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________________ [ ३३० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 0000000000rrrrorisertoonsorrorosoorimotoronsorroroortoorsrootretroom ही हुआ है और न प्रत्ययों के स्थान पर श्रादेश ही हुवा है किन्तु पूर्व सूत्रों में वर्णित सर्व-सामान्य रूप से उपलब्ध लकार बोधक प्रत्ययों की ही प्राप्ति हुई है। यों तीनों प्रकार की स्थिति का क्रमशः उपयोग किया गया है, जो कि ध्यान देने योग्य है। पड़न! --मुल-मूत्र में स्नान कर का उपयोग करक ऐसा विधान क्यों बनाया गया है कि केवल स्वरान्त धातु और प्रारतव्य लकार-बोधक प्रत्ययों के मध्य में हो 'ज्ज अथवा जा' का वैकल्पिक रूप से पागम होता है? उत्तरः-जो धातु स्वरान्त नहीं होकर व्यञ्जनान्त हैं; उनमें 'मूल धातु अंग और प्राप्तव्य लकार बोधक प्रत्ययों के मध्यम में आगम-रूप से ज अथवा जा' की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये उन धातुओं की ऐसी विशेष स्थिति' का प्रदर्शन कराने के लिये ही मूल-सूत्र में 'स्वरान्त' पद को संयोजना की गई है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी यह बात ध्यान में रहे कि ज्यञ्जनान्त अंग और प्रत्ययों के मध्य में 'ज्च अथवा उजा' का आगम नहीं होने पर भी लकार-बोधक प्राप्तध्य प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उक्त 'ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति तो होती है । जैसे:- हसति, इससि, हसामि, हस्तिप्यत्ति, हसिष्यति, हसिष्यामि, हसतु और हसेत् हसेज अथषा हसेजावह हँसता है, तू हँसता है; मैं हँसता हूं, वह हँसेगा, तू हंसेगा, मैं हँसू गा; वह हँसे और वह हँसता रहे। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-त्वरते, स्वरसे, स्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्य से, स्वरिष्ये. त्वरताम्, स्वरस्व, त्वर, त्वरंत, स्वरेथाः और त्वरेय = तुवरेज और तुवरेजा-वह शीघ्रता करता है, तू शीघ्रता करता है, मैं शीघ्रता करता हूँ, वह शीघ्रता करेगा, तू शीघ्रता करेगा, मैं शीघ्रता करुंगा; वह शघिता करे, तू शीघ्रता कर, मैं शीघ्रता करूँ, वह शीघ्रता करता रहे, तू शीव्रता करता रह और मैं शीग्रता करता रहूं। इन 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों के सम्बन्ध में विस्तार-पूर्वक सूत्र संख्या ३.१७७ में बतलाया गया है; अत: विशेष-विवरण को यहाँ पर आवश्यकता नहीं रह जाती है। भवति संस्कृत के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन का अकर्मक शियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर होज्जइ, होजाइ होज्ज, होज्जा और होइ होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू - भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' चंग की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में सत्र-संख्या ३-१५६ से प्राप्तांग 'हो' में 'ज्ज तथा जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से ) वैकल्पिक पारित और ३.१३६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्ज तथा होज्जाइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। सुतीय और चतुर्थ रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग'हो' में सूत्र-संख्या ३-१४८ तथा ३-९४७से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्ययाति' के स्थान पर बात में कम से 'जर और पजा' प्रत्ययों की प्राप्ति झकर तृतीय और चतुर्थ रूप होज्ज सथा होऊजा' भी सिद्ध हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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