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________________ * प्राकृत व्याकरण 2 [ ३३३ ] worsmometest+of+++++orfor++ko+000000000000000+kroorkworroroom वैकल्पिक प्राप्ति और ३.१७३ से कम में प्राप्तांग होम तथा हज्जा' में लोट लकार के तथा लि लकार के प्रथम पुरुष के पकवचन के अर्थ में प्राकृत में 'ज' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होऊजउ तथा होज्जाउ' रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय और चतुथ रूपों में प्राप्तांग 'हो' में सूत्र संख्या ३-७८ से तथा ३-१७ से लोट् लकार के और लिए लकार के अर्थ में प्राप्तव्य मभी प्रकार के पुरुष-बोधक प्रत्ययों के स्थान पर कम से तथ! वैकल्पिक रूप से केवल जज तथा जा' प्रत्ययों की हो श्रादेश-प्ति होकर 'होज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप होज' में उपरोक्त गति से हो अंग की प्रादिन होने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७३ से लोट् लकार के तथा विधि-लिङ प्रथम पुरुष के वचन के अर्थ में उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हो' रूप भी सिद्ध हो जाता है। हसति, हसास, हसाम, हसिष्यति, हसिष्यास, हसिष्यामि, हसत, और हसेन आदि संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत-काल के, प्राज्ञार्थक और विधि अर्थ : प्रथम-द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समान रूप से प्राकृत में 'हसेज्ज तथा हसेजा' रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से प्राकृत में प्राप्त मून हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१४७ से प्राप्तांग 'हसे' में मभो प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों बचनों में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'उज तथा ऊना प्रत्ययों को कम से एवं वैकल्पिक रूप से प्रादेश-प्राप्ति होकर 'हसज्ज तथा हसज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। वरते, त्वरसे, सरे, स्वरियते, त्वरिपसे, स्वरिष्ये, त्वरताम, परस्व. त्वर, वरते, स्वरेथाः और त्वरेय (आदि) रूप संस्कृत के कम से वर्तमानकाल के भविष्यम-काज क, प्राज्ञार्थक और विधि लिंग के प्रथम-द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक प्रारमनेपदी क्रियापद के रूप हैं । इन सभी रूपों के स्थान पर तथा अन्य प्रकारों के अर्थ में उपलब्ध अन्य सभी रूपों के स्थान पर भी प्राकृत में समान रूप से तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातुवर के स्थान पर प्राकृत में 'तुबर' की आदेश प्राप्ति; ४-२३६ से आदेश प्राप्त हलन्त धातु 'तुबर' में विकरणप्रत्यय ' की प्राप्ति; ३.१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ में प्राप्तांग 'तुबरे' में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों क दोनों वचनों में प्राप्तव्य सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर ज तथा उजा' प्रत्ययों की कम से एवं वैकल्पिक रूप से भावेश प्राप्ति होकर तुवरेज तथा सुधरेना रूप सिद्ध हो जाते हैं । ३.१७८ ॥ क्रियातिपत्तेः ॥३-१७६ ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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