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________________ *प्राकृत व्याकरवा* .000000+oorrorietorrentiretre e narroriorsr000woodsosition द्वितीय रूप-(राज्ञाम=) राईणं में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यसन 'न' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर 'पागे षष्ठी विभक्ति का बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'आम' रहा हुआ होने सेई की प्राप्ति; ३-६ से पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ग्राम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप राईण भी सिद्ध हो जाता है । . पण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 3-40 में की गई है। ईभिस्भ्यसाम्सुपि ॥ ३.५४ ॥ राजन् शब्द संबन्धिनो अकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारों भवति ।। भिस् । राईहि |! भ्यस् । राईहि । राईहिन्तो। राई-सुन्तो । पाम् । राईणं ॥ सुम् । राईस । पक्षे । रायाणेहि । इत्यादि। __ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया-विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय, पंचमी षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय परे रहने पर मूल शब्द 'राजन में स्थित 'ज' ध्यान के स्थान पर वैकष्पिक रूप से दीघ 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-'मिस्' प्रत्यय का उदाहरण:-राजभिःम्राईहि अथवा पक्षान्तर में रायाणेहि भ्यस् प्रत्यय के उदाहरणः-राजभ्यः-राईहि; राईहिन्तो, राईसुन्तो अथवा पक्षान्तर में रायाणाह, गयाणाहन्तो, रायाणासुन्तो; इत्यादि । 'घाम' प्रत्यय का उदाहरणः-राक्षाम-राईणं अथवा पक्षान्तर में रायाणं और 'सुप' प्रत्यय का उदाहरणः- राजसु-राईसु अथवा पक्षान्तर में रोयाणेसु होता है। . राजभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुषघन का रूप है । इसके प्राकृत रूप राईहि और रायाणेहि होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-५१ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और ३-७ से सृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राईहि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (राजमिः) = रायाणेहि में सूत्र-संख्या १-१४४ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन,' में स्थित '' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति ३.५६ से प्राप्तांग 'रायन' में स्थित अन्त्य अवयव 'अन,' के स्थान पर 'आण' आदेश-प्राप्ति; सत्पश्चात् ३-१५ से प्राप्तांग रायाण' में स्थित अन्त्य म्वर 'म' के स्थान पर 'भागे तृतीया-बहुवचन बोधक-प्रत्यय रहा ना होने से' 'ए' को प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुषचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणेहि सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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