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________________ [ ३४१ ] हसती अथवा इसी संस्कृत के वर्तमान-कान्त के अर्थ में प्राप्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन क्रं स्त्री-लिंग-द्योतक रूप हैं । इनके प्राकृत रूप इस इसन्तो और इसमाणी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या४-२३६ से मूल हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति ३-१८२ से तथा ३०१८१ से क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय तृतीय रूपों में प्राप्त धातु अङ्ग 'हरू' में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और 'न्त तथा मार्ग' प्रत्ययों की प्राप्तिः ६-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वतंमानकृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'हसन्त और इसमाय' में स्त्रीलिंग-भाष के प्रदर्शन में 'डोई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'हसन्ती तथा हसमाणी' की प्राप्ति और ३-२८ से वर्तमान दन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग - पद 'हसई, हसन्ती और हसमाग्री' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' का श्रीकृत में लोप होकर प्राकृत पद 'इसई, हसन्ती और हलमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। * प्राकृत व्याकरण * ◆4�666�4600881 वेपमाना संस्कृत के वर्तमान कृदन्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का स्त्रीलिंग-योतक रूप है। इसके प्राकृत रूप वेबई, वेदन्ती और बेवमाणी होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'पू' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति, ४-२३६ से प्राप्त प्राकृत हलन्त धातु रूप 'व' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१८२ से तथा ३-१८१ से प्राप्तांग धातु 'वेव' में कम से *थम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में वर्तमान कुदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति: ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कुन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'बेवन्त और वेवमाण' में स्त्रीलिंगभाव के प्रदर्शन में 'डी ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वेवन्ती और बंबमाणी रूपों की प्राप्ति; और ३०२८ से वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग पद 'बंबई वन्ती और वेवमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्राप्तभ्य संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत पद 'घेवई, वेवन्ती और वेदमाणी' सिद्ध हो जाते हैं । ३-१८२ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ शब्दानुशासन सौ श्रष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ ३ ॥ इस प्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित 'श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्यापक का तीसरा पाई 'स्त्रोपस वृत्ति सहित' अर्थात् स्वनिर्मित संस्कृत टीका'प्रकाशिका' सहित समाप्त हुआ। इसके साथ साथ 'प्रियोक्य' नामक हिन्दी व्याख्या रूप विवेचन भी तृतीय पाद का समाप्त हुआ || पादान्त - मंगलाचर‍ ऊर्ध्वं स्वगं - निकेतनादपि तले पातालमूलादपि स्वत्कीर्तिभ्रमति क्षितीश्वरमये पारे पयोधेरपि ।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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