमल) स्वच्छ, निर्मल ३८३। विभोरं . (वियोगेन) जुदाई से; ४१९ । विम्यो पु(विस्मयः) आश्चर्य, ७४। विनोद पु. (वियोगे) जुदाई में; ३६८। विम्हाद पु. (विस्मये) आश्चर्य में; ४२.. १०. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] विग्याइले पु. (विद्यापर) एक जाति का देव; २९.२ | " पइट बि.(प्रविष्ट,घुमा हुआ, ३४०, ४३२, ४३३ । विरह अक. (गुप्यति । (भनक्ति) व्याकुल होता है तोड़ता | " पइट्टर वि (उपवेशितः) जमा हुमा, बंटा हुआ ४५४ । है; १०६, ५० " पट्रि वि. (प्रविष्ठा) प्रवेश पाई हुई. ३३.। विरमालइ सक (प्रतीक्षते राह देखता है । यह अक (विसंवनि) वह असत्य साबित होता है, विरल वि. (बिरल) कोई कोई; कुछ एक; ३४१ । विरला वि. (विरलाः । , ४१२ । विगठि स्त्री (विप - ग्रन्थिविष की गांठ, ४.० ४२२ । विरलई सक (तनति) विस्तार करता है। फैलाता है;१३७ | विसट्रा अफ (दति) फटता है, टुटना है, १७६ । विरह पु(विरह) वियोग जुदाई ४११.४५१,५४४। विसष्ठत वि. (विसंष्ट्रला) अवस्थित, पथ-भ्रष्ट, विरहु पु (विरहः) ४२३ । । बिरहा (विरहस्य) बियोग की, जुदाईकी ४३२।। विमम वि. (विकास। जो गम न हो, अठोर, ३५०, विरहिअह वि (विरहितानाम् वियोग बालों के रहिन वानों के, ३७७, ४०१ । 'विममो वि (विषमः) दारण, कठोर, अनमान, ३०९। विराइ अक (बिलीयते नष्ट होता है, पिघलता है ५६ । " विममी धि (विषमः) समान नहीं, ४०६। बिरबह सक, (विरेवमति) मल को बाहिर निकालना " विममा वि (विषमा) " " विसहारिणी वि (विप-हारिणा : जलधारिणी) जहर दूर विरोलइ सक (मध्नाति ) दिलोडन कर है, १२१ । करने पाली, ४३० । विलम्बु अक. (बिलम्बस्व) तू देरी कर. ८७ । विसाश्री पु(विपादः, खेद, दुःख, विलासिंणीउ स्त्री ( विलासिनीः) आनन्द देन वानी, " विभाउ पु. (विषाद:) मानसिक-शान, ३८५, ४१८ । विसामो न. (विषाणः) सींग, हाथी दाल, २०६ विलिज्जइ प्रेर (विलीयते) लजा की जाती है बाट होता विमा वि (बिसाचितम्) सिद्ध किया हुआ, ३८६, ४११ विसूरइ अन (खिद्यति खेद अनुभव करता है, १३२, ३४० विलुम्पा सक, (कांक्षति) इच्छा करता है १९२ विसूहबक खिद्यः) तू वेद अनुभव करता है ४२२ । २८१ । विलोट्टइ अक (विसवदति) बह असत्य साबित होता है. विस्नु पु. (विष्णुम् ) भगवान् विष्णु को विस्मये पु.(विस्मये। आश्चर्य में २८९। विवह श्री (विपद) वित्ति, दुःख. विलिश्रवि (बिनित) घबराया हुआ, विवह अक (विवर्तते) वह घसना है. गिर पडता है, विस्वी पु.(विभवः) धन-सम्पत्ति, विहवं .(विभवे बन- त्ति मे, ४२२ । विवरीरी वि ।जिपरीता) उल्टी, अनुशल नहीं १२४ , बिहवि पु. विभवे). ४१८। चिहन्ति प्रक (विकसन्ति खिलते है पु.लते हैं. ६५५ । विहाणु पु (दे.) (विभातम्) प्रमाल, प्रात:काल, ३३०, " पगिविट्ठा बि (परिनिष्ट :) (युद्ध में सम्मिलित हुए ६२, ४२०। ४०९ । विद्धि पु. (विधि) भाग्य, ब्रह्मा, ३८५ ३८७, ४१४ । "पविसामि सक (प्रविशामि । मैं प्रवेश करता हूँ | विहार अक प्रतीक्षते) राह देखता है, १९३ । २३८ । विहह अक बिभेति। डरता है, २३८ । "पविशामि सक. ( प्रविशामि) में प्रवेश करी हूं. वाडा सक साडयति. मानता है। २७ । " पविसईसक (प्रविशलि। वह प्रवेश करता है, १८३ । बीजह सक (वीजयति) हवा करता है, पख। करता है, पविशदु सक. (विशतु) वह प्रवेश करे, ३०२। पवीसह सक (प्रविशति) वह प्रवेश करता है, ४४४। [वीण स्त्री. (वीणा) बाजा विशेष, " पइसीमु सक, (प्रवक्ष्यामि) प्रविष्ट हो जाऊगी, ३९६ । । वीलयिणे पु. (वीरजिनः) महावीर स्वामी, २८८ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] बीस वि (विशति) दस और दन -- बोस, ५२३ । [श] वीसरई सक. (विस्मरति) भूलता है. ७५. ४२६ ॥ वीसालई सक. (मिषयति) मिलाता है. २८।। शकबुबइ सक. (व गति) जाता है, ३१२। | " मकई अ. (कमोति) सकता है, ममर्थ होता है ८६, चुमोटिव सं.कृ. (अजित्वा) जाकर के, ३१२ । २३०. ४२२, ४४१ ।। १. युटोपिगु सं.कु. (वजित्वा) जाकर के, ३९२।। ' THE | "मिक सक. (शिने) मीखता है, पड़ना है, ३४५। वुत्तउं वि. (उक्तम्) कहा हुआ, | " मिम्वन्ति मा (शिक्षने) सीखते हैं, पढ़ते हैं, ३७२ । बुन वि. विषण्ण)दुखी, खिन्न, ४२१ । न. (शिक्षाम् शिक्षा को ४०४,४०५ । वेअडइ सक. (सत्यति) जड़ा है शकावाल तेज न शक्रावतार तीर्थ) एक तीथं का वेड पु.(वेदः) हिन्दू धर्म के आदि गंध, नामः ३०१,३०२ । वेग्गला बि. (भिन्न:) अलग, पृथक, १७९ । । शचि त्रि. (संधिनः) इकटठा किया हुआ, ४४७ । वेश्वइ सक, (व्ययं करोति) खर्च करता है, ४१९! | शर वि. (शत) मौ; वेढा सक. (वेष्टते)वह लपेटता है, घेरता है, २२१ । । शम्सक. (वेष्टते) लपेटता है, " समद अक. (शाम्यति) व शारा होता है। १७ । वेदिजइ प्रेर. वेष्टयते। लपेटा जाता है, २२१।। " चमड़ प्रक. (उपशाम्पति' वह शान्त होता है.२३१ । वेण न. (वचन) बचन, शब्द, बोल; ३२९।। “उबशयदि अक. (उपशाम्यति वह वान्त होता है।२९९। वेत्तसो पु-(वेतसः) वृक्ष-विशेष बेंत का मूल;३.५। | शमणे पु. श्रिमण: साधु, तपस्वी; ३०२। वेप-वेवइ बक. (वेपते) कांपता है। १४७ । | शयणा पु. (म्बजनानाम् अपने आदमियों का; ३०.। वेमय सक. भिनक्ति' भाँगता है, तोड़ता है, १०६ । । शयलं वि. (सकलम) सम्पूर्ण, पूरा; २८८। वेरिष वि. (वैरिणः वमन, शत्र, ४३१।। शलिशं वि. (महशम्) समान जैसा: ०२ वलवा सकञ्च यति उगता है, पीडा करता है। शञ्चक वि. (सबैज्ञः) सब कुछ जानने वाला; २९३ । ।। शस्तगह वि. (सार्थवाहः) समुह वा मुखिया, संप-नायक वेलवइ सक. (उपालभते) उलाहना देता है; १५६ + | शस न. (पान) घास, तृग; २८९ । वेबइ अक. (रमते) क्रीडा करता है. खेला है.१६८१ शहा वि. (सर) हजार; ४४७। वेस पु. (वेष:) कपड़ों का पहिनाष ड्रेस; २८५ । शामकाव्यगुणे (सामान्य गुण:) साधारण गुण; २९३ . वेहवा सक, (वश्वयते) उगता है; २३ । शामी वि. (स्वामी) मालिक वोकह सक. (विज्ञाति) विज्ञप्ति कराता है, २८ । शालशे पु.(सारमः) पक्षी विशेष; सारस २८८1 सक. (वीजयति हवा करता है, | शिल न. (शिरस्) माया, मस्तिष्क, शिर; २८८ । वोलइ सक. गच्छति । जाता है; १६२ । | शिषबोलीणो वि.(अलिक्रान्तः। बीता हुआ * सीसह सक, (दशेषति । बचा रखता है; २३६ । घोसट्टन सक. विकराति) खिलता है। १९५० "विमिद टु दि. (विशिष्टः विशेष प्रकार का, ३५८ । वोमट्टो वि. (विकसितः) खिला हुआ; २५८, शुपलिगदिदे वि. (सुपरीगृहीतः) अच्छी तरह से ग्रहण वोतिरामि सक. (त्-प्रबामि मैं परित्याग करता हूँ। किया हुआ; ३७२। २२९।। शुभऋतु न. (प्रतम् ) नियम, मर्यादा, प्रत्याख्यान; | "सोभित अक. (शोभते) शोभा पाता है। ०९। ३९४ । सोहइ अक. शोभते) शोभा पाते है; ४४४ । त्रासु पु. (यास.) 'रामायण' के रचयिता महा- | शम्मिलाए स्त्री. (ममिलायाम) [ अच्छे तरंगों वाली ३०२। कवि ३९९ । । । (नाम विशेष) खोज सक. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] शुज पु. (सुर) देवताः २८८ । सउणि पु. (शकुनिः) व्यक्ति विशेष का नाम, ३९१ । शुष् उणि पु. (शकुनीनाम् ) पक्षियों के लिये, ३४.। "सूसद अक, (शुष्यति) सूखता है। २३६ । | सउणाह पु. (शकुनीनाम्) पक्षियों के, ४४५ । सोमड अक.