SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३८. ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * motoriorses.instrendronservoidsssssssroorkestasoosteronorseedso.00.. ___ अर्थः-'निर' उपसर्ग सहित मंस्कृत धातु 'पद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से निव्वल' धातुरूप की आदेश पाप्ति होता है। वैकल्पिक पक्ष होने से निपज' को भाप्राप्ति होगी । बदाहरण इम प्रकार है:-निष्पद्यते-निखलई अथवा निष्पजइ = वह निम्न होता है वह सिद्ध होता है अथवा बह बनती है ॥४-१२८ ॥ विसंवदे विअट्ट-जिलोट-फंसाः ॥ १-१२६ ॥ विसंपूर्वस्य घोते त्रय प्रादेशा या भवन्ति ।। विप्रथइ । विलोट्टई । फंसइ । विसंवयइ ।। अर्थ:-बि' उपपर्ग तथा 'स' उपसर्ग, इस प्रकार दोनों उपतगों के साथ संस्कृत-धातु 'बद्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों को आदेश प्रानि होना है। जो कि इस प्रकार हैं:(१) विवाह, (२) बिलाट्ट और (३) फैन । वैकल्पिक पक्ष होने मे 'विसंत्रय' को भ, प्राप्ति होगा। उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं:-विसंवदति = (१) विअट्टइ, (२) विलोट्टइ, (३) कंसद और (४) विसंषयः = वह अप्रमाणित करता है अथवा वह अमत्य माबित करता है ।। ४-१२६ ।। शदो झड-पखोडौ ॥४-१३०॥ शीयतेरतावादेशी भवतः ।। झडइ । पक्खोडइ ।। अर्थ:--'झड़ना, टप स्ना' अर्थक संस्कृत-धातु शद्' के स्थान पर प्राकृत माषा में दो धातु-रूपों की श्रादेश पानि होती है। वे यों हैं:-१५) झड और (२) पक्वोब । बाहरण इस प्रकार हैं:--शीयते - अडड़ और परपोडवह झड़ता है. वह टपकती है, वह धीरे धीरे कम होती है ।। ४-१३०॥ आक्रन्देहरः ॥४-१३१ ॥ श्राक्रन्देगाहर इत्यादेशो वा भवति ॥ णीहरइ । अक्कन्दइ ।। अर्थ:- श्राफन्दन करना, चिल्लाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्रा + क्रन्दु' के स्थान पर प्राकृतभाषा में काल्प मे शोहर' धातु-काप की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से मान्द भी होगा। जसे:-आजन्दति = णीहरइ अथवा अक्कन्दप - वह अाकरन करती है अथवा वह चिल्लाता है ।।४-१३१।। विदेर-विसूरौ ॥ १-१३२ ॥ विदेरेताबादेशौ वा भवतः । जूरइ । विनरइ । खिज्जइ ।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy