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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित है [ १०३ 400000+rorkoNort+00000000000000000000000000000000000000000000000000 (द्वितीय रूप.)-राएण-की सिद्धि सूत्र-संख्या ५१ में की गई है । ॥ ३-५२ ।। इणममामा ॥ ३-५३ ॥ राजन शब्द संबन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति || राहणं पेच्छ । राइणं घणं । पक्ष । रायं । राईणं ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'अम्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'श्राम' प्राप्त होने पर मूल शब्दस्थ 'ज' व्यञ्जन सहित उपरोक्त प्राप्त प्रत्मय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इणं' आदेश की प्राप्ति हुमा करती है । नापर्य यह है कि प्राकृत रूपान्तर में 'ज' और उपरोक्त प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर 'पूर्ण' आदेश वैकल्पिक रूप से हुआ करता है । जैसे:-राजानम् पश्य-राइणं (अथवा गर्य) पेच्छ; यह उपरोक्त विधानानुसार द्वितीया विभक्ति के एकषचन का उदाहरण हुआ । षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का जदाहरण इस प्रकार है:-राज्ञाम् धनम् इण (अथवा राईणं वा रायाणं) धणं । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षास्तर में द्विताया विभक्ति के एकवचन में राहणं के स्थान पर राय जानना चाहिये और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में राइणं के स्थान पर राईणं अथवा रायाणं जानना चाहिये ! राजानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राइणं और राय होते हैं। इनमें से प्रथम रुप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-५३ मे द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्रम' सहित पूर्वस्थ 'ज व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इणं' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-राजानम राय में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन न्' का नोप; १.१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३.५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय अम के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायं सिद्ध हो जाता है। पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-72 में की गई है। रक्षाम् संस्कृप्त पन्छी बहुवचनान्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और राई लेते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यसन 'न' का लोप और ३-५३ से षष्ठीविभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' सहित पूर्णस्थ 'ज' स्पचन के स्थान पर प्राकृत में 'इण' आदेश की प्राप्ति लेकर प्रथम रूप राइप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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