(शुष्यतु) सूखे ३६५ । | सउन्तले स्वो- (शकुन्तले) है शकुन्तला, २६०। शुष्क वि. (शुष्क) सूखा रम रहित सएग वि. (शतेन) सौ से, शुस्तिदे वि. (सुस्थितः) अच्छी तरह से जमा हुआ; सरहिं वि. (शतेषु) सैकड़ों में, २६१ ।। संबलिय वि. (संवलितम्) व्याप्त, मिलित, ४३१ । शुरटु धि, (सुष्टु) सुन्दर, श्रेष्ठ सवेल्लइ सक्र. (संवेष्टते) अच्छी तरह से लपेटता है, शे सर्व. (सः) वह ३०२। शोके पु. (शोक:) रज, उदासीनता; २९१। । संमई अक, (संसते) खिसकता है, गिरता है, १९७) शोमिदाह न. (शोणितस्य) रक्त का, खून का; २५९ । | सकरणी वि. (सकर्णा) नोकदार, तेज और तीखी अणो शोभणं न. (शोभनम्) सुन्दर; २८८ । वाली ३३०। “शोमणे न. (शोभने) सुन्दर में; सक्कारं न. (सत्कार) सन्मान, २६० । श्रम सक्को वि. (शक्तः) ताकत बाला, " पलिरसन्ता वि. (परिश्रान्ताः) दुःखी हो गये हैं:२८२ । सगरपुत्त पु. (सगरपुत्र) सगर राजा का लड़का, ३२४ । " पलिश्शन्सा वि. परि प्रान्ताः) थक गो है; ३०२। सकडू न. (संकटम्) विषम-स्थिति, कठिनाई, ३९५ । "विसम अक. (विश्राम्यति) विश्राम करता है; १५९ । संकरु पु. (शंकर) महादेव, शान्ति करने वाला, " मुणइ सक. (शणोति) सुनता है। ५८, २४१। संर अ. (रमते) क्रीडा करता है. खेलता है,१३८ । " शुणादु सक. (शृणोतु) सुने, २०। संखी पू.(पलः) शंख, समुद्रीय जीव-शरीर, ३०९ । " सोहीन अक. (अशोभत) शोभा पाया, ४४७ । संख पु. (शंखानाम) शंखों का, ४२२ ॥ सुबह कर्म. प्र. (धूयते) सुना जाता है, २४२।संगमि पु. (संगमे) मिलाप में, सम्मेलन होने पर,४१८ । " सुणिज्जइ कर्म. प्र. (श्रुगते) सुना जाना है, २५२ । | मंगर न. (संगर) युद्ध, लड़ाई, ५ शुणिश्रदे कर्म, प्र. (अयते) सुरा जाता है. ३०२। ' संगलइ सक. (संघटते) मिलता है, संघटित करता है, " सुशिऊण सं. कृ. (श्रुत्वा) सुन करके, २४१ : " सोऊए सं. कृ. (श्रुत्वा) सुन करके, २३७, २४१ । | संगहो पु.न. (सगाय) संगति के लिये, "शुदं वि. (श्रुतम् ) सुना हुआ, २८८ । | सघई २८८ । सक. (कथयति) कहना है, "सुश्र वि. (श्रुता) सुनी, ४३२ । | सच्चवह सक.(पश्यति) देखता है, १८५ । शिलषु सज्जणु पु (सज्जनः) अच्छा आदमी, ४२२। " सिनेसह सक. (श्लिष्यति) आलिंगन करता है १९० । सज्जमाई पु. (सज्जनानाम्) अच्छे आदमियों का, ४२२ । श्वस् समु पु. (सत्यः) सहा नामक पर्वत विशेष, ३७० । "नीससइ अक. (नि:श्वसिति) बह निःस्त्रास लेता है, सच सक, सचिनु) इकट्ठ कर, सम्रह कर, ४२२ । सञ्ख्या स्त्री. (संज्ञा) नाम, [स] सण्ठो वि. पु. (षण्डः) नपुसक, ३२५ । सर्व. (सः) बह. ३७०, ४०६, ४१४.४३९। सतनं न. (सदनम्) घर, भवन, मकान, ३०७। सह अ. (स्वयम्) खुद, ३९५, ४३० सस्थ वि. (स्वस्थ, निरोग, तन्दुरुस्त, ३९६ ४२२। ब. (स्त्रयम्) खुद, ३३९, ४०२ । | सत्वर पुन, (नस्तरे) बिन्तरे पर, बिछौने पर, सइला पु. (शैला:) पर्वत, ३२६ । सत्यादि न. (शन:) हथियारों से, Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद् - 11 सडइ अ. (सीदति) गल जाता है, भढ़ जाता है, १९९ सदो वि. ( सदोष ) दोष बाला ४०१ । सणं, लद्दा न. ( श्रद्धानम्) विश्वास, यकीन, २३८ । भगवान् शांतिनाथ को ४४१ । म्भं करोति) = ਜਹਿਰ पु. ( संदक्षण सक. (निष्टम्य करोति लेता है, ६७ । संकल्प करता १८० । सुलगता है. १५२ । समाचारों को, ४१९, अवलम्बन करता है. सहारा संदिसइ सक. ( सदिशति ) संदेशा देता है. संदुमद्द अक (प्रवीपयति ) जलता है. संदेसडा पु. ( संदेशान् ) संदेशों को संदेसें संधि सम समणे समर [ ६७ ] संपय संधुक ८३ । सनामे सक. (आद्रियते ) आदर करता है, सन्तुमइ सक. (छादयति ) ढांकता है, पु. ( शपथम् ) सौगन्ध, २२ । ३९६ । संवधु समाउ वि. (सफलम् । सफल, ३९६, ३९७ / वि. ( समः ) बराबर, समान, ३५४ । २७५ । पु. ( श्रमण) साधु, पु. (समर) युद्ध, ३७१। ३६५ । समरंगण्इ न. ( समरांगणके युद्ध भूमि में, समाले वि. ( समाकुलेन ! घबराये हुए से, समाइ सक. (मुक्त) भोजन करता है, खाता है, ४४४ । 