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________________ [ ४१४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ____ अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध हस्व स्वर वाली 'रूप' आदि ऐसी कुछ धातुएँ हैं, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'हम्ब स्वर' । स्थान पर प्राकृत भाषा में 'दीर्घ स्वर' की आदेश प्राप्ति हो जाती है । जैसे:-रुष = रूम | तुष = तूम । शुष् = सूस । दुष = दूम । पुष् = पूम । और शिष् =ीम आदि आदि । इन के क्रियापदाय उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:-(१) हव्यात - सइ% वह क्रोध करता है । [२] तुष्यति तूमड़ -- वह खुश होता है। [२] शुष्यति =मूसइ - वह सूखता है। [४] दुष्यति =दूसइ = वह दोष देता है अथवा वह दूषण लगाता है। (५) युष्यात पूसइ % वह पुष्ट होता है अथवा वह पोषण करता है और (8) शेषति = (अथवा शेषयति)-सीसइ = वह शेष रखता है, बचा रखता है। (अथवा यह वध करता है, हिंसा करता है)॥ ४-२३६ ।। युवर्णस्य गुणः ॥४-२३७ ॥ धातोरिवर्णस्य च विङत्यपि गुणो भवति । जेऊण । नेऊण । नेइ । नेन्ति । उड्डु । उहन्ति । मोत्तूण । सोऊण । क्वचिन्न भवति । नीश्री । उड्डीणो ।। अर्थः- - संस्कृत-धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में कल अथवा खित' अर्थात कृदन्त वचक और काल बोधक प्रत्ययों की संयोजना होने पर भी प्राकृत भाषा में धातुओं में रहे हुए 'इ वणं' का और 'उ धर्ण' का गुण हो जाता है। जैसे:-जित्या =जेउण -जीत करके । नीता ने उण = ले जा करके । नयति = नेइ =वह ले जाता है । नयनि नन्ति = वे लं जाते हैं । 'हो' धातु का उदाहरणः-उतु + व्यते = उड्डयते - उइ-वह आकाश में उड़ता है। उन +डयन्ते = उड्यन्त - उदग्नि = थे अकाश में उड़ जाते हैं। इन उदाहरणों में 'जि' का 'जे'; 'नी' का 'न' तथा 'डी' का 'डे' स्वरूप प्रदर्शित करके यह बतलाया गया है कि इनमें 'इ वण' के स्थान पर 'ए वर्ण' की गुण रूप से प्राप्ति हुई है। अब श्रागे 'उ' वर्ण' के स्थान पर 'श्रो वर्ण' की गुण रूप से प्राप्ति प्रदर्शित की जाती है। जैसे:-मुक्त्वा = मोत्तूण = छोड़ कर के। श्रत्वा-सोऊण =सुन कर के। यों 'इ' वर्ण का गुण 'ए' और 'उ' वर्ण का गुण 'ओ' होता है। इस स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। कभी कभी ऐमा भी देखा जाता है जब कि इ' वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की और 3 वर्ण' के स्थान पर 'ओ वर्ण की गुण-प्राप्ति नहीं होता है । जैसे:-नीतः = नो प्रो-ले जाया हुश्रा । बडोन: नहीणो - उड़ा हुआ। यहा पर 'नी' में स्थित और 'हो' में स्थित 'इवणं' को 'ए वर्ण' के रूप में गुणप्राप्ति नहीं हुई है। मूल सूत्र में उल्लिखित 'यु वर्ण' के श्राधार से 'इ वण' तथा 'उ वर्ण' की प्रतिध्वनि समझी जानी चाहिये और इसी प्रकार से वृत्ति में प्रदर्शित 'इ वर्ण' के आगे 'व वर्ण के आधार से मूत्र संख्या ४-२३६ की शृङ्खलानुसार उ वर्ण' की सं प्रान्ति समझी जानी चाहिये ॥४-२३७ ।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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