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________________ [ २६६ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 000000000 400604 इस प्रकार तीनों लकारों में; इनके तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों (अथवा दोनों वचनों में) प्राकृत भाषा में रूपों की तथा प्रत्ययों की एक जैसी ही समानता होती है। इस प्रकार की रूप-रचना प्राकृत भाषा में जानना चाहिये । - प्राकृत में कुल चन्तर कहीं कहीं पर पाया जाता है; उसका उदाहरण इस प्रकार है:देवेन्द्रः एषः श्रब्रवीत् = देविन्दो इमरजवी = देवराज इन्द्र ऐसा बोला; इस उदाहरण में संस्कृतिीय भूतकालिक क्रियापद के रूप 'अलवंत' के स्थान पर प्राकृत में 'बवी' रूप प्रदान किया गया है, यह ह्यस्तन- भूतकाल का अर्थात लङ् लकार का रूप हैं और संस्कृतिीय रूप के आधार (पर) से ही प्राकृतभाषा के वण-परिवर्तन नियमों द्वारा इसे भूत कालिक - क्रियापदों के रूपों की आर्थ प्राकृत के रूप मान लिये हैं । अकार्षीत्, अकरोत् और चकार संस्कृत के भूत कालिक लकारों के प्रथम पुरुष कं एकवचन सकर्मक क्रियापद के रूप हैं । इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत रूपान्तर समुच्चय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- कासी, काही और काही | इनमें सूत्र संख्या४-२१४ से मूल संस्कृत धातु 'कु' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'का' में संस्कृतीय भूत कालिक लकारों के अर्थों में प्राय सभी पुरुषों के एकवचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और ही यों की प्राप्ति होकर कासी, काही और काही रूप सिद्ध हो जाते है । अस्थात्, अतिष्ठत् और तस्थौ संस्कृत के अकर्मक रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत रूपान्तर समुदय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं-ठासी, टाही और ठाही । इनमें सूत्र- संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था' के स्थानापन्न रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की प्रदेश प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'ठा' मे संस्कृती भूत-कालिक लकारों के अर्थो में प्राप्तध्य सभी पुरुषों के एवं वचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में कम से 'सो, ही और हीन' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'टा' धातु के भूतकाल वाचक रूप दासी, ठाही और ठाही सिद्ध हो जाते हैं । देवेन्द्रः = देव + इन्द्र: संस्कृत का रूप है । इसका प्राकृत रूप देविन्दो होता है। इसमें सूत्रसंख्या १०९० से तत्पुरुष समासात्मक शब्द देवेन्द्र की संधि भेद करने से प्राप्त स्वतंत्र शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य स्वर '' के आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप १-५ से प्राप्त हलन्त शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व्' के साथ में आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' की संधि २.७६ से 'द्र' में स्थित व्यञ्जन 'र' का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'विन्द' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में अकारान्त पुंल्लिंग में संस्कृत में प्राप्तष्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डी ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद वेषिन्दो सिद्ध हो जाता है । w
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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