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________________ [ ५३० } * प्राकृत व्याकरण, गई है। इस गाथा में 'शपथ के स्थान पर 'सवधु'; 'कश्चित' के स्थान पर 'कषिदु' और 'सफलं' के स्थान पर 'समल' लिख कर यह सिद्ध किया है कि 'प' के स्थान पर 'ब'; 'थ' के स्थान पर 'ध' और 'त' के स्थान पर 'द' तथा 'फ' के स्थान पर 'म' की प्राति अपभ्रंश भाषा में होती है ।। ३ ॥ प्रश्नः-'क-ख-त-य-प-फ' अक्षर पद के प्रादि में नहीं होने चाहिये; ऐसा विधान क्यों किया गया है? उत्तरः-यदि उक्त अक्षरों में से कोई भी अक्षार ५६ के आदि में 41 सुभा होगा हो पनके स्थान पर भादेश रूप से प्राप्तव्य अक्षर 'ग-ध-द-ध-ब-म' को आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:-कृत्याकप्पिगुन्करके; यहाँ पर 'क' वर्ण पद के बाद में है, अतः इसके स्थान पर 'ग अक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। यों आदि में स्थित अन्य शेष वक्त अक्षरों की स्थिति को भी ममझ लेना चाहिये। प्रश्न:-यदि 'क-ख-त-थ-प-फ' अचार स्वर के पश्चात रहे हुए होंगे, तभी इनके स्थान पर क्रम से ग-घ द-ब-ब-म' अक्षरों की कम से प्राप्ति होगी; ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि ये स्वर के पश्चात नहीं रहे हुए होंगे तो इनके स्थान पर आदेश-रूप से प्राप्तव्य अक्षरों को आदेश प्राप्ति भी नहीं होगी, ऐसी अपभ्रंश-भाषा में परंपरा है; इस लिये स्वर से परे होने पर ही इनके स्थान पर उक्त अक्षरों को प्रादेश-प्राप्ति होगी; ऐसा समझना चाहिये । जैसे:-मगाक्कम -- मयकु = चन्द्रमा को । इस उदाहरण में हलन्त व्यखम '' के पश्चात 'क' वर्ग प्राया हुया है जोकि 'स्वर' के पर वर्ती नहीं होकर 'व्यसन' के पर वर्ती है इसलिये क' के स्थान पर 'ग' वर्ण की श्रादेश-प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उक्त शेष अक्षरों के सम्बन्ध में मो 'स्वर-परवर्तिख' के सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिये। प्रश्न:--संयुक्त अर्थात हलन्त रूप से नहीं होने पर ही 'क-य-त-2-1-फ' के स्थान पर 'ग-ध-द. ध-ब-म' व्यञ्जनों की क्रम से आदेश प्राप्ति होती है; ऐमा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि 'क-ख-त-थ-५-फ' व्यन्जन पूर्ण नहीं है अर्थात बर से रहत होकर अन्य किसी दूसरे व्यजन के साथ में ये अक्षर रहे हुए होंगे तो इनक स्थान पर 'ग-घ-द-ध-ब-म' व्यन्जनों को कम से प्रामध्य बादेश प्राप्ति नहीं होगी; ऐसो अपभ्रंश भाषा में परंपरा है इसलिये 'असंयुक्त स्थिति' का उल्लेख और मद्भाव किया गया है। जैसे:-ए करिमन श्रष्णि श्रावण: = एकहि अक्षिहि सावणुएफ आँख में श्रावण ( अर्थात्त आँसुओं की झड़ी है। इस उदाहरण में 'क' के स्थान पर 'ग' वण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों शेष अन्य उक्त ध्यजनों के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये । पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३५७ में प्रदान की गई है। वृत्ति में अन्य कार ने 'प्रायः' अध्यय का प्रयोग करके यह भावना प्रदर्शित की है कि इन उक्त ध्यञ्जनों के स्थान पर प्राप्तव्य व्यञ्जनों को पादेश-प्राप्ति कभी कभी नहीं भी होती है। जैसे कि:
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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