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________________ [ ५१२ । * प्राकृत व्याकरण जस-शसोरम्हे अम्हई ॥ ४-३७६ ॥ अपभ्रंशे श्रस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येकम् अम्हे म्हई इत्यादेशौ भवतः ॥ अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्व भगन्ति ॥ मुद्धि ! निहालहि गया- यलु कइ जण जोह करन्ति ॥ १॥ अम्बणु लाइव जे गया पहिच पराया के वि ॥ अवसन सुश्रहिं सुद्दच्छिश्रह्नि जिवँ श्रम्ह तिबँ ते॥२॥ अम्हे देख । श्रई देक्खड़ । वचन भेदो यथासंख्य नियुच्यर्थः । अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद' सर्वनाम शब्द के साथ में प्रथमा विभक्ति के बहुचबाक प्रत्यय 'जस्' की संगप्ति होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'जम्' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'लम्हे' और 'अम्हइं' ऐसे दो पद रूपों की प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- वयम् = भ्रम्हे अथवा अम्हई = हम इसी प्रकार से दप्ती "अस्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन को बतलाने वाले प्रत्यय 'शस्' का संयोग होने पर इस 'असद' शब्द और 'शस्' प्रत्यय दोनों के स्थान पर सदा हो 'लम्हे' और 'अहं' ऐसे प्रथमा बहुवचन के समान ही दो पदरूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये । जैसे:-अस्मान् = (अथवा नः) = अहे चौर अम्ह= हमको अथवा हमें । गाथाओं का अनुवाद यों हैं: संस्कृत: - वयं स्तोकाः, रिपवः बहवः कातराः एवं भणन्ति || मृधे 1 निभालय गगन तलं, कतिजनाः ज्योत्स्नां कुर्वन्ति ॥ 10000 हिन्दी:- योद्धा युद्ध में जाते हुए अपनी प्रियतमा को कहता है कि: 'फायर लोग ऐसा कहते हैं कि हम थोड़े हैं और शत्रु बहुत है; (परन्तु ) हे मुग्धे हे प्रियतमे ! आकाश को देखो - श्राकाश की घोर दृष्टि करो, कि कितने ऐसे हैं जो कि चन्द्रज्योत्स्ना को बॉदनी को किया करते हैं ? ॥ १ ॥ अर्थात् चन्द्रमा अकेला ही चांदनी करता है । संस्कृतः — अम्लरवं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि ॥ sari न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ॥ २ ॥ अर्थः- जो कोई भी पर स्त्रियों पर प्रेम करने वाले पथिक प्रयात् याश्री प्रेम लगा करके (परदेश) चले गये हैं; वे अवश्य हो सुख की शैय्या पर नहीं सोते होंगे; जैसे हम ( नायिका विशेष ) सुख- शैय्या पर नहीं सोती हैं; जैसे हो वे म होंगे ||२||
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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