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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४६५ ] www+++++++ +++++++ +++++++++++++++++++++v+++++++++++++++++++ हिन्दी:-शकुन शास्त्र में मकान के मुडेर पर बैठकर कौए द्वारा 'काँव काँव' किये जाने वाले शब्द से किसी के भी पागमन की सूचना मानी जाती हैं तदनुसार किसी एक स्त्री द्वारा कौए की कॉव. काँव वाचक ध्वनि को सुनकर उसको बढ़ाने के लिये ज्यों ही प्रयत्न किया गया तो अचानक ही उसको अपने प्रिय पति विदेश से घर पाते हुए दिखलाई पड़े । इमसे उस स्त्री को हर्ष मिश्रित रोमान्च हो आया और ऐसा होने पर भसके हाथ में पहिनी हुई चूड़ियों में से आधी तो धरती पर गिर पड़ी और आधी 'तडाक' ऐसे शब्द करते ही बड़क गई ।। ४-३५२ ।। क्लीवे जस-शसोरि ॥ ४-३५३ ॥ अपभ्रशे क्लीबे वर्तमानानाम्नः परयो जैस्-शसोः ई इत्यादेशो भवति ॥ कमलई मेल्लवि अलि उलई करि-गंडाई महन्ति ॥ असुलह मच्छण जाह भाल ते ण वि दूर गणन्ति ॥१॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में नपुसकलिा वाले शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्विनीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस् और राम्' के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'इ' की आदेश प्राप्ति होती है। अादेश प्राप्त प्रत्यय 'ई' को संयाजना करने के पूर्ण नपुंसकलिंग वाले शब्दों क अन्त्य स्वर को विकल्प से 'हस्वत्व से दोघज' और दोघ-ब से इस्वत्व' की प्राप्ति क्रम से हो जाती है। यों इन विभक्तियों में दो दो रूप हो जाया करते हैं। जैसे:-त्तई, नेत्ताई-आँखों ने अथवा आँखों को । धणुइं, धणूझ-धनुष्यों ने और धनुष्यों को। अच्छिई, अच्छीईन्नेत्रों ने और नेत्रों को। वृत्ति में दी हुई गाथा में (१) अलि-उलई अलि-कुलानि = मैंबरों का समूह प्रथमा-बहुवचनान्त पर है। (२) कमलाई-कमलानि = कमलों को तथा (३) करि-गंडाई = करिगंडान् = हाथियों के गह-स्थलों को ये दो पद द्वितीया बहुवचनान्त है । पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:संस्कृतः–कमलानि मुक्त्वा अलि कुलानि करिगंडान् कांवन्ति ।। __ असुलभं एष्ठु येषां निधः (भलि), ते नायि (= नेव) दूरं गणयन्ति ॥१॥ हिन्दी:--मेवरों का ममूह कमलों को छोड़ करो हाथियों के गंड स्थलों को इच्छा करते हैं। इस में यही रहस्य है कि जिनका श्राग्रह (अथवा लक्ष्य) कठिन वस्तुओं को प्राप्त करने का होता है, वे दूरी की गणना कदापि नहीं किया करते हैं ॥१॥४-३५३|| कान्तस्यात उ स्यमोः ॥४-३५४॥ अपभ्रंशे क्लीवे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नाम्नो योकारस्तस्य स्यमोः परयोः उं इत्यादेशो भवति ॥ अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे ।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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