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________________ [ ४२२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Mooreerotocorrove.ooooorronsorroresonsoriorrowesosorrrrrrroren समनूपाद्र धेः ॥४-२४८ ॥ समनूपेभ्यः परस्य रुधेरन्त्यस्य कम-भावे झो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ संरुज्झइ । अणुरूज्झइ । उवरुज्झइ । पदे । संरुन्धि नइ ।। अणुरुन्धिज्जह । स्वरुन्धिज्जह । भविष्यति । संरुज्झिहिइ । संरुन्धिहिइ । इत्यादि ॥ अर्थ:--'सं, अनु, और उप' उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग साथ में हो तो 'रुधरुन्ध' धातु के अन्त्य अवयव रूपन्ध' के स्थान पर फर्माण-भावे प्रयोगार्थ में विकल्प से 'उझ' अवयव रूप अक्षरों को आदेश प्राति होती है। तथा इस प्रकार के जम' की आदेश प्राप्त होने पर कर्मणि-भाव-अर्थ-बोधय प्रत्यय 'ईअ अथवा इज' का लोप हो जाता है। यों 'न्ध' के स्थान पर 'झ' की यादेश प्राप्ति नहीं है वहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्यमेव रहेगा । जैसे:-संरुध्यत = संरुज्झइ अथवा संसाधिज्जन = रोका जाता है, अटकाया जाता है । अनुरुध्यत्ते अणुरुज्झाइ अथवा अगुसन्धिजइ = अनुरोध किया जाता है, प्रार्थना की जाती है अथवा अधीन हुआ जाता है, सुप्रसन्नता की जाती है। उपरुध्यते - उवरुज्झाइ अथवा उपसन्धिज्जइ = रोका जाता है, अड़चने डाली जाती है अथवा प्रतिबन्ध किया जाता है । भविष्यत कालीन दृष्टान्त यों है:-सरुन्धिभ्यते-संरुज्झिाहिइ अथवा संसन्धिहरोका जायगा, अटकाया जायगा। इत्यादि रूप से शेष प्रयोगों को स्वयमेव समझ लेना चाहिये । 'सरुन्धिाहइ क्रियापद भविष्यत् कालीन होकर कमणि-भावे अर्थ में बतलाया जाने पर भी ईत्र अथवा इज' प्रत्ययों का लोप विधान सूत्र-संख्या ३-१३० की वृत्ति से किया गया है, इसको नहीं भूलना चाहिये ॥४-२४८॥ गमादीनां द्वित्वम् ॥ ४-२४६ ।। गमादीनामन्त्यस्य कर्म-भावे द्वित्वं वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ गम् । गम्मइ । गमिज्जइ ॥ हस् । हस्सइ । हसिज्जह ॥ भण् । भएण्इ । मणिज्जइ ॥ छुप । छुप्पइ । छुविज्जइ । रुद-नमो वः (४-२२६) इति कृतवकासदेशो रुदिरत्र पठ्यते । रुन् । रुवइ । रुविज्जइ ॥ लम् । लगभइ । लहिज्जा ॥ कथ् कत्थई । कहिज्जइ । भुज् । भुज्जइ भूञ्जिज्जइ ।। भविष्यति । गम्मिदिइ ! गमिहिइ । इत्यादि । अर्थः--गम, हस, भरण, छुव' श्रादि कुछ एक पाकन धातुओं के कर्मणि-भावे-अर्थक प्रयोगों में इन धातुओं के अन्त्य अक्षर को द्वित्व अक्षर का प्रामि विकल्प से हो जाती है । यो द्वित्व-रूपता की प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज' का लोप हो जाता है । जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्ययों का सदभाव रहेगा वहाँ पर उक्त द्वित्व-रूपता की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यों दोनों में से या
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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