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________________ के भाक्षात व्याकरण [ ३३५ ] है। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू- भवके स्थान पर 'हो' अंग की प्राप्ति और ३-७४ से क्रियातिपन्ति के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर समुषय रूप से प्राकृत में 'ज सथा जा' प्रत्ययों की क्रम से प्रामि होकर 'होय तथा होजा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'जा' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४० में की गई है। क्रियातिपत्ति-अर्थक 'होज' क्रियापद के रूप की सिद्धि इसी सूत्र में अपर की गई है। वर्णनीयः संस्कृत के विशेषणात्मक श्रकारान्त पुंलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वाणिज्जो होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से रेफ रूप 'र' व्यञ्जन का लोप, २ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ग को द्वित्व 'गण' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त दीर्घ वर्ण 'णी में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर श्रागे संयुक्त व्यञ्जन का सद्भाव होने के कारण से ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति १-२४५ के सहयोग से तथा १-२ की प्रेरणा से विशेषणीय प्रत्ययात्मक वर्ण 'य' के स्थान पर 'ज' की आदेश-प्राप्ति; २-4L से पादेश-प्राप्त वर्ण 'ज' को वित्व 'ज' की प्रामि और ३-२ से विशेषणात्मक स्थिति में प्राप्तांग प्राकृत शब्द 'वरणणिज' में पुलिग अकारान्तात्मक होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रापश्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत्तपद 'वष्णणियो' सिद्ध हो जाता है । ३-१७ ॥ स्त-माणौ ॥३-१८० ॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने न्तमाणौ आदेशौ भवतः ॥ होन्तो । होमाणो | अभविष्यदित्यर्थः । हरिण-हाणे हरिणत जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो । न सहन्ती चिम तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स ॥ अर्थ:--सूत्र-संख्या ३-१७६ में पूर्ण अर्थक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उज तथा जा' का उल्लेख किया जा चुका है। किन्तु यदि अपूर्ण हेतु हेतुमद्-भूत कालिक कियातिपात का रूप बनाना होतो इस अर्थ में धातु के मामांग में 'मन तथा माण' प्रयय को संयोजना करने के पश्चात् वक्त अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूत कालिक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त रूप में अकारान्त संज्ञा पदों के समान हो विभक्ति बोधक प्रत्यय की संयोजना करना प्रावश्यक हो जाता है, तदनुसार वह प्राप्त कियातिपत्ति का रूप जिम विशेष्य के साथ में सम्बन्धित होता है; उस विशेष्य के लिंग-बचन और विमक्ति अनुभार ही इस कियातिपत्ति अर्थक पद में भी लिंग को, वचन की और विभक्ति की प्रामि होती है । इस प्रकार ये अपूर्ण हेतु-हेतुमद-भूत कालिक क्रियातिपत्ति के रूप विशेषणात्मक स्थिति को प्राप्त करते हुए कियार्थक संक्षा जैसे पर पाले हो जाते हैं। इसलिये इनमें इनसे सम्बन्धित विशेष्यपदों के अनुसार ही लिंग की, वचन की और
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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