SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्राकृत व्याकरण * [ २१७ ] いやいやいや、なかなかなかなかからないのか分からないのですが、 प्राप्तव्य प्रत्यय 'हस्प्रस' के स्थान पर प्रान प्राकृत रूप दहि में स्त्र' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिस्त रूप सिद्ध हो जाता है। मुखस्य संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचमान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८७ से 'ख' के स्थान पर 'ई' प्राप्ति तत्पश्चात ३-१० से षधी विभक्ति के एकवचन में 'स्म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है। गिरौ संस्कृत सप्रमी विभक्ति का पकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिम्मि होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.११ से और ३-१२४ के निर्देश से मूल प्राकृत रूप गिरि में सप्तमो विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्राप्तध्य प्रत्यक "न्दि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूत गिरीम सिद्ध हो जाता है। गुरी संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है । इसका प्राकृत रूप गुरुम्मि होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३.११ से और ३-१२४ के निर्दश से उपरोक्त गिरिम्मि रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गुरुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। दान अथवा दधनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नसालग रूप है । इसका प्राकृत रूप इहिम्मि होता है । इममें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द दधि में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इ व्यजन को प्राप्ति; तपश्चान् ३-११ से और ३.१२४ के निर्देश से प्राम प्राकृत रूप दाह में सप्तमी विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। मधुनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकत्रचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप महुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द मधु में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में ह' व्यश्चन की प्राप्ति; तत्पश्चान् ३-११ से और ३.१२४ के निर्देश से उपरोक्त प्राकृत रूप दहिम्मि के समान ही म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मछम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। 'गिरी' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या में की गई है। गुरू प्रथमा बहुवचनान्त रूप की सिकि इसी सूत्र ३.१२४ में ऊपर की गई है। चिन्ति क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० की गई है। गिरीओ रूप की सिद्धि एकवचनान्त अवस्था में तो सूत्र-संख्या 373 में की गई है तथा बहुवचनाम्त अवस्था में सूत्र-संख्या -१5 में की गई है। ___ गुरोः और गुरुभ्यः क्रम से संस्कृत पशमो त्रिभक्ति के एकवचनान्त और बहुवचनान्त पुल्जिग रूप है । इन दोनों का प्राकृत रूपान्तर एक जैसा हो-(समान रूप ही ) गुरुप्रो होता है। इसमें सूत्र
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy