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________________ ३८ ] दुमह सक, (भ्रमति वह घूमता है, १६१। पिरणाम अक (नश्यति नष्ट होता है, भागता है, दुखदुइ सक. गवेषयति) ढूढ़ता है, १८९ । १७८। दुसइ सक. (भ्रमति) वह भ्रमण करता है, १६१ | शिरग्घद अक. (निलीयले) छिपता हैं, ढोल्ल पु. (विट) नायक; ४२५ । बिराजद सक (पिन ष्टि) पीसता है. चूर्ण करता है. ढील्ला पु. (विट) नायक; ३६०।। १८५। मिरिणासह मक (गच्छास) जाता है, १६२ । [ ] गिरु अ (नितसम् निश्चित, नका, २४ । fणालज्जइ सक, (निलीयते) भेंटा जाता है, अ.लिंगन म. (न) नहीं; २९९ 1 किया जाता है, ५५ । एडइ अक. गुप्यते) बह व्याकुल होता है; ५०।। शिलीमई सक. (नलीयते छिना जाता है ५५ । सक. (गुप्यति बह खिन्न होता है, १५० । शिलुक्कइ सके (निलीयते) छिपा जाता है, ५५ । भ, (इय, समान, जैसा, ८ । णिलुक्कड़ सक. तुडति) तोड़ता है ११६ । अ (मन) निश्चय अर्थक शका अर्थक ३०२।। गिल्ल पद अक (उल्लसति) बह उल्लसित होता है. एव अक (भाराकान्तो नमति योज्ञ के काण २०२। से नमता है। १५८, २२६ । जिल्लुरूछ सक. (मुञ्चति)) वह छोड़ता है, पनि अ. (वैपरीत्ये) उल्टे अर्थ में कहा जाने वाला गिल्लूर इ एक । छिनत्ति) बङ्ग काटता है, १२५ । अध्यय, ३४०, ३५३, ४३८ । शिव सक्र. (गच्छति) वह जाता है, १६२ । गाए न. भानं. ज्ञान, ७। पायो पु.वि. (नायः) स्वामी, मालिक २६७ । शिवहइ अक. नश्यति ) वह नष्ट होता है, १७८ । णाही बि. (नायः) स्वामी, मालिक, .६७1 | शिवहइ सक. पिनष्टि) वह पीसता है, १८५ । शिवाशी वि. (निधासी) रहनेवाला, शियारह सक. (कारक्षित करोनि) एक अखि से देखता । ३०१ । गिनई अक. (पृथग्भवति, स्पष्टं भवति) वह अलग जिउड अक, (मज्जति) वह डूबता है, १०१ । होता है, वह स्पष्ट होता है । शिकवलइ सक, (क्षरति भरता हैं, टपकता है १७३ । सिव्वारा सक. (दुखः कथति) वह दुःख कहता है, । विच्छलइ सक. छिनत्ति) वह रेषता है, काटता है, पिंकबरइ सक. (छिनत्ति) वह काटता है. १२४ । १२४ाणिव्वलेइ सक. दुःखं मुञ्चति) वह दुख को छोड़ता. गिभर सक. (क्षयति) वह क्षीण होता है, लिवाइ अक. ( विधाम्यति) वह विश्राम करता है, ज्झिाइ सक. (ध्यायति) वह देखताहै, निरीक्षण करता है, ६ | बोलई सक. (मन्यूना ओष्ठ मासिन्यं करोति। णिमोडह सक (छिनत्ति) वह छेदता है, काटता है, वह कौध से होठ को मलिन करता है, ६९ । १४ | । शिप अक. (भागक्रान्तो नमति) भार से दबकर अक (क्षति) वह टपकता है, चूता है, १७३ । नमता है, १५८ । एट हइ अक. (विगलति) वह गल जाता है, १७५ । | सिम्मा सक. (गच्छति) बह गमन करता है. १६२ । अक. (अवष्टम्भं करोति) बह निश्चेष्ट होता लिहि सक. निभालय) देव, देखो ३७६ । है.६७ सिंडी, हि त्रि. लिंग (निधिः) खजाना,४१४, २८७ । विमद सक. (न्यस्यति) वह स्थापना करता है, १९९ । । शासक कामात संभोग की इच्छा करता है शिमं सर्व. 'नु + इदम्) यह, २७९,०२। जिम्महइ सक. गच्छति) जाता है, अक = फैलता है; | बिहोडा सक. (निवारयति, निपतति) वह गिराता है, नाश करता है, २२ । जि
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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