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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[ ५१७ ] morrowermonestorerrernmroorketorrotterworror000000000000000000000
वर्तमानकाल में 'वह-वे' वाचक अन्य पुरुष के बहुवचन में अपनश भाषा में प्राकृत भाषा में वर्जिन प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय हिं की प्राप्ति विशेष रूप से और विकल्प रूप से अधिक होती है। जैसे:-कुर्वन्ति = करहिं = वे करते हैं। धरतः =भरहि-वे दो धारण करते हैं। शामन्ते = सहहि-वे शोभा पाते हैं। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की प्राप्ति भी शेगी। जैसे:-कीडन्ति-खेल्लन्ति, खेन्तन्ते और खेलिरे वे खेलते हैं अथवा वे कोड़ा करते हैं। वृत्ति में प्रदत्त छन्द का अनुवाद यों है:-- संस्कृतः-मुख-कचरी-बन्धौं तस्याः शोमा धरतः ।
ननु मन्त्र-युद्धं शशिराह कुरुतः ।। तस्याः शोभन्ते करलाः भ्रमर-कुल-तुलिताः ।
ननु भ्रमर-डिम्भाः क्रान्ति मिलिताः ॥ १॥ हिन्दी:-उस नायका के मुख और केश-पाशों से बंधी हुई वेणी अथात थोटी इस प्रकार की शोमा को धारण कर रही है कि मानों 'चन्द्रमा और राहू' मिल कर के मल्ल-युद्ध कर रहे हों। उसके बालों के गुच्छे इस प्रकार से शोभा का धारण कर रहे है कि मानों मैंवरों के समूह हो संयोजित कर दिय हो । अथवा मानों छोटे छोटे बाल-भ्रमर-समूह ही मिल करके खेल कर रहे हो ॥ ४-३२॥
मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः ॥४-३८३ ।। त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाचं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति ।
बप्पीहा पिउ पिउ भणवि किसिउ रुमहि हयास ।।
तुह जलि महु पुणु वजहइ पिहुं वि न पूरिन पास ॥१॥ मात्मने पदे।
बप्पीहा कई वोल्लिनेण निग्षिण वार इ बार ॥
सायरि मरिह विमल-जलि लहहि न एका धार ॥२॥ सप्तम्याम् ।
आयहिं जम्महिं अन्नहिं वि गोरि सुदिज्जहि कन्तु ।।
गय-मत्तई पसंकुसहं जो अभिडइ हसन्तु ॥३॥ पते । रुनसि । इत्यादि।