3. पु. ( संदेशेन ) समाचार से, ४३४ । पु. स्त्री. (संघी) संधि पर संयोग स्थान पर, ४३०। मक. ( प्रवीपयति ) जलता है, सुलता है, १५२ । समीपं समुद्दा संपइ समाणु समार सक. ( समारवयति) ठीक करता है, दुरुस्त करता ९५ । संभाव संमानं संमुह सय ז, " " सयल सयवाह सर् 17 37 13 37 माएण सयाई सएहिं 37 ا. 11 पसरइ अ. ( प्रसरति ) वह फैलता है, " पसरि सर 33 सर 33 25 स्त्री. ( संपद -द्रव्य, ३३५, ३४७, ४००, ४१८। वि. ( संभवस्य) होने वाले का, ३९५ । अ. (लुम्पति लोभ करता है। १५३ । पु. ( संमानम् ) आदर को, गौरव को, ३१६ बि संमुखी) सामने सम्मुख में ३९५, ४१४। बि. (शत) सौ वि. ( शतेन ) सौ से, वि. (शतानि सैंकड़ों, वि. (शतैः सैंकड़ों से; वि. (सकल) सब, तमाम, अ. ( शतवारम् ) सौ बार, मरइ सक. ( सरति ) वह सरकता है, २३४ । शल अ. ( अपसरत) सरको, दूर हटो, पीछे हटो, नीसरह अक निःसरति) बाहिर निकलता है, नोमरद्दि अक . ( निःसरति ) तू बाहिर निकलता ११० । सक. ( समाप्नोति ) समाप्त करता है पूरा करता सक. स्मरति याद करता है. है, १४२ । वि. ( समानम् ) सदृश तुल्य, सरीखा, सरहूँ सक. ( स्मरन्ति ) याद करता है, सरला ४३८ | सराबि ४१८, सरइ 1991 वि. (मृतक फैली हुई, फैलती हुई, ३५४ पु. न. ( सरस् ) तालाब, सरे, सरम्मि, सरसि पु. न. ( सरसि ) तालाब में, ४२२ • ४४८ सरू पुन (गर) बाण, सरिण पु. न. ( शरेण) बाण से, वि. ( समीपम् ) निकट पास, ३२२ । पु. ( समुद्राः) समुद्र, सागर, ३२६ । सरिक्षिय स्त्री. (संपद्) धन-द्रव्य, ३७२, ३८५, ४०० । सरिहिं पु. न. (शर) वाण, ३४४, ४०१, ४१४ | सर पु. न. ( शरत्) ठंड की ऋतु, आसोज कार्तिक की ऋतु ३५७ । ३५७ / ३५७ ७४ । ३६५ । वि. ( सरलाइ ) भोले को, कपट रहितों को, ३८७ । पु. ( शरावे ) मिट्टी के छोटे से पात्र विशेषसकोरे में, ३९६ । ३००१ २७९ । ३९५ । ४२२ । ४२२ । ३३२ । ३५७,४१८१ ३४५ । २६४, ४४१ / ३५६ ॥ सरिया हूँ स्त्री. (सरिताम् ) नदियों का, सरिसं वि. ( सदृशम् ) समान, सरीखा, स्त्री. ( सट्टशताम् ) समानता की, स्त्री. (सरिद्भिः) नदियों से, ३०२ । ७९ । है, ४३९ । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] सरेहिं पुन, (सरोभिः) तालाबों से, ४२२ । सह अ. (मह) साय, स सहा अफ. (राजत) शोभा पाता है. १००। " उक्सप्पइ सक, (उपरापीत) पास में मरकता है ३१ । । सहहिं अक. (शोभन्ते शोभा पाते हैं, ३८२. " शप्पणीया वि. (उपसपनीया) पास में सरकने । सहसत्ति अ. (सहसा इति) अचानक ऐमा, ३५२ । योग्य ३०२। सहाच पु. (स्वभाव) प्रकृति, निसर्ग, ४२२॥ सलज्ज वि. (सलजम) लग्जा सहित को १३०सहि ली. (सखि सहेली, ३३३, ३७१, ३६०, ३९८, ससहर सक. (इलायते) प्रशसा करता है. ८८. ४०१. ४१४. ४१७, ४४४। सलिल पु.न. सखिल) जल, पानी ३६ सहिए श्री (सखिके) हे सखि ! ३५८, ३६७ । " समिळे .न. (सलिल) जल, पानी, ३०८। सहुँ अ. (सह) साथ सलिल वसणं-न. (सलिल क्सनम्, पानी वाला कपड़ा, सा ली. सर्व (सा) वह ३६८, ४३१ । साइ सक. (कर्षति । खींचता है, खेती करता है. १८७ । मलोणी वि. (सलावण्या) सौन्दर्य वाली सामगाइ सक, (श्लिष्यति) आलिङ्गन करता है; १९० । सलीगु मि. (सलावण्यम् । सुन्दरता से यूक्त, १४५।। सामनु वि. (सामान्यः) साधारण. ४.८॥ सलइड स्त्री. (सल्लकी) वृक्ष-विशेष को, ८७। | सामय सक. (प्र.क्षते। राह देखता है। १९३ । " सल्लइहि श्री. (सल्लीभिः) सल्लकी नामक वृक्षों मे, | सामला वि. (श्यामल: काला वर्ण बाला, ३३०। ४२. सामलो वि. (श्यामला) काला वर्ण वाली, ३४४ । " सव्व वि. (सर्व) सब, ४२२ । सामि वि. (स्वामी) मालिक, ३३४.