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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५२६ ] mmoor0000000000000000000rrorroromanowrimoo0000000000000000000000m. अर्थ:-संस्कृत भाषा में 'क, ख, त, थ, प और फ' इतने अक्षरों में से कोई भी अक्षर यदि पद के प्रारंभ में नहीं रहा हुअा हा और संयुक्त भी अर्थात् किमी अन्य अक्षर के साथ में मो मिला हुआ नहीं हो एवं किसी भी म्बर के पश्चात रहा हुश्रा होता अपभ्रंश म 'क' के स्थान पर 'ग'; 'ख' के स्थान पर 'घ'; 'त' के स्थान पर द'; ' के स्थान पर 'ध'; 'प' के स्थान पर 'ब' और 'फ' के स्थान पर 'म' की प्रामि हो जाती है । ऐसी आदेश-प्राप्ति नित्यमेव नहीं होती है, परन्तु प्रायः करके हो जाती है। जैसे:-'क' क स्थान पर 'ग' प्राप्ति का उदाहरण:-शुद्धि-करः = सुद्धि-गरो-पवित्रता को करने वाला । 'ख' से 'घ' :-सुखेन - सुघे = सुख से । 'a' का द' :-अपिवितं जीविदु' - जीवन जिंदगी । 'थ' का धःकथितम्क-धदु' कहा हुआ । 'क' का 'ब' :-गुरु-पदम् गुरू-बयु-गुरु के चरण को । 'फ' का 'भ' :सफ म्-सभलु = सफल || वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर कम से यों हैं:संस्कृतः-यद् दृष्ट सोम-प्रदमा मसतीभिः हसितं निःशङ्गम् ।। प्रिय-मनुष्य-विक्षोभकर, गिल मिल, राहो ! मृगाङ्कम् ॥१॥ हिन्दी:--'राहु' द्वारा चन्द्रमा को ग्रहण किया जाता हुआ जब असती अर्थात काम भावनाओं से युक्त स्त्रियों द्वारा देखा गया, तब उन्होंने निडर होकर हंसते हुए कहा कि-'हे राहु ! प्रिय जनों में 'विक्षोम-घबराहट' पैदा करने वाले इस चन्द्रमा को तू निगल जा-निगल जा । इस गाथा में 'विक्षोभकर' के स्थान पर 'विच्छोह-गरू' पद का रूपान्तर करते हुए 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है॥१॥ संस्कृतः-अम्ब ! स्वस्थावस्थः सुखेन चिन्त्यत्ते मानः॥ प्रिये दृष्टे व्याकुलत्वेन ( हल्लीहल ) कश्च तयति आत्मानम् ॥ २ ।। हिन्दी:-हे माता! शान्त अवाथा में रहे हुए व्यक्तियों द्वारा ही सुख पूर्वक प्रात्म-मन्मान का विचार किया जाता है। किन्तु अब प्रियतम दिखाई पड़ता है अथवा उसका मिलन होता है तब भावनाओं के उमड़ पड़ने के कारण से उत्पन्न हुइ व्याकुलता की स्थिति में कौन अपने ( सन्मान) का सोचता है-विचारता है ? ऐसी स्थिति में लो हमलने की उतावलता-हल्लोइलपना रहता है । इस गाथा में 'सुख्थेम' के स्थान पर 'सुधि' का रूपान्तर करते हुए 'ख' अक्षर के स्थान पर 'घ' अक्षर की शाम का बोध कराया गया है ॥२॥ संस्कृतः-शपथं कृत्वा कथितं मया, तस्य परं सफल जन्म 11 यस्य न त्यागः, नच आग्भटी, नच प्रमृष्टः धर्मः ।। ३ ॥ हिन्दी:-जिसने न सी त्याग-वृत्ति छोड़ी है, न सैनिक-वृत्ति का हो परित्याग किया है और न विशुद्ध धर्म को ही छोड़ा है; उसी का जन्म विशिष्ट रूप से सफल है; ऐम। बात मुझसे शपथ पूर्वक कही
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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