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________________ * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * ++000000000000rrorddssoortonirodkaroorkerreroinekkersonso+++stoson नवदह । दसरह । परास्ता दिखता । वारसाई सपण पाहस्पीणं । कतीनाम् । कइएहं ।। बहुलाधिकाराद् विंशत्यादे न भवति ।। ___ अर्थ:-संस्कृत संख्या वाचक शरदों के प्राकृत रूपान्तर में घटी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत्तीय प्रामध्य प्रत्यय 'श्राम के स्थान पर क्रम से 'राह' और 'राह' प्रत्ययों को आदेश पानि होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-द्वयोः - मोगह और दोण्ह अर्थात् दो का बयाणाम् = तिराह और तिरह अर्थात तीन का; चतुर्णाम् = चउराह और चण्ड अर्थात् चार का; पत्रानाम = परह और पञ्चराह अर्थात पाँच का; परणाम् - छरह और छण्हं अर्थात् छन का; महानाम्-सत्तरह और सत्तरहं अर्थात सात का; अष्टाणाम् = अट्टएह और अट्ठण्ड अर्थात श्राट का, नवानाम-नवरह और नवरहं अर्थात नव का; दशानाम्-इसराह और दररहं अर्थात दश का; पादशानाम् दिवमानाम् पारसण्हं दिमाण अर्थात पन्द्रह दिनों का; अष्टादशनाम श्रमग-पाम्रीणाम् = अट्ठारतगह समए -साहस्तीणं अर्थात अठारह हजार साधुओं का । कीनाम्= इण्ह अर्थात कितनों का इत्यादि । 'बहुल' सूत्र के अधिकार से 'विंशति' अर्थात् 'बीप' आदि संख्या वाचक शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रानग्य प्रत्यय 'माम परे रहने पर प्राकृत-रूपान्तर में 'रह' अथवा 'एह श्रादेश प्राप्ति नहीं भी होती है। यह ध्यान में रखना चाहिये कि । त्रि और चतुर' संख्या वाचक शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में तीनों लिंगों में विभक्ति योधक अवस्था में समान का हो होते हैं । अर्थात् इनमें लिंग भेद नहीं पाया जाना है। इयों: संस्कृत षम्री द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है । इसके प्राकृत रूप दोगह और दोरहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या :-११६ से मूल संस्कृत शब्द 'ट्रि' के स्थान पर प्राकृत में अंग कर दो' की अादेश-प्रामि, ३.५३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का मभाव और ३-१.३ से पी त्रिभ.क्त के बहुववन में संस्कृतीय प्राप्रव्य प्रत्यय 'आम' के स्थ'न पर प्राकृन में 'राह' और 'राई' प्रत्ययों की प्रादश-प्राप्ति ( क्रम में ) होकर दोनों रूप दोह' एवं 'दोपह' सिद्ध हो जाते हैं। त्रयाणाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक मर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निएह और तिराहे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृन शहर त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'नी' अंगरूप की श्रादेश-श्रामि; ३-५२३ से प्रारंग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम के स्थान पर प्राकुन में राह' और 'राई' प्रत्ययों की (कम से) श्रादेश-प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त रूप तीह' 'तीर' में दोघस्वर 'ई' के आगे संयुक्त व्यन्जन 'ह' और 'हं' का सद्भाव होने से उक दोध स्वर 'ई' के स्थान पर हाव घर 'इ' को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'तिण्ड' और 'मिण्ह' सिद्ध हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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