४३० । "सन्धु वि. (सर्व) सब, ३६१, ४३८, सामिउ वि. (वामी) मालिक, अधिपति, 'सव्यस्स वि.(सर्वस्य. मबस्म) मबका मचके लिये ३१६। | सामिश्र वि. (हे स्वामित्) हे मालिक ! ४२२ । "सध्यहि वि. (सर्वेः। सभी से, ४२१। | सामित्रहो चि. (स्वामिनः मालिक के, ३४०। सम्बंग वि. (सर्वाङ्गा संपूर्ण, सर्व-शरीर-व्यागी ! सामिहुँ कि. (स्वामिभ्यः) मालिकों से, ३४१ । २२१,११२सायक पु. (सागरः) समुद्र, ३३४ ॥ सवंगे दि. (सर्वाङ्गण सपूर्ण रूप से, संपूर्ण शरीर से 'सायरहो पु. (सागरस्य) समुद्र के ३९५, ४१९ । ९। सारि पु.(सागरे) समुद्र में, ३८३। सम्वंगाध वि. (सर्वाङ्गीः) सभी अंगों वाली, ३४८। । सारपु .न. (सार) धन, न्याय, बल, परमार्थ, फल, व्यम्यो पु. (सर्वज्ञः) सब कुछ जानने वाना, ३०३ । ४२२॥ सम्वासण पु. स्त्री. (सर्वाशन) सब कुछ खा जाने वाला, साग्इ सक. (प्रहरति) चोट करता है, ८४। अग्नि , ३९५ । । सारवई सक, (समारचात / साफ करता है, ठीक ठाक समरहो वि. ( सस्नेहा) प्रेम सहित, करता है. ९५॥ ससरीरो वि. (सशरीरः। शरीर सहित ३२३ । | सारस पु. (सारस) पक्षी विशेष, पशु विशेष, ३७० । ससहरू पु. (शमाधरः) चन्द्रमा, सारिक्ख न. (साक्ष्य) समानता, मरीखाई, ४०४। ससि पु. (शशि) चन्द्रमा, ३८२, ३९५,४१८, ४४४ सारु पु.न. सारम, न्याय, सार, बल, ३६५ । ससी पु. (राशी) चन्द्रमा, ०९।। साव वि.(सर्व) सब, ४२० । सतिरेह श्री. (शशिलेखा) चन्द्रमा की लकीर, ३५४ । । सावण पु. (श्रावणः) सावन का महीना; ३५७, ३९६॥ " सहेसइ अक. (सहिष्यते) सहन करेगा, ४२२ । सास पु (श्वासान् । सांसों को, ३८७, ३६५ । "सद्देश्वर विधि. कृ. (सोढव्य सहन करने के योग्य. साहा. सक. (कथयति) कहता है, ४३८ । । साइट्टइ सक, (संवृणोति) समेटता है; ८२। सह Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइर सक, (सवृणोजि) संवरण करता है, ८२।। मीळ न (शीला, " " " ३०८। साह वि. [मर्थः] सभी, मब, ३६६. ४२२ । । मीसद सक. (कथयति) कहता है, सिंगहुं न (मेभ्यः) चोटयों से, ३३७ । | सीसु पु.न. (शोषम ! माथा, (शीर्षे माथे पर,३८१,४४६ । सिच संमो शिल:, २६५ "-मिषद सक (सिञ्चति) सीं बना है, छिटकना है. ९६, | सौह पु, (सिंह . नाह', सिंह, २३| सीहु पु. (सिंहः) नाहर सिंह ४१८। "सेबई सक. (सिंचति ) भींचता है, ९६ । | मोहहो पु. (सिंहेन) सिंह से, नाहर से ४१८ । " संहिता वि (समिक्तम्) भोगे हुए, गोले हुए. ३२५ । सु सर्व (स:) वहः ३६७, ३८३, ४१४. ११६, ४२२ मिजिजरीए पि. ( स्वेदन शीलायाः ) पसीने वाली है. | सुश्रद प्रक, [स्वपित्ति] गोता है, १४६ ! २२४ सुअर्हि अफ स्वन्ति सोते है, ३७६, ४२७ । सिद्धत्था बि पु. (सिद्धान) सिद्ध पुरुषों को. ४२३ । सुअणु विपुजनः] सज्जन पुरुष.३६, ४०६ । मिधु-- सुभपस्सु वि. पु. (सुजनस्य) अच्छ आदमी का; २३८ " सिझा प्रक (मध्यति) सिद्ध होता है. २१७ । ३७५, ३८९, ४१६। " निसेहइ सक ( निषेधति । निधारण करता है. १७४ । । सुइणेहिं वि. पु. सुजनैः) भन्छे आदामयों से; ४२२ । सिनातं वि. (स्नातम्) स्नान किये हा को. सुइणन्तान. (स्त्रमान्तरे स्वप्न-प्रवस्था में, ४३।। सिप्पद कम प्र. (मिच्यते। मीचा जाना है. २५५ । । सुइसत्यु न. (श्रुतिशास्त्रम्) बंद-शास्त्र सिम्पई सक. सिञ्चति ) सींचता है, ९६ । । सुकम्म न. (सुम अच्छा काम; मिम्मी पु. (श्मा ) कफ, दारीर की धातु विशेष, ४१२ | सुकिर न. (सुक्तम् । पुष्प, पवित्र काम, ३२९। , सिह न (शिरः । माया, मस्तिष्क ४४५ । । सुकिदु म सुकृतम्) । " " ३२९ । ... सिरेण न. (शिरसा मथे से; ३६७ । . सुकूद न. (सुकृतम् ) " " ३२९ । ..