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________________ [४८२ ] ..........sireesorror * प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संस्कृतः--वृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः, कड पल्लवान् वर्जयति ।। तथापि महाद्रुमः सुजन इब तान् उत्संगे धरति ॥ १ ॥ अर्थः-मनुष्य वृक्ष से (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु उसी वृक्ष के कडुवे पत्तों को छोड़ देता है । तो भी वह महा वृक्ष उन पत्तों को मज्जन पुरुषों के समान अपनी गोद में ही धारण किये रहता है। जैसे सजन पुरुष कटु अथवा मीठो सभी बातों को सहन करते हैं; वैसे ही वृक्ष भी सभी परिस्थितियों को सहर्ष सहन करता है ।। ४-३३६ ।। भ्यसो हु॥४-३३७ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य भ्यसः पंचमी बहुवचनस्य हुँ इत्यादेशो भवति ॥ दूरुडाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ ॥ जिह गिरि-सिंग हुं पडिल सिल अन्नु वि चूरू करेइ ।।१॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'गिरि-सिंगहुँ - गिरि - गेभ्यः = पहाड़ की चोटियों से जाना जा सकता है । उक्त गाथा का संस्कृतहिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-- दूरोडाणेन पतितः खलः भात्मानं जनं (च) मारयति । यथा गिरि-शृंगेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णी करोति ॥ ___ अर्थ:-एक दुष्ट श्रादमी जब दूर से ऊंचाई से छलांग लगाता है तो खुद भी मरता है और दूसरों को भी मारता है; जैसे कि पहाड़ की चोटियों से गिरी हुई बड़ी शिला अपने भी टुकड़े टुकड़े कर डालती है और ( उसकी चोट में श्राथ हुए) अन्य का मी विनाश कर देती है ।। ४-३३७ ।। ङसः सु-हो-स्सवः ॥ ४-३३८ ।। अपभ्रंशे अकाराव परस्य छ सः स्थाने सु, हो, स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति । जो गुण गोवइ अध्पणा, पयडा करइ परस्सु ॥ तसु हऊँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्ज सुअणस्सु ॥ १॥ अर्थ:-अपभ्रश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के पकषचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर 'सु, हो और 'स्सु' ऐसे तीन प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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