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________________ [ ६४ ] विग्याइले पु. (विद्यापर) एक जाति का देव; २९.२ | " पइट बि.(प्रविष्ट,घुमा हुआ, ३४०, ४३२, ४३३ । विरह अक. (गुप्यति । (भनक्ति) व्याकुल होता है तोड़ता | " पइट्टर वि (उपवेशितः) जमा हुमा, बंटा हुआ ४५४ । है; १०६, ५० " पट्रि वि. (प्रविष्ठा) प्रवेश पाई हुई. ३३.। विरमालइ सक (प्रतीक्षते राह देखता है । यह अक (विसंवनि) वह असत्य साबित होता है, विरल वि. (बिरल) कोई कोई; कुछ एक; ३४१ । विरला वि. (विरलाः । , ४१२ । विगठि स्त्री (विप - ग्रन्थिविष की गांठ, ४.० ४२२ । विरलई सक (तनति) विस्तार करता है। फैलाता है;१३७ | विसट्रा अफ (दति) फटता है, टुटना है, १७६ । विरह पु(विरह) वियोग जुदाई ४११.४५१,५४४। विसष्ठत वि. (विसंष्ट्रला) अवस्थित, पथ-भ्रष्ट, विरहु पु (विरहः) ४२३ । । बिरहा (विरहस्य) बियोग की, जुदाईकी ४३२।। विमम वि. (विकास। जो गम न हो, अठोर, ३५०, विरहिअह वि (विरहितानाम् वियोग बालों के रहिन वानों के, ३७७, ४०१ । 'विममो वि (विषमः) दारण, कठोर, अनमान, ३०९। विराइ अक (बिलीयते नष्ट होता है, पिघलता है ५६ । " विममी धि (विषमः) समान नहीं, ४०६। बिरबह सक, (विरेवमति) मल को बाहिर निकालना " विममा वि (विषमा) " " विसहारिणी वि (विप-हारिणा : जलधारिणी) जहर दूर विरोलइ सक (मध्नाति ) दिलोडन कर है, १२१ । करने पाली, ४३० । विलम्बु अक. (बिलम्बस्व) तू देरी कर. ८७ । विसाश्री पु(विपादः, खेद, दुःख, विलासिंणीउ स्त्री ( विलासिनीः) आनन्द देन वानी, " विभाउ पु. (विषाद:) मानसिक-शान, ३८५, ४१८ । विसामो न. (विषाणः) सींग, हाथी दाल, २०६ विलिज्जइ प्रेर (विलीयते) लजा की जाती है बाट होता विमा वि (बिसाचितम्) सिद्ध किया हुआ, ३८६, ४११ विसूरइ अन (खिद्यति खेद अनुभव करता है, १३२, ३४० विलुम्पा सक, (कांक्षति) इच्छा करता है १९२ विसूहबक खिद्यः) तू वेद अनुभव करता है ४२२ । २८१ । विलोट्टइ अक (विसवदति) बह असत्य साबित होता है. विस्नु पु. (विष्णुम् ) भगवान् विष्णु को विस्मये पु.(विस्मये। आश्चर्य में २८९। विवह श्री (विपद) वित्ति, दुःख. विलिश्रवि (बिनित) घबराया हुआ, विवह अक (विवर्तते) वह घसना है. गिर पडता है, विस्वी पु.(विभवः) धन-सम्पत्ति, विहवं .(विभवे बन- त्ति मे, ४२२ । विवरीरी वि ।जिपरीता) उल्टी, अनुशल नहीं १२४ , बिहवि पु. विभवे). ४१८। चिहन्ति प्रक (विकसन्ति खिलते है पु.लते हैं. ६५५ । विहाणु पु (दे.) (विभातम्) प्रमाल, प्रात:काल, ३३०, " पगिविट्ठा बि (परिनिष्ट :) (युद्ध में सम्मिलित हुए ६२, ४२०। ४०९ । विद्धि पु. (विधि) भाग्य, ब्रह्मा, ३८५ ३८७, ४१४ । "पविसामि सक (प्रविशामि । मैं प्रवेश करता हूँ | विहार अक प्रतीक्षते) राह देखता है, १९३ । २३८ । विहह अक बिभेति। डरता है, २३८ । "पविशामि सक. ( प्रविशामि) में प्रवेश करी हूं. वाडा सक साडयति. मानता है। २७ । " पविसईसक (प्रविशलि। वह प्रवेश करता है, १८३ । बीजह सक (वीजयति) हवा करता है, पख। करता है, पविशदु सक. (विशतु) वह प्रवेश करे, ३०२। पवीसह सक (प्रविशति) वह प्रवेश करता है, ४४४। [वीण स्त्री. (वीणा) बाजा विशेष, " पइसीमु सक, (प्रवक्ष्यामि) प्रविष्ट हो जाऊगी, ३९६ । । वीलयिणे पु. (वीरजिनः) महावीर स्वामी, २८८ ।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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