सिरे, सिरमिन, सिरमिन शिरसि, माथे पर, माथे । सात अक. (शुष्यक्ति) लगते है। ४२७। में; ४४८ । सुक्खु न. (सौख्यम्) मुख ३४०। सिरि न. (शिरसि, माथे पर; ४२३, ४ । Bघे न. (सुखेन सुख में; ३९६,४१० । सिरि स्त्री (की:) लक्ष्मी, ३७०, ४०१। | साजो पु. (सूर्यः। रवि, आदित्य, सिल स्त्री (शिला बड़ा पत्थर विशेष, सुठु वि. (सुन्छु) अच्छा. कोट ४२२ । मिलायलन (शिलालनम: पत्थर का कारी भाग, ३४१ । सुण उ पु. (शुनकः) कुत्ता सिलस सक (लिष्यति) आलिङ्गन करता है. १९० । सुतं न. (सूत्रम्) मूत्र शास्त्र; २८७ । मिवतित्थ न (शिवतीथम्। शिवजीवाला तीर्थस्थान ४४२ लायस्थान ४४२ | सुनुमा स्त्री. (स्नुषा) पुत्र-बघूः ३१४ । सिधु पु', न (शिवम् । मोक्ष को. ४४ | सुन्दर वि. (सुन्दर, रूपवान्; ३४८। सिम्बा सक (सीव्यति। सीता है सचता है, सपलिहानो वि. (सपरिगृहात ) अच्छा नरह से ग्रहण मिमिर पु(शिशिर)ऋतु विशेष,माघ फागुन की प्रातु. ४१५ किया हुआ, २८४ । सिसिरु पु(शिशिरः) " " " " ३५७ । | सुपुरम वि. (सुपुरुणः) अच्छा पुरुष, ३६७, ४२२ । मिहइ सक. (स्पृहयति) इच्छा करता है. ३.४ ११.२ । । सुभिचु पु. सुभृत्य: अच्छा नौकर; ३३४ ॥ सिहिकढण न । शिखिवयनम्) आग पर पकाना; ४३८ । । सुमाणु न. (स्मरणम् । यद, स्मृति; ४२६ । प्लील वि (शीतल ) यडा, प्रशान्न: सुम्मिलाए स्त्री. मिलया: स्त्री विशेष से, २८४ । सीबलु पि (शीतलः। ठंडा, शान्ल; ३४३ । सुय्यो पु. (सूयः) रवि. सूरज, २६६ । सोबला वि. (शीतला) ठंडो, शान्त, सुरड न. {सुरतम्) मेधुन क्रिया, ३३२, ४२० । सीमा श्री. (सीमा) हन, मर्यादा, सीमा; ४३०।। सुवंसह पु. (सुवंशानाम् ) प्रच्छे वश वालों का, ४१९ । सील न. (शील) धर्म, व्रत, ब्रह्मचर्य, ४२८ । । सुबण्णरेह स्त्री. (सुवर्ण रेखा) सोने की लकीर, ३३० । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] सुहच्छडी स्त्री. (सुखासिका) सुन सहित बैठक, ४२२ । । " मखाय वि. (सम्यान ) निविड़, सधन, सान्द, १५ । सुहमछी स्त्री. (सुखासिका) " " " ३५७ । । स्थासुच्छिश्रहिं स्त्री. (सुखासिका सुख रूप अवस्था में, "चिट्टर अक. (तिष्ठति) ठहरता है. बैठता है, १६ । ३०६ ४२७ । "चिदि अक. (तिष्ठति ठहरता है, बैठता है. ३६० । सुख्य पु.न. बि. (सुभग अच्छा भार वाला, ४१९ । "चिष्ठदि प्रक. (विष्यति) ठहरता है. बैठता है, २९८, सुहासिल न. (सुभाषितम्) अच्छी वाणी, ३९१ । सुहिया पृवि (हे मुखिन्) हे सुख वाले, २६३ 1 "हाई अ. (तिष्ठति) . .. ॥१६, ४३६ । सुहम. (सुखम् ) सुख, आराम, ३७०, ४४१ । | "ठन्ति अक. तिष्ठति) टहरते हैं, बैठते हैं ३९५ । "ठि वि. (स्थितः) ठहरा हुआ, ४.१, ३९।। " सवई सक. (सूते) जन्म देता है; "ठित वि. (स्थितः। यहा हुआ, ४.५ । "पसवह सक. (प्रसति) जन्म देती है। बच उत्तान " ट्रिउ वि. (स्थितः) रहा हुआ, ठहरा हुआ, ४३९ । करती है, " दिल वि. (स्थितिः) , , , , ४४८ । सक, भनक्ति) भागता है तोड़ता है। १०६ । । ठेअं बि.(स्थितम्) रहे हुए को, ठहरे हुए को, ५४, सूर पु. (सूर्यः) सूरज, रवि ४८। सूरह सक, (भनक्ति) भांगता है, तोड़ता है। 1०६" द्विअहो वि. (स्थितस्य) रहे हुए का. ४.६ । सर्व (तस्य) उसका; २८७ । । " ठिाह वि. (म्थितानम्) रहे हुओं का, सेल्ल पृ.न. (महल) भाले को ३८७ ।। "ठिदो वि. (स्थितः) रहा हुआ; ठहरा हुआ, सेवइ सक. (सेवते सेवा करता है। ३९६ ।।"ठियं वि. (स्थितम्) रहे हुए को, ठहरे हुए को, १६ । सेसहो वि. (शेषस्थ) बाकी बचे हुए का; ४०१ । " चिट्टिका सं.कृ. (स्थित्वा ठहर करके, १६।। सेहा अक. (नश्यति) नाम करता है, भागला है, " ठाऊण सं.कृ (स्थित्वा) ठहर करके, १६ । १७८ "ठवह सक. (स्थापयति) स्थापना करता है, ३५७ । सेहरु पु. (शेखरः) शिखा, चोटी, मस्तक, ४४६ । . " दुइ अक. (उत्तिष्ठते) उठता है, खड़ा होता है; १७ । सो सर्व (सः) बह. २८०, ३२२, ३२३, ३३२, "उट्रिना बि. (उस्थितः) उठा हुमा, खड़ा हुआ; १६ । ३४०, ३६७, ७०. इत्यादि। ।" उस्थिो वि.