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________________ * प्राकृत व्याकरमा* [ २६७ ] 400044000+stroress6000000000000000000000000000000000000000000000. 'इ' सर्वनाम रूप को मिद्धि सूत्र-संख्या :-८५ में की गई है। अबधीन संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत-रूप अब्बयो होता है । इसमें सूत्रसंख्या 2-5 से '' में स्थित व्यन्जन र' का लोप; F-८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए व्यञ्जन वर्म 'ब' को द्विात्र '' की प्रामि और १.११ से पदान्त हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप होकर अव्यवी रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१६२ ॥ व्यञ्जनादीः ॥ ३-१६३ ॥ व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्थ भूनार्थस्याद्यतन्यादि प्रत्ययस्य ईश्र इत्यादेशो भवति ॥ हुवीन ! अभूत् । अभवत् । बभूवेत्यर्थः ॥ एवं अच्छी । प्रासिष्ट | प्रास्त । प्रासांचक्रे या ॥ गेयहीअ । अग्रहीत् । अगृह त् । जग्राह वा ॥ ___ अर्थः-पाकृत भाषा में पाई जाने वाली धातुओं में संस्कृत के समान गण-भेद नहीं होता है; परन्तु फिर भी प्राकृत धातुएँ दो भेदों में विभाजित हैं। कुछ व्यञ्जनान्त होती हैं तो कुछ स्वरान्त होती है। सदनुमार मतकाल के अर्ध में प्रामम्य पाकृत-प्रत्ययों में भेद पाया जाता है। इस प्रकार के विधि-विधान से स्वरान्त-धातुओं में भून-काल के अर्थ में प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों का सूत्र-संख्या ३-१५२ में वर्णन किया जा चुका है। अब ध्यञ्जनान्त धातुओं के लिये भत-काल के अर्थ में ग्रामव्य प्राकृत-प्रत्यय का उल्लेख इस सूत्र में किया जा रहा है । यह तो पहले हो लिखा जा चुका है कि संस्कृत भाषा में भूतकाल के अर्थ में जिस तरह से तीन लकारों का-'लुछ-न-लिद' अर्थात् 'अन्यतन, यस्तन अथवा अनद्यतन और परोक्ष' का विधान है, जैसा विधान प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; एवं इन लकारों के तीनों पुरुषों के तीनों वचनों में जिस प्रकार से भिन्न भिन्न प्रत्यय पाये जाते है वैसी सभी प्रकार की विभिन्नताओं का तया प्रत्ययों का भेइ प्राकृत-मात्रा में नहीं पाया जाता है। अतएव संक्षिप्त रूप से इस सूत्र में यही बतलाया गया है कि प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली व्यञ्जनान्स धातुओं में नन के मूल रूप के साथ में हो किसी भी प्रकार के मत काल के अर्थ में और किसी भी पुरुष के किसी भी वचन के अर्थ में केवल एक ही प्रत्यय 'ईम' की संयोजना कर देने से इष्ट-भूत-काल-अर्थक और इष्ट पुरुष के इष्ट वयन-अर्थक प्राकृत-क्रियापद का रूप बन जाता है । प्राकृन में भूत-काल के अर्थ में व्यञ्जनान्त धातुओं में इस प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' को संस्कृत में भनकाल के अर्थ में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त मत्यय समझना चाहिये । इस विषयक उवाहरमा इस प्रकार हैं:
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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