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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ऊपर की गाथाओं में 'अम्हे = हम' और 'अम्हई = हम' ऐसा ममझाया गया है । 'हन का के उदाहरण यों हैं। अस्मान (अथवा)मः पश्यति = अम्हे देखाइ अथवा अम्हई देखद वह हमको अथवा हमें देखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पृथक् पृथक् कप से लिखने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही पद' अथान 'श्रम्हे और अम्हई प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचम में समान रूप से होते हैं। क्रम रूप से नहीं होते हैं । यों 'यथा-संख्य' रूप का अर्थात 'कम-रु.१' का निषेध करने के लिये ही 'वचन-भेद' शब्द का प्रांत के अन्त में उल्लेख किया गया है।४-३७६।। टा-डम्यमा मई ॥४-३७७ ॥ अपभ्रंशे अस्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति ।। टा। मई जाणि पिथ विरविग्रह कवि घर होह विश्रालि || णवर मिअड कुवि तिह तब निह दिणयह स्वय-गालि ।। ङिना । पई भई बेहिं वि रण-गयहिं ।। अमा। मई मेल्लन्तहो तुज्झ ।। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद् सर्वनाम शब्द में तृतीया विभक्ति के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'टा' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'टो' बोनों के स्थान पर 'मई ऐसे एक हो पद. रूप को नित्यमेव श्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे:-मया-मई-मुझसे, मेरे से । इसा प्रकार से इसो सर्व. नाम शब्द 'अस्मद् के साथ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय f' का सम्बन्ध होने पर मी भूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'कि दोनों हो के स्थान पर वही 'मई ऐसे पद-रूप को सा ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- मयि भई मुझ पर, मुझ में, मेरे पर, मेरे में,। वितीया विक्ति के संबंध में भी यही नियम है कि जिस समय में इस 'अस्मद्' सर्वनाम के शब्द के साथ में द्विनीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'अम्' को संप्राप्ति होती है, तबी मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'श्रम' दोनों ही के स्थान पर 'मई' ऐसे इस एक छो पद को हमेशा हा श्रादेश प्राप्ति हो जानी है। जैसे:माम् = मई मुझको, मेरे को, मुझे ।। 'टा' अर्थ को समझाने केलिये वृत्ति में जो गाथा दो गई है। उसका अनुवाद कम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-मया ज्ञात प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले । ___ केवलं ( =परं ) मृगाकोपि तथा तपति यथा दिनकरः पयकाले ॥ अर्थ:-हे प्रियतम ! मेरे से ऐसो समझा गया था कि प्रियतम के वियोग से दुखित व्यक्तियों के लिये संभ्या-काल में शायद कुछ मी सानवना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नहीं है। देखो ! चन्द्रमा मी संध्याकाल में उसी प्रकार से उम्साता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है। जैसा कि सूर्य
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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