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________________ [ २७० ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * meonom0000000000wwameerstoorreadowwoosariwarmenterestinodrowroom 'या' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'प्र' के आगे प्राप्त कर्मणवाचक प्रत्यय 'ईअ' में स्थित दीर्घवर 'ई' का सद्भाव होने से लोप; ३-६६० से प्राप्तांग हलन्त 'हास' में कर्मणि-प्रयोग वाचक-प्रत्यय 'ईम' की प्राप्ति; १-५ से हलन्स 'हास' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इश्र की संधि हो जाने से 'हासी अंग की प्राप्ति और २-१३६ से प्राप्तांग हासीन' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्ययकी प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासीअ सिद्ध हो जाता है। हसावीआइ में सूत्र संख्या ३-६५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आब' की प्राप्ति; ५.५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'या' की संधिः ३.१६० से प्राप्तांग 'इसावि' में कमणि-प्रयोगवाचक प्रत्यय 'ईथ' को प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग सावि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के साथ में श्रागे प्राप्त प्रत्यय 'ई' में स्थित प्रावि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दौर्घ स्वर 'ई' की प्रारित और ३-१५६ से प्राप्तांग सा. वीअ' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते के स्थान पर प्राकन में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हसावीअई सिद्ध हो जाता है। हासिज्जद में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत-धातु 'इस में स्थित श्रादि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-भाव-सूचक-प्रत्यय के सद्भाव का ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'या' की प्राप्ति १-१० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्थर '' के आगे प्राप्त काण-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज्ज' मे स्थित हस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त हास' में कर्मणि-प्रयोग-धायक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति, १-५ से हलन्त 'हास' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज' की संधि हो जाने से 'हासिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१३६ से प्राप्ता हासिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्नध्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप हासिज्जन सिद्ध हो जाता है। हताविनइ में मूत्र-संखया ३.१५२ से मूल प्राकृत धातु 'हम' में प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'आधि' की प्राप्ति १-५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में भागे रहे हुए प्रत्यय 'भाषिके श्रादि स्वर 'श्रा' की संधि होकर 'हमावि अंग की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'हमावि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के आगे कर्मणि-प्रयोग-सूचक प्रत्यय 'इज' में स्थित आदि हरव स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'हसाब' में कर्माण प्रयोग-वाचक प्रत्यय की प्राप्तिः १-५ से हलन्त 'हसाब' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'ऊज' की संधि होकर 'हसाविज में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप हसाधिज्जह सिद्ध हो जाता है । ३-१५२।। अदेल्लुक्यादेरत आः ॥३-१५३॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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