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________________ [ ५०६ ] हिन्दी :- अपनी नायिका से दूर ( विदेश में ) रहते हुए एक नायक उमड़ते हुए मेघ को संकेत करता हुआ अपनी मनोभावनाएं यों व्यक्त करता है कि - "यदि वह मेरी प्रियतमा मुझ से प्रेम करती है तो मेरे वियोग में वह अवश्य ही मर गई होगी और यदि वह जीवित है तो निश्चय हो समझो कि वह मुझसे प्रेम नहीं करती है, कारण कि वियोग-जनित दुःख का उसमें अमाव है। दोनों हो प्रकार की गतिर्वा मेरे लिये अच्छो हैं, इसलिये हे दुष्ट बादल ! ( व्यर्थ में हो ) क्यों गर्जना करता है ! तेरी गर्जना से न तो मुझे खेद उत्पन्न होता है, और न सुख ही उत्पन्न होता है ।। ४ । ४-३६७ ।। सौतुहु ।। ४-३६८ ॥ * प्राकृत व्याकरण * युष्मदः अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुहुं इत्यादेशो भवति || भमर मरुण कुणि राडर सा दिसि जोड़ म रोइ ॥ सा मालइ सन्तरि जसु तुहुँ मरहि विओोइ ॥ १. | अर्थः- अपभ्रंश भाषा में "सू-तुम" वाचक सर्वनाम " शुष्मद्" में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "श्रुघ्नद्" और प्रत्यय दोनों के स्थान पर "तुहुँ' पर रूप को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-म् = = तू | गाथा का अनुवाद य है: -- संस्कृतः — अमर 1 मा रुम झुणु शब्द कुरु, तो दिर्श विलोकय मा रुदिहि || सा मालती देशान्तरिता, यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे ।" 小 हिन्दी: – ६ भवरा ! ' रुण झुण-रुण झुण" शब्द मन कर; उस दिशा को देख और रुदन मत कर । वह मालती का फूल तो बहुत ही दूर है, जिसके वियोग में तू मर रहा है ।। १ ।। ४-३६६ ।। जस् - शसोस्तुम्हे तुम्हइ ॥ ४-३६६ ॥ अपभ्रंशे युष्मदी जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हई इत्यादेशौ भवतः ॥ तुम्हे तुम्हई जाह || तुम्हें तुम्हई पेच्छइ । वचन भेदो यथासंख्य निवृत्यर्थः ॥ अर्थ:- अपभ्रंश भाषा में "तू तुम" वाचक सर्वनाम "युधम" शब्द में प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में ''जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर मूल शब्द युष्मद्" और "जस्-प्रत्यय'' दोनों के स्थान पर "तुम्हे और तुम्हइ" ऐसे दो पद-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इस "युष्मद" शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में "शसू" प्रत्यय की संयोजना करने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "प्रत्ययशस्" दोनों के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के समान ही "तुम्हे और तुम्हइ" ऐसे हो दो पद-रूपों की प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- यूयम् जानीय तुम्हे जाणह अथवा तुम्हई जाणह = तुम जानते "
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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