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________________ [ २०४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * +000+ko+ko+torrectroenteronesirearrormwaretworrisonkskriworkerson सद्भाव होने से' 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत कुन्दत के अर्थ में संकृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'तत' की प्राकत में भी इसी अर्थ में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १.१७७ से उक्त प्राप्त प्रायय 'त' में स्थित हलन्न 'त्' का लोप; ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव और ३.४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' का प्राक्कत में लोप एवं ३.१२ से उक्त प्राप्त एवं लुप्त जम्' प्रत्यय के कारण से पूर्वोक्त ठन' म स्थित अन्त्य लम्ब स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा की प्राप्ति होकर 'ठिा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की मद्धि सूत्र संख्या १-२३ में की गई है । ३.६३० ।। स्तिरिणः ॥ ३-१२१ ॥ जम्-शस् भ्यां सहितस्य ः तिष्णि इत्यादेशो भवति ।। तिष्णि ठिा पेच्छ वा ॥ अर्थः- संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'नि' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जम्' प्रत्यय परे रहने पर नथा द्वितीया विभक्त :, चित प्रकार दिने का दोग मानों विभक्तियों में समान रूप से 'मूल शब्द और प्रत्यय दोको केही स्थान पर तिगिरण' रूप का श्रादेश. प्राप्ति होती है। जैसे प्रथमा के बहुवचन में 'य.' का रूपान्तर 'तिएिण' और द्वितीया के बहुवचन में 'त्रीन्' का रुपान्तर भी 'तिरिण' ही होता है। वास्थात्मक उदाहरण इस प्रकार है-प्रयः स्थिताःनिरिण ठिमा अर्थात तीन (व्यक्ति) ठहरे हुए हैं । त्रीन् पश्यनिरिण पेच्छ अर्थात् तीन को देखो : यो प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत में एक हो रूप तिरिण' होता है। त्रयः मंग्कृत प्रश्नमा बहुवचनान्त संख्यात्मक सपनाम (और विशेषण) म.प है। इसका प्राकृत रूप निरिण' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-३२१ से प्रथमा ।यभारत के बहुवचन में सस्कृतीम प्रामण्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में प्रालि होकर 'मूल शब्द त्रि' और 'जाम' प्रत्यय' दोनों के स्थान पर 'तिरिण' रूप की श्रादेश-प्राप्ति होकर तिणि रूप मिद्ध हा जाता है। "ठिा कियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१२० में की गई है। जिसमें सूत्र संख्या ३-१३८ का इम शब्द साधनिका में अभाव जानना; क्योंकि वहां पर द्विवचन का रूपान्तर सिद्ध करना पड़ा है। अर्थाक यहां पर 'बहुवचन' का ही सदुभाव है । शेष सानिका में :क्त सभी सूत्रों का प्रयोग जानना । श्रीन - तिरिण की साधनिका भो 'यः = सिरिज' के समान ही सूत्र-संख्या ३.१२१ के विधान से उपरोक रीति से समझ लेनी चाहिये। 'पंछ' यापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.१ में की गई है । ३.५२३ ।। चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि ॥ ३-१२२ ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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