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________________ ८४ ] *ग्राकृत व्याकरखा * *1400Netrotro64041storrrrrrrror0000006storeo100000000000+ वृत्ति से पंचमी विकास के एकवन में संताल प्रत्यय 'सि के स्थान पर क्रम से 'प्रो-ज-हि-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप-(२ से ५ तक) भत्ती , मनूउ, अनहि, और भत्तू हिन्ती सिद्ध हो जाते हैं। छ8 से दशवं रूपों में अर्थात- (मतु' :=)मत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्ती और भसारा में सूत्र-संख्या २-३६ से 'र' का लाप; २.८६ से लाप हुए र' के पश्चात् रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स्' को प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्द 'भ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' प्रादेश को प्राप्ति; यों प्राप्त-अंग भत्तार' में ३-१२ से अन्त्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में कम से-'ओ-उ-हि-हिन्तो और लुक् प्रत्ययों की प्रादिन होकर कम से भत्ताराओ भत्ताराज, भत्ताराहि भसाराहिन्ती, एवं भत्तारा रूप सिद्ध हो जाते हैं। भर्चः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मत्तणी, मसुम और भत्तारस्त होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २.७६ से 'र' का लोप; ५-८६ से 'त' को द्वित्त्र 'त' को प्राप्ति ३-४४ से मूल शनाय अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' श्रादेश की प्राप्ति और ३.२३ से प्राप्तांग 'भत्त' में षष्ठी विमक्ति के एकवचन संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'जो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(भतु :-)भत्तस्स में भस्' अंग की सानिका ऊपर के समान; और ३-१० से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग भतु' में पठी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुस्त सिद्ध हो जाता है। तृतीय कप-(मतु: %) मशारस में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-१ 'त्' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्दाध अन्त्य '' के स्थान पर 'श्रार' आदेश की प्राप्ति और ३-१० मे प्राप्तांग भतार' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भत्ताररस सिद्ध हो जाता है । भद्देषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है ! इसके प्राकृत रूप मत्सु और भत्तारसु होते हैं। इनमें सं प्रथम रूप में *भत्त' अंग की साधनिका ऊपर के समान; ३-५६ से प्राप्तांग भत्तु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति और ४-४४ से सप्तमी विमक्ति के बहुषचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप' की प्राकृत में भी प्राप्ति; एवं १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'सुप.' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प' का लोप होकर प्रथम रूप भत्तूसु प्सिस हो जाता है। द्वितीय रूप (मत पु) भत्तारेसु में 'भत्तार' अंग की साधनिका ऊपर के समान; ३-२५ से प्राप्तांग भतार' में स्थित अन्त्य स्वर 'च' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष सापनिका की प्राप्ति
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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