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________________ [ ५१८ ] * प्राकृत व्याकरण 4096044 अर्थ :- वर्तमानकाल में मध्यम पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त अपभ्रंश भाषा में एक प्रत्यय 'हि' को प्राप्ति अधिक रूप से और वैकल्पिक रूप से होती है । जैसे:—रोदिषि = रूअहि-तू रोता है। पक्षान्तर में 'रूमसि' = तू रोता है; ऐसा रूप भी होगा। आत्मनेपदोय दृष्टान्त य है :- लभसे - लहाहि तू प्राप्त करता है। पक्षान्तर में लहसि=तू प्राप्त करता है; ऐसा भी अशक प्रसन्य वतमानकाल में भी मध्यम पुरुष के एकवचन के अर्थ में विकल्प से 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति अधिक रूप से होती हुई देखी जाती है। जैसे कि:-- दद्वया: = दिवजहिं = तू देना अर्थात देने की कृपा करना || गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों हैं: संस्कृत: - चातक ! 'पिउ, पिउ' (पिवामि पिवामि अथवा प्रिय ! feat कियद्रोदिषि हताश || तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥ १ ॥ हिन्दी:- नायिका विशेष अपने प्रियतम के नहीं आने पर 'चातक पक्षी को लक्ष्य करके कहती है कि - हे चातक ! पानी पीने की तुम्हारो इच्छा जब पूरी नहीं हो रही है तो फिर तुम 'मैं पीऊंगा मैं पोऊंगा' ऐसा बोलकर क्यों बार बार रोते हो? मैं भी 'प्रियतम, प्रियतम' ऐसा बोलकर निराश हो गई हूं । इसलिये तुम्हें तो जल प्राप्ति में और मुझे प्रियतम प्राप्ति में, दोनों के लिये आशा पूर्ण होनेवाली नहीं है ॥ १ ॥ प्रिय ! इति ) संस्कृत: - चातक ! किं कथनेन निर्घुण वारं वारम् ॥ सागर भृते त्रिमल - जलेन, लमसे न एकामपि धाराम् || २ || हिन्दी: -- अरे निर्दयी घातक ! ( अथवा हे निर्लज्ज चातक) बार बार एक ही बातको कहने से क्या लाभ है ? जबकि समुद्र के स्वच्छ जल से परिपूर्ण होने पर भी, उससे तू एक बूंद भी नहीं प्राप्त कर सकता है; अथव! नहीं पाता है ॥ २ ॥ संस्कृत: - अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गरि ! तं दद्याः कांतम् ॥ गजानां मसानां त्यक्तांकुशानां य संगच्छते हसन् ॥ ३ ॥ हिन्दी:- कोई एक नायिका विशेष अपने प्रियतम की र-कुशलता पर मुग्ध होकर पार्वती से प्रार्थना करती है कि:- 'ई गौरि ! इस जन्म में भी और पर जन्म में भी उसी पुरुषको मेरा पति बनाना; जो कि ऐसे मदोन्मत्त हाथियों के समूह में भी हँसता हुआ चला जाता है; जिन्होंने कि - ( जिन हाथियों ने कि ) अंकुश के दबाव का भी परित्याग कर दिया है || ३ | ४.३८३ ॥ .
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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