(उत्थितः) " " १६ । सोऽपि सर्व. (सोऽपि) यह भी, 'उठिबउ वि. (उत्थितः) " " ४१५, ४१६ सोक्खाई न. (सौस्यानाम् । सुखों का, ३३२।। " उदावियो वि. (उत्थिापितः) उठाया हुआ, १६ । सोभन न (शोभनम) सुन्दरता, 08 ' उपस्तिदे वि. (उपस्थितः) हाजिर हुआ, २९१ । मोमगहरणु न. (सोम ग्रहणम्) चन्द्र ग्रहण, " पहिलो चि. (प्रस्थितः) जिसने प्रस्थान किया हो वह, १६ सोल्लइ सक. (पचति) पाता है। ६। | "पत्थिा वि. (प्रस्चितः, जिसने प्रस्थान किया हो वह. सक. । क्षिपति) फेंकता है। सोह स्त्री. (शोभाम् ) शोभा को सुन्दरता भो ३८२ । " पदवई सक, (प्रस्थापयति , प्रस्थान कराता है भेजता स्खल"पस्खलदि अक. (प्रस्न लति) भूलता है, पद्रावद सक.(प्रस्थापयति प्रस्थान कराता है भेजता है ३७ " पठावित्रइ कर्म.प्र.(प्रस्थाप्यसे) भेजा हुआ होता है,४२२ "थुण सक. (स्तौति) स्तुति करता है. “पवित्रो वि. प्रस्थापितः) भेजा हुआ; प्रवर्तित, ,१६ । " थुब्बइ कम, प्र. (स्तूयते) स्तुति की जाती है ४२। स्फुट .... "धुणिजन कम. प्र. (स्तूयते , स्तुति की जाती हैं,२४२ । | "फुट्ट अक. (स्फुटनि) खिलता है. फूटता है, दूरसा है स्त्या -- १७७, २३१, " संखाइ अक. (संस्थापति) आवाज करता है, सघन "फुडद अक. (स्फुटति) खिलता है, फूटता है; टूटता है, करता है। " NI नाराया Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१ ] "फोडन्ति सक. (कोडयन्ति ) फोड़ते हैं, विदारण करते ] हत्यें है, ४२२, ४३० । इत्थहि ३५० । इण् ४४९ । इइ सक. (हन्ति) मारता है, घात करता है, ४१८ । „ " 13 ३५२ । हम्म सक. (हन्ति ) २४४ । ३५७ । २४४ । २४४ । " फोडेन्ति सक. (स्फोटात :) दो फोड़ते हैं सक. (स्फुट) फूट जा, फट जा सक. (स्फुटिलानि फूट गये, टूट गये, सक. (स्फुट) फूट जा 17 " स्मर्- सर सक. ( स्मरति ) याद करता है। ૭૪ । सुमरद्द सक. (स्पति) याद करता है; ७४ । सुमरि सक. (स्मर) याद कर ३८७ । सुमरहि सक. (स्मर) याद कर ३८७ । सुमरिज कर्म. प्र. (स्मत) स्मरण किया जाता है; ४२६ । ७४, ७५ । ע " 77 " " " बिम्हरह सक. ( स्मरति याद करता है। स्त्रप्- " सुश्र अ. ( स्वरित) सोता है, नींद लेता है : १४६ । सुहिं अ. (स्वपन्ति सोते हैं, ३७६, ४२७ ॥ सोवा विधि. कृ. ( स्ववितव्यं) सोना चाहिये, ४३८ । 27 " फुट्टि फुट्ट फुट्टि ६ ह [इ] अ. (पादपूरणे) पाद पूति अर्थ में आता है. ६७ । ३७५ इत्यादि । विशेष, सवं. ( अहम् ) मैं, ३३८, ३४०, ३७० ३७९, ३९, ४१०. ४१, ४२०, ४२२. पु. ( ह्स : ) सफेद वर्ण वाला पक्षी हाइ इत्थड उ दत्थवा हस्थि इत्थु शे २८८ । ergas es. (उत्पति ) ऊंचा करता है, उठाता है, गे हज्जे 31 सक. ( वृणोति ) सुनता है, पु. ( हस्तः) हाथ, पु. न. ( हस्तौ ) दो हाथ, पु. ( हस्ती) हाथी, गजेन्द्र, पु. ( हस्त) हाथ, 28 24 7. #3 " हन्तू सं. कृ. (हवा) मार करके, "इओ वि. ( हतः) मारा हुआ हन्ति सक. (नम्ति ) वे मारते हैं. सक. (गच्छति) जा है, हम्मद्द हयविहि इयास 33 I इ २०९, "हर सक. ( हरति ) ग्रहण करता है, लेता है, २३४, २३९ । इरिज्जइ कर्म. प्र. (हियते ) हरण किया जाता है, २५० । होर कर्म (हिमते " 27 13 ! २५० ॥ ४०९ । विहारतः ) हराये गये हैं; हर. (अनुहरति । नकल करता है २५९, ४०८ अ. (अनुहरन्ति । नकल करते हैं, ३६७/ अहरह सक. (आहरति) छीनता है साता है, २५९ ॥ वाहर सफ ( व्याहरति ) बुलाता है, ७६, २५६ ॥ 53 १४४० बाहरिज्जइ कर्म प्र. ( व्याह्रियते) बुलाया जाता है, २५३ सर्व. ( अहम् ) मैं २८२, २९९.