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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 1000000000000rsonosso000+deokokar+00000000000000000000000000000000000 ___ अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' में स्थित संपूर्ण व्यञ्जन 'त' का 'स्थ' प्रत्यय और 'तो, ताहे' प्रत्यय परे रहने पर नित्यमेव लोप हो जाता है। जैसे:-एतस्मिन् एत्थ । एतस्मात-एत्ता और एत्ता । एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप पस्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शठन 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३.८३ से 'त' का लोप और ३-५६. से प्राप्तांग 'ए' में सप्तमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय कि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'स्थ' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'पत्थ' सिद्ध हो जाता है। एत्तो और एत्ताह रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या -7 में की गई है। ३.८३ ॥ एरदीतौ म्मौ वा ॥ ३.८४॥ एतद एकारस्य स्थादेशे म्मौ परे भदीतौ वा भवतः ॥ अयम्मि । ईगम्मि । पक्षे । एअम्मि । अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम शब्द सद्' के प्राकृत-रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'वि' के प्राकृतीय स्थानीय प्रत्यय 'म्मि' पो रहने पर मल शब्द 'एतद्' में स्थित 'ए' के स्थान पर हरिक रूप से तथा प्रा से 'अ' और 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-पताम्मन-प्रयाम्म अथवा ईम्मिा कल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में एअम्मि रूप का भी सद्भाव भ्यान में रखना चाहिये । एतस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अचम्मि, यस्मि और एअस्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या १-१९ से मल संस्कृत शब्द 'एतदु' में स्थित अन्य हलन्त व्याखन 'द' का नया १.१७७ से 'सु' का लोपः १-१८० से लोप हुये 'त' के पाश्चात्त शेष . रहे हुये 'न' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-८४ से आदि 'ए' के स्थान पर क्रन से और वैकल्पिक रूप से 'अ' अथवा ' की प्राप्ति; और ३११ से कम से प्राप्तांग 'अय' और 'ईय' से सप्तमी विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीव प्राप्तन्य प्रत्यय कि-ई' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर फम से तथा वैकल्पिक रूप से प्रथम शेनों रूप अयाम और ईयम्मि सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप(पतस्मिन् =) एम्मि में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद् में स्थित अन्त्य हत्तन्त पवन 'ई' का लोप: १-१७७ से 'त' को लोप और ३.११ से प्राप्तांग 'एन' में सप्तमी विभकि के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि =ह' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेशराप्ति होकर वृतीय रूप एअम्मि भी सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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