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________________ [ ५२८ ] % 2प्राकृत व्याकरण * Commumorous+000000000000000000000000000orrotso..roserorror00000 हिन्दी:-समुद्र का जल अति मात्रा वाला होता है और उसका विस्तार भी अत्यधिक होता है; किन्तु थोड़ी देर के लिये भी थोड़ी सो प्यास मी मिटाने के लिये वह समर्थ नहीं होता है। फिर भी निरर्थक गर्जना करता रहता है; (अपनी महानता का हराना रनाहै) इस गाभा में 'धु तुपट' गेमा जो क्रियापद पाया है, वह देशज है । यों अपनश भाषा में अनेकानेक देशज पदों का प्रयोग किया गया है, जिन्हें स्वयमेव समझ लेना चाहिये ॥४-३६५ ।। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-न-त-थ-प-फा, ग-घ द-ध-ब-भाः॥ ४-३६६ ॥ अपभ्रशेऽपदादौ धर्तमानानां स्वरात परेषामसंयुक्तानां क ख त थ प फां स्थाने यथा संख्यं म पदप भाः प्रायो भवन्ति ॥ कस्य मा । जं दिडउं सोम-गहणु असइहिं हसिउ निसंक ॥ पिन-माणुस-विच्छोह-गरु गिलिगिलि राहु मयंकु ॥१॥ खस्य घः। अम्मीए सत्यावस्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु ।। पिए दिढे हलाहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २ ॥ तथपफानां दधषभाः। सयधु करेपिणु कधिदु मई तसु पर सभलउँ जम्मु ॥ जासु न चाउ न चारहडि, न य पम्हट्ठउ धम्मु ।। ३ ।। अनादाविति किम् । समधु करेपिपणु । अत्र कस्य गत्वं न मवति ।। स्वरादिति किम्। गिलिगिलि राहु मयङ्क ।। असंयुक्तानामिति किम् । एकहि अक्सिहिं सावणु ॥ प्रायो धिकारात् क्वचिन्न भवति । बइ केइ पावीसु पिउ अकिया कुछ करीसु ॥ पाणीउ नबइ सरावि जिवे सव्वङ्ग पइ सीसु ॥ ४ ॥ उभ कणिमारु पफुलिउ कश्चरण-कन्ति पयासु ॥ गौरी-अयय-विणिज्जनउ नं सेवह वण-मासु ॥५॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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