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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Imastriwwentraneerisarrestheroserowarrowerrestrotrearrowesoordarmins ३-१२० से प्रथमान्त द्विवचन रूप 'हो' के स्थान पर 'दोरिण' श्रादेश प्रामि होकर 'कोण्णि' अप सिद्ध हा जाता है। (है। जित लोक ! संस्कृत विशेषणात्मक संबोधन के एक वचन को रूप है । इसका प्राकृत (अथवा मागधी। रूप (हे) जि अ-लोप होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' और 'क' का लोप श्रीर ४-५८.५ से संबोधन के एक वचन में-(नामधी-भाषा में) संस्कृतोय-प्रातभ्य प्रत्यय 'सि' आगे रहने पर अन्स्य 'श्र के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति एवं ४-४४० से संस्कृतीय-संबोधन-स्थिति के समान ही प्राकृत में मी प्राप्त प्रत्यय 'सि' का लोप होकर, अथवा १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'सिस' का लाप होकर प्राकृतोय (अथवा मागधीय) संबोधन के एक वचन में 'हे जिअ-लोए रूप सिद्ध होता है। हे गौसम ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे गोभमा और हे गोश्रम होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१५६ से 'नो' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति और ३--३८ से सबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'घ' को वैकश्पिक रूप से दोघं 'पा' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे गोअमा ! और हे गोभम ! सिद्ध हो जाते हैं। हे कश्यप ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे कासवा ! और हं कामव ! होते हैं ! इनमें सूत्र संख्या-१.४३ से 'क' में रहे हुए 'अ' को दोर्घ 'श्री' की प्राप्ति २.७८ से 'य' का लाफ, ५.२६० से लोप हुए य' के पश्चात् शेष रहे 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १०-२३१ से 'प' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और ३-१८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को वैकल्पिक . रूप से दीघ 'मा' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप हे कासका ! और हे कासव ! सिद्ध हो जाते हैं। र रेमिफलक ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है । इसका (आदेश प्राप्त) देशज रूप रे ! रे ! चाफलया ! होता है। इसमें सूत्र संख्या २.१७४ से संस्कृत संपूर्ण शब्द 'निष्फल' के स्थान पर देशज-प्राकृत में 'चाफल' रूप की प्रादेश-प्राप्ति; २-१६४ से प्राप्त 'चाफल' में 'स्व-अर्थक' प्रत्यय 'क' की प्राप्ति; १--१७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १.-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३.-३८ से संबोधन के एकश्चन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'श्रा' की प्राप्ति होकर र रे ! चप्फलया ! रूप सिद्ध हो जाता है। रे रे ! निणक ! माकृत के मंबोधन का एक बचन रूप है। इसका प्राकृत (देशज) रूप रे ! रे ! निगिनणया होता है ! इसमें सूत्र-संख्या २-० से रेफ रुप'र' का लोपः १-१२८ से 'अ' के स्थान पर 'इ' को प्राति; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'घ' को द्वित्व 'घ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से खोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'या' की प्राप्ति होकर रे रे । निरिक्षणया रूप सिद्ध हो जाता है।३-३८।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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