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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५२७ ] 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हिन्दी:-प्रेमी के दो कदमों का अनुकरण करने मात्र से ही परिपूर्ण प्रेम निष्पन्न हो जाता हैप्रेम-भावना जागृत हो जाती हैं और ऐसा होने पर जो जल उष्ण प्रतीत हो रहा था और जिस चन्द्रमा की किरणे उष्णता उत्पन्न कर रही थी; थे तत्काल ही निवृत्त हो गई अर्थात् प्रेमी के मिलते ही परम शीतलता का अनुभव होने लग गया। इस गाथा में 'अनुगभ्य' क्रियापद के स्थान पर देशज भाषा में उपलब्ध 'अभड वंचिउ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।॥ ३॥ संस्कृत:--हृदये शन्यायते गौरी, गगने गर्जति मेघः ।। ___ वर्षों-रात्रे प्रवासिकानां विपर्म संकटमेतत् ॥ ४॥ हिन्दी:- प्रियतमा पत्नी को छोड़ करके विदेश की यात्रा करने वाले ) प्रवासी यात्रियों को वर्षा-कालोन रात्रि के ममय में इस भयंकर संकट का अनुभव होता है जबकि हृदय में तो गौरी ( का वियोग-दुःख ) कांटे के ममान कसकता है-दुःख देता है और आकाश में ( उस दुःख को दुगुना करने वाला ) मेघ अर्थात बादल गर्जना है। इस गाथा में 'शल्यायते' संस्कृत-क्रियापद के स्थान पर देशज क्रियापद 'खुडुक्का' का प्रयोग किया गया है और इसी प्रकार से 'गर्जति' संस्कृत धातु-रूप के बदले में देशज-धातु-रूप 'घुडुक्काइ' लिखा हैजोकि ध्यान देने के योग्य हैं ।। ४ ॥ संस्कृत:-अम्ब ! पयोधरी वज्रमयी नित्यं यो सम्मुखी विष्ठतः॥ मम कान्तस्य समराङ्गणके गज-घटा: भक्तु यातः॥ ५ ॥ हिनी:-हे माता ! रण-क्षेत्र में हाथियों के समूह को विदारण करने के लिये जावे हुए-गमन करते हुए-मेरे प्रियतम के सम्मुख सदा ही जिन वनमम कठार दोनों स्तनों को (स्मृति ) सम्मुख रहती है; (इस कारण से उसको कठोर वस्तु का भजन करने का सदा ही अभ्यास है और ऐसा होने से हाथियों के समूह को विदारण करने में उन्हें कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती है ॥ ५॥ संस्कृतः-पुत्रेण जातेन को गुणः, अवगुणः कः मृतेन ॥ यत् पैतृकी ( बप्पीकी) भूमिः आक्रम्यते ऽपरेण ॥ ६॥ हिन्दी: यदि ( पुत्र के रहते हुए भी ) बाप-दादाओं को अर्जित भूमि शत्रु द्वारा दगली जाती है-अधिकृत कर लो जाती है तो ऐसे पुत्र के उत्पन्न होने से अथवा जीवित रहने से क्या लाभ है। और (ऐसे निकम्मे पुत्र के) मर जाने से भी कौन सी हानि है ? (निकम्मे पुत्र का तो मरना अथवा जीवित रहना दोनों हो एक समान ही है। इस गाथा में 'बप्पीकी और धम्पिजह' ऐसे दो पदों की प्राप्ति देशज भाषा से हुई है जो कि भ्यान में रखने योग्य है ।।६।। संस्कृता-तत तावत् जलं सागरस्य, स तावन् विस्वारः ।। तृषो निवारणं पलमपि नैव, पर शब्दायते असारः ॥७॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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