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________________ [ ३८६ ] - * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * moreesroortorrowonroteoromotoroorrorensornwworwsorroworrorum प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति || तेश्रवइ । सन्दुमइ । सन्धुकइ । अब्भुत्तइ । पलीवइ॥ अर्थः-'जलाना, सुलगाना' अथवा 'प्रकाशित होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+दीप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धानु -(रूपों) की अादेश प्राप्ति होती है । ११) ते अय, (२) संदुम, (३) संधुक और (४) अब्भुत्त । वैकल्पिक पक्ष होने से 'पत्नीच' भी होगा। जैसे:-- प्रदीप्यते, = (१) तअवह () सन्दुमड़, (२)सन्धुक्कड़, (४) अभुत्तड़ पक्षान्तर में पलीवड़ = वह प्रकाशित होता है अथवा वह जलाती है, वह सुज़गानी है ॥ ४-१५२ ।। लुभेः संभावः ॥ ४--१५३ ॥ लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति ॥ संभावइ । लुब्भइ ।। अर्थ:-'लोभ करना, प्रासक्ति करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लुम्' के स्थान पर प्रामृत-भाषा में विकल्प से 'संभाव (धातु) रूप की पादेश प्राप्ति होती है। व काल्पिक पक्ष होने से 'लुटभ' भी होता है। जैसे:-लुभ्यात = सभाषद अथवा लुभा-यह लोभ करता है, वह श्रासक्ति करती है ॥४-१५३ ।। शुभेः खउर--पड्डुहौ ॥४-१५४ ॥ शुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशौ वा भवतः । खउरइ । पड्डुहइ । सुभइ । अर्थ:- 'क्षुब्ध होना, डर से विह्वल होना' अर्थक संस्कृत-घातु 'तुभ के स्थान पर प्राकृत-माषा में विकल्प से 'खजर तथा पड्डुह' ऐसे दो (धातु) रूपो की श्रादेश-प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पज्ञ होने से 'खुटम' भी होता है । जैसे- क्षुभ्यति खउरड़, पहइ अथवा खुटमा = वह शुन्ध होता है, वह डर से विह्वल होती है ।। ४-१५४ ॥ आडो रभे रम्भ-ढवौ ॥४-१५५ ॥ श्राङः परस्य रभे रम्भ दव इत्यादेशौ बा भवतः॥ प्रारम्भइ । अाढवइ । श्रारभह ॥ अर्थः-'या' उपसर्ग महित संस्कृत-धातु 'रम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'भारम्भ और बाढव' ऐसे दो (धातु) रूपों को आदेश प्राप्त होती है । वकल्पिक पक्ष होने से 'आरम' भी होतो हैं । जैसे:-- आरभते=(१) आरम्भइ, (२) आढषड़, और (३) आरभइवह प्रारम्भ करता है, वह शुरू करती है ॥४-१५५ ।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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