३०१,३०२ । दाखी को बुलाने के अ. ( पेटी - आव्हाने ) ( समय में बोला जाने वाला शब्द विशेष, हर सक. (उपयिते) पूजा की जाती है, २५१ । नीवर अक (नीति) पाखाना जाता हैं, परिहर. (परिहरति छोड़ता है। २५९, पहरड़ सक. (प्रहरति ) युद्ध करता है, २८१, ३०२ । ५८ । ४५५ । "" परि सक. (पुनः पूरयति ) फिर से पूरा " विहरइ प्रक. ( विहरति ) खेलता है, संहर सक. ( संवृणोति ) समेटता है, हरि (हरि) विष्णु, कृष्ण, ३९१, ४४३ | हरियाई पु. ( हरिणा:) हरिण, मृग, ४२२|| इरिसअक. (हृष्यति ) प्रसन्न होता है; ४३९ । 73 " 12 77 पु. ( हस्तेन) हाथ से, पु. ( हस्ते हाथों से, कर्म. प्र. ( हन्यते) मारा जाता है, हि सर्क (हनिष्यति ) वह मारेगा, 11 11 इम्म कर्म प्र. ( हन्यते । मारा जाता है, २४४१ कर्म प्र. (हनिष्यते) वह मारा जायगा, २४४ ॥ हन्तव्व विधि कृ. ( हन्तव्यम्) मारना चाहिए, मारने योग्य है, २४४१ २४४ । २४४ । ४०६ ३६६ । ३५८ । वि. ( हतविधि :) फूटे तकदीर वाला, वि. (इताश) जिसकी अशा नष्ट हो गई १६५ । ३५७ । हो वह ३८३ । २५९ ॥ ३३४, ८९३ ८४, २५९ । करता है, १५९ २५९ । २५९ । ४२०, ४२२ । ४२२ २३५ । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल .. पु.(हरम) महादेव जी को; 326 / / हितपके न. (हृदयम् .. 310 / इला अ. (मखी-आमंत्रणे) सभी को बुलाने के | हिरण न. (हृदयन) हदम ले, 265 / अ. (सखी-आमत्रणे) अर्थ में बोला जाने हिवद अक. (भवति) होता है, 238 / वाला शब्द: 260, 332, 358 / हा अ. (आश्चयाँ दो निपातः) आश्चर्य पादि के हल्लाहलेणन. (दे. (विक्षोभेण वनराहट से, हड़बड़ी सम मदाल जाना / 3. 282,02. ही, अ. विदूषक द्वारा हर्ष के समय में बोला जाने हषद बक. (भवति / होता है: 238 / वाला घाब्द, 285, 302 / हस होसमणं न. (दे) (ह पितम् / स्वंसार हुआ, घोड़े का " हसइ अक. (हनि / हंसता है; 196, 239 / शब्द, 258. " इसन्तु अक. (हसन्तु! हम अ. (खलु) निश्चय, संशय, आदि में बोला दसितून सं. कृ. (हमित्वा) हंस कर के जाने वाला पब्द, 390 / हस्सइ कर्म.प्र. (हायते) हंसा जाता है। 246 / " हसिज्जइ कर्म. प्र. (हस्यो) मा जाता है। 241 / " हुणइ सक. (जुहोति। होम करता है, 241 / "हसिउँ वि. हलित) हंस गया, मनाक की गई; | " हुणिज्जई कम. प्र.(हूयते। हवन किया जाता है,२४२ / हुंकार उएं पु. हुंकारेण) स्त्री कृति प्रकाशक शब्द से, इस्ती पु. (हस्ती) हाथी, 286 / हुँकार ऐसे शक से,१२२ हारवह सक. (नाशयति / (हाग्यति * नाश करता है | हुवह पु.(हुतवह / अग्नि. हुदासणा पु. (हुताशनः) अग्नि. 265 / हि .अ. हि) निश्चय रूपः हुल ___सक, माष्टि) साफ करता है, हिअयं न. (हदयं) अन्तःकरण: हृदय, सक, (क्षिपति) फेंकता है. " हिनय न.(हृदय' अन्नकरण, हृदय, कर्म. प्र. (हूयते) हवन किया जाता है, 242 / "हिथा न. (हृदय) ., . 37. हुहुरू अ. (शब्दानुकरणे निपान: द विशेष की " हिना न, (हृदय वृदय में, अन्नकर" में, 330, नकल करन के समय में बोला जाने वाला शब्द, 395, 420 / " हिश्रा न. ( है हृदय ! ) हे दृश्य हे अत:करण ! हश्र वि. (भूतः) हुआ, 422 / / हे अ. (अधः) नीचे, 448 / हिडन न. (हृदयम्) हृदय बो, 350. 367. 422 / / हेलि अ.(हे आलि। हे सखि ! 379, 421. हिवडा न. (हे हदय ) हदय ! 357,422.439 / | हन्तिी अक. (अभविष्पत्) हुया होता, हुआ होगा, हिडिम्बाए स्त्री. (हिडिम्बायाः, हिडिम्बा नामक राक्षसिनी 355, 372, 373 / वा, 299 / | हासो व. कृ. (भवन् / (भवन) होता हुभा. 355, हिएडीअदि सक. (हिण्ड्रते भ्रमण किया जाता है,२९९ / 376, 373 / हितपर्क न.(हदयम् दृदय, अन्त करण, 3 होन्त र ब. कृ. (भवत् ) होता हुआ, 355, 379, 380