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________________ ४. ] 2 प्राकृत व्याकरण * +0000000000004446+000000000000468006180664000444 ++ शुतोद्वा ।। ३-३६ ॥ अकारान्तस्यामन्त्रसो सौ परे अकारोन्तादेशो वा भवति ॥ हे पितः । हे पिश्न " हे दातः । हे दाय । पक्षे । हे पिमरं । हे दायार ॥ अर्थ:-कारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में ) संबोधन के एक वचन में प्रापव्य प्रत्यय 'सि' का विधानानुसार लोप होकर शब्दास्य 'स्वर-महित व्यसन' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' प्रादेश को प्राप्ति होती है। जैसे-हे पितः- हे पिन और वैकल्पिक पक्ष में हे पितरं । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- हे दात हे दाय ! और वैकल्पिक पक्ष में है दायार ! होता है। हे पित्तः । संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पित्र ! और पिचरं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-३-३६ से 'स्वर-सहित व्यञ्जन-त' के स्थान पर '' को प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर "हे पि" : रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४० से 'स्वर सहित व्यञ्जन त' के स्थान पर 'अरं' आदेश की प्राति और १-११ से अन्त्य हलन्त रूप विमर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप “हे पिअरं" सिद्ध हो जाता है। हे दातः । संस्कृत संबोधन के एक वचन का रूप है। इसके प्राकृन रूप हे दाय ! और हे दायार ! होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३६ से 'स्वर' महिन व्यञ्जन-त के स्थान पर 'न' की प्राप्ति; १-५८० से प्राप्त हुए थ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलम्न म्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर प्रथम रूप 'हे दाय !' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्रसंख्या-१-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'दातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-४५ से संबोधन के एक वचन में शेष 'ऋ' के स्थान पर 'भार' भादेश को प्राप्तिः, और १-१८० से प्राप्त 'बार' में स्थित 'पा' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर विसीय रूप ' हे पायार !' भी सिद्ध हो जाता है । ३.३६ ।। नाम्न्यर वा ॥ ३-४० ॥ ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति ।। हे पितः हे पिअरं ! पक्षे । हे पिअ ॥ नाम्नीति किम् । हे कर्तः। ह कत्तार ॥ भर्थः ऋकारान्स शब्दों के ( प्राकृत-रूपान्तर में ' संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' का विधानानुसार लोप होकर अन्त्य 'क' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'परं' आदेश की प्राग्नि होती है पान्तु इसमें एक शर्त यह है कि ऐसे ऋकाराम शम ह संझा रूप होने चाहिये, गुणवाचक अकारान्त
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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